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श्री मुहूर्तराज
४
६
३ केतु
५
७ शनि
लग्न २
गुरू
८
मंगल
१
११ बुध
१२ चन्द्र
१०
९ राहू
शुक्र
सूर्य
ज्योतिषाचार्य शासन दीपक
★ मुनि जयप्रभ विजय "श्रमण" ★
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अर्पण
श्री मुहतर
ज्योतिषाचार्य
मुनि जयप्रभविजयजी 'श्रमण'
की ओर से
30 147
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प्रीतिपर्शना जोत्र
परमपूज्य च्याख्यान चाचस्पलि आचार्यदेव श्रीमद्धिजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी जन्म शताब्दी के उपलक्ष में सं. १९९४-२०१४
ॐ ह्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय भट्ठारक प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः
श्रीमुहूशन
(श्रीराजेन्द- हिन्दी-टीका)
* संकलनकर्ता
ज्योतिष व्याकरण विशारद उपाध्याय श्रीमद् गुलाबविजयजी महाराज
हिन्दी - टीका
लेखक । परमपूज्यव्याख्यान वाचस्पति - गम्भीरगणनायक भट्टारक लक्ष्मणी तीर्थ संस्थापक श्री श्रीमविजययतीन्द्र सरीश्वरजी महाराज के
शिष्य- रत्न
ज्योतिष-विशारद् मुनिराजश्रीजयप्रभविजयजी"श्रमण" महाराज
• प्रकाशक. राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन श्वेताम्बर पेढी (ट्रस्ट) श्री मोहनखेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जि. धार (म.प्र.)
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। मुहूर्तराज
- ग्रन्थ : मुहूक्शन
श्री राजेन्द्र हिन्दी - टीका लेखक ज्योतिषाचार्य शासन दीपक पूज्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभ विजयजी 'श्रमण'
सम्पादक एवं संस्कृत व्याख्याकार:पण्डितप्रवर श्री गोविन्दरामजी द्विवेदी
व्याकरण शास्त्री साहित्याचार्य, - द्वितीयावृत्ति -
श्री वीर निर्वाण सं. २५२२ श्रीमद् राजेन्द्रसूरि सं. ९० विक्रम सं.
२०५३ ईस्वी सन्
१९९६
प्रकाशक:श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय - श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जिला-धार (म.प्र.)
प्राप्ति स्थान :१. श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ,
पोस्ट-राजगढ़, जिला-धार (म.प्र.) २. भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति,
मंत्री - श्रीमूथा शान्तिलाल वक्तावरमलजी ठिकाना-देरा सरसेरी, मुकाम पोस्ट-आहोर ३०७०२९
जिला-जालौर व्हाया जवाई बान्ध (राजस्थान) मूल्य - १२५ रुपये
।
मुद्रक :अपूसरा फाईन आर्ट्स ११४,डे टावर पलासिया पाइंट इन्दौर-४५२००१ (म.प्र.) फोन:-४९००३९,४९२४४९
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समर्पण विश्व पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्म बृहत्तपागच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष के
लेखक श्री मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक भट्टारक जैन श्वेताम्बराचार्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज
समस्त-जन-तारक: सकल कर्मणा वारक: दुरन्त-भव-तारकः सुगम-मोक्ष मार्गोद्यत: तव श्रमण: सेवकः श्रयति पाद पद्मे मुदाः प्रभूत - सुख - मुनि - जयप्रभः साधक:
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मुहूर्तराज ]
[३
॥ ॐ ह्रीं श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि गुरुभ्यो नमः ॥
॥ अथ गुर्वष्टकम् ॥ श्रीसिद्धः सकलर्द्धिसिद्धिसहितः पूतान्तरात्मा महान्
सर्वप्राणिषु यः क्षमामचकरत् तत्त्वार्थबुद्धो यतः । यन्नामस्मरणाद् व्रजन्ति विलयं भूयांसि पापान्यपि,
स श्रीमान् भुवि सर्वदा विजयतां राजेन्द्रसूरीश्वरः ॥१॥ यो वृद्धोऽपि गुणैः परन्तु तरुणः सोत्साहशक्त्यन्वयात्,
दिक्स्पृक्कीर्तिचयोन्नतोऽपि विनयानित्यं तु नम्रोऽभवत् । यो देहेन सुदुर्बलोऽपि बलवाँस्तीवैस्तपोभिस्ततैः,
तत्पादाम्बुजयोर्लसन्तु नितराभस्मत्प्रणामाः सदा ॥२॥ नित्यं श्रीजिनराजपूतचरणध्यानस्थितो योगिवत्,
तद्वत्तद्गुणकीर्तने सुकविवद् वाणी यदीयाऽभवत् । तद्भक्तौ विगतस्मृतिः स्ववपुषि भाजद् विदेहो यथा,
सौऽस्मभ्यं सततं ददातु सुजनप्रस्थानमार्गे मतिभ् ॥३॥ जैनोक्तानि तपांसियोऽतपदलं हित्वेन्द्रियार्थान् परान्,
स्वस्मिन् धर्मधुरं दधार धृतिमान् द्वन्द्वक्षमावान् भृशम् कामान् वामतरान् विचिन्त्य मनसा योऽभूत्सदा निःस्पृहः ।
तस्मै दिव्यतमाय बोधनिधये स्युनः शतं वन्दनाः ॥४॥ यं नेत्राध्वनियातभेव सहसाऽऽलोक्य द्विषो भूरिशः,
मित्रत्वं गतवन्त इष्टकरणेऽभूवन् तदास्थालवः । संजाताः किल नीरुजो बहुतरा येऽसाध्यरोगाकुलाः,
यं श्रित्वा तमचिन्त्यशक्तिसहितं तेजस्विनं धीमहे ॥५॥ यः स्वीयाध्यवसायतो व्यरचयत्स्फीतं सुगीतं बुधैः,
कोशं श्री अभिधानपूर्वपदकं राजेन्द्र मध्यं यतः । निर्णेतुं प्रभवन्ति तत्त्वमखिलं जैनस्य धर्मस्य वै,
सर्वे, तं प्रतिभावतारभभलं नौमो वयं सद्गुरुभ् ॥६॥ तीर्थोद्धारण इष्टयोगभददाद् धर्मप्रचारं व्यधात्,
भव्यान्सभ्यगबोधयज्जिनवचः संश्राव्य संश्राव्य यः । शिष्यान् साधुपथे प्रवृत्तचरणान् चक्रे हिताप्तोक्तिभिः ।
तस्मै सर्वकलाधराय महते दिव्याय पुंसे नमः ॥७॥ नैकग्रामपुरेषु यः किल चतुर्मासस्थितीराचरत्,
आतेने ह्य पधाननाभकतपस्यन्याश्च धाः क्रियाः । चारित्र्यास्तसमस्तकर्मनिचयः शैवं पदं चाप्तवान, सोऽस्मच्चित्तनभोऽपसारिततमा भास्वान् यथा भासताम् ॥
विनीत : पं. गोविन्दराम श्रीगौरीशंकरजी द्विवेदी
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४ ]
॥ ॐ श्रीं अर्हते नमः ॥
-: श्री मुहूर्तराज प्रस्तावना :
यस्य प्रतापतपनो भुवि भाति शश्वद्, भव्यान्धकारपटलं विदधाति दूरम् । स्तुत्योऽस्ति कोविदवरैर्विविधोपमाभी
राजेन्द्र सूरितरणेः स्मरणं करोमि ॥ १ ॥
विफलान्यान्यशास्त्राणि विवादस्तत्र केवलम् ।
[ मुहूर्तराज
सफलं ज्यौतिषं शास्त्रम् चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिणौ ॥
विचक्षण गण !
इस संसार में महामहिम शालि श्री गणधर - बहुश्रुत - गीतार्थ - आचार्य - मुनीश्वर आदि बड़े-बड़े- प्रख्यात विद्वद्वरों ने सत्तत्वों के प्रदर्शक कई एक ज्योतिर्ग्रन्थरत्न बनाए हैं, लेकिन समयवशतः बुद्धि, बल, आयुष्य आदि की न्यूनता से स्वपरोपकारार्थ विस्तृत से संक्षिप्त और संक्षिप्त से विस्तृत व सुगम से भी सुगम करना पाश्चात्य (परवर्ती) विद्वानों का एक मुख्य कर्तव्य है। वैसे अनेकानेक ज्योतिर्ग्रन्थ स्वपरधर्म में विद्यमान हैं, तथापि उनमें से प्रायः किसी एक ही में स्वमनोऽमिलषित कुल तत्त्व नहीं मिलते इस विषय में उदाहरण देने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उक्त कथन ही उदाहरण रूप है। इसलिए संवत् १९७६ वि. वागरा नगर (मारवाड़) के चौमासे में श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बाराचार्य श्री १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के पादारविन्द चञ्चरीक मुनिश्री गुलाब विजयजी द्वारा गुरु कृपा से स्वबुद्धयनुसार ३१ ज्योतिशास्त्रों के अन्दर से स्व-पर- मुहूर्त विषय बोधार्थ यह मुहुर्तराज नामक ग्रन्थ प्रायः सविस्तार संवत्सरादि क्रम से संगृहीत है। यह शुभाशुभ, लग्नशुद्धि, आवश्यक मुहूर्त, वास्तु, प्रवेश ( प्रतिष्ठा ) इन ५ प्रकरणों से सुशोभित है। यहां पर प्रस्तावना बढ़ जाने के भय से इनका विशेष खुलासा करना योग्य नहीं समझा गया। दूसरा यह कि बुद्धिमान स्वयमेव प्रकरणों के नाम व वाँचन (वाचन) से ही खुलासा समझ लेंगे ।
अब नम्र निवेदन यही है कि यदि इस ग्रन्थ में किसी तरह की अशुद्धि या असम्बद्ध संग्रह किये हों तो उसे सुज्ञजन कृपया शुद्धकर वाँचने का परिश्रम लेवें और संग्रह कर्ता को सूचित करें ताकि उसका द्वितीयावृत्ति में यथोचित सुधार किया जायेगा । किमधिकं विज्ञेषु ॥ ( मूल प्रति से उद्धृत)
सूचना :- यह प्रस्तावना मूल संकलनकर्त्ता की है। उपाध्यायश्रीमद् श्री गुलाबविजयः श्री बागरानगरे
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परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति विद्दवर्य भट्टारक श्वेताम्बराचार्य लक्ष्मणीतीर्थ संस्थापक श्रीभाण्डवपुर मोहनखेडा तीर्थ उद्धारक
श्री श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
भावं भावं सुभावं भविक भविक वृन्दे यशो गीयमानं । पायं पायं व्यपायं सकल सकल लोके सुधापीयमानम् ॥ ख्यायं ख्यायं स्वमिव्यां निखिल भुवितले यो गुरोरद्वस्य । वन्दं वन्दं पदाब्जे विविधबुधवरे राजते श्री यतीन्द्रः ॥
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परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न शान्त मूर्ति श्री श्री 1008 श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसरीश्वरजी महाराज
"मुहूर्तराज" द्वितीय संस्करण के उत्साही
प्रेरकमार्ग दर्शक
परम पूज्य संयम व स्थिविर मुनिराज श्री सौभाग्य विजयजी महाराज
परम पूज्य मुहूर्तराज के प्रेरणादाता
आगम ज्ञातामुनिराज श्री देवेन्द्र विजय जी महाराज
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परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न जैनाचार्य
श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महा. के पट्ट प्रभावक
परम पूज्य राष्ट्र सन्त शिरोमणि गच्छाधिपति
श्रीमद्विजय हेमेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज
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मुहूर्तराज ]
मेरी ओर से ज्योतिष शास्त्र जीवन का सचित्र दर्शन है। प्राचीन शास्त्रों में ज्योतिष शास्त्र ही वह जीवित शास्त्र है, जिसे आज के भौतिक व वैज्ञानिक युग ने भी सप्रमाण व स्वयंसिद्ध माना है। इस शास्त्र की प्रामाणिकता जैन दर्शन को भी स्वीकार्य है। क्योंकि जैन दर्शन अपने ४५ आगमों के आधार पर ही अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करती है उस ४५ आगमों में ज्योतिष शास्त्र की प्रामाणिकता के आधार रूप से ग्रन्थ सूर्य प्रज्ञप्ति एवं चन्द्र प्रज्ञप्ति है। ज्योतिष के आदिग्रन्थों में ८४ ग्रह का प्रमाण मिलता है। व आज भी जब भारतीय ज्योतिष के ज्ञात नव ग्रहों पर ज्योतिष का अध्ययन करते हैं तो पाश्चात्य विद्वान हर्षल नेपच्युन व प्लुटो तीन ग्रह अधिक मानते हैं जिससे यह जैन शास्त्र के अध्ययन से जब ८४ ग्रह का प्रमाण मिलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। जैन दर्शन के मूल मंत्र नमस्कार महामंत्र के ऊपर बम्बई से जैन साहित्य विकास मण्डल द्वारा प्रकाशित नमस्कार स्वाध्याय नामक ग्रन्थ में ८४ ग्रह के विषय में पठनार्थ सामग्री मिलती है। आज मानव जीवन के प्रत्येक विद्वानों ने लेखनी चलाई है। किन्तु इस शास्त्र को प्रमाणित करने में जैनाचार्यों एवं जैन दर्शन के विद्वानों एवं जैन मुनि प्रवरों ने इस को प्रत्येक दृष्टि से मय प्रमाणों से इसके अध्ययनार्थी जिज्ञासु के लिये जितना साहित्य लिखा है इतना श्रम युक्त साहित्य शायद ही अन्य दर्शनकारों ने लिखा होगा यह भी कह दूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
आज के बढ़ते हुए विज्ञान के साधन सम्पन्न युग में भी यही एक मात्र ज्योतिष शास्त्र है जिसे कोई भी विद्वान चुनौती नहीं दे सका और इसके ज्ञाता पृथ्वी पर बैठकर गगन की बातें करते हैं और वर्षों पूर्व लेखनी से यह लिख देते हैं कि इस दिन आकाश में इतने बजकर इतने मिनिट पर ग्रहण होगा यानि सूर्य या चन्द्र के नीचे से ग्रहों के यानि राहु केतु के विमान निकलते हैं तो उसे ग्रहण कहते हैं, एवं जन्म कुण्डली के ऊपर से फलित ज्ञान के विद्वान् मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन के प्रत्येक कार्य को कह सकते हैं जिस प्रकार दर्पण के सन्मुख अपनी मुखाकृति स्पष्ट दिखती है ठीक उसी प्रकार ज्योतिष के फलित के विद्वान को कुण्डली में कुण्डली के धारक का जीवन दर्शन होता है। जीवन में प्रतिपल ऐसे क्षण आते हैं कि मनुष्य को कई कार्य करने पड़ते हैं। फिर वह कार्य स्थाई हो या अस्थाई हो या दर्शन से सम्बन्धित हो या आत्मा से ऐसे प्रत्येक कार्य को शुभ घड़ी और शुभ समय पर प्रारम्भ किये तो वे जरूर सफल होते हैं एवं इच्छित फल को प्राप्त भी होते हैं। ऐसे ही कार्यों के मार्ग दर्शन के लिये त्रिस्तुतिक समाज के विद्वान उपाध्यायजी श्रीमद् गुलाबविजयजी महाराज ने जो कि ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। उन्होंने गहन अध्ययन के द्वारा प्रत्येक कार्यों को ज्योतिष की दृष्टि से कार्य में प्रतिपादित करने की भावना से शास्त्रों के प्रमाणों द्वारा इस "मुहूर्तराज” नामक ग्रन्थ में जैन एवं अजैन विद्वानों के प्रकाशित ग्रन्थों के उद्धरणों को संकलित किया। मूल ग्रन्थ संस्कृत में संकलित कर प्रेस कापी को वि.सं. १९७६ के कार्तिक शुक्ला ५ ज्ञान पंचमी को राजस्थान के प्रसिद्ध बागरा नगर में तैयार की। इसी ग्रन्थ की एक प्रतिलिपि सियाणा नगर में श्री सुविधिनाथ भगवान के विशाल प्रांगण में ज्ञान भण्डार में सुरक्षित थी। संयोगवश विक्रम सं. २०२४ में परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न सौम्यमूर्ति आचार्य देव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज,
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६]
[ मुहूर्तराज पूज्य मुनिप्रवर श्री सौभाग्यविजयजी म. एवं आगम ज्ञाता व्याख्यान दिवाकर साहित्य मनिषी पूज्य मुनिराज श्री देवेन्द्र विजयजी आदि का चार्तुमास सियाणा था उस समय मैं ज्योतिष का अध्ययन कर रहा था एवं स्वास्थ्य भी बराबर नहीं था तब पूज्य आचार्य श्री के सम्मुख मुहूर्तराज की श्लोकबद्ध प्रेस कापी मुझको पूज्य मुनि श्री देवेन्द्र विजयजी म. ने दी एवं यह आदेश दिया की इसकी हिन्दी टीका कर जन साधारण के उपयोगार्थ प्रकाशित की जाय। उस समय मैंने दिन शुद्धि दीपिका का हिन्दी कार्य प्रारम्भ कर दिया था। किन्तु पूज्य वरों के आदेश व आशीर्वाद दोनों प्राप्त हो रहे थे मैंने उसी समय मुहूर्तराज की हस्त लिखित प्रति ले ली। उस समय पूज्य पाद आचार्य श्री एवं उपरोक्त दोनों ज्येष्ठ बन्धु मुनिवरों ने मेरे को साहस दिलवाया कि यह कार्य जरूर करें। हिन्दी कृति बहुत ही सुन्दर होगी। किन्तु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता समाज के एक के बाद एक कार्य भी ऐसे आते गये कि वह कार्य सम्पन्न करवाना भी जरूरी था एवं शरीर व्याधि मन्दिर बन गया था और कुछ ही समय में एक दिन वह भी आ गया कि मुहूर्तराज के लेखन कार्य के शुभाशीर्वाद दाता व लिखने के प्रेरणा स्रोत दोनों इस असार संसार से महाप्रयाण कर गये
और अचानक एक भयंकर वज्रपात के मध्य कुछ समय व्यतीत करना पड़ा किन्तु समय-समय पर आदेश दिमाग में प्रेरणा देता रहा और पूज्यों की आज्ञा पालना यह प्रथम कर्त्तव्य समझ कर दृढ़ साहस के साथ मुहूर्तराज की हिन्दी टीका जिसका नाम श्री राजेन्द्र हिन्दी टीका रखा है लेखन कार्य प्रारम्भ किया। एवं आत्मा में यह सन्तोष है कि पूज्यों के आदेश व आशीर्वाद से यह कार्य सम्पन्न हो पाया है। ग्रन्थ कितना उपयोगी व सुन्दर बना हैं यह तो निर्णय ज्योतिष के जानकार पाठक ही कर सकेंगे।
___ मैं यह कार्य बिना बाधा के सम्पन्न करके पाठकों के कर कमलों तक पहुंच पाया हूं। यह उपरोक्त तीनों पूज्यों का हार्दिक आशीर्वाद समझ कर उनके प्रति किन शब्दों में आभार मानूं यह समझ से परे है। मैं उन का कृतज्ञ हूँ एवं चरण वन्दन कर इस विषय को यही पूर्ण करूं यही हार्दिक भावना।
भण्डार से सुरक्षित ४८ वर्षीय संस्कृत पत्र जिर्ण हो गये थे। जिसकी स्पष्ट प्रेस कापि श्लोकबद्ध गुरुणी परम त्यागी तपस्वी श्री हेतश्रीजी की शिष्या एवं परम विदूषी विद्वान रत्ला आर्या गुण सम्पन्न गुरुणीजी श्री मुक्तिश्रीजी की आज्ञानुवर्ति सुन्दर लेखिका साध्वीजी श्री जयन्तश्रीजी ने श्रम पूर्वक तैयार कर दी एतदर्थ आभार। ___मुहूर्तराज जब टीका रूप में तैयार हो गया दिल में विचार आया क्यों न ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान से इसका सम्पादन करवा लिया जाय यह विचार भी शीघ्र ही कार्य रूप में परिणित हो गया और हरजीराजस्थान निवासी मेरे पूज्य गुरुदेव व्याख्यान वाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद्विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के चिर परिचित एवं पूज्य गुरुदेव श्री के आदेश से महावीर जैन पंचाग के कर्ता के सुपुत्र पण्डित श्री गोविन्दरामजी द्विवेदी व्याकरण शास्त्री साहित्याचार्य से मेरा भीनमाल में मुनिवरों को अध्ययन करवाने आये हुए थे तब परिचय हुआ। उस समय मैंने पण्डितवर्य से वार्तालाप किया एवं पण्डितवर्य ने यह श्रम करना स्वीकार कर इस मुहूर्तराज के सम्पादन कार्य में काफी समय व श्रम कर यह कृति सुन्दर से सुन्दर बनाने का प्रयास किया एतदर्थ आभार।
ग्रन्थ सभी दृष्टि से सुन्दर बने इस उद्देश्य से उन प्रत्येक परोक्ष व
दान प्रदाता सहयोगियों के प्रति स्मरण
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परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति अभिधान राजेन्द्र कोष के सम्पादक आगम भास्कर पिताम्बर विजेता
श्रीमद्विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य रत्न
ज्योतिषाचार्य शासन दीपक
पूज्य श्रीजयप्रभविजयजी 'श्रमण" महाराज
जन्म
१९९३
पोष वदि १० स्थल - जावरा
पद प्रदान वाराणसी में काशी पण्डित
सभा द्वारा ५-११-८९ को मानद उपाधी
से विभूषित किये ज्योतिषाचार्य
२०४६ कार्तिक सुदी ५
विजय शील स्वाध्याय सुधाकरः प्रति भारत सद्धर्म धुरीण । जय तप संयम व्रत परिपालक गुरु चरणाश्रित सेवा लीन ॥ धर्म प्रचारक "श्रमण" सुधारक सुविचारक सुहृदय गुणवान । जयतु जयतु विजय श्री भूषित जयप्रभविजय महामतिमान् ॥
दीक्षा
२०१०
माघ सुदी ४
स्थल - सियाणा पद प्रदान
श्री मनावर
श्री संघ द्वारा
शासन दीपक कार्तिकसुदि
११
दि. २४-११-९३
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मुहूर्तराज]
किसी भी साहित्य को लिखने का श्रम व समय होता है और लेखन कार्य सम्पन्न हो जाता है तब प्रश्न खड़ा हो जाता है कि इसको प्रकाशित करवाया जाय । सर्व प्रथम मैंने आहोर (राजस्थान) निवासी परम गुरुभक्त सरल हृदयी श्री मूथा शान्तिलालजी वक्तावरमलजी से बात की उन्होंने उसी समय आहोर में वर्षों से साहित्य प्रकाशन कर रही संस्था श्री भूपेन्द्र सूरि साहित्य समिति जिसके श्री मूथाजी मंत्री है। ३०० पुस्तक के द्रव्य व्यय की स्वीकृति दी। पश्चात आहोर के ही गुरुभक्त श्री पुखराजजी भगवानजी एवं श्री हीराचन्दजी भगवानजी ने भी सर्वोच्च सहयोग की स्वीकृति दी और अन्य दानदाताओं में आहोर के ही संघवी लादमल दुलीचन्दजी चमनाजी, श्री सोहनराजजी की धर्मपत्नी श्री गजराबाई हस्ते सुपुत्री अ.सौ. पानीबाई धर्मपत्नि बाबुलालजी दयालपुरा। श्री भंवरलाल सुरेशकुमार कोवुर मारवाड़ में आहोर । अप्सरा फाईन आर्ट्स के संचालक श्री मुरलीधरजी माहेश्वरी द्वारा पुस्तक का सुन्दर मुद्रण किया जिसके लिए में उनको साधुवाद देता हूँ।
इस प्रकार उपरोक्त सभी दानदाता एवं अप्सरा फाईन आर्ट्स संचालक श्री मुरलीधरजी माहेश्वरी के श्रम से यह कार्य सुन्दर रूप में तैयार हो पाया एतदर्थ धन्यवाद सह आभार ।
श्री मोहनखेड़ा जैन महातीर्थ २०४२ माघ शुक्ला ४ जिला - धार (मध्यप्रदेश)
अनि ना५ मन
माहा
ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय “श्रमण"
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[ मुहूर्तराज -: बागरा के प्रांगण से :बागरा नगर, जिला-जालोर (राजस्थान) त्रिस्तुतिक जैन समाज का एक सुदृढ़ स्तम्भ एवं गढ़ है। प्रातः स्मरणीय गुरुदेव भगवन्त श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी से प्रतिबोधित होकर आज तक यहाँ का पूरा जैन समाज त्रिस्तुतिक आम्नाय दृढ़ अनुयायी है। समय-समय पर यहाँ त्रिस्तुतिक आचार्यों के, उपाध्यायों के व मुनिप्रवरों के चातुर्मास होते रहे हैं; और उन चातुर्मास में कुछ न कुछ विशेष कार्य अवश्य सम्पन्न हुये हैं।
वि.सं. १९६९ में पूज्य मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज बाद में व्याख्यान वाचस्पति आचार्य देव श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने यहाँ चातुर्मास किया। जिसमें आपश्री ने “श्री राजेन्द्रसूरि जीवन-चरित्र" लिखकर सम्पन्न किया, जो कि “जीवन प्रभा” नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हो चुका है। यह जीवन चरित्र “अभिधान राजेन्द्र कोष" के प्रथम भाग में प्रकाशित है।
नवरसनिधि विधुवर्षे, यतीन्द्रविजयेन वागरा नगरे
आश्विन शुक्ला दशम्यां, जीवन चरितम् व्यलेखि गुरोः
तिथि :- वि.सं. १९६९ आश्विन शुक्ला १० (विजयादशमी) इसी बागरा नगर में पूज्य उपाध्यायजी श्रीमद् गुलाबविजयजी महाराज ने वि.सं. १९७६ का चातुर्मास किया था। इस स्मरणीय चातुर्मास में आपश्री ने ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थ “मुहूर्तराज' की संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध रचना की। इस ग्रन्थ में जैन व अजैन विद्वानों के तद्विषयक ग्रन्थों के उद्धरणों का संकलन है। उपाध्यायजी ज्योतिषशास्त्र के मर्मज्ञ व पारंगत विद्वान थे। आपने इस ग्रन्थ की रचना वि.सं. १९७६ कार्तिक शुक्ला ५ (ज्ञानपंचमी) के शुभदिवस पर सम्पन्न की। .. __आधुनिक युग में संस्कृत भाषा का अध्ययन व प्रसार अल्प होने से यह आवश्यक था कि “मुहूर्तराज” जैसे जनोपयोगी ग्रन्थ को हिन्दी भाषा में अर्थ सहित तथा सविस्तार प्रस्तुत किया जाय। मुनिराज श्री जयप्रभविजयजी "श्रमण" ज्योतिष-विशारद और ज्योतिषशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान है। आपने इस पुण्य कार्य को वि.सं. २०३८ के भीनमाल चातुर्मास में प्रारम्भ किया। यह चातुर्मास अंचलगच्छ उपाश्रय में श्री घमण्डीरामजी केवलजी गोवानी की ओर से था। वि.सं. २०३८ में "श्री राजेन्द्र हिन्दी टीका” नाम से रोचक हिन्दी में सविस्तार लिखना शुरू कर आहोर में वि.सं. २०३९ के चातुर्मास परमपूज्य शासन-प्रभावक कविरत्न आचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी के पट्टधर में आपश्री ने इसे सम्पन्न किया। वि.सं. २०४० को आपका चातुर्मास पालीताना श्री राजेन्द्रविहार जैन धर्मशाला दादावाड़ी में था। वहाँ से इसे इन्दौर प्रेस में छापने के लिए दिया गया। ज्योतिष व गणित की दुरूह पुस्तक होने से छपने में कुछ विलम्ब अवश्यम्भावी था। ____ बागरा का परम सौभाग्य है कि श्री गोडी पार्श्वनाथ भव्यपूर जिनालय एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि जैन दादावाड़ी प्रासाद की शुभ छत्र छाया में अश्विन शुक्ला १० को गच्छाधिपति परमपूज्य आचार्यदेव श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजी, मनिराज श्री सौभाग्यविजयजी, ज्योतिष-विशारद मनिराज श्री जयप्रभविजयजी “श्रमण" आदि ठाणा ९ यहाँ चातुर्मास में विराजित हैं। ज्योतिषशास्त्र के विद्वानों और मनस्वियों के लिए अवश्य पठनीय ग्रन्थ "मुहूर्तराज-श्री राजेन्द्र हिन्दी टीका” वि.सं. २०४३ के इस स्मरणीय चातुर्मास में प्रकाशित हो रही है- यह अतीव हर्ष का विषय है।
विद्वद्जन इस गहन ग्रन्थ से लाभान्वित होंगे, और जनसाधारण को ज्योतिषशास्त्र जनित सुमुहूर्त, सुभविष्य आदि लाभों से उपकृत करेंगे - यही मंगल कामना !
बागरा, वि. सं. २०४३ श्रावण वदी ५, ___ दि. २६-७-८६
-पुखराज भण्डारी
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RELESED
SAYS:
.श्रीः. श्रीकाशीविश्वेश्वरो विजयतेतराम्
सुवर्णपुष्पां प्रधिकी विन्धन्ति पुरुषालयः । शूरश्च कृतविद्यश्च पच जानाति सेवितुम् ॥१॥
मानं शौप्य महः सर्च सदाचारेण शोभते ।
SHNA
ਇਸ ਸੂਰਿਸਰੀ ਚ ਵੰਬਰ । श्रीकाशीपण्डितसभा-विद्वत्सम्मानपत्रम् श्रीमता ---मुनि श्रीजयप्रमविजय प्रमण -महानुभावानां
-न्यारव्यानवाचस्पति श्रीमद् विजययतीन्द्रसूरिश्वराणा------मन्तेवासिना
------ संस्कृत-हिन्दी-महाराष्ट्री-गुर्जर्यादि विविधभाषा------------ कोविदानां धार (मध्यप्रदेश) मण्डलान्तर्गत श्रीमोहनखेड़ातीर्थ वास्तव्यानां जैन धर्ममर्यादासंरक्षणविचक्षणानां भारतीय संस्कृतिरक्षानपरिकराणां मुहूर्तराज-लग्नद्धिदीपिकाद्यनेकसथव्याख्याकाराणां प्रौढगणाग्राम-यशोविशेष-समृद्धा सख्यातिमनुसन्दघानेयं श्रीकाशीपण्डितसभा "गुणाः पूजास्थानं गुणिषु नच लिऑन च वयः" इति भवभूतिमहाकवेचनं स्मारं स्मारं सदाचारविभूषितेभ्यो गुणवस्य एभ्यः "ज्योतिषाचार्य इति पदवीं ससम्मान वितरतीति प्रमाणपतः
भएकनाभशाली सिने
सभाकार्यालया
सभापतिः शारदाभवनम्,४४, अगस्त्यकुण्डम् वाराणसी
विनोद416%
मन्त्री च तिथि कार्तिक शुक्ल सप्तमीरपिनास
বিনা কম হ8g"--- MARRE५जनम्बर १६६)
ములోనులో నుల్లో కుల కులస్తులు కులముల బలం పుంగలం
ENARMerest
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मुहूर्तराज
॥ ॐ अर्हम् ॥
सम्पादक की लेखनी से
"समयः शुभः स्यात्" अनेकानेक वसुपूर्णा इस वसुन्धरा के ऊपर वितानसदृश विस्तृत इस नीलाभनभ में महामणियों एवं रत्नों के समान जटित, स्वकीय रश्मियों से निरन्तर जाज्वल्यमान इन सूर्यादि ग्रहों, ताराओं एवं नक्षत्रों का यथावत् एवं समीचीन ज्ञान जिससे भली-भांति किया जाय उसे ज्योतिर्विद्या एवं उसके शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहते हैं। इस शास्त्र की रूप निर्देशपूर्वक उदात्त महिमा का जयघोष करते हुए आर्षवचनयथा शिखा मयूराणां, नागानां भणयो यथा ।
तथा वेदाङ्गशास्त्राणां ज्यौतिषं मूर्विवतंने ॥ सिद्धान्त संहिता होरारूपं स्कन्धत्रयात्मकम् ।
वेदस्य निर्मलं चक्षुयोतिश्शास्त्रमकल्मषम् ॥ विनैतदखिलं श्रौतं स्मार्त कर्म न सिध्यति ।
तस्माज्जगद्धितायेदं ब्रह्मणा निर्मितं पुरा ॥ ___ अर्थात् जिस प्रकार मयूरों के मस्तकों पर शिखाएँ, सर्पो के शीर्षों पर मणियाँ शोभायमान हैं उसी प्रकार वेदों एवं तदभूत शास्त्रों की शिरोमणि ज्यौतिष है। सिद्धान्त संहिता एवं होरा एतत्स्कन्ध त्रितय समन्वित यह ज्योतिषशास्त्र वेदों के तेजस्वी एवं निर्मल नेत्र हैं। इसके बिना श्रोत स्मार्तादि कर्मों की सिद्धि नहीं हो सकती अतः जगत् के हितार्थ ब्रह्मा द्वारा प्राचीन काल में ही इस शास्त्र का निर्माण किया गया है। ___यह विद्या यद्यपि खगोल सी ही विस्तृत, गहन व अनन्त है तथापि विश्व भर के विशेषतया भारत के महामनीषी, निरन्तर तत्त्व जिज्ञासु, गवेषक एवं प्रतिभाशाली गणित वेत्ताओं ने इस का आमूलचूल हस्तामलकवत् प्रत्यक्षरूपेण गणित की अनेक पद्धतियों से ज्ञानार्जन कर अपने तथ्यान्वेषणों को वर्तमान मानवी पीढ़ी तक पहुंचाने का अथक प्रयास किया है।
ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त संहिता एवं होरा ये तीन स्कन्ध हैं। संहिता एवं होरा स्कन्ध का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है, पर इन दोनों का मूल स्रोत तो सिद्धान्त स्कन्ध ही है, जिसे ग्रहसिद्धान्त भी कहा गया है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक एवं विवेचनाकार श्री आर्यभट्ट, श्री भास्कराचार्य, श्री केतकर आदि जगद् विख्यात उद्भट गणितवेत्ता हुए हैं, जिन्होंने महासिद्धान्त, सिद्धान्तशिरोमणि, केतकी ग्रहगणित जैसे व्यापक-विवेचनपूर्ण ग्रन्थों की रचना में अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, कोणमितिक एवं ग्रहगोलीय रेखागणित आदि गणित के उपकरणों के प्रयोग से अम्बर में स्थित इस सौर परिवार के पूर्ण यथावत् ज्ञतिवृत्त का विवेचनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है।
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१०]
[ मुहूर्तराज ___ इसी सिद्धान्तस्कन्धोक्त गणित के आधार पर किसी भी इष्ट समय के लग्न बिन्दु से तात्कालिक ग्रहों की विभिन्न स्थितियों के फलस्वरूप संसार के समस्त प्राणियों के विशेषकर मानवी सृष्टि में उत्पन्न जातकों के शुभाशुभ भविष्य ज्ञान की भूमिका में बुद्धि की स्वतः प्रवृत्ति होना स्वाभाविक ही है और इसी कारण से ज्यौतिष के अवशिष्ट संहिता एवं होरा स्कन्धों में फलादेश की अनेक पद्धतियाँ जन्मीं पनपी और अद्यावधि निरन्तर नवप्रणीत ज्यौतिष के कई ग्रन्थों में उद्भुत एवं पल्लवित होती हुई दृष्टिगोचर हो रही हैं।
जातक शुभाशुभ, प्रश्न, नष्टजातक, पञ्चाङ्ग, मुहूर्त, स्वप्न, शकुन स्वर एवं सामुद्रिक आदि अनिकानेक फलादेश पद्धतियाँ विश्व में विकसित हुई और आज तक विविध रूपों में विज्ञान के साथ समन्वय करती हुईं अन्यान्य फलादेश पद्धतियाँ भी प्रणीत एवं परिवर्द्धित की जा रही हैं जिनमें विश्व के समस्त मानवों की रुचि एवं आस्था है।
उपरि प्रदर्शित फलादेश पद्धतियों में "मुहूर्त ज्यौतिष" हमारा प्रकृत विषय है। इस पर किञ्चित् लिखने के पूर्व ज्योतिःप्रासाद में प्रवेशार्थ जो मुख्यद्वारभूत है, उस “पञ्चाङ्ग ज्यौतिष" पद्धति के विषय में संक्षेपतः विचार करना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो जाता है, क्योंकि मुहूर्तज्ञात करने के लिए ‘पञ्चाङ्ग' ही मुख्य उपकरण है।
“पञ्चाङ्ग" इस शब्द में ही स्पष्टरूपेण उन पाँच अंगों का निर्देश है, जिन्हें तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण इन नामों से जाना जाता है। आकाशमण्डल में सूर्यादि ग्रह व असंख्य ताराएँ हैं। इन ताराओं में अश्विन्यादि रेवती पर्यन्त २७ ताराओं का इतर नाम नक्षत्र भी है। ये नक्षत्र आकाशमण्डल में नियतरूपेण चार करते हैं, फिर भी इनके अपने-अपने स्थान नियत हैं। इन्हीं नक्षत्रों के बारह भाग १२ राशियाँ हैं जो मेषादि मीनान्त हैं। चूंकि नक्षत्र २७ हैं और उनसे राशियाँ १२ बनती हैं, अतः एक राशि २७ / १२ = २८ अर्थात् सवा दो (२।) नक्षत्रों की होती है। एक नक्षत्र के चार चरण (पाये) माने गए हैं जो (चु, चे, चो, ला) इस प्रकार अक्षरात्मक हैं, अतः एक १ राशि में या २- नक्षत्रों में २-४ ४ = ९ चरण होते हैं। एक राशि के तीस अंश हैं। एक अंश के साठवें भाग को कला, कला के साठवें भाग को विकला
और इसके भी साठवें भाग को प्रतिविकला संज्ञा से व्यवहत किया गया है। तिथि___ इन्हीं नक्षत्रों पर सूर्यादि केतुपर्यन्त प्राचीन ज्योतिषशास्त्रोक्त नौ एवं नेप्च्यून, हर्षल, आदि नवीन गवेषित ग्रहों का यथावत् समयानुकूल संक्रमण होता रहता है। इन सभी ग्रहों में सूर्य एवं चन्द्र दो मुख्य हैं ये दोनों जब स्वस्वगतिवशात् चार करते हुए एक ही राशि पर आते हैं और जब तक ये दोनों लगभग २४ घंटों तक एक ही राशिखण्ड पर होते हैं उतने काल का नाम 'अमावस्या' तिथि है। ततः चन्द्रमा पृथ्वी का परिक्रमण करता हुआ सूर्य से १२-१२ अंशात्मकसमय दूर होता जाता है वैसे-वैसे शुक्ल प्रतिपदादि तिथियाँ बनती हैं। वस्तुतस्तु सूर्य चन्द्र के अन्तर को ही 'तिथि' कहा गया है। सूर्य चन्द्र का यह तिथिविधायक अन्तर अधिकाधिक ६५ घटिकात्मक (लगभग) एवं न्यूनाति न्यून लगभग ५५ घटिकात्मक होता है, परन्तु अन्तर का मध्यममान ६० घटिकात्मक है।
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मुहूर्तराज ]
[११
वार एवं नक्षत्र
इस प्रकार तिथि निष्पत्ति के बाद सूर्य से शनिपर्यन्त सात ग्रहों के नाम पर ७ वार मान्य हुए जो सूर्य से शनिपर्यन्त हैं। वारों की प्रवृत्ति प्रत्येक स्थान पर एक ही साथ न होकर मध्यरेखा से पूर्व या पश्चिम देशान्तरानुसार सूर्योदय काल से पूर्व में या पश्चात् भी होती है। प्रवृत्ति के विषय में इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट (ग) में भली भांति बतलाया गया है अतः जिज्ञासु जन इस विषय में वहाँ देख लेंगे।
चन्द्रमा शीघ्रगतिक होने के कारण प्रतिदिन एक नक्षत्र को भोग लेता है। ये ही प्रतिदिन के अश्विन्यादि रेवतीपर्यन्त २७ नक्षत्र हैं, चूंकि अभिजिन्नामक नक्षत्र अलग से नहीं है, वह तो उत्तराषाढा के चतुर्थ चरण
और श्रवण की आरम्भिक ४ घटिकाओं से बनता है जिसका कहीं-कहीं कार्यविशेष में ही प्रयोजन है, अतः यहाँ हमने नक्षत्रों की संख्या २७ ही कही है। योगइसकी उत्पत्ति के विषय में कहा गया है
"वाक्पतेरर्क नक्षत्रं श्रवणच्चान्द्रभेव च।
गणयेत्तद्युतिं कुर्यात् योगः स्याक्षशेषतः" अर्थात् पुष्य नक्षत्र से वर्तमान सूर्याधिष्ठित नक्षत्र पर्यन्त की तथा श्रवण से चन्द्राधिष्ठित नक्षत्र पर्यन्त की संख्याओं का योग करके २७ से भाग देने पर जो शेष बचें तदनुसार विष्कुंभादि २७ योगों में से योग होता है। करण
तिथ्यर्धभाग को करण कहते हैं, अर्थात् तिथि के पूर्वार्ध एक और उत्तरार्ध में भी एक, इस प्रकार एक तिथि में दो करण होते हैं कुल करण ११ हैं जिनमें से पूर्व के चर और शेष ४ स्थिर है- यथा"बवं च बालवं चैव, कौलवं तैतिलं गरम्। वणिजं विष्टिमित्याहुः करणानि महर्षयः। अन्ते कृष्णचतुर्दश्याः शकुनिर्दर्शभागयोः। भवेच्चतुष्पदं नागं किंस्तुध्नं प्रतिपद्दले"। चर करणों में अन्तिम कर 'विष्टि' को भद्रा भी कहते है जो कि शुभ कार्यों में त्याज्य है। भद्रा विषयक विशेष जानकारी के लिए अन्यान्य ग्रन्थों में उल्लेख द्रष्टव्य है। कृष्णचतुर्दशी के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूवार्ध में चतुष्पद और उत्तरार्ध में नाग तथा शुक्लाप्रतिपदा के पूर्वार्ध में किंस्तुन नामक करण होता है। ततः शुक्लाप्रतिपदा के उत्तरार्ध के प्रारम्भ होते ही बव करण आ जाता है। इस प्रकार पञ्चाङ्गों की निष्पति हुई।
अब हम प्रकृत मुहूर्त ज्यौतिष के विषय में कहना चाहेंगे। फलादेश की यह पद्धति पुरातनकाल से ही मानव समाज में आदरणीय रही है। आज भी सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी कहीं किसी गाँव या स्थान जाने के समय ज्यौतिषी से काल, राहु और योगिनी आदि की दिशास्थिति के विषय में और कृषक आर्द्रा नक्षत्र पर सूर्य संक्रमण के विषय में एवं फसल पकने पर मीनार्क एवं कटाई के समय में तथा बीज संग्रह के समय में पंचकादि के विषय में पूछते हैं। इसी के साथ मानव के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त के गर्भाधान, जातकर्म, नामकरण, व्रतबन्ध, एवं विवाहादि सभी संस्कार एवं अन्यान्य समस्त शुभ कृत्य तिथि-वार-नक्षत्र-योग करण, सूर्यादिग्रहों की राशिस्थिति, अमुकामुक ग्रहों के उदयकाल को ध्यान में रखकर ही तदनुसार निर्णीत तत्तन्मुहूर्तों में विहित किए जाते हैं।
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१२ ]
[ मुहूर्तराज ___ “मुहूर्त ज्यौतिष" के मूलस्रोत सिद्धान्त स्कन्ध से अनुप्राणित संहिता व होरा स्कन्ध ही हैं। उनमें निहित सूत्रों का विस्तार हमें ज्यौतिष के मुहूर्त सम्बन्धी मुहूर्त कल्पद्रुम, मुहूर्त दीपक, मुहूर्त मार्तण्ड एवं मुहूर्त चिन्तामणि जैसे अनेक शीर्षस्थानीय एवं प्रामाणिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। इन ग्रन्थों में पञ्चाङ्गों की विवेचना, उनकी शुभाशुभता, उनके पारस्परिक संयोग से उत्पन्न सुयोग एवं सुयोग जातकों के समस्त संस्कार, वास्तुनिर्माण एवं उनमें प्रवेश प्रासादनिर्माण एवं देव प्रतिष्ठा तथा वापी, कूप, तडागादि खनन एवं सेतुबन्धादि मानव जीवन के महत्त्वपूर्ण कार्यकलापों के हेतु मुहूर्तों का प्रतिपादन किया गया है। ये समस्त तथा अन्य भी कई एक मुहूर्त ज्यौतिष विषय के प्रशस्त ग्रन्थ हमें उपोदय मौहूर्तिक क्षणों को ज्ञात कराने के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। ये सभी ग्रन्थ अपने आप में सम्पूर्ण हैं और चिरन्तन काल से जिस प्रकार मुहूर्तों के विषय में मानव समाज का जैसा मार्गनिर्देश करते आए हैं, वह सर्वविदित ही है।
मुहूर्तविषयक कई ग्रन्थ संस्कृत में, कई प्राकृत में, कई हिन्दी में तथा कई एक अन्यान्य प्रदेशों की भाषाओं में लिखित तथा संकलित किए गए हैं, और अद्यावधि निरन्तर अबाधगति से उत्तरोत्तर प्रणीत किए जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में ज्योतिर्विदों की जागरूकता तथा उनके सत्प्रयास स्ततियोग्य हैं।
श्री जैनधर्म में दीक्षित मुनिवरों, आचार्यों की भी अनेक विषयों में पारंगामिता, उनमें गहन, मनन एवं निदिध्यासन पूर्वक उन विषयों से सम्बन्ध ग्रन्थों के प्रणयन के प्रथित कृत्य को कौन नहीं जानता? जिस प्रकार उन्होंने व्याकरण, न्याय, दर्शन एवं धर्मसम्बधी ग्रन्थ लिखे हैं उसी प्रकार ज्यौतिषविषय में भी उनकी चमत्कारिणी प्रतिभा का वैभव ज्योतिर्ग्रन्थलेखन रूप में समाज में जनजन से अविदित नहीं है। ऐसा कोई भी विषय नहीं जो जैनमुनिवरों एवं आचार्यों की सक्षम लेखनी के आश्चर्यजनक प्रभाव से याथातथ्यपूर्ण विवरण लिपिबद्ध होने से अछूता रहा हो।
प्रस्तुत “मुहूर्तराज" संगृहीत ग्रन्थ भी ऐसे ही एक ज्योतिर्मर्मज्ञ, महामनीषी प्रतिभाशाली एवं तपोमूर्ति श्री गुलाबविजयजी महाराज का सर्वाङ्गीण पूर्ण संकलन है, जिसमें मुनिवर ने अनेक प्राचीन व अर्वाचीन ज्योतिष के ३१ ग्रन्थों का गहन अध्ययन एवं अनुशीलन करके मानव जीवन के उपयोगी ज्योतिःसम्बन्धी ज्ञातव्य पदार्थों, तथा जन जीवन के प्रसंगोपात्त विविध मुहूर्तों के क्षणों का उल्लेखनीय समावेश किया है।
एतद्ग्रन्थ संकलनकर्ता श्री मुनिवर गुलाबविजयजी, श्री कलिकालसर्वज्ञ, अनेक धर्म व अन्य विषयक ग्रन्थों के प्रणेता, अभिधानराजेन्द्रकोष सदृश मूर्धन्य कोश के रचयिता, श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय क्रियोद्धारक, विद्वच्छिरोमणि, जैनागमतत्त्ववेत्ता, महातपस्वी एवं महामनीषी, प्राणिमात्र के लिए करुणावरुणालय, प्रातःस्मरणीय १००८ श्री प्रभु श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजश्री के अन्तेवासी थे, तथा इन्होंने श्री चर्चाचक्रवर्ती, वादिभाजित्वर सिद्धवाक् १०८ श्री धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज से दीक्षा प्राप्त की थी। इनकी नवनवोन्मेषिणी तथा प्रकाण्ड विद्धत्ता एवं व्याखानचातुरी के कारण इन्हें “वाचक” उपाधि से विभूषित किया गया था। इन्होंने अपने गुरुवर श्री धनचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शासनकाल में इस ग्रन्थ का संकलन किया और इसकी पूर्णता जालोर मण्डलान्तर्गत वागरा नामक नगर में वि.सं. १९७६ के चातुर्मास की ज्ञानदात्री तिथि (कार्तिक शुक्ल ५) को की जैसा कि इस ग्रन्थ के अन्त में उनके स्वयं के द्वारा लिखित प्रशस्तिपद्यों से स्पष्ट होता है।
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मुहूर्तराज ]
तथा च
श्रीमद्रराजेन्द्रसूरे र्निखिलगुरुगुणख्यात भूर्तेः कृपाभिः, ज्योतिर्ग्रन्थाब्धिभध्यान्मणिरिव विहितश्चैष "मौहूर्तराजः " । षट्सप्ताङ्केन्दुवर्षे जगति गुणवरे वागराख्ये पुरे श्रीपञ्चभ्यां ज्ञानदात्र्यां मुनिविजययुतैः श्रीगुलाबैः प्रमोदैः 11
शश्वच्छास्त्रविवादभग्नसुधियस्तुल्यस्य वाचस्पतेः तत्पद्दे धनचन्द्रसूरिसुगुरोः राज्येऽकरोत् संग्रहम् । दैवज्ञोऽध्ययनेन चास्य सुकृती स्याद्विश्वसत्कीर्तिभाक् काऽप्यस्मिन् यदशुद्धिजं किल भवेत्तच्छोधनीयं बुधैः ।
"
प्रस्तुत संकलन में शुभाशुभ, लग्नशुद्धि, आवश्यकमुहूर्त, वास्तुनिर्माण एवं वास्तुप्रवेश नामक ५ प्रकरण हैं, जिनमें अतीवोपयोगी ज्योतिःसम्बन्धी बिन्दुओं का विवेचन है तथा अनेक महामनीषी त्रिकालदर्शी महर्षियों द्वारा उक्त सिद्धान्तवचनों का प्रसंगोपात्त उल्लेख संग्रहीत किया गया है।
[ १३
१. शुभाशुभ प्रकरण
प्रथम शुभाशुभ नामक प्रकरण में मङ्गलाचरणोंपरान्त शालिवाहन शकोपरि विक्रम संवत् ज्ञानोपाय, सूर्यसंक्रान्तिवशाद् उसकी उत्तरायण व दक्षिणायन प्रवृत्ति क्षयाधिक एवं मलमास, नियतसमय के कृत्यों में मलमास, गुरुशुक्रादि अस्ततादोष की अमान्यता, त्रयोदशदिवसीय पक्ष में शुभकृत्यनिषेध, तिथियों की नन्दादिसंज्ञाएँ, दग्धादितिथियाँ, तिथियों के स्वामी, क्षय एवं वृद्धि तिथि के लक्षण, वार- ज्ञान एवं तत्प्रवृत्तिसमय, शुभाशुभवारों में करणीय कृत्य, फलसहित कालहोराएँ (क्षणवार) वार वेला, वारानुसार छायालग्न, नक्षत्रपरिचय, उनके स्वामी व उनकी ध्रुव चरादिक संज्ञाएँ, पंचकावधि एवं तत्फल, पुष्य नक्षत्र की दीक्षा एवं विवाहातिरिक्त कृत्यों में सर्वोत्तमता, राशि स्वामी, वैवाहिक मुहूर्त में प्रयोज्य अष्टकूटादि, विष्कुंभादि २७ योग, आनन्दादियोग, अमृतसिद्धि तथा सर्वार्थसिद्धयादि सुयोग, कुलिकादि कुयोग, सिद्धियोगों की भी कार्य विशेष में हेयता, सर्वदोषनाशक व सर्वसिद्धिदायक रवियोग, चन्द्रगोचरताविचार, शनि एवं गुरु के पाद (पाये) विचार, भद्रानिर्णय, उसकी स्वर्गादिनिवासत्वेन एवं पूर्वार्धपरार्धस्थिति से उपादेयता एवं सामान्यस्थिति में हेयता, गुरुशुक्रास्त में • वर्ज्य कृत्य, उनके अस्तत्वदोष का परिहार, होलाष्टक, देशविशेष में उसकी मान्यता अतः दोषावहता तथा उसका परिहार, विवाह में हेय लत्ता पातादि दश दोष विवेचन आदि अतीवोपयोगी जनजीवन में अतीव विचारणीय बिन्दुओं का सविवेचन समावेश है। स्थान-स्थान पर विषय की प्रामाणिकता सिद्धि व पुष्टि हेतु वसिष्ठ, नारद, गर्ग, लल्ल आदि ज्योतिर्वेत्ता महर्षियों के वचनों का भी निवेश किया जिससे विषय अत्यन्त स्पष्ट, मनोहर एवं प्रभावोत्पादक तथा सुग्राह्य बन गया है।
लग्न शुद्धि
इसी द्वितीय प्रकरण में लग्न पत्र के अवलम्बन से सूर्यराश्यंशानुसार स्थूल लग्नानयन विधि, नवांश साधन, राशिसम्बद्ध द्वादशभाव, भावों की केन्द्रादि संज्ञाएँ, ग्रहों की उच्च नीच राशियाँ, उनका प्रयोजन,
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१४ ]
[ मुहूर्तराज
ग्रहों की दृष्टि, एवं उनकी सौम्यक्रूरता, ग्रहों की कुण्डली स्थिति से लग्नभंगदता, ग्रहों की रेखादातृता, कर्तरी दोष तथा अन्यान्य उक्तानुक्त दोषों का परिहार इत्यादि आवश्यकीय पदार्थ ज्ञानसम्बद्ध शीर्षक उनके अन्तर्गत ऋषि-मुनि कथित उद्धरण वचनों को समाविष्ट किया गया है।
इसी लग्नशुद्धि प्रकरण से सम्बद्ध लग्न विषयक विशेष ज्ञातव्य किञ्चिद् वक्तव्य श्री वासुदेवगुप्त द्वारा संकलित “अभिनवबृहज्यौतिषसार” नामक ग्रन्थ की भूमिका से उद्धृत करना अप्रासंगिक एवं अस्वाभाविक न होगा प्रत्युत फलादेश के मुख्य आधारभूत लग्न के विषय में विशेष जानकारी होगी।
उक्त ग्रन्थ भूमिका में श्री गुप्त लिखते हैं
फलादेश का प्रबल एवं विवेकपूर्ण आधार 'लग्न' ही है। कहा भी हैकैश्चिद् कालबलं प्रधानमुदितं कैश्चिद् विलग्नं बलं
तथा च
"
सिद्धान्ते खलु सारभूतमुदितं लग्न प्रधानं सदा । लग्नाद् भूतभविष्यमध्यतनुजं कालत्रयं ज्ञायते
धात्रा यल्लिखितं ललाटपटले सर्वं विधत्ते पुमान ।
लग्नमात्मा मनश्चन्द्रः तद्योगात्फलनिर्णयः । तस्भलग्नं च चन्द्रं च विलोक्य फलभादिशेत् ॥
अर्थात् कतिपय विद्वान् कालवल ( मुहूर्तबल को ) प्रधान मानते हैं और कुछ एक लग्न बल को, किन्तु ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त ग्रन्थों में निष्कर्षरूपेण लग्न को ही प्रधानता दी गई है। लग्न के द्वारा प्राणी भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों कालों को मालूम करता है तथा जो कुछ विधाता ने ललाट में लिखा है वह भी इसी से प्रकट करता है। लग्न फलितशास्त्र की 'आत्मा' तथा चन्द्रमा 'मन' है। इन दोनों के योग से ही फलादेश का निर्णय होता है अतः विज्ञ ज्योतिर्विद् को चाहिए कि 'लग्न' एवं 'चन्द्र' दोनों को देखकर फलादेश कहे।
इस प्रकार के अनेकों वचन ज्योतिर्ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होते हैं पर फलादेश के उपयुक्त कौनसा लग्न है तदर्थं लग्नसाधन किस प्रकार किया जाय, यह एक विचारणीय प्रश्न है। ज्योतिषशास्त्रानुसार फल दो प्रकार के हैं- (१) दृष्ट (२) अदृष्ट | ज्यौतिषगणितशास्त्र क्रियाओं का दृष्टफल सूर्यचन्द्रादिग्रहण, ग्रहचार तथा ग्रहों के बिम्बोदयास्त आदि हैं एवं ज्यौतिष के जातक स्कन्ध के अन्तर्गत जन्म लग्न एवं प्रश्नलग्न से विचारणीय फलादेश विवाह यात्रादि का शुभाशुभ फल जो प्रत्यक्ष में दृष्ट न होकर कालान्तर अनुभूत होता है वह अदृष्टफल कहा जाता है। इन्हीं दोनों फलों के ज्ञानार्थ आचार्यों ने लग्न के भी दो भेद किए हैं - एक भवृत्तीय लग्न, दूसरा भबिम्बीय लग्न ।
=
अदृष्टफलकाभ्य जन्म-यात्रा - विवाहादि सत्कार्यों में भी प्रचलित (भवृत्तीय दृष्टफलार्थ, अनार्ष) लग्न के प्रयोग से फलित ग्रन्थोक्त फलादेश करने में सहस्त्रशः दोष आते हैं तथा फलादेश में विसंगतियाँ होती है और आर्ष (भबिम्बीय = तुल्लोदय) लग्न के प्रयोग से फलित में किसी प्रकार की विसंगति न आकर पूर्णतया संगति का दिग्दर्शन होता है, किन्तु यवनकालीन साम्राज्य से चले आ रहे अन्धपरम्परानुगत अदृष्टफलीय
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मुहूर्तराज ]
[१५
यात्रा विवाहदि कृत्यों में भवृत्तीय लग्न का प्रयोग करने से हमारे धर्मकृत्यों पर कुठाराघात हो रहा है अतः (भवृत्तीय लग्न का) यात्रा विवाहादि कृत्यों में बहिष्कार कर उसी प्राचीन आर्ष लग्न का प्रयोग प्रारम्भ करेंगे तभी ज्यौतिष शास्त्र की रक्षा होगी।
हमारे देश के महर्षियों ने दोनों लग्नों से दोनों प्रकार के (पूर्वोक्त) सूर्यग्रहणादि साधन में (दृष्ट) तथा जन्मयात्राविवाहादि में (अदृष्ट) कार्यों को करने का आदेश दिया है। परञ्च कालान्तर में भारत पर यवनाधिपत्य से हमारे ज्ञान-विज्ञान के साहित्य में ह्रास का बीजारोपण होने से ज्योतिः सिद्धान्तग्रन्थ रचयिताओं में तथा परम्परावश तदध्येताओं में प्रमादपूर्ण त्रुटियाँ आने लगी, इसका प्रमाण स्वस्वदेशोदय सिद्ध लग्न का दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों कार्यों में ग्रहण करना ही है। इस त्रुटि की ओर सर्वप्रथम हमारा ध्यान श्रीकमलाकर भट्ट ने आकर्षित करते हुए लिखा है"महर्षिभिः स्वीयकृतौ निरुक्ता, लग्नांशतुल्या रविसंख्यका ये ।।
भावाः सभा एव सदा फलार्थ, ग्राह्यास्त एवं ग्रहगोलविद्भिः ॥ मुन्युक्तभावात्परतोऽपि पूर्व तिथ्यंशकैस्तस्य फलं निरुक्तम् ।
लोकेषु मूर्योदर पूरणार्थ मूर्विलग्नाद् रविसंख्यका ये "भावा निरुक्ता स्वधिया त्वनार्षाः सम्यक् फलार्थ नहि तेऽवगम्याः ॥
अर्थात् महर्षियों ने स्वस्वग्रन्थों में लग्न के अंशतुल्य (लग्नराश्यादि में १-१ राशि जोड़कर) अंशवाले उदयमान से जो द्वादशभावों का साधन किया है ग्रहगोलज्ञाताओं द्वारा अदृष्ट फल ज्ञानार्थ सदा उन्हीं भावों को ग्रहण करना चाहिए। उन मुनियों द्वारा कहे हुए भावों से १५ अंश पूर्व से तथा १५ अंश आगे तक (पूरे ३० अंशों के भीतर) उस भाव का फल कहा गया है। किन्तु मूों ने अपने सदृश अन्य मूों की उदरपूर्त्यर्थ स्वस्वोदयसिद्ध = अनार्ष, जो द्वादश भावों की कल्पना की है उन भावों को अदृष्ट फलकथन में कभी भी उपयुक्त नहीं मानना चाहिए।" ___ उक्तोद्धरण में कथित “समानांशीय द्वादशभाव” भबिम्बीय लग्न से ही संभव हैं भवृत्तीय से नहीं, यह बात यदि गम्भीरतापूर्वक विचारी जाय तो स्वयमेव ज्ञात हो जाती है। किन्तु श्रीकमलाकर भट्ट के द्वारा इस तथ्योद्घाटन के बाद भी स्वस्वोदयसिद्ध भावों द्वारा ही यात्राविवाहादिसम्बन्ध फलकथन किया जाता है जिसमें सहस्रशः दोष आते हैं। मैं यहाँ केवल एक उदाहरण द्वारा प्रचलित अनार्ष लग्न से फलितग्रन्थों में कतिपय दोषों का दिग्दर्शन कराता हूँ___ यथा- जैमिनि-पराशरादि महर्षियों ने जन्म, यात्रा, विवाहादि के लिए भूकेन्द्रीय दृष्टिवश लग्नादि द्वादशभावों का साधन करके त्रिकोण भावेशों को शुभप्रद और द्वितीय सप्तमभावेशों को मारकेश (मरणकारकें) बताया है। अष्टमभाव को (मृत्यु) और नवमभाव को “धर्म या भाग्य” स्थान कहा है। इसलिए सभी ने (भारतीय महर्षि आचार्य एवं यवनाचार्य आदिकों ने भी) मेष लग्न में जन्म लेने वालों के लिए मंगल को लग्नेश, सूर्य को पञ्चमेश और गुरु को नवमेश (धर्मेश) होने के कारण नित्य सर्वत्र शुभप्रद कथा शुक्र को द्वितीयेश और सप्तमेश होने के कारण मारकेश बताया है। वृषलग्न वालों के लिए धर्मेश कर्मेश होने के कारण शनि को राजयोग कारक कहा है। मिथुन लग्न वालों के लिए बुध को लग्नेश तथा सुखेश होने से शुभद बताया है। बृहत्पाराशरादि आर्षग्रन्थों या यवन जातकादि ग्रन्थों में कर्क लग्न वालों के लिए लग्नेश
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१६ ]
[ मुहूर्तराज
होने के कारण चन्द्रमा को शुभ और केन्द्र तथा त्रिकोणेश होने से मंगल को राजयोगकारक कहा है। इसी प्रकार अष्टम भाव (मृत्यु) के द्रेष्काण को मरणकारण कहा गया है तथा महर्षियों या यवनों के सभी ग्रन्थों में- रवि और चन्द्रमा को केवल एक-एक भाव का स्वामी तथा मंगलादि ग्रहों के दो-दो भावों का स्वामी बताया है एवं तदनुसार ही सभी लग्नों में ग्रहस्थिति से शुभाशुभ फल भी कहा है।
उपर्युक्तोद्धरणोक्त सभी बातें आर्षलग्न ( सर्वत्र तुल्योदय) सिद्ध भावों से ही सिद्ध हो सकती हैं, अनार्षलग्न (स्वस्वोदय) सिद्ध भावों द्वारा नहीं। क्योंकि स्वस्वोदय द्वारा सर्वत्र सभी भावों की सिद्धि हो ही नहीं सकती, तथा एक ही ग्रह ३-४-५-६ भावों के स्वामी हो जाने से सब फलित ग्रन्थ व्यर्थ हो जाते हैं। कभी सूर्य और चन्द्रमा दो-दो भावों के स्वामी हो जाते हैं- इस प्रकार की अनेक विसंगतियाँ इस अनार्षलग्न से हो जाती है।
अब एक उदाहरण द्वारा स्वोदय सिद्ध भावों तथा तुल्योदय सिद्ध भावों को समझाया गया है—
उदाहरण – जन्मस्थान काशी। सं. २०१५ अधिक श्रावण शुक्ला १ गुरुवार, सूर्योदय वेला में किसी का जन्म हुआ। इष्ट ०1० सूर्य ३|०|४४।२८, अयनांश, २३।१५। ३२ । दिनार्थ १४।४८ और दिनमान ३३॥३६॥
तनु
३
४४
२८
•
०
तनु
2 go w
४४
२८
धन सह.
३
२८
९
४
२०
धन
४
О
x
२५
३३
४०
४०
सहज
५
०
४४
४४
२८ २८
सुख
५
२२
५८
१७
०
सुख
220m
६
॥ स्वोदय सिद्ध (अनार्ष) भाव ॥
रिपु
मृत्यु धर्म
पुत्र
६
२५
३३
४४
४०
२८
४० २० o
७
७
२८
९
४
o
स्त्री
९
४४
२८ २८ २८
o
2 200
४४ ४४ ४४
९
२८
९
४
१०
२५
३३
४०
२० ४०
२८
१० ११
०
कर्म
११
२२
५८
१७
०
॥ तुल्योदय सिद्ध (आर्ष) भाव ॥
पुत्र शत्रु स्त्री मृत्यु धर्म कर्म आय व्यय भाव.
आय
~ 0
०
२५
३३ ९
४० ४ ४०
१२ १
व्यय ← भाव
०
४४ ४४ ४४ ४४ २८ २८
१
२८
२०
~ 2o u
४४
श.
अं.
२८ २८ २८
क.
वि.
प्र. वि.
रा.
अं.
यहाँ अनार्ष लग्न भावों को देखिए- तनुभाव में भी कर्क एवं धन भाव में भी कर्क राशि है । लग्नेश भी चन्द्रमा और द्वितीयेश भी चन्द्रमा । इस प्रकार चन्द्र ही लग्नेश और मारकेश भी सिद्ध होता है जब कि चन्द्रमा को किसी भी फलित ग्रन्थ में २ भावों का स्वामी नहीं बताया गया है।
क.
वि.
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मुहूर्तराज ]
[१७
तथा कर्क लग्न वालों के लिए-मंगल को त्रिकोणकेन्द्राधिप होने से निश्चित 'राजयोगकारक' कहा गया है जो यहाँ अनार्ष लग्न से प्रत्यक्ष षष्ठायपति (६-११) होने से परम अनिष्टकारक हो जाता है। तथा एक ही शनि स्त्री-मृत्यु एवं धर्म भाव का स्वामी बन गया है।
तथा च सब ग्रन्थों में लग्न से २२ वाँ द्रेष्काण (अर्थात् मृत्यु भाव के प्रथम द्रेष्काण) को मृत्युकारण कहा गया है। २२ वाँ द्रेष्काण तो कर्क लग्न से ७ वीं राशि के अनन्तर कुंभ में ही हो सकता है, किन्तु यहाँ अनार्ष लग्नभाव से मकर का तृतीय द्रेष्काण है जो लग्न से २१ वाँ है, एवं और २ भावों में भी फलवैपरीत्य हो जाता है।
किन्तु आर्षलग्नसिद्धभावों से ये दोष तथा अन्य विसंगतियाँ नहीं होकर फलादेश शास्त्रोक्त फल संगत
होते हैं।
“अतः अदृष्टफल में आर्षलग्न का ही प्रयोग करना युक्तिसंगत है” इस प्रकार वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आदि के ज्यौतिष विभागाध्यक्ष आदि अनेक विद्ववानों, पञ्चाङ्गकारों ने सभ्यग् अवलोकन कर स्वसम्मतियाँ लिखी हैं।
अतएव ज्योतिर्विद्या के मर्मज्ञ एवं प्रेमी विद्वानों का यह परम कर्त्तव्य हो जाता है कि वे अदृष्टफल ज्ञानार्थ जन्म, यात्रा, विवाहादि कृत्यों में पराशरादि कथित आर्षलग्नभाव का ही प्रयोग करें तथा अन्य विद्वानों को एतदर्थ प्रेरित करें जिससे फलादेश में किसी प्रकार की असंगति न हो।
(अ.बृ.ज्यौ.सार से) इस प्रकार इस संकलन ग्रन्थ 'मुहूर्तराज' के द्वितीय लग्नशुद्धि नामक प्रकरण से सम्बन्ध लग्न के विषय में कुछ विशेष ज्ञातव्य की चर्चा की गई। ३. आवश्यक मुहूर्त प्रकरण
इसमें अक्षरारंभ, विद्यारंभ, दीक्षामुहूर्त, तत्सम्बद्ध लग्नशुद्धि, लोचकर्ममुहूर्त, पात्रादिभोग, आचार्यादि स्थापन के तथा यात्रा प्रसंग में प्रस्थान वारशूल, नक्षत्रशूल, तत्परिहार, योगिनीकाल पाशादिविचार, चन्द्रादिग्रहचार, सम्मुख शुकदोष, प्रतिशुक्रापवाद्, यात्रा लग्न में रेखादायिग्रह, तथा शुभाशुभ शकुन, सर्वशकुनों से मनःशुद्धि का शकुनप्राबल्य, यात्रोपरान्त गृहप्रवेश एवं नव्यवस्त्र परिधानादि से सम्बद्ध मुहूर्तों की विवेचना में ऋषियों एवं आप्नपुरुषों के प्रामाणिक एवं अकाट्य तथ्यवचनों का संकलन किया गया है।
तदुपरान्त चतुर्थ वास्तुप्रकरण है। इसमें वास्तुनिर्माण प्रयोजन, गृहपति एवं उसका उस ग्राम नगरादि से जहाँ वह वास्तुनिर्माण कराना चाहता है मेलापन, वास्त्वारंभ में विहित सौर (संक्रान्ति) एवं चान्द्रमास वास्तु में ग्राह्य तिथिवार नक्षत्रादि, वास्त्वर्थ देय खात की विदिशाएँ (ईशान, आग्नेय, नैर्ऋत्य एवं वायव्य कोण) राहुमुख, गृहारंभ में वत्स विचार व तदर्थ लग्न शुद्धि, गृह में देवालय, विद्याकक्ष, भोजनशाला आदि कक्षों के लिए उपयुक्त दिशा-विदिशाएँ, द्वार निवेश, तदर्थ द्वारचक्र एवं द्वारवेध आदि शीर्षकों का भलीभांति विवेचनपूर्वक सन्निवेश किया गया है।
इस संकलन का अन्तिम प्रकरण गृहप्रवेशापरपर्याय 'प्रतिष्ठा प्रकरण' है। इसमें गृहसम्बन्धी त्रिविध प्रवेश (नूतन, पुरातन एवं जीर्णोद्धृत) तदर्थ चान्द्रमासों, तिथियों, वारों, एवं नक्षत्रों का विधान, प्रवेश में कलश चक्र, वामार्कज्ञान, वास्तुपूजा आदि एवं सुरप्रतिष्ठा में ग्राह्य मास नक्षत्रादि, लग्न व नवांश की बलवत्ता,
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१८ ]
[ मुहूर्तराज प्रतिष्ठा में रेखादातृ एवं भंगद ग्रह, शुक्र की पृष्ठस्थता आदि उपयोगी अंशों का सविवेचन, संकलन करके श्रीमद् गुरुदेव के असीमानुग्रह से निर्विघ्नतया ग्रन्थ पूर्ति करते-करते श्रीमच्चतुर्विंशति तीर्थंकरों के च्यवन नक्षत्रों, उनकी राशियों योनियों तथा उनके नक्षत्र गणों, उनके लाच्छनों व अष्टमार्गलिक वस्तुनामों का उल्लेख करके एतद्ग्रन्थसंग्रहकर्ता श्रीमुनिवर श्री गुलाबविजयजी ने ग्रन्थ का मंगलान्तरूपेण समपान किया है।
प्रकरण पंचक से विराजित यह “मुहूर्तराज” अतीव उपादेय हो गया है तथा मुहूर्तों के सम्बन्ध में इतना सुस्पष्ट निर्देश देता है कि एतदाधार से निर्दोष मुहूर्त ज्ञात करने में किसी प्रकार का विशेष आयास नहीं करना पड़ता। इसमें निहित मूलश्लोकों एवं उद्धरणांशों की भाषा भी सरल संस्कृतमयी होने से शीघ्र ही हृदयङ्गम हो जाती है।
संकलनकर्ता मुनिवर को इस ग्रन्थ के संकलनार्थ ज्योतिर्ग्रन्थों के अनवरत अवलोकन व मनन में, विषय के उपक्रम विस्तारादि संयोजन में एवं तदुपरान्त लिपिबद्ध करने में कितना आयास करना पड़ा होगा इसे तो वे अहोरात्र ही प्रत्यक्षरूपेण जानते हैं जिनमें यह महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित हुआ; उस आयास का अनुमान सहृदयजन अवश्य ही लगा सकते हैं।
यद्यपि मुहूर्त ज्यौतिष से सम्बन्ध अनेकानेक संकलन ग्रन्थ वर्तमान हैं तथापि संक्षेपतः जीवन के नितान्त उपयोगी, जन सामान्य के लिए निरन्तर अपेक्षणीय मौहूर्तिक क्षणों को जितना झटिति इस संकलन का अवलम्बन कर ज्ञात किया जा सकता है उसे तो सुज्ञ, विज्ञ एवं विचारशील विद्वज्जन स्वयमेव प्रत्यक्ष रूपेण ज्ञात करेंगे एवं साथ ही इसकी उपादेयता तथा सरलतया सुबोध्यता का पता लगा सकेंगे। तथा च इस ग्रन्थ को सर्वाङ्गीणरूपेण उपादेय एवं उपयोगी बनाने के लिए अन्त में चार परिशिष्टों का भी समावेश किया गया है।
अन्त में प्रस्तुत ग्रन्थ के हिन्दी टीकाकार ज्यौतिष विशारद मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण ने इस ग्रन्थ के सम्पादन का कार्य मुझे सौंपा जिसे मैंने अपना परम सौभाग्य मानकर इस ग्रन्थ के मूल श्लोकों की संस्कृत में व्याख्या की एवं सारणियों व परिशिष्टों का संशोधन पूर्वक संकलन किया। मैं अपने पूज्य पितृप्रवर ज्योतिर्विद् पं. श्री गौरीशंकरजी के शुभाशीर्वाद से इस ज्ञानाराधना को करने में कितना सफल हो सका हूँ, इसका निर्णय तो सुहृदय पाठक ही करेंगे। वस्तुतः मैं स्वयं को तभी धन्य एवं स्वकीय श्रम को सार्थक मानूंगा यदि ज्योतिर्जिज्ञासुओं के लिए यह कार्य अल्पमात्रा में भी सन्तोषकारक एवं उपादेय बन सकेगा। __श्री मुनिवर्य उपाध्याय श्री गुलाब विजयजी द्वारा संकलित एवं श्री राजेन्द्र हिन्दी टीकाकार ज्योतिष विशारद मुनिप्रवर श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण की हिन्दी टीका से युक्त यह ज्योतिर्विद्या का ज्योतिः स्तम्भरूप संकलन सदैव जन-जन का मनोहारी एवं मार्ग प्रशस्तिकारी हो इसी मंगलमयी कामना के साथ। किं सुज्ञेषु बहुता। इति शम्।
___ विद्वद्वन्द वशंवदंपं. गोविन्दराम श्रीगौरीशंकरजी द्विवेदी
हरजी (जालौर) निवासी अभी आहोर ३०७०२९ (राज.)
