Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्ने असंयताः इति वक्तव्यं स्यात्? गौतम ! नायमर्थः समर्थः, निष्ठुरवचनमेतत् । देवाः खलु भदन्त ! संयताऽसं यता इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! नायमर्थः, समर्थः असद् भूतमेतद् देवानाम्, तत् किंपुनः खलु भदन्त ! देवा इति वक्तव्यं स्यात् ? गौतम ! देवा नोसंयता इति वक्तव्यं स्यात् ।। सू० ६ ॥
टीका-देवाधिकारात् तेषां विशेषवक्तव्यतामाह-भंते ! त्ति' इत्यादि। 'भंते ! ति भगवं गोयमे श्रमणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, जाव-एवंवयासी-' अर्थ समर्थ नहीं है। (अभक्खाणमेयं देवाणं ) देवों को संयत कहना यह उनके ऊपर एक प्रकार से आक्षेप का आरोप जैसा है । ( देवाणं भंते ! असंजया ति बत्तव्य सिया) हे भदन्त ! देव असंयत है क्या इस प्रकार से कहा जा सकता है ? (गोयमा ! णो इण समढे ) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । (निठुरवयणमेयं ) क्यों कि देव असंयत है ऐसा वचन निष्ठुर वचन है अर्थात् कठोर वचन है । 'देवाणं भंते ! संजयासंजया त्ति वत्तव्यं सिया ? 'हे भदन्त ! देव संयता संयत होते हैं। क्या ऐसा कहा जा सकता है ? ( गोयमा ! णो इणष्टे समढे- असन्भूयमेयं देवाणं ) हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। है। कारणे यह असद्भूत वचन है । ( से किं खाई गं भंते ! देवा इति वत्तव्य सिया!) तो फिर हे भदन्त । देवों में किस शब्द से व्यवहार होना चाहिये ? (गोयमा ! देवाणं नो संजया इ वत्तव्य सिया) हे गौतम ! देव 'नो संयत ' इस शब्द से व्यवहार के योग्य हैं। समटे) गौतम ! मे प्रमाणे ४ी शय नही (अब्भक्खाणमेय देवाण) દેવને સંયત કહેવા એ તે તેમના પર એક પ્રકારને આક્ષેપ કર્યો કહેવાય. (देवाण' भंते ! असंजया त्ति वत्तव्व सिया ! ) महन्त ! हे! असयत डाय छ, सम ४डी ४ाय म३ १ (गोयमा ! णो इणढे समढे) 3 गीतम! म उडत पण योग्य नथी ( निठुरवयण मेय) वा२ असयत 34॥ सता मे प्रानु नि २ १यन गाय, ( देवाण भंते ! संजया संजया ति वत्तव्व सिया ?) B महन्त ! हेवे सयतासयत डाय छ, सम ४ी शाय ५२.? ( गोयमा ! णो इणडे समडे) गौतम ! म त ५५५ योग्य नथी, ( असम्भूयमेय देवाण) १२९५ हेवाने माटे ते असत्य ४६पना गलाय. (से किं खाई ण भंते ! देवा इतिवत्तव्यं सिया?) ते महन्त वोन भाट ज्या विशेषयन। प्रयाग ४२। नसे? (गोयमा! देवाण नो संजया इ बत्तव्य सिया) र गौतम ! हेवाने नासयत' । नय
श्री. भगवती सूत्र:४