Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे तद्यथा-मनःप्रयोगः, वचःप्रयोगः, कायप्रयोगः, इत्येतेन त्रिविधेन प्रयोगेण जीनां कर्मोपचयः प्रयोगेण, न विसया । एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाग त्रिविधः प्रयोगो मणितव्यः । पृथवीकायिकानाम् एकविधेन प्रयोगेण । एवं यावत्-वनस्पतिकायि. कानाम् । विकलेन्द्रियाणां द्विविधः प्रयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वचःप्रयोगः, कायसे नहीं होता है ? (गोयमा ! जीवाणं तिविहं पओगे पण्णत्ते) हे गौतम! जीवों के तीन प्रयोग कहे गये हैं। (तं जहा ) वे तीन प्रयोग ये हैं (मणप्पओगे, वइप्पओगे, कायप्पओगे, इच्चेएणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोयचये पओगसा णो वीससा) मनः प्रयोग, वचः प्रयोग
और कायप्रयोग इन तीन प्रकार के प्रयोगों (व्यापारों) से जीवों के कर्म का उपचय होता है, अतः जीवों के कर्म का उपचय प्रयोग से होता है स्वाभाविकरूप से नहीं होता ऐसा कहा गया है । ( एवं सव्वे सिं पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियब्वे ) इसी तरह से समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार का प्रयोग कहना चाहिये ( पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं एवं जाव वणस्सह काइयाणं) पृथिवीकायिक जीवों के केवल एक प्रकार का ही प्रयोग होता है-इसी प्रकार से यावत् वनस्पतिकायिक जीवों के भी जानना चाहिये। (विगलिंदियाण विहे पओगे पण्णत्ते) विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार का प्रयोग होता है ऐसा कहा गया है (तं जहा) जैसे-(वइप्पओगे, कायप्पओगे य ) एक नयी १ (गोयमा ! ) 3 गौतम ! ( जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते तंजहा)
वानां नीय प्रमाणे त्र प्रया! ४ छ-( मणप्पओगे, वइप्प ओगे, कायप्पओगे, इच्चेएणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोवचये पओगसा णो वीससा) મનઃપ્રયોગ, વચનપ્રવેગ અને કાયપ્રયોગ. આ ત્રણ પ્રકારના પ્રયોગથી ( વ્યાપારથી–પ્રવૃત્તિઓથી) જેને કમને ઉપચય થતો હોય છે. તે કારણે મેં એવું કહ્યું છે કે જેને કર્મને ઉપચય પ્રયોગથી થાય છે, સ્વાભાવિક રૂપે थत नथी. ( एवं सव्वेसि पंचिंदियाणं तिविहे पओगे भाणियव्वे ) मे प्रभारी समस्त पयेन्द्रिय ७वाना २॥ प्रयास सभा . (पुढवीकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं एवं जाव वणस्सइकाइयाणं ) 24.4: ७वाने પ્રકારનું પ્રયોગ-કાયDગ હોય છે. વનસ્પતિકાય પર્યન્તના વિષયમાં પણ मेरा प्रमाणे सभ. (विगलिंदियाणं दुविहे पओगे पण्णत्ते ) दीन्द्रयथी यतुहिन्द्रिय पय-तना qिaन्द्रिय सवाना में प्रयोग ॥ छ. (तंजहा) २१,
श्री. भगवती सूत्र:४