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आध्यात्मिक आलोक आज्ञा को सतत माथे चढ़ाता है तथा उनके पसीने पर खून बहाने को तत्पर रहता है, विवाह के बाद वह भी कुछ और ही बन जाता है । उनके मन में पिता से बढ़कर पत्नी का स्थान हो जाता है और वह उसी के इशारे पर नाचने लगता है । सुदैव से यदि स्त्री सुशीला एवं बड़ों की मर्यादा को मानने व समझने वाली हुई तब तो ठीक, अन्यथा वह घर कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाता है । पराए घर में जनमी और पली वधू. यदि पराएपन का व्यवहार करती है तो उसमें कुछ विशेष आश्चर्य नहीं, आश्चर्य तब होता है जब अपना लाडला भी परायां बन जाता है । इस तरह जहाँ रोम-रोम में स्वार्थ के कीट भरे हुए हों, वहाँ जीवन को समुन्नत बनाने की क्या आशा की जाय ?
यों तो नर की अपेक्षा नारियां स्वभावतः विशाल हृदय, कोमल, दयामयी और प्रेम-परायणा होती हैं किन्तु शिक्षा, सुविचार एवं सत्संगति के अभाव में वे भी संकुचित हृदयवाली बन कर आत्म कल्याण से विमुख बन जाती हैं जबतक उनमें समुचित ज्ञान का प्रकाश प्रवेश नहीं पाएगा, तबतक उनका जीवन जगमगा नहीं सकता । नारियों की संकीर्णता का प्रभाव पुरुषों पर भी अत्यधिक पड़ता है और वे उसी की लपेट में पड़कर साधना विमुख बन जाते हैं।
जीवन का गत काल यदि भोग-विलास में बीत गया और उसमें किसी प्रकार की साधना नहीं हो सकी तो उसकी चिन्ता मत कीजिये, चिन्ता करिए वर्तमान का जो जीवन शेष है । उसका निश्चय सदुपयोग होना चाहिए । मनुष्य पिछली अवस्था में जगकर चेतकर भी कल्याण कर सकता है । संभूतिविजय ने अधिकवय में जीवन के सुख भोगों का त्याग किया और साधना के लिए कृत-संकल्प हुए एवं अपने त्यागमय जीवन के कारण सद्गति के अधिकारी बन गए ।
इस तरह के अन्य अनेकों उदाहरण हैं, जिनसे पता चलता है कि मानव जीवन के निर्माण के लिए समय की बहुलता जितनी आवश्यक नहीं, उससे अधिक आवश्यक मानसिक एकाग्रता और निश्छलता है।
, जब तक पाप की भारी गठरी सिर पर रहेगी और मन में उससे कोई झुंझलाहट नहीं आएगी, तब तक सद्गति कैसे संभव है ? शिला का भारी वजन लेकर हिमालय की चोटी पर भले ही कोई चढ़ जावे परन्तु पाप की गठरी लेकर भवसागर के पार जाना संभव नहीं है । संतों ने कहा है
नादान भुगत करनी अपनी, ओ पापी पाप में चैन कहां । जब पाप की गठरी शीश धरी, फिर शीश पकड़ क्यों रोवत है ।।