Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमेयचन्द्रिका टी० श० ५ उ० ६ सू०२ धनुर्विषये निरूपणम्
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गृह्णाति, 'उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाइ ' इषु परामृश्य बाणं गृहीत्वा, स्थाने तिष्ठति, धनुः सकाशाद् वाणप्रक्षेपकालिकमासनविशेषं करोति, 'ठाणं ठिच्चा आयय कन्नाययं उस करेइ' स्थाने स्थित्वा आसनविशेष ग्रहणे सति बाणं प्रक्षेप्तुम् आयतकर्णायतं वाणं करोति, आयतं प्रक्षेपाय प्रसारितं कर्णायतं कर्णपर्यन्त माकृष्ट करोतीत्याशयः, ततः 'उडूं वेद्दासं उम्र उब्विहद्द' तत आकृष्य उध्धं विहायसि आकाशे इषु वाणम् उद्विध्यति ऊर्ध्वं प्रक्षिपति ' तरणं से उसु उड्ढं वेहासं उच्विहिए समाणे ' ततः खलु तस्मिन् इषौ बाणे उर्ध्वं विहायसि उद्विद्धे - उत्क्षिप्ते सति, 'जाई तत्थपाणाई, भूयाई, जीवाई सत्ताई अभिहणई' यान् तत्र प्राणान् प्राणिनः, भूतान्, जीवान्, सच्चान, अभिदन्ति, अभिमुखमागच्छतो हिनस्ति आघातं प्रापयति 'वत्तेश, लेसे, संघाएइ, संघडे, परितावे, किलामेइ, ' तत्र वर्तयतिहै ( उसुं परामुसित्ता) बाण को उठाकर ( ठाणं ठाइ ) स्थान पर जाकर बैठ जाता है अर्थात् धनुष से बाण को छोड़ने के लिये आसन विशेष से बैठना होता है उस आसन विशेष से वह बैठ जाता है ( ठाणं ठिच्चा ) जब आसन विशेष से वह बैठ चुकता है तब बाण को चलाने के लिये (आययकन्नाययं उसुं करे ) वह धनुष को कानतक खींचता है और फिर उसकी ज्या ( डोरी ) पर बाण को चढाकर फिर वह उस ( उ ) बाण को ( उड्डुं वेहासं उव्विहह ) ऊँचे की ओर आकाश में प्रक्षिप्त कर देता है । (तएण से उसुं उडू वेहास उब्विहिए समाणे ) इस तरह आकाश में प्रक्षिप्त किया गया वह बाण (जाइ तत्थ पाणाई भूवाई जीवाई सत्ताइ अभिहणइ ) अपनी ओर आते हुए प्राणियों को भूतों को जीवों को सखों को मार देता है ( वत्तेइ ) शरीर के संकोच आदि करने देने से वह उन्हें संकुचित कर देता है (लेसेइ )
अणुउरे छे, ( उसु परामु सित्ता ) माशुने श्रद्धषु उरीने ( ठाण' ठाइ ) તે સ્થાન પર જઈને બેસી જાય છે એટલે કે ધનુષમાંથી માણુ છેાડવા માટે ने विशिष्ट अारना भासने मेसवु लेहये मेवां भासने मेसे छे, ( ठाणं ठिच्चा ) मासने मेसीने (आययकन्नायय उसु करेइ ) माशुने छोड़वा भाटे ते धनुषने अन सुधी जेथे छे भने तेनी छोरी पर माशु थडावीने (उसु उढ वेहास उहि ) तेने आशमां अथे हे छे. (तएण से उसु उब्रु वेहासं उब्विहिए समाणे ) या रीते आशमां अये छोडवामां आवे "जाइ तत्थ पाणाई, भूयाई जीवाई, सत्ताई अभिहणइ " तेनी तर भावतां ( तेना भार्गभां भवतां ) आलोने, भवाने, लूताने मने सत्त्वाने भारी नाचे छे, “ वत्तेइ " તે તેમનાં શરીરને સ‘કુચિત કરી નાખે છે,
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लेसेइ " हां हां रडेला लवाने
श्री भगवती सूत्र : ४