Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ममेयचन्द्रिका टीका श०५ उ०७सू०५ परमाणुपद्गलादीनां स्वरूपनिरूपणम् ५११ भवति ? गौतम ! जघन्येन एकं समयम् , उत्कर्षेग आवलिकाया असंख्येयभागम् , एवं यावत्-असंख्येयप्रदेशावगाढः । वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-सूक्ष्मपरिणत-बादरपरिणतानाम् एतेषाम् यदेव संस्थानं तदेव अन्तरमपि भणितव्यम् । शब्दपरिणतस्य खलु भदन्त ! पुद्गलस्य अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! हे गौतम ! ( जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं, एवं जाव असंखेज्ज पएमोगाढे ) एक प्रदेश में अवगाह हुए सकंर पुगल स्कंध को अपनी वही सकंप पर्याय को छोड़ने के बाद धारण करने में जघन्य से एक समय का और उत्कृष्ट से असंख्यात काल का अन्तर पड़ता है। इसी प्रकार यावत् आकाश के असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ हुए पुद्गल स्कन्धों के विषय में भी समझना चाहिये । ( एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस निरेयस्स अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ) हे भदन्त ! एक प्रदेश में अवगाढ हुए निष्कंप पुद्गल को अपनी निष्कंप पर्याय को छोड़ ने के बाद पुनः उसी निष्कंप पर्याय को धारण करने में काल की अपेक्षा कितना अन्तर पड़ता है ? ( गोयमा ) हे गौतम ! (जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखे जइभाग-एवं जाव असंखेज्जपएसोगाढे ) एक प्रदेश में अवगाढ हुए निष्कंप पुद्गल को अपनी निष्कंप पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उसी निष्कंप पर्याय को धारण करने में कम से कम अन्तर एक समय का और अधिक से अधिक अंन्तर
जहण्णण एग समयं उक्कोसेण असं खेज्जकाल-एवं जाव अस खेज्जपएसोगाढे) એક પ્રદેશમાં રહેલા સકંપ પુલ સ્કને પિતાની એ જ સકંપ પર્યાય ફરી ધારણ કરવામાં ઓછામાં ઓછો એક સમય અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત કાળ લાગે છે. એ જ પ્રમાણે આકાશના અસંખ્યાત પર્યન્તના પ્રદેશમાં રહેલા पदयघाना मत२४ (वि२९ ) विष ५५ सभा. ( एगपएसोगाढस्स गं भते ! पोगलस्स निरेयस्स अंतर केवच्चिर होइ ? ) 3 महन्त ! मे प्रशिनी અવગાહનાવાળા નિષ્કપ પુદ્ગલને, પિતાની નિકંપ પર્યાયને ત્યાગ કર્યા પછી ફરીથી એ જ નિષ્કર્ષ પર્યાય ધારણ કરવામાં કાળની અપેક્ષાએ કેટલું અંતર ५ १ ( गोयमा ! ) गौतम ! (जहण्णेण एग समय उक्कोसेण आवलियाए
असखेज्जइ भाग-एवं जाव अस खेज्जपएसोगाढे ) से प्रशनी माडनापा નિષ્કપ પર્યાયને ત્યાગ કર્યા પછી ફરીથી એ જ નિષ્કપ પર્યાય ધારણ કરવામાં ઓછામાં ઓછા એક સમયનું અને વધારેમાં વધારે આવલિકાના અસંખ્યાતમાં
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