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र
श्री मुहूर्तराज राजेन्द्र हिन्दी टीका की द्वितीया वृत्ति के उपदेशक
परम पूज्य ज्योतिषाचार्य शासन दीपक मुनिप्रवर श्रीजयप्रभविजयजी "श्रमण” महाराज के शिष्य रत्न
शासनरत्न प्रवचन कार मुनिवर श्री हितेशचन्द्र विजयजी श्रेयस महाराज
परम पूज्य जयोतिषाचार्य शासन दीपक मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी "श्रमण" महाराज के शिष्य रत्न
मधुर गायक मुनिवर श्री दिव्यचन्द्र विजयजी सुमन महाराज
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-
॥ श्री ॥
संस्कृतिसंस्कृतपरिपोषणसमुल्सुकमानसानां परहितचिन्तनव्यापृतचेतसां गोद्विजसत्कारखत
परायणानां महामतिमतामनन्त
श्रीविभूषितानां ज्योतिर्विदां प्राचीनपरम्परापरिपोषकाणां श्रीमतां जयप्रभविजय महाराजानां
पाणिपाथोजयोः
समुपहियमाणः शुभाभिनन्दनपद्यप्रसूनाञ्जलिः |
कमा नम्रता यतीन्द्रा यमनियमपरा भारतीभव्यभक्ता विद्याभूषाजनेशा: सुकृतततिधरा शुभ्रवेशा रसाया: ।
लोकालोकैकदीपा: स्मरहरनगरे मोदयन्तो बुधान्त:, सद्वाञ्छा सव्रता: के भुवनविजयिण: संजयन्तीह वेद्याम् ॥१॥
मान्य जय जयप्रभसूरियतीश्वर विजयदा भुवि भातु मतिस्तव।
सहजसंस्कृतिसारसुधामयी विजयतां तव गीर्विमला रमा ||२||
-
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वहतु निर्मलगाङ्गजलापगा दहतु पापकुलं तव भारती । हस्तु भीतिकुलं कुशलानना तव मनोरम पद्धतिरामरी ॥३॥ तव जयप्रभनामयुतं शिवं विबुधवैभव भूरिधरं वरम् । विजयनाम महाधनमत्र शं
दिशतु भुतलतापकुलापहम् ॥४॥ राजेन्द्रसूरिर्भवतां गुरुणां
गुरु: प्रशिन्यां प्रथितो प्रथितो महात्मा । यतीन्द्रसूरिर्भवतां गुरुश्व राराज्यते भारतभव्यभूमौ ||५|| - परम्परायां महतां भवन्तो यशो लभन्तां नितरां महार्हम् । दीर्घायुषा भक्तकुलं धरित्र्यां संवर्धयन्तो विजयं लभन्ताम् ||६||
शारदा भवन मगस्त्य कुण्डम् वाराणसी।
तिथि: कार्तिक शुक्ल सप्तमी
सम्वत् २०४६
वयंस्मो वाराणसेयाः सुरभारतीसेवकाः ।
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। सुकृत, सहयोगी)
मुहूर्तराज श्री राजेन्द्र हिन्दी-टीका के द्वितीय संस्करण के दान दाताओं की
स्वर्णिम - नामावली प्रवचनकार शासनरत्न मुनिराज श्री हितेशचन्द्र विजयजी श्रेयस' ___ मुनिराज श्री दिव्यचन्द्र विजयजी 'सुमन'
के उपदेश से
१. जैनरत्न समाज भूषण दानवीर श्री मूलचन्द जयन्तीलाल, कात्तिलाल, अशोककुमार, प्रियंक
कुमार, रितेश कुमार, शेंकि कुमार, शंशाक कुमार बेटा पोता फूलचन्दजी बाफना, भीनमाल । श्री पन्नालाल रमेशचन्द्र जवेरी/अरविन्द कुमार, प्रफुल्ल कुमार, राहुल कुमार, निरिवल कुमार
बेटा पोता वक्तावरमलजी चमनाजी राणावत दूजाणा! ३. श्री भूपेन्द्रसूरि साहित्य समिति आहोर मंत्री श्री शान्तिलालजी मुथा, आहोर (राजस्थान )। ४. सियाणा शाह जवेरचन्द शान्तिलाल मीठालाल शिरिश पुष्पक बेटा पोता नोपाजी लखमाजी ।
श्री सुमेरमलकिशोरमल रमेश कुमारपंकज कुमार हितेश कुमार करणकुमार बेटा पोता श्री केवल चन्द जी नहार, भीनमाल (राज.)। श्रीमती ओटीबाई श्री फूलचन्द जैन मेमोरियल ट्रस्ट, आहोर (राज.)। श्री पदमकुमार कमल कुमार चन्द्रप्रकाश, अतुल कुमार श्री कान्त कुमार दीपक कुमार प्रणय कुमार, अमन कुमार नाहटा,जावरा। मनावार (मध्य-प्रदेश) निवासी श्रीरमेशचन्द्रजी प्रविण कुमार, धर्मपत्नी उर्मिलादेवी, सुशीलकुमार, धर्मपत्नी अं.सौ. श्रीमती रजनीदेवी, हेमन्तकुमार धर्मपत्नी शीलादेवी, राजेशकुमार धर्मपत्नी अं.सौ. श्रीमति ममता देवी, श्री शैलेन्द्रकुमार, श्रीपारसकुमार पौत्र, विं. लवेश, पौत्री विं. रचाति, विं. अंजली, चिं. शीवानी। फर्म-* मेसर्सरमेशचन्द्रमांगीलालखटोड * खटोडइन्टरप्राईज * लवेशउद्योग *
फोन - ०७२४,३२२३३,३२E४०,३२३७७
e. श्री हेमराजजी राजमल वाणीगोता, भीनमाल (राज.)। १०. श्री प्रदीपकुमार, संदीप कुमार, सुदीपकुमार श्रीमाल, इन्दौर (म.प्र.)।
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________________
११. श्री अनोखीलाल प्रबोध कुमार प्रवीर कुमार, अनिल कुमार लि. शुभम कुमार पेटलावद
निवासी (म.प्र.)। फर्म: * अनिल कुमार अनोरवीलालमोदी * अनिल ट्रेडर्स *
पेटलावद (म.प्र.)
१२. श्री सुरेश कुमार, विनोद कुमार, ललित कुमार, नरेश कुमार, बेटा पोता खुशालवन्दजी
मेघराजजी साजी, जालौर (राजस्थान)।
१३. श्री मिश्रीलाल नरपतराज महेन्द्र कुमार मुकेश कुमारबेटापोता वक्तावरमलजी जमनाजीराणावत ।
दूजाणा। १४. श्री हस्तिमलजी धर्मपत्नी श्रीमती वदामबाई के सुकृत फण्ड से सुपुत्र विजयराज बाबूलाल
तेजराज नेमीचन्द राजेन्द्र कुमार, आहोर (राजस्थान)। १५. श्री घेवरचन्दजी वजावत की स्मृति में धर्मपत्नी गटुबाई सुपुत्र पारसमलकानराज, रमेश
कुमार, अशोक कुमार बेटा पोतानगराजजी वजावत आहोर (राजस्थान)।
फर्म :
*घेवरचन्दकानराज*
* वजावतघेवरचन्दएण्डकम्पनी*
तनूक (आन्ध्रप्रदेश)
गुलालवाडी, वम्बई - ४ १६६. स्वर्गीय मातुश्रीप्यारीबाई की स्मृति मेंशान्तिलालजवरचन्द चम्पालाल कान्तिलाल अशोक
कुमार, सुरेश कुमार उत्तम कुमार, अमृत कुमार बेटापोता मूलवन्दजी सुखरामजी गदईया
फर्म : * मोहनलालकान्तिलाल *
२९, मीनाक्षी टेम्पल स्ट्रीट, मदुराई (तमिलनाडू) १७. श्री मेधराज,धनपतराज, मनोज कुमार, सुनील कुमार, मितेशकुमार विकाशकुमारबेटा
पोताघमण्डीरामजी, मुलतानमलजीश्री श्रीमाल हस्ते अ.सौ. श्रीमती पुष्पादेवी श्री श्रीमाल
भीनमाल (राजस्थान)। १८. श्री राजेन्द्र कुमारजी पारख के सुपुत्र श्री सुनील कुमारजी वधर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती उषा
देवी व अनिल कुमारजी व धर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती पूनमदेवी पौत्र वि. अभिनव बड़वाह निवासी (म.प्र.)।
ARS
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________________
हूर्तराज ]
श्री मुहूर्तराज ग्रन्थ में __॥ संकलन समुध्द अन्थों की व ग्रन्थ नामाक्षर संकेतों की सूची ॥ क्रमांक ग्रन्थों के नाम
अन्यनाम संकेताक्षर
अ. रा. आ. सि. आ. सि.टी.
क.सं. ग.पु.
ज.मो.
अभिधान राजेन्द्र कोष आरम्भसिद्धि आरम्भसिद्धि टीका कश्यपसंहिता गरुड पुराण जगन्मोहन ज्यौतिषसार (१) ज्योतिषर्निबन्ध (२) ज्योतिश्चिन्तामणि ज्यौतिषसार सागर दिनशुद्धि दैवज्ञवल्लभ नारचन्द्र नारचन्द्र टिप्पणक
ब्रह्मसिद्धान्त १६ मार्कण्डेय पुराण
मुहूर्त चिन्तामणि १८ मुहूर्त चिन्तामणि टीका
मुहूर्त प्रकाश यति वल्लभ राजमार्तण्ड वास्तुप्रकाश वैखनससंहिता व्यवहारप्रकाश व्यवहारसार
व्यवहार चण्डेश्वर २७ व्यवहार समुच्चय २८ शीघ्रबोध २९ शार्गीय विवाह पटल
सत्तरिसयठाणा हर्षप्रकाश
। । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । । ।
ज्यौ.सा. ज्यो.नि.
ज्यो.चि. ज्यौ.सा.सा. दि.शु.
दै.व. ना.चं. ना.टी. ब्र.सि. मार्क.पु.
मु.चि.
मु.चि.टी.
मु.प्र. य.व.
रा.मा.
वा.प्र.
वै.सं.
व्य.प्र. व्य.सा. व्य.च. व्य.सं.
शी.बो. शा.वि.प.
सत्त.
ह.प्र.
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________________
२०]
अं
[ मुहूर्तराज
श्री मुहूर्तराज ग्रन्थ में सहायक ग्रन्थों की नामावली (समुद्धत ग्रन्थों की व ग्रन्थनामावार संकेतों की सूची)
अपूर्णनामानि
१.
२.
३.
४.
4.
६.
७.
८.
९.
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
१६.
१७.
१८.
१९.
२०.
२१.
२२.
२३.
२४.
२५.
२६.
२७.
२८.
२९.
३०.
३१.
३२.
अ. रा.
आ. सि.
आ. टी.
क. सं.
ग. पु.
ज. मो.
ज्यो. सा.
ज्यो. नि.
ज्यो. चि.
ज्यो. सा. सा.
दि. शु.
दै. व.
ना. च.
ना. टी.
ब. सि.
मार्क
मु. चि.
मु. टी.
मु. प्र.
य. व.
रा. मा.
वा. प्र.
वै. सं.
व्य. प्र.
व्य. सा.
व्य. चं.
व्य. स.
शी. बो.
शा. वि.
सत्त.
ह. प्र.
जैन. इ. बृ. मं.
सम्पूर्ण नामानि
अभिधान राजेन्द्र कोष आरम्भ सिद्धि
आरम्भ सिद्धि टीका कश्यप संहिता
गरूड पुराण जग मोहन ज्योतिष सार भाग २ : ज्योति निबन्ध १ : ज्योतिश्चिन्तामणि
ज्योतिषसार सागर
दिन शुद्धि
दैवज्ञ वल्लभ
नार चन्द्र
नारचन्द्र टीका
ब्रह्म सिद्धान्त मार्कण्डेय
मुहूर्त चिन्तामणि
मुहूर्त चिन्तामणि टीका मुहूर्त प्रकाश
यतिवल्लभ
राज मार्तण्ड
वास्तु प्रकाश वैश्वान संहिता
व्यवहार प्रकाश
व्यवहार सार
व्यवहार चण्डेश्वर
व्यवहार समुच्चय शीघ्रबोध
शांर्गीय विवाह पटल
सत्तरिसयठाणा
हर्ष प्रकाश
जैन साहित्य का इतिहास भाग - ५
बृहद धारणामंत्र
उपरोक्त सभी ग्रन्थों से साभार सहायता लि : एतदर्थ आभार !
सम्पादक......
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* प्रस्तुति
*
श्री शांतिलालजी वक्तावरमलजी मूथा आहोर
दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र का क्षेत्रफल तीन सौ क्रोड किलोमीटर
जम्बूद्वीप जो कि एक लाख योजन का है जिसमें भरत क्षेत्र १/१९० का भाग है जो श्री शान्तिलालजी मूथा कि ५२६ योजन ६ कला है। पूरे जम्बू द्वीप का क्षेत्रफल सातसो नेक क्रोड योजन है । जिसका १९० वा भाग भरत क्षेत्र का क्षेत्रफल ४ क्रोड १५ लाख योजन है । जिसमें उत्तर भरत क्षेत्र दक्षिण भरत क्षेत्र के बीच में ५० योजन का वैताङ्गडय पर्वत है। जिसका क्षेत्रफल ३९ लाख ५० हजार योजन है । ऊपर की ४ क्रोड १५ लाख योजन में बाद करने पर ३ क्रोड ७५ लाख ५० हजार योजन शेष रहता है । उसका आधा दक्षिर्णाध भरत क्षेत्र का क्षेत्रफल एक क्रोड ८७ लाख ७५ हजार योजन है । एक योजन ४ कोश का होता है । ४ कोषका कोष कोष १३ किलोमीटर लम्बा होता है। उसका एक योजन का १७० किलोमीटर हुआ । जो १ क्रोड ८७ लाख ७५ हजार के १७० से
9
गुणा करने पर ३१९ क्रोड १७ लाख ५० हजार किलोमीटर होता है। जो कि आज की दुनिया चालीस हजार किलोमीटर व गोलाकार में ८० हजार किलोमीटर है।
25
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________________
२२ ]
[ मुहूर्तराज
॥ अथ मुहूर्तराज ॥ -: अनुक्रमणिका :
क्र.सं.
शीर्षक नाम
पृष्ठ सं.
पृष्ठ सं.
१ अथ शुभाशुभ प्रकरण (१) मंगलाचरण २ शकात् संवत्सरज्ञानम् ३ अयन ज्ञानम् ४ रवेः उत्तरायणं समस्त शुभ कृत्येषु
सत्फलदम् ५ दक्षिणायन में क्रूरदेव स्थापना दि कर्तव्यता ६ ऋतुज्ञानम् ७ क्षयाधिक मास ज्ञान ८ चान्द्रमास १ क्षय एवं अधिकमासों में वर्जनीय कार्य १० मलमास ११ मलमास में वर्ण्य कार्य १२ नियतकालिक कार्यों में मलमासादि दोषाभाव १३ रौरवकाल योग एवं शुभकृत्य
(तिथि विचार) १४ तिथि संज्ञा १५ पक्षानुसार तिथियों में विशेषता ज्ञापक सारणी १६ दग्धातिथिनामक पंचागदोष १७ दग्धातिथिफल १८ प्रतिपदादि तिथियों के स्वामी १९ तिथि वृद्धि क्षय लक्षण २० वृद्धि क्षयतिथि उदाहरण २१ आवश्यककृत्य में तिथि वृद्धि क्षयदोषाभाव
क्र.सं. शीर्षक नाम २६. मंगल एवं शनिवार को कुछेक कार्यों
में अशुभता २७ वार प्रवृत्ति २८ वारों की कालहोराएँ
होरा प्रयोजन ३० होरा फल ३१ वार वेला ज्ञान ३२ वार वेला ज्ञापक सारणी ३३ वारों में छाया लग्न ज्ञान ३४ रवि आदि वारों की सिद्धच्छाया
ज्ञापक सारणी ३५ समस्त शुभकृत्यों में मंगल का त्याग ३६ दिन एवं रात्रि के चौघड़ियों का ज्ञान ३७ दिन एवं रात्रि चतुर्घटिका सारणी
(नक्षत्र विचार) ३८ नक्षत्र वर्ण, राशि एवं स्वामी ज्ञापक सारणी ३९ नक्षत्रों के स्वामी ४० ध्रुव संज्ञक नक्षत्र तथा उनमें करने
योग्य कार्य ४१ चर संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४२ उग्र संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४३ मिश्र संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४४ लघु संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४५ मृदु संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४६ तीक्ष्ण संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४७ अधोमुख न, नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४८ ऊर्ध्वमुख न. नक्षत्र एवं तत्कृत्य ४९ तिर्यड्मुख न. नक्षत्र एवं तत्कृत्य
(वार-विचार) २२ शुभाशुभ संज्ञक वार २३ वारानुसार निषिद्ध तिथियाँ, नक्षत्र २४ मृतसंज्ञक तिथि-दग्ध नक्षत्र सारणी २५ क्रूरवारों में करने योग्य कार्य
Page #44
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________________
मुहूर्तराज ]
[२३
पृष्ठ सं...
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं.
क्र.सं. शीर्षक नाम ५० ध्रुवादि संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्य
ज्ञापक सारणी ५१ अभिजित् नक्षत्र-मान ५२ अभिजित् की ग्राह्याग्राह्यता का विचार ५३. जन्म नक्षत्र विषय में कश्यप ५४. जन्म एव उपनाम नक्षत्रों का विचार ५५. पंचक ज्ञान ५६. पंचक फल ५७ पुष्य नक्षत्र-प्रशंसा ५८ नक्षत्रपाया ज्ञान एवं उसका फल ५९ नक्षत्रादि की अन्तिम घटियों की
शुभ कार्यों में त्याज्यता ६० नक्षत्रों की अन्धादि संज्ञाएँ एवं फल ६१ अन्धादिसंज्ञक नक्षत्र एवं तत्फल
ज्ञापक सारणी ६२. कुछ नक्षत्रों में सर्पदष्ट की मृत्यु
(राशि विचार) ६३ राशियों के स्वामी ६४ सर्वदेश प्रसिद्ध अष्टकूट ६५ वर्णकूट ६६ वश्यकूट ६७ राशियों की द्वियदादिसंज्ञा ६८ राशि द्विपदादि संज्ञा वर्ण वश्य बोधक
सारणी ६९ ताराकूट ७० योनिकूट ७१ नक्षत्र योनि एवं परस्पर महावैर
ज्ञापक सारणी ७२ अपवाद सहित योनिफल ७३ योनिकूट में गुण विभाग ७४ ग्रहमैत्री ७५ ग्रहमैत्री ज्ञापक सारणी ७६ ग्रहमैत्री में गुण विभाग ७७ ग्रहमैत्री प्रकार एवं गुणबोधक सारणी ७८ गणकूट
७९ गणफल ८० गणकूट गुण विभाग ८१ गणापवाद
राशिकूट
वैरषट् काष्टक ८४ मित्रषट्क काष्टक ८५ राशिकूट के विषय में विशेष ८६ नवपंचक के विषय में ८७ द्विादश ८८ मीनादि एवं मेषादि युग्म राशियों के
द्विादश का अशुभ फल ८९ द्विादश शुभाशुभयुग्म एवं
तत्फलज्ञापक सारणी ९० भकूट के गुण ९१ सकलकूट प्रधान नाडीकूट ९२ नाडी बोधक सारणी ९३ नाडी फल ९४ प्राचीनाचार्य संमत वर्गफूट ९५ अवर्गादि शत्रुवर्ग तथा उदासीन वर्ग
एवं फल बोधक सारणी ९६ नक्षत्रों की स्त्रीपुरुषादि संज्ञा ९७ स्त्री पुरुषादि संज्ञक नक्षत्र बोधक सारणी
(योग विचार) ९८ विष्कुंभादि दिन योग ९९ विष्कुंभादि योगों की त्याज्य घड़ियाँ १०० आनन्दादि संज्ञक २८ योग १०१ आनन्दादि योग बोधक सारणी १०२ आनन्दादि योग ज्ञानोपाय वार निर्धारित
नक्षत्र से दिन नक्षत्र
१०३ गणनानुसार आनन्दादि योग ज्ञापक सारणी १०४ आनन्दादि योग वयं घटिकाएँ १०५ अमृतसिद्धि योग १०६ अमृतसिद्धि योग सारणी १०७ क्रकचयोग एवं तज्ज्ञापकचक्र
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४ ]
क्र.सं. शीर्षक नाम
१०८ कण्टक एवं उपकुलिक योग
१०९ कण्टक एवं उपकुलिक योग शापक सारणी
११० कुलिक योग
१११ कुलिक योग शापक चक्र
११२ संवर्त योग
११३ यमघण्ट योग
११४ यमघण्ड योग का अपवाद
११५ उत्पात् मृत्यु काण एवं सिद्धि योग
११६ दुष्ट योगों की भी देश भेद से अदुष्टता ११७ व्यतिपातादि कुयोग भी मध्याहन के बाद दोषदायी नहीं
११८ तिथि विशेष योग होने पर भी शुभ कृत्यों में हस्तार्कादि योगों की त्याज्यता
११९ सिद्धियोग भी कार्य विशेष में निन्दनीय १२० सूर्यादिवारों और नक्षत्र विशेषों के योग से सर्वार्थसिद्धि योग
१२१ दिन एवं नक्षत्र योग जन्य सर्वार्थ सिद्धि योग ज्ञापक सारणी
१२२ सिद्धियोग एवं उनके फल
१२३ कुमार योग
१२४. कुमार योग ज्ञापक चक्र
१२५ कुमार योग के सम्बन्ध में श्रीहरिभद्र सूरि १२६ राजयोग
१२७ अनेक दोषापवाद भूत रवियोग
१२८ राजयोग ज्ञापक सारणी
१२९ रवियोग ज्ञापक सारणी १३० कुयोग ज्ञापक सारणी
(करण विचार)
१३१ चर करण नाम
१३२ स्थिर करण नाम
(चन्द्र विचार)
१३३ गोचरगत चन्द्र फल १३४ चन्द्र के रुप्यादि पायों का ज्ञान १३५ घातचन्द्र दोष
पृष्ठ सं.
४१
४१
४१
४२
४२
४२
४२
४३
४३
४३
४४
४४
४४
४५
४५
४६
४६
४६
४७
४७
४७
४७
४९
४९
४९
५०
५०
५०
क्र.सं. शीर्षक नाम
१३६ घातचन्द्र की वर्ज्यता एवं ग्राह्यता १३७ स्त्री घातचन्द्र
१३८ पुरुष स्त्री घातचन्द्र ज्ञापक सारणी
१३९ स्त्री, पुरुष के लिए चन्द्रबल की कुछ
विशेषता
१४० जन्मराशि नक्षत्रादि के अज्ञान में उनके
जानने का उपाय
१४१ नाम राशि ग्रहण विचार
१४२ बारहवां चन्द्र भी शुभ
१४३ जन्म चन्द्र विचार
१४४ सभी कार्यों में चन्द्रबल की विशेषता
(तारा विचार)
१४५ तारा बल ज्ञान १४६ ताराओं के नाम
१४७ जन्मतारा की शुभाशुभता
१४८ अशुभतारा शापक सारणी
१४९ आवश्यक कृत्यों में तारा परिहार
(भद्रा विचार)
१५० भद्रा नियत काल
१५१ भद्रा ज्ञापक सारणी
१५२ बृहस्पति की भद्रा विषयक स्पारोक्ति
१५३ भद्रा अंग विभाग व फल
१५४ भद्रा के तीन परिहार
१५५ भद्रा में करने योग्य कार्य
१५६ भद्रा निवास एवं तत्फल
[ मुहूर्तराज
१५७ भद्रा मुख पुच्छ विभाग १५८ भद्रा मुख पुच्छ घटीमान प्रहरानुसार ज्ञापक सारणी
१५९ समस्त कार्यों में वर्जनीय पंचांग दूषण
(गुरु शुक्र विचार)
१६० गुरु एवं शुक्र अस्त काल में वर्जनीय कार्य १६१ सिंह एवं मकर राशि स्थित गुरु दोष १६२ गुर्वादित्य पदार्थ के विषय में १६३ गुरु-शुक्र- बाल्य - वार्धक्य दिन संख्या
पृष्ठ सं.
५१
५१
५२
५२
५२
५३
५३
५३
५४
५५
५५
५५
५६
५७
५८
५८
५८
५९
५९-६०
६०
६१
६१
६२
६२
६३
६३
६४
६५
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२५
पृष्ठ सं.
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं.
रस..
१९६ मांगलिक कार्यों में अब्दादि अनेक
दोषों का परिहार १९७ आत्मच्छायोपरि इष्टघटी ज्ञान १९८ रात्रि में इष्टघटी ज्ञान
-: इति शुभाशुभ प्रकरणम् :(अथ लग्नशुद्धि प्रकरण)
क्र.सं. शीर्षक नाम १६४ वक्रातिचारगत गुरु में वर्जनीय कार्य १६५ होलिकाष्टक दोष एवं अपवाद
(विवाह विचार) १६६ विवाह दस दोष १६७ पंचशलाका यत्र निर्माण विधि १६८ पंचशलाका यन्त्र १६९ अन्यत्र कार्यों में सप्तशलाका यन्त्र १७० लत्ता दोष १७१ लत्ता दोष ज्ञापक सारणी १७२ लत्ता दोष फल १७३ पात दोष १७४ पात संज्ञाएँ १७५ पात दोष ज्ञापक सारणी १७६ युति दोष १७७ युति फल १७८ विवाह में वयं पंचशलाका वेध १७९ सप्तशलाका वेध १८० सप्त शलाका वेध यन्त्र १८१ इस वेध का अपवाद १८२ पाद वेध विषय में वशिष्ट १८३ वेध फल १८४ यामित्र दोष १८५ यामित्र फल १८६ पंचाख्य बाण दोष . १८७ समय-वार-कार्य भेद से बाणदोष परिहार १८८ त्रिविध बाणदोष परिहार ज्ञापक सारणी
१ लग्न जानने की विधि २ लग्न स्थिति मान ३ लग्ननवांश ज्ञान ४ नवांश प्रधानता ५ कुण्डली बारह स्थानों के नाम ६ भावों की केन्द्रादि संज्ञाएँ
भाव केन्द्रादि ज्ञापक सारणी ८ ग्रह राशि-स्थिति मान ९ ग्रहों की उच्च, नीच एवं मूल त्रिकोणासांश
राशियाँ १० ग्रह स्वराश्यादि ज्ञापक सारणी
ग्रहों के उच्चत्व नीचत्व का प्रयोजन १२ ग्रहों के वर्ण १३ ग्रहों की स्थानों पर दृष्टियाँ १४ क्रूर और सौभ्य ग्रह १५ भाव बलाबल ज्ञान १६ लग्न शुद्धि १७ सर्वथा लग्नभङ्गकर्ता ग्रह १८ लग्न में रेखा देने वाले ग्रह १९ ग्रह रेखास्थान ज्ञापक सारणी २० लग्न में निषिद्ध ग्रह २१ कर्तरी दोष २२ लग्न विंशोपका २३ लग्न भंगकारों कर्तरी आदि परिहार २४ उक्तानुक्त अनेक दोषों के अनेक परिहार
१८९ एकार्गल दोष १९० उपग्रह दोष १९१ उपग्रह अपवाद १९२ विद्युदादि त्रयोदश उपग्रह दोष
बोधक-सारणी १९३ क्रान्ति साम्य चक्र १९४ क्रान्ति साम्य चक्र १९५ लत्तादि दोष परिहार
८३-८४
-: इति लग्न शुद्धि प्रकरणम् :
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६]
क्र.सं. शीर्षक नाम
१ शान्तिक पौष्टिक कृत्य मुहूर्त
२
अक्षरारम्भ मुहूर्त
३
विद्यारम्भ में लग्न शुद्धि
४ विद्यारम्भ में लंग्न शुद्धि
दीक्षा मुहूर्त
दीक्षा-प्रतिष्ठा विवाह कर्म ग्राह्य नक्षत्र ज्ञापक सारणी
दीक्षा में लग्नांश राशियाँ
दीक्षा लग्न में ग्रहों की श्रेष्ठ,
व उत्तम स्थिति
९ सूर्यादिग्रहों की स्थानस्थित्यनुसार उत्तमा दि अवस्था ज्ञापक सारणी
दीक्षा लग्न में विशेषता
५
६
७
८
( अथ आवश्यक मुहूर्त प्रकरण)
१९
२०
२१
२२
१०
११ लोचकर्मादि मुहूर्त
१२
पात्रभोग मुहूर्त
१३
१४
१५
१६
१७
वार नक्षत्र शूल फल
१८ पूर्वादि दिशाओं में नक्षत्र-वार-शूल शापक सारणी
वार-शूल परिहार सारणी
काल-शूल
यात्रा में उत्तमादि नक्षत्र ज्ञापक सारणी
यात्रा मुहूर्त
यात्रा में वार
यात्रा में वारों की ग्राह्याग्राह्यता
वार शूल एवं नक्षत्र शूल
यात्रा के मध्यम निषिद्ध कतिपय नक्षत्र
वर्ण्य घटिकाएँ
२३ योगिनी दोष
योगिनी फल
अर्ध प्रहर योगिनी
मध्यम
२४
२५
२६ योगिनी बोधक सारणी
२७
यात्रा शुभाशुभ दिशा बोधक सारणी
२८ अर्धप्रहर योगिनी स्थिति ज्ञापक सारणी
२९
सर्व दिग्द्वार नक्षत्र
पृष्ठ सं.
९५
९५-९६
९६-९७
९७
९८
९९
९९
९९-१००
१०१
१०१
१०१
१०२
१०२
१०२
१०३
१०३
१०४
१०५
१०५
१०६
१०७
१०७
१०८
१०९
१०९
११०
११०
११०
१११
क्र.सं. शीर्षक नाम
३०
३१
३२
३३
३४.
३५
३६
३७
३८
३९
४०
४१
४२
४३
४४
४५
४६
४७
काल एवं पाश योग
राहुचार ज्ञान
काल पाश योग बोधक सारणी
दिन अथवा रात्रि के अर्धप्रहर, दिशाएँ
राहुचार सारणी
राहू फल
चन्द्रचार ज्ञान
चन्द्र फल
सम्मुख चन्द्र की सर्व दोष नाशकता
पुरालयादि प्रवेश में चन्द्र विचार
समस्त ग्रहों का पूर्वादि दिशा विचरण
रविचार तथा तद्बोधक सारणी
यात्रा में दिशा शुद्धि के लिए
परिभ ज्ञान
दिग्द्वार नक्षत्र तत्स्वामिग्रह एवं यात्रा
शुभाशुभ ज्ञापक सारणी
परिध यन्त्र
यात्रा में अयन शुद्धि
यात्रा में सम्मुख शुक्र दोष
प्रतिशुक्र दोष फल
प्रतिशुक्र का अपवाद एवं शुक्रास्त
कुछ विशेष
में
४८
दक्षिण शुक्र भी त्याज्य
४९ शुक्रोदयास्त दिन संख्या
५०
यात्रा में पथिराहु एवं तच्चक्र
निर्माण विधि
५१
५२
५३
५४
५५
५६
५७
५८ यात्रार्थ शुभ लग्न
पथिराहु चक्र
पथिराहु फल
आवश्यक यात्रार्थ तिथि चक्र योजना
[ मुहूर्तराज
प्रयाण शुभाशुभ फल ज्ञापक सारणी प्रयाण में लग्न शुद्धि
अन्यान्य अनिष्ट लग्न एवं इष्ट लग्न फल
अनिष्ट लग्न का एक और प्रकार
पृष्ठ सं.
१११ ११२
११३
११३
११४
११४
११४
११५
११६
११६
११६
११७
११८
१२१
११९
१२०
१२१
१२१-१२२
१२३
१२३
१२३
१२४
१२५
१२५
१२६
१२६
१२७
१२८
१२८
Page #48
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________________
मुहूर्तराज ]
[२७
| क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं.
१५२
१३०
१५३
१३०
الله
له به
१३६
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं. ५९ दिशानुसार मेषादि राशियों के यात्रा
लग्न का फल ६० दिशानुसार यात्रा में शुभाशुभ फलद
यात्रा लग्न बोधक सारणी ६१ दिशा स्वामी ६२ लालाटिक योग
१३१ ६३ दिशास्वामी ज्ञापक एवं दिशानुसार
लालाटिक योग कारक ग्रह स्थिति
ज्ञापक कुण्डलियाँ ६४ यात्रा में दिशानुसार समय बल ६५ अभिजिन्मुहूर्त प्रशंसा
यात्रा लग्न कुण्डली में ग्रहों की शुभाशुभ फल दायकता
१३४ ६७ यात्रा लग्न ग्रह शुभाशुभ स्थान ज्ञापक सारणी १३६ ६८ मनःशुद्धि निमित्तादि प्रशंसा ६९ यात्रा में निषिद्ध निमित्त
१३६-१३७ ७० गमनसमय विधि
१३८ ७१ विभित्र दिग्यात्रार्थ विभिनयान
१३८ ७२ यात्रा में विलम्बता के कारण प्रस्थाप्य वस्तुएँ
१३९ ७३ प्राच्यमत से प्रस्थान परिमाण
१३९-१४० प्रस्थान दिन संख्या तथा मैथुन निषेध १४१ प्रस्थानकर्ता के नियम
१४१-१४२ यात्रा में शुभसूचक शकुन
१४२-१४३ शकुन प्रयोजन
१४४ अशुभसूचक शकुन
१४५-१४७ ७९ शुभाशुभशकुन सूचक सारणी
१४८ ८० क्षुतफल दिशा एवं समय भेद से १४९ ८१ दिशायाम क्रम से क्षुतफलज्ञापक सारणी ८२ वसन्तराज मत से छींक के आठ प्रकार ८३ कतिपय अन्य शकुन ८४ वामांग शुभ सूचक शकुन
१५१ ८५ समय एवं निवास विशेष से शकुन निष्फलता
१५१ ८६ विरुद्ध शकुन निन्दा
• १५२
८७ यात्रा की आवश्यकता में दुःशकुन होने पर कर्त्तव्य
१५२ ८८ प्राण समय प्रमाण ८९ दुःशकुन का उपचार ९० यात्रा निवृत्ति पर गृह प्रवेश मुहूर्त
१५३ ९१ त्रिविध गृह प्रवेश
१५४ ९२ सुपूर्व प्रवेश में तिथि-वार एवं लग्न
१५४ ९३ ज्वरोत्पत्ति समय से तत्स्थिति दिन संख्या १५५ ९४ शीघ्र रोगिमरण का विशिष्ट योग
१५६ ९५ औषधसेवन मुहूर्त
१५७ ९७ नवधा विभक्त वस्त्र के दग्धादिकता से शुभाशुभ फल
१५९ ९८ नूतन वस्त्र नवभागों में देवादि स्थापना क्रम,
१५९-१६० ९९ नव वस्त्र धारण में शुभाशुभ फलद नक्षत्र बोध सारणी
१६१ १०० वारानुसार नूतन वस्त्र धारण शुभाशुभ
फल बोध सारणी १०१ विभिन्न वर्ण वस्त्रों के धारण में विहित वार
१६१ १०२ स्त्रियों के नूतन वस्त्र एवं अलंकार धारण १६२ १०३ स्त्रियों के रक्तवस्त्र धारण में निषिद्ध नक्षत्र
१६३ १०४ राजदर्शन मुहूर्त
१६३ १०५ क्रय विक्रय नक्षत्रों में परस्पर विरोध एवं क्रय नक्षत्र
१६४ १०६ विक्रय एवं विपणि मूहूर्त
१६४ १०७ धन प्रयोग में निषिद्ध नक्षत्र विष्टि व्यतिपातादि १६५ १०८ द्रव्य प्रयोग मुहूर्त
१६६ १०९ सेवक द्वारा स्वामिसेवा मुहूर्त
१६७ ११० नाटक एवं काव्यारम्भ मुहूर्त
१६७ १११ मन्त्रादि ग्रहण समय
१६८ ११२ धर्मारम्भ एवं नन्दीस्थापन
१६८
-: इति आवश्यक मुहूर्त प्रकरणम् :
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२८ ]
क्र.सं. शीर्षक नाम
१ गृह निर्माण प्रयोजन
२
ग्राम अथवा नगर में गृह निर्माणार्थ स्व शुभाशुभ एवं गृह द्वार
३ काकिणी के सम्बन्ध में स्पष्टतया निर्देश
४
५
गृह निर्माणार्थं काकिणी बोध एवं तत्शुभाशुभ फल बोधक सारणी
६ राशि वर्ण परत्व गृह द्वारा निवेशन दिग् बोध सारणी
७
८
९
१०
११
१२
१६
१७
a = a m m x I w
१९
(अथ वास्तु प्रकरणम्) ४
२०
१३ आयानुसार गृह द्वार
१४
१५
गृह निर्माणार्थ गृहकर्ता एवं ग्राम / नगर राशिमेलापक सारणी
२२
राशि सम्बन्ध से ग्राम निवास निषिद्ध स्थान
१८ दिशानुसार अलिन्द स्थिति से भवनों
२३
आयादि लाने के प्रकार
उदाहृत क्षेत्रफलीय भूभाग आयादि
बोध सारणी
आयों के नाम उनकी दिशास्थिति एवं
२५
शुभाशुभता
आयों के ग्रहण करने की व्यवस्था
स्थानानुसार आय ग्रहण व्यवस्था बोध सारणी
आयानुसार द्वार निवेश सारणी
व्यय लाने का प्रकार
अंश लाने का प्रकार
घरों के नाम
के नाम, फल सारणी
२१ धन ऋण फल
आयफल
वारफल
ताराफल
नक्षत्रफल
२४ एक नाड़ी दोषाभाव
गृहारम्भ में समय निषेध
२६ वास्तु में चन्द्रबल
पृष्ठ सं.
१६९
१६९-१७०
१७१
१७१
१७२
१७३
१७३
१७४
१७५
१७५
१७६
१७६
१७७
१७७
१७८
१७८
१७८
१७९
१८०
१८०
१८०
१८१
१८१
१८१
१८१
१८२
क्र.सं. शीर्षक नाम
२७
३७
३८
३९
४०
४१
४२
२८ वास्तु शास्त्रोक्त नक्षत्रानुसार राशि
बोधक सारणी
२९
गृहारम्भ वृष वास्तु चक्र फल सहित
३०
वृष वास्तु चक्र सारणी I
३१
वृष वास्तु चक्र सारणी II
३२ सौर चान्द्र मासों की एकता से गृह द्वार
दिशाएँ निर्माण नक्षत्रादि
३३
गृहारम्भ में चान्द्रमास एवं फल
३४
द्वार नियम
३५
गृहारम्भ में सौर चान्द्र मास समन्वय
३६ गेहारम्भार्थ संक्रान्तियों एवं तत्संयोग
से मासों की प्राहयाग्राह्यता सारणी
तृणादि निर्मेय गृहारम्भ में
तिथ्यनुसार गृह द्वार निषेध
पूर्वादि दिग्द्वार गृहों के ४ मानचित्र
गेहारम्भ में विहित एवं निषिद्ध तिथियाँ
गेहारम्भ में पंचांग शुद्धि
गेहारम्भ में त्याज्य एवं प्राह्य वार
४३ गेहारम्भ नक्षत्र
२
विभिन्न दिग्द्वारीय भवनों के मान चित्रानुसार चन्द्र स्थिति
४५
४६
४७
४४ देवालय गृह एवं जलाशय निर्माण में
५०
५१
५२
५३
५४
५५
राहुमुख
खातारम्भ के लिए भिन्न-भिन्न मत
४८
खातारम्भ नक्षत्र
४९ खात, पट्टाभिषेकादि के लिए उपयुक्त
नक्षत्र ज्ञापक सारणी
[ मुहूर्तराज
भूमिशयन विचार
भूशयन ज्ञानोपाय सारणियाँ २
वत्सचार ज्ञान
वत्स रूप
वत्सचार सम्बन्धी विशेष
वस्तचार एवं तत्स्थिति बोधक चक्र
देवालयादि के खातारम्भ में राहुमुख मानचित्र देवालयादि के खातोपयुक्त विदिह् मानचित्र
पृष्ठ सं.
१८३ - १८४
१८५
१८५-१८६
१८७
१८८
१८९
१९०
१९०
१९१
१९२
१९२
१९२
१९३
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१९४
१९४
१९४
१९५
१९५-१९७
१९७
१९७
१९८
१९८
१९९
१९९
१९९
२००
२००
२००
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
क्र.सं. शीर्षक नाम
५६
५७
वस्तचार फल
वस्तवत् अन्य ग्रह दिशा स्थिति बोधक
चक्र त्रय
५८ शिवचार
५९ शिवचार फल
६०
६१ संक्रान्त्यनुसार शिवस्थिति से गन्तव्य
सिद्धिद दिविदिग्बोध सारणी
६२ गेहारम्भ में लग्न बल
६३ हारम्भ में कुछ विशेष
सूर्य संक्रान्तिपरत्व दिविदिक् स्थित
शिवचार बोधार्थ सारणी
७०
७१
६४ बलवद् लग्न में प्रारब्ध घरों की आयु
६५ लक्ष्मीयुक्त गृहों के ३ योग
६६ गृहारम्भ में अनिष्टप्रद योग
६७ गृहारम्भ में अशुभकारक नीच निर्बल एवं अस्तगत चन्द्रादि
६८ गृह कूप की दिशानुसार स्थिति फल ६९
गृह कूप की उपयुक्तानुपयुक्त दिशाएँ एवं तत्फल सारणी
भवन में अन्यान्य प्रकोष्ठ दिविदि
भवनगत अन्यान्य प्रकोष्ठों का
दिशाविदिशानुसार मानचित्र
७२
द्वार चक्र एवं उसका फल ७३ द्वारांगों पर स्थित चन्द्र नक्षत्र संख्या
एवं शुभाशुभ फल बोध सारणी
७४ अंगधिष्ठित नक्षत्र वशात् शुभाशुभ फल सूचक द्वार मानचित्र
द्वार शाखा स्थापन नक्षत्र
७५
७६
७९
द्वारशाखा विहित चन्द्र नक्षत्रों की भी
सूर्य नक्षत्र परत्व ग्राह्याप्राह्यता बोध सारणी
७७ द्वारशाखावरोपण में शुभाशुभ तिथियाँ
७८
द्वार शाखावरोपण में शुभाशुभ तिथि फल सारणी
द्वार शाखावरोपण में लग्न शुद्धि
पृष्ठ सं.
२०१
२०१
२०१
२०२
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२०४
२०५
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२०८
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२०९
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२१०
२११
२१२-२१३
२१३
२१४
२१५
२१६
२१६
२१६
क्र.सं. शीर्षक नाम
८०
द्वारशाखावरोपण में राहु विचार
८१ सूर्यसंक्रात्यनुसार राहु स्थिति दिगुज्ञापक मानचित्र
द्वार कपाट मुहूर्त
द्वार कपाट युग्मयोग में शुभाशुभ
फल ज्ञापक तालिका
द्वार वेध विचार
द्वार वेध फल
८२
८३
८४
८५
१ अपूर्व प्रवेश एवं सुपूर्व प्रवेशार्थ
काल शुद्धि
जीर्ण गृह प्रवेश
प्रवेश में तिथिवार निर्णय
४
त्रिविध गृह प्रवेश में लग्नबल
५ दिग्द्वारीय गृहों के दिग्द्वारीय नक्षत्र निर्देश सहित ४ मानचित्र
२
३
६
७
-: इति वास्तु प्रकरणम्ः(अथ गृह प्रवेशा पर पर्याय प्रतिष्ठा प्रकरण) ५
वामार्क ज्ञान एवं तिथिपरत्व पूर्वादिदिगुद्वार भवन प्रवेश
८ पूर्वादिदिङ्मुख गृहों के प्रवेश कुण्डली
सहित ४ मानचित्र
९ पूर्वादिमुख भवन प्रवेशार्थं विहित
१०
११
गृह प्रवेश में लग्नशुद्धि, तिथिशुद्धि एवं प्रवेश विधि
१३
१४
तिथि ज्ञान सारणी
प्रवेश समय में शुक्र स्थिति
ग्रहों की प्रकारत्रय से प्रबुश कुण्डली
में स्थिति
१२ गृह प्रवेश लग्न कुण्डली में ग्रहों की उत्तम मध्यमाधम स्थितिबोधार्थ सारणी
गृह प्रवेश में कलश चक्र
सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्रावधि गणना गत कलश वास्तुचक्र शुभांग स्थिति
[ २९
पृष्ठ सं.
२१६-२१७
२१७
२१७
२१८
२१८
२१८
२२०-२२३
२२३
२२३
२२४
२२५
२२५-२२७
२२८
२२९
२२९
२०३
२३०
२३१
२३१-२३२
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
३० ]
[ मुहूर्तराज
पृष्ठ सं.
२५०
२५१
२५१
२५२
२५३
२३९
२५५
क्र.सं. शीर्षक नाम ४४ कतिपय अन्य शुभ लग्न कुण्डली योग ४५ आनन्दादि सात योग कुण्डलियाँ
२५० ४६ आनन्दादि योग फल ४७ प्रतिष्ठा लग्न कुण्डली में रेखादातृ ग्रह संस्था
२५१ ४८ प्रतिष्ठा भंगद ग्रह संस्था ४९ यहाँ कुछ विशेष ५० प्रतिष्ठा में ग्रह संस्था से विभिन्न प्रकार बोध सारणी
२५३ ५१ श्री पूर्णभद्र मतानुसार ग्रह. संस्था फल
प्रतिष्ठा कुण्डली में भावस्थित्यनुसार ग्रह शुभाशुभता बोध सारणी
२५४ श्री अरिहन्त स्थापना कुण्डली में ग्रहस्थिति २५५ ५४ श्री महादेव स्थापना कुण्डली में ग्रहस्थिति
श्री ब्रह्मा स्थापना कुण्डली में ग्रहस्थिति ५६ श्री देवी स्थापना कुण्डली में ग्रहस्थिति ५७ श्री इन्द्रादि स्थापना कुण्डली में ग्रहस्थिति २५५ ५८ ग्रह विंशोपक बल
२५६ ५९ ग्रह बलवत्ता
२५७ ६० मुथुशिल एवं मुशरिफ योग
२५८ ६१ ग्रहों की बलहीनता
२५८-२५९ ६२ देवादि प्रतिष्ठा में द्रष्टव्य अयनादि पदार्थ बोध सारणी
२६० ६३ श्री जिनेश्वरों के च्वयन नक्षत्र राशि योनि आदि
२६१ ६४ श्री जिनेश्वर नाम-नक्षत्र-राशि-योनि
गण-चिह्न-नाडी बोधक यन्त्र ६५ अथ ग्रन्थ प्रशस्ति
२६३ इति प्रतिष्ठा परपर्याय गृह प्रवेश प्रकरणम् :
समाप्ता मुहूर्तराज स्यानुक्रमणिका
२५५
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं. नक्षत्र सारणी
२३३ १५ प्रवेश में निष्कृष्टार्थ विशेष
२३४ १६ वास्तुपूजा
२३४ १७ नूतनगृहप्रवेश एवं सुपूर्वगृहप्रवेश में ग्राह्य अयनादि बोध सारणी
२३५ १८ जीर्ण एवं जीर्णोद्धृत गृह प्रवेश में ग्राह्य अयनादि बोध सारणी
२३६ १९ प्रतिष्ठा समय विचार
२३६-२३७ २० जन्ममास तिथि एवं नक्षत्रों की त्याज्यता २३७ २१ प्रतिष्ठा में दिनशुद्धि
२३८ २२ भद्रादिदोषों से लग्न भंग
२३९ २३ प्रतिष्ठा नक्षत्र २४ प्रतिष्ठा में पक्ष २५ प्रतिष्ठा तिथि
२४० प्रतिष्ठा में लग्न
२४० २७ श्रीजिनेश्वर प्रतिष्ठा में लग्न
२४१ २८ अन्य देवों की प्रतिष्ठा में लग्न २९ प्रतिष्ठा में लग्न नवांश
२४१-२४३ ३० लग्नविषयक सामान्य नियम
२४३ ३१ कर्तरीफल एवं परिहार
२४३ ३२ कर्तरी के विषय में व्यास एवं कर्तरी के प्रकारत्रय
२४४ ३३ त्रिविध कर्तरी बोध कुण्डलियाँ ३४ प्रतिष्ठा लग्न में ग्रहयुति एवं दृष्टि ३५ प्रतिष्ठा लग्न में ग्रहयुति-दृष्टि बोध-सारणी ३६ समस्त शुभकार्यों के लग्नों में त्याज्य पदार्थ । २४६ ३७ प्रतिष्ठा कुण्डली में सप्तम स्थान में
त्याज्य ग्रह संस्था ३८ प्रतिष्ठादि कार्यों में सामान्यतया ग्रहस्थिति रूप योग
२४७ ३९ श्रीवत्सादि द्वादश योग कुण्डलियाँ ४० गजादि चार योग ४१ गजादि योग कुण्डलियाँ ४२ उपर्युक्तयोग शुभाशुभता
२४९ ४३ श्रीपूर्णभद्र के विचार
२५५
२४१
२४५
२४६
२४६
२६२
२४८ २४८ २४९
२४९
Page #52
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________________
मुहूर्तराज ]
[३१
पृष्ठ सं.
२६६
२६६
२९०
२९१
२६७ २६७
२९३
२६९
२७१
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं. | क्र.सं. शीर्षक नाम परिशिष्ट (क) गणित विभाग
५ साधक साध्य विंशोपक यन्त्र
२८८ १ इष्टघटीपल तात्पर्य
६ श्री जिनेश्वर राश्यादि यन्त्र I
२८९ समय प्रकार
७ श्री जिनेश्वर राश्यादि यन्त्र II स्थानीय समय ज्ञानोपाय
२६६ ८ राशिकूट चक्र
२९१ ४ स्थानीय सूर्योदय ज्ञान विधि
९ लभ्यदेय यन्त्र ५ स्थानीय इष्ट समय ज्ञान विधि
१० श्री तीर्थङ्कर नाडी-गण-यन्त्र सूर्य स्पष्टीकरण
२६८
११ श्री तीर्थङ्कर राशिकूट यन्त्र I चालक विधि गोमूत्रिका गुणनफल
१२ श्री तीर्थङ्कर राशिकूट यन्त्र II
२९४ का ग्रहराश्यादि योगान्तर
१३ श्री तीर्थङ्कर विंशोपक यन्त्र
२९५ भौम स्पष्टीकरण
२६९-२७० १४ सर्वाक्षर कूट यन्त्र
२९६-२९७ ९ चन्द्रस्पष्टीकरण विधि
२७१
१५ साधक अक्षर (अ-ह) तक १० चन्द्रगति ज्ञानोपाय
मेलापक सारणियाँ
२९८-३५९ ११ चन्द्रसाधन प्रक्रिया
२७१-२७२
-: इति परिशिष्ट (ख) :१२ चन्द्रगति साधन प्रक्रिया
२७२
परिशिष्ट (ग) विविध मुहूर्तादि अनेक १३ लग्न साधन
२७३-२७५
सारणियों से युक्त १४ षड्वर्ग पदार्थ
२७६
१ मूहूर्त चिन्तामणि-मार्तण्ड-गणपत्यादि १५ होरा, द्रेष्काण
मतानुसारेण आवश्यक मुहूर्त कोष्ठका ३६९-३६७ १६ सप्तमांश एवं तत्खण्ड सारणी
२ रामादि प्रश्न १७ नवमांश एवं तत्खण्ड सारणी
२७७
३ रामादि प्रश्न चक्र १८ द्वादशांश एवं तत्खण्ड सारणी
२७८
कार्यसिद्धि प्रश्न १९ त्रिंशांस एवं तत्खण्ड सारणी
३६९ २७८ कार्याकार्य प्रश्न
३६९ २०, इष्टकालिक सूर्यादि स्पष्ट ग्रह लग्न सहित
६ पञ्चदशी यन्त्र प्रश्न
३६९ २१ होरा-द्रेष्काण-सप्तमांश त्रिंशांश राशि
७ पञ्चदशी यन्त्र
३७० बोधन सारणी मेष-कन्या
८ गर्भिणी प्रश्न
३७० २२ होरा द्रेष्काण-सप्तमांश त्रिंशांश राशि
___ गर्भिणी प्रश्न चक्र बोध सारणी तुला-मीन ।
२८१ २३ नवमांश-द्वादशांश राशि बोधन सारणी
प्रकारान्तरेण गर्भिणी के पुत्र-पुत्री २८२
सम्बन्धी प्रश्न २४ लग्न एवं षड्वर्ग कुण्डलियाँ
२८३
पुरुष अथवा स्त्री की जन्मकुण्डली की ___ -: इति परिशिष्ट (क) :
पहिचान
३७१ परिशिष्ट (ख) श्री जिनेद्र प्रतिभा मेलापक
चरलग्न-फल बोध सारणी
३७२ १ द्वादशारपादवेद यत्र
१३ स्थिर लग्न बोध सारणी
३७३ २ गणमेलक यन्त्र
१४ द्विस्वभाव लग्न बोध सारणी ३ नक्षत्र यन्त्र
१५ अंगस्फुरण कोष्ठक फल
३७५ ४ राशि यन्त्र
अंगानुसार पल्ली (छिपकली) पतन विचार चक्र
३७६
२७६ २७७
२६८
२६८
२७९
३७०
३७१
१२ चम
३७४
२८६ २८७
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________________
३२ ]
[ मुहूर्तराज
क्र.सं. शीर्षक नाम
पृष्ठ सं.
पृष्ठ सं.
