Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
भगवतीसूत्रे येत्, तत् खलु प्रणीतं मनो वचश्च वैमानिका देवा जानन्ति, १ पश्यन्ति किम् ? भगवान् प्राह-' गोयमा ! अत्थेगइया जाणंति, पासंति,' हे गौतम ! अस्ति संभवति-एके केचिद् वैमानिकाः तद् जानन्ति, पश्यन्ति “अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति" अस्ति-अथ एके केचन वैमानिकाः न जानन्ति नापि पश्यन्ति । गौतमस्तत्र कारणं पृच्छति-'से केणद्वेणं जाव-न पासंति' हे भदन्त ! तत् केना, थैन यावत्-न पश्यन्ति ? यावत्करणात्-केचिद् जानन्ति, केचिद् न जानन्ति, केचित् पश्यन्ति, केचिद् ' इति संग्राहयम् । भगवान् तत्र कारणं प्रतिपादयति'गोयमा ! वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! वैमानिकाः द्विविधाः द्विप्रभदन्त ! जिस प्रकृष्ट मन, वचन को केवल ज्ञानी अपने उपयोग में लाते हैं उसे क्या वैमानिक देव अपने ज्ञान द्वारा जानते और देखते हैं ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं ' गोयमा ! हे गौतम ! केवल ज्ञानी के प्रकृष्ट मन, वचन को सब वैमानिक देव नहीं जानते हैं किन्तु 'अत्थेगइया जाणंति पासंति' कितनेक ही वैमानिक देव जानते हैं
और देखते है । तथा ' अत्थेगड्या ण जाणंति, प पासंति' कितनेक वैमानिक देव ऐसे भी हैं जो केवली के प्रकृष्ट मन, वचन को नहीं जानते हैं नहीं देखते हैं। अब गौतम इस विषय में कारण जिज्ञासा के वशवर्ती होकर प्रभु से पूछते हैं ' से केणटेणं जाव न पासंति' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि सब वैमानिक देव केवली के प्रकृष्ट मन एवं वचन को नहीं जानते हैं ? इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' हे गौतम ! 'वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता' ઉપયોગ કરે છે, તેને શું વૈમાનિક દેવે તેમના જ્ઞાન દ્વારા જાણી શકે છે અને દેખી શકે છે ખરાં?
उत्त२-(गोयमा ! ) 3 गौतम ! ज्ञानाना प्रष्ट भन भने क्यान मा मानि oneyता नथी, ५५५ (अत्थेगइया जाणंति पासंति ) 13
मानि: । लो छ भने थे छे, ( अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति) પરન્તુ કેટલાક વિમાનિકે કેવલીના પ્રકૃણ મન, વચનને જાણતા નથી અને દેખતા નથી.
--(से केणदे ण जाव न पासंति) ७ मन्त! मा५ ॥ २२ એવું કહે છે કે સમસ્ત વૈમાનિક દે કેવલીન પ્રકૃણ મન અને વચનને જાણતા નથી ?
“गोयमा ! वेमाणिया दुविहा पण्णता” गीतम! मानिनी में २ हा छ, “ तंजहा" ते मे मारे। 24 प्रभार छे.
श्री. भगवती. सूत्र:४