Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेrsन्द्रिका टीका २०६ ४०५ सू०१ समस्काय स्वरूपनिरूपणम्
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तमस्कायः खलु भदन्त ! कुत्रः समुत्थितः कुत्र संनिष्ठितः ? गौतम ! जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य बहिः तिर्यगसंख्येयान् द्वीप समुद्रान् व्यतिव्रज्य अरुणवरस्य द्वीपस्य बाह्याद वेदिकान्ताद अरुणोदकं समुद्रं द्वाचत्वारिंशद्योजन सहस्राणि अवगाह्य उपरितनाद् जलान्ताद् एकप्रदेशिकया श्रेण्या - अत्र खलु तमस्कायः समुत्थितः, सप्त
काय ऐसी शुभ होती है कि वह देशको एक भाग को प्रकाशित करती है । और कितनी पृथिवीकाय ऐसी होती है जो वह देश को एक भाग को प्रकाशित नहीं करती है । इस कारण मैंने ऐसा कहा है कि तमस्काय पृथिवीरूप नहीं है अपू-जलरूप है । (तमुक्काए णं भंते ) कहि समुट्ठिए, कहिं संनिहिए ? ) हे भदन्त ! यह तमस्काय कहां से प्रारंभ होता है ? और कहां इसका अन्त होता है ? ( गोयमा ) हे गौतम! (जंबूदीवरस बहिया तिरियमसंखेजे दीवस मुद्दे बीई वहता, अरुणवरस्स दीवस बाहिरिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगहिता उवरिल्लाओ जलताओ एगपएसियाए सेढीए एत्थणं तमुक्काए समुट्ठीए ) जंबूद्वीप के बाहिर तिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन - पार करने के बाद अरुणवर द्वीप आता है। इस अरुणवर द्वीप को चारों ओर से अरुणोदय समुद्र घेरे हुए है । इस समुद्र की बाहिरी वेदिका के अन्त से लेकर अरुणोदय समुद्र में ४२ हजार योजन आगे जाने पर उपरितन जलान्त आता है । इस उपरि
( हेहीप्यमान ) होय छे हैं ते हेशने ( मे लागने ) प्राशित उरे छे, मने કેટલીક પૃથ્વીકાય એવી હોય છે કે જે ક્ષેત્રના એક ભાગને પણ પ્રકાશિત કરતી નથી. હું ગૌતમ તે કારણે મે' એવું કહ્યુ છે કે તમસ્કાય પૃથ્વીપ નથી પણ જળરૂપ છે.
(agmg or' x'à ! xfg' agfè̟y afg' &'fafgg ? ) 3 Herd ! 241 તમસ્કાયના પ્રારભ કયાંથી થાય છે અને કયાં તેની સમાપ્તિ થાય છે ?
( गोयमा ! ) हे गौतम ! ( जंबूदीवस बहिया तिरियमसंखेज्जे दीवस मुद्दे वीवइत्ता, अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्ला ओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं जोयणसहस्माणि ओगाहिता उवरिल्लाओ जलताओ एगपएसियाए सेढोए एत्थणं तमुक्काए समुट्ठीए ) ४ द्रीपनी महार तिरछा असण्यात द्वीप समुद्रोने पार કર્યાં પછી અરુણવર દ્વીપ આવે છે. આ અરુણવર દ્વીપને ઘેરીને ચારે તરફ અરુણે!દય સમુદ્ર રહેàા છે. તે સમુદ્રની બહારની વેદકાના અન્તથી લઇને અરુણેાદય સમુદ્રમાં બેતાલીસ હજાર યોજન આગળ જતાં ઉપરિતન જલાન્ત
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श्री भगवती सूत्र : ४