३७७
३७७
३९२
३९२
३९३
३७८ ३७८
क्र.सं. शीर्षक नाम ५० सूर्यादि वारों के विषय में विशेष
ज्ञातव्य ५१ इष्ट स्थान में वार प्रवृत्ति ५२ निषिद्ध या विहित वारों के २ प्रकार ५३ मध्य रेखा से १२ मिनिट पश्चिम
देशान्तरित स्थानों में काल होरा
प्रवृत्ति-निवृत्ति सारणी ५४ किसी भी स्थान के दिनमान एवं
सूर्योदयास्त समय का ज्ञानोपाय ५५ अयनांश साधन प्रकार ५६ देशान्तर सारणी
३७८
३७८
३९४
३७९
३७९
३९५
३८०
३९६ ३९७-४००
३८०
३८१
३८१
३८१
-: इति परिशिष्ट (ग) :
३८२
३८२
परिशिष्ट ५
३८३
१७ सत्यरूप शकुनावलि कोष्ठक १८ अंकानुसार सत्यरूप शकुनावलि फल १९ प्रश्नलग्नगत राशि पर पाप एवं शुभ
ग्रह दृष्टि फल
प्रश्न से कार्य सिद्धि योग २१ प्रश्न से अशुभफल योग २२ परदेशी के आगमन सम्बन्धी प्रश्न २३ जय-पराजय-सन्धि विषयक प्रश्न २४ रोगी के सम्बन्ध में सुखदुःख प्रश्न २५ विवाह प्रश्न २६ स्वप्नदर्शन प्रश्न २७ चोर ज्ञान प्रश्न २८ हृत नष्ट वस्तु स्थान २९ ग्रहों के शरीर स्वरूप ३० हृत वस्तु प्राप्ति एवं दिशा ज्ञान ३१ कूर्म चक्र की फल सहित विधि ३२ कूर्म जल निवास ज्ञापक सारणी ३३ रवि योग तालिका ३४ कुमार योग तालिका ३५ राज योग तालिका ३६ अमृत सिद्धि योग तालिका ३७ सिद्धि योग तालिका ३८ स्थिर योग तालिका ३९ अन्य कतिपय सुयोग तालिका ४० अन्यान्य शुभ योग तालिका
कतिपय सिद्धिदायक तिथि योग तालिका ४१ कतिपय सिद्धिदायक तिथि योग तालिका ४२ कतिपय अशुभयोग तालिला ४३ वार + तिथि + नक्षत्र जन्य अशुभ योग ४४ तिथि + वार जन्य अशुभ योग ४५ ग्रहजन्म नक्षत्र नाम ४६ हालाहल योग ४७ अशुभ योग द्वय ४८ वार नक्षत्र तिथि परत्वे शुभाशुभ योग ४९ कतिपय अन्यान्य योग
३८४
३८४
५७ ज्योतिष साहित्य सम्बन्धि पूर्वाचार्यों
की कृत्तियों का संक्षिप्त परिचय
३८४ ३८४
३८५
३८५
३८५
३८६
३८६
३८६
३८७ ३८७ ३८८ ३८८ ३८८ ३८८
३८९ ३९०-३९२
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श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरि-जैन दादावाड़ी जावरा (म.प्र.) में अखिल भारतीय प्रथम गुरूतीर्थ
के भव्य विशाल गुरू मन्दिर के निर्माता जैन रत्न समाज भूषण दानवीर भीनमाल निवासी हा. मुम्बई
श्रीमूलचन्दजी फूलचन्दजी बाफना
श्रीमती लक्ष्मीबाईएम. बाफना
आपसमाजकेप्रत्येककार्य में दान देकरनिजमूजोपार्जीतलक्ष्मीकासव्यय करने में अपना कर्तव्य समझते हैं। भीनमाल में श्री महावीरस्वामी के मन्दिरकेसम्मुख विशाल प्रांगण में अपने माता-पिता की स्मृति में एकविशालगजराबाईफूलचन्दजीबाफनाव्याख्यानहालका निर्माण कराया।मूलचन्द फूलचन्द बाफना चेरिटेबल ट्रस्ट के आप अध्यक्ष है। श्रीमद्ाजेन्द्रसूरी दादावाड़ी जावरा के ट्रस्टी हैं। आपके तीन पुत्र श्री जयन्तीलालजी धर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती पिस्ता देवी, श्री कान्तिलाल धर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती सुरेखादेवी, श्री अशोककुमारधर्मपत्नी अ.सौ.श्रीमती कमलादेवी। दो पुत्री है,अ.सौश्रीमतीसोहनी देवी सुखराजजी नहार, श्री अ. सौ. श्रीमती मोहनी देवी भीमराजजी मेहता|चार पौत्र है, चि. प्रियंक, रितेश,शेकी, शसांका
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
फर्म - बाफना मेटल कारपोरेशन गुलालवाड़ी......बम्बई फर्म-मेसर्स गीतल स्टील्सकीका स्टीट............बम्बई फर्म - बाफना स्टील सेन्टर दो टांकी...............बम्बई
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परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्मबृहत्तापगच्छ संस्थापक अभिधान राजेन्द्र कोष के रचयिता
तीर्थाधिराज मोहनखेड़ा संस्थापक भट्टारक विश्ववंद्य जैनाचार्य श्री श्री श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक
श्री मिश्रीमलजी वक्तावरमलजी राणावत
श्रीमती अर
टीपटुर नगर (कर्नाटक) में विक्रम सं. २०५३ महावीर स्वामी निर्वाण सम्वत् २५२२ ज्येष्ठ सुदि६ गुरुवार ता. २३-५-१९९६ को भव्यती भव्य विशाल अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव उत्साह उमंग उल्लास से हुआ जो इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरोहोसे लिखा गया।
इस महोत्सव में
हमें मूलनायक अरनाथ भगवान के माता-पिता बनने का नोकारसी (स्वामी वात्सल्य) श्री संघ को तिलक श्रीफल हार पहिनाने का एवं श्री अरनाथ भगवान के मन्दिरजी पर कायम ध्वजा चढ़ाने का सर्वोच्च बोली बोल कर प्राप्त किया। इस पुण्यानुबन्धी पुण्य की स्मृति में श्री मुहूर्तराज ज्योतिष की २५० प्रति का सहयोग कर ज्ञान भक्ति का लाभ लिया है।
दुजाणा (राजस्थान) निवासी मिश्रीमल धर्म पत्नी अ.सौ. धाकुबाई नरपत कुमार धर्मपत्नी अ.सौ. रेखा, महेन्द्रकुमार धर्मपत्नी अ.सौ.सुशीला, मुकेश कुमार धर्मपत्नी गीता देवी, पुत्री वीणा, संगीता, करुणाकुमारी पौत्रि चि.डिम्पल, मनिषा, खुशबू, स्नेहा, पूजा बेटा पोता पोति श्री वक्तावरमलजी चिमनाजी राणावत परिवार ।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहनखेड़ा तीर्थ
पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.) फर्म : * महावीर टेक्सटाईल्स टीपटुर,* महेन्द्र टेक्सटाईल्स टीपटुर*
* मिश्रीमल राणावत एन्ड कं. बैंगलौर* के. एम.राणावत बैंगलौर*
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॥ॐ नमोऽखिलसिद्धेभ्यः॥ ॐ ह्रीं श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नम: प्रभुश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः
अथ मुहूर्तराज [श्री राजेन्द्र हिन्दी टीका
परं शुद्धं परं बुद्धं परमिष्टप्रदायकम्।
नत्वा जिनेश्वरं पार्श्व ज्ञानदातृगुरुं तथा॥ अन्यव - परं शुद्धं परं बुद्धं परमिष्टप्रदायकम् श्रीजिनेश्वरं पार्वं तथा ज्ञानदातृ गुरुं नत्वा ।
अर्थ - कषायों से सर्वतोभावेन मुक्त आत्मतत्वज्ञाता मोक्षप्रदाता श्रीजिनेश्वरपार्श्वनाथ एवं ज्ञानदाता श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरीश्वरजी गुरुदेव को प्रणाम करके,
॥ श्री राजेन्द्र हिन्दी टीका कर्तुर्मङ्गला चरणम् ॥
अशेषपुण्यप्रदमुग्रपाप्मनां विनाशकृद् दैवतदैत्यमानवैः । भृशं नुतं सन्ततमर्हतां पदारविन्दवृन्दं प्रणमामि भक्तित: ॥१॥ श्रीमद् विजयराजेन्द्रमुख्यान् सूरीश्वराँस्तथा ।
वन्दे स्वीयं गुरुं सूरिं श्रीयतीन्द्रं सुबोधदम् ॥२॥ काव्ये नभसि यो नूनं चन्द्रवच्छीतलप्रभः ।
आसीत्तं सूरिपदगं श्रीविद्येन्दुं नमाम्यहम् ॥३॥ योऽन्तेवासी श्रिया भ्राजद्राजेन्द्रस्याभवन्मुनिः ।
श्रीधनचन्द्रसूरेश्च दीक्षामाप च सद्विधि ॥४॥ ज्यौतिषे भारवियोऽमुं ग्रन्थं मौहूर्तराजकम् ।
समग्रहीद् वाचकश्री गुलाबविजयं स्मरे ॥५॥ श्रीमद्यतीन्द्राभिधसूरिवर्याद् गुरोखाप्तव्रत एतदीये ।
पादारविन्दे प्रणिधाय चित्ते, जयप्रभारव्य: श्रमणोऽहमुक्त- ॥ ग्रन्थस्य बोधं प्रतिपादयन्ती रम्यैः पदैनॆकसुतालिकाभिः । युक्तां च हिन्द्यां गिरि सर्वयोग्यां, “राजेन्द्रनाम्नी” विदधामि टीकाम् ॥
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[ मुहूर्तराज शुभाशुभलग्नशुदध्यावश्यकमुहूर्तवास्तुप्रवेशप्रकीर्णैः ।
पंचभिरेतै रम्यो मौहूर्तराजो 5 यमुच्यते ॥ अन्वय - शुभाशुभ, लग्नशुद्धयावश्यकमुहूर्तवास्तुप्रवेशाख्यैः एतैः पंचमिः प्रकरणैः अयं मोहूर्तराजः (मुहूर्तराजः) उच्यते। ___ अर्थ - शुभाशुभ, लग्नशुद्धि, आवश्यक मुहूर्त, वास्तु निर्माण एवं गृह देवालय प्रवेश (प्रतिष्ठा) नामक इन पांच प्रकरणों से युक्त इस मौहूर्तराज (मुहूर्तराज) ग्रन्थ को प्रस्तुत कर रहा हूँ।
शुभाशुभ प्रकरणम् ( ? ) शकात् संवत्सर ज्ञानम् (श्री शालिवाहन शक से वि. संवत्सर ज्ञानोपाय)
श्रीशालिवाहने शाके भूतविश्वस्य मेलने ।
विक्रमादित्यवर्षः स्यात् चैत्रशुक्लादितः क्रमात् ॥१॥ अन्वय - श्री शालिवाहिने शाके भूतविश्वस्य (१३५) भेलने (कृते) चैत्र शुक्लादितः (चैत्र शुक्लादिमदिवसात्) क्रमाद् विक्रमादित्यवर्षः (विक्रम संवत्सरः) स्यात्।। ___अर्थ - श्री शालिवाहन शक वर्षों की संख्या में १३५ युक्त करने पर श्री विक्रम संवत् की संख्या आती है, यह संवत् चैत्र शुक्ला प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। अयनज्ञानम् (उत्तरायण दक्षिणायन का ज्ञान) “मुहूर्त प्रकाशे"
मकरादिराशिषट्के, प्रोक्तं चैवोत्तरायणम् ।
कर्कादिस्विति ज्ञेयं दक्षिणं ह्ययनं रवेः ॥२॥ अन्वय - अझै मकरादिराशिषट्के सति रवे: उत्तरायणम् कर्कादिराशिषट्सु च रवे: दक्षिणायनं ज्ञेयम्।
अर्थ - जब मकर राशि से मिथुन राशि तक सूर्य (भानु) हो तब तक (छ: महीनों तक) रवि का उत्तरायण एवं सूर्य (भानु) के कर्क से धनु राशि तक रवि का दक्षिणायन जानना चाहिये। रवे: उत्तरायणं समस्तशुभकृत्येषु सत्फलदम्
माघादिपंचमासेषु कृष्णेऽप्यापंचमीदिनम् ।
दक्षिणे त्वयने कुर्वन् न तत्फलमवाप्नुयात् ॥३॥ अन्वय - माघादिपंचमासेषु कृष्णे (पक्षे) अपि आपंचमीदिनम्, दक्षिणे त्वयने कुर्वन् (शुभकृत्यं किमपि) तत्फलम् न अवाप्नुयात् ।
माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख और ज्येष्ठ इन पांच मासों में पूर्ण शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष की पंचमी तक समस्त शुभ कार्य कर्तव्य हैं। दक्षिणायन में कार्य करने से कर्ता को उसका शुभ फल नहीं मिलता।
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परम पूज्य विश्ववंद्य सौधर्म बृहत्तपागच्छ नायक श्री तीर्थाधिराज श्री मोहनखेड़ा संस्थापक विश्वप्रसिद्ध अभिधानराजेन्द्र कोष के रचयिता आचार्य सम्राट कलिकाल सर्वज्ञ प्रातः स्मर्णिय
श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक
श्री पन्नालालजी वक्तावरमलजी राणावत
अ.सौ. श्रीमति सुमीत्रा बाई राणावत
दूजाणा (राजस्थान) निवासी श्री पन्नालालजी रमेशचन्द्र जवेरी, अरविन्द कुमार प्रफुल्ल कुमार, राहुल कुमार, निखिल कुमार बेटा पोता परपोता वक्तावरमलजी चमनाजी राणावत ।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्रीमोहनखेड़ातीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
फर्म :
* रमेश जवेरी एण्ड कम्पनी* जवेरी बाजार - बम्बई ४००००२ दूरभाष - ३४३४२३०,३४४१५३७
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परम पूज्य विशवंद्य अभिधान राजेन्द्र कोष के रचयिता कालिकाल सर्वज्ञ भट्टारक जैनाचार्य २० वीं शताब्दी के महान साहित्यकार क्रियोद्धार प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक श्राद्धगुण सम्पन्न श्रेष्ठि वर्य मुथा अलंकार धारक बाफणा गोत्रिय श्री वक्तावरमलजी मुथा के सुपुत्र श्री शांतिलालजी मूथा आहौर : राज0 निवासी
RSSIO
TRAISITaashatanese
मुहूर्तराज के द्वितीय संस्करण में लक्ष्मी का श्रेष्ठ सहयोग प्रदाता |
आप प्रत्येक संस्था एवं कार्य में उत्साह उल्हास व उमंगसे नि:स्वार्थभाव से कार्य करने में सदा तत्पर रहते है। इसलिये आप अनेकसामाजिकसंस्थाओं में कार्यरत है।
* श्री भूपेन्द्रसूरिसाहित्य समिति आहौर के.......... ..मंत्री. * श्री अखिल भारतीय राजेन्द्र जैन महासंघ के.......महामंत्री * श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन गुरुकुल के............. मंत्री * श्री मोहनखेड़ा तीर्थ जिर्णोद्धार कार्य...............कोषाध्यक्ष * श्री पार्श्वनाथ सेवा मण्डल के कर्मठ...............सदस्य * श्री फूलचंद मेमोरियल ट्रस्ट विद्या विहार आहौर के....उपाध्यक्ष * श्रीमद्यतीन्द्रसूरि दीक्षा शताब्दी ग्रन्थ के............ प्रबंधसम्पादक
श्रीशांतिलालजी मूथा
आप में धर्म प्रवत्तियाँ का प्रवाह प्रतिफल घर में चलता ही रहता है। आपकी धर्मपत्नी सुखीबाई के१० वर्षीतप की उत्कृष्ट धर्माराधना की है। आपके 3 पुत्र है- महावीरकुमार, धरणेन्द्रकुमार, यतीन्द्रकुमार एक पुत्री है विद्या देवी । पौत्र-श्रेयांस कुमार, अजित, श्रेणिक, पक्षाल, अनन्ता पौत्रियाँ हेमलता, हीना, अनिला, प्रीति। सभी धर्माराधना में प्रवृत्त रहते हैं।
फर्म : शांतिलालजी सेठ एण्ड को. सोना चान्दी के व्यापारी तनकू (आन्ध्रप्रदेश)
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
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मुहूर्तराज ]
[३ दक्षिणायन में भी क्रूर प्रकृतिक देवों की स्थापना अथवा क्रूर कार्य एवं लौकिक व्यवहार से कुछ सत्कार्य भी किये जा सकते हैं। यथा वैखान संहिता में
मातृ- भैरव- वाराह- नारसिंह- त्रिविक्रमाः ।
महिषासुरहन्त्री च स्थाप्या वै दक्षिणायने ॥४॥ अन्वय - मातृ-भैरव-वाराह-नारसिंह-त्रिविक्रमा तथा च महिषासुरहन्त्री एता देवता: वै दक्षिणायने स्थाप्याः भवन्ति। ___अर्थ - श्री अम्बिका, भैरव, श्री वाराह नृसिंह त्रिविक्रम एवं महिषासुर मर्दिनी इन देवताओं को विशेषकर दक्षिणायन के समय में ही स्थापित करना चाहिये। ऋतुज्ञान-मुहूर्त प्रकाश में
मृगादिराशिद्वय भानुभोगाद् रसर्तवः स्युः शिशिरो वसन्तः ।
ग्रीष्पश्च वर्षा च शरच्च तद्वत् हेमन्तनामा कथितश्च षष्ठः ॥५॥ अन्वय - मृगादिराशिद्वयभानुभोगाद् शिशिरः, वसन्तः, ग्रीष्मः, वर्षा, शरत् च तद्वत् षष्ठ: हेमन्त: कथितः इत्थं रसर्तवः (षड् ऋतव:) स्युः।
अर्थ - मकर से लेकर दो-दो राशियों तक भानु (सूर्य) के होने पर क्रमश: शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् एवं हेमन्त ये छ: ऋतुएँ बनती हैं, अर्थात् भानु के मकर एवं कुंभ राशि में होने पर शिशिर, मीन और मेष में होने पर वसन्त, वृष और मिथुन राशि में होने पर ग्रीष्म, कर्क एवं सिंह में होने पर वर्षा, कन्या एवं तुला राशि में होने पर शरद् और वृश्चिक एवं धनु में होने पर हेमन्त ऋतु होती है। क्षयाधिकमास ज्ञान-ज्योतिस्सार के मत से
असंक्रान्तिमासोऽधिमासः स्फुटः स्यात्,
द्विसंक्रान्तिमासो क्षयारव्यः कदाचित् । क्षयः कार्तिकादित्रये नान्यतः स्यात्,
तदा वर्षमध्येऽधिमासद्वयं च ॥६॥ अन्वय - असंक्रान्तिमासः स्फुट: अधिकमासः स्यात्, कदाचित द्विसंक्रान्तिमासः क्षयाख्य (क्षयनामा) च। क्षय: कार्तिकादित्रये न अन्यतः (अन्यः) तदा (तस्मिन् वर्षे) वर्षमध्ये अधिमासद्वयम् स्यात्।
अर्थ - जिस मास की शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक यदि सूर्य संक्रान्ति नहीं बदलती हो उसे अधिक मास कहते हैं एवं जिस मास की शुक्ल प्रतिपदा से अमावस्या तक यदि दो राशियों पर सूर्य का संक्रमण हो जाए तो उस मास को क्षयमास कहते हैं जो कि कभी-कभी होता है। क्षयमास कार्तिक मार्गशीर्ष एवं पौष इन तीनों में से ही कोई एक होता है, किन्तु अधिकमास तो बारहों महीनों में से कोई भी हो सकता है जिस वर्ष में क्षयमास हो तो उस वर्ष में अधिकमास दो होते हैं।
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[ मुहूर्तराज शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक चान्द्रमास-ब्रह्म सिद्धांत में
चान्द्रो मासो ह्यसंक्रान्तोऽधिकमासः प्रकीर्तितः ।
चान्द्रो मासो द्विसक्रान्तः क्षयमासः प्रकीर्तितः ॥७॥ अर्थ - शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से अमावस्या तक यह चान्द्र मास कहा जाता है। चान्द्रमास ही अधिकमास तथा क्षयमास बनता है। जिस चान्द्रमास में सूर्य का अन्य राशि में संक्रमण न हो उसे अधिक मास और जिस चान्द्रमास में सूर्य का दो राशियों में संक्रमण हो उसे क्षयमास कहते हैं। क्षय एवं अधिक संज्ञक मासों में वर्जनीय कार्य-गर्ग, बृहस्पति के मत में
अग्न्याधानं प्रतिष्ठां च यज्ञदानव्रतानि च ।
वेदव्रतवृषोत्सर्गचूडाकरणमेखलाः ॥८॥ अन्वय - (क्षये एवम् अधिमासे) अग्न्याधानं, प्रतिष्ठां, यज्ञदानव्रतानि (तथैव) वेदव्रतवृषोत्सर्ग चूडाकरणमेखलाश्च (एतानि कृत्यानि वर्जयेत्) ।
अर्थ - अग्निहोत्र, गृह एवं देवालय प्रतिष्ठा, यज्ञ, दान, व्रत, वेदोक्तव्रत (वेदाध्ययनारंभ) वृषोत्सर्ग, मुण्डन संस्कार एवं यज्ञोपवीत धारण आदि कार्य नहीं करने चाहिए । मलमास ज्ञान
धनुर्मीनगते सूर्ये मलमासोऽयमुच्यते ।
मंगलं नु सदा त्याज्यं यदि कुर्यान्न सिध्यति ॥९॥ अन्वय - सूर्ये धनुर्मीनराशिगते अयम् मलमास उच्यते, तत्र नु मंगलं त्याज्यम् (भवति) यदि (कश्चित्) कुर्यात् (तत् कार्यम्) न सिध्यति।
अर्थ - जब धनु एवं मीन राशि पर सूर्य हो तब उस मास को मलमास कहते हैं। इस मलमास में कोई भी मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए, यदि किया जाय तो वह सिद्ध नहीं होता। मरीचि -
गृह प्रवेश-गोदान-स्थानाश्रममहोत्सवम् ।
माङ्गल्यभिषेकं च मलमासे विवर्जयेत् ॥९॥ अन्वय - गृह प्रवेश-गोदान-स्थानाश्रम-महोत्सवम्, माङ्गल्यम् अभिषेकम् (राज्याभिषेकम्) मलमासे विवर्जयेत्।
अर्थ - मरीचि ऋषि कहते हैं कि मलमास में गृहप्रवेश, गोदान, स्थान आश्रम आदि का महोत्सव, मांगलिक कार्य एवं राज्याभिषेक इन कार्यों को न करें। और भी मलमास में वर्ण्य कार्यों के विषय में
मीने धनुषि राशौ च स्थिते सप्ततुरंगमे । क्षौरमन्नं न कुर्वीत विवाहं गृहकर्म च ॥
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परम पूज्य विश्ववंद्य सौधर्म बृहतपागच्छ नायक श्री तीर्थाधिराज मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष रचयिता आचार्य सम्राट कलिकाल सर्वज्ञ भट्टारक कोरटा स्वर्णगीरि (जालौर)
तालनपुर तीर्थोद्धारक
श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक
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स्वर्गीय नोपाजी
श्री शाह जवेरचन्दजी
स्व. श्रीमति जडावीबाई जवेरचन्दजी
सियाणा (राज.) निवासी शाह जवेरचन्द शान्तिलाल मीठालाल शिरिशकुमार पुष्पक कुमार बेटा पोता नोपाजी
लखमाजी
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
फर्म :
* वर्षा प्लास्टिक प्रायव्हेट लिमिटेड - बम्बई
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परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्मवृहत्तापागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्र कोष के लेखक
भट्टारक प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परम भक्त
श्री सुमेरमलजी केवलजी नहार
श्रीमती झमका बाई नहार धर्म पत्नी
श्री सुमेरमलजी नहार
भीनमाल निवासी श्रीसुमेरमल किशोरमल रमेशकुमार पंकज कुमार हितेश कुमार करण कुमार बेटा पोता श्री केवलचन्दजी नहार 'मुहूर्तराज' के द्वितीय संस्करण प्रकाशित करवाने का लाभ लिया है।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
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मुहूर्तराज ]
अन्वय - सप्ततुरङ्गमे (रवौ) मीने धनुषि राशौ च स्थिते, क्षौरम, अन्नम्, विवाहं, गृहकर्म च न कुर्वीत।
अर्थ - जब सूर्य मीन एवं धनु राशि पर हो तब मुण्डन, अन्नप्राशन, विवाह एवं गृहकर्म (निर्माण प्रवेशादि) नहीं करने चाहिए । किन्तु नियतकालिक कार्यों में मलमासादि का दोष नहीं लगता यथा
मासप्रयुक्तकार्येषु त्वस्तत्वं गुरुशुक्रयोः ।
न दोषकृन्मलोमासो गुर्वादित्यादिकं तथा ॥ अन्वय - गुरुशुक्रयोः अस्तत्वं मलो मासो तथा गुर्वादित्यादिकं मासप्रयुक्तकार्येषु दोषकृत् न भवति।
अर्थ - मास सम्बन्धी निश्चित कार्यों में गुरु शुक्र के अस्त का, मलमास का एवं गुर्वादित्य का (गुरु एवं सूर्य के समान राशि पर रहने का) दोष नहीं है।
इसी प्रकार तेरह दिनों के पक्ष में भी शुभ कार्य नहीं करने चाहिए, जैसा कि ज्योति-निबंध में कहा गया है
पक्षस्य मध्य द्वितिथी पतेतां, तदा भवेद् रौरवकालयोगः ।
पक्षे विनष्टे सकलं विनष्टं, इत्याहुराचार्यवराः समस्ताः । अन्वय - (यदा) पक्षस्य मध्ये द्वितिथी पतेताम् तदा रौरवकालयोगो भवेत्। (तस्मिन् पक्षे किमपि शुभकार्य न कार्यम्) यतः पक्षे विनष्टे सकलं विनष्टं (भवति) इति समस्ता: आचार्यवरा आहुः।
अर्थ - जिस पक्ष में दो तिथियों का क्षय होता हो, उस पक्ष को विश्वघस्रनामक पक्ष कहते हैं। इसी को रौरवकालयोग कहा गया है। श्रेष्ठ आचार्यों का कथन है कि पक्ष के नष्ट हो जाने पर सब कुछ नष्ट ही है, अत: उस पक्ष में किसी भी शुभ कार्य को नहीं करना चाहिये। व्यवहारचण्डेश्वर ग्रन्थ में भी ऐसा ही कथन है-यथा
त्रयोदशदिने पक्षे विवाहादि न कारयेत् ।
गर्गादिमुनयः प्राहुः कृते मृत्युस्तदा भवेत् ॥ अन्वय - त्रयोदशदिने पक्षे विवाहादि कर्म कारयेत् तदा कृते मृत्युः भवेत् (इति) गर्गादिमुनयः प्राहुः।
अर्थ - तेरह दिनों के पक्ष में गर्गादि मुनियों ने विवाहादि शुभ कार्यों को करने का निषेध किया है यदि उस समय शुभकर्म किये जाएँ तो कर्ता की मृत्यु अथवा उसे मृत्युसदृश कष्ट भोगना पड़ता है। तिथि संज्ञाएँ-(आरम्भ सिद्धि में)
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा चेति त्रिरन्विता ।
हीना मध्योत्तमा शुक्ला, कृष्णा तु व्यत्यया तिथिः ॥ अन्वय - (शुक्लकृष्णपक्षयोः) त्रिरन्विता (त्रिवारं गणिता) तिथि: नन्दा भद्रा, जया, रिक्ता पूर्णा च इति संज्ञका भवति। शुक्ल पक्षे एतन्नाम्न्यः तिथयः प्रतिपदादि पंचमीपर्यन्ताः हीनाः षष्ठीतः आरभ्य दशमी यावत्
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६]
[ मुहूर्तराज मध्या: एकादशीतः पूर्णिमां यावत् उत्तमाः अथ कृष्णे पक्षे व्यत्यया अर्थात् प्रतिपदात: पञ्चमी यावत् एतन्नाम्न्यः तिथयः उत्तमाः षष्ठीतः दशमी यावत मध्याः तथा च एकादशीतः आरभ्य अमां यावत हीनाः भवनि
__ अर्थ - शुक्ल तथा कृष्ण की प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा अथवा अमा तक तिथियाँ क्रमश: नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता एवं पूर्णा इन संज्ञाओं से व्यवहृत होती हैं। शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से पंचमी तक एतत्संज्ञक तिथियाँ हीन षष्ठी से दशमी तक ये तिथियाँ मध्य तथा एकादशी से पूर्णिमा तक की तिथियाँ उत्तम कही जाती हैं, किन्तु कृष्ण पक्ष में प्रतिपदा से पंचमी तक की नंदादिसंज्ञक तिथियाँ उत्तम, षष्ठी से दशमी तक की मध्य और एकादशी से अमावस्या तक की इन संज्ञाओं की तिथियाँ हीन कही जाती हैं।
पक्षानुसार तिथियों में विशेषता ज्ञापक सारणी
शुक्ल पक्ष संज्ञाएँ
कृष्ण पक्ष
संज्ञाएँ
तिथियाँ
तिथियाँ
विशेष
विशेष हीना हीना हीना
नन्दा भद्रा जया रिक्ता
नन्दा
भद्रा जया रिक्ता
हीना
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पूर्णा
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उत्तमा उत्तमा उत्तमा उत्तमा उत्तमा मध्या मध्या मध्या मध्या
नन्दा भद्रा
नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा
जया
रिक्ता
हीना मध्या मध्या मध्या मध्या मध्या उत्तमा उत्तमा उत्तमा उत्तमा उत्तमा
पूर्णा
मध्या
नन्दा
नन्दा
हीना
भद्रा
भद्रा
हीना
जया
हीना
रिक्ता पूर्णा
SMS
जया रिक्ता पूर्णा
हीना हीना
दग्धातिथिनामक पंचांग दोष-आरम्भ सिद्धि में
दग्धार्केण धनुर्मीने २ वृषकुंभे ४ऽजकर्किणि ६ । द्वन्द्वकन्ये ८ मृगेन्द्रालौ १० तुलैणे १२ ह्यादियुक तिथि ॥
अन्वय - अर्केण धनुर्मीने, वृषकुंभे, अजकर्किणि, द्वन्द्वकन्ये, मृगेन्द्रालौ, तुलैणे क्रमश: आदियुक् तिथि: (द्वितीया, चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, दशमी, द्वादशी च एतास्तिथयः) दग्धा (कथ्यते)
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परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्म वृहत्तपागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्र कोष लेखक भट्टारक प्रभु
श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की परमोपासिका
आप आहौर : राज, निवासी श्री फूलचन्दजी की धर्मपत्नी है |आपके ऊपर वैधटय योग आने पर आपने धर्माराधना में अधिक समय व द्रव्य खर्च करने में बिताया,आपने अपने गुरूणीजी श्रीमानश्रीजी की शिष्या सरल स्वभावी त्यागी तपस्वी श्री हेतश्रीजी महाराज व परम विदूषी गुरूणीजी श्री प्रवर्तिनिजी श्री मुक्तिश्रीजी आदि की प्ररेणा से संघ यात्राएं एवं धर्माराधना में समय-समय पर लक्ष्मी का सद्उपयोग करती रहती है। आपने अपने पति के नाम से श्री फूलचन्द्र मेमोरियल ट्रस्ट बनाकर आहोर में एक विशाल भूखण्ड पर श्री विद्या विहार के नाम से भव्य जिन मन्दिर श्री (सहस्त्रफणा) पार्श्वनाथ भगवान का एवं जैनाचार्य सौधर्मबृहत्तपागच्छ नायक कलिकाल सर्वज्ञ अभिधान राजेन्द्र कोष के लेखक स्वर्णगिरि, कोरटा, तालनपुर,तीर्थोद्धारक श्री मोहनखेड़ातीर्थ संस्थापक भट्टारक प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की मूर्ति विराजीत की । अपने धर्माराधना की प्रेरणा दात्री गुरूणीजी श्री हेतश्रीजी महाराज की दर्शनीय मूर्ति विराजीत की।
आहोर से जेसलमेर संघ बसों द्वारा यात्रा करवाई, आहौर से स्वर्णगिरि संघ निकालकर स्वर्णगिरि तीर्थ : (जालोर) : पर परम पूज्य आगम ज्ञाता प्रसिद्ध वक्ता मुनिराज श्री देवेन्द्रविजयजी महाराज से संघ माला विधि सह धारण की। समय-समय पर संघ भक्ति करने का भी लाभ लिया। श्री मोहनखेड़ा तीर्थाधिराज का द्वितीय जिर्णोद्धार परम पूज्य शासन प्रभावक कविरत्न श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने सं० २०३५ माघसुदि १३ को भव्य प्रतिष्ठोत्सब किया था। उस समय श्रीसंघ की स्वामिभक्ति रूप नौकारसी की थी एवं सं० २०५० में परम पूज्य
श्रीमती ओटीबाई फूलचंदजी राष्ट्र संत-शिरोमणिगच्छाधिपति श्री हेमेन्द्रसूरीश्वरजीमहाराज ने परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के समाधि मन्दिर व २५० जिनेन्द्र भगवान की प्राण प्रतिष्ठोत्सव पर संघ भक्ति में नौकारसी का लाभ लिया। तपस्या विशस्थानक तप की ओलीजी की आराधना श्री सिद्धितप, वर्षितप, श्रेणितप, वर्द्धमान, तप की ओली अट्ठाई विविध तपस्या करके इनके उद्यापन भी करवाये।
यात्राएं- श्री सम्मैतशिखरजी, पालीताणा, गिरनार, आबू, जिरावला पार्श्वनाथ, शंखेश्वर पार्श्वनाथ, नागेश्वर, नाकौड़ा लक्ष्मणी तालनपुर माण्डवगढ, मोहनखेड़ा, गोड़वाड़ पंचतिथि, करेड़ा पार्श्वनाथ, केसरियाजी आदि तीर्थो की तीर्थयात्रा कर कर्म निर्जरा की । इस प्रकार अनेक धर्मकायों में अपनी लक्ष्मी का सद्उपयोग किया। महर्तराज ज्योतिष की पुस्तक के द्वितीय संस्करण में अपनी लक्ष्मी का दानकर पुण्योपार्जन किया। आपकी धर्म पुत्री अं. सौ. प्यारीबाई भी उन्हीं के मार्ग पर चलकर तपस्या एवं दान वृत्ति अच्छी तरह से करती रहती है।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति
श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
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परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्म बृहत्तपागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रणेता श्रीमोहनखेड़ा
तीर्थ संस्थापक जावरा नगर में क्रियोद्धार कर्ता भट्टारक जैन श्वेताम्बराचार्य देव प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक
अपने पिताजी श्रीमोतीलालजी नाहटा के पद चिह्नों पर चलते हुवे अपनी माताजी से संस्कार पाकर व्यापार व्यवसाय में उन्नती करते हुवे सफल यशस्वी उद्योगपति बने । जावरा चौपाटी क्षैत्र में जिनेन्द्र भगवान का मंदिर नहीं था उसके लिये एक विशाल भूखण्ड भेंट कर श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान का दादागुरुदेव भगवन्त का मंदिर बनवाया । नगर पालिका चेयरमेन रहकर नगर का विकास किया। वह आज भी आपके कार्यों का स्मरण करवाता है। दादावाडी प्रतिष्ठोत्सव के अध्यक्ष श्रीशंखेश्वर पार्श्व
राजेन्द्र चेरिटेबल के अध्यक्ष रहे। श्रीफतेहलालजी नाहटा
आपकेपरिवार में चारों पुत्र आपकेपद चिह्नों पर चल सभी धर्म केयासंसारकेसभी कार्यरुचिसे करते हैं। श्री पदमकुमार व धर्मपत्नी अं. सौ. कल्पना देवी, श्रीकमलकुमार व धर्म पत्नी अं. सौ. मंजू देवी, श्रीचन्द्रप्रकाशवधर्मपत्नी कुसुमदेवी, श्रीअतुलकुमार व धर्मपत्नी अं.सौ. संगीतादेवी, सुपुत्री श्री सौ मीनादेवी वागरेचा श्री अं.सौ. प्रेमलतादेवी कावेडीया वसौ. अं.संगीता देवी छाजेड़, पौत्र श्रीकान्त, दीपक, प्रणय, अमन, पौत्री पूजा, पायल, आरती, प्रियंका, अर्पिता।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्रीमती कमलबाई नाहटा
श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहन खेड़ा तीर्थ फर्म - रत्नराज इन्डस्ट्रीज
पोस्ट राजगढ़ जिला- धार (म.प्र.) चौपाटी, जावरा जिला : रतलाम (म.प्र.)
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मुहूर्तराज ]
[७ ___ अर्थ - सूर्य के धन और मीन राशियों पर, वृष और कुंभ राशियों पर, मेष और कर्क राशियों पर, मिथुन और कन्या राशियों पर, सिंह और वृश्चिक राशियों पर, तुला और मकर राशियों पर रहते क्रमश: (आदियुक्तिथि) अर्थात् २-४-६-८-१०-१२ ये तिथियाँ दग्धासंज्ञक हैं। दग्धातिथिफल-यतिवल्लभ में
कुष्ठं क्षौरेऽम्बरे दौःस्थय, गृहवेशेतु शून्यता ।
आयुधे मरणं यात्राकृष्युद् निरर्थकाः ॥ अन्वय - दग्धातिथि दिने क्षौरे कुष्ठं, अम्बरधारणे दौस्थ्यं, गृहप्रवेशे तू शून्यता, आयुधे (आयुधधारणानिर्माणादौ) मरणं (तथा) यात्राकृष्युद्वाहा: निरर्थका: (भवन्ति) । ____ अर्थ - दग्धातिथि को मुण्डन कराने से कुष्ठरोग, वस्त्रधारण से स्वास्थ्य हानि, गृहप्रवेश करने से घर में जनावास का अभाव, शस्त्र के धारण निर्माण आदि से मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट एवं यात्रा, कृषि
और उद्वाह (विवाह) ये सभी कार्य निष्फल होते हैं। प्रतिपदादि तिथियों के स्वामी-(मु.चि.शु.प्र.श्लो. ३)
तिथीश वन्हिको गौरी, गणेशोऽहिणुहो रविः ।
शिवो दुर्गान्तको विश्वे, हरिः कामः शिवः शशी ॥ अन्वय - प्रतिपद आरम्य क्रमश: वन्हिको, गौरी, गणेशः, अहिः, गुहः, रविः, शिवः, दुर्गा, अन्तकः, विश्वे, हरिः, काम:, शिव: शशी च एते तिथीनाम् ईशा: (स्वामिनः) सन्ति।
अर्थ - प्रतिपदादि तिथियों के अग्नि, ब्रह्मा, गौरी, गणपति, सर्प, गुह (स्वामी कार्तिक) सूर्य, शिव, दुर्गा, यम, विश्वेदेवा, विष्णु; कामदेव, शिव एवं चन्द्रमा ये स्वामी कहे गये हैं। तिथिवृद्धिक्षयलक्षण-(मु.चि.पी.टी.श्लो. ३४-३५ शुभाशुभ प्रकरणे)
यत्र या तिथिर्वारद्वयान्तं स्पृष्ट्वा तृतीयवारस्याप्यादिमं कंचिद्भागं स्पृशति सा तिथिर्वृद्धिसंज्ञका । यत्र यो वारः तिथिद्वयान्तं स्पृष्ट्वा तृतीय तिथेः कंचिदादिमं भागमपि स्पृशति तत्र तत्तृतीयतिथिमध्यस्था
तिथिः क्षयसंज्ञिता (अवमसंज्ञिता) ज्ञेया । अर्थ - जो तिथि दो वारों का स्पर्श करके तीसरे वार के भी कुछ आदि भाग का स्पर्श करती है वह तिथि वृद्धिसंज्ञक है। एवं जो वार दो तिथियों का स्पर्श करके तीसरी तिथि के भी कुछ अंश का स्पर्श करे तब उन तिथियों में मध्यस्थ तिथि क्षयसंज्ञक है। यह क्षयतिथि कुछेक आचार्यों के मत में अवमसंज्ञक कही जाती है।
वृद्धि तिथि का उदाहरण-चतुर्थी रवि के दिन ५८ घटी है, बाद में पंचमी आती है, सोमवार को पंचमी ६० घटी है और मंगलवार को पंचमी आदि की ३ घटी तक है अतः इस पंचमी ने रवि, सोम और मंगल इन तीन वारों का स्पर्श किया इसलिए पंचमी तिथि वृद्धिसंज्ञक तिथि हुई।
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८]
[ मुहूर्तराज क्षयतिथि का उदाहरण-रविवार को दशमी दो घड़ी है बाद में एकादशी आती है जो कि ५६ घड़ी तक है और बाद में द्वादशी की आद्य दो घड़ियाँ रविवार का ही स्पर्श करती हैं, इस प्रकार एक ही वार का (रवि का) तीन तिथियों ने स्पर्श किया अत: मध्य की तिथि एकादशी क्षयसंज्ञक कहलाई। आवश्यक कृत्य में तिथिक्षय तिथिवृद्धि दोष का परिहार–वसिष्ठ मत से
त्रिधुस्पृशाहयं दोषं सौम्यः केन्द्रगतः सदा । यद्वत्पाचयं हन्ति शून्यशयनव्रतम् ॥ अवमाख्यं तिथेर्दोष केन्द्रगो देवपूजितः ।
यद्वत्पापचयं हन्ति व्रतं त्रैवर्णिकं यथा ॥ अन्वय - यद्वत् अशून्यशयनव्रतम् हि पापचयं हन्ति तद्वत् सदा केन्द्रगत: सौम्य: त्रिधुस्पृशाह्वयं (तिथिवृद्धयात्मक) दोषं हन्ति। यद्वच्च त्रैवार्षिकं व्रतम् पापचयं हन्ति तद्वत् केन्द्रग: देवपूजितः (गुरुः) अवमाख्यं (तिथिक्षयसंज्ञकं) तिथेोषम् हन्ति।
अर्थ - जिस प्रकार अशून्यशयनव्रत निश्चित रूप से अनेक पापों का शमन करता है उसी प्रकार केंद्र स्थित सौम्यग्रह त्रिद्युस्पृशनामक (तिथिवृद्धिसंज्ञक) दोष को नष्ट करता है और जिस प्रकार त्रैवार्षिक व्रत अनेक पापों का नाश करता है उसी प्रकार केन्द्रस्थान में स्थित गुरु तिथि के अवमाख्य (तिथिक्षयसंज्ञक) दोष का शमन करता है। शुभ-अशुभ संज्ञक वार-(मुहूर्तं प्रकाश)
चन्द्रसौम्येज्यशुक्राश्च शुभा वाराः शुभे स्मृताः ।
क्रूरास्तु क्रूरकृत्येषु ग्राह्या भौमार्कसूर्यजाः ॥ __ अन्वय - चन्द्रसौम्येज्यशुक्राः वारा: शुभाः (शुभफलदाः) शुभे स्मृताः, भौमार्कसूर्यजाः (वाराः) क्रूरा: क्रूरकृत्येषु ग्राह्याः।
अर्थ - चन्द्र, बुध, गुरु एवं शुक्र ये शुभ वार हैं जो कि शुभकार्यों में लेने योग्य हैं, किन्तु मंगल, सूर्य और शनि ये क्रूरवार (अशुभवार) हैं इन्हें क्रूरकार्यों में ही लेना चाहिये। वारानुसार निषिद्ध तिथियाँ एवं नक्षत्र-(मु.चि.शु.प्र. श्लोक ५ वाँ)
नन्दा भद्रा नन्दिकारव्या जया च, रिक्ता भद्रा चैव पूर्णा मृतार्कात् ।
याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवं धनिष्ठार्यम्णं ज्येष्ठान्त्यं रवेर्दग्लभं स्यात् ॥ अन्वय - अर्कात् (रविवारादरम्य शनिवारं यावत्) क्रमश: नन्दा, भद्रा, नन्दिकारव्या, जया रिक्ता, भद्रा, पूर्णा, चैव (तिथि:) मृता (मृतसंज्ञा) तथैव रवे: (रवितः शनि यावत्) याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवं धनिष्ठा अर्यम्णं ज्येष्ठा अन्त्यं च दग्धभं स्यातू।
अर्थ - रविवार से शनिवार तक क्रमश: नन्दा, भद्रा, नन्दा, जया, रिक्ता भद्रा और पूर्णा तिथि मृतसंज्ञक मानी गई हैं। तथैव रवि से शनि तक क्रमश: भरणी, चित्रा, उत्तराषाढ़ा धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा और रेवती नक्षत्र दग्ध नक्षत्र कहे जाते हैं।
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परम पूज्य विश्ववद्य सौधर्मवृहत्तपागच्छ नायक श्रीतीर्थाधिराज मोहनखेडा तीर्थ संस्थापक विश्वप्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष के रचयिता आचार्य सम्राट भट्टारक कलिकाल सर्वज्ञ
श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म.के परमोपासक
श्री रमेशचन्द्रमागीलालजी खटोड
अंसौ.श्रीमति पुखराजबाई खटोड अध्यक्ष - नगर पालीका. मनावर
मनावार (मध्य-प्रदेश) निवासी श्रीरमेशचन्द्रजी प्रविण कुमार, धर्मपत्नी उर्मिलादेवी, सुशीलकुमार, धर्मपत्नी अं.सौ. श्रीमती रजनीदेवी, हेमन्तकुमार धर्मपत्नी शीलादेवी,राजेशकुमार धर्मपत्नी अं.सौ. श्रीमति ममतादेवी, श्रीशैलेन्द्रकुमार, श्रीपारसकुमारपौत्र, चिं.लवेश पौत्री, चिं. रचाति, चिं. अंजली, चिं. शीवानी।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्रीमोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.).
फर्म - * मेसर्स रमेश चन्द्र मांगीलाल खटोड * खटोड इन्टरप्राईज * लवेश उद्योग *
फोन - 0७२९४,३२२३३,३२०४०,३२३७७
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परम पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ सौधर्म वृहत्तपागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्र कोष लेखक भट्टारक प्रभु
श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परम भक्त
श्री हेमराजजीवाणीगोता
श्रीमती फाउदेवी हेमराजजी वाणीगोता
भीनमाल निवासी श्रीराजमलव धर्म पत्नी श्रीमती भागवन्ती बाई ने 'मुहूर्तराज' की द्वितीयावृत्ति प्रकाशित करवाने में अपनी लक्ष्मी का सद्उपयोग किया।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय श्रीमोहनखेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला- धार (म.प्र.)
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मुहूर्तराज ]
।
९
क्रम संख्या
संज्ञा
भद्रा
- मृतसंज्ञक तिथि - दग्धनक्षत्र - ज्ञापक सारणी - वार नाम तिथि संख्या
नक्षत्र रवि नन्दा मृता
भरणी सोम
मृता
चित्रा मंगल नन्दा मृता
उत्तराषाढ़ा जया मृता
धनिष्ठा गुरु
रिक्ता मृता उत्तरा फाल्गुनी भद्रा मृता
ज्येष्ठा शनि
मृता
रेवती
दग्ध दग्ध दग्ध दग्ध
बुध
दग्ध
शुक्र
दग्ध
पूर्णा
क्रूरवारों में करने योग्य कार्य- (यतिवल्लभ में)
लाक्षा-कुसुंभ-मंजिष्ठा-रागे काञ्चनभूषणे ।
शस्तौ भौमरवी लोहोपलत्रपुविधौ शनिः ॥ अन्वय - लाक्षा कुसुंभ मंजिष्ठा रागे, काञ्चनभूषणे भौमरवी शस्तौ (तथा) लोहोपलत्रपुविधौ शनिः (शस्त: मतः)
अर्थ - लाख, कुसुंभ एवं मजीठ के रंग के विषय अर्थात् इनके रंग तैयार करने में और इनके द्वारा रंग कार्य करने में तथा स्वर्णाभूषण के विषय में मंगल और रविवार श्रेष्ठ हैं तथा लोहे पत्थर और सीसे के कार्यों में शनि शुभ है। और भी-मंगल तथा शनिवारों की कुछेक कार्यों में अशुभता
द्रव्यादिदानग्रहणे निधाने, वाणिज्य- सेवा- गुरुराज- योगे ।
कलकृषिस्त्रीशुभकर्मवित्तन्यासौषधेष्वारशनी न शस्तौ ॥ अन्वय - द्रव्यादिदानग्रहणे, निधाने, वाणिज्यसेवागुरुराजयोगे, कलाकृषिस्त्रीशुभकर्मवित्तन्या/सोषधेषु च आररवि शस्तौ न । ___ अर्थ - द्रव्यादि के देने-लेने में, निधान में, वाणिज्य में, सेवा में, गुरु एवं राजदर्शन में, कला शिक्षण में, कृषि कर्म में, स्त्री समागम में, शुभ कर्म में, धन को गिरवी रखने में और औषधी सेवन में मंगल तथा शनि ये दो वार शुभ नहीं हैं। इसी बात को दैवज्ञवल्लभ के प्रणेता ने भी कहा है
सर्वार्थसाधका वारा गुरुशुक्रबुधेन्दवः ।
प्रोक्तमेव कृतं कार्यम् भौमार्कार्किषु सिध्यति ॥ । अर्थात् गुरु, शुक्र, बुध एवं सोम ये चारों वार समस्त अर्थों को सिद्ध करने वाले हैं। इन वारों में कोई भी शुभ कार्य किया जा सकता है, किन्तु मंगल, रवि एवं शनि इन तीन वारों में तो वही कार्य सिद्ध हो सकता है, जिस कार्य को उक्त वारों में करने का विधान है।
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[ मुहूर्तराज वार प्रवृत्ति-(मुहूर्त प्रकाश कार के मत से) वार प्रवृत्ति सूर्योदय से पूर्व एवं बाद में भी होती है, इस विषय में मुहूर्त प्रकाशकार लिखते हैं
दिनमानं च रात्र्यर्थं बाणेन्दुभ्यां समन्वितम् ।
दिनप्रवृत्तिर्विज्ञेया गर्गलल्लादि भाषिता ॥ अन्वय - दिनमानं, रात्र्यर्थं च बाणेन्दुभ्यां समन्वितम् (क्रियेत तदा यत् घटीपलात्मकं फलं भवेत् तत्समये) गर्गलल्लादिभाषिता दिन प्रवृत्तिः विज्ञेया।
दिनमान की घटीपलों, रात्र्य) की घटीपलों और १५ घटीकाओं को जोड़ने पर जो घटीपलात्मक फल आए, उस समय वार की प्रवृत्ति होती है, ऐसा गर्गलल्लादि आचार्यों का मत है। इस विषय में विशेष ज्ञान के लिए दिनशुद्धि ग्रन्थ में लिखा है
"विच्छिय कुंभाइतिए निसिमुहि, विसधणुहि कक्कितुलिमण्भे । मकमिहुण कन्नसिंहे निसिअन्ते संकमइ वारो ॥" वृश्चिककुंभादित्रितये निशामुखे वृषधनुः कर्कतुलासु मध्ये ।
मकरमिथुनकन्यासिंहे निशान्ते, संक्राम्यति वारः ॥ अर्थ - वृश्चिक, कुंभ, मीन और मेष इन चार संक्रान्तियों में रात्रि के प्रारम्भ होते ही वृष, धनु, कर्क और तुला इन चार संक्रान्तियों में रात्रि के मध्य में और मकर, मिथुन, कन्या और सिंह इन चार संक्रान्तियों में रात्रि के अन्त से वार प्रारम्भ होता है। वारों की कालहोराएँ-(आ.सि.)
होराः पुनरर्कसितज्ञचन्द्रशनिजीवभूमिपुत्राणाम् ।
सार्धघटीद्वयमानाः स्ववारतस्तास्तु पुण्यफलाः ॥ अन्वय - होराः सार्धघटीद्वयमानाः (भवन्ति) पुनर् अर्कसितज्ञचन्द्रशनिगुरुभूमिपुत्राणाम् (एवं क्रमेण भवन्ति) तास्तु स्ववारत: पुण्यफला: भवन्ति।
अर्थ - होरा (कालहोरा) का मान २॥ घटी अर्थात् १ घंटे का है। ये होराएँ रवि, शुक्र, बुध, चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल की इस क्रम से प्रारम्भ होती हैं। जिस दिन जो वार हो उस दिन सूर्योदय से १ घंटा तक उसी वार की होरा रहती है, फिर उसके बाद उस वार से छठे वार की होरा आती है, इस प्रकार अहोरात्र (दिन और रात्रि) में कुल २४ कालहोराएँ होती हैं। जिस दिन जो वार हो उस दिन प्रथम होरा उसी वार की हुई अब उस वार में जिन-जिन कार्यों को करने का विधान हो वे कार्य उन-उन वारों की अपनी स्वयं की होरा में करने पर अवश्य ही सिद्ध होते हैं। होरा का प्रयोजन-(य.व. में)
यस्य ग्रहस्य वारे यत् किञ्चित्कर्म प्रकीर्तितम् । तत्तस्य कालहोरायां पूर्णं स्यात्तूर्णमेव हि ॥
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परम पूज्य विश्ववंद्य सौधर्म बृहत्तपागच्छ नायक श्री तीर्थाधिराज मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष के लेखक भट्टारक कलिकाल सर्वज्ञ श्वेताम्बराचार्य गुरूभगवन्त
श्री श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महा. के परमोपासक
श्री प्रदीपकुमारजी श्रीमाल
फर्म 10
इन्दौर (म.प्र.) निवासी श्री प्रदीपकुमारजी धर्म पत्नी अं. सौ. श्रीमती कमलप्रभा देवी सुपुत्र सन्दीप कुमार, सुदीप कुमार पुत्री सुप्रिया श्रीमाल.
निवास :
* संदीप श्रीमाल रोड लाईन्स
tar रोड
अं. सौ. श्रीमती कमलप्रभा श्रीमाल
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय श्री मोहन खेड़ा तीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
सुप्रिया श्रीमाल रोड लाईन्स
* सुदीप श्रीमाल फाईनेन्स
१२०८, नई लोहा मण्डी, इन्दौर - फोन ४६४८०७
२५, श्री राजेन्द्र गुरु वाटिका, मन भावन नगर, इन्दौर
फोन - ४६४८०७, ४७१७०८
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मुहूर्तराज ]
____ [११ अर्थ - जिस वार को जिन-जिन कार्यों को करने का विधान है वे कार्य उस वार की स्वयं की कालहोरा में किये जाने से शीघ्र ही पूर्ण होते हैं। होरा फल - कुछ अज्ञात आचार्यों के मत से
भानुहोरा मृतिं कुर्याच्चन्द्रहोरा स्थिरासनम् । काराबन्धं भौमहोरा, बुधहोरा च पुत्रदा ॥ वस्त्रालंकारदा जीवहोरा शौक्री विवाहदा । जडत्वं शनिहोरायां सप्तहोरा फलन्त्विदम् ॥
प्रश्नकाले यदा होरा तदाफलमवाप्नुयात् । अन्वय - भानुहोरा मृतिम् चन्द्रहोरा स्थिरासनम् भौमहोरा च काराबन्धं कुर्यात्, बुधहोरा पुत्रदा (अस्ति) जीवहोरा वस्त्रालंकारदा, शौक्री विवाहदा, शनिहोरा जडत्वं कुर्यात् इंद सप्तहोराफलम् (अस्ति) यदा होरा प्रश्नकाले तदा फलमवाप्नुयात्।
अर्थ - सूर्य होरा मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्टदायक होती है। चन्द्र होरा स्थिरताकारक भौम होरा कारावास दायक होती है। बुध होरा पुत्रदायिनी है। गुरु होरा वस्त्र एवं आभूषण सुख देने वाली, शुक्र होरा मंगल दायिनी होती है। शनि होरा जड़ता देती है।
और प्रश्नकाल में जिस ग्रह की होरा हो उस प्रश्न का फल भी उसी के अनुसार होता है। वारवेला ज्ञान - (शी.बो.)
तुर्योऽर्के सप्तमश्चन्द्रे, द्वितीयो भूमि नन्दने । चन्द्रपुत्रे पञ्चमश्च, देवाचार्ये तथाष्टमः ॥ दैत्यपूज्ये तृतीयश्च, शनौ षष्ठश्च निन्दितः ।
प्रहरा? शुभे कार्ये, वारवेला हि कथ्यते ॥ अन्वय - अर्के तुर्यः. चन्द्रे सप्तमः, भूमिनन्दने द्वितीयः, चन्द्रपुत्रे पञ्चमः देवाचार्ये अष्टम: दैत्यपूज्ये तृतीयः शनौ च षष्ठः प्रहरा? वारवेला कथ्यते (अयं प्रहरार्ध:) शुभे कार्ये निन्दितः हि।
अर्थ - वारवेला का मान आधे प्रहर का अर्थात् १॥ घंटे का होता है। रवि आदि वारों में क्रमश: चौथा, सातवाँ, दूसरा, पाँचवाँ, आठवाँ, तीसरा और छठा प्रहरार्ध (आधे प्रहर का समय) वारवेला है। यह वारवेला शुभ कार्यों में निन्दित है अत: इसका त्याग करना चाहिये।
वारवेला ज्ञापक सारणी क्र.सं. वार नाम | प्रहरार्ध | समय
संज्ञा फल
विशेष वर्जित पलें रवि ४ था १०॥-१२ वारवेला (कुवेल) शुभकार्यों में त्याज्य मध्य की १६ पल पूर्व दिशा में वर्जित सोम |७ वाँ
वारवेला (कुवेल) शुभकार्यों में त्याज्य | मध्य की ८ पल वायव्य में वर्जित मंगल
७॥-९ वारवेला (कुवेल) |शुभकार्यों में त्याज्य | मध्य की ३२ पल दक्षिण में बुध
१२-१॥ वारवेला (कुवेल)| शुभकार्यों में त्याज्य ४॥-६ वारवेला (कुवेल) शुभकार्यों में त्याज्य मध्य की १ पल पश्चिम में
९-१०॥ वारवेला (कुवेल) शुभकार्यों में त्याज्य मध्य की ४ पल अग्नि कोण शनि
१॥-३ वारवेला (कुवेल) |शुभकार्यों में त्याज्य | मध्य की ६४ पल उत्तर दिशा
३-४॥
गुरु
शुक्र
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१२ ]
[ मुहूर्तराज
ऊपर की सारणी में जो “विशेष वर्जित पलें" शीर्षक में फल दर्शाया गया है उसे दिनशुद्धि के अनुसार कहा है
“सोल १६ ८ दसण ३२ दुग २ इग १ चउ ४ चउसठी ६४ अद्ध पहर मज्झपला। जत्ताइसु (यात्रादि में) अइअहमा पुव्वाई छठ छठ दिसिं॥”
___ अर्थात् उक्त प्रहराक़ की (रविवार से क्रमश: १६, ८, ३२, २, १, ४ और ६४ पलें क्रमश: पूर्व दिशा, वायव्यकोण, दक्षिण दिशा, ईशान कोण, पश्चिम दिशा, अग्नि कोण और उत्तर दिशा में यात्रादि में त्यागनी चाहिये। वारों में छायालग्न ज्ञान (आरं. सि.)
सिद्धच्छाया क्रमादर्कादिषु सिद्धप्रदा पदैः।
रुद्र ११ सार्धाष्ट ८॥ नन्दा ९ ष्ट ८ सप्तभि ७ चन्द्र वद्वयोः॥ अन्वय - अर्कादिषु क्रमात् रुद्रसार्धाष्ट नन्दाष्ट सप्तमिः द्वयोः (शुक्रशनिवारयोः) (सार्धाष्ट पदैः) पदैः सिद्धच्छाया भवति या (सिद्धि प्रदत्वात्) सिद्धिप्रदा (कथ्यते)
अर्थ - सूर्यादिवारों में क्रमश: पुरुष छाया उसी पुरुष के ११-८॥९-८-७-८॥८॥ पद प्रमाण की सिद्धछाया कहलाती है, जो कि सर्वकार्य साधने वाली होने के कारण सिद्धच्छाया कही जाती है।
पुरुष की छाया के बदले यदि उस पुरुष के सप्तांगुल प्रमाण के शंकु की छाया का मान करना हो तो वह उपर्युक्त पदों के पदले उसी पुरुष के अंगुलों से करना चाहिये। यदि सप्तांगुल शंकु के स्थान पर १२ अंगुल प्रमाण शंकु काम में लिया जाय तो उस शंकु की छाया का मान क्रमश: रविवारादि दिनों में २०-१६-१५-१४-१३-१२ और १२ अंगुल का है। जैसा कि नरपति जय चर्या में दर्शाया है- इयं च पुंसः पद रूपा श्लोके पदैः इति वचनान् सप्तांगुल प्रमाणशंकोस्तु इयं छाया अंगुलप्रमाणा ग्राह्या द्वादशांगुल शंकोस्त्वेवम्-बीसं २० सोलस १६ पनरस १५ चउदस १४ तेरस १३ य बार १२ बारे व १२ रविमाइसु बारंगुल संकुच्छायंगुला सिद्धा। इसे भली-भाँति निम्नांकित सारणी में स्पष्ट किया जाता है
॥ रवि आदि वारों सिद्धच्छाया ज्ञापक सारणी ॥
क्र.सं.
वार नाम | रवि सोम मंगल
|orrm 39
पुरुष छाया प्रमाण | पुरुष के ११ पद प्रमाण पुरुष के ८॥ साढ़े आठ पुरुष के ९ पद प्रमाण पुरुष के ८ पद प्रमाण पुरुष के ७ पद प्रमाण पुरुष के ८॥ साढ़े आठ पुरुष के ८॥ साढ़े आठ
सप्तांगुल शंकुछाया प्रमाण द्वादशांगुल शंकु छाया प्रमाण पुरुष के ११ अंगुल प्रमाण
पुरुष के अंगुल प्रमाण २० पुरुष के साढ़े आठ अंगुल प्रमाण पुरुष के अंगुल प्रमाण १६ पुरुष के ९ अंगुल प्रमाण
पुरुष के अंगुल प्रमाण १५ पुरुष के ८ अंगुल प्रमाण
पुरुष के अंगुल प्रमाण १४ पुरुष के ७ अंगुल प्रमाण
पुरुष के अंगुल प्रमाण १३ पुरुष के ८॥ साढ़े आठ अंगुल प्रमाण| पुरुष के अंगुल प्रमाण १२ पुरुष के ८॥ साढ़े आठ अंगुल प्रमाण| पुरुष के अंगुल प्रमाण १२
बुध
गुरु
शुक्र शनि
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परम पूज्य विश्ववंद्य सौधर्म बृहत्तपागच्छ नामक कलिकाल सर्वज्ञ विश्व प्रसिद्ध अभिधान राजेन्द्र कोष के रचयिता श्री मोहन खेड़ा तीर्थ संस्थापक कोरटाजी - स्वर्णगिरि (जालौर) तालनपुर
तीर्थोद्धारक भट्टारक आचार्य देव श्री श्री १००८ श्रीमद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वजी महाराज के परमोपाशक
श्री अनोखीलालजी मोदी
अ.सौ. श्रीमती प्रभावति मोदी
पेटलावद (म.प्र.) निवासी श्री अनोखीलालजीवधर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमति प्रभावति मोदी व प्रबोध कुमार धर्मपत्नी अं.सौ.श्रीमती मंजू प्रवीर कुमार, धर्मपत्नी अ.सौ. श्रीमती अरुणा अनिल कुमार, धर्म पत्नी अं.सौ. श्रीमती राखी, चि. शुभम्।
ग्रन्थ प्रकाशन समिति श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्रीमोहनखेड़ातीर्थ पोस्ट राजगढ़ जिला- धार (म.प्र.)
फर्म : * अनिल कुमार अनोखीलाल मोदी * अनिल ट्रेडर्स *
पेटलावद (म.प्र.) दूरभाष-०७३९१-६१४५०-६१२९८
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मुहूर्तराज ]
[१३ सिद्धच्छाया के विषय में हर्षप्रकाश में
___ "सुह गह लग्गा भावे विरुद्ध दिवसे.....सुलग्गे वि" अर्थ - शुभ ग्रह, लग्न के अभाव में, कुयोगयुक्त अत विरुद्ध दिन में, रविवारादि वारों में क्रमश: सिद्ध छाया लग्न गमन, प्रवेश, प्रतिष्ठा दीक्षादि कार्यों में शुभदायक है। विद्वानों ने छायालग्न को शुभ कार्यों में सिद्धिकर्ता कहा है। इस सिद्ध छायालग्न में शुभ शकुन निमित्त बल विद्यमान रहता है। यदि सुलग्न भी हो तो भी इस सिद्धच्छायालग्न को देखा जा सकता है। नारचन्द्र के भी अनुसार
“तिथिवारङ्ख्शीतांशुविष्ट्याद्यास्यां न चिन्तयेत्” अर्थात् इस सिद्धछाया में तिथि, वार, नक्षत्र, चन्द्र एवं विष्टि दोष का भी विचार नहीं करना चाहिये। अत एव इसकी प्रशंसा नरपति जय चर्यां में भी
नक्षत्राणि तिथि ाराः, ताराश्चन्द्रबलं ग्रहाः ।
दृष्टान्यपि शुभं भावं भजन्ते सिद्धछायया ॥ अन्वय - दुष्टान्यपि नक्षत्राणि, तिथिः, वाराः, ताराः, चन्द्रबलं ग्रहाः एतानि सर्वाणि सिद्धछायया शुभं भावं भजन्ते। ___ अर्थ - नक्षत्र, तिथि, वार, तारा, चन्द्र एवं अन्य ग्रह भले ही दुष्ट अर्थात् अशुभ फलदायी हों, किन्तु वे सभी इस सिद्धिच्छाया के प्रभाव से शुभफलदायी हो जाते हैं। समस्त शुभ कृत्यों में मंगल का त्याग (य. वल्ल.)
राज्याभिषेके वीवाहे सक्रियासु च दीक्षणे ।
__ धर्मार्थकाम कार्ये च शुभा वाराः कुजं विना ॥ अन्वय - राज्याभिषेके, वीवाहे (उद्वाह) सत्क्रियासु, दीक्षणे, धर्मार्थकामकार्ये च कुंज विना (सर्व) वारा: शुभाः (ज्ञेयाः)
राज्यतिलक, विवाह, सत्क्रिया, दीक्षा एवं धार्मिक आर्थिक तथा काम्य कार्यों में मंगल के अतिरिक्त सभी वार शुभ हैं। दिन एवं रात्रि के चौघड़ियों का ज्ञान
"उद्धेगा अमृता रोगा, लाभाः शुभाः चलाः कलाः
सूर्यादिसप्तवाराणां, रात्रौ पंच दिने च षट्" अन्वय - सूर्यादिसप्तवाराणां उद्वेगा अमृता रोगा लाभाः शुभा: चला कलाः इति संज्ञका चतुर्घटिकामानाः (शुभ क्षणा:) “चौघड़िये" रात्रौ पंच दिने च षट् (एवं गणनया)
सूर्य चन्द्र मंगल बुध गुरु शुक्र और शनि इन सात वारों के उद्वेग अमृत रोग लाभ शुभ चल एवं काल संज्ञक चौघड़िये हैं। जिस दिन जो वार हो उस दिन सूर्योदय से उसी वार का चौघड़िया प्रारम्भ होता
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१४ ]
[ मुहूर्तराज
है फिर उस वार से छठे २ वार चौघड़िये होते हैं यह क्रम दिन में, और रात्रि में पाँचवें २ वार के
चौघड़िये होते हैं।
वार र. च.
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३
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दिन चतुर्घटिका सारणी
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[इति वार विचार: ]
रात्रि चतुर्घटिका सारणी
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का.
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अहिंसा
अहिंसा प्राणिमात्रा माता के समान पालन-पोषण करती है, शरीर रूपी मरुभूमि में अमृत - सरिता बहाती है, दुःखरूपी दावानल को बुझाने में मेघ के समान है और भव-भ्रमण रूपी महारोगों के नाश करने में रामबाण औषधी के समान काम करती है। इसी प्रकार सुखमय, दीर्घायु, आरोग्य, सौंदर्य और मनोवांछित वस्तुओ को प्रदान करती है। इसीलिये अहिंसा - धर्म का सर्व प्रकार से पालन करना चाहिए तभी देश, धर्म, समाज और आत्मा का वास्तविक उत्थान होगा।
- श्री राजेन्द्रसूरी
च. का.
रो.
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परम पूज्य विश्ववंद्य प्रातः स्मरणीय सौधर्मबृहत्तपागच्छ नायक अभिधान राजेन्द्र कोष के लेखक श्रुताचार्य कलिकाल सर्वज्ञ तीर्थाधिराज मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक कोरटाजी स्वर्णगिरि (जालौर) तालनपुर तीर्थोद्धारक आराध्यपाद श्वेताम्बराचार्य
श्री श्री श्री १००८ श्री मद्विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के परमोपासक
Kailash
श्री खुशाल चन्द्र जी मेघराजजी साजी जैन, जालौर (राजस्थान)
श्री खुशालचन्द्र, सुरेशकुमार, विनोदकुमार, ललितकुमार, नरेशकुमार
ग्रन्थ प्रकाशन समिति
श्री राजेन्द्र प्रवचन कार्यालय
श्री मोहन खेड़ा तीर्थ
पोस्ट राजगढ़ जिला - धार (म.प्र.)
फर्म : श्री राजेन्द्र जैन गुड्स ट्रांसपोर्ट, मानपुरा कॉलोनी, जालौर (राज.)
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मुहूर्तराज ]
अथ नक्षत्र विचार:
क्रम सं. नक्षत्र नाम
अश्विनी
भरणी
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
२०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
२८
कृतिका
रोहिणी
मृगशिर:
आर्दा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पूर्वा फाल्गुनी
उत्तरा फाल्गुनी
हस्त
चित्रा
स्वाति
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उत्तराषाढ़ा
अभिजित्
नक्षत्र - वर्ण, नक्षत्र राशि एवं नक्षत्र स्वामिज्ञापक सारणी
नक्षत्र वर्ण
नक्षत्र - राशि
चे चो ला
लू ले लो
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वा भाद्रपद
उत्तरा भाद्रपद
रेवती
चू
अ इ उ ए
ओ वा वी वू
बे वो, का की
कु घ ङ छ
के को ह, ही
डा
डूड
मामी मे मे
मोरा टी टू
टेटो पापी
पूषण ठ
पे पोरा री
रू रे रो ता
ती तू ते, तो
नानी नू ने
नो या यी यू
ये यो भा भी
भू घा फा ढा
भे भो जा जी
जू जे जो खा
खी
खे खो
खू
ग गी
गे
गू
गो सा सी सू
से सोदा, दी
दू थ झ ञ
दे दो च ची
मेष
मेष
अ-मेष, इ उ ए - वृष
वृष
वे वो तक वृष, का की- मिथुन
मिथुन
के को ह- मिथुन, ही - कर्क
कर्क
कर्क
सिंह
सिंह
टे - सिंह टो पा पी- कन्या
कन्या
पेपो - कन्या, रा री - तुला
तुला
ती तू ते तुला, तो वृश्चिक
वृश्चिक
वृश्चिक
धन
धन
भे-धन, भो जा जी मकर
मकर
मकर
गगी - मकर, गू गे - कुंभ
कुंभ
से सो दा- कुंभ, दी - मीन
मीन
मीन
नक्षत्र स्वामी
अश्विनीकुमार
यम
अग्नि
ब्रह्मा
चन्द्र
रूद्र
अदिति (देवमाता)
गुरु
सर्प
[१५
पितर
भग (सूर्य विशेष)
अर्यमा (सूर्य विशेष)
सूर्य
विश्वकर्मा
वायु
इन्द्र, अग्नि
मित्र ( सूर्य विशेष )
इन्द्र
राक्षस (निर्ऋती)
उदक (जल) विश्वेदेवा
ब्रह्मा
विष्णु
वसु (वसु नामक ८ देव)
वरुण
अजचरण (रुद्रभेद)
अहिर्बुध्न्य (सूर्य विशेष ) पूषा (सूर्य विशेष)
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१६ ]
[ मुहूर्तराज नक्षत्रों के स्वामी (आ.सि.)
भेशास्त्ववश्वियमाग्नयः कमलभूश्चन्द्रोऽथ रुद्रोऽदितिर् , जीवोऽ हिः पितरो भगोऽर्यमरवी, त्वष्टा समीर स्तथा । शक्राग्नी अथ मित्र इन्द्रनिर्ऋती वारीणि विश्वे विधिर् ,
वैकुण्ठो वसवोऽम्बुपोऽजचरणोऽ हिर्बुधन पूणाभिधौ ॥ विशेष - नक्षत्र स्वामियों को गत सारणी में देखिए। ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र तथा उनमें करने योग्य कार्य-(मु. चि. न.प्र. श्लो. २)
उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।
तत्र स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादिसिद्धये ॥ अन्वय - उत्तरात्रयम् (उ. फा; उ. घा; उ. भा.) रोहिणी च ध्रुवं स्थिरं च (तद्वन्) भास्करश्च, तत्र स्थिरं (स्थिरकर्म) बीजगेहशान्त्यारामादि (कर्म) सिद्धये (भवति)
अर्थ - तीनों उत्तरा (उत्तरा फा. उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद) रोहिणी ये नक्षत्र स्थिर अपना ध्रुव संज्ञक है। इनमें बीज बोना, गृहकर्म, शान्तिकर्म और बगीचे आदि का कर्म करने पर सिद्ध होते हैं। चरसंज्ञक नक्षत्र तथा उनमें करणीय कार्य (मु.चि. न. प्र. श्लोक ३)
स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि चन्द्रश्चापि चरं चलम् ।
तस्मिन् गजादिकारोहो वाटिकागमनादिकम् ॥ अन्वय - स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि च नक्षत्राणि (श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा) चन्द्र (चन्द्रवार:) च चरं चलं वा (चरसंज्ञक:) तस्मिन् गजादिकारोह: वाटिकागमनादिकं च (सिध्यति)।
अर्थ - स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र तथा सोमवार चर अथवा चलसंज्ञक है। इनमें हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करना, वाटिका में जाना, आदिशब्द से लघुनक्षत्रोक्त कार्य (विक्रय, रतिकर्म, शास्त्र ज्ञान, चित्रकला भूषण, नृत्यादि) भी सिद्ध होते हैं। उग्रसंज्ञक नक्षत्र और उनमें करणीय कार्य (मु. चि. न. प्र. श्लोक ४)
पूर्वात्रयं याम्यमघे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा । तस्मिन् घाताग्निशाठयानि विषशस्त्रादि सिध्यति ॥
अन्वय - पूर्वात्रयम्, याम्यमघे कुज: उग्रं क्रूरं वा। तस्मिन् घाताग्नि शाठ्यानि विषशस्त्रादि च सिध्यति। __ अर्थ - तीनों पूर्वा (पू. फा.; पू. षा, पू. भा.) भरणी मघा और मंगलवार ये उग्र अथवा क्रूर संज्ञक हैं। इनमें किसी का हनन, अग्निदाह, दुष्टता (धोखाधड़ी) विषकर्म, शस्त्राघात आदि अरिष्ट कृत्य किये जाने पर सिद्ध होते हैं।
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मुहूर्तराज ]
मिश्र नक्षत्र तथा उनमें करणीय कार्य (मु. चि. न. प्र. श्लोक ५ )
विशाखाग्नेयभे सौम्यो मिश्रं साधारणं स्मृतम् । तत्राग्निकार्यं मिश्रं च वृषोत्सर्गादि सिध्यति ॥
अन्वय - विशाखाग्नेयभे सौभ्यः (बुधवारः) च मिश्रं साधारणं वा स्मृतम् । तत्र अग्निकार्यं मिश्रं वृषोत्सर्गादि च सिध्यति ।
अर्थ - विशाखा, कृत्रिका ये नक्षत्र एवं बुधवार ये मिश्र तथा साधारण संज्ञक हैं। इनमें अग्निहोत्र लेना, अन्य नक्षत्रोक्तकर्म वृषोत्सर्ग आदि सिद्ध होते हैं। यहाँ आदि शब्द, से उग्र कर्म भी किये जाएँ तो वे भी सिद्ध होते हैं ।
लघु नक्षत्र एवं उनमें करणीय कार्य (मु.चि.न.प्र. श्लोक ६ )
-
हस्ताश्विपुष्याभिजित: क्षिप्रं लघु गुरुस्तथा । तस्मिन् पण्यरतिज्ञानम् भूषाशिल्पकलादिकम् ॥
अन्वय
-
• हस्तः अश्विनी, पुष्यः अभिजित् च तथा गुरुः (गुरुवारः) क्षिप्रं लघुवा । तस्मिन् पण्यरतिज्ञानम् भूषा शिल्पकलादिकम्, ( सिध्यति ) ।
अर्थ
हस्तः अश्विनी, पुष्य और अभिजित् ये नक्षत्र तथा गुरुवार ये सभी लघु अथवा क्षिप्र संज्ञ हैं। इनमें वस्तुविक्रय, रतिकर्म (स्त्री समागम ) शास्त्रादि का ज्ञान, भूषणधारण, शिल्पकलादि कर्म सिद्ध होते हैं।
मृदुनक्षत्र एवं उनमें करणीय कार्य (मु.च.न.प्र. श्लोक ७)
[ १७
मृगान्त्यचित्रामित्रक्षं मृदु मैत्रं भृगुस्तथा । तत्र गीताम्बरक्रीडामित्रकार्यविभूषणम् ॥
अन्वय - मृगान्त्यचित्रामित्रर्क्ष तथा भृगुः (शुक्रवारः ) मृदु मैत्रं वा । तत्र गीताम्बरक्रीडामित्रकार्यबिभूषणम् (सिध्यति ) ।
अर्थ - मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा ये नक्षत्र तथा शुक्रवार मृदु अथवा मैत्र संज्ञक हैं। इनमें गीत शिक्षण, वस्त्रधारण क्रीडा, मित्रकर्म, आभूषण आदि कर्म शुभावह हैं ।
तीक्ष्ण नक्षत्र एवं उनके कृत्य (मु.चि.न.प्र. श्लोक ८)
मूलेन्द्रार्द्राऽहिभं सौरिः तीक्ष्णं दारुणसंज्ञकम् । तत्राभिचारघातोप्रभेदाः पशुदमादिकम् ॥
अन्वय - मूलेन्द्रार्द्राऽहिभं सौरिः तीक्ष्णं दारुणसंज्ञकं वा । तत्र अभिचारघातोग्रभेदाः पशुदमादिकम् (सिद्धये)। अर्थ - मूल, ज्येष्ठा, आद्रा, आश्लेषा, ये नक्षत्र एवं शनिवार ये तीक्ष्ण अथवा दारुणसंज्ञक हैं। इनमे अभिचारकर्म, उग्रकर्म, हनन, मित्रों में कलह उत्पादन, हाथी घोड़े आदि पशुओं की शिक्षा (आदि शब्द से बन्धनादि कर्म) सिद्धि को प्राप्त होते हैं ।
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१८]
[ मुहूर्तराज अधोमुख नक्षत्र एवं उनमें करणीय कर्म - - (ग.पु.)
भरणी - कृत्तिका - श्लेषामघामूलविशाखिकाः । तिस्रः पूर्वास्तथा चैवमधोवक्त्राः प्रकीर्तिताः ॥ वापीकूपतडागादिखननं च तृणादिकम् ।
देवतागारखननं निधानखननं तथा अन्वय - भरणीकृत्तिकाऽऽश्लेषामघामूलविशारिवकाः तिस्रः पूर्वाः च (एतानि नक्षत्राणि) अधोमुखाः प्रकीर्तिताः। एषु वापीकूपतडागादिखननं, तृणादिकम, देवतागारखननं निधानखननं च (शुभावहम्)। ।
__ अर्थ - भरणी, कृत्तिका, आश्लेषा, मघा, मूल, विशाखा, तीनों पूर्वा (पू.फा., पू.षाठा, पू. भाद्र) ये अधोमुखसंज्ञक नक्षत्र कहे जाते हैं । इनमें वावडी, कूप, तालाब आदि की खुदाई, तृणादिसंग्रह, देवता आगार का खनन, खानों की खुदाई, ये कर्म करने चाहिएं। ऊर्ध्वमुख नक्षत्र एवं उनमें करणीय कृत्य - (ज.पु.)
रोहिण्याा तथा पुष्यो धनिष्ठा चोत्तरात्रयम् । वारुणं श्रवणं चैव नव चोर्ध्वमुखाः स्मृताः ॥
एषु राज्याभिषेकं च पट्टबन्धं च कारयेत् । अन्वय - रोहिणी, आर्द्रा. पुष्यः, धनिष्ठा , उत्तरात्रयम्, वारुणम्, श्रवणं चैव नव (नक्षत्राणि) ऊर्ध्वमुखाः स्मृतः। एषु नक्षत्रेषु राज्याभिषेकं पट्टबन्धं च कारयेत् । __अर्थ - रोहिणी, आर्द्रा, पुष्य धनिष्ठा, तीनों उत्तरा (उ.फा. उत्त.षा. उत्तराभाद्रप्रद) शतभिषा और श्रवण ये नौ नक्षत्र ऊर्ध्वमुखसंज्ञक हैं। इनमें राज्याभिषेक पट्टबन्धादि उन्नत कर्म करने चाहिए। तिर्यङ्मुख नक्षत्र एवं तत्कृत्य (ग.पु.)
रेवती चाश्विनी चित्रा स्वाती हस्तः पुनर्वसुः । अनुराधा मृगो ज्येष्ठा एताः पार्श्वमुखाः स्मृताः ॥ गजोष्ट्राश्वबलीवर्ददमनं महिषस्य ।
बीजानां वपनं कुर्याद् गमनागमनादिकम् ॥ अन्वय - रेवती, अश्विनी, चित्रा, स्वाती, हस्तः, पुनर्वसुः अनुराधा, मृगः ज्येष्ठा च एताः (एतानि भानि) पार्श्वमुखाः स्मृताः। एषु गजोष्ट्राश्वबलीवर्ददमनं महिषस्य च बीजानां वपनं गमनागमनादिकम् कुर्यात्। ____ अर्थ - रेवती, अश्विनी, चित्रा, स्वाति, हस्त, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिर और ज्येष्ठा ये नौ नक्षत्र पार्श्वमुखसंज्ञक अर्थात् टेढ़े मुखवाले हैं । इनमें हाथी, ऊँट, बैल एवं भैंसे को शिक्षित करना, बीजों की बुवाई, और यातायातदि कर्म सिद्धि प्राप्त करते हैं।
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मुहूर्तराज ]
[ १९
धुवादि संज्ञक नक्षत्र एवं तत्कृत्यज्ञापक सारणी
#
नक्षत्र नाम
संज्ञा
उनमें करणीय कार्य
स्थिर अथवा ध्रुवसंज्ञक
उ.फा., उ.षा. उ.भा., रोहिणी
और रविवार स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा
शतभिषा, और सोमवार
बीज बोना, गृह कर्म, शालिक कर्म, बाग
आदि लगवाना, आदि स्थिर कार्य हाथी घोड़े की सवारी, वाटिका में जाना
आदि चर कार्य
२.
|
चर अथवा चल संज्ञक
पू.फा., पू.षा. पू.भा., भरणी
मघा, और मंगलवार
उग्र अथवा क्रूरसंज्ञक
| घातकर्म, अग्निदाह धूर्तता, विष देना, शस्त्रादि
निर्माण एवं धारणादि उग्र एवं क्रूर कार्य
मिश्र अथवा साधारण संज्ञक
अग्नि होत्र धारण करना, अन्य नक्षत्रोक्तकर्म वृषोत्सर्ग क्रिया एवं अन्य उग्र कर्म भी
लघु अथवा क्षिप्र संज्ञक
मृदु अथवा मैत्रसंज्ञक
विशाखा, कृतिका और
बुधवार हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित
और गुरुवार मृगशिरा रेवती, चित्रा, अनुराधा
और शुक्रवार मूल ज्येष्ठा आर्द्रा, आश्लेषा और
शनिवार ८. भरणी, कृतिका, आश्लेषा, मघा, मूल,
विशाखा, पू.फा., पू.षा., पू.भा ९. रोहिणी, आर्द्रा, पुष्य, घनिष्ठा, उ.फा.,
ऊ.षा., उ.भा., श्रवण, शतभिषा १०. रेवती, अश्विनी, चित्रा, स्वाती, हस्त,
पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, ज्येष्ठा
वस्तु विक्रय, रतिकर्म, शास्त्र ज्ञान, भूषण __धारण, शिल्पकला शिक्षणादि कर्म गीत शिक्षण, वस्त्र धारण, क्रीड़ा, मैत्री
आभूषण निर्माण एवं धारण अभिचार कर्म, उग्र कर्म, हनन, मित्र कलह हाथी घोड़े आदि की शिक्षा बन्धनादि कर्म
तीक्ष्ण अथवा दारुण संज्ञक
अधोमुख
वावड़ी कूप, तालाब, तृणादि संग्रह, देवता
आगार खनन, खानों की खुदाई
प्रतिष्ठा, उ.फा., | उर्ध्वमुख
राज्याभिषेक, पट्टबन्धादि
उन्नत कर्म
तिर्यमुख
हाथी, घोड़े, ऊँट, बैल, महिष आदि को शिक्षा
देना, बीजों की बुवाई, यातायातादि कर्म
अभिजित् नक्षत्र का मान - वसिष्ठ मत से -
अमिजिद्भोगमेतद्वै वैश्वदेवान्त्यपादमखिलं तत् ।
आद्यचतस्त्रों नाड्यो हरिभस्यैतच्च रोहिणी विद्धम् ॥ अन्वय - वैश्वदेवान्त्यम् अखिलम् पादम् हरिमस्य आद्यचतस्रो नाड्यो एतद् वै अभिजिद्भोगम् (एतच्च अभिजिद् पंचशलाकायाम्) रोहिणी विद्धम्। - अर्थ - उत्तराषाढा नक्षत्र का चतुर्थ चरण और श्रवण की आदि की ४ घटी यह अभिजित् नक्षत्र का मान है। इसका उपयोग वेध, लत्ता, उत्पात आदि के देखने में किया जाता है।
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२० ]
[ मुहूर्तराज अभिजित् की ग्राह्याग्राह्यता का विचार -
लांगले, कमठे, चक्रे फणिचक्रे त्रिनाडिके । अभिजिद् गणना नास्ति चक्रे खाजूंरिके तथा ॥
एकार्गलो दृष्टिपातः चाभिजिद् रहितानि वै । अर्थ - पंचशलाका एवं सप्तशलाका चक्र में अभिजिद् नक्षत्र ग्रहण किया जाता है । इसी प्रकार मुहूर्त चिन्तामणिकार ने एकार्गलदोष में उस अवस्था में अभिजिद् गणना की है जबकि खजूर चक्र में सूर्य नक्षत्र से चन्द्रमा विषम नक्षत्र पर स्थित हो।
हलचक्र, कमठचक्र, त्रिनाडीचक्र, फणिचक्र, खजूर चक्र तथा एकार्गल दृष्टिपातादि में अभिजित् की गणना नहीं की जाती। जन्म नक्षत्र विषय में कश्यप मत - -
नवानप्राशने चौले व्रतबन्धेऽभिषेचने ।
शुभदं जन्म नक्षत्रमशुभं त्वन्यकर्मणि ॥ अन्वय - नवान्नप्राशने चौले व्रतबन्धेऽभिषेचने जन्म नक्षत्रं शुभदं (भवति) अन्यकर्मणि तु अशुभम्।।
अर्थ - नवीन अन्न भक्षण, चौलकर्म, व्रतबन्ध, अभिषेक आदि में जन्मनक्षत्र शुभद है अन्य कार्यों में नहीं। जन्म एवं उपनाम के नक्षत्रों का विचार - - (व्य.प्र.)
विहाय जन्मभं कार्ये, नामभं न प्रमाणयेत् ।
जन्मभस्यापरिज्ञाने, नामभस्य प्रमाणता ॥ अन्वय - कार्ये जन्मभं विहाय नामभं न प्रमाणयेत्। जन्मभस्य अपरिज्ञाने (तु) नामभस्य प्रमाणता (अस्ति)।
किसी भी कार्य में यदि जन्मनक्षत्र ज्ञात न हो तो नामनक्षत्र की प्रमाणता है किन्तु यदि जन्म नक्षत्र का ज्ञान हो तो नाम नक्षत्र प्रामाणिक नहीं है। अतः मेलापक देखते समय -
द्वयोर्जन्मभयोमेलो, द्वयोर्नामभयोस्तथा ।
जन्मनामभयोर्मेलो न कर्तव्यः कदाचन ॥ अन्वय - द्वयोः जन्मभयोः मेलः तथा द्वयोः नामभयोः मेलः कर्तव्यः जन्मनामभयोर्मेलः कदाचन न कर्तव्यः।
अर्थ - अतः यदि दो व्यक्तियों का मेलापक करना हो तो उन दोनों के जन्म नक्षत्रों से अथवा जन्म नक्षत्र ज्ञानाभाव में दोनों के नाम नक्षत्रों से ही करना चाहिए। एक के नाम नक्षत्र और दूसरे के जन्मनक्षत्र से नहीं।
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मुहूर्तराज ]
[२१
पंचक ज्ञान - (आ.सि.)
पंचके वासवान्त्यार्धात्तृणकाष्ठगृहोद्यमान् ।
याम्यदिग्गमनं शय्यां मृतकार्य विवर्जयेत् ॥ ___ अर्थ - धनिष्ठा के उत्तरार्ध से लेकर शतभिषा, पूर्वाभाद्रपदा, उत्तराभाद्रपदा खेती ये ४॥ नक्षत्र का समय अर्थात् कुंभ और मीन का चन्द्रमा, यह पंचक काल है। इसमें तृणकाष्ठादि संग्रह घर को ढांकना, दक्षिण दिशा में यात्रा, खाट की बुनाई एवं प्रेतकार्य आदि कार्य वर्जनीय हैं। पंचक फल - (व्यवहार सार में)
धनिष्ठा धननाशाय, प्राणध्नी शततारका । पूर्वायां दण्डयेद्राजा, उत्तरा मरणं धुवम् ॥
अग्निदाहश्च रेवत्यां, इत्येतत्पंचके फलम् । अर्थ - धनिष्ठा में धननाश, शतभिषा में प्राणनाशक पीड़ा, पूर्वाभाद्रपदा, में राजदण्ड, उत्तराभाद्रपद में मरण एवं खेती में अग्निदाह आदि उत्पात होते हैं। पुष्यनक्षत्र की प्रशंसा - (आ.सि.)
