Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे अनवनताये परीते परिहते 'हेट्ठा वित्थिनंसि' अधो विस्तीर्णे, 'मज्ञ संखित्तंसि' मध्ये संक्षिप्ते 'उपि विसालंसि' उपरिविशाले ' अहे पलियंक संठियंसि' अधः पल्यङ्कसंस्थिते ' मज्झे वरवइरविग्गहियंसि' मध्ये वरवज्रविग्रहिके श्रेष्ठवज्राकारे 'उपि उद्धमुइंगाकारसंठियंसि' उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थिते ऊर्ध्वमुख मृदङ्गवद् विराजमाने लोके इति पूर्वेणान्वयः । अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता उप्पज्जित्ता निलीयंति' अनन्ताः परिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षितस्वात् , जीवसन्ततीनामपर्यवसानत्वाद् तदपेक्षया वा अनन्ताः, जीवधनाः जीवाश्चते घना चेति जीवधनाः ज्ञानाद्यनन्तपर्यायसमुदायात्मकत्वात् , असंख्येय प्रदेशपिण्डात्मकत्वाच्च उत्पद्य, उत्पद्य पुनः पुनः समुत्पद्य विलीयन्ते तिरोदधते दन्गंसि परित्तसि परिबुडंसि) इस तरह इस शाश्वत लोक में जो कि अनादि अनन्त और परिमित है तथा अलोक से घिरा हुआ है ( हेट्ठा वित्थिन्ने ) नीचे के भाग में जो विस्तीर्ण हो गया है और जो ( उप्पि विसालंसि ) ऊपर में विस्तृत है इसी लिये जिसका (अहे पलियंक संठियंसि ) नीचे का आकार पलंग जैसा (मज्झे वरवहरविग्गहंसि) बीच का आकार उत्तमवज्र के जैसा और (उप्पिं उद्धमुइंगाकार संठियंसि ) ऊपर का आकार सीधे मुंह रखे हुए मृदंग के जैसा है (अणंता जीवघणा) अनंत जीव घन (उप्पजित्ता उपजित्ता) उत्पन्न हो होकर (निलीयंति ) नष्ट होते है-यहां जो ( अनंत जीव घन ) ऐसा कहा है -सो यह सूक्ष्मादि साधारण शरीरों की विवक्षा को लेकर अथवाजीवसन्तति की अपर्यवसानता को लेकर कहा गया है तथा-जीव ज्ञानादिक अनन्त पर्यायों का समुदाय रूप है-इसलिये अथवा-असं. ख्यात प्रदेशों का वह एक पिण्डरूप है-इसलिये उसे (जीवधन) ऐसा
(तसि च ण सासयासि लोगंसि अणादिय सी अणवदग्गंसि परित्तमि परिवुडंसि) આ પ્રકારના શાશ્વત, અનાદિ, અનંત, પરિમિત (અસંખ્યાત પ્રદેશાત્મક ) मन माथी राय, (हेढा वित्थिन्ने, मझे, संखित्ते, उपि विसाल सि ) नायना लामा विस्तृत, व-येथी सदी मने ५२थी विस्तृत सेवा, (अहे पलिय कसंठियसि, मज्झे वरवइरविगह सि, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठियासि ) નીચેથી પલંગના આકારના, વચ્ચેથી ઉત્તમ વજીના આકારના અને ઉપરથી
भुणे शमेला भृगना मारन Anai " अणता जीवघणा" मनात धन “ उपज्जित्ता उत्पज्जित्ता " उत्पन्न धन “निलीय ति" नष्ट थयां रे छ. मी " अनंत जीवन " शहने प्रयास ४२पामा माया छत
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