Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीस्त्रे अथ यत्क्तम् ‘एको जीवः एकेन समयेन द्वे आयुषी प्रतिसंवेदयति, तदपि असत्यम् युगपदायुयप्रतिसंवेदनेन एककालावच्छेदेन भवद्वयभवनापत्तेः तस्मात् एकदाऽऽयुद्धयवेदनमपि मिथ्यैव किन्तु ' अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि' हे गौतम ! अहं पुनर्यत् एवं-वक्ष्यमाणरीत्या आख्यामि 'जाव-परूवेमि' यावत् मरूपयामि, यावत्करणाम् “ भाषे, प्रज्ञापयामि, इति संग्राह्यम् । तदेवाह-' से जहा. नामए जाल गंठिया ' तद्यथानाम जालग्रन्थिका, ‘सिया' स्यात्, अस्मिन्सिदान्तपक्षे जालग्रन्थिकापदेन शृङ्खलामात्ररूपार्थों ग्रहीतव्यः, जाव - अन्न ऐसा कथन नहीं बन सकता है । इस तरह आयुओं में जालग्रन्थिका की कल्पना केवल-अन्यतीर्थिक जनों की एक असत्कल्पना ही है। अब जो ऐसा कहा गया है कि 'एको जीवो एकेन समयेन हे आयुषी प्रति. संवेदयति' एक जीव एक समय में दो आयुओं को भोगता है-सो यह कथन भी असल है। कारण कि ऐसी मान्यता में, एक ही समय में एक ही जीव की दो भवों वाला मानने का प्रसंग प्राप्त होगा अतः एक ही समय में आयुखय का संवेदन मानना भी मिथ्या ही है । हे गौतम! मैं ऐसा कहता हूं, मैं ऐसी प्रज्ञापना करता हूं और मैं ऐसी प्ररूपणा करता हूं 'अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि' यहां यानत्पद से ' भाषे, प्रज्ञापयामि' इस पाठ का संग्रह किया गया है। 'से जहानामए जालगंठिया सिया' जैसे कोई एक जालग्रन्थिका हा अर्थात् एक सांकल-शृखला हो क्यों कि यहां पर सिद्धान्त पक्ष जोल ग्रन्धिका पद से यही शृंखला रूप अर्थविवक्षित हुआ है ' जाव अन्नઅન્યતીથિ કેની આયુએમાં જાળઝWિકાની કલ્પના બિલકુલ અસત્ય ( જૂઠી) ४२ छ. qणी मेरे ४ामा मायुं छे : (एको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी प्रतिसंवेदयति) (मे १ मे समय में मायुमार्नु वहन ४२ छ) તે કથન પણ અસત્ય છે, કારણ કે એ કથનને સત્ય માનવાથી એવુ માનવું પડશે કે એક જ જીવ એક જ સમયે બે ભવ કરે છે. તે કારણે એક જ સમયે બે આયુઓનુ સંવેદન કરવાની વાત પણ મિથ્યા છે.
હવે આ વિષયમાં મહાવીર પ્રભુ પિતાની શી માન્યતા છે તે પ્રકટ કરે છે(बह पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि, जाव परुवेमि) गौतम ! ९ मे छु, समाषा छु, सयुसममा छुमने मेवी प्र३५।। ७३ छु-(से जहा नामए जालगंठिया सिया) धारे। ।४ मे अन्थि। छ-मेटले मे सim છે–(કારણ કે અહીં સિદ્ધાન્ત પક્ષ જાગ્રન્શિકા પદથી એજ સાંકળરૂપ અર્થ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૪