Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमैयचन्द्रिका टी० श० ६ ० ३ सू० ४ कम स्थितिनिरूपणम् ९१७ कदाचिद् वेदनीय कर्म बध्नाति, कदाचिन्न बध्नाति, पृथिव्यादिकः अभाषकः बध्नाति, अयोगी, सिद्धध अभाषको न बध्नाति, अत आह-' भननया' इति । अथ परीतद्वारमाश्रित्य गौतमः पृच्छति - ‘णाणावरणिज्जं णं भंते कम्मं किं परित्ते बंधइ अपरित्ते बंध णोपरित्त-णोअपरित्ते बंधइ ' हे भदन्त ! ज्ञानावरणीयं खलु कर्म किं परीतो बध्नाति ? अपरीतो बध्नाति ? नोपरीत-नोअपरीतो बध्नाति ? भगवानाह-'गोयमा ! परित्त भयणाए ' हे गौतम ! परीतः प्रत्येकशरीरवनस्पतिकायः अल्पसंसारो वा भजनया ज्ञानावरणं कदाचिद् बध्नाति, हैं और कदाचित् नहीं बांधते हैं-ऐसा जो कहा गया है-सो उसका अभिप्राय ऐसा है कि जब अभाषकपद अयोगी और सिद्धों को रखा जाता है तब वे वेदनीय कर्म का बंध नहीं करते हैं। और जब विग्रहगत्यापन्न पृथिव्यादिक जीवों को ग्रहण किया जाता है तब वे वेदनीय कर्म का बंध करते हैं। इसी कारण यहां पर भजना प्रकट की गई है। ____ अब परीतद्वार को आश्रित करके गौतम प्रभु से पूछते हैं कि(णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ ? णो परित्त णो अपरीत्ते बंधइ १) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म को क्या परीत जीव बांधता है कि अपरीत जीव गंधता है-अथवा जो जीवन परीत है और न अपरीत है वह बांधता है ? इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि (गोयमा) हे गौतम ! (परित्ते भयणाए ) परीत प्रत्येक शरीरवाला वनस्पति कायिक जीव अथवा अल्पसंसार वाला
ક્યારેક બાંધે છે અને કયારેક બાંધતે નથી આ કથનને ભાવ નીચે પ્રમાણે છે-અભાષક અગી અને સિદ્ધ પરમાત્માએ વેદનીય કર્મનો બંધ કરતા નથી, પણ વિગ્રહ ગતિમાં રહેલા પૃગીકાય આદિ જી વેદનીય કમને બંધ કરે છે.
હવે પરીત દ્વારની અપેક્ષાએ ગૌતમ સ્વામી મહાવીર પ્રભુને નીચેનો प्रश्न ५छ छे-(णाणावरणिज्ज णं भंते ! कम्म' किं परित्ते बधइ ? अपरित्ते बधइ ? णो परित्त-णो अपरित्ते बधइ ? ) 3 महन्त ! ज्ञाना१२jीय भशु પરીત ( પ્રત્યેક શરીરવાળે વનસ્પતિકાય જીવ અથવા અપ સંસારવાળો જીવ) જીવ બાંધે છે? કે અપરીત જીવ બાંધે છે? કે નેપરીત જીવ બાંધે છે? કે નેઅપરીત જીવ બાંધે છે ?
तेन वाम भापता महावीर प्रभु ४ छ-(गोयमा ! परित्ते भयणाए) હે ગૌતમ! પરીત જીવ (પ્રત્યેક શરીરવાળે વનસ્પતિકાયિક જીવ અથવા
श्री. भगवती सूत्र:४