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आध्यात्मिक आलोक
अर्थात् संसार की सभी वस्तुएं भयवाली हैं, केवल वैराग्य ही एक निर्भय पद है । तो मुझे रोग पैदा करके दवा लेने की अपेक्षा, मूल में रोग का ही सर्वनाश कर देना चाहिए " ऐसा कहकर वे वनवासी हो गए ।
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विद्ववर संभूति विजय ने भी इसी तरह मान-पूजा और संसार के सुख भोगों को छोड़कर वीतराग का मार्ग ग्रहण कर लिया, निर्ग्रन्थ-मुनि हो गये ।
साधना की मस्ती आते ही साधक मस्त होकर सांसारिक बन्धनों को बलपूर्वक तोड़ फेंकता है । समुद्र में जिस प्रकार अनन्त नदियां समा जाती हैं और उसका कुछ पता नहीं चलता वैसे साधक में ज्ञान की अनन्त धाराएं समाहित हो जाती हैं । . साधक अपने पुरुषार्थ एवं साधना के बल से ऊपर उठकर अमर पद प्राप्त कर जीवन को धन्य बना लेता है ।