कार्य वितारेन्दुबलेऽपि पुष्ये, दीक्षां विवाहं च विनाविदध्यात् । पुष्यः परेषां हि बलं हिनस्नि, बलं न पुष्यस्य च हन्युरन्ये ॥
सिंहो यथा सर्वचतुष्पदानां तथैव पुष्यो बलवानुडूनाम् ॥ अन्वय - दीक्षां विवाहं च विना (किञ्चिदपि कार्यम्) वितारेन्दु बलेऽपि (समये) पुष्ये नक्षत्रे कार्यम् विदध्यात्। पुष्य परेषां बलं हिनस्ति हि, पुष्यस्य तु बलं केचिदपि न हन्युः। यथा सिंहः सर्वचतुष्पदानां (मध्ये) बलवान् तथैव सर्वोडूनाम् पुष्यः बलवान् अस्ति ।
अर्थ - पुष्य नक्षत्र में ताराबल तथा चन्द्रबल के न रहते हुए भी दीक्षा और विवाह के अतिरिक्त समस्त शुभ कार्य करणीय होते हैं, क्योंकि पुष्यनक्षत्र अन्य कुयोगों के बल का शमन करता है। किन्तु पुष्य के बल का अन्य योग शमन नहीं कर सकते। जिस प्रकार सिंह सर्वपशुओं में प्रधान एवं बलशाली है उसी प्रकार पुष्य सर्वनक्षत्रों में प्रधान एवं बलवान् है। नक्षत्रपाया ज्ञान एवं उसका फल -
आर्द्रादिदशभी रूप्यम् विशाखाचतुलौंहकम् ।
पूर्वादिसप्त ताम्रश्च रेवतीषटकहेमकम् ॥ __ अर्थ - आर्द्रादिदश नक्षत्रों का चांदी का पाया, विशाखादि चार नक्षत्रों का पाया लोहे का, पूर्वाषाढ़ा से सात नक्षत्रों का पाया ताम्र का तथा रेवती से छः नक्षत्रों तक पाया सोने का होता है। ____ फल - लौह पाये का शनि, स्वर्ण पाये का गुरु, चांदी पाये के चन्द्र और शुक्र, ताम्र पाये के अन्य ग्रह शुभ फलदायी होते हैं।
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२२ ]
[ मुहूर्तराज
नक्षत्रादि की अन्तिम घटियों की शुभ कार्यों में त्याज्यता -
मासान्ते दिनमेकं तु तिथ्यन्ते घटिकाद्वयम् ।
घटिकानां त्रयं भान्ते शुभे तु सर्वदा त्यजेत् ॥ अर्थ - मास का अन्तिम एक दिन, तिथि के अन्त की दो घड़ियाँ और नक्षत्र के अन्त की तीन घड़ियाँ शुभ कार्यों में सर्वदा छोड़ने योग्य होती हैं। नक्षत्रों की अन्धादि संज्ञाएँ - (मु.चि.न.प्र. श्लो.२२)
अन्धाक्षं वसुपुष्यधातृजलभद्वीशार्यमान्त्याभिधम् , मन्दाक्षं रविविश्वमैत्रजलपाश्लेषाश्विचान्द्रं भवेत् । मध्याक्षं शिवपित्ररजैकचरणत्वाष्टेन्द्रविध्यन्तकम् । स्वक्षं स्वात्यदितिश्रवोदहनभाहिर्बुध्यरक्षोभगम् ॥
अन्वय - वसुपुष्यधातृजलभद्वीशार्यमान्त्यामिधं (एतन्नक्षत्रवृन्दम्) अन्धाक्षम्, रविविश्वमैत्रजलपाश्लेषाश्विचान्द्रं मन्दाक्षं भवेत्। शिवपित्रजैकचरणत्वाष्टेन्द्रविध्यन्तकम् मध्याक्षम् तथा च स्वात्यदिति श्रवोदहनभाहिर्बुध्न्यरक्षोभगम् स्वक्षं (भवति)
फल -
विनष्टार्थस्य लाभोऽन्धे शीघ्रं मन्दे प्रयत्नतः ।
स्याद्रे श्रवणं मध्ये श्रुत्याप्ती न सुलोचने ॥ __ अन्वय - अन्धे (अन्धाक्षे नक्षत्रे) विनष्टार्थस्य शीघ्रं लाभो (भवेत्), मन्दाक्षे प्रयत्ननः वस्तुप्राप्तिः, मध्ये दूरे श्रवणं स्यात् किन्तु सुलोचने (गतस्य वस्तुनः) श्रुत्याप्ती (अपि) न (भवति)। ___ अर्थ - धनिष्ठा, पुष्य, रोहिणी, पूर्वाषाढा, विशाखा, उत्तराफाल्गुनी और रेवती ये नक्षत्र अन्धाक्ष हैं अर्थात् अन्धसंज्ञक हैं। हस्त, उत्तराषाढा, अनुराधा, शतभिषा, आश्लेषा, अश्विनी और मृगशिरा ये नक्षत्र मन्दाक्ष हैं। आर्द्रा, मघा, पूर्वाभाद्रपद, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित् और भरणी, इन नक्षत्रों को मध्याक्ष कहते हैं और स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण कृत्तिका, उत्तराभाद्रपदा, मूल और पूर्वाफाल्गुनी ये नक्षत्र सुलोचन हैं।
अन्धसंज्ञक नक्षत्र में खोई हुई वस्तु शीघ्र मिले, मन्दाक्ष में प्रयत्न करने से मिले, मध्याक्ष, नक्षत्र में विनष्ट वस्तु दूर सुनने में आवे कि अमुक स्थान पर वस्तु है किन्तु सुलोचन नक्षत्र में वस्तु न सुनने में आवे और न ही मिले।
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मुहूर्तराज ]
२
अन्धादि संज्ञक नक्षत्र एवं तत्फल ज्ञापक सारणी
संज्ञाएँ
फल
अन्धाक्ष
मन्दाक्ष
नक्षत्रों के नाम धनिष्ठा, पुष्य, रोहिणी, पू.षाढ़ा, विशाखा, उत्तरा फाल्गुनी, रेवती हस्त, उत्तराषाढ़ा, अनुराधा, शतभिषा, आश्लेषा, अश्विनी, मृगशिरा आर्द्रा, मघा, पूर्वाभाद्रपद, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजित, भरणी, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, कृतिका, उत्तराभाद्रपद, मूल, पू फाल्गुनी
मध्याक्ष
इनमें खोई वस्तु शीघ्र मिले प्रयल से मिले दूर सुनने में आवे वस्तु न सुनने में आवे और न ही मिले
स्वक्ष (सुलोचन)
निम्नांकित नक्षत्रों में सर्पदष्ट की अवश्य ही मृत्यु - वशिष्ठ मत से -
मघाविशाखानलसार्पयाभ्यनैऋत्यरौद्रेषु च सर्पदष्टः ।
सुरक्षितो विष्णुरथेन सोऽपि, प्राप्नोति कालस्य मुखं मनुष्यः॥ अन्वय - मघाविशाखानलसार्पयाभ्यनैऋत्यरौद्रेषु सर्पदष्टः मनुष्यः विष्णुरथेन सुरक्षितोऽपि कालस्य मुखं प्राप्नोति। ___ अर्थ - मघा, विशाखा, कृत्तिका, आश्लेषा, भरणी, मूल एवं आर्द्रा इन नक्षत्रों में यदि किसी को साँप डॅस ले तो चाहे उसकी भले ही साक्षात् गरुड़ रक्षा करे तो भी वह मनुष्य अवश्यमेव काल को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसकी मृत्यु हो ही जाती है। राशियों के स्वामी - (शी. बोध)
मेष वृश्चिकयोभौंमः, शुक्रो वृषंतुलाधिपः । बुधः कन्यामिथुनयोः पतिः कर्कस्य चन्द्रमाः ॥ स्वामीज्यो मीनधनुषोः शनिर्मकरकुंभयोः ।
सिंहस्याधिपतिः सूर्यः कथितो गणकोत्तमैः ॥ अर्थ - मेष और वृश्चिक राशि का स्वामी मंगल, वृष और तुला का स्वामी शुक्र, मिथुन और कन्या का स्वामी बुध और कर्क का स्वामी चन्द्र है। धनु और मीन का स्वामी गुरु, मकर और कुंभ का स्वामी शनि तथा सिंह का स्वामी सूर्य है ऐसा गणितज्ञों ने कहा है। सर्वदेश प्रसिद्ध अष्टकूट - (मु.चि.वि.प्र.श्लो. २१)
वर्णो वश्यं तथा तारा, योनिश्च ग्रहमैत्रकम् ।
गणमैत्रम् भकूटं च नाडी चैते गुणाधिकाः ॥ अन्वय - वर्णः वश्यं, तारा, योनीः, ग्रहमैत्रकम् गणमैत्रकम्, भकूटं नाडी च एते गुणाधिकाः (एकादिगुणाधिकाः) राशिकूटभेदाः सन्ति।)
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२४]
[ मुहूर्तराज अर्थ - वर - वधू के गुणमेलापक के लिए अष्टकूटों पर विचार किया जाता है। ये राशिकूटभेद संख्या में ८ हैं यथा-वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रहमैत्री, गणमैत्री, भकूट और नाडी। ये कूटभेद उत्तरोतर एक - एक अधिक गुणवाले हैं अर्थात् वर्ण का गुण एक, वश्य गुण २ तारागुण ३ योनिगुण ४ ग्रहमैत्री गुण ५ गणमैत्री गुण ६ भूकूट गुण ७ नाडी गुण ८ हैं।
१. वर्णकूट - (शी.बो.) -
मीनालिकर्कटा विप्राः क्षत्रियोऽजो हरिर्धनुः । शूद्रो युग्मं तुलाकुंभौ, वैश्यः कन्या मृगो वृषः ॥ वरस्य वर्णतोऽधिका, वधून शस्यते बुधैः ॥
अर्थ - मीन वृश्चिक और कर्क राशि का वर्ण विप्र, मेष, सिंह और धनु राशि का वर्ण क्षत्रिय मिथुन, तुला और कुंभ राशि का वर्ण शूद्र तथा कन्या, मकर और वृष राशि का वर्ण वैश्य है। वर के वर्ण से अधिक वर्ण कन्या का होना उचित नहीं।
२. वश्यकूटं - (मु.चि.वि.प्र. २३)
हित्वा मृगेन्द्रं नरराशिवश्याः, सर्वे तथैषां जलजाश्च भक्ष्याः । सर्वेपिसिंहस्य वशे विनालिं, ज्ञेयं नराणां व्यवहारतोऽन्यत् ॥
अर्थ - सिंह राशि के बिना सभी राशियाँ मनुष्य राशि के वशीभूत हैं और जलचर राशियाँ मनुष्य की भक्ष्य हैं। वृश्चिक राशि को छोड़कर सभी राशियाँ सिंह राशि के वश में हैं अन्य सभी राशियों का अर्थात् चतुष्पद राशियों का चतुष्पदों के साथ एवं जलचर राशियों का जलचर राशियों के साथ वश्यभाव मनुष्यों के व्यवहार से जानना चाहिए ।
राशियों की द्विपदादिसंज्ञा - (शी.बो.)
मकरस्य पूर्वभागो मेषसिंहधनुर्वषाः । चतुष्पदाः कीटसंज्ञः कर्कः सर्पश्च वृश्चिकः ॥ तुला च मिथुनं कन्या, पूर्वार्ध धनुषश्च यत् । द्विपदास्तु मृगार्धं तु कुंभमीनौ जलाश्रितौ ॥
__ अर्थ - मकर राशि का पूर्वार्द्ध, मेष, सिंह, धनु और वृष ये चतुष्पद राशियाँ हैं, कर्क राशि कीट है और वृश्चिक सर्प है। तुला, मिथुन, कन्या और धन का पूर्वार्द्ध ये द्विपद हैं। मकर का उत्तरार्ध तथा कुंभ और मीन ये राशियाँ जलचर हैं। वश्य मिलने पर गुण २ होते हैं।
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वष
m , x wx .
कर्क
मुहूर्तराज ]
[२५ - राशि - द्विपदादिसंज्ञा - वर्ण - वश्य - बोधक सारणी - क्र.सं. राशियाँ ___ द्विपदादि संज्ञा | वर्ण । ____संज्ञाओं वश्यता मेष चतुष्पद
क्षत्रिय नर राशि वश्य चतुष्पद
वैश्य नर राशि वश्य मिथुन द्विपद
शूद्र परस्परसमता, सिंह के विना सर्व वश्य
विष नर राशि भक्ष्य चतुष्पद
क्षत्रिय वृश्चिक को छोड़कर सभी वश्य कन्या द्विपद
वैश्य सिंह के बिना सर्व राशियाँ वश्य तुला . द्विपद
शूद्र सिंह के बिना सर्व राशियाँ वश्य वृश्चिक
सिंह के वश्य नहीं। धनु - पूर्वार्द्ध उत्तरार्ध - चतुष्पद क्षत्रिय पूर्वार्द्ध के वश्य सिंह को छोड़कर उत्तरार्ध
नर राशि वश्य। मकर
पूर्वार्द्ध - चतुष्पद वैश्य नर राशि भक्ष्य (उत्तरार्ध) नर राशि वश्य उत्तरार्ध - जलचर
(पूर्वार्द्ध) जलचर
नर राशियों की भक्ष्य मीन जलचर
नर राशियों की भक्ष्य
कीट
सिंह
सर्प
विप
-
द्विपद
3
३. ताराकूटम् - (मु.चि.वि.प्र.श्लो. २४)
कन्याद् वरमं यावत्कन्याभं वरभादपि ।
गणयेन्नवहच्छेषे त्रीष्वद्रिभमसत्स्मृतम् ॥ अन्वय - कन्यात् (कन्यानक्षत्रात्) वरमं यावत् (तथा च) वरभात् अपि कन्यानक्षत्रं यावत् गणयेत्। (ततः विशिष्टेऽके) नवहृच्छेषे (नवभिर्भक्ते यदवशिष्टं तत्) त्रीष्वद्रिभम् (यदि स्यात् तत्) असत् स्मृतम्।। __अर्थ - कन्या के जन्मनक्षत्र से वर के जन्मनक्षत्र तक और वर के जन्म नक्षत्र से कन्या के जन्म नक्षत्र तक गिनें। इस प्रकार जो अंक आवे उसमें नौ का भाग दें जो शेष अंक बचें वे यदि ३, ५ और ७ हों तो अशुभ और यदि १, २, ४, ६, ८, ९ रहें तो शुभ हैं। यदि एक योग में ९ का भाग देने पर शुभ फलद शेष हो और दूसरे योग में ९ का भाग देने पर यदि अशुभफलद अंक शेष रहे तो मध्यम मेलापक जानना चाहिए। शुभमेलापक के गुण ३ मध्यम का १॥ डेढ़ और अशुभ का गुण ० होता है। ४. योनिकूट - (मु.चि.वि.प्र. श्लो. २५ और २६ वाँ)
अश्विन्यम्बुपयोहयो निगदितः, स्वात्यर्कयोः कासरः, सिंहो वस्वजपाद्भयोः समुदितो याम्यान्तयोः कुंजरः।
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२६ ]
[ मुहूर्तराज मेषो देवपुरोहितानलभयोः कर्णाम्बुनोर्वानरः , स्याद् वैष्वाभिजितोस्तथैव नकुलश्चांद्राब्जयोन्योरहिः ॥ ज्येष्ठामैत्रभयोः कुरंग उदितो मूलार्द्रयोः श्वा तथा । मार्जारोऽदितिसार्पयोरथ मघायोन्योस्तथैवोन्दुरू: , व्याघ्रो द्वीशमचित्रयोरपि च गौरर्यम्णबुध्न्यक्षयोः ,
योनिः पादगयोः परस्परमहावैरं भयोन्योस्त्यजेत् । अन्वय - अश्विन्यम्बुपयोः (अश्विनीशततारकानक्षत्रयोः) योनिः हयः निगदितः स्वात्यर्कयोः कासरः (महिषः) वस्वजपाद्पयोः सिंहः याम्यान्त्ययोः कुंजरः देवपुरोहितानलभयोः योनिः मेषः, कर्णाम्बुनोर्वानरः, वैश्वाभिजितोः नकुलः योनिः स्यात्, चान्द्राब्ज योन्योः योनिः अहिः, ज्येष्ठामैत्रभयोः कुरंग उदितः तथा मूलार्द्रयोः नक्षत्रयोः योनिः श्वा, अदितिसार्पयोः मार्जारः तथैव मघायोन्योः उन्दुरुः द्वीशभचित्रयोः व्याघ्रः अर्यम्णबुध्यक्षयोः गौः योनिः। पादगयोः भयोन्यो परस्परमहावैरः त्यजेत्।
नक्षत्र योनि एवं परस्पर महावैरज्ञापक सारणी
क्र.सं.
नक्षत्र नाम
योनि | परस्पर
| योनि
नक्षत्र नाम
क्र.सं.
| १५
अश्व सिंह
कुंजर
m 39
१९
१ - २
अश्विनी एवं शतभिषा घनिष्ठा एवं पू.भाद्र.
पुष्य एवं कृतिका ७ - ८ उत्तराषाढ़ा एवं अभिजित
ज्येष्ठा एवं अनुराधा ११ - १२ । पुनर्वसु एवं आश्लेषा
अज नकुल हरिण मार्जार
महावैर महिष स्वाती एवं हस्त महावैर
भरणी एवं रेवती | १७ - महावैर वानर | श्रवण एव पू.षाढ़ा महावैर सर्प मृगशिरा एवं रोहिणी महावैर श्वान | मूल और आर्द्रा २३ - महावैर उन्दुरू | मघा एवं पू.फा.
(मूषक) महावैर | गौ | उ.फा. एवं उ.भा. | २७ - २८
२५ -
| १३ - १४ | विशाखा एवं चित्रा
व्याघ्र
___ मुहूर्त चिन्तामणि के उपर्युक्त श्लोकों में दो - दो नक्षत्रों की समान योनियाँ बतलाई गई हैं। इन योनियों में जो योनियाँ एक - एक चरण गत हैं उनमें परस्पर महावैर हैं। यथा श्लोक के प्रथम चरण में अश्विनी
और शतभिषा की योनि अश्व है तथा स्वाती और हस्त की योनि महिष है अतः अश्व और महिष में परस्पर महावैर है। यह वर - वधू के गुणमेलापक में तथा अन्य दो व्यक्तियों के भी मेलापक में सर्वथा त्याज्य है।
अपवाद सहित योनिफल - (अत्रि मत से)
एकयोनिषु सम्पत्त्यै, दम्पत्योः संगमः सदा । भिन्नयोनिषु मध्यः स्यात् अरिभावो न चेत्तयोः ॥
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मुहूर्तराज ]
[ २७ अर्थ - वर - वधु के जन्मनक्षत्रों की समान योनियाँ सम्पत्ति के लिए तथा उन दोनों के सदा मैत्रीभाव के लिए है। यदि योनियाँ भिन्न हो तो फल मध्यम है, पर योनियों में परस्पर वैर भाव शुभ नहीं होता। और भी - (अत्रि)
योनेरभावे नोद्वाहः कार्यः सतु वियोगदः । राशिवश्यं च यद्यस्ति कारयेनतु दोषभाक् ॥
अर्थ - योनि न मिलने पर विवाह नहीं करना चाहिए क्योंकि वह विवाह दम्पत्ति के लिए बिछोह कारक होता है। पर यदि राशि वश्यता हो तो दोष नहीं है। योनिकूट में गुणविभाग - दैवज्ञ मनोहर की दृष्टि में -
अष्टाविंशतिताराणां योनयः स्युश्चतुर्दश । मैत्रं चैवातिमैत्रं च विवाहे नरयोषितोः ॥ महवैरे च वैरे च स्वाभावे च यथा क्रमम् । मैत्रे चैवातिमैत्रे च खेन्दुद्वित्रिचतुर्गुणाः ॥ .
अर्थ - अट्ठाईस नक्षत्रों की १४ योनियाँ हैं, इनमें पाँच प्रकार से मित्रता एवं वैर हैं यथा - महावैर, वैर, स्वाभाविक वैर, मित्रता और अतिमित्रता। महावैर हो तो गुण • शून्य, वैर में गुण १ स्वाभाविक वैर में गुण दो, मित्रता में गुण ३ और अतिमित्रता में गुण ४ होते हैं। ५. ग्रहमैत्री - (मु.चि.वि.प्र. श्लोक २७, २८ वां) -
मित्राणि धुमणेः कुजेज्यशशिनः शक्रार्कजौ वैरिणौ , सौम्यश्चास्य समो, विदोर्बुधरवी मित्रे न चास्य द्विषद् । शेषाश्चास्य समाः कुजस्य सुहृदश्चन्द्रेज्य सूर्याः बुधः , शत्रुः शुक्रशनी समौ च शशभृत्सूनोः सिताहस्करौ ॥ मित्रे चास्य रिपुः शशी गुरुशनिक्ष्माजाः समा गीष्यते: , मित्राण्यर्ककुजेन्दवो बुधसितौ शत्रू समः सूर्यजः । मित्रे सौभ्यशनी कवेः शशिरवी शत्रू कुजेज्यौ समौ , मित्रे शुक्रबुधौ शनेः शशिरविक्ष्माजाः द्विषोऽन्यः समः ॥
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२८]
[ मुहूर्तराज
ग्रहमैत्री बोधक सारणी
ग्रह → मित्रादि
मंगल
गुरु ,
शुक्र
शनि
राहू
و
शु. | सू.
मित्र
هو
सम
शु. श.
اهي
चं.
च.
|
ग्रहमैत्री में गुणविभाग - दैवज्ञ मनोहर के मत में -
ग्रहमैत्रम् सप्तविधं, गुणाः पञ्च प्रकीर्तिताः । तत्रैकाधिपतित्वे च मित्रत्वे गुण पंचकम् । चत्वारः सममित्रत्वे द्वयोः साम्ये त्रयो गुणाः। मित्रवैरे गुणश्चैकः समवैरे गुणार्धकम् ॥
परस्परं खेटवैरे गुणशून्यं विनिर्दिशेत् । अर्थ - ग्रहमैत्री सात प्रकार की है - यथा -
१. एकाधिपतित्व मैत्री, २. परस्पर मैत्री, ३. सममैत्री, ४. समसमता, ५. मित्र वैर, ६. समवैर, ७. परस्पर वैर। एकाधिपतित्व तथा परस्पर मैत्री हो तो ५ गुण, ग्रह परस्पर सम और मित्र हों तो ४. गुण, दोनों ही ग्रह परस्पर सम हों तो ३ गुण, परस्पर मित्र और वैरी हों तो १ गुण परस्पर सम और वैरी हों तो - आधा गुण, तथा दोनों ही ग्रह परस्पर वैरी हों तो गुण ० शून्य समझना चाहिए।
१
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मुहूर्तराज ]
ग्रहमैत्री प्रकार एवं गुण बोधक सारणी -
र वर
सूर्य
मंगल |
बुध
।
गुरु
शुक्र
शनि
I ग्रहा
सूर्य
चन्द्र
| एकाधिपतित्व | परस्पर मैत्री | परस्पर मैत्री | मित्र समता | परस्पर मैत्री | परस्पर वैर | परस्पर वैर
५ गुण । ५ गुण | ५ गुण | ४ गुण ५ गुण | ० गुण ० गुण | परस्पर मैत्री | एकाधिपत्व | सम मित्रता | मित्रता वैर | सम मित्रता | समशत्रुता सम शत्रुता ५ गुण । ५ गुण | ४ गुण
१ गुण
४ गुण ॥ गुण | ॥ गुण परस्पर मैत्री | सम मित्रता | एकाधिपतित्व | समशत्रुता परस्पर मैत्री | सम समता | सम शत्रुता ५ गुण | ४ गुण | ५ गुण | ॥ गुण । | ५ गुण | ३ गुण
॥ गुण | मित्र समता | मित्र शत्रुता | समशत्रुता । एकाधिपतित्व सम शत्रुता | परस्पर मैत्री | सम मित्रता
४ गुण । १ गुण | ॥ गुण । ५ गुण | ॥ गुण । ५ गुण ४ गुण
मंगल
| परस्पर मैत्री | मित्र समता | परस्पर मैत्री | सम शत्रुता | एकाधिपतित्व | सम शत्रुता | सम समता
५ गुण । ४ गुण । ५ गुण | १/२ गुण | ५ गुण ॥ गुण ३ गुण परस्पर वैर | सम शत्रुता | सम समता | परस्पर मैत्री | सम शत्रुता | एकाधिपतित्व | परस्पर मैत्री
० गुण । ॥ गुण ३ गुण | ५ गुण ॥ गुण | ५ गुण ५ गुण | परस्पर वैर | सम शत्रुता | सम शत्रुता | समता मैत्री | सम समता | परस्पर मैत्री | एकाधिपतित्व
० गुण । ॥ गुण । ॥ गुण | ४ गुण | ३ गुण | ५ गुण । ५ गुण
शनि
६. गणकूट - (मु.चि.वि.प्र. श्लोक २९ वाँ)
रक्षोनरामरगणा क्रमतो मघाहिवस्विन्द्रमूलवरुणानलतक्षराधाः ।
पूर्वोत्तरात्रयविधात्यमेशभानि, मैत्रादितीन्दुहरिपौष्णमरुल्लघूनि ॥ अन्वय - क्रमतः मघाहिवस्विन्द्रमूलवरुणानलतक्षराधाः, पूर्वोत्तरात्रयविधातृयमेशभानि, मैत्रा दितीन्दुहरिपौष्णम रुल्लधूमि रक्षोनरामरगणाः (कथ्यन्ते)।
अर्थ - नक्षत्रों के गण ३ होते हैं - राक्षस मनुष्य और देव। ये इस प्रकार से हैं। मघा, आश्लेषा, धनिष्ठा- ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा, कृत्तिका, चित्रा और विशाखा इन नक्षत्रों का गण राक्षस है। तीनों पूर्वा (पू.फा.पू.षा. और पू.भा.) और तीनों उत्तरा (उ.फा., उ.षा., उ.भा.) रोहिणी, भरणी और आर्द्रा ये नक्षत्र नरगणी हैं तथा अनुराधा, पुनर्वसु, मृगशिरा, श्रवण, रेवती, स्वाती और लघुसंज्ञक नक्षत्र (अश्विनी हस्त
और पुष्य) ये नक्षत्र देवगणी हैं। गणफल - कश्यप मत से -
स्वगणे चोत्तमा प्रीतिर्मध्यमामरमर्त्ययोः । मर्त्यराक्षसयोर्वैरम् असुरामरयोरपि ॥
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३० ]
अर्थ
वर
से प्रीति मध्यम और नर
-
[ मुहूर्तराज
`वधू का नक्षत्रगण समान (एक) होने पर दोनों में परम प्रीति, देव तथा नर गण होने राक्षस अथवा राक्षस देव हो तो वैर होता है।
-
कश्यप मत में कुछ विशेष (पीयूषधारा वि.प्र. श्लो. ३०)
“पुरुषो रक्षोगणः स्त्री मनुष्यगणा तदा वैरम् यदि वैपरीत्यं तदा मृत्युः । तथा पुरुषो रक्षोगणः स्त्री देवगणा तदा वैरम् वैपरीत्ये मृतिः । उक्तं च राक्षसी यदि वा नारी नरो भवति मानुषः मृत्युस्तत्र न संदेहो विपरीतः शुभावहः” । शाङ्खयेऽपि - रक्षोगणः पुमान स्याच्येत् कन्या भवति मानवी । केऽपीच्छन्ति तदोद्वाहं व्यस्तं कोऽपीही नेच्छति। इति एतत्तुल्यन्यायत्वात् देवराक्षसयोरपि द्रष्टव्यम् ।
अर्थात् - पुरुष यदि राक्षसगणी हो और स्त्री मनुष्यगणी हो तो वैर और यदि विपरीतता हो अर्थात् पुरुष मनुष्यगण एवं स्त्री राक्षसगणी हो मृत्यु । तथैव पुरुष राक्षसगण हो और स्त्री देवगण हो तो वैर और विपरीतता हो तो मृत्यु निस्सन्देह है। जैसा कि कहा गया है - यदि नारी राक्षसी हो और नर मनुष्यगण हो तो निस्सन्देह मृत्यु होती है और विपरीत हो तो शुभ है अर्थात् यदि नारी मनुष्यगणी हो और नर राक्षसगण हो तो ठीक है।
गणकूट गुण विभाग
-
-
अन्वय गणसादृश्ये (वरवध्वोरेकगणे सति ) षड् गुणाः, सुरमानुषे (नरे सुरगणे नार्यां मनुष्यगणायां) पञ्च ( गुणाः) स्युः । नार्या ( गणः ) देवः पुं सः ( पुरुषस्य गणः ) नरः ( तदा) चत्वारः त्रयो वा गुणाः । देव राक्षसयोः (नरः देवगणः नारी राक्षसगणा तदा) गुणशून्यं तथैव नररक्षसोः (पुरुषः नरगणः नारी च रक्षोगणा भवेत्) गुणशून्यम् ज्ञेयम् पुंसः (वरस्य) रक्षोगणः नारी च रक्षोगणा नार्याः (वध्वाः) देवगणः अथवा नरगणः तदा क्रमतः द्वौ एकः वा गुणः, अर्थात् वरस्य रक्षोगणे नार्या च देवगणे सति द्वौ गुणौ वरस्य च रक्षोगणे नार्याश्च नरगणे सति एकः गुणः भवति । वैपरीत्ये तु गुणः शून्यमेव ।
अर्थ
वर
वधू के नक्षत्र गणों के एक ही होने पर ६ गुण, जानने चाहिएँ वर का देवगण हो और वधू का मानवगण हो तो ५ गुण होते हैं। नारी का देवगण और नर का मानवगण होने पर ४ गुण अथवा ३ गुण माने गये हैं । वर का देवगण और वधू का राक्षस गण हो तो गुण शून्य है। इसी प्रकार वर के नरगण और नारी के राक्षसगण के होने से भी गुण शून्य ही होता है ।
(दै. मनो.)
षड्गुणा गणसादृश्ये पञ्च स्युः सुरमानुषे । नार्या देवो नरः पुंसः चत्वारो वा गुणास्त्रयः देवराक्षसयोः शून्यं, तथैव नररक्षसोः । पुंसो रक्षोगणो यत्र नार्या देवोऽथवा नरः I गुणौ द्वौ क्रमतश्चैको गुणो ग्राह्योऽन्यथा नहि ॥
-
यदि पुरुष राक्षसगण और स्त्री देवगणा हो तो दो गुण और वर राक्षसगण तथा वधू नरगणा हो तो एक ही गुण होता है। इससे यदि विपरीत हो तो गुणशून्य है ।
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मुहूर्तराज ]
गणापवाद
गर्गमत में - (पीयूषधारा टीका वि.प्र. श्लोक ३० वाँ)
ग्रहमैत्री च राशिश्च विद्यते नियतं यदि । न गाभावजनितं दूषणं स्याद् विरोधदम् ॥
-
अर्थ - यदि वर वधू की राशि के स्वामी ग्रहों की पारस्परिक मैत्री हो अथवा दोनों के राशि स्वामी एक ही हों और यदि राशिकूट भी श्रेष्ठ हो अर्थात् मिल जाए तो गण के विपरीत होने पर जो दोष होता है वह दोष विरोधकारी नहीं है । सारांश यह कि ग्रहमैत्री और राशिकूट मिल जाने पर गणकूट देखने आवश्यकता नहीं रहती ।
७. राशिकूट - (मु.चि. वि.प्र. श्लो. ३१ वाँ)
मृत्युः षष्ठाष्टके ज्ञेयोऽपत्यहानिर्नवात्मजे । द्विर्द्धादशे निर्धनत्वं द्वयोरन्यत्र सौख्यकृत् ॥
अन्वय - द्वयोः (स्त्रीपुंसराश्योः) परस्परं षष्ठाष्टके (षष्ठाष्टमराशित्वे सति) मृत्युः ज्ञेयः । (यथा मेषकन्ययोः मेष वृश्चिकयोः) अथ नवात्मजे (वर वधू राश्योः नवमपञ्चमत्वे सति) अपत्यहानिः (भवति) । (यथा सिंह धनुषोः) तथा द्विर्द्वादशे (सति) निर्धनत्वम् ( दरिद्रता ) अन्यत्र (तृतीयैकादशत्वे, चतुर्थदशमत्वे, सप्तसप्तमत्वे वा) सौख्यकृत् (पाणिपीडनम् इति शेषः )
अर्थ - स्त्री - पुरुष की राशियों में परस्पर षष्ठाष्टक हो अर्थात् पुरुष की राशि स्त्री की राशि से छठी अथवा आठवीं हो अथवा स्त्री की राशि से पुरुष की राशि छठी या आठवीं हो तो मृत्युकारक है जैसे मेष और कन्या अथवा मेष और वृश्चिक । इसी प्रकार वर वधू की राशियाँ परस्पर नवीं पांचवीं हो तो उनके सन्तान का नाश होता है। और यदि दोनों की राशियों में द्विर्द्वादश भाव हो अर्थात् दोनों की राशियाँ परस्पर दूसरी या बारहवीं हो तो दरिद्रता होती है। इसके अतिरिक्त यदि दोनों की राशियाँ परस्पर तीसरी, ग्यारहवीं, चौथी, दसवीं और सातवीं सातवीं हो तो विवाह सुखकारी होता है।
वैरषष्टकाष्टक - नारद मत में -
[ ३१
वैरषट्काष्टकं मेषकन्ययोः घटमीनयोः । चापोक्षयोर्नृयुक्कीटभयोः कुंभकुलीरयोः ॥ पंचास्यमृगयोर्जन्म प्रोक्तोऽ शुभप्रदः ॥
अर्थ - मेष और कन्या राशियों का, तुला और मीन राशियों का, धनु और वृष राशियों का मिथुन और वृश्चिक राशियों का, कुंभ और कर्क राशियों का, सिंह और मकर राशियों का षट्काष्टक वैर षष्टाष्टक कहा गया है। यह अशुभफलदायी है।
मित्रषट्काष्टकं के विषय में - जगन्मोहन
मित्रषट्काष्टकं
कीटमेषयोर्वृषजूकयोः । कर्किचापभयोर्मीनसिंहयोर्मृगयुग्मयोः ॥ कन्यकाकुंभयोरन्यत् प्रत्यत्नाद्विविवर्जयेत् ।
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३२ ]
[ मुहूर्तराज अन्वय - कीटमेषयोः वृषजूकयोः, कर्किचापभयोः, मीनसिंहयोः, मृगयुग्मयोः, कन्यकाकुंभयोः (षट्काष्टकं) मित्रषट्काष्टकम् (ज्ञेयम्) अन्यत् (एतद्राश्यतिरिक्तश्योः षटकाष्टकम्) प्रयत्नाद् विवर्जयेत्।
अन्वय - मेष और वृश्चिक का, वृष और तुला का, कर्क और धनु का, मीन और सिंह का, मकर और मिथुन का, कन्या और कुंभ का षटकाष्टक मित्र षटकाष्टक कहा जाता है, यह शुभ है। अन्य प्रकार से यदि षट्काष्टक हो तो उसे अवश्य ही त्यागना चाहिए। राशिकूट के विषय में विशेष - ज्योति प्रकाश में -
पुंसो गृहात् सुतगृहे सुतहा च कन्या, धर्मे स्थिता धनवती पतिवल्लभा च । . द्विादशे धनगृहे धनहा च कन्या, रिःफे स्थिता धनवती पतिवल्लभा च ॥
अन्वय - नवपंचमें पुंसः (पुरुषस्य) गृहात् (राशेः) सुतगृहे (यदि स्त्रियाः राशिः पञ्चमः भवेत् तदा) (वधूः) सुतहा (पुत्रनाशकी) स्यात्, धर्मे स्थिता (यदि पुरुषराशेः कन्यायाः राशिः नवमः स्यात्तदा) धनवती पतिवल्लभा च स्यात्। एवं द्विद्वदिशे पुंसः राशेः स्त्रीराशिः द्वितीय स्तर्हि सा स्त्री धनहा अथ पुंसः राशेः स्त्रियाः राशिः द्वादशस्तदा सा स्त्री धनवती पतिवल्लभा च भवेत्।
अर्थ - नवपंचक में यदि वर की राशि से वधू की राशि पाँचवीं हो तो वह वधू पुत्रनाशकारिणी होती है और वर की राशि से वधू की राशि नवीं हो तो वह स्त्री धनवती और पति को प्रिय लगती है। द्विादश में यदि पुरुष की राशि से स्त्री की राशि दूसरी हो तो वह स्त्री धननाश करती है और यदि वर की राशि से वधू की राशि बारहवीं हो तो वह वधू धनवती तथा पति को प्यारी लगने वाली होती है।
नवपंचक के विषय में - शार्ङ्गधरीय में शुक्तमत -
मीनालिभ्यां युते कीटे, कुंभे मिथुन संयुते ।
मकरे कन्यकाक्ते न कुर्यान्नवपञ्चमे ॥ अन्वय - मीनालिभ्यां युते कीट, मिथुनसंयुते कुंभे, कन्यकायुक्ते च मकरे, एतादृशे नवपंचमे (विवाह) न कुर्यात्।
अर्थ - मीन और कर्क के, वृश्चिक और कर्क के, मिथुन और कुंभ के कन्या और मकर के नव पंचम में विवाह नहीं करना चाहिए। द्विादशं - जगन्मोहन में और कश्यप के मत -
द्विादशं शुभं प्रोक्तं मीनादौ युग्मराशिषु । मेषादौ युग्मराशौ तु निर्धनत्वं न संशयः ॥
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मुहूर्तराज ]
[३३ मीनादि युग्मराशियों के द्विादश का शुभफल--
आयुष्यसम्पत् सुतभोगसम्पत् पुत्रार्थसम्पत् पतिसौख्यसम्पत् ।
सौभाग्यसम्पत् धनधान्यसम्पत् झषादियुग्मे क्रमतः फलानि ॥ मेषादियुग्मराशियों के द्विादश का अशुभफल
अजादियुग्मे क्रमतः फलानि वैधव्यमृत्युर्वधबन्धनानि ।
वियोग सन्तापमतीवदुःखं वसिष्ठगर्गप्रमुखैः स्मृतानि ॥ द्विादश में शुभाशुभयुग्म तथा उनके फल को जानने के लिए उपर्युक्त तीनों श्लोकों का आशय निम्न सारणी में देखिए
-द्विादश शुभाशुभ युग्म एवं तत्फल ज्ञापक सारणी
फल
| क्र.सं. द्विादश के शुभ युग्म →
मीन – मेष वृष – मिथुन कर्क - सिंह कन्या - तुला वृश्चिक – धनु मकर - कुंभ
आयुष्यकारक सुत सुख कारक पुत्र एवं सुख कारक पति सुखकारक सौभाग्य कारक धन्य धान्य कारक
फल |– द्विादश के अशुभ युग्म | वैधव्यदायी मेष - वृष (१) मृत्युदायी मिथुन - कर्क (२) वधकारक सिंह - कन्या (३) बन्धनदायी तुला - वृश्चिक (४) वियोगज दु:ख धन - मकर (५) अत्यन्त दुःख कुंभ - मीन (६)
PER
विषय - भोग विषय - भोग कर्मबन्ध के हेतु और विविध यातनाओं की प्राप्ति कराने के कारण हैं। विषयार्थी प्राणी प्रतिदिन मेरी माता, पिता, पुत्र, प्रपौत्र, भाई, मित्र, स्वजन, सम्बन्धी, जायदाद, वस्त्रालंकार और खान-पान आदि सांसारिक सामग्री की खोज में ही अपना अमूल्य जीवन यों ही बिताते रहते हैं और सब को छोड़ कर केवल पाप का बोझा उठाते हुए मरण के शिकार बन जाते हैं, पर अपना कल्याण कुछ नहीं कर सकते ।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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[ मुहूर्तराज
३४ ] भकूट के गुणःभकूट (राशिकूट) मिलने पर (शुभ होने पर) गुण ७ होते हैं
- शुभाशुभ भकूट कोष्ठक -
शुभनवपंचम
प्रीतिषडष्टक
मृत्युषडष्टक
अशुभ नवपंचम कर्क ४ - वृश्चिक ८
मेष १ - वृश्चिक ८ सिंह ५ - मीन १२
मेष १ - कन्या ६ तुला ७ - मीन १२
कन्या ६ - मकर १०
मेष १ – सिंह ५ वृष २ - कन्या ६ मिथुन ३ - तुला ७ सिंह ५ - धन ९ तुला ७ - कुंभ ११ । वृश्चिक ८ - मीन १२ | धन ९ - मेष ९
कुंभ ११ - मिथुन १३ मीन १२ - कर्क ४
तुला ७ - वृष ७ कुंभ ११ - कन्या ६ मिथुन ३ - मकर १०
मिथुन ३ - वृश्चिक ८ मकर १० - सिंह ५ कुंभ ११ - कर्क ४
मकर १० - वृष २
धन ९
- कर्क ४
धनु ९
- वृष २
सकलकूटों में प्रधान नाडीकूट (मु. चि. वि. प्र. श्लो. ३४ वाँ)
ज्येष्ठार्यम्णेशनीराधिपभयुगयुगं दास्त्रभं चैकनाडी , पुष्येन्दुत्वाष्ट्रमित्रान्तकवसुजलभं योनिबुध्ये च मध्या । वाय्वग्निव्यालविश्वोडुयुगयुगमथो पौष्णभं चापरा स्यात् ,
दम्पत्योरेकनाडयां परिणयनमसन् मध्यानाड्यां हि मृत्युः ॥ अन्वय - ज्येष्ठार्यम्णेशनीराधिपमयुगयुगं (ज्येष्ठामूले, उत्तराफाल्गुनीहस्तौ, आर्द्रापुनर्वसू, शततारकापूर्वाभाद्रपदे एतानि नक्षत्र युग्मानी) तथा दास्त्रभम् (अश्विनी नक्षत्रम्) एतेषां नक्षत्राणाम् एक नाड़ी (आद्यनाड़ी) पुष्पेन्दु त्वाष्ट्रमित्रान्तकवसुजलभम् योनिबुध्ये एतेषां नक्षत्राणां मध्यनाडी तथा च वाय्वग्निव्यालविश्वोडु युगयुगम (स्वाती विशाखे, कृत्तिकारोहिण्यौ, आश्लेषा मघे उत्तराषाढ़ा श्रवणौ एतन्नक्षत्रयुग्मचतुष्कं) पौष्णभम् (रेवती) एतेषां नक्षत्राणां नाडी अपरा अन्त्या वा भवति। दम्पत्योः (स्त्री पुंसो:) आद्यनाडयां परिणयनम् असत् (अशुभ फलदम्) मध्यनाडयां हि मृत्युः (द्वयोरपि निश्चयेन मृत्युः)
अर्थ - ज्येष्ठा, मूल, उत्तरा फा., हस्त, आर्द्रा, पुनर्वसु, शतभिषा, पूर्वाभाद और अश्विनी इन नक्षत्रों की एक (आद्य) नाडी है। पुष्य, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, भरणी, धनिष्ठा, पूर्वाषाढा, पू.फा., उत्तराभाद्रपद ये नौ नक्षत्र मध्यनाडीय हैं। स्वाती, कृत्तिका, आश्लेषा, उत्तराषाढा, विशाखा, रोहिणी, मघा, श्रवण और रेवती इन नक्षत्रों की नाडी अन्त्य है। दम्पती की आद्यनाडी समानता में परिणयन अशुभ, मध्यनाड़ीसाम्य में परिणयन मृत्युकारक होता है।
.
म
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मुहूर्तराज ]
[३५
-नाडी बोधक सारणी
नाडी नाम
नक्षत्र नाम एक (आद्य नाडी) अश्विनी आद्रा
उ.फा. हस्त ज्येष्ठा | मूल | शतभिषा पू.भा. मध्य नाड़ी भरणी । मृगशिरा पुष्य पू.फा. चित्रा | अनुराधा
धनिष्ठा उ.भा. अपर (अन्त्य) नाड़ी | कृतिका | रोहिणी | आश्लेषा| मघा | स्वाती विशाखा | उ.षा.| श्रवण | रेवती
नाडीफल-वराहमत से
आद्यैकनाडी कुरुते वियोगम्,
मध्याख्यनाड्यामुभयोर्विनाशः। अन्त्या च वैधव्यमतीवदुःखम्,
तस्माच्च तिस्त्रः परिवर्जनीयाः॥
अर्थ - वर-वधू दोनों के नक्षत्र यदि आद्यनाडीय हों तो उन्हें वियोग सन्ताप रहता है। दोनों के नक्षत्र यदि मध्यनाडी के हों तो दोनों का विनाश करते हैं और अन्तिम नाडी के नक्षत्रों के होने पर वैधव्य दु:ख भोगना पड़ता है। अत: वर-वधू के नक्षत्रों की नाडी समानता वर्ण्य है। अर्थात् वर-वधू के जन्म नक्षत्रों की नाडी एक (समान) नहीं होनी चाहिए भिन्न २ नाडी ही शुभदा होती है। नाडी कूट के गुण ८ हैं, जो कि दम्पत्ति की विभिन्न नाडी होने पर ही माने गये हैं। प्राचीनाचार्य सम्मत वर्गकूट- (मु. चि. वि. प्र. श्लो. ३६ वाँ)
अकचटतपयशवर्गाः खगेशमार्जारसिंहशुनाम् ।
साखमगावीनां निजपञ्चमवैरिणामष्टौ ॥ अन्वय - निजपञ्चमवैरिणाम् खगेशमार्जारसिंह शुनाम्, सखुमृगावीनाम् अकचटतपयशवर्गाः (अवर्ग-कवर्ग-चवर्ग-टवर्ग-तवर्ग-पवर्ग-यवर्ग-शवर्गतिसंज्ञकाः) अष्टौ भवन्ति ।
अर्थ - अवर्ग (समस्तस्वर) कवर्ग ( क ख ग घ ङ) चवर्ग (च छ ज झ ञ) टवर्ग (ट ठ ड ढ ण) तवर्ग (त थ द ध न) पवर्ग (प फ ब भ म) यवर्ग (य र ल व) शवर्ग (श ष स ह) इन समस्त अक्षरों को आठ वर्गों में बांटा गया है । इन वर्गों के स्वामी क्रमशः गरुड़, बिलाव, सिंह, कुत्ता, सर्प, चूहा, मृग, भेड़ ये हैं जो कि अपने से पाँचवे के शत्रु हैं । यथा - गरुड़-सर्प, मार्जार-मूषक, सिंह-मृग, श्वान-भेड़, सर्प-गरुड़, ये परस्पर वैरी हैं। यदि स्त्री-पुरुष के जन्म-नक्षत्र भक्ष्य और भक्षक वर्ग के हों तो शुभ नहीं हैं। यदि समान वर्ग अथवा शत्रु भिन्न वर्ग दम्पत्ति के जन्म-नक्षत्रों के हों तो शुभकारक हैं। यह वर्गकूट प्राचीन विद्वानों के मत से मान्यता प्राप्त हैं। यह वर्गकूट स्वामी सेवक संबंध में भी विचारणीय है।
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३६]
[ मुहूर्तराज ॥ अवर्गादि एवं शत्रुवर्ग तथा उदासीन वर्ग एवं फल बोधक सारणी ॥
क्र.सं.
वर्गाक्षर
वर्ग नाम | शत्रवर्ग
फल
उदासीन वर्ग
फल
सर्प
or
गरूड़ माजरि
शुभ शुभ
n
मूषक
सिंह
m
मृग
मेष
x
अ - अ: तक स्वर क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ब ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह
श्वान सर्प
अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ अशुभ
अन्य सात अन्य सात अन्य सात अन्य सात अन्य सात अन्य सात अन्य सात अन्य सात
शुभ शुभ
5
गरूड़ माजरि
w
मूषक
शुभ
सिंह
2
शुभ
v
मेष
श्वान
A
नक्षत्रों की स्त्रीपुरुषादि संज्ञाएँ – नारचन्द्रे
दशााद्याः स्त्रियः तारा विशाखात्रिनपुंसकाः ।
मूलाधा दश माश्च भरणीवेदतापसाः ॥ इस श्लोक का अर्थ सारणी में समझिए
__-स्त्री-पुरुषादि संज्ञक नक्षत्र बोधक सारणी
नक्षत्र नाम
संज्ञाएँ स्त्री संज्ञक १०
नपुंसक संज्ञक ३
आर्दा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती
विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा शतभिषा, पू. भाद्र, उत्तरा भाद्र, रेवती, अश्विनी
भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा
पुरुष संज्ञक १०
तापस संज्ञक ४
॥इति नक्षत्र-विचारः॥
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[३७
मुहूर्तराज ]
॥ अथ योग विचारः ॥ विष्कुंभादि दिनयोग नाम - (आ. सि.) संख्या २७
विष्कुंभः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यः शोभनस्तथा । अतिगंडः सुकर्मा च धृतिः शूलं तथैव च ॥ गंडो वृद्धिधुवश्चैव व्याघातो हर्षणस्तथा । वज्रः सिद्धिर्व्यतीपातो वरीयान् परिधः शिवः ॥
सिद्धः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मा चैन्द्रो च वैधृतिः । अर्थ :- दिनयोग २७ हैं यथा - विष्कुंभ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य शोभन, अतिगंड, सुकर्मा, धृति, शूल, वज्र, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान्, परिध, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्मा, ऐन्द्र, और वैधृति। विष्कुंभादियोगों की त्याज्य घटिकाएँ - वशिष्ठ मत से
सवैधृतो हि व्यतिपातयोगः, सर्वोऽप्यनिष्टः परिधार्धभाद्यम् । ___ अर्थ :- वैधृत सहित व्यतिपात अर्थात् ये दोनों योग पूर्णत: अशुभ हैं और परिधयोग का पूर्वार्ध अशुभ है। कश्यप मत से -
"विष्कुंभवज्रयोस्तिस्त्रः षट् च गंडातिगंडयोः ।
व्याघाते नव शूले तु पंच नाड्यस्तु गर्हिताः ॥ अन्वय :- विष्कुंभवज्रयोः तिस्त्रः (नाडय:) गंडातिगंडयोः च षड् (नाड्य:) व्याघाते नव (नाड्यः) शूले तु पंच नाड्यः गर्हिताः (निन्दिताः)
अर्थ :- विष्कुंभ एवं वज्र की आद्य तीन घड़ियाँ, गंड एवं अतिगंड की आदि की छः घड़ियाँ, व्याघात की आदि की नौ घड़ियाँ शूल की आदि की पांच घड़ियाँ निन्दित हैं, अतः इन्हें शुभ कार्य में छोड़ना चाहिये। आन्दादिसंज्ञक २८ योग - (मु.चि.शु.प्र. श्लो. २३, २४ वें)
आनन्दाख्यः कालदण्डश्चे धूम्रो, धातासौभ्यो ध्वांक्षकेतू क्रमेण । श्रीवत्साख्यो वज्रकं मुद्गरश्च, छत्रं मित्रं मानसं पद्यलुम्बौ ॥ उत्पामृत्यु किल काणसिद्धि शुभोऽमृताख्यो मुसलो गदश्च । मातङ्गरक्षश्चसुस्थिराख्यप्रवर्धमानाः फलदाः स्वनाम्मा ॥
अथ आनन्दादि योगबोधक सारणी | ७ केतु
१९ सिद्धि २५ रक्ष २० शुभ
२६ चर १५ लुम्बक
२७ सुस्थिर १० मुदगर १६ उत्पात
२२ मुसल ११ छत्र
१७ मृत्यु १२ मित्र
२४ मातंग
.
आनन्द कालदण्ड
१३ मानस १४ पद्म
८ श्रीवत्स ९ वज्रक
२१ अमृत
धाता
२८ प्रवर्धमान
सौम्य ध्वांक्ष
२३ गद
१८ काण
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| पू.भा.
पुष्य
सौम्य
३८ ]
[ मुहूर्तराज ये योग स्वनाम के अनुसार ही फलदायी होते हैं। आनन्दादियोगज्ञानोपाय (मु. चि. शुभाशु. प्र. श्लोक २५ वाँ)
दास्त्रादर्के मृगादिन्दौ, सार्पाद् भौमे, कराद् बुधे ।
मैत्राद् गुरौ, भृगौ वैश्वात्, गण्या मन्दे च वारुणात् ॥ अर्थ - रवि को अश्विनी से, सोम को मृगशिरा से, मंगल को आश्लेषा से, बुध को हस्त से, गुरु को अनुराधा से, शुक्र को उत्तराषाढा से और शनि को शतभिषा से दिन नक्षत्र तक अभिजित् सहित गणना करने पर दिननक्षत्र जितने क्रमांक का हो, उसी क्रमांक का आनन्दादि योग उस दिन होगा।
अथ वार निर्धारित नक्षत्र से दिन नक्षत्र गणनानुसार आनन्दादि योग ज्ञापक सारणी | क्र.सं. आनंददियोग | रविवार | सोमवार | मंगलवार | बुधवार | गुरुवार | शुक्रवार | शनिवार आनन्द अश्विनी मृगशिरा आश्लेषा
अनुराधा उत्तराषाढ़ा शतभिषा कालदण्ड भरणी आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा
अभिजित् कृतिका पुनर्वसु पू.फा. स्वाती
श्रवण | उ.भा. धाता रोहिणी
उ.फा. विशाखा पूर्वषाढ़ा धनिष्ठा रेवती मृग
आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढ़ा शतभिषा | अश्विनी ध्वांक्ष आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा
अभिजित्
पू.भा. भरणी केतु पुन पू.फा. स्वाती
श्रवण उ.भा. कृतिका श्रीवत्स विशाखा पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा
रोहिणी वज्रक आश्लेषा
अनुराधा उत्तराषाढ़ा शतभिषा अश्विनी मृग मुद्गर मघा
अभिजित्
भरणी | आर्द्रा छत्र
स्वाती
श्रवण उ.भा. कृतिका पुनर्वसु मित्र उ.फा. विशाखा पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा
रोहिणी पुष्य मानस हस्त अनुराधा उत्तराषाढ़ा शतभिषा अश्विनी
आश्लेषा पद्य चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पू.भा. भरणी
आर्द्रा
मघा लुम्बक स्वाती मूल श्रवण उ.भा.
कृतिका
पुनर्वसु पू.फा. उत्पात विशाखा
धनिष्ठा रेवती रोहिणी पुष्य उ.फा. मृत्यु अनुराधा उ.षा. शतभिषा अश्विनी
आश्लेषा हस्त काण ज्येष्ठा अभिजित् भरणी आर्द्रा
चित्रा मूल
श्रवण उ.भा. कृतिका पुनर्वसु पू.फा. स्वाती शुभ धनिष्ठा रेवती रोहिणी
उ.फा. विशाखा अमृत शतभिषा अश्विनी
आश्लेषा
अनुराधा मुसल अभिजित् पू.भा. भरणी
मघा
ज्येष्ठा गद श्रवण उ.भा. कृतिका पुनर्वसु पू.फा.
स्वाती मातंग धनिष्ठा रोहिणी
उ.फा. विशाखा पूर्वाषाढ़ा शतभिषा अश्विनी मृग. आश्लेषा हस्त
अनुराधा उत्तराषाढ़ा चर पू.भा. भरणी
मघा
ज्येष्ठा अभिजित् सुस्थिर उ.भा.
कृतिका पुनर्वसु पू.फा. स्वाती
श्रवण प्रवर्धमान रेवती रोहिणी पुष्य
विशाखा पूर्वाषाढ़ा धनिष्ठा
पुष्य
उ.फा.
रेवती
चित्रा
ज्येष्ठा
| पू.भा.
पू.फा.
रेवती
मग
पू.षा.
मृग.
पू.भा.
मघा
सिद्धि
पुष्य
पू.षा. उ.षा.
मृग.
आर्द्रा
चित्रा
मूल
रेवती
पुष्य
आर्द्रा
चित्रा
मूल
उ.फा.
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[३९
मुहूर्तराज ] आनन्दादियोगों की वर्त्य घटिकाएँ (घड़ियाँ) (मु.चि. शु. प्र. श्लो. २६ वाँ)
ध्वाक्षे वज्रे मुद्गरे चेषुनाड्यो वा वेदाः पद्यतुंबेगदेऽश्वाः ।
धूमे काणे मौसले भूद्वयं द्वे रक्षोमृत्यूत्पाकालाश्च सर्वे ॥ अन्वय - ध्वांक्षे वज्रे मुद्गरे च (योगे सति तद्योगस्याद्याः) इषुनाडचो वाः, पद्मटुंबे (एतयोर्योगयोः) वेदाः (चतस्रः) नाड्यः, धूमे भूः आद्यैका नाडी, काणे (आद्यं) द्वयम् (घटीद्वयम्) मौसले द्वे (द्वे नाड्यौ) (वाः करणीयाः) रक्षोमृत्युत्पातकालाश्च (एते योगा:) सर्वेऽपि (यावद्घटिकाः) त्याज्याः। विशेष:- अत्र श्लोके अनुक्तेऽपि चरयोगे घटिकात्रयम् वय॑म् उक्तं च ज्योतिस्सार सागरे
ध्वांक्षेन्द्रायुधमुद्गरेषु घटिकास्त्याज्यास्तु पंचादितः , पद्यालुंबकयोश्चतस्र उदिता धूने सदैका पुनः । द्वे काणे मुसलाह्वयेऽपिच गदे, सप्तैव तिस्रश्चरे , मृत्यूत्पातकरक्षसां दिनगतास्ताः कालदण्डे तथा ॥
अत्र दिनशब्दः अहोरात्रसूचकः । अर्थ - ध्वांक्ष, वज्र एवं मुद्गर योग की आदि की ५-५ घड़ियाँ पद्म और लुम्बक की आदि की ४ घड़ियाँ, गद योग की आदि की सात घड़ियाँ, धूम्रयोग की एक घड़ी, काण और मुसल की दो-दो घड़ियाँ शुभ कृत्यों में वर्जनीय हैं। किन्तु रक्ष, मृत्यु, उत्पात्त और कालदण्ड ये चार योग तो पूरे के पूरे (जितनी घड़ियों के हों, उतने) त्याज्य ही हैं।
यहाँ कुछ विशेष बात कही जाती है कि इस ऊपर के श्लोक में चर योग की घटियों के त्याग के विषय में चर्चा नहीं है, किन्तु ज्योतिस्सार सागर में चर योग की भी आदि की तीन घड़ियों को छोड़ने का निर्देश है यथा - “तिस्रश्चरे” इस अंश में देखिए। अमृतसिद्धियोग - (र.मा.भा.)
न मृता सिद्धिर्यत्र सः अमृतसिद्धिः । हस्तसौभ्याश्विनीमैत्रपुष्यपौष्णविरंचितैः ।
भवत्यमृतसिद्धयाख्यो योगः सूर्यादिवारगैः ॥ अन्वय - सूर्यादिवारगैः हस्तसौम्याश्विनीमैत्रपुष्यपौष्णविरंचितैः (हस्तमृगशिरोऽश्विनीमैत्र पुष्यरेवतीरोहिणीनक्षत्रैः) सिद्धि: अमृतसिद्धिनामक: योग: (भवति)।
रविवार को हस्त के, सोम को मृगशिरा के, मंगल को अश्विनी के, बुध को अनुराधा के, गुरु को पुष्य के, शुक्र को रेवती के और शनि को रोहिणी के योग से अमृतसिद्धि नामक योग बनता है, जो कि समस्त शुभकृत्यों में अवश्यमेव सिद्धिदायी होता है।
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४० ]
[ मुहूर्तराज
अथ अमृतिसिद्धि योग सारणी वार नाम नक्षत्र नाम
रवि
सोम मंगल
योग अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि अमृतसिद्धि
हस्त मृगशिरा अश्विनी अनुराधा पुष्य रेवती रोहिणी
बुध
गुरु
शनि
हर्ष प्रकाश में भी इस योग की प्रशंसा
भद्रासंवर्तकाद्यैश्चेत् सर्वदुष्टऽपि वासरे ।
योगोऽस्त्यमृतसिद्धायाख्यः सर्वदोषक्षयस्तदा ॥ अन्वय - चेत् भद्रासंवर्तकाद्यैः सर्वदुष्टे वासरे अपि अमृत सिद्धायाख्य: योगः अस्ति तदा (तस्मिन् योगे) सर्वदोषक्षयः (भवति)।
अर्थ - भद्रा संवर्तक आदि कुयोगों से सम्पूर्ण दिन के दूषित हो जाने पर भी यदि उस दिन अमृतासिद्धि योग हो तो समस्त दोषों का निवारण हो जाता है। क्रकचयोग - नारद मत से
त्रयोदश स्युर्मिलने संख्यायास्तिथिवारयोः ।
क्रकचो नाम योगोऽयं मंगलेष्वतिगर्हितः ॥ अर्थ - तिथि एवं वार की क्रम संख्याओं का योग करने पर यदि १३ संख्या योग हो तो उस दिन क्रकच नामक दुर्योग जानना चाहिए। यह योग समस्त मांगलिक कार्यों में निन्दित माना गया है।
उदाहरण - पष्ठी तिथि को यदि शनिवार है, तो षष्ठी के अंक ६ हुए और शनि के क्रमांक रवि से गिनने पर ७ हुए। इन दोनों का योग १३ हुआ। अतः उस दिन क्रकच योग बना।
अथ क्रकच योग ज्ञापक चक्र तिथियाँ → | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | योग बना
वार-→ | शनि ७ | शुक्र ६ | गुरु ५ | बुध ४ | मंगल ३ | सोम २ | रवि १ वार-→ | १३ | १३ | १३ | १३ | १३ । १३ ।
क्रकच
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मुहूर्तराज ]
[४१ कंटक एवं उपकुलिक योग - (आ.सि.)
कंटकोऽपि दिनाष्टांशे स्वारान्मंगलावधौ ।
बृहस्पत्यवधौ चोपकुलिकस्त्यज्यते परैः ॥ अन्वय - स्ववारान्मंगलावधौ (गणनया) दिनाष्टांशे (अर्धप्रहरे) कंटक: अपि (स्यात्) तथैव स्ववाराद् बृहस्पत्यवधौ च गणनया) उपकुलिकः (योगः) भवति। (अमू योगौ) परैः (शुभकृत्ये) त्यज्यते।
अर्थ - जिस दिन जो वार हो उससे मंगल तक गिनने पर जो क्रमसंख्या आवे, उस क्रमसंख्या का उस दिन का अर्धप्रहर कंटक नाम कृयोग युक्त होता है। और इष्टवार से बृहस्पति तक गिनने पर प्राप्त क्रमसंख्या का अर्धप्रहर उस दिन उपकुलिक नामक कुयोग से युक्त होता है। अर्धप्रहर = १॥ घंटा
अथ कंटक एवं उपकुलिक कुयोग ज्ञापक सारणी
वार
रवि | सोम | मंगल | बुध |
गुरु ।
शुक्र | शनि
कंटक योग से युक्त अर्धप्रहर
| उपकुलिक योग से युक्त अर्धप्रहर | ५
| ४
|
३
। २
।
१
।
७
।
कुलिकयोग -
कुलिको द्विघ्नशन्यन्तमिते त्याज्यः स्ववारतः । मुहूर्तेऽह्नि निशि व्येके भागः पञ्चदशस्तु सः ॥
अन्वय - स्ववारत: द्विघ्नशन्यमन्तमिते मुहूर्ते अन्हि व्येके मुहूर्ते निशि कुलिकः (एतन्नामा योगः) भवति। दिनस्य पञ्चदशः भागः मुहूर्तः कथ्यते।
अर्थ - इष्ट दिन के वार से शनिवार तक गणना करने पर प्राप्त क्रमांक को दूना करने पर जो अंक प्राप्त हो उस दिन उस संख्या का मुहूर्त उस दिन के समय में कुलिक योग से युक्त होता है और रात्रि में उस कुलिक मुहूर्त की क्रमसंख्या में से एक घटाने पर जो अंक आवे उस अंक क्रम का मुहूर्त कुलिक से दूषित जानना चाहिये।
उदाहरण- रविवार के दिन यदि कुलिक ज्ञात करना हो तो रवि से शनि तक गणना की गई तब क्रमांक ७ आया इसे २ से गुणा किया तो ७X २ = १४ हुए तो रविवार को १४वाँ मुहूर्त कलिक युक्त हुआ, यह दिन का कुलिक हुआ और उस दिन रात में १४-१ = १३ तेरहवाँ मुहूर्त कुलिकयुक्त हुआ। मुहूर्त प्रमाण २ घटी का होता है।
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४२ ]
कुलिक
दिन के समय में कुलिक मुहूर्त
रात्रि के समय में कुलिक मुहूर्त
संवर्तयोग - नारद मत में
वार →
यमघंट योग- गर्ग मत से
अथ कुलिक योग ज्ञापक चक्र
रवि
सोम
मंगल
बुध
१४
-
१३
१२
११
१०
९
८
७
गुरु
६
सप्तम्यामकंवारश्चेत् प्रतिपत् सौम्यवासरे । संवर्तयोगो विज्ञेयः शुभकार्यविनाशकृत ॥
५
मघा विशाखा चार्द्रा च मूलमृक्षं च कृत्तिका । रोहिणी हस्त इत्येवं यमघंटः क्रमाद् रवेः ॥
शुक्र
अर्थ - सप्तमी को रवि एवं प्रतिपदा को बुधवार होने पर संवर्त नामक योग बनता है, जो कि शुभकार्य विनाशकारी है।
विन्ध्यस्योत्तरभागे तु, यावदातुहिनाचलम् । यमघंटकदोषोऽस्ति, नान्यदेशे कदाचन ॥
४
३
[ मुहूर्तराज
अर्थ रवि को मघा, सोम को विशाखा, मंगल को आर्द्रा, बुध को मूल, गुरु को कृत्तिका, शुक्र को रोहिणी, शनि को हस्त होने पर यमघंट योग बनता है ।
यमघंट योग का अपवाद गर्ग
शनि
१
अर्थ - विन्ध्याचल से हिमाचल पर्यन्त भाग में ही यमघंट दोष त्याज्य है, अन्य देश में नहीं । लग्नाच्छुभग्रहः केन्द्रे त्रिकोणे वा स्थितो यदि ।
चन्द्रो वापि न दोषः स्याद् यमघण्टकसंभवः ॥
अर्थ लग्न से केन्द्र स्थान में अथवा त्रिकोण स्थान में कोई शुभ ग्रह अथवा चन्द्रमा स्थित हो तो यमघण्टक से उत्पन्न दोष नहीं लगता ।
कुछेक आचार्यों का मत है कि यमघंट योग की आद्य ८ घड़ियाँ ही शुभ कृत्य में छोड़नी चाहिए यथा" यमघंटे त्यजेदष्टौ मृत्योर्द्वादिश नाडिकाः" (दीपिकायाम्)
अर्थात् यमघंट की ८ और मृत्युयोग की १२ घड़ियाँ त्याज्य हैं।
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मुहूर्तराज ]
[४३ उत्पातमृत्यु, काण और सिद्धि योग- (मु. चि. शु. प्र. श्लो.)
द्वीशात्तोयाद्वासवात्पौष्णभाच्च ,
ब्राह्मात्युष्यादर्यमांद्युगक्षैः । स्यादुत्पातो मृत्युकाणौ च सिद्धिरिऽर्काद्ये तत्फलं नामतुल्यम् अन्वय - अर्काद्येवारे (रविवारादिषु क्रमश: द्वीशात् तोयात् वासवान् पौष्णभात् ब्राह्मात् पुष्यात् अर्यमाद युगक्षैः सद्भिः क्रमात् उत्पात: मृत्युकाणौ सिद्धिः च (एते योगा:) स्यात्।
अर्थ - रविवार को विशाखा से लेकर चार नक्षत्रों के, सोमवार को पूर्वाषाढ़ा से लेकर चार नक्षत्रों के, मंगल को धनिष्ठादि चार नक्षत्रों के, बुधवार को रेवती आदि चार नक्षत्रों, गुरुवार को रोहिणी आदि चार नक्षत्रों के, शुक्र को पुष्यादि चार नक्षत्रों के और शनिवार को उत्तरा फाल्गुन आदि चार नक्षत्रों के योग होने पर क्रमश: उत्पात, मृत्यु, काण तथा सिद्धि संज्ञक योग होते हैं, जनके फल उनके नाम के सदृश ही होते हैं। इन योगों को सरलता से ज्ञात करने के लिए आनन्दादियोग सारणी को देखिए। दुष्टयोगों की भी देश विदेश भेद से अदुष्टता- (मु. चि. शु. प्र. श्लो. ३१)
कुयोगास्तिथिवारोत्याः, तिथिभोत्था भवारजाः । हूणबंगखशेष्वेव
वास्त्रितजास्तथा ॥ अन्वय - तिथिवारोत्था: (क्रकचादि कुयोगा:) तिथिभोत्थाः (अनुराधा द्वितीयायाम् आदि योगा:) भवारजाः (वारयोगेन दग्ध नक्षत्रादि योगा:) तथा त्रितजयाः (तिथिवारनक्षत्रयोगसंभवा: “हस्तार्क” पञ्चमी तिथौ” योगा:) हूणबंगखशेषु एवं वाः ।
अर्थ - तिथि एवं वार योग से होने वाले क्रकचादि; तिथि एवं नक्षत्र योग से होने वाले द्वितीया को अनुराधादि, नक्षत्र एवं वार योग से होने वाले दग्धनक्षत्रादि एवं तिथि वार और नक्षत्र इन तीनों के योग से होने वाले हस्तार्क पञ्चमी आदि कुयोग हूण (मंगोलिय) बंगाल और रवश (नेपाल) इन देशों में त्यागने चाहिए अन्यत्र नहीं। प्रत्युत्त अन्य देशों में तो ये योग शुभफलदायी हैं। यथा
नारद मत से
तिथिवारोद्भवाः नेष्टा, योगा वारक्षसंभवाः ।
हूणबंगरवशेभ्योऽन्यदेशेष्वेते शुभप्रदाः ॥ अर्थात् तिथि वार से, वार नक्षत्र से उत्पन्न नेष्ट योग हूण (मंगोलिया) बंगाल और नेपाल इन देशों से अतिरिक्त देशों में तो शुभफलदायी होते हैं। व्यतिपातादि कुयोग भी मध्यान्ह के बाद दोषदायी नहीं होते-- (आ.सि.टी.)
