Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेन्द्रका टीका श० ५ ४०९ सू० २ प्रकाशास्त्रकारस्वरूपनिरूपणम् ६९१
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यिकाः । चतुरिन्द्रियाणाम् भदन्त ! किम् उद्योतः अन्धकारः ? गौतम ! उद्धोतोऽपि, अन्धकरोऽपि । तत् केनार्थेन । गौतम ! चतुरिन्द्रियाणां शुभाङशुभाश्च पुद्गलाः, शुभाशुभश्च पुद्गलपरिणामः, तत् तेनार्थेन० । एवं यावत्मनुष्याणाम् । वानव्यन्तर- ज्योतिष्क- वैमानिका यथासुरकुमाराः । सू० २ ॥ एकेन्द्रिय से लेकर यावत् ते इन्द्रिय तक के जीवों में नारक जीवों की तरह से जानना चाहिये । ( चउरिंदिया णं भंते! किं उज्जोए अंधयारे ) हे भदन्त ! चौ इन्द्रिय जीवों के क्या प्रकाश होता है या अंधकार होता है ? (गोमा) हे गौतम ! ( उज्जोए वि अंधयारे वि) उद्योत भी होता है और अंधकार भी होता ( से केणट्टेणं) हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि चौ इन्द्रिय जीवों के प्रकाश भी होता है और अन्धकार भी होता है (गोयमा) हे गौतम! (चउरिंदियाणं सुभासुभा यपोग्गला, सुभासुभे य पोग्गलपरिणामे ) चौ इन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ पुद्गल होते हैं और शुभ एवं अशुभ पुद्गल परिणाम होता है । ( से लेणं) इस कारण मैंने ऐसा कहा है । ( एवं जाव मणुस्साणं - वाणमंतर - जोइस- वेमाणिया जहा असुरकुमारा ) इसी तरहसे यावत् मनुष्योंके भी ऐसा ही होता है । वानव्यन्तर, ज्योतिषिक और वैमानिक देवों के यहाँ असुरकुमारों की तरह से ही जानना चाहिये ।
પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિયાથી લઈને ત્રીન્દ્રિય પર્યન્તના જીવાના વિષયમાં પણ नार४ भव। प्रमाणे समन्वु ( चउरिंदिया णं भंते ! कि उज्जोए अधयारे ) હે ભદ્દન્ત ! ચતુરિન્દ્રિય જીવાને શું પ્રકાશ મળે છે કે અધકાર મળે છે ? (maar!) ☎ sau ! (ceste fâ dauit fax) cui usta yg ŝu छे भने अधार पलु होय छे. ( से केणट्ठेणं ) हे लहन्त ! आप शा रखे मेवु' । छो ? ( गोयमा ! ) हे गौतम! चउरिंदियाणं सुभासुभा य पोग्गला, सुभासुभेय पोग्गलपरिणामे ) यतुरिन्द्रिय भवानां युद्धसो शुल भने अशुल होय छे, ते युगसोनुं शुल भने अशुभ युद्धस परिणाम होय छे. (से तेणद्वेण' ) ते भर में मेवु ं छु ं छे. ( एवं जाव मणुस्साणं, वाणमंतर-जोइस, वेमागिया जहा असुरकुमारा ) मनुष्याने पशु यतुरिन्द्र लवो अमा अाश અને અંધકાર અને મળે છે. વાનન્યન્તર, જ્યાતિષિક અને વૈમાનિકાના નિવાસસ્થાનામાં પણ અસુરકુમારની જેમ પ્રકાશ સમજવા,
श्री भगवती सूत्र : ४