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आध्यात्मिक आलोक मैत्री, दुःखियों के प्रति करुणा भाव, गुणीजनों में प्रमोद और दुर्जनों पर माध्यस्थ जागरण ही सम्यक् दृष्टि है । कहा भी है
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु दयापरत्वम् ।
माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ।।
आशंकावश प्राणियों को मनुष्य इसलिए मार देता है कि वह किसी को क्षति न पहुँचाए । परिणाम यह होता है कि ऐसे प्राणियों की हिंसक वृत्ति बढ़ जाती है
और वे पहले से अधिक खूखार होकर मानव समुदाय को सताने लगते हैं। कुत्ता .सताने वाले को देखकर भौंकने लगता है और सांप भय की भावना से प्रेरित होकर देखते ही काट लेता है। इसी तरह अन्य प्राणी भी द्वेषवश मानव से हिंसक प्रतिकार के लिए तुल जाते हैं।
विचार कर देखा जाए तो इसमें मुख्य दोष मानव का ही है । संसार को कंटकरहित करने के अभिप्राय से समस्त कांटों को विनष्ट नहीं किया जा सकता। काटे और फूल दोनों की अपने-अपने स्थान में उपयोगिता है, वैसे सांप, बिच्छु, कुत्ते और कौए आदि निरर्थक जंचने वाले प्राणधारियों का भी उपयोग तथा महत्व है। जो लोग यह समझते हैं कि हिंसक जीवों को मारना तो धर्म है, वे भूल करते हैं । यदि इसी प्रकार पशु जगत् यह ख्याल करे कि मानव बड़ा हत्यारा और खूखार है उसे मार भगाना चाहिए तो इसे आप सब कभी अच्छा नहीं कहेंगे, इसी तरह अन्य जीवों की स्थिति पर भी विचार करना चाहिए। संसार में रहने का अन्य जीवों को भी उतना ही अधिकार है, जितना कि मनुष्यों को। सबके साथ मैत्री बना के रहना चाहिए। अपनी गलती के बदले दूसरों को दंड देना अच्छा नहीं। इस प्रकार की हिंसा से प्रतिहिंसा और प्रतिशोध की भावना बढ़ती है, जो संसार के लिए अनिष्टकारी है।
___ पाप या हिंसा करना मनुष्य का मूल स्वभाव या आत्म-धर्म नहीं है । वह पाप या विकार रूप रोग से ग्रस्त होने के कारण अज्ञानवश पापी या खूनी बनता है। . हमें ज्ञान की ज्योति जगाकर उसको सुधारने का यत्न करना चाहिए । यदि पापी हमारे सद्प्रयत्नों से नहीं सुधर पाता तो भी उसके ऊपर क्रोध न कर मध्यस्थ भाव की शरण लेनी चाहिए। ऐसा शोचनीय व्यक्ति दया का पात्र है, क्रोध का नहीं । किसी पाप कर्म के कारण किसी भी व्यक्ति को मारने की अपेक्षा उसे समझाना या सुधारने का प्रयत्न करना अच्छा है और यदि प्रयास के बाद भी वह नहीं सुधरे तो तटस्थ भाव को ग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम मैत्री भाव एवं दया ही मानवता का मूलोद्देश्य है ।
भगवान महावीर के संदेश में एक कवि ने ठीक ही कहा है