Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवती सूत्रे
पुद्गलाः भिद्यन्ते, सदा समितं गलाश्छद्यन्ते, विध्वंसन्ते; परिविध्वंसन्ते, सदासमितं च खलु तस्यात्मा सुरूपतया, प्रशस्तं ज्ञातव्यम्, यावत् सुखतया नो दुःखतया भूयोभूयः परिणमति ? हन्त, गौतम ! यावत् - परिणमति । तत् सया समियं पोग्गला भिज्जति, सया समियं पोग्गला छिज्जति, विद्धंस्संति, परिविद्धंसंति) हे भदन्त ! यह निश्चित है क्या, कि जो जीव अल्पकर्मवाला होता है, अल्पक्रियावाला होता है, अल्पआस्रववाला होता है, अल्पवेदनावाला होता है उसके पुद्गल सब तरफ से पृथक् हो जाते हैं ? सब तरफ से छिद जाते हैं ? सब तरफ से वे भ्रष्ट (नष्ट) हो जाते हैं ? सब तरफ से वे सर्वरूप में नाश हो जाते हैं ? सदा निरन्तर उसके वे पुल उससे पृथक होते रहते हैं ? सदा निरन्तर उसके वे पुल छिदते रहते हैं ? सदा निरन्तर उसके वे पुद्गल उससे भ्रष्ट होते रहते हैं ? तथा - सदा निरन्तर उसके वे पुद्गल उससे कुछरूप में नहीं किन्तु सर्वरूप में नष्ट होते रहते हैं ? ( सया समियं च णं तस्स आया सुरुवतर पसत्थं नेघवं ) और उसका आश्मा बाह्यशरीररूप आत्मा निरन्तर हमेशा के लिये जबतक शरीर है तबतक के लिये सुरूपरूप से ( यहां वर्णादि प्रशस्त जानना चाहिये ) सो सुवर्णादिरूप से (जाव सुहत्ताए णो दुक्खत्ताए भुज्जो २ परिणमंति) यावत् सुखरूप से -दुःखरूप से नहीं - बारंबार परिणमनरूप होता रहता है क्या ? (हंता गोयमा
पोग्गला भिज्जंति, सया समियं पोग्गला छिज्जंति, विद्धस्सति, परिविद्ध स ति ) હૈ ભદન્ત ? શું એ નિશ્ચિત છે કે જે જીવ અલ્પકમ વાળા, अपडिया• વાળો, અપઆસ્રવવાળા અને અલ્પવેદનાવાળા હોય તેનાં પુદ્ગલા ખશ્રી તરફથી અલગ થઈ જાય છે ? મધી તરફથી છિન્ન થઈ જાય છે ? ખશ્રી તરફથી નષ્ટ થઈ જાય છે ? મધી તરફથી સરૂપે નષ્ટ થઈ જાય છે ? શું તેના તે પુદ્ગલેા સદા નિરંતર તેનાથી અલગ થતાં રહે છે ? શું તે પુદ્ગલેા સદા નિરન્તર ઇંદ્યાતાં રહે છે? શું તેનાં તે પુદ્ગલ સદા નિરન્તર નષ્ટ થતા રહે છે ? શું તેનાં તે युद्धला सहा निरंन्तर सर्व३ये नष्ट थतां रहे छे ? ( सया समियं च णं तस्त आया सुरुवत्ताए पत्थं नेयव्वं ) अने तेनो आत्मा महाशरी२३५ आत्मा શું નિરન્તર એટલે કે જ્યાં સુધી શરીરનું અસ્તિત્વ રહે ત્યાં સુધી સુરૂપ, સુવ (अड प्रशस्त वर्षा यहि समन्न्वा ) आहि ३ये, ( जाव सुहत्ताए णो दुक्खता भुज्जोर परिणमति ? ) मने अन्तथी सहने सुख पर्यन्तना ३ये अने मदुःम३ये वारंवार परिशुभित थया रे छे ? (हता गोयमा ! जाव परिणम ति)
श्री भगवती सूत्र : ४