विष्टयामंगारके चैव, व्यातिपातेऽथ वैधृते । प्रत्यरौजन्मनक्षत्रे मध्याह्नात् परतः शुभम् ॥
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[ मुहूर्तराज
४४ ]
अर्थ भद्रा, मंगलवार, व्यतिपात, वैधृति, प्रत्यरिनामक तारा, जन्मनक्षत्र इन सभी कुयोगों में भी दोपहर के बाद किसी भी श्रेष्ठ कार्य को करना शुभफलदायी है, अर्थात् उस दिन (जिस दिन ऊपर लिखे भद्रादि दोष हों) शुभकार्य किया जा सकता है ।
तिथि विशेष का योग होने पर समस्त शुभ कृत्यों में सिद्धिदायी हस्तार्कादि योग भी त्यागने योग्य
होते हैं।
यथा - (मु. चि. शु. प्र. श्लो २०, २१)
वर्जयेत् सर्वकार्येषु, हस्तार्क पञ्चमीतिथौ । भौमाश्विनीं च सप्तभ्यां षष्ठयां चन्द्रैन्दवं तथा ॥ बुधानुराधामष्टभ्याम्, दशम्यां भृगुरेवतीम् । नवभ्यां गुरुपुष्यं चैकादश्यां शनिरोहिणीम् ॥ सर्वकार्येषु पञ्चमी तिथौ हस्तार्कम् (रविवारे हस्तनक्षत्रम्) सप्तभ्याम् भौमाश्विनीम् (भौमवासरेऽश्विनी नक्षत्रम्) षष्ठयाम् चन्द्रैन्दवम् (सोमवारे मृगशिरोनक्षत्रम्) तथा अष्टभ्याम् बुधानुराधाम् (बुधवासरे अनुराधानक्षत्रम्) दशभ्याम् भृगुरेवतीम् (शुक्रवारे रेवती नक्षत्रम्) नवभ्याम् गुरुपुष्यम् (गुरुवारे पुष्य नक्षत्रम् ) एकादश्याम् च शनिरोहिणीम् (शनिवासरे रोहिणीभम् ) वर्जयेत्।
अन्वय
अर्थ
समस्त शुभकार्यों में पंचमी तिथि को यदि रवि और हस्त नक्षत्र हो, सप्तमी को मंगल और अश्विनी हो, षष्ठी को सोमवार और मृगशिरा नक्षत्र हो, अष्टमी को बुधवार और अनुराधा हो, दशमी को शुक्रवार और रेवती हो, नवमी को गुरुवार और पुष्य हो तथा एकादशी को शनिवार तथा रोहिणी हो तो इनका अवश्यमेव त्याग करना चाहिये ।
कार्य विशेष में भौमाश्विनी आदि सिद्धियोग भी त्याज्य है, इसी बात को मु. चिन्तामणिकार कहते हैंसिद्धियोग भी कार्य विशेष निन्दनीय (मु.चि. शु.प्र. श्लो. २२)
गृहप्रवेशे यात्रायां विवाहे च यथाक्रमम् । भौमाश्विनीं शनौ ब्राह्मं गुरौ पुष्यं विवर्जयेत् ॥
-
अर्थ नूतन गृहप्रवेश भौमवार + अश्विनी का, यात्रा में शनि + रोहिणी का और विवाह में गुरु + पुष्य का त्याग करना चाहिये ।
राजमार्तण्ड में भी
-
भौमाश्विनीं प्रवेशे च प्रयाणे शनिरोहिणीम् । गुरुपुष्यं विवाहे च सर्वथा परिवर्जयेत् ॥
सूर्यादिवारौ और नक्षत्र विशेषों के योग से सर्वार्थसिद्धि योग - (मु.चि. शु.प्र. श्लो. २८-२९) सूर्येऽर्कमूलोत्तरपुष्यदास्त्रं, चन्द्रे श्रुतिब्राह्मशशीज्यमैत्रम् । भौमेऽश्व्यहिर्बुध्न्यकृशानुसार्पम्, ज्ञे ब्राह्मामैत्रार्ककृशानु चान्द्रम् ॥ जीवेऽन्त्यमैत्राश्व्यदितीज्यधिष्ण्यम्, शुक्रेऽन्त्यमैत्राश्व्यदितिश्रवोभम् । शनौ श्रुतिब्राह्मसमीरभानि, सर्वार्थसिद्धयै कथितानि पूर्वैः ॥
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[४५
मुहूर्तराज ]
अन्वय - पूर्वैः सूर्ये अर्कमूलोत्तरपुष्यदास्रम् (हस्तमूलोत्तरत्रयपुष्याश्विन्यः) चन्द्रे श्रुतिग्रह्मशशीज्यमैत्रम् (श्रवणरोहिणीमृगशिरः पुष्यानुराधाः) भौमे अश्व्यहिर्बुध्यकृशानुसार्पम् (अश्विन्युत्तराभाद्रपद कृतिकाश्लेषाः) ज्ञे (बुधे) ब्राह्ममैत्रार्ककृशानुचान्द्रम् (रोहिण्यनुराधाहस्तकृतिकामृगशिरोनक्षत्राणि) गुरौ रेवतीमैत्राश्व्यदितीज्यधिष्ण्यम् (रेवत्यनुराधाश्विनीपुनर्वसुपुष्यनक्षत्राणि) शुक्रे अन्त्यमैत्राश्व्यदितीश्रवोभम् (रेवतीअनुराधाश्विनीपुनर्वसुश्रवणनक्षत्राणि) शनौ श्रुतिब्राह्मसमीरभानि (श्रवणरोहिणीस्वातिनक्षत्राणि) एतानि सर्वार्थसिद्धयै कथितानि।
अर्थ - रविवार को हस्त, मूल, तीनों उत्तरा, पुष्य और अश्विनी के, सोम को श्रवण, रोहिणी, मृगशिर, पुष्य और अनुराधा के, मंगल को अश्विनी, उ. भाद्र., कृत्तिका और आश्लेषा के, बुध को रोहिणी अनुराधा, हस्त, कृत्तिका और मृगशिर के, गुरु को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और पुष्य के. शुक्र को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और श्रवण के, तथा शनिवार को रोहिणी, श्रवण और स्वाती के होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग होते हैं, ऐसा पूर्वाचार्यों का मत है।
-अथ दिन एवं नक्षत्र योगसंभव सर्वार्थ सिद्धियोग ज्ञापक सारणी
वार
नक्षत्र नाम
नक्षत्र संख्या
रवि
हस्त
मूल
पुष्य
अश्विनी
सोम मंगल
उ.फा., उ.षा उ.भा. मृगशिर कृतिका
पुष्य
अनुराधा
बुध
हस्त
श्रवण अश्विनी रोहिणी रेवती रेवती श्रवण
रोहिणी उत्तराभाद्र अनुराधा अनुराधा अनुराधा रोहिणी
मृगशिर
आश्लेषा कृतिका पुनर्वसु पुनर्वसु
गुरु
पुष्य
अश्विनी अश्विनी स्वाती
I» II Ir
शुक्र
श्रवण
शनि
सिद्धियोग एवं उनके फल- कश्यप मत से
नंदातिथिः शुक्रवारे, सौम्ये भद्रा कुजे जया । रिक्ता मन्दे गुरौ वारे पूर्णा सिद्धाह्वया तिथिः ॥
अर्थ - शुक्रवार को नन्दा तिथि (१-६-११) बुधवार को भद्रा तिथि (२-७-१२) मंगल को जया तिथि (३-८-१३) शनि को रिक्ता तिथि (४-९-१४) एवं गुरु को पूर्णा तिथि (५-१०-१५) होने पर सिद्धि योग बनता है।
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४६ ]
[ मुहूर्तराज इनके फल-वसिष्ठ मत में
सिद्धातिथिर्हन्ति समस्तदोषान्, यान् मासशून्यानपि मासदग्धान् ।
दिनप्रदग्धानपि चान्यदोषान् एकादशी यद्वदशेषपापम् ॥ __ अर्थ - जिस प्रकार एकादशी व्रत समस्त पापों का नाश करता है, उसी प्रकार सिद्ध तिथि मासशून्य, मासदग्ध, दिनदग्ध एवं अन्य दोषों का निवारण करती है। कुमार योग (सर्वत्र शुभद) (आ.सि.)
योगःकुमारनामा शुभः कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु ।
अश्व्याद्यैद्वर्यन्तरितैर्नन्दादशपंचमीतिथिषु ॥ अन्वय - नन्दादशपंचमीतिथिषु कुजज्ञेन्दुशुक्रवारेषु सत्सु द्वयन्तरितैः अश्विन्याद्यैः नक्षत्रैः सद्भिः (१, ६, ११, १०, ५ तिथिनामेकतमायाः तथा कुजबुधचन्द्रशुक्रवारणामेकतमस्य तथैव अश्विनी रोहिणी पुनर्वसु इत्यादिद्वयन्तरितनक्षत्राणाम् एकतमस्य भस्य) अर्थात् (उपर्युक्त तिथि+उपर्युक्तवार+उपर्युक्त नक्षत्र) एषां त्रयाणां सहयोगेन कुमारनामा शुभो योगो भवति।
अर्थ - नन्दादशपंचमीतिथियो (१, ६, ११, १०, ५) में से किसी एक तिथि के मंगल, बुध, चन्द्र और शुक्र इन वारों में किसी एक वार के तथा एकान्तर से अश्विनी कृतिका आदि नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के इन (तिथि+वार+नक्षत्र) तीनों के एक साथ होने पर कुमार नामक योग बनता है, जो कि सर्वेष्ट सिद्धिदायक होता है।
-अथ कुमार योग ज्ञापक चक्रवार नाम तिथियाँ
नक्षत्रों के नाम मंगल, बुध, चन्द्र . १, ६, ११, १०, ५ | अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, हस्त, विशाखा, मूल, शुक्र इनमें से + | इनमें से + श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, इन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के किसी एक वार के किसी एक तिथि योग होने पर कुमार योग कुमार योग के सम्बन्ध में हरिभद्रसूरि का मत
परमयं विशिष्य स्थिरकर्मणि मैत्रीदीक्षाव्रतविद्याशिल्पग्रहणादौ शुभः अयं च विरुद्धयोगोत्पत्तिं वर्जयता ग्राह्यस्तेन भौमे दशमी पूर्वाभाद्रपदा च, सोमे एकादशी विशाखा च, बुधे प्रतिपन्मूलनश्विनी च, शुक्रे रोहिणी एते कुमारयोगा अपि नेष्टा यथासंभवं कर्कसंवर्तककाणयमघंटयोगोत्पत्तेः इति।
अर्थात् यह कुमार योग मैत्री, दीक्षा, व्रतविद्या एवं शिल्पशिक्षा आदि में ही शुभ है। इस योग का ग्रहण तभी करना चाहिए जबकि विरुद्धयोग की उत्पत्ति उस दिन न होती हो। अर्थात् मंगलवार को दशमी
और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के बुधवार को प्रतिपदा और मूल अथवा अश्विनी के तथा शुक्रवार को रोहिणी के होने पर कर्क संवर्तक काण और यमघंट योग होते हैं। अत: उपर्युक्त के सम्मिलन से बना कुमार योग शुभफलदायी न होकर नेष्ट फलदायी होता है।
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मुहूर्तराज ]
राजयोग (सर्वत्र शुभद ) - आ. सि.
राजयोगो भरण्याद्यैद्वर्यन्तरैर्भे शुभावहः । भद्रातृतीयाराकासु
कुजज्ञभृगुभानुषु ॥
अन्वय - भरण्याद्यैद्वर्यन्तरितै भै: ( नक्षत्रैः) भद्रतृतीयाराकासु + कुजज्ञभृगुभानुष सत्सु शुभावहो राजारव्ययोगः ।
अर्थ - भरणी से लेकर दो-दो नक्षत्रों के अन्तर से आने वाले नक्षत्रों में से ( भरणी, मृगशिर, पुष्य ) इस प्रकार किसी एक नक्षत्र के, भद्रातिथि, तृतीया और पूर्णिमा में से किसी एक तिथि के, मंगल, बुध, शुक्र और सूर्य इनमें से किसी एक वार के इन तीनों (न+वार + ति) के एक साथ संयुक्त होने पर राजयोग बनता है, जो कि शुभफलद है । इस योग की भी कुमार योग की ही भाँति कुछ विशेषता है यथा
अयं लघुक्षिप्राभांगल्यधर्मपौष्टिक भूषणक्षेत्रारम्भादिषु विशिष्य श्रेष्ठः अयमपि कुयोगेषु सत्सु न ग्राह्यः तेन रवौ सप्तमी द्वादशी वा, भरणी च, भौमे धनिष्ठा, बुधे भरणी धनिष्ठा वा, शुक्रे द्वितीया सप्तमी वा पुष्यश्च एते राजयोगाः अपि नेष्टाः, यतः संवर्तकर्कवज्रमुसुलोत्पातकाणादियोगोत्पत्तेः ।
इति लग्नप्रकरणे - श्री हरिभद्रसूरि :
यह योग विशेष कर मांगलिक कार्य, धार्मिक कार्य, पौष्टिक कार्य और अलंकार धारणादि कार्य करने के लिए श्रेष्ठ है । परन्तु यह योग भी तभी गाह्य है, जबकि उस दिन कोई अन्य विरुद्धयोग न बनता हो, यथा - रविवार को सप्तमी अथवा द्वादशी और भरणी के, मंगलवार को धनिष्ठा के बुधवार को भरणी अथवा धनिष्ठा के, और शुक्रवार को द्वितीया अथवा सप्तमी और पुष्य होने पर संवर्तक, कर्क, वज्र, मुसल, उत्पात एवं काणादि योग उत्पन्न होते हैं। ऐसा लग्नप्रकरण में हरिभद्रसूरिजी का मत है ।
अनेक दोषापवादभूत रवियोग (मु.चि. शु.प्र. श्लो. २७)
सूर्यभाद् वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसंमिते । चन्द्रर्क्षे रवियोगाः स्युर्दोषसङ्घविनाशकाः ॥
अन्वय - सूर्यनक्षत्राद् वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसंमिते चन्द्रर्क्षे ( दिननक्षत्रे) सति दोषसंघविनाशकाः रवियोगाः
स्युः ।
अर्थ - जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र अर्थात् दिन नक्षत्र तक की गणना करने पर यदि चन्द्र नक्षत्र चौथा, नवां, छठा, दसवां, तेरहवाँ और बीसवाँ हो तो रवियोग बनता है। यह योग अनेक दोष समूहों का विनाश करता है।
तिथियों के नाम पूर्णिमा, तृतीया, द्वितीया सप्तमी, द्वादशी, इनमें से किसी भी तिथि के
साथ
+
[ ४७
- अथ राजयोग ज्ञापक सारणी
वार नाम
रवि, मंगल, बुध, शुक्र इनमें से किसी भी
वार के साथ
+
नक्षत्र नाम
भरणी मृगशिरा, पुष्य, पू. फा., चित्रा, अनुराधा पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तरा भाद्रपद इन नक्षत्रों में से किसी भी एक नक्षत्र के साथ
(राजयोग )
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४८ ]
क्रम
संख्या
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
२०
x x m x 2 w 2
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
सूर्य नक्षत्र
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पूर्वाफाल्गुनी
उत्तराफाल्गुनी
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उत्तराषाढ़ा
मूल
अनुराधा पूर्वाषाढ़ा
ज्येष्ठा
उत्तराषाढ़ा
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पूर्वाभाद्रपद
उत्तराभाद्रपद
रेवती
चतुर्थ ४
रोहिणी
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
पू. भाद्र
उ. भाद्र
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
- अथ रवियोग ज्ञापक सारणी
निम्नांकित चन्द्र नक्षत्र (दिन नक्षत्र) के योग से
षष्ठ ६
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू.फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उषा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू. भाद्र
उ. भाद्र
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
नवम् ९
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उषा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
आद्रा
पुनर्व
दशम १०
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उषा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
आद्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
त्रयोदश १३
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उ. षा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
आद्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
[ मुहूर्तराज
विंश २०
पूर्वाषाढ़ा
उषा
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृगशिरा
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
पुष्य
मूल
चक्र निरीक्षण विधि - दूसरे कोष्टक में सूर्य नक्षत्र है और उनके आगे के ६ कोष्ठकों में दिन नक्षत्र हैं, दोनों नक्षत्रों को पंचांग में ज्ञात करके रवियोग ज्ञात किया जा सकता यथा अश्विनी नक्षत्र पर यदि सूर्य हो तो रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, हस्त और पूर्वाषाढ़ा दिन नक्षत्र रवियोग कारक होंगे ।
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
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मुहूर्तराज ]
[ ४९ कुयोग से सुयोग की बलवत्ता (मु.चि.शु.प्र. श्लो. ४२वाँ)
अयोगे सुयोगोऽपिचेत्स्यात्तदानीमयोगं निहत्यैण सिद्धि तनोति ।
परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं दिनाोत्तरं विस्टिपूर्व च शस्यम् ॥ अन्वय - अयोगे (क्रकचादौ सति) सुयोगः अपि (सिद्धियोगः अपि) चेत् स्यात् तदानीम् एषः (सिद्धियोग:) अयोगम् (अयोगफलम्) निहत्य सिद्धिं (कार्यसिद्धिम्) तनोति (निष्पादयति) ___ अर्थ - क्रकचादि अयोगों के होने पर भी यदि सिद्धियोगादि सुयोग हों तो यह सुयोग अयोग के फल को नष्ट करके कार्य सिद्धि करता है। इसी प्रकार राजमार्तण्डकार भी कहते हैं।
अयोगः सिद्धियोगश्च द्वावेतौ भवतो यदि ।
अयोगो हन्यते तत्र सिद्धियोगः प्रवर्तते ॥ कुछ आचार्यों का मत है कि लग्न शुद्धि से क्रकचादि कुयोगों का नाश होता है और कुछ कहते हैं, जिस दिन भद्रा व्यतीपातादि हो उस दिन मध्याह्न के बाद शुभ कृत्य करने में भी कोई दोष नहीं है।
इति योग विचारः
-अथ करण विचारचर करण नाम- गर्गाचार्य
बवश्च बालवश्चैव कौलवस्तैतिलस्तथा ।
गरश्च वणिजो विष्टिः सप्तैतानि चराणि च ॥ अर्थ - बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि ये सात चर करण हैं। स्थिरकरण नाम
अन्ते कृष्णचतुर्दश्याः शुकनिर्दर्शभागयोः ।
ज्ञेयं चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नं प्रतिपद्दले ॥ अन्वय - कृष्णचतुर्दश्या: अन्त (उत्तरार्ध) शकुनि: दर्शभागयोः अमावस्यापूर्वाधोत्तरार्धयो: द्वयोः चतुष्पदं नागं (तथाच) प्रतिपद्दले (पूर्वार्धभागे) किंस्तुघ्नम् एवं (एतानि स्थिरनामानि करणाणि) ज्ञेयम्। ___ अर्थ - कृष्णचतुर्दशी के उत्तरार्ध में शकुनि नामककरण अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पद नामक करण, उत्तरार्ध में नाग नामक करण तथा शुक्ल प्रतिपदा के पूर्व भाग में किंस्तुन नामक करण जानना चाहिए।
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५० ]
[ मुहूर्तराज
-अथ चन्द्र विचारगोचर गत चन्द्र फल
जन्मस्थः कुरुते पुष्टिं द्वितीये चैव निर्वृतिम् । तृतीये राजसन्मानं चतुर्थे कलहागमम् ॥ पञ्चमेऽर्थपरिभ्रंशः षष्ठे धान्यसमागमः । सप्तमे राजपूजा च ह्यष्टमे प्राणसंशयः ॥ नवमे कार्यहानिश्च, सिद्धिदः दशमे भवेत् ।
एकादशे जयो नित्यं द्वादशे मृत्युमादिशेत् ॥ अन्वय - जन्मस्थ: चन्द्रः पुष्टिम् द्वितीये ( स्थाने स्थितः चन्द्रः) चैव धनागमम् कुरुते। तृतीये (यदि चन्द्रः तृतीय स्थानगतः तदा) राजसन्मानं चतुर्थे (चतुर्थस्थाने गतः) कलहागमम् (कुरुते)। पंचमे (चन्द्रे) अर्थपरिभ्रंश: (अर्थहानि:) षष्ठे (चन्द्रे) धान्यसमागमः (धान्यलाभ:) सप्तमे (सप्तमे चन्द्रे) राजपूजा अष्टमे च (चन्द्रे:) प्राणसंशय: नवमे चन्द्रे कार्यहानि: दशमे चन्द्रः सिद्धिदः भवेत् । एकादशे चन्द्रे नित्य: जयो भवेत् किन्तु द्वादशे चन्द्रे मृत्युम् अथवा मृत्युतुल्यकष्टम् आदि शेत् (कथयेत्) ___अर्थ - जिस किसी व्यक्ति की जन्मराशि अथवा (जन्मराशि ज्ञात न हो तो) नाम राशि से गणना करने पर उस दिन का चन्द्रमा यदि पहला हो तो पुष्टिदायक, दूसरा हो तो आनन्ददाता, तीसरा राज सन्मानदायक, चौथा कलहकारक, पाँचवा अर्थहानिकारक, छठा धान्य लाभकारी, सातवाँ राजपूजाकारक, आठवाँ प्राण संकटदायी, नवाँ कार्य हानिकर्ता, दसवाँ सिद्धिदाता, ग्यारहवाँ नित्य जयप्रदाता और बारहवाँ मृत्युतुल्य कष्टप्रदाता होता है। चन्द्रमा के रूप्यादिपायों का ज्ञान
द्विपंचनवमे रूप्यम् सर्वंकार्यफलप्रदम् । तुर्याष्टद्वादशे चन्द्रे लोहपादश्च हानिकृत् ॥ तृतीये सप्तदशमे ताम्रकः सौरकदायकः ।
जननैकादशे षष्ठे स्वर्णपादश्च दुःखदः ॥ अर्थ - यदि व्यक्ति की राशि से चन्द्रमा दूसरा पाँचवा और नवाँ हो तो चाँदी के पाये का, चौथा, आठवाँ और बारहवाँ चन्द्रमा लोहे के पाये का, तीसरा सातवाँ और दसवाँ तांबे के पाये का और पहला ग्यारहवाँ छठा सोने के पाये का क्रमश: सर्व कार्य फलदाता, हानिकर्ता, सुखदाता और दुःखदाता होता है। घातचन्द्र दोष –(मु.चि.या.प्र. श्लोक २७ वाँ)
भूपंचांकद्वयङ्गदिग्वह्निसप्तवेदाष्टेशार्काश्च घाताख्य चन्द्रः । मेषादीनां राजसेवाविवादे यात्रा युद्धाद्ये च नान्यत्र वयः॥
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मुहूर्तराज ] .
अन्वय - मेषादीनां (राशीनां) भूपञ्चाङ्कद्वयङ्गदिग्वह्निसप्तवेदाष्टेशाश्चि घाताख्य चन्द्रः (ज्ञेयः) यथा (मेषस्य प्रथमो मेषस्थचन्द्रः वृषस्य पञ्मस्थ: कन्याराशिस्थितः, मिथुनस्थ नवमः कुम्भस्थः, कर्कस्य द्वितीयः सिंहस्थः, सिंहस्य षष्ठ: मकरराशिगतः, कन्याया दशम: मिथुनस्थ: तुलायास्तृतीय धनुःस्थः, वृश्चिकस्य सप्तमो वृषस्थः, धनुषः चतुर्थी मीन स्थितः, मकरस्याष्टमो विधुः सिंहस्थः, कुम्भस्यैकादशो धनुःस्थ: मीनस्य द्वादशः कुम्भस्थः एते घातचन्द्रा ज्ञेयाः) अयं घातचन्द्र: राजसेवाविवादे (राजसेवायाम्, विवादे प्रतिवादिना सह कलहे विद्यासम्बन्धिनि वा विवादे) यात्रायुद्धाद्ये (यात्रायाम्, युद्धे आदिशब्दान्मृगयादिषु) वर्ण्यः (त्याज्य:) अन्यत्र (विवाहान्नप्राशनादिमंगलकृत्ये) न वद्य:
अर्थ - मेषादिक राशि वाले व्यक्तियों को क्रमश: प्रथम, पञ्चम, नवम, द्वितीय, षष्ठ, दशम, तृतीय, सप्तम, चतुर्थ, अष्टम, एकादश और द्वादश (१, ५, ९, २, ६, १०, ३, ७, ४, ८, ११ और १२ वाँ) चन्द्र घाताख्य है अर्थात् घातचन्द्र है। यह घातचन्द्र यात्रा, युद्ध, शिकार, राजसेवा, विवाद (शत्रु के साथ कलह अथवा विद्यासम्बन्धी विवाद में वर्जनीय है, अन्यत्र (विवाह अन्न) प्राशनादिमांगलिक कृत्यों में वर्जनीय नहीं है। घातचन्द्र की वर्जनीयता एवं ग्राह्यता -
युद्धे चैव विवादे च कुमारीपूजने तथा । राजसेवावाहनादौ घातचन्द्रं विवर्जयेत् ॥ किन्तु तीर्थयात्राविवाहान्नप्राशनोपनयादिषु ।
माङ्गल्यसर्वकार्येषु घातचन्द्रं न चिन्तयेत् ॥ . अर्थ - युद्ध, विवाद, कुमारी पूजन, राजसेवा, वाहन आदि शब्द से यात्रा एवं शिकार आदि में घातचन्द्र का त्याग करना चाहिये। किन्तु__तीर्थयात्रा, विवाह, अन्नप्राशन, यज्ञोपवीत एवं सर्व प्रकार के मांगलिक कार्यों में घातचन्द्र का कोई दोष नहीं है। स्त्रियों के लिए घातचन्द्र
शशी १ नाग ८ शैला ७ङ्क ९ रागा ६ ग्नि ३ वेदाः ४ करा २ शा १० शिवाः ११ पाण्डवाः ५ चित्रभानु १२ विवाहे तथान्ये शुभे कामिनीनां,
क्रमाद् घातचन्द्रा इमे वर्जनीयाः ॥
स्त्रियों के लिए घातचन्द्र इस प्रकार है
मेषादिक राशि वाली स्त्रियों को क्रमश: पहला, आठवाँ, सातवाँ, नवाँ, छठा, तीसरा, चौथा, दूसरा, दसवाँ, ग्यारहवाँ, पांचवाँ और बारहवाँ चन्द्रमा घाताख्य चन्द्र है।
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५२ ]
[ मुहूर्तराज
अथ पुरुष स्त्री घाताख्य चन्द्र ज्ञापक सारणी
#
पुरुष स्त्री राशियाँ
कु. | ११
मी. १२
१
।
२
।
३
।
४
।
५
।
६
।
७
।
८
। ९
। १० ।
पुरुष घातचन्द्र
कन्या | कुं. |
सिं. | म. | मि.
ध. |
वृ. | मी. | सिं. |
ध.
कुं.
ori | ri
स्त्री घातचन्द्र
११
१०
|
म.
कन्या |
वृ.
स्त्री पुरुष के लिए चन्द्र बल की कुछ विशेषता
पाणिपीडनविधेरनन्तरं, भर्तुरेव बलमैन्दवादिकम् ।
चिन्तनीयमिह योषितां क्वचिन्नष्टमंगलमृते मनीषिभिः ॥ अर्थ - कर्मभेद से स्त्रियों एवं पुरुषों के चन्द्रबल के विषय में ऐसा कहा गया है कि विवाह, गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तादि संस्कारों में पुरुष के (पति के) चन्द्रबल को एवं पत्नी के भी चन्द्रबल को देखना चाहिये, लेकिन स्त्रियों के वस्त्राभूषण धारण में भर्ता का ही (पति का ही) चन्द्रबल ग्रहण करना चाहिए। जब पति की मृत्यु हो जाय तब फिर स्त्री का ही चन्द्रबल ग्रहण होता है, इसी आशय को लेकर कहा गया है “पाणिपीडनविधे:"।
राजमार्तण्ड में भी
विवाहकार्य कुसुम प्रतिष्ठा, गर्भप्रतिष्ठा, वनिताविशुद्धौ ।
अन्यानि कार्याणि धवस्य शुद्धौ पत्यौ विहीने प्रमदात्मशुद्धध्या ॥ अर्थ - विवाह कार्य, गर्धाधान (कुसुम प्रतिष्ठा) गर्भ प्रतिष्ठा (सीमन्तादि संस्कार) आदि कार्यों में स्त्री की भी चन्द्र शुद्धि (पुरुष चन्द्र शुद्धि के साथ साथ) देखनी चाहिए। किन्तु अन्य कार्यों में पति की ही चन्द्र शुद्धि देखी जाती है, परन्तु पति की मृत्यु के बाद स्त्री की ही केवल चन्द्र शुद्धि को देखना चाहिये। जन्मराशि नक्षत्रादि के अज्ञान में उसके जानने का उपाय- वशिष्ठ
. अज्ञातजन्मनां नृणां नामभं परिकल्प्यताम् ।
तेनैव चिन्तयेत्सर्वम् राशिकूटादि जन्मवत् ॥
अर्थ - यदि जन्मराशि वा जन्मनक्षत्रादि का पता न हो तो ऐसी स्थिति में नामराशि की कल्पना से ही विवाह के पूर्व वरवधू का गुण मेलापक देखना चाहिये।
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मुहूर्तराज ]
___ [५३ तथाच
कुर्यात् षोडशकर्माणि जन्मराशौ बलान्विते ।
सर्वाण्यन्यानि कार्याणि नामराशौ बलान्विते ॥ ___अर्थ - षोडश (सोलह) संस्कारों में जन्मराशि बलयुक्त होनी चाहिये। किन्तु अन्य सभी कार्य नामराशि के बल से किये जा सकते हैं, ऐसा वसिष्ठ मुनि का मत है। बृहस्पति भी
व्यवहार राजसेवा संग्राम ग्राममैत्रेषु
"ज्ञातेऽपि जन्मराशौ फलमुक्त नामराशिवशात्" अर्थात् जन्मराशि ज्ञात होने पर भी नामराशिवश ही व्यवहार कर्म (लेन-देन) राजसेवा, युद्ध ग्रामकार्य (ग्राम में प्रवेश) निर्गम तथा अन्य गाँव के महत्त्वपूर्ण कार्य, मित्रता आदि में फल कहा जाना उत्तम है, ऐसा बृहस्पति का मत है। नामराशिग्रहण विचार- (आ.टी.)
ग्रामे नृपति सेवायाम् संग्रामव्यवहारयोः ।
चतुर्षु नामभं योज्यम्, शेषं जन्मनि योजयेत् ॥ __ अर्थ - ग्राम कार्य, राजसेवा, संग्राम और व्यवहार इन चारों कार्यों को करने में नामराशि का एवं अन्य कार्यों में जन्मराशि का महत्व है। बारहवाँ चन्द्र भी शुभ
आधाने सम्प्रदाने च विवाहे राजविग्रहे ।
तीर्थयात्राप्रमाणे च चन्द्रो द्वादशगः शुभः ॥ ___ अर्थ - आधान, दान, विवाह, राजविग्रह (राजा के साथ युद्ध करने में या अन्य किसी बड़े विवाद में) एवं तीर्थयात्रा में बारहवाँ चन्द्रमा शुभ होता है। जन्मचन्द्र विचार
जन्मस्थेन शशांकेन पंचकर्माणि वर्जयेत् ।
यात्रां युद्धं विवाहं च क्षौरं गेहप्रवेशनम् ॥ अन्वय - जन्मस्थेन शशांकेन (यदा चन्द्र राशित: प्रथम: तत्रापि जन्मनक्षत्रस्थ: यदि भवेत् तदा) यात्रां युद्धं विवाहं क्षौरं गेहप्रवेशनम् एतानि पंचकर्माणि वर्जयेत्। यत -
क्षौरे रोगी, गृहे भंगो, यात्रायां निर्धनो भवेत् । विवाहे विधवा नारी, युद्धे च मरणं भवेत् ॥
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५४ ]
[ मुहूर्तराज अन्वय - जन्मस्थे चन्द्रे क्षौरे (क्षौरकायें) रोगी, गृहे (गृहप्रवेशे) भंगः (हानिः) अथवा (गृहस्य कस्यचिद् भागस्य पतनम्) यात्रायां निर्धनो भवेत्, विवाहे नारी विधवा स्यात्, युद्धे मरणं भवेत्।
अर्थ - जन्मस्थ अर्थात् जन्मराशि स्थित (विशेषत: जन्मनक्षत्र पर स्थित) चन्द्र हो तो उस दिन यात्रा, युद्ध, विवाह, क्षौर, गृह प्रवेश न करें, क्योंकि क्षौर कराने पर रोग हो, गृह प्रवेश करने पर भंग अर्थात् हानि अथवा गृह के किसी भाग का पात हो, विवाह में नारी विधवा हो और युद्ध में मरण होवे।
सभी कार्यों में चन्द्रबल की विशेषता-(आ.टी.)
लग्नं देहः, षट्कवर्गोऽङ्गकानि, प्राणश्चन्द्रो धातवः खेचराश्च । प्राणे नष्टे देहधात्वंगनाशो यत्नेनातः चन्द्रवीर्यम् प्रकल्प्यम् ॥ सर्वत्रामृतरश्मेः बलं प्रकल्प्यम् अन्यखेटजं पश्चात् । चिन्त्यं यतः शशांके बलिनि समस्ता ग्रहाः सबलाः ॥
अन्वय - लग्नं देहः (कथ्यते) षटकवर्गः (होराद्रेष्काणादीनि) अङ्गकानि (करचरणादीनि) चन्द्रः प्राण: अन्ये खेचरा: (ग्रहाः) च घातवः (शरीरे रस रक्तादम:) प्राणे नष्टे (प्राणेषु शरीराद् गतेषु अथवा प्राणेषु निर्बलेषु जातेषु) देहधात्वंगनाशः (भवत्येव) अत: यत्नेन (यत्नपूर्वकम्) चन्द्रवीर्यम् (प्राणतुल्य चन्द्रबलम्) अवश्यमेव चिन्तनीयं भवति।
सर्वत्र प्रथमत: अमृतरश्मेः (चन्द्रस्य) एवं बलं प्रकल्प्यम् (विचार्यम्) अन्यखेटजं (अन्य ग्रहाणां बलं) पश्चात् (चन्द्रबलस्य पश्चात्) चिन्त्यम् (विचारणीयम्) यतः शशांके (चन्द्रमसि) बलिनि (बलयुक्ते) शुभस्थानेषु स्थिते, शुभग्रहै: वीक्षिते, रवोच्चमित्रराशिषु स्थिते समस्ताः (अन्य सर्वे) ग्रहा: बलिनः भवन्ति।
अर्थ - लग्न ही शरीर है, होरादि षड्वर्ग हाथ पैर आदि अंग हैं, चन्द्र प्राण हैं और अन्य ग्रह रस रक्तादिक शरीर धातुएँ हैं। यदि प्राण नष्ट हों या निर्बल हों तो देह धातु एवं अंग सभी नष्ट हो जाते हैं अथवा क्षीण हो जाते हैं अत: यत्नपूर्वक प्राणतुल्य चन्द्र की शक्ति का प्रथम विचार करना चाहिए। और भी -
सभी स्थानों पर सभी कार्यों में प्रथम चन्द्र बल का फिर अन्य ग्रहों के बल का विचार करना चाहिए, क्योंकि चन्द्रमा के बलवान रहने पर ही सभी ग्रह बलवान् माने जाते हैं यथा प्राणों से शरीर की धातुएँ एवं अंगादिक ।
इति चन्द्र विमर्श:
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मुहूर्तराज ]
[५५ अथ तारा बल ज्ञान -
स्वजन्मनक्षत्राद् त्रिरावृत्तितः (आवृत्तित्रयेण) तारा स्यात् अर्थात् स्वकीयजन्मनक्षत्राद् दिननक्षत्रे गणिते नवभिभक्ते तिस्र आवृत्तयो भवन्ति। अवशिष्ट तारायाः शुभाशुभं वाच्यम्।
जिस दिन की तारा ज्ञात करनी हो उस दिन के चन्द्रनक्षत्र तक व्यक्ति के जन्म नक्षत्र से गिनना चाहिए यदि संख्या १ से ९ तक हो तो उसी क्रम की ९ ताराएँ हुईं और उस दिन जो क्रमांक आवे, उस क्रमांक की तारा उस अमुक व्यक्ति के लिए है। यदि ९ से अधिक संख्या गिनने पर आवे तो उसमें नौ का भाग दे देना चाहिए शेषांक तारा क्रमांक है। इस प्रकार ये ताराएँ तीन आवृत्तियों से युक्त होती हैं। अर्थात् ताराओं की तीन आवृत्तियाँ हैं। ताराओं के नाम – (मु.चि.गोच. प्र. श्लो. १२ वाँ)
जन्माख्यसंपद्विपदा क्षेमप्रत्यरिसाधका; ।
वध मैत्रातिमैत्राः स्युस्तारा नामसदृक्फलाः ॥ अर्थ - जन्म, संपद, विपद्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मैत्र, अतिमैत्र इस प्रकार ताराओं के नाम हैं। ये ताराएँ स्वनामतुल्य ही फल देती है। विपद् प्रत्यरि और वध अर्थात् तीसरी पाँचवी और सातवी तारा अशुभ है, शेष शुभ हैं। जन्म तारा की शुभाशुभता
यात्रायुद्धविवाहेषु जन्मतारा न शोभना।
शुभान्यशुभकार्येषु प्रवेशे च विशेषतः॥ अर्थ - यात्रा, युद्ध और विवाहकर्म में जन्मतारा श्रेष्ठ नहीं मानी जाती। अन्य सभी शुभकार्यों में प्रथम (जन्म) तारा शुभ है। नारद मत में
"कृष्णे बलवती तारा शुक्ले पक्षे बली शशी" अर्थात् कृष्ण पक्ष में तारा बलवती है और शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा। तारा के विषय में रत्नमाला में
शक्ले पक्षे शीतरश्मिर्बलीयान, न प्राधान्यं तारकायास्तु तत्र । शक्त्या युक्त विद्यमानेऽपि कान्ते, न स्वातन्त्र्यं योषितः क्वापि हष्टम् ॥ न खलु बहलपक्षे शीतरश्मेः प्रभावः, कथितमिह हि तारावीर्यमार्यैः प्रधानम् । अति विकलशरीरे प्रेयसि प्रोषिते वा, प्रभवति खलु कर्तुं सर्वकार्याणि योषा ॥
अर्थ - शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा बलयुक्त रहता है, उस समय ताराबल की प्रधानता नहीं जैसे कि पति के विद्यमान एवं शक्तिशाली रहते कहीं पर भी स्त्री की प्रधानता नहीं होती, किन्तु कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा का प्रभाव नहीं होकर तारा की शक्ति प्रधान होती है, ऐसा आचार्यों का मत है, जैसे कि पति के शक्तिहीन होने अथवा प्रवासी होने पर सभी कार्यों को स्त्री ही करती है।
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५६ ]
क्रम
संख्या
१
२
३
४
जन्म
नक्षत्र
भरणी
कृतिका
रोहिणी
५
६
७
८
९
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
१८
१९
मूल
२० पू.षा.
२१ उ.वा.
२२
३
↓ विपद्
अश्विनी कृतिका
मृग
आर्द्रा
अथ अशुभतारा ज्ञापक सारणी (जनम नक्षत्र से दिन नक्षत्र तक गणनानुसार)
चन्द्र नक्षत्र
मघा
पू. फा
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
प्रथमावृत्ति अशुभ ताराएँ
७
वध
पुनः
पुष्य
मघा
आश्लेषा पू.फा.
उ. फा.
चन्द्र नक्षत्र
मृग.
रोहिणी आर्द्रा
मृगशिरा पुनर्वसु |
आर्द्रा
पुनर्वसु
५
प्रत्यरि
अनुराधा मूल
ज्येष्ठा
पुष्य
मघा
आश्लेषा पू. फा.
उ. फा.
पुष्य
आश्लेषा
हस्त
चित्रा
हस्त
स्वाती
चित्रा विशाखा
स्वाती
विशाखा ज्येष्ठा
श्रवण
धनिष्ठा
पू.भा.
शतभिषा उ.भा.
पू. भा. रेवती
अनुराधा मूल विशाखा ज्येष्ठा पूर्वाषाढ़ा
उ.वा.
पू.षा. श्रवण
उ. षा.
धनिष्ठा
शतभिषा
अनुराधा
श्रवण
धनिष्ठा पू.भा.
शतभिषा | उ.भा.
रेवती
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उ. षा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
३
विपद्
द्वितीयवृत्ति अशुभ ताराएँ
५
प्रत्यरि
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
श्रवण
ज्येष्ठा धनिष्ठा
शतभिषा
अनुराधा
ज्येष्ठा
अश्विनी
कृतिका
भरणी रोहिणी
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उ. षा.
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
पू.भा.
कृतिका
उ.भा. रोहिणी
रेवती
मृग.
अश्विनी आर्द्रा
भरणी
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उ.पा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
मृग.
आर्द्रा
पुनर्वसु
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
७
वध
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उ.षा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
पू.भा.
उ.भा.
| रेवती
अश्विनी
भरणी
२३
२४
२५
२६ उ.भा. अश्विनी कृतिका मृग. २७ रेवती भरणी रोहिणी आर्द्रा
विशेष- उपर्युक्त ताराओं अतिरिक्त शेष ६ ताराएँ शुभ फल देने वाली है।
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
३
विपद्
कृतिका
रोहिणी आश्लेषा
तृतीयावृत्ति अशुभ ताराएँ
५
प्रत्यरि
उ.षा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
मृग.
आर्द्रा पू. फा.
पुनर्वसु
उ. फा.
पू. भा
उ.मा.
| रेवती
अश्विनी
sahaayata chaitanyatit
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
[ मुहूर्तराज
मूल
पू.षा.
चन्द्र नक्षत्र
धनिष्ठा
शतभिषा
पू. भा
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
मृग. आर्द्रा
पुनः पुष्य
आश्लेषा
कृतिका मृग.
रोहिणी
आर्द्रा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
७
मूल
पू.षा.
उ.वा.
श्रवण
वध
पू.भा.
उ.भा.
रेवती
अश्विनी
भरणी
कृतिका
रोहिणी
पुनः
पुष्य
आश्लेषा
मघा
पू. फा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
उषा.
श्रवण
धनिष्ठा
शतभिषा
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मुहूर्तराज ]
आवश्यक कृत्यों में दुष्ट ताराओं दो परिहार - ( मु. चि. गो. प्र. श्लोक १३वाँ )
मृत्यौ स्वर्णतिलान् विपद्यापि गुडं शाकं त्रिजन्मस्वयो । दद्यात् प्रत्यरितारकासु लवणं, सर्वो विपत् प्रत्यरिः ॥ मृत्युश्चादिमपर्यये न शुभदोऽथैषां द्वितीयेंडशका | नादिप्रान्त्यतृतीयका अथ शुभाः सर्वे तृतीये स्मृताः ॥
अन्वय - मृत्यौ (वधाख्यतारायाम्) स्वर्णतिलान् (स्वर्णयुक्ततिलान् यथाशक्ति ब्राह्मणाय दद्यात्, विपद्यपि (तृतीयतारायाम्) गुडं दद्यात्, त्रिजन्मसु (त्र्यावृत्तिगतासुजन्माख्यतारासु ) शाकं दद्यात्, प्रत्यारितारकासु (पञ्चमतारासु) लवणं दद्यात् (इति प्रथम परिहारः ) अथ द्वितीय परिहारः उच्यतेआदिमपर्यये (प्रथमावृतौ ) सर्व: ( षष्टिघटिकालकः ) विपत् प्रत्यरिः मृत्युश्च न शुभदः (अतस्त्याज्यः) अथ द्वितीये (द्वितीयावृत्तौ ) आदिप्राल्त्यतृतीयकाः अंशाः न ( शुभदा न ) अथ (तृतीयावृत्तौ ) सर्वे ( षष्टिघटिकात्मकाः) शुभाः (शुभफलदाः) स्मृता ।
-
अर्थ
अत्यावश्यक कार्य होने पर मृत्युतारा के दोष शमन के लिए यथाशक्ति ब्राह्मण को सुवर्ण सहित तिलदान करना चाहिए । विपद् तारा हो तो गुड़दान तीनों आवृत्तियों की जन्मताराओं में (प्रथमताराओं में) शोक (बैंगन, गोभी आदि) देना चाहिए। प्रत्यरि ताराओं में लवण (नमक) का दान करना चाहिए। यह प्रथम परिहार है। अब द्वितीय परिहार के विषय में चिन्तामणिकार कहते हैं- प्रथमावृत्ति की विपत् प्रत्यरि और मृत्यु ये तीनों ताराएँ पूरी की पूरी अर्थात् सामान्यतः साठ घड़ी की शुभ नहीं होतीं अतः इनको शुभकार्यों में छोड़ना चाहिए। द्वितीय आवृत्ति में विपद् तारा की प्रथम २० घड़ियाँ अशुभ हैं। अन्तिम ४० शुभ हैं, प्रत्यरितारा की मध्य की २० घड़ियाँ अशुभ और आदि अन्त की ४० शुभ हैं और मृत्युतारा की अन्तिम बीस घड़ियाँ अशुभ तथा आदि और मध्य की ४० घड़ियाँ शुभ हैं, ऐसा अर्वाचीन (नवीन) गणितज्ञों का मत है। किन्तु प्राचीन आचार्य इस श्लोक में स्थित “अंशा:" इस पद से नक्षत्र चतुर्थांश ग्रहण करते हैं, उनका कहना है कि द्वितीयावृत्ति की विपद् तारा में नक्षत्र का प्रथम चरण अशुभ है शेष तीन चरण शुभ, प्रत्यरि में प्रान्त्य ( नक्षत्र अन्तिम चरण) अशुभ शेष ३ चरण शुभ और वध में नक्षत्र तृतीय चरण अशुभ और शेष शुभ हैं। तीसरी आवृत्ति में ये तीनों विपत्प्रत्यरि और मृत्यु ताराएँ शुभ फलदायी है।
[ ५७
जगन्मोहन में प्राचीनाचार्यों के मत की पुष्टि की गई है । जगन्मोहनकार कहते हैं- पर्यांये प्रथमे वर्ज्या : विपतप्रत्यरिनैधनाः। द्वितीये त्वंशाकः वर्ज्याः तृतीये त्वखिलाः शुभाः । अर्थात् प्रथमावृत्ति में विपत् प्रत्यरि और वध ये तीनों ताराएँ वर्ज्य हैं । द्वितीयावृत्ति में इनके अंश वर्जनीय हैं और तृतीयावृत्ति में ये तीनों ताराएँ श्रेष्ठ हैं। यहाँ अंशक शब्द के विषय में और भी स्पष्टता करते हुए वे लिखते हैं।
आद्यांशो विपदि त्याज्यः प्रत्यरौ चरमोऽशुभः । वद्ये त्याज्यस्ततीयोऽशः शेषा अंशास्तु शोभनाः ॥
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५८]
[ मुहूर्तराज विपत् तारा में प्रथम चरण त्याज्य है और प्रत्यरि में अन्तिम चरण अशुभ हैं, तो वध तारा में तीसरा चरण त्याज्य है, शेष सभी अंश (चरण) शुभ हैं। यहाँ अंश शब्द से जगन्मोहनकार को नक्षत्र चतुर्थांश ही अमीष्ट है। अथ भद्रानिषिद्धकाल (मु.चि.शु.प्र. ४३ वाँ)
शुक्ले पूर्वार्धेऽष्टमीपञ्चदश्योः, भद्रकादश्यां चतुर्थाम् परार्धे ।
कृष्णेऽन्त्याधै स्याटतीयादशम्योः, पूर्वे भागे सप्तमीशम्भुतिथ्योः ॥ अन्वय - शुक्ले (पक्षे) अष्टमीपञ्चदश्योः पूर्वार्धे भद्राभवति। एकादश्यां चतुर्थ्याम् च परार्धे भद्रा। कृष्णे (पक्षे) तृतीया दशम्योः अन्त्यार्धे (परार्धे) सप्तमी शम्भु तिथ्योश्च (सप्तमीचतुर्दश्योः) पूर्वे भागे (पूर्वार्धे) भद्रा स्यात्।
अर्थ - शुक्ल पक्ष में अष्टमी एवं पूर्णिमा के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है और एकादशी तथा चतुर्थी के उत्तरार्ध में। कृष्ण पक्ष में तृतीया और दशमी के उत्तरार्ध में भद्रा का निवास है, तो सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्व भाग में।
-: अथ भद्रा ज्ञापक सारणी :तिथियाँ
तिथियाँ | कृष्ण | सप्तमी एवं चतुर्दशी । पूर्वार्द्ध में । तृतीया एवं दशमी । उत्तरार्ध मे
शुक्ल अष्टमी एवं पूर्णिमा पूर्वार्द्ध में । चतुर्थी एवं एकादशी | उत्तरार्ध मे
पक्ष
भद्रावास
भद्रावास
बृहस्पति की भद्राविषयक स्पष्टोत्ति -
सिते चतुर्थ्यामन्त्यार्धमष्टम्याद्यार्धमेव च । एकादश्यां परार्धे तु पूर्वार्धे पूर्णशीतगौ ॥ कृष्णे तृतीयान्त्यार्थे हि सप्तम्याद्यार्धमेव च । दशम्यामुत्तरार्धे तु चतुर्दश्यर्धमादितः ॥ विष्टयारव्योऽयं महादोषः कथितोऽत्र समस्तगः । तदानीं कृतसत्कर्म का सह विनश्यति ॥
अर्थ - शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के उत्तरार्ध में, अष्टमी के पूर्वार्ध में, एकादशी के उत्तरार्ध में, पूर्णिमा के पूर्वार्ध में एवं कृष्ण पक्ष की तृतीया के उत्तरार्ध में, सप्तमी के पूर्वार्ध में दशमी के उत्तरार्ध में और चतुर्दशी के पूर्वार्ध में विष्टि नामक महादोष कहा गया है, जो कि तिथि के पूर्ण अर्ध भाग को दूषित करता है, उस समय किया गया सत्कर्म और उस कर्म का कर्ता, दोनों का ही विनाश होता है।
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मुहूर्तराज ]
भद्रा के अंगों के विभाग और उनका फल - (क. संहि.)
मुखे पंच गले
त्वेका
वक्षस्येकादश स्मृताः । नामौ चतस्त्रः षट् कट्याम्, तिस्त्रः पुच्छे तु नाडिकाः ॥ कार्यहानिमुखे मृत्युर्ग वक्षसि निःस्वता । कट्यामुन्नत्तता नामौ च्युतिः पुच्छे ध्रुवो जयः ॥
अर्थ भद्रा का सामान्यतः मानः ३० घटिकाओं का है । ( एक तिथि में दो करण होते हैं) उनका विभाग अंगानुसार इस प्रकार बतलाया गया है। भद्रा की प्रारम्भिक ५ घड़ियाँ भद्रा मुख में, तदुपरान्त की १ घड़ी भद्रा के गले में, ततः ११ घड़ियाँ छाती पर ४ घड़ियाँ नाभि में, ६ घड़ियाँ कमर में और अन्त की तीन घड़ियाँ पूँछ पर रहती हैं। इनका फल इस प्रकार है
-
मुख की घड़ियों में कार्यहानि, गले की घड़ी में मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट, छाती की घड़ियों में निर्धनता, कमर की घड़ियों में मस्तिष्क विकृति और नाभि की घटिकाओं में कार्य भ्रंश होता है । किन्तु अन्त की तीन घड़ियों में जो की पूँछ पर रहती है, कार्य किया गया कार्य सिद्ध होता है ।
आरंभटीका में
यदि भद्राकृतं कार्यं प्रमादेनापि सिध्यति । प्राप्ते तु षोडशे मासे, समूलं तद् विनश्यति ॥
अर्थ - यदि भद्रा में किया गया कार्य जिस किसी तरह सिद्ध भी हो जाए तो भी सालहवें महीने में वह कार्य नष्ट हो ही जाता है।
भद्रा के ३ परिहार
-
[ ५९
असिते सर्पिणी ज्ञेया सिते विष्टिस्तु वृश्चिकी । सर्पिण्यास्तु मुखं त्याज्यं, वृश्चिक्याः पुच्छ मेव च ॥ रात्रि भद्रा यदाह्नि स्याद्दिवा भद्रा यदा निशि । न तत्र भद्रा दोष स्यात् सा भद्रा भद्रदायिनी ॥ सुरभे वत्स या भद्रा सौम्ये सिते गुरौ । कल्याणी नाम सा प्रोक्ता सर्वकर्माणि साधयेत् ॥
सोमे
अर्थ यहाँ भद्रा के ३ परिहार प्रस्तुत किए जा रहे प्रथम पक्षानुसार अंग त्याग से, द्वितीय समय भेद से और तृतीय वारादियोग से ।
प्रथम परिहार
कृष्ण पक्ष की भद्रा सर्पिणी संज्ञक है और शुक्ल पक्ष की भद्रा का नाम वृश्चिकी है। सर्पिणी भद्रा का मुख त्यागना चाहिए, क्योंकि सर्पिणी के मुख में ही विष रहता है और वृश्चिकी भद्रा की पूँछ त्याज्य है, क्योंकि वृश्चिक के पूँछ में ही विष रहता है। इस प्रकार विष युक्त घड़ियों का त्याग करके शेष की भद्रा घटिकाओं में कार्य किया जाना हानिकारक नहीं अपितु शुभकारक होता है ।
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६० ]
द्वितीय परिहार
पूर्वार्ध व्यापिकी भद्रा दिवा भद्रा कही जाती है और उत्तरार्ध की भद्रा को रात्रि भद्रा कहते हैं। यदि दिवा भद्रा रात्रिकाल में और रात्रि भद्रा दिन में आए उसमें कार्य करने में कोई दोष नहीं प्रत्युत वह भद्रा मंगलकारिणी है।
तृतीय परिहार
सोम, बुध, गुरु अथवा शुक्र के दिन यदि देवगणीय नक्षत्र हो और उस दिन भद्रा हो तो वह भद्रा कल्याणी संज्ञिका है, अर्थात् उस भद्रा का नाम कल्याणी है । उसमें किये गये सभी कार्य सिद्ध होते हैं ।
भद्रा में भी करने योग्य कार्य- वशिष्ठ मत में
वधबंधविषाग्न्यस्त्रच्छेदनोच्चाटनादियत्
1
तुरंग महिषोष्ट्रादि कर्म विष्ट्यां तु सिध्यति ॥
अर्थ वध, बन्धन, विषदान, शस्त्रास्त्र कर्म, अग्निदाह एवं उच्चाटनादि कर्म तथा घोड़े, भैंसे, ऊँट आदि को शिक्षा देना, ये कार्य भद्रा में करणीय हैं और सिद्ध ही होते हैं।
आरंभ सिद्धि टीका एवं नारचन्द्र में भद्रा की ग्राह्यग्राह्यता के विषय में
दाने चानशने चैव, घातधाताद्रिकर्मणि । खराश्वप्रसवे श्रेष्ठा भद्राऽन्यत्र न शस्यते ॥
-
[ मुहूर्तराज
अर्थ दान में, अनशनव्रत में घातपातादि कर्म में (किसी को मारना अथवा घर आदि का गिराना) गधी घोड़े के प्रसव समय में भद्रा श्रेष्ठ मानी गई है, किन्तु अन्य कार्यों में भद्रा अशुभ है ।
लल्लाचार्य
शुभाशुभानि कार्याणि यान्यसाध्यानि भूतले । नाडीत्रयमिते पुच्छे भद्रायास्तानि साधयेत् ॥ न कुर्यान्मंगलमं विष्टया जीवितार्थी कदाचन । कुर्तन्नज्ञस्तदाक्षिप्रं नत्सर्वं नाशतां व्रजेत् ॥
अर्थ - जो भी कार्य इस भूतल पर असाध्य माने गये हैं, वे चाहे शुभ हों अथवा अशुभ भद्रा की पुच्छस्थ घटिकाओं में किये जाने पर सिद्ध होते हैं। पूंछ के अतिरिक्त अंग में यदि भद्रावास हो तो किसी भी जीवित रहने की इच्छावाले को किसी प्रकार का भी मांगलिक कार्य नहीं करना चाहिए। यदि कोई अज्ञातवश कार्य करता है तो वह कार्य पूर्णतया नष्ट भ्रष्ट हो जाता है।
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मुहूर्तराज ]
[६१ भद्रानिवास एवं तत्फल- (आ.सि.टी.)
स्वर्गेऽजौक्षणकर्केष्वधः स्त्रीयुग्मधनुस्तुले ।
कुंभमीनालिसिंहेषु विष्टिर्मत्र्येषु खेलति ॥ अर्थ - मेष, वृष, मकर और कर्क के चन्द्रमा में यदि भद्रा हो तो उसका निवास स्वर्ग में माना गया है। कन्या, मिथुन, धनु और तुला के चन्द्र की भद्रा का वास पाताल में है और कुंभ, भीन, वृश्चिक तथा सिंह के चन्द्रमा की भद्रा पृथ्वी पर रहती है।
स्वर्ग में रहने वाली शुभकारिणी है पातालस्थ भद्रा धन लाभ कराती है, किन्तु मृत्युलोक स्थित भद्रा सर्व कार्यों का विनाश करती है। भद्रा मुखपुच्छ विभाग-(मु.चि.शु.प्र. श्लोक ४४वां)
पञ्चद्वयद्रिकृताष्टरामरसभूयामादिघटयः शराः । ५ २ ७ ४ ८ ३ ६१ विष्टेरास्यमसद् गजेन्दुरसरामाद्रयश्विबाणाब्धिषु ॥
८ १६३ ७२५ ४ यामेषु + अन्त्यघटोत्रम् शुभकरं पुच्छंतथा वासरे ।
५
विष्टिस्तिथ्यपरार्धजा शुभकरी रात्रौ तु पूर्वाधजा ॥ अन्वय -, (चतुर्थ्यष्टम्येकादशीपूर्णिमातृतियासप्तमीदशमीचतुर्दशीनां) तिथीनां क्रमश: शरा: पञ्चद्वयद्रिकृताष्टरामरसभूयामादिघटयः विष्टेः आस्यम् असद् (एतासामेवोपर्युक्तानां तिथीनाम्) क्रमश: गजेन्दुरसरामाद्रयश्विबाणाब्धिषु यामेषु अन्त्यघटीत्रयम् (विष्टे:) पुच्छं (तत्) शुभकरं तथा तिथ्यपरार्धजा (तिथेउत्तरार्धभागगता = रात्रिभद्रा) भद्रा यदि वासरे पूर्वार्धजा (तिथिपूर्वभागस्था = दिवाभद्रा) यदि रात्रौ तदा शुभकरी स्यात्।
अर्थ - शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी, एकादशी और पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की तृतीया, सप्तमी, दशमी और चतुर्दशी की भद्रा का मुख क्रमश: इन्हीं उक्त तिथियों के पाँचवें, दूसरे, सातवें, चौथे, आठवें, तीसरे, छठे, एवं पहले प्रहरों की आदि की ५ घटी मान का है। तथा उसका पुच्छ (पूंछ) उपरिलिखित तिथियों के आठवें, पहले, छठे, तीसरे, सातवें, दूसरे, पांचवें और चौथे प्रहरों की अन्तिम तीन घटीमान का होता है। भद्रा मुख अशुभ तथा पुच्छ शुभ है। एवं तिथि के उत्तरार्ध में रहनेवाली भद्रा (शुक्ला ४ एवं ११ तथा कृष्णा ३ तथा १० की) दिन में दोषदायिनी नहीं है और पूर्वार्द्ध में रहने वाली (शुक्ला ८ एवं १५ कृष्णा ७ एवं १४) यदि रात्रि में हो तो भी दूषण नहीं करती।
भली भांति भद्रा के मुख एवं पुच्छ ज्ञान के लिए नीचे एक सारणी दी जा रही है
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६२ ]
[ मुहूर्तराज
-भद्रा मुखपुच्छ घटीमान प्रहरानुसार ज्ञापक सारिणीशुक्ल पक्ष में
कृष्ण पक्ष में
पूर्वार्द्ध
पूर्वाद्ध
पूर्वाद्ध
परार्ध ५वाँ
तिथियाँ →
अष्टमी पूर्णिमा | चतुर्थी एकादशी | सप्तमी चतुर्दशी | तृतीया १५ ११
| १० स्थान →
परार्ध पूर्वार्द्ध
परार्ध प्रहर
४था
७वाँ ८वाँ ६ठा
श्ला भद्रामुख घटी → । प्रहर → ८वाँ
२रा भद्रापुच्छ घटी → |३| दिन व रात भद्रा → दिवाभद्रा | दिवाभद्रा । रात्रिभद्रा | रात्रिभद्रा । दिवाभद्रा । दिवाभद्रा रात्रिभद्रा | रात्रिभद्रा
|
१ला
३रा
६वा
७वाँ
५वा
फल -→
| रात्रौ
रात्रौ दिने । दिने । रात्रौ रात्रौ । दिने दिने न दोषदा | न दोषदा न दोषदा न दोषदा | न दोषदा | न दोषदा न दोषदा
न दोषदा
यहाँ एक शंका होती है कि जब भद्रा को देवता माना गया है तो उसके पूंछ का निर्देश क्यों किया गया है क्योंकि पूंछ का निर्देश करने से उसकी पशुजातीयता सिद्ध होती है। इसका समाधान श्रीपति की उक्ति में
दैत्येन्द्रैः समरेऽ मरेषु विजितेष्वीशः क्रुधा दृष्टवान् । स्वं कायं किल निर्गता खरमुखी लाङ्गलिनी च त्रिपात् ॥ विष्टिः सप्तभुजा मृगेन्द्रगलका क्षामोदरी प्रेतगा ।
दैत्यघ्नी मुदितैः सुरैस्तु करणप्रान्ते नियुक्ता सदा ॥ अर्थात् दैत्यों के द्वारा युद्ध में देवताओं के जीत लिए जाने पर शिव ने अपने शरीर को क्रोध में भरकर देखा, तब उनके शरीर से गधे के जैसे मुखवाली, पूंछवाली, तीन पैरोंवाली, सात भुजाओंवाली, सिंहसदृश गरदनवाली, क्षीण पेटवाली, प्रेतों का अनुसरण करने वाली विष्टिनामक शक्ति उत्पन्न हुई। उसने दैत्यों का विनाश किया, तब देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे बवादिकरणों के अन्त में सदा के लिये नियत आवास दे डाला।
समस्त कार्यों में वर्जनीय पंचांगदूषण-(मु.चि.शु.प्र. श्लो ३४वां)
जन्मक्षमासतिथयो व्यतिपात भद्रावैधृत्यमापितृदिनानि तिथिक्षयी । न्यूनाधिमासकुलिकप्रहारार्धपाता विष्कंभवज्रघटिकात्रयमेव वय॑म् ॥
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मुहूर्तराज ]
[६३
__ अन्वय - जन्मनक्षत्र जन्ममास जन्मतिथयः व्यतिपात भद्रावैधृतिदर्शपितृ (मातापित्रौः) दिनम् (मरणदिनम् = श्राद्धदिवस:) तिथिक्षयी (तिथिक्षयतिथिवृद्धि) न्यूनाधिमासकुलिकप्रहरार्धपाताः विष्कुंभवज्रघटिकात्रयमेव वय॑म् ॥
अर्थ - जन्म नक्षत्र, जन्ममास जन्मतिथि ये तीनों आद्यगर्भ के लिए ही वर्ण्य हैं क्योंकि, नारद का मत हैं-"जन्म मासे न जन्मः न जन्मदिवसेऽपिवा। आद्यगर्भसुतस्या पि दुहितुर्वा करग्रहः” तथा व्यतिपातयोग, भद्रा, वैधृतियोग, माता-पिता का मृत्युदिन = श्राद्धदिन, तिथिक्षय तिथिवृद्धि, क्षयमास, अधिकमास, कुलिक प्रहरार्ध (वारसम्बन्धी आधे प्रहर का दोष) पात अर्थात् महापात (सूर्यचन्द्र का क्रान्ति साम्य) वज्र और विष्कुंभ योग की आदि की तीन-तीन घड़ियाँ सभी कार्यों में त्यागने योग्य है। इस विषय में बृहस्पति का मत
नित्ये नैमित्तिके कार्ये जपहोमक्रियासु च ।
उपाकर्मणि चोत्सर्गे ग्रह वेधो न विद्यते ॥ अर्थ - नित्य एवं नैमित्तक कार्यों जप एवं होमादि क्रियाओं में, श्रावणी उपाकर्म में और वृषोत्सर्ग में ग्रहदोष नहीं लगा करता। गुरु एवं शुक्र के अस्तकाल में वर्जनीय कार्य- (ज्यो. सा.)
वापीकूपतडागयागगमनं क्षौरं प्रतिष्ठाव्रतम् । विद्यामन्दिरकर्णवेधनमहादानं वनं सेवनम् ॥ तीर्थस्नानविवाहदेवभवनं मन्त्रादि देवेक्षणम् ।
दूरेणैव जिजीविषुः परिहरेत् अस्ते गुरौ भार्गवे ॥ अन्वय - जिजीविषुः गुरौ भार्गवे चास्ते वापीकूपतडागयागगमनं क्षौरं प्रतिष्ठाव्रतम् विद्यामन्दिरकर्णवेधनमहादानं वनं सेवनं तीर्थस्नानविवाह देवभवनं मन्त्रादि देवेक्षणम् दूरेणैव परिहरेत्।
अर्थ - जीवन की इच्छावाले पुरुष को चाहिए कि वह जब गुरु और शुक्र अस्त हो, तब बावड़ी, कूप, तालाब खुदवाना, यज्ञ, यात्रा, क्षौर (प्रथममुण्डन) = चौल संस्कार देव प्रतिष्ठा, यज्ञोपवित, विद्यारंभ, ग्रहकर्म, कर्णवेध, षोड़शमहादान, आराम (बाग लगवाना) राजा एवं गुरु की सेवा, (गुरु के पास रहकर विद्याध्ययन) तीर्थस्नान, विवाह, देव का प्रथमदर्शन आदि कार्यों को दूर से ही अर्थात् सर्वथा छोड़ दे। इस विषय में शातातप
अस्तं गते गुरौ शुक्रे वाले वृद्ध मलिम्लुचे ।
उद्यापनमुपारंभं व्रतानां नैव कारयेत् ॥ अर्थ - गुरु एवं शुक्र के अस्तकाल में, उनके बालत्व एवं वृद्धत्व में तथा मलमास में व्रतों का प्रारम्भ एवं समापन (उद्यापन) नहीं करना चाहिये।
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६४ ]
शार्ङ्गयविवाहपटल में भी
विवाहो व्रतबंधो वा यात्रा वा गृहकर्म च । गुरावस्तमिते शुक्रे धुवं मृत्युं विनिर्दिशेत् ॥
अर्थ - विवाह, व्रतबंध (यज्ञोपवीतधारण) यात्रा अथवा गृहकर्म आदि कार्य यदि गुरु, शुक्र के अस्त काल में किए जाएं तो कर्ता की मृत्यु अथवा उसे मृत्युतुल्य कष्ट (व्यथा, दुःख, भय, लज्जा, रोग, शोक एवं मृत्यु) भुगतने पड़ते हैं ।
सिंह एवं मकर राशि स्थित गुरु दोष- (लल्लाचार्य)
नीचस्ये वक्रसंस्थेऽप्यतिचरण गते बाल दृद्धेऽस्तगे वा । संन्यासो देवयात्रा व्रतनियमविधिः कर्णवेधस्तु दीक्षा ॥ मौजीबन्धो गणानां परिणयनविधिर्वास्तुदेवप्रतिष्ठा । वर्ज्याः सद्भिः प्रयत्नात् त्रिदशपतिगुरौ सिंहराशिस्थिते वा ॥
-
अन्वय - त्रिदशपतिगुरौ नीचस्थे, वक्रमंस्थे अतिचरणगतेऽपि बालवृद्धे अस्तगे सिंहराशिस्थिते वा संन्यासो, देवयात्रा, व्रतनियमविधिः, कर्णवेध:, दीक्षा, गणानां मौञ्जीबन्धः परिणयनविधिः वास्तु, देवप्रतिष्ठा ( एते) सद्भिः प्रयत्नाद् वर्ज्याः । -
अर्थ
जब देवगुरू मकरराशि पर हो, वक्र हो, बार-बार वक्रगति एवं मार्गी हो, बाल, वृद्ध या अस्त हो अथवा सिंहराशि स्थित हो, तब संन्यासग्रहण, अपूर्वदेवयात्रा, व्रतों एवं नियमों की विधि, कर्णवेध, परिणयन विधि (विवाह) वास्तुकर्म और देव प्रतिष्ठा इन्हें सज्जनों द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़ना
दीक्षा, उपनयन,
चाहिए।
गुर्वादित्य पदार्थ के विषय में - (गुरु)
[ मुहूर्तराज
गुरुक्षेत्रगतो भानुः भानु क्षेत्रगतो गुरुः । गुर्वादित्यः सविज्ञेयो गर्हितः सर्वकर्मसु ॥
अर्थ जब गुरु की राशि (धनु और मीन) पर सूर्य हो और सूर्य की राशि (सिंह) पर गुरु हो उसे गुर्वादित्य कहते हैं, यह समय सभी कार्यों के लिए निन्दित है, अर्थात् उस समय किसी भी शुभ कार्य को नहीं करना चाहिए। परन्तु गुर्वादित्य की यह परिभाषा सर्वमतसम्मत नहीं है । इस विषय में मु. चि. शुभाशुभ प्रकरण के श्लोक ४८वें " अस्ते वर्ज्यं सिंहनक्रस्थ जीवे वर्ज्यं केचिद् वक्रगे चातिचारे । गुर्वादित्ये विश्वधस्त्रेऽपि पक्षे, प्रोचुस्त्दवद्दन्तरत्नादिभूषणम् । ” इस श्लोक में स्थित “ गुर्वादित्य" की व्याख्या करते हुए पीयूषधारा के इस स्थल को देखिए-यत्तु गुरुवचनम् “गुरुक्षेत्रगतो गुरुः । गुर्वादित्यः स विज्ञेयो गर्हितः सर्वकर्मसु । ” इति तद् अविचारितरमणीयम्। तथाहि गुरुक्षेत्रे धनुर्मीनौ राशि तत्र भानुः स गुर्वादित्यः तत् असत् । धनुरर्कस्य दक्षिणायनत्वाद् एव निषेध सिद्धेः मीनार्कस्य तु यज्ञोपवित व्यतिरिक्तकार्यमात्रासिद्धेः । अर्थात् गुरु की राशियां धनु और मीन हैं, उनपर जब सूर्य उसे गुर्वादित्य कहना अनुपयुक्त होगा क्योंकि धनार्क में तो दक्षिणायन
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मुहूर्तराज ]
[ ६५
के कारण शुभकार्य स्वयं (दक्षिणायन के कारण ) निषिद्ध ही हैं और यदि मीनार्क की बात करें, तो उस समय यज्ञोपवीत के अतिरिक्त समस्त शुभ कार्यों का निषेध सिद्ध ही है। इसी प्रकार यदि सूर्य की राशि (सिंह) पर स्थित गुरु को गुर्वादित्य कहें तो भी अयुक्त होगा, क्योंकि सिंहस्थ गुरु के कारण उस समय भी सर्वशुभकार्य निषिद्ध ही हैं । इति ।
अत: सर्वमत सम्मत “गुर्वादित्य” पदार्थ की व्याख्या " दैवज्ञमनोहर ” में शौनकमत से युक्तिसंगत प्रतीत होती है-यथा
-
अर्थ जब एक ही राशि पर सूर्य एवं गुरु हो ( पर गुरु की बाल्यं वार्धक्य और अस्त अवस्था न हो) उसे ही गुर्वादित्य कहते हैं। इस समय में व्रतबन्ध विवाह आदि शुभ कार्य नहीं करने चाहिए।
एकराशिगतौ सूर्यंजीवौ स्याताम् यदा पुनः । व्रतबंध विवाहादिशुभकर्माखिलं त्यजेत् ॥
गुरु-शुक्र- बाल्य- वार्धक्य - दिन - संख्या (मु.चि.सं.प्र. श्लोक २७वाँ )
पुरः पश्चाद् भृगोर्बाल्यं त्रिदशाहं च वार्धकम् । पक्षं पञ्चदिनं ते द्वे गुरोः पक्षम् उदाहृते ॥
अन्वय - भृगोः (शुक्रस्य) पुरः (पूर्वास्यां दिशि उदितस्य) पश्चाद् वा ( पश्चिमदिशि उदितस्य) त्रिदशाहं (पूर्वस्यामुदितस्य दिनत्रयं पश्चिमदिश्युदितस्य दश दिनानि यावत् बाल्त्वं भवति) च (पुनः) वार्धकम् (भृगोर्वार्धक्यं पूर्वस्यां दिशि अस्तमेष्यतः) पक्षम् पञ्चदशदिनानि (पश्चिमस्यामस्तमेष्यतः) पञ्चदिनं (दिनपंचकम् ) गुरोः ते द्वे (बाल्यवार्धक्ये) पक्षम् (पञ्चदश दिनानि) उदाहृते ( कामं प्रागुदितः प्रत्यगुदितो वा प्रागस्तमेष्यन् प्रत्यगस्तमेष्यन् वा सर्वप्रकारेण)
=
अर्थ पूर्वोदित शुक्र का तीन दिनों तक बालत्व रहता है और पश्चिमोदित का १० दिनों तक बालत्व रहता है, जबकि पूर्व दिशा में अस्त होने वाले शुक्र का वृद्धत्व १५ दिनों तक और पश्चिम में अस्त होने वाले शुक्र का वृद्धत्व ५ दिनों तक ।
गुरु का बालत्व और वृद्धस्त दोनों अवस्थाओं में (उदयास्तकालों में) १५ दिनों का माना गया है। चाहे गुरु पूर्वोदित हो अथवा पश्चिमोदित और चाहे पूर्व में अस्त होने वाला हो चाहे पश्चिम में । वक्रातिचारगत गुरु में वर्जनीय कार्य - वात्स्यायन के मत से -
यात्रोवाहौ प्रतिष्ठां च गृहचूडाव्रतादिकम् । वर्जयेद् यत्नतश्चैव जीवे वक्रातिचारगे ॥ कीर्तिभंगः प्रतिष्ठायां चौरभीतिस्तथाध्वनि । तथोवाहे भवेन्मृत्यु व्रते हानिर्भयं गृहे ॥
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६६]
[ मुहूर्तराज अर्थ - जब गुरु वक्रगति हो अथवा कभी वक्र और कभी मार्गगति हो तब यात्रा, विवाह, प्रतिष्ठा, गृहकर्म, चूडाव्रत (चौलकर्म) आदि कार्य यत्नपूर्वक छोड़ने चाहिए।
इसका फल-गुरु के वक्रातिचार में प्रतिष्ठा करने से कीर्ति का नाश, यात्रा करने से, चोर भय, विवाह में मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट तथा चूडाव्रत करने से हानि एवं गृहकर्म करने पर भय बना रहता है। राजमार्तण्ड में गुरु के वक्रातिचार गति का अपवाद (रा.मा.)
वक्रातिचारगे जीवे, वर्जयेत्तदनन्तमरम् ।
वतोद्वाहादिचूडायामष्टाविंशतिवासरान् ॥ ___ अर्थ - यदि गुरु वक्री अथवा अतिचारी हो तो २८ दिनों तक उपनयन, विवाह और चौल संस्कार नहीं करना चाहिए। दीपिका में भी परिहार
त्रिकोणजायाधनलाभराशौ, वक्रातिचारेण गुरुःप्रयातः ।
यदा कदा प्राह शुभं विलग्नं हिताय पाणिग्रहणं वसिष्ठः ॥ अन्वय - यदा गुरु: वक्रातिचारेण त्रिकोणजायाधनलाभ राशौ (कार्य लगनात् अथवा जन्मराशेः) गुरु: प्रयातस्दा वसिष्ठ: विलग्नम् शुभं प्राह पाणिग्रहणं च हिताय (भवति)
अर्थ - जब गुरु वक्री एवं अतिचारी होकर भी लग्नकाल में अथवा जन्मराशि से ९, ५, ७, २ एवं ११वां हो तब पाणिग्रहण (विवाह) करना शुभफलद कहा है, ऐसा वसिष्ठ का मत है। लल्लाचार्य के मत से भी
प्रतिषिद्धो नोदवाहो वक्रिणि जीवे तथातिचारगते ।
गोचरबल प्रधानं लग्नं च पराशरः प्राह ॥ अर्थ - गुरु के वक्री एवं अतिचारी होने पर भी यदि गोचरबल की प्रधानत हो (गुरु ९, ५, ७, २ एवं ग्यारहवीं राशि पर हो) तो विवाह का कोई निषेध नहीं अर्थात् जिनका विवाह किया जा रहा है, उन दोनों को राशियों से यदि उक्त क्रमांक राशि पर गुरु हो तो विवाह करना शुभ है। पराशर ने लग्न को भी प्रधान बतलाया है, अर्थात् उस समय यदि लग्न से उक्त स्थानों में गुरु हो। __विशेष - यहां कई एक आचार्य विवाह में ही इस अपवाद वाक्य को ग्राह्य मानते हैं यज्ञोपवीतादि कर्मों में नहीं क्योंकि “लग्नं च पराशरः प्राह" इस वाक्य में केवल 'लग्न' ऐसा कहकर सामान्य चर्चा की है, परन्तु कुछ एक कहते हैं कि यह अपवाद समस्त कार्यों के लिए ग्राह्य है, अर्थात् गुरु के वक्री और अतिचारी होने पर लग्नबली हो तो विवाह उपनयनादि किसी भी कार्य को करना शुभ है।
---इति गुरु शुक्र विमर्श:
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मुहूर्तराज ]
[६७ अथ होलिकाष्टक दोष- (शी.बो.)
