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आध्यात्मिक आलोक उतारू हो जाते हैं । अभी हाल में ही एक सैनिक ने भ्रमवश अपनी पत्नी को छुरा भोंक कर मार डाला | यहाँ दानवता का नग्न रूप और असंयम की पराकाष्ठा है।
मानव के मन में सद्भावना आए बिना उसके आचरण प्रशस्त नहीं हो सकते । शास्त्र में पुण्य संचय के नौ कारण बतलाए गए हैं जैसे-१. अन्नदान, २. जलदान, ३. स्थान-गृहदान, ४. शय्यादान, ५, वस्त्रदान, ६ मनशुभ, ७. वचनप्रिय, ८. कायिक सेवा और ९ नमस्कार । इनमें मन अशुभ हो तो आठों पाप के कारण हो सकते हैं और शुभ भाव हों तो आठों पुण्य संचय के कारण बन जाते हैं । यही कारण है कि सुभावना से किया गया कार्य ही अच्छा गिना जाता है और उसीका फल भी अच्छा होता है। जैसे एक डाकू को सम्पदा प्राप्ति के लिए अन्न दिया जाए तो यह पाप कर्म है, क्योंकि दान के साथ सुभावना नहीं है अथवा अन्न-जल देकर किसी डाकू को पकड़वा दिया जाय तो भी यह पाप में ही गिना जायेगा । उद्योग व्यवसाय में सहायता लेने की दृष्टि से किसी मंत्री को थैली भेंट की जाय, या कर से बचने के लिए तत्सम्बन्धी अधिकारी को प्रीतिभोज दिया जाय तो यह स्वार्थ कर्म-पाप है । शुभ-भावना से प्रेरित कर्म ही पुण्य कहा जायेगा अन्यथा पाप की कोटि में आएगा | तात्पर्य है कि करनी को भला-बुरा बनाने का मापदण्ड मन की भावना है।
मनुष्य माया से दूर रहकर, दंभ का परित्याग कर तथा मान को मन से हटाकर ही संत सेवा का लाभ उठा सकता है । हाथ जोड़कर आदर से संत की वाणी सुनना तथा अनुशासन में रहना यह कायिक उपासना है और संत समागम में जाकर लोगों के प्रति उद्दण्डता दिखाना, कायिक अपराध है। जिससे सर्वथा बचने में ही कल्याण है।
शास्त्र में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य ऐसे तीन प्रकार के आचार्य बतलाए हैं । माता-पिता या कलाचार्य की उपासना, उन्हें अच्छा खिलाना-पिलाना, नहलाना एवं मालिश आदि से की जा सकती है, पर धर्माचार्य त्यागी होने से गृहस्थ की इन सेवाओं को स्वीकार नहीं करते । जिन वचनों को जीवन में उतारना और सद्विचारों का प्रसार करना ही उनकी सही सेवा है । शरीर से अयतना की प्रवृत्ति नहीं करना, वाणी से हित, मित और पथ्य बोलना एवं मन से शुभविचार रखना सेवा है । आनन्द इसी प्रकार प्रभु की त्रिविध सेवा कर रहा था ।
महर्षियों ने सम्यक दष्टि में चार भावनाओं का विकास आवश्यक माना है, जैसे:-१. मैत्री, २. प्रमोद, ३. करुणा, और ४. मध्यस्थता । समस्त प्राणियों के प्रति