Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
-
-
भगवतीस्त्रे भदन्त ! कर्म किं परीतो बध्नाति ? अपरीतो बध्नाति ? नोपरीत-नोअपरीतो बध्नाति ? गौतम ! परीतो भजनया, अपरीतो बध्नाति, नोपरित-नोअपरीतो न बध्नाति, एवम् आयुष्कर्जाः सप्त कर्मप्रकृतयः, आयुष्क परीतोऽपि, अपरीतोऽपि भजनया, नोपरीत-नो अपरीतो न बध्नाति । ज्ञानावरणीयं खलु भदन्त ! है। (णाणावरणिज्जं णं भंते ! कम्मं किं परित्ते बंधइ, अपरित्ते बंधइ, णो परित्त णो अपरित्ते बंधइ ? ) हे भदन्त ! ज्ञानावरणीय कर्म का बंध परित्त-प्रत्येक शरीर वाला जीव, अथवा जिसका संसार निकट है ऐसा भव्यजीव करता है ? कि अपरित्त जीव करता है ? अथवा नो परित्त जीव करता है कि नो अपरित्त जीव करता है ? (गोयमा) हे गौतम ! (परित्ते भयगाए, अपरित्ते बधइ, णो परित्त णो अपरित्ते न बंधा) जो परित्त जीव है वह ज्ञानावरणीय कर्म का बंध भजना से करता हैअर्थात् करताभी है और नहीं भी करता है । अपरित्त जीव ज्ञानावरणीय कर्म का बंध करता है। जो जीव नो परित्त और नो अपरित्त हैं वे इमका बंध नहीं करते हैं । (एवं आउगवज्जाओ सत्तकम्मपयडीओ) इसी तरह का कथन आयुकर्म को छोडकर शेष सातकर्मप्रकृतियों के बंध करने के विषय में भी जानना चाहिये। (आउयं परित्तो वि अपरित्तो वि भयणाए, णो परित्त णो अपरित्तो न बंधइ ) आयु कर्म
(णाणावरणिज्जं णं भते ! कि परित्ते बधइ, अपरित्ते बधइ, णो परित्तजो अपरित्ते बधइ ? ) 3 महन्त ! ज्ञान॥१२६४ीय भनी म परित्त (प्रत्ये। શરીરવાળે જીવ, અથવા જેનો સંસાર પરિર-મર્યાદિત છે એ ભવ્ય જીવ) કરે છે ? કે અપરિત જીવ કરે છે ? કે નો પરિત્ત જીવ કરે છે? કે ને અપરિત્ત જીવ કરે છે?
(गोयमा ! ) है गौतम ! ( परित्ते भयणार, अपरित्ते वधइ. णो परित्त णो अपरित्ते न बधइ) २ परित्त ०१ छे ते ज्ञानाय भान વિક કરે છે–એટલે કે એવો જીવ જ્ઞાનાવરણીય કર્મ બાંધે છે પણ ખરો અને નથી પણ બાંધતે, અપરિત્ત જીવ જ્ઞાનાવરણીય કમને બંધ કરે છે, પરંતુ નો પરિત્ત જીવો અને ન અપરિત જીવો જ્ઞાનાવરણીય કર્મનો બંધ કરતા નથી. ( एवं आउगवज्जाओ सत्त कम्मप्पयडीओ ) आयु सिवायनी साते प्रकृ. तियानो मध ४२१ाना विषयमा ५५य से प्रभारी सभा (आउयं परित्तो वि, अपरित्तो वि भयणाए, णो परिस्त णा अपरित्तो न बधइ ) परित्त मन અપરિસ જી આયુકમને બંધ બાંધે છે પણ ખરાં અને નથી પણ બાંધતા,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