शुक्लाष्टमी समारभ्यफाल्गुनस्य दिनाष्टकम् ।
पूर्णिमार्वाधकं त्याज्यम् होलाष्टकमिदं शुभे ॥ अर्थ - फाल्गुन शुक्ला ८ से १५ तक का ८ दिनों का यह समय होलाष्टक कहा जाता है, जिसे शुभ कार्यों में त्यागना चाहिये। इसका अपवाद भी- (शी. बोध)
शुतुद्रवां च विपाशायामैरावत्यां त्रिपुष्करे ।
होलाष्टकं विवाहादौ, त्याज्यमन्यत्र शोभनम् ॥ अर्थ - शुतुद्र (सतलज) विपाशा (व्यास) और ऐरावती (राखी) इन नदियों के तटवर्ती नगरों में, त्रिपुस्कर नामक देश में विवाहादि शुभकृत्य में होलाष्टक त्याज्य है, इनके अतिरिक्त स्थानों पर तो होलाष्टक शुभ है।
(१) सतलज तटवर्ती नगर- धावलपुर, लुधियाना, शिमला, फिरोजपुर इत्यादि हैं। (२) रावी तटवर्ती नगर- मुलतान, लाहौर, अमृतसर इत्यादि हैं।
(३) व्यास तटवर्ती नगर- गुरुदासपुर (जहाँ की मिट्टी के बर्तन अतिप्रसिद्ध और सुन्दर होते हैं) होशियारपुर, कैङ्गडा, मण्डी, कपुरथला (जहाँ सुलतान पदवी धारी शासक थे) आदि हैं।
पाश्चात्य विद्वानों ने अन्वेषण के आधार पर शुतुद्र, इसावती और विपाशा इन नामों से पूर्वकाल में प्रसिद्ध नदियों को आजकल की नामधारी सतलज, रावी और व्यास कहा है। वे कहते हैं कि ये तीनों नदियाँ पंजाब प्रदेश में दक्षिण की ओर बहती हुई अति दूरस्थ सिन्धु महानदी में मिलकर अन्त में उसी (सिन्धु नदी) के मुहाने पर स्थित अरेवियन नामक सागर में मिलती है।
विशेष - ये पंक्तियाँ हिन्दी रूपान्तरित है। मूल पंक्तियाँ संस्कृत में हैं, जो कि मु. चिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण के श्लोक ४० वें की पादटिप्पणी में लिखित हैं। यह पादटिप्पणी श्री पं. मदनूपमिश्र (बनारस गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज भू.पू. अध्यापक) द्वारा लिखित है, जिसका कि नाम “युक्तिमञ्जरी” है। विवाहदशदोष- (पु.मा.)
लत्ता पातो युतिर्वेधः यामित्रं बुणपंचकम् । एकार्गलोपग्रहौ च क्रान्तिसाम्यं ततः परम् ॥ दग्धातिथिश्च विज्ञेयाः दश दोषा महाबलाः ।
एतान् दोषान् परित्यज्य लग्नं संशोधयेद् बुधः ॥ अर्थ - विवाह के ये दस दोष हैं-लत्ता, पता, युति, वेध, यामित्र, बाणपंचक (ब्रधपंचक) एकार्गल उपग्रह, क्रान्तिसाम्य एवं दग्ध तिथि। ये दोष महान् बलिष्ठ हैं एवं अनिष्टकारी हैं। विद्वानों को चाहिए कि वे इन दोषों का त्याग करके विवाह मुहूर्त निश्चित करें।
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६८ ]
[ मुहूर्तराज अथ पंचशलाका चक्र निर्माण विधि-(मु.चि. मै नारदमत से) वि.प्र.श्लो. ५६ वे.धा. में
तिर्यक् पंचोर्ध्वगः पंच रेखे द्वे द्वे च कोणयो । द्वितीय शम्भुकोणेऽग्निधिष्णयं चक्रे च विन्यसेत् ॥ भान्यतः साभिजित्येकरेखाकोणे ज विद्धभम् ॥
अथ पंचशलाका यन्त्रम्
रो.
मृ
आ.
पु.
पु.
अर्थ - आड़ी (तिरछी) तथा खड़ी ५-५ रेखाएँ तथा २-२ रेखाएँ चारों कोणों में खींचनी चाहिए। बाद में ईशान कोण की दूसरी रेखा पर कृत्तिका नक्षत्र को लिखकर दक्षिण क्रम | उत्तर से सभी नक्षत्र लिखने चाहिए। इनमें अभिजित् भी लिया गया है।
फिर जिस दिन . श्र. को विवाहार्थ निश्चित करना हो,
उस दिन जो-जो ग्रह जिस-जिस नक्षत्र पर हो लिखें। उस दिन के निकटवर्ती | पूर्णिमा को
जो नक्षत्र हो है. दक्षिण उस पर
चन्द्रमा लिखें
| ततः यदि स्वा.
| विवाह नक्षत्र • वि. की सीध में अनु.. कोई ग्रह हो
| तो वह नक्षत्र विद्ध माना जाता है।
अभि.
उ.षा.
पू.षा.
मू.
ज्ये.
bekle
पश्चिम
व्यवहार समुच्चय में सप्तशलाका यन्त्र
सप्त सप्त विनिपात्य रेखिकाः , तिर्युगूर्ध्वमथ कृत्तिकादिकम् ।। लेखयेदभिजिता समन्वितम् , चैकरेखखगमेन विध्यते ॥
अन्वय - सप्लशलाकायन्त्रलेखनार्थम् सप्त तिर्यक्रेखा: सप्त च ऊर्ध्वगा: रेखाः विनिपात्य अभिजिता समन्वितम् (नक्षत्रजातम् लेखयेत् एकरेखखगमेन विध्यते (वेधो भवति)
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मुहूर्तराज ]
[६९
___ अर्थ - सात-सात तिरछी और खड़ी रेखाओं से सप्तशलाका नामक यन्त्र बनाया जाता है, उस पर भी पंचशलाका यन्त्र की भांति ही कृत्तिका से लेकर अभिजित् सहित दक्षिण क्रम से सभी नक्षत्र को लिखें तथा इष्ट दिन को जिस-जिस नक्षत्र पर जो जो ग्रह हो लिखें। इस तरह उन नक्षत्रस्थ ग्रहों की ठीक सीध में जो-जो नक्षत्र होंगे वे उन-उन ग्रहों से विद्ध माने जाएंगे और उन नक्षत्रों की पापग्रह विद्धता एवं सौम्यग्रह विद्धता का विचार करके ही उन नक्षत्रों में कार्य का विधान अथवा निषेध मानना होगा।
यह सप्तशलाकावेध वधूप्रवेश, दान, वरण, विवाह आदि कार्यों के अतिरिक्त कार्यों में माना जाता है किन्तु उक्त कार्यों को करने के लिए यदि वेध ज्ञात करना हो तो पंचशलाका चक्र का ही प्रयोग करना चाहिए। इसकी पुष्टि में श्रीपति लिखते हैं
वधूप्रवेशने दाने वरणे पाणिपीडने ।
वेधः पंचशलाख्योऽन्यत्र सप्तशलाककः ॥ अर्थात् वधू प्रवेशादि कार्यों में पंचशलाकावेध तथा अन्य कार्यों में सप्तशलाका वेध ही मान्य है। और भी
सूरिपयाइसु सप्तशलायं वयगहणादिषु पंचसलायम् ।
कत्ति अमाइसु इविज्जडुचक्कं जो अह ससिणो गहवेधम् ॥ अर्थात् - रूरिपद प्रतिष्ठादि में सप्तशलाका एवं विवाहादि में पंचशलाका वेध मान्य है। इन दोनों प्रकार के चक्रों में कृत्तिका से लेकर अभिजित् समेत समस्त नक्षत्रों को लिखकर किसी भी ग्रह के नक्षत्र से चन्द्र विद्ध होता है या नहीं यह देखा जाता है। अब विवाह के दस दोषों का विवरण लिखा जाता है(१) लत्ता दोष- (मु.चि.वि.प्र. श्लो. ५९वाँ)
ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वपृष्ठे भं सप्तगोजातिशरैर्मितं हि । (बु.रा.पू.च.शु.)
(, ९, २२, ५) संलत्तयन्तेऽर्कशनीज्यभौमाः सूर्याष्टतर्काग्निमितं पुरस्नात् ॥ अन्वय - ज्ञराहुपूर्णेन्दुसिताः स्वाक्रान्तनक्षत्रात् स्वपृष्ठे (पञ्चशलाकायाँ) सप्तगोजातिशरैर्मितं भं हि (तथा) अर्कशनीज्यभौमाः पुरस्तात् (पंचशलाकायां) सूर्याष्टतर्काग्निमितं भं संलत्तयन्ते।
अर्थ - बुध, राहु, पूर्णचन्द एवं शुक्र अपने महानक्षत्र से पीछे की ओर क्रमश: सातवें, नवें, बाइसवें और ५ वें नक्षत्र पर लत्ताप्रहार करते हैं, जबकि सूर्य, शनि, गुरु और मंगल आगे की ओर क्रमश: १२ वें, ८ वें, ६ ठे और ३ रे नक्षत्र पर लत्ताप्रहार करता है। इसे आगे अंकित सारणी में भली भाँति देखा जा सकता है
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७० ]
[ मुहूर्तराज
-अथ लत्तादोष ज्ञापक सारणी
ग्रहाक्रान्त
बुध
गुरु
शनि
सूर्य चन्द्र मंगल
अग्रतः |११वें पर |२२वें पर | रे पर
नक्षत्र यदि
पृष्ठतः
पृष्ठतः
अग्रतः | ७वें पर । ६ठे पर
पृष्ठतः | ५वें पर
अग्रतः ८वें पर
| वक्रगति | ९वें पर
| पुनर्वसु
पुष्य
| मघा पू.फा.
अश्विनी भरिणी कृतिका रोहिणी मृग आर्द्रा पुन. पुष्य आश्लेषा मघा पू.फा. उ.फा.
कृतिका
चित्रा
भरणी
हस्त
चित्रा
आा
हस्त
पुन.
| पुष्य
मूल
हस्त
पुन.
चित्रा
| उ.फा. कृतिका श्रवण आर्द्रा शतभिषा
आश्लेषा रोहिणी धनिष्ठा पुनर्वसु पू.भा. आश्लेषा मघा चित्रा आश्लेषा | मृगशिरा शतभिषा पुष्य उ.भा. मघा पू.फा. स्वाती आर्द्रा पू.भा. आश्लेषा | रेवती
| पू.फा.
उ.फा. विशाखा
पुनर्वसु उ.भा. मघा अश्विनी उ.फा. हस्त अनुराधा उ.फा. पुष्य | रेवती पू.फा. भरणी
चित्रा ज्येष्ठा आश्लेषा | अश्विनी उ.फा.
स्वाती मूल | चित्रा मघा
रोहिणी स्वाती विशाखा पूर्वाषाढ़ा स्वाती पू.फा.
कृतिका
मृग. विशाखा अनुराधा उ.षा. | विशाखा उ.फा. रोहिणी स्वाती
अनुराधा
ज्येष्ठा श्रवण अनुराधा मृग. विशाखा
ज्येष्ठा मूल धनिष्ठा ज्येष्ठा चित्रा आर्द्रा अनुराधा
पूर्वाषाढ़ा शतभिषा मूल स्वाती
ज्येष्ठा | आश्लेषा | पूर्वाषाढ़ा | उ.षा. पू.भा. पूर्वाषाढ़ा विशाखा पुष्य मूल मघा
श्रवण उ.भा.
उ.षा. अनुराधा आश्लेषा पूर्वाषाढ़ा पू.फा. श्रवण धनिष्ठा रेवती श्रवण ज्येष्ठा मघा उ.षा. उ.फा. धनिष्ठा शतभिषा अश्विनी धनिष्ठा | मूल
श्रवण
शतभिषा पू.भा. भरणी शतभिषा | पू.षा.
धनिष्ठा चित्रा पू.भा. उ.भा. कृतिका उ.षा.
शतभिषा स्वाती उ.भा. उ.भा.
श्रवण चित्रा पू.भा. विशाखा रेवती अश्विनी मृग.
रेवती धनिष्ठा स्वाती | उ.भा. अनुराधा अश्विनी भरणी आर्द्रा अश्विनी | शतभिषा | विशाखा
रेवती ज्येष्ठा
भरणी कृतिका पुनर्वसु भरणी पू.भा. | अनुराधा अश्विनी
कृतिका | रोहिणी कृतिका उ.भा. ज्येष्ठा भरणी पू.षा.
रोहिणी मृग. | आश्लेषा रोहिणी रेवती
कृतिका उ.षा. मृग, आ मघा मृग. अश्विनी
रोहिणी श्रवण आर्द्रा पुनर्वसु भरणी उ.षा.
धनिष्ठा
पुनर्वसु
उ.षा.
स्वाती विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा
पू.फा.
पू.भा.
हस्त
रेवती
पू.षा.
| रोहिणी
उ.षा.
मूल
पुष्य
श्रवण धनिष्ठा शतभिषा पू.भा. उ.भा. रेवती
आर्द्रा
मृग.
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मुहूर्तराज ]
[७१ लत्तादोष-नारद मत से
पुरतः पृष्ठतोऽर्काद्यैदिनई लत्तितं च यत् । अर्काकृतिगुणांगर्तुबाणास्टनवसंख्यभम् ॥
१२ २२ ३ ७ ६ ५ ५ ८९ अन्वय - अर्काधै (सूर्यादिभिः ग्रहै) पुरतः पश्चात् इति क्रमेण अर्काकृति गुणांर्गुबाणाष्टनवसंख्यभम् दिनक्षूलत्तितं स्यात्।
अर्थ - सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि और राहू आगे और पीछे इस क्रम से अपने महानक्षत्र से (आक्रान्तनक्षत्र से) १२वें, २२वें, ३रे, ७वें, ६ठे, ५वें, ८वें और ९वें नक्षत्र को लत्ताप्रहार करते हैं। वराह मत
सूर्यो द्वादशमक्षं षष्ठं गुरुरवरनिजस्तृतीयं तु । संलत्तयति दिवाकरपुत्रौऽष्टममग्रतः पादै ॥ पश्चाद्वाविंशतिभं पौर्णिमचन्द्रस्तु पञ्चमं शुक्रः ।
स्वर्भानुरपि नवमं सप्तममृक्षं शशांकसुतः ॥ अन्वय - सूर्यः द्वादशमृक्षं, गुरुः षष्ठम्, अवनिजः (भौम:) तृतीयं भम्, दिवाकरपुत्रः (शनिः) अष्टमम् नक्षत्रम् अग्रतः पादैः लत्तयति। पौर्णिमचन्द्रस्तु पश्चाद् द्वाविंशतिभं, शुक्रः पंचमं भम् स्वर्भानुः नवमं नक्षत्रम् शशांकसुतश्च (बुधः) सप्तमम् ऋक्षम् लत्तयति।
अर्थ - सूर्य आगे के (स्वाक्रान्त नक्षत्र से) १२ वें नक्षत्र को गुरु अपने आक्रान्त नक्षत्र से छठे नक्षत्र को, मंगल तीसरे को और शनि आठवें नक्षत्र को लत्ता प्रहर करता है, जबकि पूर्ण चन्द्र अपने आक्रान्त नक्षत्र से बाइसवें नक्षत्र को, शुक्र पांचवें नक्षत्र को, राहु वक्रगति से नवें को और बुध सातवें नक्षत्र को लत्तित करते हैं।
लत्तादोष फल- (वराह मत से)
रविलत्ता वित्तहरी नित्यं कौजी विनिर्दिशेन्मरणम् । चान्द्री नाशं कुर्याद् बौधी नाशं वदत्येव । सौरेभरणं कथयति, बन्थुविनाशं बृहस्पतेर्लत्ता ।
मरणं लत्ता राहोः कार्य विनाशं वदन्तीति ॥ अन्वय - रविलत्ता वित्तहरी कौजी नित्यं मरणं विनिर्दिशेत्। चान्द्री (लत्ता) नाशं कुर्याद् बौधी नाशं वदति एव। सौरे: (लत्ता) मरणं कथयति। बृहस्पत्तेर्लत्ता बन्धुविनाशं (करोति) राहोर्लत्ता मरणं करोति तथा कार्यविनाशमपि (एवं बुधाः) वदन्ति।
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७२ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - रवि की लत्ता धननाश, मंगल की मृत्यु करती है। चन्द्र तथा बुध की लत्ता नाश करती है। शनि की लत्ता भी मृत्युकारक है और गुरु लता बन्धु विनाश करती है। राहु की लत्ता भी मृत्यु कारक एवं कार्य विनाश करने वाली होती है। (२) अथ पातदोष- (शी.बो.)
सूर्ययुक्ताच्च नक्षत्रात् पातदोषो विधीयते । मघाऽश्लेषा च चित्रा च सानुराधा च रेवती ॥ श्रवणोऽपि च षट्कोऽयं पातदोषो निगद्यते ।
अश्विनीमवधिं कृत्वा गणयेद् दिनभावधि ॥ अर्थ - सूर्य के महानक्षत्र से मघा, आश्लेषा, चित्रा, अनुराधा, रेवती और श्रवण नक्षत्र जितनवें २ क्रमांक पर हों, अविनी से उतनवें २ क्रमांक के नक्षत्र पातदोष युक्त हुए। इस प्रकार पातदोष से दूषित नक्षत्र यदि लग्न अथवा किसी भी शुभकार्य का नक्षत्र हो तो उस नक्षत्र को शुभकार्य में ग्रहण नहीं करना चाहिए। पातों की संज्ञाएँ
पावकः, पवमानश्च, विकारः, कलहश्च वै ।
मृत्युः क्षयश्च विज्ञेयं पातषट्कस्य लक्षणम् ॥ अर्थ - पावक, पवमान, विकार, कलह, मृत्यु और क्षय ये संज्ञाएँ क्रमशः मघादि पातों की हैं। नारदमत से पात प्रकार -
सूर्यभात् सापित्र्यन्त्यत्वाष्ट्रमित्रोडुविष्णुभे ।
संख्यमा दिनभे तावत् अश्विभात् पातदुष्टभम् ॥ अर्थ - सूर्य नक्षत्र से आश्लेषा, मघा, रेवती, चित्रा, अनुराधा और श्रवण तक गणना करने पर जो संख्या आवे, अश्विनी से उतनवीं संख्या का नक्षत्र पातदोष से दूषित जानना चाहिए। इस विषय से वसिष्ठ भी
रविभादहिपितमित्रत्वाष्ट्रभहरिपौष्णभेषु गणितेषु । साश्विनभादिन्दुयुते तावति वै पतति गणनया पातः ॥ अयमपि पातो दोषश्चण्डीशचण्डाहवयो ज्ञेयः ।
अखिलेषु मंगलेष्वपि वयो यस्माद्विनाशकः कर्तुः ॥ अर्थ - रवि नक्षत्र से आश्लेषा, मघा, अनुराधा, चित्रा, श्रवण और रेवती नक्षत्रों को गिनने पर जितनयीं २ संख्याएँ आवें अश्विनी से उतनवी २ संख्या वाले नक्षत्रों पर पातदोष माना गया है, अर्थात् वे २ नक्षत्र पातदोष से दूषित होते हैं। इसी पात को चण्डीश चण्डायुध संज्ञा से भी व्यवहत किया गया है। इसे समस्त मांगलिक कार्यों में त्यागना चाहिए, क्योंकि यह दोष कार्यकर्ता की मृत्यु करता है अथवा उसे मृत्युसदृश कष्ट भोगने पड़ते हैं।
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मुहूर्तराज ]
[७३
-अथपातदोषज्ञापकसारणी
क्रम
पात
पात
पात
सूर्य महानक्षत्र पात यदि निम्नांकित हो तो पात → | आश्लेषा
संख्या
मघा
चित्रा
अनुराधा
श्रवण
रेवती
चित्रा
रेवती
उ.भा.
श्रवण उ.षा. पूर्वाषाढ़ा
हस्त उ.फा. पू.फा.
अश्विनी भरणी कृतिका रोहिणी मृगशिरा आर्द्रा पुनर्वसु
अनुराधा विशाखा स्वाती चित्रा
पू.भा.
मूल
शतभिषा धनिष्ठा
मघा
उ.फा.
श्रवण
आश्लेषा
पुष्य पुनर्वसु
आर्द्रा मृगशिरा रोहिणी कृतिका भरणी अश्विनी रेवती उ. भा. द्र. पू. भा. द्र. शभिषा
आश्लेषा पुष्य
ज्येष्ठा अनुराधा विशाखा स्वाती
पू.फा.
उ.षा.
पुनर्वसु
आश्लेषा
चित्रा
आश्लेषा मघा पू.फा.
मघा आश्लेषा पुष्य पुनर्वसु
आर्द्रा मृगशिरा रोहिणी कृतिका भरणी अश्विनी
रेवती उ. भा. द्रा. पू. भा. द्र. शतभिषा धनिष्ठा श्रवण उ.षा. पूर्वाषाढ़ा
हस्त
आद्रा मृगशिरा रोहिणी कृतिका
पुष्य पुनर्वसु आर्द्रा
उ.फा. पू. फा.
उ.फा.
नगाशरा
।
मघा
आश्लेषा
हस्त चित्रा स्वाती विशाखा अनुराधा
पूर्वाषाढ़ा
मूल ज्येष्ठा अनुराधा विशाखा स्वाती नित्रा हम्न उ.फा पू.फा. मघा आश्लेषा पुष्य
श्रवण
पुनर्वसु
उत्तराषाढ़ा पूर्वाषाढ़ा
मूल
कानका भरणी अश्विनी रेवती उ.भा.
आर्द्रा
ज्येष्ठा मूल
ज्येष्ठा
मूल
पू.भा.
अनुराधा विशाखा स्वाती
ज्येष्ठा अनुराधा विशाखा स्वाती
शतभिषा धनिष्ठा
आश्वना रेवती उ.भा. पू.भा. शतभिषा धनिष्ठा श्रवण उ.षा. पूर्वाषाढ़ा
मूल ज्येष्ठा अनुराधा विशाखा स्वाती
पुनर्वसु आर्द्रा
FEEEEEEEEE
पूर्वाषाढ़ा उत्तराषाढ़ा श्रवण धनिष्ठा शतभिषा पू.भा. उ.भा. रेवती
मृगशिरा रोहिणी कृतिका भरणी अश्विनी रेवती उ.भा. पू.भा. शतभिषा धनिष्ठा
चित्रा
श्रवण
चित्रा
उ.फा. पू.फा. मघा
उ.षा. पूर्वाषाढ़ा
मूल ज्येष्ठा
मृगशिरा रोहिणी कृतिका भरणी अश्विनी
उ.फा. पू.फा.
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७४ ]
[ मुहूर्तराज (३) युति दोष-(शी.बो.)
यत्र गृहे भवेच्चन्द्रो ग्रहस्तत्र यदा भवेत् ।
युतिदोषो तदा ज्ञेयो विना शुक्रं शुभाशुभा ॥ अन्वय - यत्र गृहे (राशौ) चन्द्रः तत्र (राशौ यदि) यदा (अन्यः) शुक्रं विना ग्रहः भवेत् तदा शुभाशुभ: (शुभग्रहेण युते शुभः पापेन च युते चन्द्रेऽशुभः) युतिदोषः ज्ञेयः। ___ अर्थ - जिस राशि में चन्द्र हो उसी राशि पर यदि शुक्र के बिना अन्य शुभग्रह हो तो शुभ युति और पापग्रह हो तो पापयुति समझनी चाहिये। युतिफल-(शी.बो.)
रविणा संयुतो हानिम् भौमेन निधनं शशी ।
करोति मूलनाशं च राहुकेतु शनैश्चरैः ॥ अन्वय - रविणा संयुत: चन्द्रो हानिम्, भौमेन (संयुतः) निधनम् राहुकेतुशनैश्चरैः (संयुतः) शशी मूलनांश करोति।
अर्थ - सूर्य से युक्त चन्द्रमा हानिकारक, मंगल से युक्त मृत्युकारक होता है और राहु केतु अथवा शनि युक्त होने पर मूलनाश करता है। (४) पंचशलाकावेध विवाह में वर्ण्य (मु.चि.वि.प्र.श्लो. ५६वाँ)
वेधोऽन्योऽन्यमसौ विरंच्यभिजितोर्याम्यानुराधक्षयोः । विश्वोन्द्वोर्हरिपित्र्ययो ग्रहकृतो हस्तोत्तराभाद्रयोः ॥ स्वातीवारूणयोर्भवेन्निर्ऋतिभादित्योस्तथोफान्तयोः ।
खेटे तत्र गते तुरीयचरणाद्यो तृतीयद्वयोः ॥ अन्वय - असौ वेधः अन्योऽन्यम् विरंच्यभिजितो:, याम्यानुराधक्षयोः विश्वेद्वोः, हरिपित्र्ययोः, हस्तोत्तराभाद्रयोः स्वातीवारुणयोः निक्रतिभादित्योः तथा उफान्त्ययोः ग्रहकृतो (भवति) तुरीय चरणाद्ययोः (चतुर्थप्रथमचरणयोः) तृतीयद्वयोः (तृतीय द्वितीय चरणयोः) तत्र खेटे गते (वेध: स्यात्।)
अर्थ - पंचशलाका में नक्षत्रों का अन्योन्य वेध इस प्रकार है। रोहिणी और अभिजित् का, भरणी और अनुराधा का, मृगशिरा और उत्तराषाढ़ा का, उत्तराफाल्गुनी और रेवती का, हस्त और उत्तरा भाद्रपद का, मूल और पुनर्वसु का, स्वाती और शतभिषा का, मघा और श्रवण का। इन आठ युग्मों में से यदि कोई विवाहादि नक्षत्र सामने वाले नक्षत्र पर बैठे ग्रह से दृष्ट हो तो उस नक्षत्र को विद्ध कहते हैं। अर्थात् विवाहादि नक्षत्र के सामने के नक्षत्र पर किसी भी ग्रह का स्थित होना वेध है।
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मुहूर्तराज ]
[७५ अथ सप्तशलाका वेध-(मु.चि.वि.प्र. श्लो. ५७वाँ)
शाक्रेज्ये शतभानिले जलशिवे पौष्णार्यमः वसुद्वीशे
वैश्नसुधांशुभे, हयभगे सार्पानुराधे तथा । हस्तोपान्तिमभे, विधातृविधिभे मूला
___ याम्यमधे कृशानुहरिभे विध्देऽद्रिरेखे मिथः ॥ अन्वय - अद्रिरेखे (चक्र) शाक्रेज्ये, शतभानिले, जयशिवे, पौष्णार्यमः, वसुद्धीशे, वैश्वसुधांशुभे, हयभगे सार्पानुराधे तथा हस्तोपान्तिमभे, विधातृविधिभे, याम्यमधे, कृशानुहरिभे, मिधःविध्दे (भवेत्)।
अर्थ - सप्तशलाका चक्र में ज्येष्ठा और पुष्य, शतभिषा और स्वाती, पूर्वाषाढ़ा और आद्रा, रेवती और उत्तराफाल्गुनी, धनिष्ठा और विशाखा, उत्तराषाढा और मृगशिरा, अश्विनी और पू.फा., आश्लेषा और अनुराधा, हस्त और उत्तराभाद्रपद, रोहिणी और अभिजित्, मूल और पुनर्वसु, चित्रा और पू. भाद्र., भरणी और मघा, कृत्तिका और श्रवण ये नक्षत्र परस्पर विद्ध हैं।
-अथ सप्तशलाका वेध चक्र
कृ.
रो.
म.
आ.
पुन.
पुष्य
आश्ले
मघा
पू.फा.
उ.फा.
हस्त
चित्रा
स्वाती
विशा.
श्र.
अभि.
उ.षा.
पू.षा.
मूल
ज्ये.
अनु.
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७६ ]
वेध का अपवाद - (चक्रोद्धार मत से )
चक्रे तस्मिन्नेकरेखास्थितेन
तद् विद्धर्क्ष खेचरेण प्रदिष्टम् । क्रूरै विद्धं सर्वाधिष्ण्यं विवर्ज्यम् सौम्यै विद्धं नाखिलं पाद एव ॥
"
अन्वय
तस्मिन् चक्रे एकरेखास्थितेन खेचरेण तद् विद्धर्भं प्रदिष्टं यदि तद् (भम् ) क्रूरैः विद्धं स्यात्तर्हि सर्वाधिष्टयं विवर्ज्यम् यदि च सौम्यैर्विद्धेम् तदा अखिलं न किन्तु तन्नक्षत्रस्य पादएव वर्ण्यः ।
-
-
अर्थ
उस सप्तशलाका में एक रेखा पर स्थित ग्रह से सामने वाला नक्षत्र विद्ध माना जाता है। यदि
वह नक्षत्र पापग्रह से विद्ध हो तो वह पूरा का पूरा शुभकृत्य में वर्जनीय है और यदि सौम्यग्रह से विद्ध हो तो केवल चरण ही वर्ज्य है।
पादवेध के विषय में वसिष्ठ
-
वेधफल - (शी. बो.)
अतोऽन्त्यपादमादिगो द्वितीयगस्तृतीयकम् । तृतीयगो द्वितीयकं चतुर्थगस्तु चादिभंम् । भिनत्ति वेधकृद् ग्रहो न चान्यपादमादरात् ॥
अन्वय - वेधकृद ग्रहः यदि आदिपादगो भवेत् तदा अन्त्यपादं द्वितीयगः तृतीयपादम् तृतीयगः द्वियीयकं चतुर्थस्तु आदिमं पादं भिनत्ति न अन्यम् पादम्।
[ मुहूर्तराज
अर्थ - वेधकर्ता ग्रह यदि नक्षत्र के आदिम चरण पर स्थित हो सामने पर स्थित चतुर्थपाद को विद्ध करता है, द्वितीय चरण पर स्थित हो तो सम्मुखस्थ नक्षत्र के तृतीय पाद को और तृतीय चरण पर ग्रह स्थित हो सम्मुखस्थ नक्षत्र के द्वितीय पाद को और चतुर्थ चरण पर ग्रह स्थित हो तो प्रथम पाद को ही विद्ध करता है, इसके अतिरिक्त पाद विद्ध नहीं होते। अतः विद्ध पाद का त्याग करके अन्य पादों में किसी भी शुभकार्य को करने में किसी प्रकार की शंका नहीं क्योंकि सर्प से डसी हुई अंगुली को काट देने पर शरीर में विष का प्रभाव कैसे हो सकता है। इसी आशय को लेकर आरंभसिद्धि की टीका में श्री पूर्णभद्र ने कहा है
विद्धं पादं परित्यज्य कुर्यात्कार्यमशंकितः ।
सर्पदष्टाङ्गुलिच्छेदे विषावेशो भवेत् कुतः ॥
रविवेधे च वैधव्यम् कुजवेधे कुलक्षयः । बुधवेधे भवेद् वन्ध्या, प्रव्रज्या गुरुवेधतः ॥ अपुत्री शुक्रवेधे च सौरो चन्द्रे च दुःखिता ।
परमर्त्यरता राहोः केतो स्वच्छन्दचारिणी ॥
अर्थ - रविवेध से वैधव्य, मंगलवेध से कुलक्षय, बुधवेध से वन्ध्यात्व ( सन्तान न होना) गुरुवेध से प्रवज्या, शुक्रवेध से पुत्रहीनता, शनि और चन्द्र वेध से दुःख, राहुवेध से परपुरुष में रति तथा केतुवेध से स्वेच्छाचार इत्यादि फल होते हैं।
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मुहूर्तराज ]
[७७
(५) अथ यामित्र दोष- (मु. चिन्ना वि.प्र.श्लो.सं. ६७वाँ)
लग्नाच्चन्द्रान्मदनभवनगे खेटे न स्यादिह परिणयनम् ।
किंवा बाणाशुगमितलवगे जामित्रं स्यादशुभकरमिदम् ॥ अन्वय - लग्नात् (विवाहलग्नात्) चन्द्राद् वा मयनभवनगे खेटे (सति) इह परिणयनं न स्यात्। किंवा (पूर्वग्रहाधिष्ठितराशेः) सप्तमराशिस्थितत्रिंशद् भागालके अग्नेऽपि चन्द्रः निषिद्धः। अर्थात् सप्तमस्थानस्थितराशिगतग्रहाद् यदि बाणाशुगमिते नवांशे चन्द्र: स्यात् तर्हि जामित्रं स्यात्। यथा-सप्तमे भौम: मेषराशिपंचमनवांशेऽस्ति चन्द्रश्च लग्ने तुलाराशिपंचमनवांशेऽस्ति तदा जामित्रम् ।
__ अर्थ - विवाह लग्न से अथवा चन्द्रमा से सप्तमस्थान में यदि कोई भी ग्रह तो परिणयन अर्थात् विवाह कर्म न करें। अथवा सप्तमस्थान में स्थित ग्रह से ५५ वें नवांशक चन्द्र हो तो भी विवाह कर्म न करें अन्य ५६ वें से ६३ वें तक से आठ नवमांक शुभकारक है। यह सूक्ष्म जामित्र दोष है। यह अतिशुभकारक
यामित्र फल-लल्लाचार्य के मत से
उद्वाहे विधवा व्रते च मरणं शूलं च पुंस्कर्मणा ।
यात्रायां विपदो गृहेषु दहनं क्षौरेऽपि रोगो महान् ॥ अर्थ - यदि जामित्र दोष में विवाह करें, तो स्त्री विधवा हो, व्रत करें तो मरण या मरणतुल्य कष्ट हो, पुंसवन संस्कार करें तो शूल उत्पन्न हो, यात्रा में विपदाएँ हों, गृहकर्म (निर्माण, प्रतिष्ठादि) करें तो अग्निमय और मुण्डन संस्कार में महान् रोग हो। जामित्र के विषय में- (शी.बो.)
चन्द्र, गुरु, बुध, शुक्र से यदि जामित्र दोष हो तो शुभ किन्तु मंगल, शनि, राहु और केतु से उत्पन्न जामित्र दोष अशुभ है। यथा
चन्द्रश्चान्द्रि गुर्जीवो जामित्रे शुभकारकाः ।
स्वर्भानुभानुमन्दारा जामित्रे न शुभप्रदाः ॥ (६) पंचकाख्य वाणदोष - प्राच्यमत से अपवाद सहित (मु.चि.वि.प्र. श्लो. ७३वाँ)
रसगुणशशिनागाब्याढ्यसक्रान्तियातांशकमितिरथेतेष्टांकैर्यदा पंच मेषाः । रूगनलन्टपचौरा मृत्युसंज्ञश्च बाणः ।
नवतशरशेषे शेषकैक्ये सशल्यः ॥ अन्वय - रसगुणशशिनागाब्ध्याढ्यसंक्रातियातांचकमितिः यदा अंकैस्तष्टा तत्र यदि पञ्च शेषाः तदा रूगनलन्टपचौरा मृत्युसंज्ञश्च बाणः (यानि प्राग् आगतानि शेषाणि तेषामैक्ये) नवहतशरशेषे सति स बाण:
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७८ ]
[ मुहूर्तराज सशल्यः (लौहफलकयुक्तः) अन्यथा पंचातिरिक्ते शेष तु बाणः काष्ठफलकयुक्त एव । लौहशल्यक: विशेषपीडाकरः काष्ठशल्यकस्तु स्वल्पपीडाकारक एवं भवति इति स्पष्टार्थः।
अर्थ - स्पष्ट निरयनांशक सूर्य की संक्रान्ति के युक्तांशों की छ:, तीन, एक, आठ और चार मिलाकर पाँच स्थानों पर उन संख्याओं को रखें। ततः प्रत्येक में नौ का भाग दें। इस प्रकार भाग देने से प्रथम स्थान पर यदि ५ शेष रहें तो रोग नामक बाण, द्वितीय स्थल में ५ शेष रहें तो अग्निनामक बाण, तृतीय स्थल में ५ शेष रहने पर राजबाण, चतुर्थ स्थल में ५ शेष रहने पर चौर बाण और पंचम स्थान में ५ शेष रहने पर मृत्युबाण होता है। ये बाण दो प्रकार के हैं एक काष्ठफलक (काष्ठनिर्मित अग्रभाग वाले)
और दूसरे लौहफलक (लौहनिर्मित अग्रभाग वाले) काष्ठफलक बाण से वैसी पीड़ा नहीं होती, जैसी लौहफलक बाण से होती है। इन दोनों प्रकार के बाणों को ज्ञात करने की विधि यह है कि उन ५ स्थलों में स्थित संख्याओं में सर्वत्र ९ का भाग देने पर जो शेशांक रहे, उन्हें परस्पर जोड़कर पुन: ९ का भाग लगाने पर भी यदि शेशांक ५ ही रहे तो वह बाण लौहशल्यक है और ५ के अतिरिक्त कोई शेषांक रहे तो वह बाण काष्ठशल्यक है।
समयभेद, वारभेद और कार्यभेद से बाणदोष का परिहार-(मु.चि.वि.प्र. श्लो. ७४वाँ)
रात्रौ चौररुजौ, दिवा नरपतिर्वह्नि सदा सन्ध्ययोः , मृत्युच्चाथ शनौ, नृपो विदि मृतिभौमेऽग्निचौरौ रवौ । रोगोऽथ
व्रतगेहगोपनृथसेवायानपाणिग्रहे, वाश्च क्रमतो बुधै रूगनलक्ष्मापाल चौरा मृतिः ॥
अन्वय - रात्रौ चौररुजौ (बाणौ) दिवा नरपतिर्वह्निः (नृपानलबाणौ) सन्ध्ययोः मृत्युः (एतदाख्यो बाण:) इति समयभेदेन परिहारः। अथ शनौ नृपबाणः, विदि (बुधे) मृतिबाणः, भौमेऽग्निचौरबाणौ, रवौ रोगबाणः, इति वारभेदेन बाणपरिहारः। अथ व्रतगेहगोपनृपसेवायान पाणिग्रहे क्रमश: रूगनलक्ष्मापालचौरा मृतिश्च (रोगवह्निराजचौरमृत्यु संज्ञका बाणा: वाः इति कार्यभेदेन वाण परिहारः।
अर्थ - रात्रि में चोर बाण तथा रोगबाण का, दिन में राजबाण और अग्निबाण का, प्रात: और सायं. मृत्युबाण का, शनिवार को राजबाण का, बुधवार को मृत्युबाण का, मंगल को अग्नि और चोर बाण का, रविवार को रोगबाण का, व्रत अर्थात् यज्ञोपवीत में रोगबाण का, घर ढांकने में (छत लगवाने में) अग्निबाण का, राजसेवा में राजबाण का, यात्रा में चोर बाण का और विवाह में मृत्युबाण का त्याग करना चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
[७९
-त्रिविध बाणदोष परिहार ज्ञापक सारणीसमय - भेद से
वार - भेद से
क्र.सं.
कार्य - भेद से
समय
वर्जनीय बाण
वार
वर्जनीय बाण
| कार्य
वर्जनीय बाण
रात्रि में दिन में
चोर तथा रोग राज तथा अग्नि
मृत्यु मृत्यु
शनि को बुध को मंगल को रवि को
राजबाण यज्ञोपवित मृत्यु
गृहगोपन अग्नि और चोर | नृपसेवा
यान विवाह
रोग अग्नि राज
प्रातः
सायम्
रोग
मृत्यु
अथ एकार्गल दोष- (मु.चि.वि.प्र.श्लो. ६२वाँ)
व्याघातगंडव्यतिपातपूर्वे शूलान्त्यवज्रे परिधातिर्गडे । एकार्गलाख्यो ह्यभिजित्समेतो दोषः शशी चेद विषमसंगोऽर्कात् ॥
अन्वय - व्याघातगंडव्यतिपातपूर्वे, शूलान्त्यवर्जे, परिद्यातिगंडे चेद् शशी कर्कात् अभिजित्सनेत: विषमर्भगः तदा एकार्गलाख्यः दोष (भवति) __ अर्थ - जिस दिन व्याघात, गंड, व्यतिपात, विष्कंभ, शूल, वज्र परिध और अतिगंड इन योगों में से कोई भी योग हो उस दिन यदि सूर्य नक्षत्र से अभिजित् समेत गणना करने पर यदि चन्द्र विषम संख्या वाले नक्षत्र पर हो, अर्थात् सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र विषम संख्यांक हो तो एकार्गल नामक दोष होता है, जो कि खाजूंर चक्र द्वारा विहित है और यदि सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र समसंख्या क्रमांक का हो तो यह दोष नहीं होता।
चिन्तामणिकार ने इस दोष में अभिजित् नक्षत्र को गणना में मान्यता दी है। त्रिविक्रम तथा केशवार्क के भी मत से एकार्गल में अभिजित् की गणना मान्य है। यथा
विरुद्धनामयोगेषु साभिजिद्विषमर्भगः
अर्कादिन्दुस्तदा योगो निन्द्य एकार्गलाभिधः (त्रिविक्रम) और "न्यस्ते सहाभिजिति" इत्यादि से केशवार्क ने भी एकार्गल दोष में अभिजित् को ग्राह्य किया है।
परन्तु नारद ने “एकार्गलो दृष्टिपातश्चाभिजिद्रहितानिवै” कहकर अभिजित् को मान्यता नहीं दी है।
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८० ]
[ मुहूर्तराज अथ उपग्रह दोष –(मु.चि.वि.प्र.श्लो. ६३वाँ)
शराष्टदिक् शुक्र नगातिधृत्यः तिथिकृतिश्च प्रकृतेश्च पंच । ५ ८१० २४ ७ १९ १५ १८ २१, २२, २३, २४, २५ उपग्रहाः सूर्यंभतोऽब्जताराः शुभा न देशे कुरुबाह्निकानाम् ॥
अन्वय - सूर्यभतः (सूर्याक्रान्तनक्षत्रात्) अब्जतारा: (चन्द्रनक्षत्राणि) शराष्टदिक्छक्रनगातिधृत्य: तिथिधृतिश्च प्रकृतेश्च (एकविंशतिसंख्यायाः) पञ्च (एकविंशति द्वाविंशति त्रयोविंशति चतुर्विशति पञ्चविंशतयः) उपर्युक्त संख्याकाः चेत्तदा उपग्रहाः (एतन्नामधेया दोषा:) भवन्ति। एते दोषाः कुरुबालिकानाम् (कुरुदेशे बाह्रीकदेशे च) शुभा न अदिते उपग्रहास्तत्रैव त्याज्याः। ___ अर्थ - सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र यदि पांचवाँ, आठवाँ, दसवाँ, चौदहवाँ, सातवाँ, उन्नीसवाँ, पन्द्रहवाँ, अठारहवाँ, इक्कीसवाँ, बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ और पच्चीसवाँ हो तो उपग्रहनामक दोष होते हैं। इन दोषों को कुरुदेश और बाह्रीक देश में त्यागना चाहिए। इस विषय में नारद
१८
भूकंप: सूर्यभात् सप्तमः विद्युच्चपंचमे । शूलोऽष्टमे च नवमे, शनिरष्टादशे ततः ॥ केतुः पञ्चदशे दण्डः, चोल्का एकोनिविंशतिः । निर्घातपातसंज्ञश्च ज्ञेयः स नवपंचके ॥ मोहनिर्घातकम्पाश्च कुलिशं परिवेषकम् ॥
२१-२२-२३-२४-२५ विज्ञेयाश्चैकविंशाख्यादारम्य च यथाक्रमम् ॥ चन्द्रयुक्तेषु भेष्वेषु शुभकर्म न कारयेत् ॥
१४
अर्थ - सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र ७वाँ हो तो भूकंपनामक, पाँचवाँ हो तो विद्युन्नामक, आठवाँ हो तो शूलनामक, नवाँ हो तो शनिनामक, अठारहवाँ हो तो केतु नामक, पन्द्रहवाँ हो तो दण्डनामक, उन्नीसवाँ हो तो उल्कानामक, चौदहवाँ हो तो निर्घातपात नामक, इक्कीसवाँ हो तो मोहनामक, बाईसवाँ होतो निर्घातनामक, तेईसवाँ हो तो कम्पनामक, चौबीसवाँ हो तो कुलिशनामक और पच्चीसवाँ हो तो परिवेषनामक उपग्रहदोष होता है। इनमें किसी भी शुभकार्य को नहीं करना चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
यहाँ वराह
"उपग्रहर्क्षेषु विवाहिता स्त्री सूर्यर्क्षतो दुर्भगतामुपैति "
अर्थात् सूर्यनक्षत्र से उपग्रहकारक नक्षत्रों में यदि चन्द्रनक्षत्र हो तो उस समय विवाहित नारी विधवा
होती है |
और भी - वराह मत से
-
ग्रहप्रवेशे दारिद्रयम्, विवाहे मरणं भवेत् । प्रस्थाने विपदः प्रोक्ताः उपग्रहदिने यदि ॥
अर्थ उपग्रह के दिन यदि गृह प्रवेश किया जाए तो दरिद्रता, विवाह किया जाय तो मरण और यात्रा में विपत्तियाँ होती हैं।
कश्यप मत से - अपवाद
"वाहीके कुरुदेशे च वर्जयेद् भमुपग्रहम्"
अर्थात् वाह्लीक और कुरुदेश में उपग्रहयुक्त नक्षत्र का त्याग करना चाहिए ।
विषयाभिलाषी मनुष्य अपने कुटुम्बियों के निमित्त क्षुधा, तृषा सहन करता हुआ धनोपार्जनार्थ अनेक जंगलों, सम-विषम स्थानों नदी, नालों और पर्वतीय प्रदेशों में इधर-उधर दौड़ लगाता रहता है और यथाभाग्य धन लाकर कुटुम्बियों का यह जानकर पोषण करता है कि ये समय पर मेरे दुःख में सहयोग देंगे-भागीदार बनेंगे। यो करते-करते मनुष्य जब वृद्धावस्था से घिर जाता है, तब कुटुम्बी न कोई सहयोग देते हैं और न उसके दुःख में भागीदार बनते हैं। प्रत्युत सोचते हैं कि यह कब मेरे और इससे छुटकारा मिले। बस, यह है रिश्तेदारों का स्वार्थमूजब प्रेमभाव, अतः इनके प्रपंचों को छोड़कर जो धर्मसाधन करेगा वह सुखी रहेगा।
[ ८१
श्री राजेन्द्रसूरि
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८२
[ मुहूर्तराज
चन्द्र नक्षत्र निम्नांकित हो तो
। -विद्युदादि त्रयोदश उपग्रहदोष बोधक सारणी
म्नां | कित
→
पुन.
।
उ.षा.
पू.भा.
उ.
मा.
चित्रा
उ.भा.
उ.फो.
हस्त
शत.
पू.षा.
| उ.षा.
पू.भा.
रेवती
अनु. | ज्येष्ठा
धनि.
धनि.
अश्वि .
सूर्यनक्षत्र चं.न. |चं.न. | चं.न. |
चं.न. चं.न. चं.न. | चं.न. |चं.न. | १० | १४ | १५
१९ | २१ । २२ | २३ । २४ । २५ उपग्रह नाम विद्युत | भूकंप | शूल | अशनि | निर्घात | दण्ड उल्का | मोह | निर्घात | कम्प कलिश | परिवेषक
पात अश्विनी | मृग. पुन. पुष्य | मघा | चित्रा | स्वाती | ज्येष्ठा मूल | उ.षा. श्रवण | धनि.
| धनि. शत. पू.भा. भरणी पुष्य आश्ले. पू.फा.
स्वाती
विशा. | मूल पू.षा. श्रवण | धनि. | शत. पू.भा. उ.भा. | कृतिका आश्ले. मघा | उ.फा. | विशा
अनु.
पू.षा. धनि. | | शत. पू. भा. उ.भा. रेवती रोहिणी पुष्य । मघा | पू.फा. | हस्त ।
अनु.
ज्येष्ठा | उ.षा. श्रवण शत. | उ. भा. रेवती अश्विनी | मृगशिरा आश्ले, पू.फा. |
| उ.फा.
ज्येष्ठा श्रवण धनि.
पू.भा. | रेवती अश्वि. भरणी आर्द्रा मघा | स्वाती | मूल पू.षा. धनि.
उ.भा. रेवती | अश्वि .| भर. कृतिका पुनर्वसु पू.फा. हस्त | चित्रा | विशा.
| शत.
अश्नि. भर. कति. रोहिणी उ.फा. | चित्रा | स्वाती
उ.षा. श्रवण पू.भा. उ.भा. अश्वि | भर.
| रोहि. मृग. आश्लेषा हस्त | स्वाती | विशा. श्रवण उ.भा.
रेवती भर.
मृग. आर्द्र मघा चित्रा विशा. | अनु. | मूल
रेवती
|आर्द्रा | पुन. ११ पूर्वाफाल्गुनी | स्वाती अनु. | पू.षा. | शत पू.भा. | अश्वि . भर.
मृग.
पुन. पुष्य १२उत्तराफाल्गुनी विशा. मूल | उ.षा. पू.भा. | उ.भा. | भर. कृति.
मृग.
पिन. । पुष्य
पुष्य आश्लेषा
और अनु. मूल पू.षा.
श्रवण
| उ.भा. रेवती | कृति. रोहि आर्द्रा पुष्य आश्ले. मघा १४ चित्रा
उ.षा. | रेवती अश्वि . | रोहि. | मृग. | पुन. आश्ले. मघा | पू.फा. १५ स्वाती मूल
श्रवण शत. अश्वि भर. मृग. | पृष्य | मघा पू. फा. उ.फा. विशाखा
पू.षा. श्रवण धनि. पू.भा. | भर कृति.
आश्ले मघा | पू.फा. उ.ा. हस्त १७ अनुराधा
शत. उ.भा.
पन. पुष्य । मघा. | पू.फा. उ .फा. हस्त चित्रा ज्येष्ठा श्रवण | शत. पू.भा. | रेवती | रोहि, मृग पुष्य
आश्ले
पू.फा. | उ.फा. | हस्त चित्रा स्वाती १९ मूल
पू.भा. उ.भा. अश्वि | मृग | आर्द्रा | आश्ले. | मघा उ.फा. | हस्त | चित्रा |स्वाती | विशाखा २०| पूर्वाषाढ़ा | उ.भा. रेवती भर. आर्द्रा | पुन. पू.फा. | हस्त | चित्रा स्वाती | विशा. | अनुराधा
उत्तराषाढ़ा पू.भा. अश्वि . कृति. पुन. पुष्य पू.फा. उ.फा. | स्वाती | विशा. अनु. ज्येष्ठा | श्रवण उ.भा. अश्वि . भर.
| आश्ले. उ.फा. | हस्त.
| हस्त. स्वाती | विशा | अनु ज्येष्ठा | मूल २३/ धनिष्ठा रेवती | भर. - कृति | मृग. आश्ले. मघा | हस्त. चित्रा | विशा. | अनु. ज्येष्ठा | मूल २४ शतभिषा अश्वि. कृति रोहि. | आर्द्रा मघा प.फा. चित्रा | | स्वाती | अनु. ज्येष्ठा |मू ल उ.षा. २५/ पूर्वाभाद्रपद भर. रोहि. | पुन. पू.फा. उ.फा. | स्वाती | विशा. ज्येष्ठा | पू.षा. उ.षा. श्रवण २६/ उत्तराभाद्रपद कृति । मृग.
उ.फा. हस्त विशा. अनु. | मूल पू.षा. उ.षा. | श्रवण धनिष्ठा २७. रेवती | रोहि. | आर्द्रा
| अनु. | ज्येष्ठा | पू.षा. उ.षा.
शतभिषा
कृति. रोहि
राहि.
* FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE |
EEEEE
मृग.
| ज्येष्ठा
आर्द्रा
ज्येष्ठा
आद्रा
ज्येष्ठा
पू.षा.
धनि.
उ.षा.
आर्द्रा
आद्रो
उ.षा.
धनि.
कात.
धान.
शत.
भधा
पू.षा.
मूल
| चित्रा
श्रवण
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मुहूर्तराज ] क्रान्तिसाम्य
=
महापात दोष - (मु.चि. वि. प्र. श्लो. ६१ वाँ )
अन्वय - पंचास्याजौ, गोमृगौ, तौलिकुम्भौ, कन्यामीनौ, कर्क्युली, चापयुग्मे (एषु राशियुग्मेषु) अन्योन्यम् चन्द्रभान्वोः (स्थितयोः) क्रान्तेः साम्यम् (क्रान्तिसाम्यख्यदोषः) निरुक्तम् तत् मंगलेषु नो शुभम् ।
अर्थ - सिंह और मेष, वृषभ और मकर, तुला और कुंभ, कन्या और मीन, कर्क और वृश्चिक, धन और मिथुन इन छः राशियुग्मो में अन्योन्य यदि सूर्य और चन्द्र स्थित हों तो उन दोनों की क्रान्तिसमता होती है। इसी को क्रान्तिसाम्यनामक दोष कहते हैं। इस दोष को मांगलिक कार्यों में ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी क्रान्तिसाम्य का दूसरा नाम महापात है ।
म. १०
"
पञ्चास्याजौ गोमृगौ तौलिकुम्भौ कन्यामीनौ कली चापयुग्मे । तत्रान्योन्यं चन्द्रभान्वोर्निरुक्तम् क्रान्तेः साम्यं नो शुभं मंगलेषु ॥
,
ध. ९
वृ. ८
- अथ क्रान्तिसाम्य चक्रम्
कुं. ११
तु. ७
लत्तादिमहादोषों का परिहार - ( शी. बो. )
मी. १२
क. ६
मे१
सि. ५
वृष . २
मि. ३
[ ८३
क. ४
लत्ता मालवके देशे पातश्च कुरुजाङ्गले । एकार्गलं च काश्मीरे वेधं सर्वत्र वर्जयेत् ॥
अर्थ - मालव देश में लत्तादोष का, कुरुजाङ्गल देश में पातदोष का काश्मीर में एकार्गल का त्याग करना चाहिए, परन्तु वेधदोष तो सर्वत्र वर्जनीय है ।
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८४ ]
मुहूर्तचिन्तामणिकार के मत से उक्त दोषों का परिहार - (मु.चि.वि.प्र. ६८) एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्त्तर्युदयास्तदोषाः
नश्यन्ति चन्द्रार्कबलोपपन्ने लग्ने यथार्काभ्युदये तु दोषा ॥
अन्वय
यथा अर्काभ्युदये दोषा (रात्रि: नश्यति) तथा एकार्गलोपग्रहपातलत्ताजामित्रकर्त्तर्युदयास्तदोषाः लग्ने चन्द्रार्कबलोपपन्ने ( सति) नश्यन्ति ।
अर्थ - जिस प्रकार सूर्योदय होते ही रात्रि नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार यदि लग्न चन्द्र एवं सूर्य बल से युक्त हो तो एकार्गल, उपग्रह, पात, लत्ता, जामित्र कर्तरी एवं उदयास्त ये सभी नष्ट हो जाते हैं। और भी - (मु.चि.वि.प्र. ६९वाँ श्लोक )
उपग्रह
कुरुबाह्निकेषु कलिङ्गबङ्गेषु च पातितं भम् । सौराष्ट्रशाल्वेषु च लत्तितं भं त्यजेत्तु विद्धं किल सर्वदेशे ॥
अन्वय - कुरुबाह्लिकेषु उपग्रहर्क्ष, कलिङ्गबंगेषु पातितं भम्, सौराष्ट्र शाल्वेषु च लत्तितं भं त्यजेत् विद्धं नक्षत्रं तु सर्वदेशे त्यजेत् किल ।
[ मुहूर्तराज
अर्थ - कुरुदेश तथा बाह्लीक देश में उपग्रहग्रस्त नक्षत्र का, जगन्नाथपुरी प्रदेश तथा बंगाल में एवं बिहार में पात (चण्डीशचण्डायुधनामक) दोष से दुष्ट नक्षत्र का, काठियावाड और शाल्वदेश में लत्तादोषयुक्त नक्षत्र का त्याग करना चाहिए, परन्तु विद्ध नक्षत्र का तो सभी देशों में निश्चयपूर्वक त्याग करना ही चाहिए। वराह मत से परिहार
युतिदोषो भवेद्गौडे, जामित्रस्य च यामुने । वेधदोषस्तु विन्ध्याख्ये देशे नान्येषु केषु वै ॥
अन्वय - युतिदोषः गौडदेशे भवेत् जामित्रस्य प्रभावः यामुने देशे वेधदोष: विन्ध्याख्ये (विन्ध्य प्रदेशे ) देशे अन्येषु केषुचिदपि देशेषु नहि ।
अर्थ - युतिदोष गौडदेश मे, जामित्रदोष यमुनातटवर्ती प्रदेश में और वेधदोष विन्ध्य प्रदेश में प्रभावी होते हैं, अन्य किन्हीं प्रदेशों में नहीं ।
मांगलिक कार्यों में अष्टदोषादि अनेक दोषों का परिहार- (मु.चि.वि.प्र. श्लो. ८९वाँ )
अब्दायनर्तुतिथिमासमपक्षदग्धतिथ्यन्धकाणबधिराख्यमुखाश्च
दोषाः । नश्यन्ति विद्गुरुसितेष्विह केन्द्रकोणे, तद्वच्च पापविधुयुक्तनवांशदोष ॥
-
अन्वय
अब्दायनर्तुतिथिमासभपक्षदग्धतिथ्यन्धकाणबधिराख्यमुखाश्च दोषाः तद्वच्च पापविधुयुक्तनवांशदोषः इह विद्गुरुसितेषु केन्द्र कोणे (१, ४, १०, ९, ५ स्थानेषु) सत्सु नश्यन्ति ।
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मुहूर्तराज ]
[८५ __ अर्थ - यदि लग्नकुण्डली में केन्द्र (१, ४, १०) और कोण (९, ५) में बुध, गुरु और शुक्र स्थित हों तो अब्ददोष, अयनदोष, ऋतुदोष, रिक्तादितिथिदोष, मासदोष, क्रूरग्रहयुक्तनक्षत्रदोष १३ तेरह दिनों वाले पक्ष का दोष, दग्धतिथिदोष अन्धकाण बधिरसंज्ञक लग्नदोष, अकालवृष्टि आदि दोष तथा चन्द्र की स्थिति पापग्रहीय नवांश में हो ये सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। चन्द्र की स्थिति शुभपापग्रहों के नवांश में होने से जो शुभाशुभ फल होते हैं, उनका विवरण मुहूर्त चिन्तामणि के संस्कार प्रकरण के श्लोक ५० वें में इस प्रकार है
विद्यानिरतः शुभराशिलवे, पापांशगते हि दरिद्रतरः ।
चन्द्रे स्वलवे बहुदुःखयुःत कर्णादितिभे धनवान् स्वलवे ॥ यदि चन्द्रमा किसी भी राशि के शुभग्रहराशि नवांश में हो तो यज्ञोपवित संस्कार प्राप्त करने वाला बटु विद्यावान होता है और पापग्रहनवांश में यदि चन्द्र की स्थिति हो तो वह बटु अत्यन्त ही दरिद्र होता है। यदि चन्द्रमा स्वराशि (कर्क के) के नवांश में हो तो बटु को अनेकों कष्ट भोगने पड़ते हैं। परन्तु यदि चन्द्रमा की स्थिति स्वनवांश में होने पर भी यदि उस दिन श्रवण या पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह व्रती वेदशास्त्र-धनधान्य-समृद्धिमान् होता है। इस विषय में नारद ने कहा है
श्रवणादितिनक्षत्रे कांशस्थे निशाकरे ।
तथा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमान् ॥ आत्मछायोपरि इष्टघटीज्ञान- (बालबोध ज्योतिस्सार समुच्चय)
छायापादै रसोपेतैरेकविंशाच्छतं भजेत् ।
लब्धांके घटिका ज्ञेयाः शेषांके च पलाः स्मृताः ॥ अर्थ - दिन के समय में यदि इष्टघटीपल ज्ञात करने हों तो स्वयं के शरीर की छाया को स्वयं के कदमों से नापकर उस संख्या में छ: जोड़कर उनका १२१ में भाग दें, जो लब्धांक आवें वे घटी और शेषांक रहें उन्हें पल जानें। रात्रि में इष्ट घटी ज्ञान – (बा.बो.ज्यो.सा. समुच्चय)
सूर्यभादभ्रमध्यस्थं सप्तोनं खाश्विभिर्हतम् ।
नवभिस्तु हरेद्भागं रात्रेः स्युर्गतनाडिकाः ॥ रात्रि में यदि इष्टघटीपल ज्ञात करने हों तो उस समय आकाश के मध्य में जो नक्षत्र हो, सूर्य के महानक्षत्र से उस नक्षत्र तक गणना करें, जो संख्या आवे उसमें से सात घटाएँ शेष को २० से गुणा कर उसमें ९ का भाग दें जो लब्धि हो उसे सूर्यास्त के बाद की गतघटी जाने उनमें दिनमान जोड़ने पर सूर्योदयात् इष्टघटी ज्ञात होगी। इति श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाबविजय संगृहीते
___-मुहूर्तराजे प्रथमं शुभाशुभप्रकरणं समाप्तम्
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८६ ]
लग्न लाने की विधि
(२) अथ लग्नशुद्धि-प्रकरण
यत्सूर्यराश्यंशसमानकोष्ठे घट्यादिकं स्वेष्टघटीयुतं च । ततुल्यघट्यादि भवेत्तु यत्र तत्तिर्यगूर्ध्वाङ्कमितं हि लग्नम् ॥
अन्वय - सूर्यराश्यंशसमानकोष्ठे यत् घट्यादिकं (तत्) स्वेष्टघटीयुतं कुर्यात् तत्तुल्यघट्यादि (लग्नसारणौ ) यत्र भवेत् तत्तिर्यगूर्ध्वाङ्कमितं लग्नम् हि ।
-
अर्थ
जिस समय लग्न ज्ञात करना हो उस दिन के सूर्यराशि अंश के अनुसार लग्न सारणी में देखकर जो घटीपल आवे उनमें उस समय की इष्टघटीपलों को जोड़कर उसके समान घट्यादि पुनः लग्नसारणी में देखें, बाई ओर जो अंक आवे वह लग्न की राशि और ऊपर की ओर जो अंक हो उसे लग्न के अंश समझें ।
लग्नस्थितिमान - ( शी. बो)
लग्नराशि
घ.
स्थितिमान प.
तिस्रो मीने च मेषे च घटयः चतस्त्रश्च वषे कुम्भे पलाः मिथुने मकरे पंच घटिकाः
पंच कर्के च चापे च शशिवेदाः पलाः स्मृताः ॥
कन्यायां च तुले पंच घटिका पंच सिंहेऽलौ एवं लग्नप्रमाणं स्यात्
अर्थ - देशान्तर रेखाओं के अनुसार भिन्न-भिन्न स्थानों की पलमाएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं । उन पलमाओं से जो चरखण्ड होते हैं, वे भी भिन्न-भिन्न ही होते हैं। उन चरखण्डों को लंका के लग्नों के मान में ऋण धन करने पर उस स्थान के चरखण्ड आते हैं। ऊपर जो शीघ्रबोध के श्लोक अंकित किये गए हैं और लग्नों के मान बताए हैं, वहाँ के चरखण्ड ये हैं-५३, ४३, १८ इनको लंकादयमानों (२७८, २९९, ३२३, ३२३, २९९, २७८) में से तीन स्थानों पर घटाने और तीन स्थानों पर जोड़ने से उपयुक्त स्थान लग्नों की स्थिति की पलें हुईं - २२५, २५६, ३०५, ३४१, ३४२, ३३१ इनको घटी पलों में परिवर्तित करने पर मेषादि मीनान्त लग्नों का घटी पलालक मान जो आया वही ऊपर के श्लोकौं में प्रदर्शित किया गया है। स्पष्टतया समझने के लिए सारणी देखें
- लग्न स्थितिमान ज्ञापक सारणी
मिथु.
मेष
३
४५
वृष
४
१६
५
५
पंचश्रुती पलम् । प्रोक्तास्तु षोडश ॥ विशिखाः पलम् ।
पलाः चन्द्रस्तथाग्नयः । द्विवेदाश्च पलाः स्मृताः ॥ कथितं पूर्वसुरिभिः ॥
५
४१
कर्क सिंह कन्या तुला वृश्चि. धनु मकर कुंभ मीन
५
४२
५
३१
५
३१
=
[ मुहूर्तराज
५
४२ ४१
५
5
५
४
१६
ܚ
३
४५
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मुहूर्तराज ]
[८७ लग्ननवांश ज्ञान-(आ.सि.)
नवांशाः स्युरजादीनामजैणतुलकर्कतः ।
वर्गोत्तमाश्चरादौ ते प्रथमः पञ्चमोऽन्तिमः ॥ अन्वय - अजादीनाम् राशीनाम् अजैणतुलकर्कत: नवांशाः स्युः ते च चरादौ (चरस्थिरद्विस्वभावादिषु राशिषु) प्रथमः पञ्चमः अन्तिमः (नवमः) वर्गोत्तमाः स्युः। . अर्थ - मेषादि राशियों के क्रमश: मेष, मकर, तुला और कर्क से प्रारम्भ होने वाले नवांश होते हैं। चर राशियों में (मेष, कर्क, तुला, मकर) आदि नवांश स्थिरराशियों में (वृषभ, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) पञ्चम नवांश तथा द्विस्वभाव राशियौं में (मिथुन, कन्या, धन और मीन) अन्तिम नवांश वर्गोत्तम कहलाते हैं। नवांशों की प्रधानता-(आ.सि.टी.)
लग्ने शुभेऽपि यद्यशः क्रूरः स्यान्नेष्टसिद्धिदः ।
लग्ने क्रूरेऽपि सौम्यांशः शुभदोंऽशो बली यतः ॥ __ अन्वय - लग्ने शुभेऽपि यदि अंश: (नवांश:) क्रूरः (क्रूरग्रहस्य) स्यात् तदा सः इष्टसिद्धिदः न भवति। किन्तु लग्ने क्रूरेऽपि यदि सौभ्यांश: (सौम्यग्रहीयनवांश:) स्यात्तदा सः शुभद: यतः अंश: (नवांश) बली (भवति)
अर्थ - लग्न के शुभग्रहीय होते पर भी यदि लग्न के अंश क्रूरग्रहीय हो तो वह इष्टसिद्धि देने वाला नहीं होता। परन्तु यदि लग्न क्रूर हो और उसके अंश शुभग्रहीय हो तो वह लग्न शुभदायी माना गया है, क्योंकि नवांश ही प्रधान अथवा बलवान् होता है। कुण्डली के बारह स्थानों के नाम- (आ.सि.)
लग्नाद् भावास्तनद्रव्यभातृबन्धुसुतारयः ।
- स्त्रीमृत्यु धर्मकर्मायव्ययाश्च द्वादश स्मृताः ॥ ___ अर्थ :- कुण्डलीगत बारह भावों के नाम हैं- १ तनु २ द्रव्य ३ भ्रातृ ४ बन्धु ५ सुत ६ अरि ७ स्त्री ८ मृत्यु ९ धर्म १० कर्म ११ आय १२ व्यय। भावों की केन्द्रादि संज्ञाएं- (आ.सि.)
केन्द्र चतुषय कण्टक नामानि वपुः सुखास्तदशमानि ।
स्युः पणफरादि परतः तेम्योऽप्यापोक्लिमानीति ॥ वपुः (लग्नम्) सुखास्तदशमानि (चतुर्थसप्तमदशमभावाः) केन्द्र चतुष्टय कंटक नामानि (केन्द्रचतुष्टय कंटक संज्ञकाः) सन्ति। परत: (द्वितीयपञ्चमाष्टैकादशभावाः) पणफरादि (पणफर संज्ञाः) सन्ति तेम्योऽपि परत: (तृतीय षष्ठनवमद्वादशभावाः) आपोक्लिमानि (आपोक्लिमनामका) भवन्ति।
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________________
८८ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - प्रथम चतुर्थ सप्तम और दशम भाव के नाम केन्द्र चतुष्टय और कंटक है। द्वितीय पञ्चम अष्टम और एकादश भाव का नाम पणफर है तथा तृतीय षष्ठ नवम और द्वादश भाव का नाम आपोक्लिम है।
-भाव-केन्द्रादिसंज्ञा ज्ञापक सारणी
भाव →
२
संज्ञाएँ →
१-केन्द्र २- कंटक ३- चतुष्टय
पणफर
आपोक्लिम
१-केन्द्र २-कण्टक ३- चतुष्टय
आपोक्लिम
पणफर
१-केन्द्र २-कण्टक ३-चतुष्टय
hinh
आपोक्लिम
طملالا
१-केन्द्र २-कण्टक ३-चतुष्टय
आपोक्लिम
ग्रहराशिस्थितिमान-(आ.सि.टी.)
मासं रविबुधशुक्राः सार्धं भौमः त्रयोदशाचार्यः ।
त्रिंशन्मंदोऽष्टादश राहुः चन्द्रः सपाददिवसयुगम् ॥ अर्थ - रवि, बुध और शुक्र किसी भी राशि पर सामान्यतः १ मास, मंगल १ - मास, गुरु १३ मास, शनि ३० मास, राहु १८ मास तथा चन्द्रमा सवा दो दिन तक रहते हैं। ग्रहों की उच्च नीच एवं मूलत्रिकोण राशियाँ अंशों सहित- (आ.सि.)
अर्काधुच्चान्यजवृषमृगकन्याकर्कमीनवणिजोंऽ शैः ।
१ - २-१० - ६-४- १२ - ७ दिग्दहनाष्टाविंशति तिथीषुनक्षत्रविंशतिभिः ॥ १०-३ - २८ - १५-५-२७ - २० स्वोच्चतः सप्तमं नीचं त्रिकोणान्यथ भानुतः । सिंहोक्षमेषप्रमदा धनुर्धटघटाः क्रमात् ॥
कन्या राहुगृहं प्रोक्तम् राहूच्चं मिथुनः स्मृतः ।
राहुनीचं धनुर्वर्णादिकं शनिवदस्य च ॥ अर्थ - सूर्यादिग्रहो की उच्च राशियाँ क्रमश: मेष, वृष, मकर, कन्या, कर्क, मीन और तुला क्रमश: १०, ३, २८, १५, ५, २७ और २० अंशों वाली हैं। अपनी उच्च राशि से सातवीं राशि नीच स्थानीय है तथा सूर्यादिकों की मूल त्रिकोण राशियाँ क्रमशः ५, २, १, ६, ९, ७ और ११ हैं। राहु कन्या राशि का स्वामी है इसकी उच्च राशि मिथुन तथा नीच राशि धनु है तथा इसका वर्णादि शनि के ही समान हैं।
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मुहूर्तराज ]
ग्रह →
स्वराशि
उच्चराशि
नीच राशि
- ग्रहस्वराशि-उच्च-राशि-नीचराशि मूलत्रिकोण राशि ज्ञापक कोष्ठक -
सूर्य
मंगल
शुक्र
शनि
मेष
सिंह
वृष
वृश्चिक
तुला
मेष
१० अं.
तुला
१० अं.
सिंह
चन्द्र
कर्क
वृषभ
३ अं.
वृश्चिक
३ अं.
मूल त्रिकोण
ग्रहों के उच्चत्व और नीचत्व का प्रयोजन
मकर
२८ अं.
वृषभ
कर्क
२८ अं.
मेष
बुध
मिथुन
कन्या
कन्या
१५ अं.
मीन
१५ अं.
कन्या
गुरु
धनु
मीन
कर्क
५ अं.
मकर
५ अं.
धनु
मीन
२७ अं.
कन्या
२७ अं.
तुला
मकर
कुंभ
तुला
२० अं.
इक्को जइ उच्चस्थो हवइ गहो किं पुण बे तिन्नी गहा एकोऽपि खेटो यदि तुंगसंस्थः
उन्नई परं कुणइ कुणंति इत्थ संदेहो । उत्कृष्टमौन्नत्यमयं करोति ॥
द्वौ वा त्रयो वा खचरा अथोच्चाः तदा पुनः किं कथनीयमत्र । उच्चैर्नृपः पञ्चभिरर्धचक्री चक्री षडुच्चैर्मुनिभिस्तथार्हत् ॥
त्रिभिर्नीचैर्भवेद्दासः
मेष
२० अं.
