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[७] साधना की कला
आत्मा की मलिनता को दूर करने का सबसे बड़ा उपाय भोगों से मुक्त होना है और इसके लिए अनुकूल साधना अपेक्षित है। मनुष्य जब तक सांसारिक प्रपन्च रूप परिग्रह से पिण्ड नहीं छुड़ाता, तब तक उसके मन में चंचलता बनी रहती है, भौतिकता के आकर्षण से उसका मन हिलोरें खाते जल में प्रतिबिम्ब की तरह हिलता रहता है । लालसा के पाश में बंधा मानव संग्रह की उधेड़ बुन में सब कुछ भूल कर आत्मिक शान्ति खो बैठता है । अतएव सच्ची शान्ति पाने के लिए उसे अपरिग्रही होना अत्यन्त आवश्यक है।
अपरिग्रह से मन में स्थिरता आती है। जैसे गर्म-भट्टी पर चढ़ा हुआ जल बिना हिलाए ही अशान्त रहता है। उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक कषाय (विकार)
की भट्टी पर चढ़ा रहेगा, तब तक अशांत और उद्विग्न बना रहेगा । जल की जलन और दाहकता को मिटाने के लिए उसे गरम भट्टी से अलग रखना आवश्यक है, वैसे ही मनुष्य को भी अपने मन को अशांत स्थिति से निपटने के लिए क्रोध, लोभादि विकार से दूर रहना होगा । जल का स्वभाव ठंडा होता है अतः वह भट्टी से अलग होते ही अपने पूर्व स्वभाव पर आ जाता है, ऐसे ही शान्त स्वभावी आत्मा भी कषायन्ताप से अलग होते ही शांत बन जाता है । कभी-कभी गर्म जलवत् अशान्त मन को शीघ्र ठंडक पहुँचानी हो तो सत्संगति का सहारा भी लिया जाता है, किन्तु कषाय के ताप को दूर कर दिया जाय तो कालान्तर में आत्मा स्वयं शान्ति अनुभव कर लेगी।
मन में विकारों के आवेगों को संयमित न करने वाले मनुष्य बड़े-बड़े भयंकर हृदय विदारक कुकृत्य कर जाते हैं । ऐसे उदाहरण नित्य हजारों देखे जाते हैं, जिनमें मनुष्य दानवता को भी लजाने वाले कारनामों से मानवता को कलंकित करने पर