कुम्भ
अन्धं दिगम्बरं मूर्ख परपिण्डोपजीविनम् । कुर्यातामतिनीचस्थौ पुरुषं चन्द्रभास्करौ ॥
त्रिभिरुच्चैर्नराधिपः । त्रिभिरस्तमितैर्जडः ॥
राहु
[ ८९
कन्या
त्रिभिः
स्वस्थानगैर्मन्त्री
अर्थ - यदि एक भी ग्रह उच्चराशीय हो तो वह उस व्यक्ति की परम उन्नति करता है । फिर यदि दो अथवा तीन ग्रह उच्चस्थ हों तो क्या कहना।
मिथुन
धनु
जिसके जन्मकाल में ५ ग्रह उच्च राशि के हों तो वह राजा अथवा अर्धचक्री, यदि छः ग्रह उच्चराशिस्थ हों तो चक्री और ७ ग्रह उच्च राशिगत हों तो वह अर्हत् बनता है।
यदि तीन ग्रह नीचराशिस्थ हों तो वह दास और तीन उच्चराशीय हों तो नराधिप, तीन ग्रह स्वराशि के हों तो मन्त्री और तीन ग्रह अस्त हों तो वह जड़ बनता है।
और भी
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________________
९० ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - जिस पुरुष के जन्म समय में अत्यन्त ही नीच राशि तथा अंशों पर सूर्य (तुला राशि के १० अंशों पर) चन्द्र (वृश्चिक राशि के ३ अंशों पर) हों तो ये दोनों ग्रह उस जातक को अन्ध, नंगा, मूर्ख, पराये के अन्न पर जीने वाला करते हैं। ग्रहों के वर्ण
रक्तश्यामो भास्करो गौर इन्दुः , नात्युच्चाङ्गो रक्तगौरश्च वक्रः । दूर्वाश्यामो ज्ञो गुरुगौरगात्रौs ,
श्यामः शुक्रः भास्करिः कृष्णदेहः ॥ सूर्य का वर्ण लाल सांवला, चन्द्रमा का गोरा, मंगल मध्यम कद वाला तथा उसका वर्ण लाल गोरा होता है। बुध का वर्ण दूर्वा के समान, गुरु गौरवर्ण, शुक्र शुक्ल वर्ण और शनि का वर्ण काला है। ग्रहों की स्थानों पर दृष्टियाँ - (मु.चि.वि.प्र. ७४ वें श्लोक की टीका) “वराह"
दशमतृतीये नवपञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्रं च । पश्यन्ति पादवृद्ध्या फलानि चैवं प्रयच्छन्ति ॥ पूर्णं पश्यति रविजः, तृतीयदशमे त्रिकोणमपि जीवः ।
चतुरस्रं भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकराः कलत्रं च ॥ अर्थ - प्रत्येक ग्रह अपने स्थितिस्थान से दसवें और तीसरे स्थान को एकपाददृष्टिसे नवें और पाँचवें स्थान को द्विपाददृष्टि से, चौथे और आठवें स्थान को त्रिपाददृष्टि से तथा सष्टम स्थान को पूर्ण दृष्टि से देखता है।
शनि दशम और तृतीय स्थान को, गुरु नवम और पंचम स्थान को तथा मंगल चतुर्थ और अष्टम स्थान को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। तथा शुक्र, सूर्य, बुध और चन्द्रमा सष्टम स्थान को ही पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। क्रूर और सौम्यग्रह
सूर्यभौमशनिराहुकेतवः, पापसंज्ञखचराः क्षयिचन्द्रः ।
पूर्णचन्द्रगुरुशुक्रसोमजाः सर्वकर्मसु हि सौम्यखेचराः ॥ अर्थ - सूर्य, मंगल, शनि, राहु, केतु और क्षीण चन्द्रमा ये पापग्रह कहलाते हैं तथा पूर्णचन्द्र, गुरु, शुक्र और बुध को सभी कार्यों में सौम्य ग्रह कहते हैं। भावबलाबलज्ञान - (आ.टी.)
यो यो भावः स्वामिदृष्टो युतो वा सौम्यैर्वास्यात् तस्य तस्यास्ति वृद्धिः । पापैरेवं तस्य तस्यास्ति हानिर्निदेष्टव्या पृच्छतां जन्मतो वा ॥
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मुहूर्तराज ]
[९१
अर्थ - जन्म अथवा प्रश्न कुण्डली में जो जो भाव स्वस्वामि द्वारा देखा गया हो अथवा युक्त हो अथवा सौम्यग्रहों से युक्त हो उस-२ भाव की वृद्धि होती है। तथा जो २ भाव पापग्रहों से युक्त या दृष्ट हो उस २ भाव की हानि होती है। लग्नशुद्धि (समस्त शुभ कृत्यों में) (मु.चि.म.प्र. ४४वाँ श्लोक)
व्ययाष्टशुद्धोपचये लग्नगे शुभदृग्युते ।
चन्द्रे त्रिषड्दशायस्थे सर्वारम्भः प्रसिद्ध्यति ॥ अन्वय - व्ययाष्टशुद्धोपचये लग्नगे शुभदृग्युते, चन्द्रे त्रिषड्दशमायस्थे (सति) सर्वारम्भः प्रसिद्ध्यति।
अर्थ - अपनी जन्मराशि अथवा जन्म लग्न से ३, ६, १० और ११ वीं राशि लग्न में हो, बारहवाँ औरै आठवौँ स्थानै शुद्धै हो, अर्थात् वहाँ कोई भी पापग्रह नहीं हो तथा चन्द्रमा ३, ६, १० और ११ वें स्थान में हो तो ऐसे समय में किये गये समस्त शुभ कार्य अवश्यमेव सिद्ध होते हैं। सर्वथा लग्नभंगकर्ता ग्रह- (मु.चि.वि.प्र. श्लोक ८६ वाँ)
व्यये शनिः खेऽवनिजस्तृतीये भृगुस्तनौ चन्द्रखलाः न शस्ताः ।
लग्नेट् कविग्लौश्च रिपो मृतौ ग्लौर्लग्नेट् शुभाराश्च मदे च सर्वे ॥ अन्वय - व्यये शनिः, खे (दशमस्थाने) अवनिज: (भौम:) तृतीये भृगुः तनौ (लग्ने) चन्द्रखला: (चन्द्रमाः पापग्रहाश्च) शता: न (भवन्ति) लग्नेट (लग्नपतिः) कविः (शुक्रः) ग्लौः (चन्द्रः) च रिपौ (षष्ठभावे) (न शस्त:) तथा मृतौ (अष्टम स्थाने) ग्लौः लग्नेट् शुभारा: च (चन्द्रलग्नेशचन्द्रबुधगुरुशुक्र भौमा:) न शस्ता: मदे (सप्तमे) सर्वे न शस्ताः।
अर्थ - लग्नकुण्डली में बारहवें स्थान में शनि, दशमस्थान में मंगल, तृतीय स्थान में शुक्र, लग्न में चन्द्र तथा पापग्रह, षष्ठस्थान में लग्नपति, शुक्र और चन्द्र तथा अष्टम स्थान में चन्द्र, लग्नस्वामी, शुभग्रह (चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र) तथा मंगल और सप्तमस्थान में सभी ग्रह अशुभफलद होते हैं। लग्न में रेखा देने वाले ग्रह – (मु.चि.म.वि.प्र. श्लोक ८७ वाँ)
त्र्यायाष्टषट्सु रविकेतुतमोऽर्कपुत्रास्न्यायारिगः क्षितिसुतो द्विगुणायगोऽब्जः । सप्तव्ययाष्टरहितौ ज्ञगुरु सितोऽष्ट
त्रिधुनषड्व्ययगृहान् परित्य शस्तः ॥ अन्वय - रविकेतुतमोऽर्कपुत्रा: त्र्यायाष्टषट्सु क्षितिसुतः व्यायारिगः अब्जः द्विगुणायगः, ज्ञगुरु सप्तव्ययाष्टरहितौ, सित: अष्टविद्यूनषडव्ययगृहान् परित्य शस्तः।
अर्थ - सूर्य केतु राहु और शनि ३, ११, ८ और ६ स्थान में स्थित, मंगल ३, ११ और ६ स्थान में स्थित, चन्द्रमा दूसरे तीसरे और ग्यारहवें स्थान में स्थित बुध, गुरु सातवें बारहवें और आठवें स्थान से
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९२ ]
[ मुहूर्तराज अतिरिक्त स्थानों में स्थित, शुक्र ८, ३, ७, ६ और १२ वें स्थान के अतिरिक्त स्थानों में स्थित होने पर रेखाएँ देते हैं।
-ग्रह रेखा स्थान ज्ञापक सारणी
ग्रह →
मंगल
|
बुध
।
शनि
राह
रेखा देने के स्थान
लग्न में निषिद्ध ग्रह - (मु.चि.वि.प्र. श्लोक ८६ वें की टीका में) - त्रिविक्रम
त्याज्या लग्नेऽब्धयो मन्दात् षष्ठे शुक्रेन्दुलग्नपाः ।
रन्धे चन्द्रादयः पञ्च सर्वेऽस्तेऽब्जगुरु समौ ॥ अन्वय - मन्दात् अब्धयः (शनिरविचन्द्र भौमा:) लग्ने, शुक्रेन्दुलग्नपाः षष्ठे, चन्द्रादयः पञ्च (चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्राः) रन्ध्रे सर्वे अस्ते त्याज्याः अब्जगुरु स्रमौ (समानफलदातारौ)
अर्थ - शनि, रवि, सोम और मंगल लग्न में, शुक्र चन्द्र और लग्नपति छठे में चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु और शुक्र ८ में, सभी ग्रह सातवें में निविद्ध कहे गये हैं। चन्द्र और गुरु दोनों समफलद हैं। कर्तरी दोष -
लग्नात्पापावृज्वनृजू व्ययार्थस्थौ यदा तदा । कर्तरी नाम सा ज्ञेया मृत्युदारिद्रयशोकदा ॥
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मुहूर्तराज ]
[९३ अन्वय - यदा व्ययार्थस्थौ ऋज्वनृजू (द्वादशस्थः पापग्रह: मार्ग गति: धनस्थ: पापग्रह: वक्रगति:) स्याताम् तदा सा कर्तरी ज्ञेया (एल्नामदोषः)। सा कर्तरी मृत्युदारिद्यशोकदा (भवति) ___ अर्थ - यदि बारहवें स्थान कोई भी पापग्रह मार्गगति होकर स्थित हो और द्वितीयस्थान में कोई पापग्रह वक्रगति होकर स्थित हो तो इस दोष को कर्तरी कहते हैं। लग्नविंशोपका - (मु.चि.वि.प्र. श्लो. ९२वाँ)
द्वौ द्वौ ज्ञभृग्वोः पञ्चेन्दौ, रवौ सार्धंत्रयो गुरौ ।
रामा मन्दागुकेत्वारे साधैंकैकं विशोपकाः ॥ अन्वय - ज्ञभृग्वोः (रेखाप्रदयोः सतोः) द्वौ-द्वौ विंशोपकौ, इन्दौ (रेखादे सति) पञ्च, रवौ (तादृशे) सार्धत्रयो, गुरौ (रेखादस्थाने) रामा: मन्दागुकेत्वारे साधैकैकं विंशोपका: (ज्ञेयाः)
अर्थ - बुध और शुक्र के २-२, चन्द्र के ५ सूर्य के ३॥ गुरु के ३ शनि राहु केतु और मंगल के १॥१॥ विंशोपक होते हैं। ये ग्रह तभी विंशोपक देते हैं, जो कि पूर्व श्लोक “त्र्यायाष्टुषट्सु" के अनुसार रेखादातृ स्थानों स्थित हों। लग्नभंगकारी कर्तरी आदि दोषों का परिहार (मु.चि.वि.प्र. श्लो. सं.)
पापौ कतरिकारको रिपुगृहे नीचास्तगौ कर्तरी । दोषो नैव सितेऽरिनीचगृहगे तत्वष्ठदोषोऽपि न ॥ भौमेऽस्ते रिपुनीचगे नहि भवेद् भौमोऽष्टमो दोषकृत् ।
नीचे नीचनवांशके शशिनि रिःफाष्टारिदोषोऽपि न ॥ अन्वय - (यदा) कर्तरीकारको (पूर्वपद्यप्रकारेण कर्तरीदोषप्रदौ) पापौ रिपुगृहे नीचास्तगौ वा (स्याताम्) तदा कर्तरीदोषो न (भवति) एवं यदि सिते (शुक्रे) अरिनीचगृहगे (स्वकीयशत्रु नीच-राशिगते) तत्वष्ठदोषः अपि (शुक्रस्य षष्ठस्थानस्थितस्य दोषः अपि) न, भौमे च अस्ते रिपुनीचगे सति स: अष्टमो भौम: दोषकृत न (भवति) तथा च शशिनि (चन्द्रे) नीचे (स्वनीचराशौ) नीचनवांशके वा स्थिते तदा तस्य रि:फाष्टारिदोषः अपि न (भवति)
___ अर्थ - यदि कर्तरीदोषकारक ग्रह स्वशत्रुग्रह की राशि में स्थित हों, अथवा स्वनीचराशि में या अस्त हों तो कर्तरीदोष नहीं लगता। इसी प्रकार यदि षष्ठ स्थान में स्थिति से उत्पन्न दोष भी नहीं लगता। तथा अष्टमस्थान में स्थित मंगल भी यदि अस्त रिपुराशिस्थ अथवा नीचराशिस्थ हो तो वह दोष कारक नहीं है।
और चन्द्रमा यदि १२, ८ और ६ स्थानों में से कहीं पर भी नीचराशीय अथवा नीचग्रह के नवांश का हो तो उस चन्द्रमा का भी दोष प्रभावी नहीं होता।
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लाभ
९४ ]
[ मुहूर्तराज उक्त एवं अनुक्त अनेकों दोषों के अनेक परिहार (मु.चि.वि.प्र. श्लोक ९०वाँ)
केन्द्रे कोणे जीव आये रवौ वा ।
लग्ने चन्द्रे वापि वर्गोत्तमे वा ॥ सर्वे दोषा नाशभायान्ति चन्द्रे ।
तद्वदुर्मुहूर्ताशदोषाः ॥ । अन्वय - केन्द्रे कोणे वा जीवे, आये वा रवौ, लग्ने चन्द्रे वा वर्गोत्तमे तद्वद् चन्द्रे लाभे (एकादशस्थानगे) दुर्मुहूर्ताशदोषाः इत्यादिसर्वे दोषाः नाशमायान्ति।
अर्थ - केन्द्र अथवा ५-९ स्थान में गुरु के रहते ११ वें सूर्य के रहते लग्नराशि के स्वनवांश में (यथा मेष में मेष का ही नवांश, वृष में वृष का ही इत्यादि प्रकार से) चन्द्र के भी अथवा स्वनवांश राशि में रहते और इसी प्रकार चन्द्र के एकादश स्थान में रहते सभी दुर्मुहूर्तादि एवं दुष्टग्रहनवांशादि तथा अन्य भी अनेक दोष नष्ट हो जाते हैं।
सामान्यतः अनेक दोष परिहार – (मु.चि.)
त्रिकोणेकेन्द्रे वा मदनरहिते दोषशतकम् । हरेत्सौम्यः शुक्रो द्विगुणमपि लक्षं सुरगुरुः ॥ भवेदायेकेन्द्रेऽगप उत लवेशो यदि तदा ।
समूहं दोषाणां दहन एवं तूलं शमयति ॥ अन्वय - त्रिकोणे (नवमपंचमयोः स्थानयोः) मदनरहिते केन्द्रे (प्रथमचतुर्थदशमस्थानेषु) वा यदि सौम्यः (बुधः) तदा (स: बुधः) दोत्रशतकं, एवं प्रकारकः शुक्रः द्विगुणम् (दोषाणां द्वे शते) सुरगुरुः लक्षं (दोषाणाम्) शमयति। तथा च अंगपः (लग्नेश:) उत: लवेश: (लग्ननवांशराशिपतिः) यदि आये केन्द्रे वा तदा सोऽपि दोषाणां समूह तथा शमयति यथा दहनः (अग्निः) तूलं (कार्पासराशियम्) शमयति (दहति)।
अर्थ - यदि त्रिकोण में (९-५) अथवा सप्तमस्थान को छोड़कर केन्द्र में (१, ४, १०) बुध स्थित हो तो वह सौदोषों को शुक्र दो सौ दोषों को, गुरु लाख दोषों को मिटाता है। तथैव यदि लग्नपति अथवा लग्ननवांश पति आयस्थान में ११ वें में स्थान अथवा केन्द्र में हो तो भी वह दोष समूह को इस प्रकार नष्ट करता है, जिस प्रकार अग्नि कपास के ढेर को जला डालती है। इतिश्री सौधर्मबृहत्तपो गच्छीय श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाब विजय संगृहीते
मुहूर्तराजे द्वितीय शुद्धि प्रकरण समाप्तम्
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मुहूर्तराज ]
[९५
(३) अथ आवश्यक मुहूर्तप्रकरणम् प्रारभ्यते
शान्तिकपौष्टिक कृत्य मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. ३४ वाँ)
क्षिप्रधुवान्त्यचरमैत्रमधासु शस्तम् । स्याच्छान्तिकं च सह मंगलपौष्टिकाभ्याम् ॥ खेऽर्के विधौ सुखगते तनु गुरौ नो । मौढ्यादिदुष्टसमये शुभदं निमित्ते ॥
अन्वय - क्षिप्रध्रुवान्त्यचरमैत्रमधासु मंगलपौष्टिकाभ्यां सह शान्तिकं (पौष्टिकं मंगलं शान्तिकं च) स्यात्। अथ लग्नशुद्धिः - तत्र अर्के खे (दशमस्थाने) विधौ सुखगते (चतुर्थस्थे) गुरौ तनुगे (लग्नगते) मौढ्यादिदुष्टसमये निमित्तेऽपि नः (अस्मभ्यम्) शुभदम् भवति।
अर्थ - क्षिप्रसंज्ञक (हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजित्) ध्रुव संज्ञक (रोहिणी, उ.फा., उ.षा. और उत्तरा भाद्रपद) अन्त्य (रेवती) मैत्र (अनुराधा) और मघा इन नक्षत्रों में पौष्टिक, मांगलिक (विनायक शान्त्यदिक) और शान्तिक (दुष्टफलदमूलनक्षत्रशान्त्यादि) कर्म करने चाहिएं। इन कार्यों में गुरु व शुक्र का अस्त बाल्य वार्धक्य आदि दोष तथा गुरु का सिहंस्थादि दोष और गुर्वादित्य दोष भी नहीं लगता एवं च ये कार्य (पौष्टिक मंगल एव शान्तिक) केत्वादिउत्पातदर्शन में भी हमारे लिए शुभफलदायी ही होते हैं। अक्षरारंभमुहूर्त - (मु.चि.सं.प्र. श्लोक ३७ वाँ)
गणेशविष्णुवाप्रमाः प्रपूज्य पंचमाब्दके । तिथौ शिवार्कदिद्विषट्छरत्रिके रवावुदक् ॥ लघुश्रवोऽनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे ।
चरोनसत्तनौ शिशोर्लिपिग्रहः सतां दिने ॥ अन्वय - पंचमाब्दके (प्रारब्धे) गणेशविष्णुवाग्रमाः प्रपूज्य, शिवार्कदिद्विषट्छरत्रिके तिथौ, रवौ उदक् (उत्तरायणगते) लघुभावोऽनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे चरोनसत्तनौ सतां दिने शिशो: लिपिग्रहः (कार्यः)
अर्थ - बालक को पाँचवाँ वर्ष लगते ही गणपति, विष्णु, सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा करके एकादशी, द्वादशी, दशमी, द्वितीया, षष्ठी, पश्चमी और तृतीया इनमें से किसी तिथि को, रवि के उत्तरायण में, हस्त, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, स्वाती, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चित्रा और अनुराधा इन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र में सोम, बुध, गुरु और शुक्र में से किसी एक वार को मेष, कर्क, तुला और मकर इन चारों राशियों के लग्नों को छोड़कर शुभस्वामी वाले (वृष, मिथुन, कन्या, धनु, मीन) लग्नों में से किसी एक लग्नकाल में शिशु को अक्षरारम्भ कराना चाहिए।
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९६ ]
[ मुहूर्तराज
अक्षरारम्भ मुहूर्त के विषय में - मार्कण्डेय
पूजयित्वा हरिं लक्ष्मी देवीं चैव सरस्वतीम् । स्वविद्यासूत्रकारांश्च स्वांच विद्यां विशेषतः ॥ प्राप्ते तु पंचमे वर्षे, ह्यप्रसुप्ते जनार्दने । षष्ठी प्रतिपदं चैव वर्जयित्वा तथाष्टमीम् ॥ रिक्तां पञ्चदशीं चैव सौरिभौमदिने तथा । एवं सुनिश्चिते काले विद्यारंभं तु कारयेत् ॥
अन्वय - पञ्चमे वर्षे प्राप्ते हरिं लक्ष्मी सरस्वती देवीम् स्वविद्यासूत्रकारान् विशेषतः स्वां विद्याम् पूजयित्वा, हरिशयनमासचतुष्टमम् षष्ठी, प्रतिपदं, अष्टमीम्, रिक्ताम् (४, ९, १४) पञ्चदशीम् (पूर्णिमाम्) सौरिभौमदिने (शनिभौमवारौ) वर्जयित्वा एवं सुनिश्चिते काले (शिशो:) विद्यारंभम् (अक्षरारंभम्) कारयेत्।
अर्थ - शिशु को जब पाँचवाँ वर्ष प्रारम्भ हो जाय तब भगवान विष्णु, लक्ष्मी, सरस्वती, स्वाविद्यासूत्रकारों एवं स्वविद्यादेवी की पूजा करके जबकि भगवान् विष्णु का शयनकाल न हो अर्थात् वृश्चिक से मिथुन राशि तक सूर्य के रहते, षष्ठी, प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा को शनि और मंगलवार को छोड़कर शेष तिथियों एवं वारों में से किसी एक वार- तिथि को शिशु को अक्षरारंभ कराना चाहिए।
विद्यारंभ मुहूर्त (वि.चि.सं.प्र. श्लोक ३८ वाँ)
मृगात्कराच्छू तेस्त्रयेऽश्विमूलपूर्विकात्रये ।
गुरुद्वयेऽर्कजीववित्सितेऽह्नि षट्शरत्रिके ॥ शिवार्कदिद्विके तिथौ धुवान्त्यमित्रभे परैः ।
शुभैरधीतिरुत्तमा त्रिकोणकेन्द्रगैःस्मृता ॥ अन्वय - मृगात्त्रये (मृगशिरआ पुनर्वसुषु) करात्त्रये (हस्तचित्रास्वातीषु) श्रुतेस्त्रये (श्रवण धनिष्ठाशततारकासु) अश्विमूलपूर्विकात्रये गुरुद्वये (पुष्याश्लेषयोः) अर्कंजीववित्सितेऽह्नि) (सूर्यगुरुबुधशुक्राणामन्यतमे दिवसे) षट्छरत्रिके (षष्ठीपञ्चमीतृतीयासु) शिवार्कदिद्विके (एकादशीद्वादशीदशमीद्वितीयासु) आसु अन्यतमायां तिथौ तथा च शुभैः (शुभग्रहै:) केन्द्रत्रिकोणगैः (१, ४, ७, १०, ९, ५ स्थानानामन्यतमस्थानगतैः) सद्भिः अधीतिः (अध्ययनम्) उत्तमा स्मृता। परैः कैचिद् आचार्यै: ध्रुवान्त्यमित्रभे (उत्तरात्रयरोहिण्यनुराधासु अघीतिः (धनुर्विद्याध्ययनम्) उत्तमा स्मृता।
अर्थ - मृगशिर, आर्द्रा, पुनर्वसु, चित्रा, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा, शत, भिषा, अश्विनी, मूल, पू.फा., पू.षा., पू. भा., पुष्य और आश्लेषा इनमें से किसी एक नक्षत्र को सूर्य, बुध, गुरु और शुक्र इनमें से किसी एक वार को ६, ५, ३, ११, १२, १० और २ इन तिथियों में से किसी एक तिथि को तथा
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मुहूर्तराज ]
[९७ केन्द्र एवं त्रिकोण में (१, ४, ७, १०, ९ और ५ स्थानों में) शुभ ग्रहों के रहते बालक को विद्यारम्भ कराना श्रेष्ठ माना है। कुछ एक आचार्यों में जो उत्तरा फा.उ.षा.उ.मा. और अनुराधा इन चार नक्षत्रों को अध्ययन के लिए मान्यता दी है, उनका यह कथन धनुर्विद्याविशेष के अध्ययन के लिए है, अन्य के लिए नहीं।
विद्यारंभ के विषय में श्रीपति -
मृगादिपञ्चस्वपि भेषु मूलेहस्तादिके च त्रितयेऽश्विनीषु ।
पूर्वात्रये च श्रवणे च तद्वविद्यासमारम्भमुशन्ति सिद्धयै ॥ अन्वय - मृगादिपञ्चसु, मूले, हस्तादिके, त्रितये, अश्विनीषु, पूर्वात्रये, तद्वद् च श्रवणे (श्रवणत्रये) (आचार्याः) विद्यासमारंभ सिद्धयै उशन्ति।
अर्थ - मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मूल, हस्त, चित्रा, स्वाती, अश्विनी, पू.फा., पू.षा., पू.भा., श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा इन नक्षत्रों में से किसी भी एक नक्षत्र के दिन शिशु को विद्यासमारंभ कराने से सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा आचार्यों का कथन है। इसी विषय में रत्नमालाकार का मत
विद्यारंभः सुरगुरुसितज्ञेष्वभीष्टार्थदायी । कर्तुश्चायुश्विरमपि करोत्यंशुमान् मध्यमो वा ॥ नीहाराशौ भवति जडता पञ्चता भूमिपुत्रे ।
छायासूनावपि च मुनयः कीर्तयन्त्येवमाद्याः ॥ अन्वय - सुरगुरुसितज्ञेषु विद्यारंभः अभीष्टार्थदायी कर्तुः आयुः अपि चिरं करोति, अंशुमान, मध्यमः (मध्यमफलदायी) नीहारांशौ (विद्यासमारंभकरणे) तत्कर्तुः जडता भवति, भूमिपुत्रे पञ्चता (भवति) छायासूनौ अपि आद्या: मुनयः एवमेव कीर्तयन्ति।
अर्थ - गुरु, शुक्र और बुध को विद्यारंभ करना इष्टफलदायी है तथा अध्ययनकर्ता की दीर्घायु होती है। विद्यारंभ के लिए रविवार मध्यमफलदायी है। चन्द्र के दिन आरंभ करने से छात्र में जड़ता आती है, तथा मंगल को विद्यारंभ करना मृत्युदायक अथवा मृत्यु तुल्य कष्टदायक है। इसी प्रकार शनि के दिन भी विद्यारंभ करने पर आचार्यों ने अध्ययनकर्ता की मृत्यु का निर्देश किया है। विद्यारंभ में लग्नशुद्धि - (मु.चि.सं.प्र. श्लो ३८ की टीका में नृसिंह)
शुभाः पापाश्च रन्ध्रस्थाः सर्वे नेष्टाः सदा ग्रहाः । भ्रातृषष्ठायकर्मस्थाः पापाः सर्वे शुभावहाः ॥ शुभाः केन्द्रत्रिकोणस्थाः धनभ्रातृगताः शुभाः । सर्वे लाभे प्रशस्ताः स्युरक्षरग्रहणे शिशोः ॥
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९८ ]
[ मुहूर्तराज ___ अन्वय - शुभाः पापा: च सर्वे ग्रहाः रन्ध्रस्था: (अष्टमस्थानस्थिता:) सदा शिशो: अक्षरग्रहणे (विद्यारंभकर्मणि) नेष्टा: (अनिष्टफलदा:) भवन्ति सर्वे पापा: भ्रातृषष्ठायकर्मस्थाः शुभावहाः सर्वे शुभाः च केन्द्रत्रिकोणस्थाः तथा च धनभ्रातृगताः शुभाः (शुभदाः) सर्वे (शुभग्रहा: पापग्रहाः च) लाभे (एकादशस्थाने) प्रशस्ताः श्रेष्ठफलदाः स्युः। ___ अर्थ - बालक के विद्यारंभ की लग्नकुण्डली में शुभ अथवा पापग्रह अष्टमस्थान में अनिष्टफलदायी होते हैं। पापग्रह तृतीय, षष्ठ, एकादश और दशमस्थान में शुभद हैं और शुभ ग्रह केन्द्र (१,४,७,१० स्थानों में) त्रिकोण (९, ५ स्थानों में), द्वितीय, तृतीय स्थानों में स्थित शुभकारक हैं। किन्तु एकादशस्थान में शुभ एवं पापग्रह श्रेष्ठ फल ही देते हैं। दीक्षा मुहूर्त – (आ.सि.)
दीक्षायां त्वाश्विनादित्यवारुणश्रुतयः शुभाः ।
त्रिषु मैत्रं करं स्वाती मूलः पौष्णं ध्रुवाणि च ॥ अन्वय - दीक्षायां तु आश्विनादित्यवारुणश्रुतयः (अश्विनीपुनर्वसुशतभिषक् श्रवणनक्षत्राणि) (शुभावहा:) त्रिषु (दीक्षायां प्रतिष्ठायां विवाहे च) मैत्रं, करं, स्वाती, मूलः, पौष्णम्, ध्रुवाणि (रोहिण्युत्ररात्रये) च (शुभकराणि नक्षत्राणि सन्ति)। ___ अर्थ - दीक्षा में तो अश्विनी, पुनर्वसु, शतभिषक् और श्रवण ये नक्षत्र शुभ हैं तथा दीक्षा, प्रतिष्ठा और विवाह में अनुराधा, हस्त, स्वाती, मूल, रेवती तथा ध्रुवसंज्ञक (रोहिणी, उ.फा., उ.षा., उ.भा.) (नक्षत्र) शुभद होते हैं। दिनशुद्धि आदि ग्रन्थों में पूर्वाभाद्रपद एवं पुष्य को भी दीक्षा कार्य में ग्राह्य माना है यथा- (दि.शु.)
उत्तररोहिणीहत्थाणुराहसयभिसयपुव्वभद्दवया ।
पुस्सं पुणवसु रेवई मूलस्सिणि सवणसाइ वए । अर्थात् तीनों उत्तरा, रोहिणी, हस्त, अनुराधा, शतभिषक्, पूर्वाभाद्रपद, पुष्य पुनर्वसु रेवती मूल अश्विनी श्रवण और स्वाती इतने नक्षत्र व्रत (दीक्षा) में शुभ हैं। तथा च –(दि.शु.)
मृगचित्राधनिष्ठान्यमृदुक्षिप्रचर ध्रुवैः ।
शिष्यस्य दीक्षणं कार्यम्, तथा मूलाजपादयोः ॥ अन्वय - मृगचित्राघविष्ठान्यमृदुक्षिप्रचरध्रुवैः, तथा मूलाजपादयोः शिष्यस्य दीक्षणम् कार्यम्।
अर्थ - मृगशिर, चित्रा और धनिष्ठा को छोड़कर मृदु संज्ञक, चर संज्ञक और ध्रुवसंज्ञक तथा मूल और पू. भाद्रपद इन नक्षत्रों में शिष्य को दीक्षा देनी चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
क्रम सं.
१
२
३
कार्य
प्रतिष्ठा
दीक्षा
विवाह
दीक्षा में लग्नांश राशियाँ
-दीक्षा-प्रतिष्ठा विवाहकर्मग्राह्यनक्षत्रज्ञापक सारणी
(नक्षत्र)
रो; ह, मृ., पुन., पु., म., उ.फा., उ.षा., उ.भा., स्वा., अनु., मू., श्र., ध., रे.
रो., अश्वि, पुन, उ.फा., ह., स्वा., अनु., मू., उषा, श्र, श., उ.भा., रेव.
रो., भृ., म., उ. फा., ह., स्वा., अनु., मू., उ.षा., उ.भा., रेव.
व्रताय राशयो द्वयंगाः स्थिराश्चापि वृषं विना । मकरश्च प्रशस्याः स्युर्लग्नांशादिषु नेतरे ॥
अन्वय :- व्रताय लग्नांशादिषु द्वयङ्गाः (द्विस्वभावाः ) वृषं विना स्थिराः अपि मकरश्च
नेतरे ।
दीक्षालग्न में ग्रहों की श्रेष्ठ स्थिति
अर्थ :- दीक्षा के लग्न में एवं लग्न नवांश में द्वयंग (मिथुन, कन्या, धन, मीन) वृष को छोड़कर स्थिर (सिंह, वृश्चि. कुंभ) और मकर ये राशियाँ शुभ हैं अन्य शुभ नहीं ।
[ ९९
प्रशस्याः स्युः
दीक्षायां तरणिर्धन २ त्रि ३ तनया ५ रि ६ स्थः शशी द्वि २ त्रि ३ षट् ६- व्योम १० स्थ ४, क्षितिभूस्त्रि ३ षड् ६ दशभगो १० ज्ञेज्यौ व्यथा १२ ष्टो ८ ज्झितौ शिक्रोऽन्त्यारि १२, ६ सुत ५ त्रि ३ धर्म ९ धन २ गो मन्दो धन २ भ्रातृ ३ षट् ६ पुत्र ५ छिद्र ८ गतश्च शोभनतमः सर्वे च लाभस्थिता ।
अन्वय - दीक्षायां (दीक्षावसरे) लग्नकुण्डल्याम् तरणि: धनत्रिनयारिस्थ : (लग्नाद् द्वितीय पञ्चमषष्ठस्थानगतः) शशी द्वित्रिषड्व्योमस्थः (लग्नाद् द्वितीयतृतीयषष्ठदशमस्थानगतः ) क्षितिभूः (भौमः ) त्रिषड्दशमगः, ज्ञेज्यौ (बुधगुरु) व्ययाष्टोज्झिपौ ( द्वादशाष्टमस्थानातिरिक्तस्थानगौ १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११ एषु स्थानेषु) शुक्रः अन्त्यारिसुतत्रिधर्मधनगः (द्वादशषष्ठपञ्चमतृतीयनवमद्धितीय स्थानगतः ) मन्दः धनभ्रातृ षटपुत्रच्छिद्रगत: ) (द्वितीयतृतीयषष्ठपंचमाष्टमस्थानगतः) शोभनतम : (भवति) सर्वे च ग्रहाः लाभस्थिता: ( एकादशस्थानगताः) श्रेष्ठफलदाः भवन्ति ।
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१०० ]
[ मुहूर्तराज
अर्थ - दीक्षासमय की लग्नकुण्डली में सूर्य २, ३, ५ और ६ ठे स्थान में स्थित, चन्द्र २, ३, ६ और १० वें स्थान में स्थित, मंगल ३, ६ और १० वें स्थान में, बुध एवं गुरु १२ वें और ८ वें के अतिरिक्त स्थानों में (१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११ स्थानों में) स्थित, शुक्र १२, ६, ५, ३, ९ और २ के स्थान में स्थित, शनि २, ३, ६, ५ और ८ वें स्थान स्थित में तथा सभी ग्रह ( शुभ एवं अशुभ) ११ वें स्थान में स्थित अति श्रेष्ठफलदायी होते हैं। उपर्युक्त स्थानों पर स्थित ये सूर्यादि ग्रह रेखाप्रद होते हैं अतः शुभद है । हर्षप्रकाशादि ग्रन्थों में तो ग्रहों की उत्तमा, मध्यमा एवं अधमा इस प्रकार ३ श्रेणियाँ भी मानी गई हैं।
यथा
दु पण छ रवि, ति दु छ ससी, किंद तिकोणे य गुरु, मंदोदु पण छ अडमो
कूर
सत्तम
चंदाउ रवि ति ससि सत्त दसमो बुलेग चउ सत्त नव सुक्को दु पंच सणि तिय मज्झिम सेसा
गुरु ति छ दो । ससाव्वे ॥
असुह
अर्थ
इस श्लोक में ग्रहों की उत्तमा मध्यमा और अधमा अवस्थाएँ हैं।
-
छ नव
कुज ति छ दह, दुह ति दु छ पण दसमो । सुको ति अ बारसमो ॥ सुक्क विणा अइअसुहा
सविगारसहा सुहया । दिखठसमयाम्मि ॥
(१) दीक्षा के समय में सूर्य लग्न से २, ५ और ६ ठे स्थित, चन्द्र २, ३ या ६ ठे मंगल ३, ६ या १० वें बुध ३, २, ६, ५ या १० वें, गुरु केन्द्र या त्रिकोण में (१,४,७,९, ५) शुक्र ३, ६, ९ या १२ वें स्थित, शनि २, ५, ६ या ८ वें तथा शुक्र के अतिरिक्त शेष समस्त ग्रह ११ वें स्थित उत्तम है। तथा चन्द्र से सप्तमस्थान में रहने वाले क्रूर ग्रह अत्यन्त अशुभ हैं। अब
(२) ग्रहों की मध्यमावस्था कहते हैं- लग्न से तृतीय स्थान में स्थित रवि, सातवें या दशम स्थान में स्थित चन्द्र, पहले, चौथे, सातवें या नवें स्थान में स्थित बुध, तीसरे, छठे या दूसरे स्थान में गुरु, दूसरे या पाँचवें में शुक्र, और तीसरे स्थान में शनि मध्यमबली है तथा अधमावस्था उक्त अवस्था के स्थानों से भिन्न - २ स्थानों में ग्रहों की स्थिति से जाननी चाहिए। इन तीनों अवस्थाओं को जानने के लिए नीचे सारणी दी जाती है, तदनुसार सभ्यक्तया ग्रहों की ये तीनों अवस्थाएँ ज्ञात हो जाती हैं ।
हिंसा - प्रवृत मनुष्य का, तस्कर वृत्ति में आसक्त रहने और परस्त्रीरत व्यक्ति का धर्म, धन, शरीर, इज्जत आदि समस्त गुण नाश हो जाते हैं। सर्व कलाओं में धर्मकला श्रेष्ठ है, सब कथाओं में धर्मकथा श्रेष्ठ है, सब बलों में धर्मबल बड़ा है और समस्त सुखों में मोक्ष सुख सर्वोत्तम है। प्रत्येक प्राणी को मोक्ष सुख प्राप्त करने का सतत् प्रयत्न करना चाहिये, तभी जन्म-मरण का दुःख मिट सकेगा। संसार में यही साधना सर्व श्रेष्ठ साधना है।
- श्रीराजेन्द्रसूरि
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मुहूर्तराज ]
[ १०१
-सूर्यादि ग्रहों की स्थानस्थित्यनुसार उत्तमादि अवस्था ज्ञापक सारणी
उत्तमावस्था के स्थान
मध्यमावस्था के स्थान
अधमावस्था के स्थान
चन्द्र
१, ४, ७, ८, ९, १०, १२
१, ४, ५, ८, ९, १२ १, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२
मंगल
बुध
८, १२
२, ५, ६, ११ २, ३, ६, ११
७-१० ३, ६, १०, ११
- - - २, ३, ५, ६, १०. ११
१, ४, ७, ९ १, ४, ७, १०, ९, ५, ११, २, ३, ६ __ ३, ६, ९, ११
२, ५, ६, ८, ११ ___ ३, ६, ११ | २, ५, ८, ९, १०, १२
शुक्र
२, ५
८, १२ १, ४, ७, ८, १०, ११ १, ४, ७, ९, १०, १२
१, ४, ६
शनि
दीक्षा लग्न में विशेषता-(श्री हरिभद्रसूरि मत से)
"अहवावि मज्झिमबलं काऊण सणिं गुरुं च बलवन्तम् ।
अबलं सुक्कं लग्गे तो दिक्खं दिज्जा सीस्सस ॥" अर्थात् अथवा शनि को लग्न में मध्यमबली बनाकर, गुरु को बलवान् करके और शुक्र को निर्बल बनाकर शिष्य को दीक्षा देनी चाहिए। उपर्युक्त प्राकृत गाथा में कथित शनि की मध्यमबलवत्ता, गुरु की उत्तमता और शुक्र की निर्बलता इस प्रकार से जाननी चाहिए, यथा-दूसरे, पाँचवें, आठवें और ११ वें स्थान पणफर संज्ञक होने से वहाँ रहने वाला शनि मध्यमबली होता है और ६ ठा स्थान भी आपोक्लिम संज्ञक होने से दिग्बल रहित है, अत: वहाँ भी स्थित शनि मध्यमबली होता है। गुरु केन्द्र (१, ४, ७, १०) और त्रिकोण में होने से तो उत्तमबली है ही, किन्तु ११ वें भी हर्षस्थानीय होने के कारण उत्तमबली होता है। तथा च तीसरा, छठा, नवाँ और बारहवाँ ये स्थान आपोक्लिम संज्ञक होने से वहाँ स्थित शुक्र हीनबली है। इस विषय में त्रैलोक्य प्रकाश ग्रन्थ में कहा गया है
“रूपार्धपादवीर्याः स्युः केन्द्रादिस्था नमश्चराः” अर्थात् केन्द्र स्थानों में स्थित ग्रह पूर्ण बली अर्थात् (२० विंशोपकयुक्त) पणफरसंज्ञक स्थानों में स्थित ग्रह मध्यमबली (१० विंशोपकयुक्त) और आपोक्लिम संज्ञक स्थानों में स्थित ग्रह हीनबली (५ विंशोपकयुक्त) होते हैं।
लोचकर्मादिमुहूर्त
मृदुधुवचरक्षिप्रे वारे भौमशनी विना । ___ आद्याटनं तपो नांदी हुँचनादि शुभं स्मृतम् ॥
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१०२ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - मृदु ध्रुव चर और क्षिप्र संज्ञक नक्षत्रों में मंगल और शनि को छोड़कर अन्य वारों में प्रथम गोचरी, तप, नांदी एवं लुंचन (लोच) आदि कर्म करने शुभ हैं। पात्रभोग मुहूर्त-(आ.सि.)
पात्रभोगोऽश्विनीचित्रानुराधारेवतीमृगे ।
हस्ते पुष्ये च गुर्विन्दुवारयोश्च प्रशस्यते ॥ अर्थ - अश्विनी, चित्रा, अनुराधा, रेवती, मृगशिरा, हस्त और पुष्य इन नक्षत्रों में, गुरु तथा सोमवार को, नवीन पात्रों को व्यवहार में लाना श्रेष्ठ माना गया है। यात्रा मुहूर्त – (मु.चि.या.प्र.श्लो ९ वाँ)
न षष्ठी न च द्वादशी नाष्टमी नो । सिताद्या तिथिः पूर्णिमाऽमा न युक्ता ॥ हयादित्यमित्रेन्दुजीवान्त्यहस्त -- ।
श्रवोवासवैरेव यात्रा प्रशस्ता ॥ अन्वय - (यात्रायाम्) न षष्ठी न च द्वादशी, नाष्टमी नोसिताद्या तिथि: (शुक्लप्रतिपद्) पूर्णिमा अमा च न युक्ता (एतास्तिथीविहायान्यासु तिथिषु यात्रा प्रशस्ता इत्यभिप्राय:) तथा च हयादित्यमित्रेन्दुजीवान्त्यहस्तश्रवोवासवैः (अश्विनी पुनर्वस्वनुराधामृगपुष्यरेवतीहस्तश्रवणघनिष्ठानक्षत्रैः) एवं यात्रा प्रशस्ता भवति।
अर्थ - यात्रा में षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी, शुक्ला प्रतिपद्, पूर्णिमा और अमावस्या त्याज्य हैं। तथा च अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा, पुष्य, रेवती, हस्त, श्रवण और धनिष्ठा इन नौ नक्षत्रों में ही यात्रा करना शुभ है। यात्रा में वार-गर्गादिमन-(बा.वो.ज्यो.सा. समुच्चय)
अर्केक्लेशमनर्थकं च गमने सोमे च बन्धुप्रियः । चांगारेऽनलतस्करज्वरभयं प्राप्तनोतिचार्थ बुधे ॥ • क्षेमारोग्यसुखं करोति च गुरौ लाभश्च शुक्रे शुभः ।
मन्दे बन्धनहानिरोगमरणान्युक्ताति गर्गादिभिः ॥ अन्वय - अर्के गमने अनर्थकं क्लेशं प्राप्नोति। सोमे च (गमने) जनः बन्धुप्रियः (भवति) अंगारे (भौमवारे) च गमने अनलतस्करज्वरभयं प्राप्नोति। बुधे अर्थम् लभते। गुरौ (यात्रा) क्षेमारोग्यसुखं करोति। शुक्रे (गमने) शुभः लाभः च (भवति) मन्दे च बन्धनहानिरोगमरणानि एतत्सर्वं गर्गादिभिः आचार्य: उत्तम्। ___अर्थ - रवि को यात्रा व्यर्थं क्लेशदात्री होती है, सोम को यात्रा करने से बन्धुप्रेम मिलता है। मंगल को यात्रा करने से अग्नि, चोर एवं ज्वर से भय रहता है। बुध को यात्रा करने वाला अर्थ प्राप्त करता है।
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मुहूर्तराज ]
[ १०३
गुरु को यात्रा करने पर व्यक्ति को क्षेम तथा स्वास्थ्य प्राप्त होते हैं। शुक्र को यात्रा शुभलाभकारी होती है, किन्तु शनि को यात्रा करने से बन्धन, हानि, रोग तथा मृत्यु एवं मृत्युतुल्य संकट होते हैं, ऐसा गर्गादिक मुनियों का मत है।
यात्रा में वारों की ग्राह्याग्राह्यता - वसिष्ठ -
सुरेज्यदैत्येज्यशशीन्दुजानां वाराश्च वर्गाः शुभदाः प्रयाणे | आदित्यभूसूनुशनैश्चराणां वाराश्च वर्गाः न शुभप्रदाः स्युः ॥
अन्वय - सुरेज्यदैत्येज्यशशीन्दुजानां वाराः एषां वर्गाश्च प्रयाणे शुभदाः तथा च आदित्यभूसूनुशनैश्चराणां वारा: वर्गाश्च (प्रयाणे) शुभप्रदाः न भवन्ति ।
अर्थ गुरु, शुक्र, चन्द्र और बुध ये वार तथा इनकी अधिकृत राशियों (धनु, मीन, वृष, तुला, कर्क, मिथुन और कन्या) के वर्ग प्रयाण में (यात्रा में) शुभकारी है। किन्तु सूर्य, मंगल और शनि ये वार तथा इनकी अधिकृत राशियों के ( सिंह, मेष, वृश्चिक, मकर और कुंभ) वर्ग प्रयाण में अशुभ है।
वारशूल एवं नक्षत्रशूल - ( मु. चि. या. प्र. श्लो. १० वाँ)
न पूर्वदिशि शक्रभे न विधुसौरिवारे तथा । न चाजपदभे गुरौ यमदिशीनदैत्येज्ययोः ॥ न पाशिदिशि धातृभे, कुजबुधेऽर्यमर्क्षे तथा । न सौम्यककुभि व्रजेत्स्वजयजीवितार्थी बुधः ॥
अन्वय
स्वजयजीविनार्थी (निजविजयजीवनेच्छु:) बुधः शक्रभे (ज्येष्ठायाम्) तथा विधुसौरिवारे (चन्द्रशनिवारयोः) पूर्वदिशि तथा च अजपादमे (पूर्वाभाद्रपदानक्षत्रे ) तथा गुरौ यमदिशि ( दक्षिणस्याम्) तथैव इनदैत्येज्ययोः (रविशुक्रवारयोः) धातृभे च (रोहिणीनक्षत्रे) पाशिदिशि (वरुणदिश पश्चिमस्याम्) कुजबुधे (मंगलवारे बुधवारे वा) तथा अर्यमर्क्षे (उत्तराफल्गुन्याम्) सौम्यककुभि ( उत्तरदिशि ) न व्रजेत् ( नहि गच्छेत्)
अर्थ धन, विजय एवं उन्नति के इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह ज्येष्ठानक्षत्र में, सोम अथवा शनिवार को पूर्वदिशा की, पूर्वाभाद्रपदनक्षत्र में एवं गुरुवार को दक्षिण दिशा की, रवि या शुक्रवार को अथवा रोहिणी नक्षत्र में पश्चिम दिशा की तथा मंगल या बुध को अथवा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान (यात्रा) न करें। उपर्युक्त वारों तथा नक्षत्रों में उक्त - २ दिशाओं में यात्रा करने से यात्री को धननाश, पराजय एवं मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट कुफल भोगने पड़ते हैं।
नारद ने भी
न मन्देन्दुद्रिने प्राचीम्, न व्रजेद्दक्षिणां गुरौ । सितार्कयोर्न प्रतीचीं नोदीचीं ज्ञारयोरपि ॥
=
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१०४ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - सोम तथा शनिवार को पूर्व में, गुरुवार को दक्षिण में, शुक्र एवं रविवार को पश्चिम में तथा मंगल और बुध को उत्तर में यात्रा न करें।
यह कहकर वारशूल का निर्देश किया है। वसिष्ठमत से नक्षत्रशूल-(मु.चि.या.प्र. श्लोक १० की टीका में)
"पुरुहितदिशं पुरन्दरः, नेयाद्याभ्यदिशं त्वजाविधिष्ण्ये ।
ज्वलनाप्यदिशं पितामहः, शूलाख्यान्यथ सौम्यमर्यंमः ॥ अन्वय - पुरन्दरः (इन्द्रनक्षत्रे = ज्येष्ठायाम्) पुरुहूतदिशं (इन्द्रदिशं = पूर्वदिशं) अजाङ्घिधिष्ण्ये (पूर्वाभाद्रपदायाम्) याम्यदिशं (दक्षिणदिशं) पितामहः (ब्रह्मनक्षत्रे = रोहिण्याम्) ज्वलनाप्यदिशं (पश्चिमादिशं) अर्यमः (उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे) सौम्यम् (उत्तरदिशम्) न इयात् (गच्छेत्) तत्तद्दिशि एषु नक्षत्रेषु शूलानि भवन्ति।
अर्थ - ज्येष्ठानक्षत्र में पूर्व की ओर, पू.भा. में दक्षिण की ओर रोहिणी नक्षत्र में पश्चिम की ओर तथा उत्तराफाल्गुनी में उत्तर की ओर शूल रहता है, जो कि नक्षत्रशूल कहा जाता है, अत: उक्त नक्षत्र उक्त दिशा में यात्रा के लिए योग्य नहीं है।
वारनक्षत्रशूलों का फल-(वसिष्ठ)
शूलसंज्ञानि धिष्ण्यानि शूलसंशाश्च वासराः ।
यायिनां मृत्युदाः शीघ्रमथवा चार्थहानिदाः ॥ अन्वय - शूलसंज्ञानी धिष्ण्यानि (पूर्वादिक्रमेण ज्येष्ठापूर्वाभाद्रपदारोहिण्युत्तराफाल्गुनी नक्षत्राणि) शूरलसंज्ञाश्च वासराः (पूर्वगमने सोमशनी, दक्षिणगमने गुरुः पश्चिमगमने रविशुक्रौ उत्तरगमने च भौमबुधौ एते वारा:) यायिनां (यात्राकर्तृणाम्) शीघ्रम मृत्युदाः अथवा मृत्युतुल्यकष्टदाः अथवा अर्थहानिदाः (धननाशकराः) भवन्ति।
अर्थ - पूर्व दिशादि क्रम से ज्येष्ठा, पूर्वाभाद्रपदा, रोहिणी और उत्तराफाल्गुनी ये नक्षत्र तथा पूर्वादिक्रम से (पूर्व दिशा की यात्रा में सोम और शनि, दक्षिण यात्रा में गुरु पश्चिम यात्रा में रवि और शुक्र तथा उत्तर यात्रा में मंगल और बुध) चन्द्रादिवार शूलसंज्ञक है। ये यात्रार्थियों के शीघ्र मृत्युकारक हैं अथवा उनके अर्थ की हानि करते हैं।
छिप कर रह संसार में, देश सबन को वेश । ना काहु से राग कर, ना काहु से द्वेष ॥
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मुहूर्तराज ]
[१०५
पूर्वादिदिशाओं में नक्षत्रवारशूल ज्ञापक सारणी
-वारशूल परिहार ज्ञापक सारणी
दिशाएँ
वार
दिशाएँ
शूल संज्ञक नक्षत्र
शूल संज्ञक वार
वारशुल निवार
वस्तुएँ
ज्येष्ठा
सोम, शनि
पूर्व
सोम
दूध पीकर
उत्तर
मंगल
पश्चिम
रोहिणी
रवि, शुक्र
गुड़ खाकर तिल खाकर
बुध
दक्षिण
दही खाकर
उत्तर
उत्तरा फाल्गुनी
मंगल, बुध
पश्चिम
शुक्र
जौ खाकर
दक्षिण
पूर्वा भाद्रपद
पूर्व
शनि
उड़द खाकर
पश्चिम
रवि
घृत खाकर
वारशूल परिहार (बृहस्पति मत से)
सूर्यवारे घृत प्राश्य, सोमवारे पयस्तथा । गुडमंगारके वारे, बुधवारे तिलानपि ॥ गुरुवारे दधि प्राश्य, शुक्रवारे यवानपि ।
माषान्भुक्ता शनौवारे गच्छंञ्छूलं न दोषभाक् ॥ अर्थ - रविवार को घृत खाकर, सोम को दूध पीकर, मंगल को गुड़ खाकर, गुरु को दही खाकर, शुक्र को जौ खाकर तथा शनि को उड़द खाकर यात्रा करने से वारशूल दोषकारक नहीं होता।
तथा च (बृहस्पति)
. ताम्बूलं चन्दनं मृच्च, पुष्पं दधि घृतं तिलाः ।
वारशूलहराण्य र्काद्दानाद्धारणतोऽदनात् ॥ __ अर्थ - रविवार से शनिवार तक क्रमश: पान (नागरवेल का) चन्दन, मिट्टी फूल, दही, घी और तिल ये वस्तुएँ वारशूल निवारक हैं। इनका दान करने से, इनको खाने से अथवा धारण करने से वारशूल प्रभावी नहीं होता।
लोकमत में भी
रवि ताम्बुल, सोम को दर्पण । (आरीसे में मुख देखकर यात्रा)
घाणां चावो धरणीनन्दन (मंगलवार) ॥
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१०६ ]
[ मुहूर्तराज बुध गुड, दही गुरुवारे ।
राई चावो शुक्करवारे ॥ जो शनिवार बिडंगा चावो । (वायविडंग नामक औषधविशेष) ।
सब कारज करके घर आवो ॥ सामान्य व्यक्ति को यात्रा में उक्त वार नक्षत्र शूलादिकों का त्याग कर यात्रा करनी चाहिए, परन्तु राजाओं के लिए अथवा राजतुल्य सम्पन्न व्यक्तियों बड़े-बड़े व्यापारियों को कई बार अतिशीघ्र यात्रा करनी पड़ती है अतः ऐसे व्यक्तियों के लिए यात्रा करने में भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के अनुसार भिन्न-भिन्न समयों का निषेध कह कर यात्रा विधान कहा है-जिसे कालशूल कहते हैंकालशूल (मु.चि.या.प्र. श्लोक ११ वाँ)
पूर्वाणे धुवमिश्रमैनं नृपतेर्यात्रा न मध्याह्नके । तीक्ष्णाख्यैरपराहणके न लघुभैः नो पूर्वरात्रे तथा ॥ मिश्राख्यैर्नच मध्यरात्रिसमये चोप्रैस्तथानो चरैः ।
रात्र्यन्ते हरिहस्तपुष्यशशिमिः स्यात्सर्वकाले शुभा ॥ अन्वय - ध्रुवमिश्रभैः (ध्रुवसंज्ञकैः मिश्रसज्ञकैश्च नक्षत्रैः) नृपतेर्यात्रा पूर्वाणे न स्यात्, तीक्ष्णाख्यैर्नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा मध्याह्ने न स्यात्, न अपराणके लघुमिः नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा न स्यात् तथा पूर्वरात्रे मैत्राख्यैर्नक्षत्रैः नृपतेर्यात्रा न स्यात्, मध्यरात्रिसमये उग्रैश्च तथा रात्र्यन्ते चरैर्नक्षत्रैर्नृपते यात्रा न स्यात्। किन्तु हरिहस्तपुष्यशशिमिः सर्वकाले (षष्टिघटिकालले अहोरात्ररूपे यस्मिन् कस्मिंश्चित्काले यात्रा) शुभा (शुभावहा) स्यात्। ___ अर्थ - ध्रुव तथा मिश्रसंज्ञक नक्षत्रों से राजा को अथवा राजतुल्य सम्पन्न व्यक्ति को पूर्वाह्न में, तीक्ष्ण नक्षत्रों से मध्याह्न में, लघु संज्ञक नक्षत्रों से अपराण में मैत्रसंज्ञक नक्षत्रों से पूर्वरात्र में उग्रसंज्ञक नक्षत्रों से मध्यरात्रि में और चरसंज्ञक नक्षत्रों से रात्रि के अन्तिम भाग में यात्रा नहीं करनी चाहिए। किन्तु श्रवण, हस्त पुष्य और मृगशिरा इन नक्षत्रों के रहते कभी भी किसी भी दिशा में यात्रा शुभावह ही होती है।
इसी प्रकार श्रीपति भी
पूर्वाहणे धुवमिश्रभैर्न गमनं तीक्ष्णैर्न मध्यन्दिने । श्रेष्ठं नापरवासरे च लघुर्भिमैत्रैर्न रात्रेर्मुखे ॥ उपाख्यैर्न च मध्यरात्रिसमये नेष्टं निशान्ते चरैः ।
सर्वेष्वेव करैन्दवेज्यहरिभिः कालेषु यात्रा शुभा ॥ इन दोनों श्लोकों का एक ही अर्थ है। इनमें जो पूर्वाण पूर्वरात्र आदि पद हैं, इनका तात्पर्य यह समझना चाहिए कि यहाँ दिन के तथा रात्रि के तीन-तीन भाग किए हैं। दिन का प्रथम तृतीय भाग, पूर्वाण
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मुहूर्तराज ]
[१०७ मध्य तृतीय भाग = मध्यह्न और अन्तिम तृतीय भाग = अपराह्न और रात्रि का प्रथम तृतीय भाग = पूर्वरात्र मध्यमतृतीय भाग = मध्यरात्रि और अन्तिम तृतीय भाग = रात्र्यन्त या निशान्त ऐसा मानना चाहिए। इस प्रकार के दिन एवं रात्रि के ३-३ भागों को मानते हुए उस समय जिन-जिन नक्षत्रों के रहते प्रयाण नहीं करना चाहिए। इस अभिप्राय को लेकर “महेश्वर" ने स्पष्ट किया है-यथा
आद्येऽह्नस्त्रिलवे ध्रुवक्षसहितैर्मिौर्न यात्रा शुभा । तो तीक्ष्णैरपरांशके न लघुमैरहस्त्रिमागेऽन्तिमे ॥ त्र्यंशे त्वादिमके निशो न मृदुमैरुप्रैर्न मध्येशके । नान्त्यांशे चरमैः करुश्रुतिमृगेज्य:ः शुभासर्वदा ॥
-यात्रा में उत्तमादि नक्षत्र ज्ञापक सारणी
यात्रा में
नक्षत्रों के नाम
उत्तम नक्षत्र
अश्वि ., मृग., पुष्य., पुन., हस्त., अनु., श्रवण., धनि., रेवती
मध्यम नक्षत्र
उ.फा., उ.षा., उ.भा., शत., मूल., ज्येष्ठा., पु.फा., पु.षा., पु.भा., रोहिणी
अधम नक्षत्र
कृतिका, स्वाती, आद्रा, विशाखा, चित्रा, आश्लेषा, मघा, भरणी
अत्यावश्यक कार्य हेतु कभी-कभी मध्यम एवं अधम नक्षत्रों में भी यात्रा करनी पड़ती है एतदर्थं व्यवस्था करते हुए मुहूर्तचिन्तामणिकार ने मध्यम तथा निषिद्ध (अधम) नक्षत्रों में से कुछ एक नक्षत्रों की आद्य घटिकाओं को छोड़कर शेष नक्षत्र भाग में यात्रा करने का विधान किया है-यथायात्रा के मध्यम, निषिद्ध, कतिपय नक्षत्रों की वर्त्य घटिकाएँ
पूर्वाग्निपित्र्यन्तकतारकाणां भूपप्रकृत्युग्रतुरङ्गमाः स्युः ।
स्वातीविशाखेन्द्रभुजङ्गमानां नाड्यो निषिद्धा मनुसम्मिताश्च ॥ अन्वय - पूर्वाग्निपित्र्यन्तकतारकाणाम् भूपप्रकृत्युग्रतु स्वाती विशाखेन्द्रभुजंगमानां मनु सम्मिताः च नाड्यो निषिद्धाः स्युः। .
अर्थ - तीनों पूर्वा, कृत्तिका, मघा, भरणी इन नक्षत्रों की क्रमश: १६, २१, ११ और ७ घड़ियों को तथा स्वाती, विशाखा, ज्येष्ठा और आश्लेषा की प्रत्येक की १४-१४ घड़ियों को त्यागकर मध्यम और निषिद्ध नक्षत्रों में भी यदि कभी अत्यावश्यकता आ पड़े तो यात्रा की जा सकती है। ये त्याज्य घड़ियाँ नक्षत्रों के आदि की ही जाननी चाहिए, क्योंकि मूल श्लोक में आदि मध्य अथवा अन्त का निर्देश नहीं है तथा आदि की घटिकाओं से अतिरिक्त घड़ियों के ग्रहण में कोई कारण भी नहीं है।
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१०८ ]
[ मुहूर्तराज योगिनी दोष (योगिनीनामक तिथिदोष-मु.चि.या. प्र. श्लो. ३४ वाँ
नवभूम्यः शिववन्योऽक्षविश्वेऽर्ककृताः शक्ररसास्तुरंगतिथ्यः । द्विदिशोऽमावसवश्च पूर्वतःस्युस्तिथयः सम्मुखवामगाः न शस्ताः ॥
अन्वय - पूर्वत: आरम्य अष्टसु दिक्षु निम्नोक्ताः तिथयः योगिन्याख्या भवन्ति। यथा पूर्वे नवभूम्यः (नवमी प्रतिपच्च) आग्नेय्याम् शिववढ्यः (एकादशी तृतीया च) दशिणस्याम् अक्षविश्वे (पञ्चमी त्रयोदशी च) नैर्ऋत्याम् अर्क-कृता: (द्वादशी चतुर्थी च) पश्चिमायाम् शक्ररसा: (चतुर्दशी षष्ठी च) वायव्यां तुरंगतिथ्यः (सप्तमी पूर्णिमा च) उत्तरस्याम् द्विदिशो (द्वितीया दशमी च) ऐशान्याम् अमावसवः (अमावस्या अष्टमी च) एताः तिथय: (गन्तुः) सम्मुखवामगा: न शस्ता: किन्तु दक्षिणपृष्ठगा अतिशुभाः।
अर्थ - पूर्व से आरम्भ करके आठों दिशाओं में २-२ तिथियाँ योगिनी संज्ञिका कही जाती हैं, यथा-प्रतिपदा एवं नवमी पूर्व में, तृतीया एवं एकादशी आग्नेय में, पंचमी और त्रयोदशी दक्षिण में, चतुर्थी
और द्वादशी नैर्ऋत्य में, षष्ठी और चतुर्दशी पश्चिम में, सप्तमी एवं पूर्णिमा वायव्य में, द्वितीया और दशमी उत्तर में तथा अष्टमी और अमावास्या ईशान में योगिनीसंज्ञिका तिथियाँ हैं। प्रयाण में इन योगिनीसंज्ञक तिथियों को दक्षिण अथवा पीठ पीछे रखना श्रेयस्कर है, सम्मुख तथा वाम भाग में अशुभ है। यथा प्रतिपदा को पूर्व एवं दक्षिण दिशा में प्रयाण करना अशुभ है और पश्चिम या उत्तर में प्रयाण करना शुभ।
स्वरोदय में भी
पूर्वस्यामुदयेद् ब्राह्मी प्रथमे नवमे तिथौ । माहेशी चोत्तरस्यां तु द्वितीयादशमी तिथौ ॥ एकादश्यां तृतीयायाम् कौमारी वह्निकोणगा । चतुर्थी द्वादशी प्रोक्ता वैष्णवी नैर्ऋते तथा ॥ बाराही दक्षिणे भागे, पञ्चमी च त्रयोदशी । षष्ठी चतुर्दशी चैव इन्द्राणी पश्चिमे तथा ॥ पूर्णिमायां च सप्तम्यां वायव्ये चण्डिकोदयः ।
नष्टचन्द्रदिनाष्टम्योः महालक्ष्मीः शिवालये ॥ अर्थ - प्रतिपदा और नवमी को ब्रह्मीनामिका योगिनी पूर्व में प्रकट होती है। द्वितीया और दशमी को माहेशी नामिका योगिनी उत्तर में, एकादशी और तृतीया को कौमारोनामिका योगिनी अग्निकोण में, चतुर्थी
और द्वादशी को वैष्णवी योगिनी नैर्ऋत्य में, पञ्चमी और त्रयोदशी को वाराही योगिनी दक्षिण दिशा में, षष्ठी और चतुर्दशी को इन्द्राणी पश्चिम दिशा में, पूर्णिमा और सप्तमी को चण्डिका वायव्य कोण में और अमावस्या और अष्टमी को महालक्ष्मी नामिका योगिनी ईशान कोण में प्रकट होती है।
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मुहूर्तराज ]
[१०९ योगिनीफल-(स्वरोदय में ही)
"जयदा पृष्ठदक्षस्था भङ्गदा वामसम्मुखी" अर्थात् यात्रार्थी के पृष्ठ तथा दक्षिण की ओर स्थित योगिनी जयदात्री होती है और सम्मुख तथा वामभाग की ओर स्थित योगिनी भंगदायिनी अर्थात् अनिष्टकारिणी होती है। अर्धप्रहर योगिनी अथवा तत्कालयोगिनी-(समरसार में) प्राक्तोयानलरक्षोवायुपाशीशदिक्षु
दर्शान्तः । तिथिमिः स्थितिपदयुक्ता ह्यार्धप्रहरा तु योगिनी शस्ता ॥ ___ अर्थात् पूर्व, उत्तर, आग्नेय, नैऋत्य, दक्षिण पश्चिम, वायव्य और ईशान में प्रतिपदा से प्रारम्भ करके अमावस्या तक सभी तिथियाँ दो बार की आवृत्ति से दो-दो की संख्या में योगिनी संज्ञक है। जिस दिशा में जो तिथि योगिनी संज्ञक है वह तिथि अपने प्रारम्भ काल से १॥-१॥ घंटे तक (अर्धप्रहर) तक अपनी स्थिति दिशा से दक्षिण क्रम से निवास करती है, अर्थात् प्रत्येक दिशा में आधे-आधे प्रहर तक रहती है। इस प्रकार दिन एवं रात्रि में (अहोरात्र) प्रत्येक दिशा में २-२ बार आधे-आधे प्रहर तक इसका निवास होता है, इसे ही अर्धप्रहर योगिनी या तत्काल योगिनी कहते हैं।
उदाहरण- प्रतिपदा को पूर्व में योगिनी होती है, वह योगिनी आधे प्रहर (१॥ घण्टा) तक तो पूर्व में ही रहेगी फिर क्रमश: १॥-१॥ घण्टे सभी दिशाओं में अर्थात् पूर्व, उत्तर, आग्नेय नैऋत्य, दक्षिण, पश्चिम, वायव्य और ईशान में निवास करेगी।
कार्य की अत्यावश्यकता में इसका उपयोग विशेषतया किया जाना चाहिए।
उक्त दोनों प्रकार की योगिनियों को भलीभाँति ज्ञात करने के लिए दो तालिकाएँ (सारणियाँ) दी जा रही हैं, जिन्हें देखकर सरलता से योगिनी विषयक जानकारी हो सकेगी।
सुख और दुःख इन दोनों साधनों का विधाता और भोक्ता केवल आत्मा है और वह मित्र भी है और दुश्मन भी। क्रोधादि वशवर्ती आत्मा दुःख परम्परा का और समतादि वशवर्ती आत्मा सुख परम्परा का अधिकारी बन जाता है। अत: सुधरना और बिगड़ना सब कुछ आत्मा पर ही निर्भर है। यथाकरणी आत्मा को फल अवश्य मिलता है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा का वास्तविक दमन कर लेता है, उसका दुनिया में कोई दुश्मन नहीं रहता। वह प्रतिदिन अपनी उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ अपने ध्येय पर जा बैठता है।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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११० ]
१
२
क्र.सं. तिथियाँ
४
५
क्रम
संख्या
१
२
३
४
७
५
६
७
८
३ ३-११
८
१-९
२-१०
योगिनी बोधक सारणी
दिशाएँ
४-१२
पूर्व
उत्तर
आग्नेय
नैऋत्य
दक्षिण
पश्चिम
८-३०
वायव्य
ईशान
दिशाएँ
पूर्व
उत्तर
६ ६-१४ पश्चिम
आग्नेय
पूर्व
९
८
v
१६
ততু
तिथियाँ
] अ.प्र.
१ और ९
२ और १०
xma
३ और ११
४ और १२
नैऋत्य भ
५-१३ दक्षिण १३ अ.प्र.
५ और १३
६ और १४
७ और १५
८ और ३०
] अ.प्र.
पूर्व और उत्तर
दक्षिण और पूर्व
नैऋत्य और आग्नेय
वायव्य और नैऋत्य
- अर्ध प्रहर योगिनी स्थिति ज्ञापक सारणी
अष्टदिशार्ध प्रहर योगिनी स्थिति
आग्नेय नैर्ऋत्य
ईशान ू]
अ.प्र.
अ.प्र.
अ.प्र.
उत्तर
अ.प्र.
१०
१
२] अ.प्र.
९
] अ.प्र.
१६. अ.प्र.
७. १५
$137.7.
शुभ दिशाएँ
उत्तर और पश्चिम
पश्चिम और दक्षिण
ईशान और वायव्य
आग्नेय और ईशान
३
११
२
१०
यात्रा शुभाशुभ दिशाबोधक सारणी
] अ.प्र.
] अ.प्र.
0 0
४
१२
mo
११
] अ.प्र.
] अ.प्र.
दक्षिण
5 m
५
१३
४
१२
] अ.प्र.
अशुभ दिशाएँ
पूर्व और दक्षिण पूर्व और उत्तर
आग्नेय और नैऋत्य
वायव्य और नैऋत्य
पश्चिम और दक्षिण
उत्तर और पश्चिम
वायव्य और ईशान ईशान और आग्नेय
पश्चिम
६
w x
[ मुहूर्तराज
१४
वायव्य
] अ.प्र. ] अ. प्र
७ १५
]अ.प्र. १५]अ.प्र. | १५]अ.प्र.
ईशान
८
१६
१५ १६]
'
67
१५
] अ.प्र.
१
] अ.प्र. १२] अ.प्र. १३ अ.प्र.अ.प्र. १५ अ.प्र. १५ अ.प्र.
९
७-१५ वायव्य १३ अ.प्र. २२ अ.प्र. २५ अ.प्र. अ.प्र. अ.प्र. अ.प्र. ६ ]अ.प्र.अ.प्र.
]अ.प्र.
४.
१६ अ.प्र. ९१ अ.प्र. १० ]अ.प्र. १ अ.प्र. १२ अ.प्र. २१५ अ.प्र.
११
१५.अ.प्र. १५ अ.प्र. १६] अ.प्र. ]अ.प्र. १] अ.प्र. १३ अ.प्र. १२२ अ.प्र.
९
१५ अ.प्र.अ.प्र.
७. १५
अ.प्र. २६ अ.प्र. १] अ.प्र. १ अ.प्र.अ.प्र.
१२. अ.प्र. २२ अ.प्र. १५ अ.प्र. अ.प्र. १५ अ.प्र. १६० अ.प्र. १ अ.प्र.
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[१११
मुहूर्तराज ] सर्वदिग्द्वार नक्षत्र-वसिष्ठ
पुष्यार्काश्विनमैत्राणि, सर्वदिग्द्वारभानि च सर्वदिक्ष्वपि यात्रायां, सर्वकामार्थदानि च
अर्थ - पुष्य, हस्त, अश्विनी और अनुराधा ये चार नक्षत्र सर्वदिग्द्वार संज्ञक नक्षत्र हैं। इनमें चारों दिशाओं में से किसी भी दिशा में की गई यात्रा यात्रार्थी के सर्व मनोरथों की सिद्धि करती है। नारद के मत से भी
. पुष्ये मैत्रे करेऽश्विन्यां सर्वाशागमनं शुभम् । __ अर्थ - पुष्य, अनुराधा, हस्त और अश्विनी इनमें किसी भी दिशा की यात्रा शुभकारी होती है।
इसी प्रकार श्रीपति भी
"हस्त् पुष्यो मैत्रमप्याश्विनं च चत्वार्याहुः सर्वदिग्द्वारभानि" अर्थात् हस्त, पुष्य, अनुराधा और अश्विनी ये चारों नक्षत्र सभी दिशाओं में प्रयाण करने के लिए शुभफलदायी हैं।
काल एवं पाश नामक योग-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ३५ वाँ)
कौबेरीतो वैपरीत्येन कालो वारेऽर्काद्ये सम्मुखे तस्य पाशः । रात्रावेतौ वैपरीत्येन गण्यौ यात्रायुद्धे सम्मुखे वर्जनीयौ ॥
अन्वय - कौबेरीत: (उत्तरदिशात:) अर्काद्ये वारे वैपरीत्येन कालः तस्य सम्मुखदिशि तस्य (कालस्य) पाश: च, एतौ (कालपाशयोगौ) रात्रौ वैपरीत्येन (दिवा यस्यां दिशि काल: तस्यां दिशि रात्रौ पाश:, दिवा च यस्यां दिशि पाश: रात्रौ तस्यां दिशि काल:) गण्यौ (एतौ योगौ) यात्रा (यात्राकाले) युद्धे सम्मुखे वर्जनीयौ (त्याज्यौ भवतः) ।
अर्थ - उत्तर दिशा से वाम गति से रवि से लेकर शनि तक क्रमश: काल योग होता है और उस काल की सम्मुखस्थ दिशा में उसका पाश रहता है यथा-रविवार को उत्तर में काल तो उसकी सम्मुख दिशा दक्षिण में सोम को वायव्य में काल तो उसकी सम्मुख दिशा आग्नेयी में पाश इत्यादि। दिन के समय जिस दिशा में काल रात्रि के समय उस दिशा में पाश और दिन के समय जिस दिशा में पाश रात्रि को उस दिशा में काल समझना चाहिए। ये काल और पाश यात्रा एवं युद्ध के सामने की दिशा में अवस्थित हों तो उस दिशा में प्रयाण नहीं करना चाहिए। इनका जाने वाले के (यात्रार्थी एवं युद्धार्थी के) वाम व दक्षिण भाग में रहना शुभ है, फिर भी काल की दाहिनी ओर स्थिति तथा पाश की बाईं ओर स्थिति ही शुभकारिणी होती है।
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११२ ]
[ मुहूर्तराज इसी आशय को लेकर स्वरोदय में कहा गया है
दक्षिणस्थः शभःकालः पाशो वामदिगाश्रयः ।
- यात्रायां समरे श्रेष्ठः ततोऽन्यत्र न शोभनः ॥ अर्थ - काल का दक्षिण की ओर (अपनी दाहिनी बाजू) रहना और पाश का वाम दिशा की ओर (अपनी बाईं बाजू) रहना यात्रा समय और युद्ध प्रयाण में श्रेष्ठ है, सामने तथा पीछे रहना अहितकर है।
राहुचार ज्ञान–(आ.सि.)
राहुरसम्मुखवामोऽष्टसु यामार्द्धष्वहर्निशं धुमुखात् ।
क्रमशः षष्ठयां षष्ठयामिष्टः प्राच्यादिषु प्रचरन् ॥ अन्वय - द्युमुखात् अहर्निशं अष्टसु अष्टसु यामार्थेषु प्राच्यादिषु क्रमश: षष्ठयां षष्ठयां (दिशि) प्रचरन् राहुः असम्मुखवाम (पृष्ठगत: वामोगतो वा) इष्टः (शुभदः) भवति।
___ अर्थ - दिन के प्रारम्भ से (सूर्योदय समय से) दिवस और रात्रि के आठ-आठ अर्धप्रहरों में पूर्वादि दिशाओं में क्रमश: षष्ठी-षष्ठी दिशा में भ्रमण करता हुआ यह राहु यात्रा समय में पीछे अथवा बाईं ओर रहे तो शुभकारक है। अर्थात् जिस ओर राहु की स्थिति हो उससे दाहिनी ओर की दिशा में अथवा पीछे की ओर प्रयाण करना श्रेयस्कर है। राहु को सामने अथवा दाहिनी ओर रेखना अशुभकारी है। हर्ष प्रकाश में भी
"जामद्धे राहु गई पू.वा.दा.ई.प.अ.उ. ने दिसिसु" अर्थात् सूर्योदय से आधे-आधे प्रहर राहु की गति पूर्व, वायव्य, दक्षिण, ईशान, पश्चिम, आग्नेय, उत्तर और नैऋत्य में होती है।
यहाँ छठी-छठी दिशाओं में जो राहुगति कही गई है वह दक्षिण क्रम से (पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और ईशान इस प्रकार) कही गई है। यदि वामक्रम से (पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य, पश्चिम, नैऋत्य, दक्षिण और आग्नेय इस प्रकार) गणना की जाय तो राहु की आर्धप्रहरिक स्थिति सूर्योदय वेला से लेकर चौथी-चौथी दिशा में ही होगी। इसी आशय को लेकर “नारचन्द्र” में कहा गया है
अष्टासु प्रथमायेषु प्रहरार्धेष्वहर्निशम् ।
पूर्वस्याः वामतो राहुस्तुर्याम् तुर्याम् व्रजेद्दिशम् ॥ प्रथमायेषु अष्टासु प्रहरार्थेषु अहर्निशम् (अहोरात्रम्) पूर्वस्या: (पूर्वदिशात्:) वामत: (व्युत्क्रमदिगवस्थित्याः) तुर्यां तुर्यां चतुर्थी चतुर्थी दिशम् (दिग्देशम्) व्रजेत्।
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मुहूर्तराज ]
क्र.सं. वार दिशाएँ
रवि
१
२
३
14
کیا
७
१
सोम
२
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
क्र.सं. समय
शनि
दिवस
रात्रि
उत्तर
दक्षिण
वायव्य
आग्नेय
१
नैर्ऋत्य
ईशान
दक्षिण
उत्तर
(पश्चिम
आग्नेय
वायव्य
१
पश्चिम काल
पूर्व
पाश
पूर्व
पूर्व
योग
काल
1)
पाश
काल
पाश
पाश)
२
काल
पाश
काल
पाश
काल
पाश
(
באון
hohlb
वायव्य
-कल-पाश-योग-बोधक-सारणी
समय योग
रात्रि
रात्रि
३
समय
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
दिन
रात्रि
रात्रि
दक्षिण
रात्रि
रात्रि
दक्षिण
रात्रि
रात्रि
रात्रि
रात्रि
दिन
रात्रि
दिन रात्रि
रात्रि
रात्रि
४
४
ईशान
ईशान
काल
पाश
पाश
काल
पाश वायव्य
काल
पाश
काल
पाश
काल
पाश
काल
पाश
काल
५
५
दिन अथवा रात्रि के अर्धप्रहर तथा दिशाएँ
राहुचार
पश्चिम
दिशाएँ
पश्चिम
उत्तर
दक्षिण
आग्नेय)
पश्चिम
पूर्व
नैर्ऋत्य
ईशान
दक्षिण
उत्तर
आग्नेय
वायव्य
पश्चिम)
६
کی
६
वार
पूर्व शनि
आग्नेय
रवि
आग्नेय
सोम
अर्धप्रहर
दिशा
अर्धप्रहर
बुध
गुरु
काल की स्थिति
मंगल दाहिनी ओर तथा
पाश की स्थिति
शुक्र
19
७
काल पाश की शुभता
यात्रा तथा युद्धयात्रा
बाईं ओर शुभ
दिशा
[ ११३
उत्तर
उत्तर
अर्धप्रहर
८
८
में
दिशा
नैऋत्य
नैऋत्य
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११४ ]
[ मुहूर्तराज राहुफल-(स्वरोदय में)
सम्मुखा वामसंस्था वा यस्यैवं राहुमण्डली । पराजयो भवेत्तस्य वादबूतरणादिषु ॥ यस्य दक्षिणपृष्ठस्था ह्येषा राहुपरम्परा ।
सहस्रशः शतेनापि परसैन्यं निरकृन्तति ॥ अर्थ - जिस यात्रार्थी अथवा युद्धार्थी के राहुमण्डली सम्मुख अथवा वाम भाग में स्थित हो उसको वाद द्यूत युद्ध एवं यात्रा में पराजय अथवा अर्थहानि प्राप्ति होती है, किन्तु यदि यही राहुमण्डल यात्रा समय में दाहिनी तथा पीछे की ओर हो तो वह सामान्य सेना से भी महती संस्था वाली सेना को नष्ट कर सकता है। चन्द्रचार ज्ञान-(आ.सि.)
चन्द्रश्चरति पूर्वादौ क्रमात् त्रिर्दिक्चतुष्टये ।
मेषादिष्वेष यात्रायां सम्मुखस्त्वतिशोभनः ॥ __ अन्वय - चन्द्रः मेषादिषु राशिषु पूर्वादौ दिक्चतुष्टये क्रमात् (अनुक्रमत:) त्रिः (वारत्रयम्) चरति, एष यात्रायां सम्मुखः (सम्मुखस्थश्चेत्) अतिशोभनः (अतिशुभफलदः) भवति।
अर्थ - चन्द्रमा मेषादि बारह राशियों में पूर्वादि चार दिशाओं में अनुक्रम से (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर इत्यादि क्रम से) विचरण करता है। यह चन्द्रमा यात्रा समय में यदि सम्मुखस्थ हो तो अतीव श्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
चन्द्रमा भी शुक्र की ही भाँति तीन प्रकार सम्मुखस्थ होता है यथादिन शुद्धि में श्री रत्नशेखरसूरि
उदयवसार अहवा दिसिर दारभवसओ३ हवई ससी समुहो ।
सो अभिमुहो पहाणो गमणे अमिआई वरिसन्तो ॥ अर्थात् चन्द्र जिस दिशा में उदय प्राप्त करता है, उस दिशा में उदय वश, गोलभ्रम से जिस दिशा में होता है, उसमें दिशावश और दिशा द्वार वाले नक्षत्रों को प्राप्त हो तब वह दिग्द्वार नक्षत्र वश इस प्रकार तीन तरह से उसका (चन्द्र का) सम्मुखत्व माना गया है। यदि वह चन्द्रमा प्रयाण करते समय सम्मुखस्थ अथवा दक्षिणस्थ हो तो यात्रा में नितान्त अमृत वर्षा करता है, अर्थात् यात्रा सुखदायिनी और सिद्धप्रदा होती है। चन्द्रफल-(ना.चं. टिप्पणी में)
सम्मुखीनोऽर्थलाभाय, दक्षिणः सर्वसम्पदे । पश्चिमः कुरुते मृत्यु वामश्चन्द्रो धनक्षयम् ॥
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मुहूर्तराज ]
[११५ अन्वय - सम्मुखीन: (सम्मुखस्थः) चन्द्रः अर्थलाभाय, दक्षिणश्च सर्वसम्पदे, परन्तु यदि चन्द्रः पश्चिमः पृष्ठदिक्स्थः तदा मृत्युं कुरुते (अथवा मृत्युतुल्यं कष्टं ददाति) वामश्चन्द्रः (वामापार्श्वस्थः चन्द्रः) धनक्षयम् (धनहानि) कुरुते।
अर्थ - प्रयाण में यदि चन्द्र सम्मुख हो इष्ट सिद्धि करता है। दाहिनी बाजू स्थित हो तो सर्व सम्पदा के लिए है, किन्तु पीठ पीछे होने पर चन्द्र मृत्युकारक अथवा मृत्युसदृश अपमान लज्जादि कष्ट प्रदाता है, और बाईं बाजू स्थित चन्द्रमा यात्रार्थी की धन हानि करता है।
सम्मुखचन्द्र की सर्वदोष नाशकता-(मु.प्र.)
करणभगणदोषं वार-संक्रान्ति दोषम् । कुतिथि-कुलिक-दोषं यामयामार्धदोषम् ॥ कुजशनिरविदोषं राहुकेत्वादिदोषम् ।
हरति सकलदोषं चन्द्रमाः सम्मुखस्थः ॥ अर्थ - यदि सम्मुख चन्द्र हो तो वह भद्रादोष, नक्षत्रदोष, वारदोष, संक्रान्तिदोष, कुतिथि दोष, कुलिक दोष, याम एवं यामार्ध दोष, मंगल, शनि एवं रवि से उत्पन्नदोष राहु एवं केतु के दोष इस प्रकार समस्त दोषों को नष्ट करता है।
पुरालयादि प्रवेश में चन्द्र विचार-(ना.चं.)
सम्मुखेन्दुहरद्रव्यं, पृष्ठस्थो मृत्युदायकः ।
तद् ग्राह्यो दक्षिणो वामः पुरालयप्रवेशके ॥ अर्थ - नगर गृह आदि में प्रवेश करते समय प्रवेशकर्ता के सम्मुखस्थदिशा में यदि चन्द्र हो तो वह द्रव्य नाश करता है, पीठ पीछे हो तो मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट प्रदाता होता है, अत: प्रवेश समय में चन्द्रमा को दाहिनी अथवा बाईं बाजू रखना चाहिए।
तथाच
षड्नन्दे पृष्ठगश्चन्द्रः, पादेऽष्टार्केऽशुभप्रदः ।
सद् दिगीशादिजन्मेषुत्रिकराब्धिषु मस्तके ॥ अर्थ - प्रवेशकर्ता की जन्मराशि से छठा और नवाँ चन्द्रमा उसकी पीठ पर आठवाँ, बारहवाँ उसके पैरों पर रहता है जो कि प्रवेश समय में अशुभप्रद है किन्तु यदि चन्द्रमा १० वाँ, ११ वाँ, सातवाँ, पहला, पाँचवीं, तीसरा, दूसरा या चौथा हो तो वह शुभफलदायी होता है।
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११६ ]
[ मुहूर्तराज समस्त ग्रहों का पूर्वादि दिशाओं में विचरण-(ना.चं.)
स्वस्योदथस्य समयात् पूर्वयाम्यादितः क्रमात् ।
संचरन्ति ग्रहाः सर्वे सर्वकाल दिगष्टके ॥ अन्वय - सर्वे ग्रहा: स्वस्योदयस्य समयात् पूर्वयाम्यादितः क्रमात् सर्वकालं दिगष्टके संचरन्ति।
अर्थ - समस्त ग्रह स्वस्व उदय समय से लेकर पूर्व दक्षिण आदि क्रम से सदैव आठों दिशाओं में गति करते हैं। रविचार-(आ.सि.)
रविद्वौं द्वौ पूर्वादौ यामौ रात्र्यन्तयामतः ।
यात्राऽस्मिन् दक्षिणेवामे प्रवेशः पृष्ठगे द्वयम् ॥ अन्वय - रविः (सूर्यः) रात्र्यन्तयामात् (रात्र: चरमप्रहरतः) द्वौ द्वौ यामौ पूर्वादौ (चरति) अस्मिन् (सूर्य) दक्षिणस्थे यात्रा, वामे प्रवेशः पृष्ठगे च सति द्वयम् (यात्राप्रवेशौ) शुभावहम्।
अर्थ - सूर्य रात्रि के अन्तिम प्रहर से दो-दो प्रहरों तक पूर्वादि चारों दिशाओं में विचरण करता है। इसके दाहिनी बाजू रहते यात्रा, बाईं बाजू रहते प्रवेश एवं पीठ पीछे रहते दोनों (यात्रा और प्रवेश) सुखदायी होते हैं।
-रविचार बोधक सारणी
क्र.सं.
दिशाएँ
प्रहर
यात्रा में
प्रवेश में
|
दोनों में
पूर्व में
रात्रि का अन्तिम प्रहर तथा
दिन का प्रथम प्रहर
दक्षिण में
दिन का द्वितीय प्रहर एवं
तृतीय प्रहर
दाहिनी ओर शुभ
बाईं ओर शुभ
पीछे की ओर शुभ
पश्चिम में
दिन का अन्तिम प्रहर तथा
रात्रि का प्रथम प्रहर
उत्तर में
रात्रि का द्वितीय तथा
तृतीय प्रहर
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मुहूर्तराज ]
यात्रा में दिशा शुद्धि के लिए परिधज्ञान
सप्त सप्त गमने
वसुऋक्षादुत्तराप्रभृतिदिक्षु
शुभानि ।
वह्निवायुपरिधोऽत्र न लङ्घ्यो मध्यमानि तु मिथः स्वदिशोः स्युः ॥
अन्वय वसुऋक्षात् (धनिष्ठानक्षत्रात् आरभ्य ) सप्त सप्त भानि गमने शुभानि अत्र वह्निवायुपरिधः (वह्निकोणतः वायव्यकोणपर्यन्ता खचिता रेखा) न लंध्य: ( अस्य लंधनं न शुभदं प्रत्युताशुभदमेव ) तथा च स्वदिशोः मिथः सप्त सप्त भानि गमने मध्यभानि ( मध्यम फलदानि ) स्युः ।
अर्थ धनिष्ठा नक्षत्र से लेकर सात-सात नक्षत्र क्रमश: उत्तर, पूर्व, दक्षिण एवं पश्चिम दिशा द्वार के हैं। अत: इन २ नक्षत्रों में उन २ दिशाओं में यात्रा शुभ है। अग्निकोण से लेकर वायव्य कोण तक खींची हुई परिध रेखा उल्लंघन करना अशुभ फलदायी है। तथा च धनिष्ठादि सात नक्षत्र तथा कृत्तिकादि सात नक्षत्र परस्पर स्वकीय है। इसी प्रकार मघादि सात नक्षत्र एवं अनुराधादि सात नक्षत्र भी परस्पर स्वकीय हैं, अतः इन स्वकीय नक्षत्रों में उत्तर के नक्षत्रों में पूर्वयात्रा पूर्व के नक्षत्रों में उत्तर की यात्रा एवं दक्षिण के नक्षत्रों में पश्चिम की यात्रा और पश्चिम के नक्षत्रों में दक्षिण की यात्रा करना मध्यम है । परन्तु उत्तर पूर्व के नक्षत्रों में दक्षिण पश्चिम की ओर यात्रा तथा दक्षिण पश्चिम के नक्षत्रों में उत्तर पूर्व की ओर यात्रा करना अशुभ है।
-
[ ११७
यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि उपर्युक्त दिग्द्वार नक्षत्र तथा परिधादि बताते हुए पूर्वादि दिक्चतुष्टय में यात्रा की शुभता एवं अशुभता तो कहीं हैं पर विदिशाओं में यात्रार्थ विधान या निषेध क्यों नहीं किया गया? इसका उत्तर यह है कि पूर्व दिग्द्वार के नक्षत्रों में अग्निकोण में, दक्षिण दिग्द्वार के नक्षत्रों में नैऋत्य कोण में, पश्चिम द्वार के नक्षत्रों में, वायव्य कोण में एवं उत्तर दिग्द्वार नक्षत्रों में ईशान कोण की यात्रा स्वयं ही सिद्ध है क्योंकि विदिशाएँ तो स्वस्व दिशाओं का अनुसरण करती ही है। इस विषय में दैवज्ञवल्लभ भी सम्मत हैं
“यायात् पूर्वद्वार भैरग्निकाष्ठां प्रादक्षिण्येनैव नाशा विपूर्वा "
अर्थात् पूर्वादि दिग्द्वार नक्षत्रों में उनसे दाहिनी उपदिशाओं में यात्रा करना श्रेयस्कर है बाईं ओर की विदिशाओं में नहीं। श्री पूर्णभद्र तो इस नियम के साथ विशेषतया भी कहते हैं
स्वामिनः सप्त भौमाद्याः क्रमतः कृत्तिकादिषु । प्राच्यादौ तत्सनाथेषु भेषु यात्रा महाफला ॥
अन्वय
कृत्तिकादिषु क्रमतः भौमाद्याः (मंगलतः आरभ्य चन्द्रं यावत् ) सप्त स्वामिनः सन्ति अतः तत्सनाथेषु तत्तद्वारयुक्तेषु भेषु प्राच्यादौ यात्रा महाफलदा भवति ।
अर्थ - कृत्तिकादि भरणीपर्यन्त क्रमशः भौमादि चन्द्रयावत् स्वामी है अतः इन स्वामियों से युक्त नक्षत्रों में उन-उन दिशाओं की यात्रा महान् फल देने वाली होती है ।
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११८ ]
[ मुहूर्तराज
-दिग्द्वारनक्षत्र-तत्तत्स्वामिग्रह एवं यात्रा शुभाशुभ ज्ञापक सारणी
क्र.सं. दिशाएँ
द्वार नक्षत्र एवं उनके स्वामी
यात्रार्थ विहित दिशा विदिशा
यात्रार्थ मध्यम एवं निषिद्ध
दिशा विदिशा
| पूर्व नं. स्वा .
मध्यम उत्तर दि.
कृ. रो. मृ. आ. पु. पु. आ. | म .बु. गु. शु. श. र. च.]
पूर्व दिशा एवं आग्नेय
कोण
निषिद्ध दक्षिण एवं पश्चिम तथा शेष उ.दि.
दक्षिण दिशा एवं नैऋत्य
पश्चिम दि.
दक्षिण नं. स्वा
म.पू.उ.फा.ह.चि.स्वा.वि.1 [ म.बु.गु.शु.श.र.चं. ]
कोण
| पूर्व तथा उत्तर तथा
शेष उप दिशा
३ | पश्चिम नं. |
दक्षिण दि.
अ.ज्ये.मू.पू.षा.उ.मा.अभि.श्र.| पश्चिम दिशा एवं वायव्य [म. बु. गु. शु. श. र. च. ]
कोण
पूर्व तथा उत्तर तथा शेष उप दिशा
स्वा .
x
| उत्तर नं.
ध.श.पू.भा.उ.भा.रे.अ.भ. 1 | म.बु.गु.शु.श.र.चं.
उत्तर दिशा एवं ईशान
कोण
पूर्व दि.
दक्षिण एवं पश्चिम तथा शेष उप दि.
स्वा .
समय अमूल्य है। सुकृत कार्यों के द्वारा जो कोई उसको सफल बना लेता है, वही पुरुष जानकार और भाग्यशाली है। जो समय चला जाता है वह समय लाख प्रयत्न करने पर भी वापस नहीं मिलता। बादशाह सिकन्दर जब मरण-पथारी पर पड़ा, तब उसने अपने सारे परिवारों, अमीर, उमरावों और वैद्य हकीमों को बुलाकर कहा-अब मैं जानेवाला हूँ, अभी इन्तेजाम बहुत करना है, अतः कोई भी मेरे जीवन का आधा घंटा भी बढ़ा दे तो उसको प्रति मिनिट का मुंहमाँगा रुपया दिया जाएगा। सबने कहा कि इस संसार में ऐसा कोई भी इल्म, विद्या, विद्या, जड़ी-बूटी आदि नहीं है जो आयुष्य की एक पल भी अधिक या कम कर सके। बादशाह ने इस प्रकार का स्पष्ट जवाब सुनकर अपने दफ्तर में लिख दिया कि आयुष्य की एक भी घड़ी या पल बढ़ाने वाला कोई नहीं है। अत: जो इसको व्यर्थ खो देता है। उसके समान संसार में दसरा कोई मर्ख नहीं है।
-श्रीराजेन्द्रसूरि
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मुहूर्तराज ]
[११९
-परिधि यन्त्र
आग्नेय
ईशान
कृ.
रो.
मृ.
आ.
पु.
पु.
आ.
. भर. घ. शत. पू.भा. उ.भा. रे. अश्वि
मघा पू. फा. उ. फा. ह. चि. स्वा. वि.
परिध रेखा
श्र. अभि. उ.षा. पू.षा. मू. ज्ये. अनु.
bekle
पश्चिम
*
यात्रा में अयनशुद्धि-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ३९ वाँ)
सौम्यायने सूर्यविधू तदोत्तरां प्राची व्रजेत्तौ यदि दक्षिणायने ।
प्रत्यग्यमाशां च तयोर्दिवानिशं भिन्नायनत्वेऽथ वधोऽन्यथा भवेत् ॥ अन्वय - यदि सूर्यविधू सौम्यायने गतौ भवेताम् तदा उत्तरां प्राची च दिशम् व्रजेत् (यायात्) यदि तु तौ (रविचन्द्रौ) दक्षिणायने (दक्षिणायनगतौ भवेताम्) तदा प्रतीची दक्षिणां च व्रजेत्। तयोः (सूर्याचन्द्रमसोः) भिनायनत्वे अयनभेदे सति दिवा निशं व्रजेत्, यथा यदि सूर्यचन्द्रौ भिन्न भिन्ने अयने तदा यस्मिन्नयने सूर्यः तां दिशं (उत्तरां दक्षिणां वा) दिवा व्रजेत्। चन्द्रश्च यस्मिन्नयने तां दिशमुत्तरां दक्षिणां वा रात्रौ व्रजेत्। अथ यदि कश्चिदुक्तप्रकारमपहाय अन्यथा व्रजेत् तदा यातुः वधो भवेत्। __ अर्थ - यदि सूर्य और चन्द्रमा समान अयनगामी होकर यदि उत्तरायण में हों तो उत्तर और पूर्व दिशा की यात्रा शुभ है और यदि दोनों दक्षिणायन में हों तो दक्षिण और पश्चिम की ओर यात्रा करनी चाहिए। यदि दोनों के अयन भिन्न हों तो जिस अयन में सूर्य हो उस अयन में दिन को और जिस अयन में चन्द्रमा
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१२० ]
[ मुहूर्तराज हो उसमें रात्रि को यात्रा करें। यदि सूर्य उत्तरायण हो तो उत्तर या पूर्व में दिन को, दक्षिणायन हो तो दक्षिण या पश्चिम में दिन को यात्रा करें और यदि चन्द्रमा उत्तरायण में हो तो उत्तर और पूर्व में रात को
और दक्षिणायन हो तो दक्षिण या पश्चिम में रात को यात्रा करना शुभ है। इसके विपरीत यात्रा करने पर यात्रार्थी का वध अथवा उसे भयंकर पीड़ा होती है। यात्रा में सम्मुख शुक्र का दोष-(मु.चि.म.या.प्र.श्लो. ४० वाँ)
उदेति यस्यां दिशि यत्र याति ,
गोलभ्रमाद्वाथ ककुब्भसङ्के । त्रिधोच्यते सम्मुख एवं शुक्रः ,
यत्रोदितस्तां तु दिशं न यायात् ॥ अन्वय - शुक्रः यस्यां दिशि (पूर्व पश्चिमे वा) उदेति (उदयं गच्छति) वा (अथवा) गोलभ्रमाद् (उत्तरदक्षिणगोलभ्रमणवशेन) यत्र (यस्यां दिशि उत्तरस्यां दक्षिणस्यां वा) याति (गच्छति) अथ ककुब्भसंघे प्राच्यादि दिशि कृत्तिकादिनक्षत्रन्यासवशेन यद्दिङ्नक्षत्रेचरति एवं त्रिधा (गन्तु) शुक्रः सम्मुखः एव (गण्यते) यत्र उदितः शुक्रः तां दिशं तु न यायात् (तां दिशं तु नैव यायात्)
अर्थ - शुक्र पूर्व अथवा पश्चिम में जब उदित हो तो पूर्व अथवा पश्चिम की ओर प्रयाणकर्ता के वह सम्मुख होता है। अथवा उत्तर दक्षिण गोल के कारण जब शुक्र उत्तर अथवा दक्षिण गोल में हो तब वह उत्तर या दक्षिण में यात्रार्थी के सम्मुख होता है और प्राची आदि दिशाओं में कृत्तिकादि सात २ नक्षत्रों में से किसी पर भी शुक्र की स्थिति हो तब वह उन २ दिशाओं की ओर यात्राकर्ता के सम्मुख होता है, इस प्रकार तीन विधाएँ शुक्र के सम्मुखत्व में हैं। परन्तु जिस दिशा में वह कालांशवश उदित दीखे उस
ओर तो कदापि यात्रा नहीं करनी चाहिए। इसी विषय में श्रीपति भी
उदयति दिशि यस्यां याति यत्र भ्रमाद् वा , विचरति च भचक्रे येषु दिग्द्वारभेषु । त्रिविधमिह सितस्य प्रोच्यते सम्मुखत्वम् ,
मुनिभिरुदय एव त्यज्यते तत्र यत्नात् ॥ ___ अन्वय - यस्यां दिशि (शुक्रः) उदयति यत्र वा भ्रमाद् यानि येषु च दिग्द्वारभेषु भचक्रे विचरति च, इह त्रिविधम् सितस्य (शुक्रस्य) सम्मुखत्वम् प्रोच्यते तत्र मुनिभिः उदय एवं त्यज्यते नाऽन्यद्विप्रकारसम्मुखत्वम्।
अर्थ - शुक्र जिस दिशा में उदित हो, भ्रमणवश जिस दिशा में जाय और जन दिग्द्वारनक्षत्रों पर हो उस दिशा की ओर यात्रा करनेवाले के लिए शुक्र का सम्मुखत्व है। इस तरह यह सम्मुखत्व तीन प्रकार का है।
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मुहूर्तराज ]
[ १२१
इस प्रकार मु. चिन्तामणिकार तथा श्रीपति के मत हैं। इनका कथन है कि उदयवशात् जो शुक्र का सम्मुखत्व है, विशेषतया वही प्रयाणादि में त्याज्य है । इन्हीं से सहमति प्रकट करते हुए वशिष्ठ का कथन है
पश्चादभ्युदिते शुक्रे यायात् प्राचीं तथोत्तराम् । प्राच्चामभ्युदिते शुक्रे प्रतीचीं दक्षिणाम् दिशम् ॥
अर्थ - यदि शुक्र पश्चिमोदित हो तो पूर्व और उत्तर दिशा में और पूर्वोदित हो तो पश्चिम और दक्षिण दिशा में जाना शुभ है। सम्मुखत्व की ही भांति शुक्र का दक्षिणस्थत्व (दाहिनी ओर रहना) भी अशुभ है यथा- " दैत्येज्यो ह्यभिमुखदक्षिणे न शस्त्रः " किन्तु यह कथन ( द्विरागमन प्रकरण में) गर्भवती, पुत्रवती एवं नवपरिणीता वधु के पतिगृह की यात्रार्थ है ।
प्रतिशुक्र
सम्मुखशुक्र दोषफल -
-नारद
" मूढे शुक्रे कार्यहानिः प्रति शुक्रे पराजयः'
अर्थात्-शुक्रास्त में यात्रा से कार्यहानि तथा शुक्रसम्मुखता में पराजय होती है ।
प्रति शुक्र का अपवाद एवं शुक्रास्त में कुछ विशेष (मु.चि.या. प्र. श्लो. ४२ वाँ )
यावच्चन्द्रः पूषभात्कृत्तिकाद्ये
पादे शुक्रोऽन्धो न दुष्टोऽप्रदक्षे । मध्येमार्गं भार्गवास्तेऽपि राजा, तावात्तिष्ठेत् सम्मुखत्वेऽपि तस्य ॥
अन्वय - पूषभात् (रेवतीनक्षत्रात्) कृत्तिकाद्ये (कृत्तिकानक्षत्रस्य प्रथमे चरणे) यावन् ( रेवतीतः आरम्य कृत्तिकाद्यपादं यावन् समये) चन्द्रः तिष्ठेत् तावत् शुक्रः अन्धो भवेत् ( तावत् कालं शुक्रः न पश्यति) अतः स दुष्टः दोषकारकः न ( अत: रेवतीत आरम्य कृत्तिकाद्यपादपर्यन्तम् यात्रायां न दोषः ) यात्रायां मध्येमार्ग भार्गवास्तेऽपि (यदि यात्राकर्तुः मार्गमध्ये शुक्रास्त: भवेत्त्तर्हि ) राजा तावत्कालं ( यावच्छुक्रास्त:) प्रयाणमध्ये तिष्ठेत् उदितेचापि यदि सम्मुखत्वम् तदापि तावत्कालं तिष्ठेत् यावत् सः शुक्र अन्धो न भवेत् ।
19
रेवतीनक्षत्र से लेकर कृत्तिका नक्षत्र के प्रथम चरण तक जब तक चन्द्रमा रहता है तब तक शुक्र अन्धा होता है, अत: वह उस काल में सामने या दाहिनी बाजू भी हो तो दोषकारक नहीं है। यात्रा करते समय यदि मार्ग के मध्य में शुक्रास्त हो जाय, तो तब तक जब तक कि वह उदित न हो यात्रा करते२ रुक जाना चाहिए और फिर शुक्रोदय होने पर ही आगे यात्रा करनी चाहिए । आगे यात्रा करते समय में भी यदि शुक्र सामने पड़े तो जब तक वह अन्ध न बने तब तक यात्रा रोकनी चाहिए। अथवा उसे पीठ पीछे करके पुनः सुमुहूर्त देखकर जाना चाहिए।
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१२२ ]
प्रतिशुक्रापवाद- श्री लल्लाचार्य
अर्थ
शुक्र ( सम्मुख अथवा दाहिनी बाजू का) दोषकारक नहीं है।
-
काश्यपेषु वसिष्ठेषु भारद्वाजेषु वात्स्येषु एक ग्रामे पुरे वापि दुर्भिक्षे
भृग्वत्र्याङ्गिरसेषु च । प्रतिशुक्रम् न विद्यते ॥ राष्ट्रविप्लवे । विवाहे तीर्थयात्रायां वत्सशुक्रौ न चिन्तयेत् ॥ स्वभवनपुरप्रवेशे देशानां विभ्रमे तथोद्वा ।
नव वध्वागमने च प्रतिशुक्रविचारणा नास्ति ॥
कश्यप, वसिष्ठ, भृगु, अत्रि, अंगिरा भारद्वाज और वत्स इन सात ऋषियों के मत में प्रति
एक ही गाँव में, नगर में, दुष्काल में, राज्य के उपद्रवों में, विवाह में और तीर्थयात्रा में वत्स और शुक्र का विचार न करें।
तथैव - वसिष्ठ
स्वयं के घर में, स्वाभाविक रूपेण प्रवेश में, नगर प्रवेश में, विदेश के वारंवार यातायात में, विवाह में तथा नवीन बहू को पीहर से ससुराल ले आने प्रतिशुक्रवत् प्रतिभौम एवं प्रतिबुध का भी त्याग
शुक्र का सम्मुखत्व दोषकारक नहीं
कतिपय आचार्यों का मत है कि यात्रा में तीनों प्रकार से सम्मुख शुक्र का त्याग करें किन्तु उस प्रतिकूल शुक्र से भी प्रतिमंगल अधिक कष्टकारक एवं प्रतिकूल मंगल से भी प्रतिबुध और विशेष कष्टदायक होता है, अतः प्रतिमंगल और प्रति बुध का भी त्याग करना चाहिए - यथा
-
प्रतिशुक्रं त्यजन्त्येके, यात्रायां त्रिविधं बुधाः । तस्मात्प्रतिकुजम् कष्टं ततोऽपि प्रतिसोमजम् ॥
[ मुहूर्तराज
प्रतिशुक्रं प्रतिबुधं प्रतिभौमं गतो नृपः । बलेन शक्रतुल्योऽपि हतसैन्यो निवर्तते ॥
अर्थ शुक्र, बुध और मंगल के प्रतिकूल रहते यदि राजा भले ही वह सैन्य से इन्द्रतुल्य हो युद्धार्थयात्रा करता है तो उसकी सेना नष्ट हो जाती है और उस राजा को हार खानी पड़ती है।
यहाँ रैभ्य का मत
प्रतिशुक्रादिदोषोऽयं नूतने गमने नृणाम । राज्ञां विजययात्रायां नान्यथा दोषमावहेत् ॥
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मुहूर्तराज ]
[१२३ ___ अर्थ - यह प्रतिशुक्र प्रतिबुध और प्रतिकुज (प्रतिमंगल) सामान्य नरों के नवीन प्रयाण में और राजाओं के लिए उनकी युद्धयात्रा में ही दोषावह है, इसके अतिरिक्त नहीं। दक्षिणशुक्र भी त्याज्य –नारचन्द्रे
अग्रतो लोचनं हन्ति, दक्षिणे ह्याशुभप्रदः ।
पृष्ठतो वामनश्चैव शुक्रः सर्वसुखावहः ॥ ____ अर्थ - यदि शुक्र सम्मुख हो तो वह नेत्रहानि करता है और दाहिनी बाजू हो तो वह अशुभ फलदायी है, किन्तु पीठ पीछे और बाईं बाजू का शुक्र समस्तसुखदायी है। शुक्रोदयास्तदिनसंख्या-(ना.चं. टिप्पणी में)
प्राच्यां भगुर्जलधितत्त्वदिनानि (२५४) तिष्ठेत् , तत्रास्तगस्तु नयनद्वि (७२) दिनान्यदृश्यः । तिष्ठेच्च पोडशकृति (२५६) दिवसान् प्रतीच्याम्
अस्तं गतस्त्विह स यक्षदिनान्यदृश्यः ॥ ___ अर्थ - पूर्व दिशा में शुक्र २५४ दिनों तक उदित रहता है और फिर वहीं अस्त होकर ७२ दिनों तक अदृश्य होता है। पुनः पश्चिम में उदित होकर वहाँ २५६ दिनों तक रहता है और फिर पश्चिम में अस्त पाकर १३ दिनों तक अदृश्य हो जाता है। यात्रा में वर्जनीय पथिराहु-(मु.चि.या.प्र. श्लो. १८ वाँ) पथिराहुज्ञानार्थ पथिराहुचक्र निर्माण विधिस्युर्धर्मे
दस्रपुष्योरगवसुजलपद्वीशमैत्राण्यथार्थे , याम्याजाशीन्द्रकर्णादितिपितृपवनोडून्यथो भानि कामे । वहन्यााबुध्यचित्रानि¢ति विधिभगाख्यानि मोक्षेऽथ रोहि
ण्यार्येम्णाप्येन्दुविश्वान्तिमभदिनकरऑणि पथ्यादि राहो ॥ अन्वय - दस्रपुष्योरगवसुजलपद्वीशमैत्राणि (अश्विनीपुष्याश्लेषाधनिष्ठाशतभिषविशाखानुराधा-नक्षत्राणि) धर्मे स्युः (धर्मकोष्ठके लेख्यानि) अथ याम्याजाधीन्द्रकर्णादितिपितृपवनोडूनि (भरणीपूर्वाभाद्रपदाज्येष्ठाश्रवणपुनर्वसुमघास्वातिनक्षत्राणि) अर्थे (अर्थकोष्ठके लेख्यानि) अथ कामे (कामस्थाने) वह्नयााबुध्यचित्रानि:तिविधिभगाख्यानि (कृत्तिका>त्तराभाद्रपदाचित्राभिजित् मूल फाल्गुनीनक्षत्राणि) लेख्यानि ततश्च मोक्षमार्गे रोहिण्यार्यम्णाप्येन्दुविश्वान्तिमभदिनकराणि लेख्यानि। एवं कृते पथिराहुचक्रम् भवेत् ।
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१२४ ]
[ मुहूर्तराज __अर्थ - पथिराहुचक्र बनाने के लिए पाँच सीधी तथा नौ आड़ी रेखाएँ खींचनी चाहिए इस प्रकार रेखाओं से यह चक्र ३२ कोष्ठकों का होगा। फिर ऊपर के चार कोष्ठकों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये नाम लिखने चाहिए तथा उनके नीचे के आठ-आठ कोष्ठकों में से प्रथम के (धर्म मार्ग के) आठ कोष्ठकों में-अश्विनी, पुष्य, आश्लेषा, धनिष्ठा, शततारका, विशाखा और अनुराधा, अर्थ मार्ग में (अर्थ कोष्ठकों में) भरणी, पूर्वाभाद्र, ज्येष्ठा, श्रवण, पुनर्वसु, मघा और स्वाति, काममार्ग में कृत्तिका, आर्द्रा, उ. भाद्रपदा, चित्रा, अभिजित्, मूल और पूर्वा फा. तथा अन्तिम के मोक्षमार्ग के कोष्ठकों में रोहिणी, उत्तरा फा., पूर्वाषाढ़ा, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा, रेवती और हस्त इन नक्षत्रों को लिखना चाहिए।
-पथिराहु चक्र
मार्ग →
धर्म ..
अर्थ
काम
मोक्ष
नक्षत्र ।
अश्विनी
भरणी
कृत्तिका
रोहिणी
पुष्य
पूर्वाभाद्रपदा
आर्द्रा
उत्तरा फा.
आश्लेषा
ज्येष्ठा
उत्तरा भाद्र.
पूर्वाषाढ़ा
धनिष्ठा
श्रवण
चित्रा
मृगशिरा
शतभिषक्
पुनर्वसु
अभिजित्
उत्तराषाढ़ा
विशाखा
मघा
मूल
रेवती
अनुराधा
स्वाती
पूर्वा फाल्गुनी
हस्त
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मुहूर्तराज ]
[१२५ पथिराहुफल (मु.चि.या. प्र. श्लो. १९ वाँ)
धर्मगे भास्करे वित्तमोक्षे शशी, वित्तगे धर्ममोक्षस्थितिः शस्यते ।
कामगे धर्ममोक्षार्थगः शोभनो, मोक्षर्गे केवलं धर्मगः प्रोच्यते ॥ अन्वय - भास्करे धर्मगे सति चेत् वित्तमोक्षे (अर्थमार्गे मोक्षमार्गे वा) शशी (चन्द्रमा:) शोभनः, अथ सूर्ये वित्तगे सति चेत् चन्द्रस्य धर्म-मोक्ष-स्थितिः (धर्मभागे मोक्षभागे वा स्थिति:) शोभन: यदि सूर्यः कामगः तर्हि चन्द्रः धर्ममोक्षार्थग: (धर्ममार्गे, मोक्षमार्गे, अर्थमार्गे वा स्थित:) शोभनफलद: किन्तु सूर्ये मोक्षगे तु चन्द्रमाः केवलं धर्मगः एव शोभन: प्रोच्यते। उक्तवैपरीत्ये तु अशुभत्वम् स्यान्। ___अर्थ - यदि सूर्य धर्म मार्ग में स्थित हो तो चन्द्रमा का अर्थ एवं मोक्ष मार्ग में रहना शुभ है। सूर्य के अर्थमार्ग में रहते चन्द्र की स्थिति धर्म या मोक्षमार्ग में श्रेष्ठ मानी गई है। काममार्ग में यदि सूर्य हो तो चन्द्रमा धर्म मोक्ष एवं अर्थ मार्ग में रहकर ही शुभफलदाता होता है किन्तु सूर्य के मोक्षमार्ग में रहते तो चन्द्रमा का केवल धर्ममार्ग में रहना ही शोभन कहा गया है। आदियामल में भी
सूर्ये धर्मगते चन्द्रो धनेमोक्षे शुभप्रदः । सूर्ये धनगते धर्म-मोक्षमार्गे शुभः शशी ॥ कामेऽर्के धर्ममौक्षार्थे संस्थश्चन्द्रो जयप्रदः ।
मोक्षेऽर्के धर्मगश्चन्द्रः शुभोऽन्यत्रन शोभनः ॥ यदि यात्रा अवश्यमेव करनी ही है और तिथि दुष्टफलदायिनी है, तो एतदर्थ तिथिचक्र की योजना का विधान मु. चिन्तमणिकार ने किया हैआवश्यकयात्रार्थ तिथिचक्रयोजना (मु.चि.या.प्र. श्लो. २० से २३)
पौषे पक्षत्यादिका द्वादशैवं, तिथ्यो माघादौ द्वितीयादिकास्ताः । कामात्तिस्रः स्युस्तृतीयादिवच्च, याने प्राच्यादौ फलं तत्र वक्ष्ये ॥ सौख्यं क्लेशो भीतिरर्थागमश्च, शूव्यं नैःस्वं निःस्वता मिश्रता च । द्रव्यक्लेशो दुःखमिष्टाप्तिरों लाभः सौख्यं मंगलं वित्तलाभः ॥ लाभो द्रव्याप्तिर्धनं सौख्यमुक्तं, भीतिर्लाभो मृत्युरर्थागमश्च । लाभः कष्टद्रव्यलाभौ सुखं च, कष्ट, सौख्यं क्लेशलाभौ सुखं च ॥ सौख्यं लाभः कार्यसिद्धिश्च कष्टं, क्लेशः कष्टात् सिद्धिरों धनं च ।
मृत्यु भो द्रव्यलाभश्च शून्यं, शून्यं सौख्यं मृत्युरत्यन्तकष्टम् ॥ अन्वय - पौषमासादित आरभ्य प्रतिमासं द्वादश द्वादश कोष्ठका: कार्याः तत्र पक्षत्यादिकाः (प्रतिपदात आरभ्य) द्वादश (द्वादशी पर्यन्तम्) माघादौ द्वितीयातः आरभ्य द्वादशी ततः पुनः प्रतिपत् एवं सर्वेषु मासकोष्ठकेषु
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१२६ ]
[ मुहूर्तराज तिथय: लेख्या: कामात् (त्रयोदशीतिथित:) तिस्रः (तिथ्यः) त्रयोदशी चतुर्दशी पञ्चदशी च तृतीयादिवद् फलदायिन्य: यथा त्रयोदशीफलं तृतीयावत् चतुर्दशीफलं चतुर्थीवत् पञ्चदशीफलम् पञ्चमीवत् भवति।
अर्थ - पौष मास से मार्गशीर्ष तक मासों के नीचे प्रतिपदा से द्वादशी तक माघ में द्वितीया से द्वादशी पुनः प्रतिपद् इस प्रकार तिथियाँ लिखनी चाहिए। त्रयोदशी से पञ्चदशी तक की तिथियों के फल क्रमश: तृतीया चतुर्थी और पंचमीवत् ही हैं। अब इस प्रकार के तिथिचक्र में पूर्वादि दिशाओं में प्रयाण के शुभाशुभ फल कहे जायेंगें, जिन्हें निम्नसारिणी में भलीभाँति जाना जा सकेगा
॥ अथ प्रयाणशुभाशुभफलज्ञापक तिथिचक्र ॥
आ
फल
मा घ
मास
चै फा.त्र
ज्ये. आव | भा. शिव का
दक्षिण | पश्चिम
उत्तर
ष
"|
|
पून
| १२| सौख्य | क्लेश | भय
| अर्थ प्राप्ति
३
४
५
८ ९ | १०/११/१२/१ |
शून्य
निर्धनता | निर्धनता
मिश्रता
११, १२ १ २ द्रव्य क्लेश
द्रव्य प्राप्ति | अर्थ सिद्धि
९|१०
११/१२/१
२
३ |
लाभ
सौख्य
मंगल
धन लाभ
११/१२/१
२
३
लाभ
द्रव्य प्रा. | धन प्राप्त
सौख्य
-तिथि-तिथि-तिथि
| १० ११ १२ १
२
३
४
५ .
भय
लाभ
मृत्यु
अर्थ प्राप्ति
१० ११ १२ १
२
३ |
लाभ
कष्ट
द्रव्य लाभ
सुख
१०/११/१२ १
२
३
४
५
६
७ |
कष्ट
सौख्य क्लेश ला.
मौख्य
|१०/११/१२ १
२
३
४
५
६
७
८
सौख्य
लाभ - कार्य सि.
कष्ट
१२/१
२
३
४
५
६
७
क्लेश
कष्ट सि.
-
अर्थ
धन
३
४
५
६
७
८
९
१०
शून्य
अतिकष्ट
मृत्यु लाभ द्रव्य लाभ
७ ८ ९ १० ११/ शून्य । सुख । मृत्यु प्रयाण में लग्नशुद्धि (मु.चि.या.प्र. श्लो. ४३)
कुम्भकुम्भांशको त्याज्यौ, सर्वथा यत्नतो बुधैः । तत्रप्रयातुर्नृपतेरर्थनाशः पदे पदे ॥
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मुहूर्तराज ]
[१२७ अन्वय - बुधैः यत्नतः प्रयाणे कुम्भकुम्भांशको (कुम्भलग्नकुम्भनवमाँशौ) सर्वथा त्याज्यौ, तत्र प्रयातुः (प्रयाणकर्तुः) नृपतेः पदे २ अर्थनाशः।
अर्थ - विद्वानों को यत्नपूर्वक कुम्भ लग्न तथा कुम्भनवांश को सर्वप्रकार से त्यागना चाहिए क्योंकि इन दोनों में प्रयाण करने वाले राजा को कदम २ पर हानि उठानी पड़ती है। नारद का मत
__“निन्द्यो निखिलयात्रासु घटलग्नं घटाशंक:” अर्थात् सभी प्रकार की यात्राओं में कुम्भ लग्ने एवं कुम्भनवांशक निन्दनीय है। इसी आशय को लेकर “श्रीपति” एवं “वराह” भी कहते हैं
“नेष्टः कुम्भोऽप्युदगमेंऽशस्थितो वा” अर्थात् कुम्भलग्नोदय एवं तनवांशोदय यात्रार्थ शुभ नहीं है। (श्रीपति)
__ “न कुम्भलग्नं शुभमाह सत्यो न भागेभेदाद्भावना वदन्ति" अन्यान्य अनिष्टलग्न एवं इष्टफलदलग्न (मु.चि.या.प्र. श्लो. ४४)
अथमीनलग्न उत वा तदंशके, चलितस्य वक्रमिह वनं जायते ।
जनिलग्नजन्मभपती शुभग्रहौ भवतस्तदा तदुदये शुभो गमः ॥ अन्वय - अथ मीनलग्ने इतरेऽपि लग्ने तदंशके (मीननवमांशे) वा चलितस्य (यात्रां कृतवत:) वर्त्म (मार्गः) वक्रम (कष्टपूर्णम) स्यात् जनिलग्नजन्मभपती (जन्मलग्नपति जन्मराशिपती) शुभग्रहौ यदि उदये लग्ने भवतः तदा गमः (यात्रा) शुभः (शुभफलदायिनी) भवेत्।
अर्थ - मीनलग्न अथवा अन्यान्य लग्नों में भी मीन के नवांश में यात्रा करने वाले का मार्ग वक्र हो जाता है अर्थात् उसके यात्रा में अनेक आपदाएँ, कष्ट आदि होते हैं।
जन्मलग्न एवं जन्मराशि के स्वामी शुभग्रह हों और वे लग्न में स्थित हों ऐसे लग्न में यात्रा करना श्रेयस्कर है। . नारद का मत
“वक्र: पन्थाः मीनलग्ने यातुर्मीनांशकेऽपि वा" अर्थात् मीन लग्न में अथवा मीननवांश में यात्रा करने वाले का मार्ग कष्टप्रद रहता है। श्रीपति भी
“वक्रः पन्था मीनलग्नेऽशकेवा कार्यासिद्धि: स्यान्निवृत्तिश्च तस्य" ____मीन लग्न अथवा मीन नवांश में यात्रा करने वाले का मार्ग कष्टपूर्ण हो जाता है और उसको कार्य में सफलता नहीं मिलती तथा उसका कार्य नष्ट हो जाता है।
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१२८ ]
[ मुहूर्तराज वसिष्ठ का भी मत है कि जन्मलग्न एवं जन्मराशि के स्वामी शुभग्रह यदि लग्नस्थ हों अथवा जन्मलग्न और राशिलग्न तभी शुभावह है, जबकि उनके स्वामी शुभग्रह हों यदि पापग्रह हों तो उनकी राशि के लग्न समय में यात्रा अशुभ ही है।
जन्मराशौ लग्नगते तदीशे वा विलग्नगे ।
अभीष्टफलदायात्रा राशिशश्चेच्छुभग्रहः ॥ अनिष्ट लग्न का एक और प्रकार-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ४५ वाँ)
जन्मराशितनुतोऽष्टमेऽथवा स्वारिभाच्च रिपुभे तनुस्थिते ।
लग्नगाः तदधिया यदाथवा स्पुगतं हि नृपतेर्मृतिप्रदम् ॥ अन्वय - (यात्राकर्तुः) जन्मराशितनुत: अष्टमे राशौ यात्रालग्ने तथा स्वारिभात् यात्राकर्तुः स्वशत्रौः राशेः लग्नाद् च रिपुभे (षष्ठराशौ) तनुस्थिते (यात्रालग्नस्थे) अथवा यात्रार्थिन: जन्मराशि जन्मलग्नाभ्यां अष्टमभवने स्वशत्रोर्जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां षष्ठभवने यदि तत्तद्राशिस्वामिनो ग्रहाः यात्राकाललग्नगताः स्युस्तदा यात्राकर्तुः राज्ञ: मृतिप्रदाः ।
अर्थ - यात्रा करने वाले की जन्मराशि से अथवा जन्मलग्न से आठवीं राशि यात्रा लग्न में हो तथा यात्रार्थी के स्वशत्रु की जन्मराशि अथवा जन्मलग्न से छठी राशि यात्रा लग्न में हो अथवा यात्रार्थी की जन्म एवं लग्न राशि से आठवीं राशि के और अपने शत्रु की जन्मराशि और जन्मलग्न से छठी राशि के स्वामी ग्रह यात्राकाल के लग्न में स्थित हों तो यात्रा करने वाले नरपति की अवश्यमेव मृत्यु होती है। इसी विषय में वशिष्ठ का मत____ यात्रार्थी की जन्मराशि से अथवा जन्म लग्न से आठवीं या बारहवीं राशि यदि यात्राकाल के लग्न में हो तो यात्रार्थी की यात्रा विनष्ट हो जाती है
स्वाष्टलग्ने लग्नगते राशौ वा लग्नगे सति ।
यातुर्भङ्गो भवेत्तत्र द्वादमे वाथ लग्नगे ॥ यात्रार्थ शुभ लग्न–(मु.चि.या.प्र.श्लो. ४६ वाँ)
लग्ने चन्द्रे वापि वर्गोत्तमस्थे, यात्रा प्रोक्ता वाञ्छितार्थंकदात्री ।
अम्भोराशौ वा तंदशे प्रशस्तं, नौकायानं सर्वसिद्धि प्रदायि ॥ अन्वय - मीनकुंभव्यतिरिक्ते यस्मिन्कस्मिंश्चिद्लग्ने वर्गोत्तमस्थे वर्गोत्तमनवांशे अथवा चन्द्रे वर्गोत्तमस्थे सति यात्रा वाच्छितार्थंकदात्री (वाञ्छितार्थस्य प्रधानत: दात्रा) भवति (अवश्यमेव यात्रासिद्धिरित्यर्थः) अथ नौका यात्रालग्नं कथ्यते–अम्भोराशौ (जलचरराशौ) लग्नगते अथवा लग्नान्तरेऽपि तदन्तर्गतजलचरराशिनवांशे सति नौकायानम् (नौकायात्रा) सर्वसिद्धिप्रदामि प्रशस्तम् (उक्तम्)।
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मुहूर्तराज ]
[१२९ अर्थ - मीन एवं कुंभ लग्न एवं इनके नवांश को छोड़कर जिस किसी लग्न के वर्गोत्तम रहते अथवा चन्द्र के वर्गोत्तम रहते की गई यात्रा निश्चयपूर्वक वाञ्छित अर्थ की सिद्धि करती है तथा नौका यात्रा के लिए जलराशि अथवा उसका नवांश हो तब वह (नौकायात्रा) सर्वसिद्धिप्रदात्री होती है। यात्रा के लग्न विषय में वसिष्ठ मत
वर्गोत्तमांशत्रे लग्ने त्वथवापि सुधाकरे ।
यात्रा कामदुधा यातुर्माता पुत्रस्य वै यथा ॥ __ अर्थात् जिस प्रकार माता पुत्र की अमीष्टसाधिका होती है उसी प्रकार वर्गोत्तमनवांश लग्नगत होने पर की गई यात्रा प्रयाणकर्ता के सभी इष्टों को सिद्ध करती है।
नौका यात्रा के विषय में मु. चिन्तामणिकार के ही कथन से सम्मत नारद, दुर्गादित्य एवं वराह के मतनारद
“जलोदयो जलांशोऽपि जलयाने शुभप्रद" अर्थात् जलचर राशि अथवा जलचर राशि नवांश का लग्न जलयात्रा में शुभद है। दुर्गादित्य
___ “नौयानभाप्यभवनेषु विलग्नगेषु कुर्यात्तथान्यगृहगेषु तदंशकेषु" अर्थात् जलचर राशियों के अथवा अन्यान्य राशियों में भी जलचरराशि नवांशों में नाव द्वारा यात्रा करना श्रेयस्कर है।
वराह
“नौयानमिष्टं जलराशिलग्ने तदंशके वान्यगृहोदयेऽपि” जलराशि के लग्नस्थ होते अथवा अन्य राशियों में जलराशि के नवांश के लग्नगत होते नौका यात्रा इष्ट फल देती है।
दिशाओं के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल राशियों के लग्न में रहते जो-जो फल होते हैं उनके विषय में मुहूर्त चिन्तामणिकार कहते हैं। दिशानुसार मेषादिराशियों के यात्रालग्न का फल- (मु.चि.या. प्र. श्लो. ४७ वाँ)
दिग्द्वरभे लग्नगते प्रशस्ता, यात्रार्थदात्री जयकारिणी च ।
हानि विनाशं रिपुतो भयं च, कुर्यात्तथा दिग्प्रतिलोभ लग्ने ॥ अन्वय - दिग्द्वारभे लग्नगते सति यात्रा अर्थदात्री जयकारिणी च भवति। तथा दिक्प्रतिलोमलग्ने (कृता) यात्रा हानि विनाशं रिपुतोभयं च कुर्यात्।
अर्थ - दिशाओं स्वस्वनिश्चित राशियों के यात्रा लग्न में रहते की गई यात्रा अर्थसिद्धि तथा विजय प्रदान करती है किन्तु दिशाओं की विपरीत राशियों के लग्न में रहते यदि यात्रा की जाए तो वह यात्रा हानि, विनाश एवं शत्रुभय करती है।
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१३० ]
इस विषय में वसिष्ठ
अर्थ - दिग्द्वार की राशि के लग्न में यात्रा अर्थ एवं विजय प्रदान करती है तथा दिशा विपरीत राशि यदि यात्रालग्न में हों तो उस समय की गई यात्रा हानि एवं शत्रुभय करती है।
और "बृहदयात्रा" में वराह भी
क्र.सं.
१
अर्थात् दिशाओं की अनुकूल राशियों के यात्रालग्न में रहते यात्रा करना अनायास सिद्धि प्राप्त कराता है जबकि दिशा प्रतिकूल राशियाँ लग्नगत होने पर यात्रार्थी का यात्राश्रम व्यर्थ हो जाता है अर्थात् उसे सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।
२
३
लग्नगते
यात्रार्थविजयप्रदा ।
दिग्द्वार भे लग्ने दिक्प्रतिलोमे सा हानिदा शत्रुभीतिदा ॥
४
यातव्यदिक्तनुगतस्य सुखेन सिद्धिः व्यर्थश्रमो भवति दिक्प्रतिलोमलग्ने ।
- दिशानुसार यात्रा में शुभाशुभफलद यात्रालग्न बोधक सारणी
दिशाएँ
पूर्व
पश्चिम
उत्तर
दक्षिण
दिशाओं के स्वामी - (मु. चि. या. प्र. श्लो. ४९ वाँ)
शुभफलद यात्रालग्न
मेष, सिंह, धनु
मिथुन, तुला, कुंभ
कर्क, वृश्चि., मीन
[ मुहूर्तराज
वृषभ, कन्या, मकर
अशुभफलद यात्रालग्न
मिथुन, तुला, कुम्भ
मेष, सिंह, धनु
सूर्यः सितो भूमिसुतोऽथ राहुः शनिः शशी ज्ञश्च बृहस्पतिश्च । प्राच्यादितो दिक्षु विदिक्षु चापि दिशामधीशाः क्रमतः प्रदिष्ठाः ॥
वृषभ, कन्या, मकर
कर्क, वृश्चिक, मीन
अन्वय सूर्य:, सित:, भूमिसुतः अथ राहुः, शनि:, शशी, ज्ञः, बृहस्पतिश्च क्रमतः प्राच्यादित: दिक्षु विदिक्षु चापि दिशामधीशाः प्रदिष्टाः (कथिता: ) ।
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मुहूर्तराज ]
[ १३१
अर्थ- सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्रमा, बुध और गुरु ये आठ ग्रह क्रमवार पूर्वादि दिशाओं और विदिशाओं में दिक्स्वामी कहे गए हैं। ये ग्रह जब यात्रा कुण्डली में ( यात्रालग्न में) लालाटिक बनाने वाले स्थानों में स्थित हों तो यात्रा नहीं करनी चाहिए। ये सूर्यादिग्रह जिन-जिन स्थानों में जिन-जिन दिशाओं के लिए लालाटिक बनते हैं, उस विषय में मुहूर्त चिन्तामणिकार कहते हैं
लालाटिक योग - (मु.चि.या. प्र.श्लो ५१ वाँ)
प्राच्यादौ तरणिस्तनौ भृगुसुतो लाभव्यये भूसुतः, कर्मस्थोऽथ तमो नवाष्टमगृहे सौरिस्तथा सप्तमे । चन्द्रः शत्रुगृहात्मजेऽपि च बुधः पातालगो गीष्पतिर वित्तभ्रातृगृहे विलग्नसदनात् लालाटिकाः कीर्तिताः ॥
"
अन्वय - प्राच्यादौ क्रमेण विलग्नसदनात् (यात्रालग्नकुण्डल्याम् लग्नात्) तनौ तरणिः, लाभव्यये भृगुसुतः, कर्मस्थ भूसुतः, नवाष्टमगृहे तमः तथा सप्तमे सौरिः शत्रुगृहात्मजे अपि चन्द्र:, पातालगः बुधः वित्तभ्रातृगृहे गोष्पति: (गुरुः) लालटिका : कीर्तिताः कथिताः ॥
अर्थ - पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः यात्रा कुण्डली में लग्नस्थ सूर्य (पूर्व में प्रयाण करने वाले के) एकादश और द्वादश भाव में स्थित शुक्र (अग्निकोण में यात्रा करने वाले के) दशमलव में स्थित मंगल (दक्षिण में यात्रार्थी के लिए) अष्टम और नवम स्थान में राहु (नैऋत्य में प्रयाणकर्त्ता के लिए) सप्तम स्थान में शनि (पश्चिम दिशा में यात्रा करने वाले के लिए) चतुर्थ स्थान में स्थित बुध ( उत्तर की यात्रा के लिए) और दूसरे तथा तीसरे स्थान में स्थित गुरु ( ईशान उपदिशा की यात्रा करने वाले के लिए) लालाटिक कहे गए हैं। नारद भी
लग्नस्थो भास्करः प्राच्यां दिशि यातुर्ललाटगः । द्वादशैकादशे शुक्रः आग्नेय्यां तु ललाटगः ॥ दशमस्थ कुजो लग्नाद् याम्यायां तु ललाटगः । नवमाष्टगतो राहुर्नैऋत्यां तु ललाटगः ॥ लग्नात्सप्तमगः सौरिः प्रतीच्यां तु ललाटगः । षष्ठपञ्चमगश्चन्द्रो वायव्यां तु ललाटगः 11 चतुर्थस्थानगः सौम्य उत्तरस्यां ललाटगः I द्वित्रिस्थानगतो जीवः ऐशान्यां तु ललाटगः ॥ ललाट-दिक्पतिं त्यक्त्वा जीवितेप्सुर्वजेन्नृपः ।
स्थानानुसार ग्रहों की लालाटिक योगकारक स्थिति को निम्न कुण्डली में समझिए ।
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१३२ ]
ऐशानी का स्वामी बृहस्पति
दिशास्वामि ज्ञापक कुण्डली
ईशान की यात्रा में
तृतीय भाव और द्वितीय भाव बृहस्पति लालाटिक
मात्रा में
उत्तर का
स्वामी
बुध
उत्तर की यात्रा
चतुर्थ भाव मे स्थिति
बुध लालाटिक
पूर्व का
स्वामी
सूर्य
दिशानुसार लालाटिक योगकारक ग्रहस्थिति ज्ञापक- कुण्डली
kle betale
पश्चिम का
स्वामी
शनि
पूर्व की यात्रा में
प्रथम भाव में स्थिति
सूर्य लालाटिक
सप्तम भाव में स्थिति
शनि
लालाटिक
此有
आग्नेयी का स्वामी शुक्र
दक्षिण का
स्वामी
मंगल
राहु
दशम भाव में स्थिति
मंगल
ला नाटिक
अग्नेय की यात्रा में
द्वादश भाव और
एकादश भाव ( शुक्र लालाटिक
दक्षिण
[ मुहूर्तराज
की यात्रा में
blh hate
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मुहूर्तराज ]
यात्रा में दिशानुसार समय बल – (मु.
-
- (मु.चि.या. प्र.श्लो. ५४ वाँ)
उषः कालो विना पूर्वाम् गोधूलिः पश्चिमां विना । विनोत्तरां निशीथः सन् याने याम्यां विनाभिजित् ॥
अन्वय याने उष:काल पूर्वां (पूर्वदिग्यात्रां) विना सन् (शुभ) गोधूलि : पश्चिमां विना सन् (शुभ:) निशीथः (अर्द्धरात्रम्) उत्तरां विना सन् तथा चामिजिवेला याम्यां (दक्षिणदिशम् ) विना सन् (श्रेष्ठ) अर्थात् उषसि पूर्वव्यतिरिक्तदिशासयात्रा प्रशस्ता गोधूलिवेलायाम् पश्चिमदिग्व्यतिरिक्तदिशासु यात्रा शुभा, निशीथे उत्तरदिशातिरिक्तदिशासु यानम् शुभम् अभिजिवेलायाम् च दक्षिणदिगतिरिक्तदिशासु यात्रा प्रशस्ना इति निष्कृष्टोऽर्थः भवति तथाति प्रयाणे रविर्दक्षिणस्थः श्रेयानिति उष:काले सूर्यं दक्षिणं कृत्वा उतरां व्रजेत् मध्याह्ने सूर्यं दक्षिणं कृत्वा पूर्वां व्रजदे अपराह्नेऽपि रविं दक्षिणं कृत्वा दक्षिणां गच्छेत् मध्यरात्रौ चापि रविं दक्षिणं विधाय पश्चिमां दिशं गच्छेत् इति “उषःकालो” इति पद्यस्य वस्तुतः अर्थः अवगन्तव्यः।
अर्थ - उष:काल में पूर्वदिशा को गोधूलि वेला (सायंकाल ) में पश्चिम को, अर्धरात्रि में उत्तर को तथा अभिजिद् वेला अर्थात् मध्याह्न में दक्षिण दिशा को त्यागकर यात्रा करना श्रेयस्कर है, किन्तु इससे यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिए कि उष:काल में पूर्वातिरिक्त अन्य तीनों, सायंकाल में पश्चिमातिरिक्त तीनों, अर्धरात्रि में उत्तरातिरिक्त तीनों और मध्याह्न में दक्षिणारिक्त तीनों दिशाओं की यात्रा शुभ है क्योंकि यात्रा में रवि को दणिणस्थ ही लेना सभी आचार्यों ने तथा स्वयं चिन्तामणि कार ने भी शुभ कहा है, अतः पूर्वार्द्ध में (उष:काल में ) उत्तरदिशा की मध्याह्न में पूर्वदिशा की, अपराह्न में दक्षिण की ओर मध्यरात्रि में पश्चिम दिशा की ही यात्रा करनी चाहिए क्योंकि इस प्रकार कालानुसार यात्रा करने पर ही रवि यात्राकर्त्ता के दाहिनी ओर रह सकता है। इसी बात को स्पष्टतया श्रीवसिष्ठ कहते हैं
[ १३३
पूर्वाहणेऽप्युत्तरां गच्छेत् प्राचीं मध्यन्दिने तथा । दक्षिणां चापराहणे तु, पश्चिमामर्धरात्रके ॥ न तत्राङ्गारको विष्टिर्व्यतीपातो न वैधृति । सिद्धयन्ति सर्वकार्याणि, यात्रायां दक्षिणे रविः ॥
अर्थ - पूर्वाह्ण में रवि पूर्व दिशा में रहता है अतः उसे दाहिनी ओर रखते हुए उत्तर की मध्याह्न में रवि दक्षिण दिशा में रहता है अतः उसे ( रवि को ) दाहिनी ओर रखते हुए पूर्व की अपराह्ण में रवि पश्चिम दिशा में रहता है, अतः उसे दाहिनी ओर रखते हुए दक्षिण की एवं अर्धरात्रि में रवि उत्तर दिशा में रहता है अतः उसे दक्षिण हाथ की ओर रखते हुए पश्चिम की यात्रा शुभकारिणी होती है क्योंकि यात्रा में सूर्य को दाहिनी ओर रखना ही शुभफलद माना गया है। रवि को दाहिनी ओर रखने से जिन-जिन कुयोगों का निवारण होता है एवं सर्वकार्य सिद्ध होते हैं, इस विषय में श्री वसिष्ठ कहते हैं कि यात्रा में दाहिनी ओर सूर्य के रहते अंगारक दोष भद्रा, व्यतिपात एवं वैधृति आदि दोष नहीं लगते तथा सर्वकार्य सिद्ध होते हैं।
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१३४ ]
[ मुहूर्तराज अभिजित् प्रशंसा में श्रीपति मत
अष्टमो ह्यभिजिदाह्वयक्षणो दक्षिणाभिमुखयानमन्तरा ।
कीर्तितोऽपरककुप्सु सूरिभिर्यायिनामभिमतार्थसिद्धये ॥ अन्वय - सूरिभिः दक्षिणाभिमुखयानमन्तरा (दक्षिणयात्राम् विहाय) अष्टमः अभिजिदाह्रयक्षण: (अभिजिन्मुहूर्तम्) अपरककुप्सु यायिनाम अभिमतार्थसिद्धये (अभिमतासिद्धिदम्) कीर्तितिः (कथितः)
अर्थ - अनेक पूर्वाचार्यों का कथन है कि दिवस का आठवाँ मुहूर्त (मध्याह्नकाल के पूर्वापर भाग की १-१ घड़ी) दक्षिण दिशा की यात्रा के अतिरिक्त सभी दिशाओं की यात्रा में यात्रार्थियों को उनकी अभिमतसिद्धि को देने वाला होता है। यात्रालग्न कुण्डली में ग्रहों की शुभाशुभफलदायकता-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ५६ वाँ)
केन्द्रे कोणे सौम्यखेटाः शुभाः स्युः ,
याने पापाः त्र्यायषटखेषु चन्द्रः । नेष्टो लग्नान्त्यारिरन्धे शनिः खेड
स्ते शुक्रो लग्नेणनगान्त्यारिरन्धे ॥ अन्वय - याने (प्रयाणलग्नकुण्डल्याम्) सौम्यखेटाः (सौम्यग्रहा:) केन्द्रे (प्रथम चतुर्थसप्तमदशमस्थानेषु) कोणे (नवमे पञ्चमे वा स्थाने) शुभाः स्युः पापाश्च न्यायषट्खेषु (तृतीयकादशषष्ठदशमस्थानेषु) शुभाः भवन्ति। चन्द्रः लग्नान्त्यारिरन्ध्रे (लग्नद्वादशषष्ठाष्टमस्थानेषु) स्थित: नेष्टः (अशुभफलदाता) शनिः खे (दशम स्थाने) अशुभः, शुक्रः अस्ते (सप्तमभावे) नेष्टफलदः. लग्नेट् च (यात्रालग्नस्वामी) नगान्त्यारिरन्ध्र (सप्तमद्वादशषष्ठाष्टमस्थानस्थः) अनिष्टफलदः।
अर्थ - प्रयाण समय की लग्नकुण्डली में सौम्यग्रह (चन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र) केन्द्र या कोण में (१, ४, ७, १०, ९ और ५ स्थानों में) हों तो वे शुभफलदायी होते हैं तथा पापग्रह तृतीय एकादश षष्ठ
और दशम स्थान में स्थित इष्ट फलदाता होते हैं। चन्द्र की स्थिति लग्न में, बारहवें में, छठे में और आठवें में नेष्टफलदात्री नहीं होती तथा यात्रालग्न पति का भी सातवें बारहवें छठे और आठवें स्थान में रहना भी अनिष्टकारक होता है। यात्रालग्न ग्रहस्थिति विषय में वसिष्ठमत
नन्नि क्रूरास्त्रिषष्ठायभावान् हित्वा परान्सदा ।
पुष्णन्नि सौम्यखचराः षष्ठाष्टान्त्यं विना परान् ॥ “लग्नषष्ठाष्टमं हन्ति चन्द्रः शुक्रोऽस्तगस्तथा मृत्युलग्नस्थितचन्द्रो यातुर्मृत्युप्रदः सदा।"
अर्थ - तीसरे, छठे एवं ग्यारहवें भावों से अतिरिक्त भावों में (स्थानों में) स्थित पापग्रह उन भावों का नाश करते हैं तथा छठे, आठवें और बारहवें स्थानों को छोड़कर अन्य स्थानों में बैठे हुए शुभग्रह उन
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मुहूर्तराज ]
[ १३५
भावों की पुष्टि करते हैं। लग्न में छठे स्थान में और आठवें स्थान में स्थित चन्द्रमा हानिप्रद है तथैव शुक्र सप्तम भाव में स्थित यात्राकर्त्ता के लिए अहितकर है और अष्टम भाव में चन्द्रमा की स्थिति तो प्रयाणकर्त्ता की मृत्युकारिणी ही होती है।
इसी आशय को लेकर वराह एवं श्रीपति ने भी कहा है
वराह
प्रायोजगुः
सहजशत्रुदशायसंस्थाः पापाः शुभाः सवितृजं परिहृत्य खस्थम् । सर्वत्रगाः शुभफलं जनयन्ति सौम्याः त्यक्त्वास्तसंस्थमरारिगुरुं
यियासौ ॥
अर्थात् – केवल पापग्रहों में शनि की दशमभावगता स्थिति को छोड़कर शेष सभी पापग्रह ३, ६, १० और ११ स्थान में शुभफलद होते हैं तथा शुक्र की सप्तमभाव स्थिति को त्यागकर सभी शुभग्रह सभी स्थानों में शुभ फलदायी ही है।
श्रीपति
क्र.सं.
१
२
७
८, ९
यदि
ग्रह
सूर्य
चन्द्र
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
राहु-केतु
लग्नपति
{
शुभग्रह
क्रूर - ग्रहाः त्र्यरिदशायगताः शुभाः स्युः, हित्वा शनि दशमभावगतं यियासोः । मूर्त्यादिभावनिचये सकलेsपि सौम्याः श्रेष्ठाः भृगोस्तनयमस्तगतं विहाय ॥
- यात्रालग्न-ग्रह- शुभाशुभस्थान ज्ञापक सारणी
शुभ स्थान
३, ६, १०, ११
४, ७, १०, ९, ५, २, ३, ११
३, ६, १०, ११
१, ४, ७, १०, ९, ५, २, ३,
१, ४, ७, १०, ९, ५, २, ३, ११
१, ४, १०, ९, ५, २, ३, ११
३, ६, ११
३, ६, १०, ११
शुभग्रहोक्त शेष स्थान अशुभग्रहोक्त शेष स्थान
, ११
अशुभ स्थान
१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२
१, ६, ८, १२,
१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२
६, ८,
१२
१२
६, ८,
६, ७, ८,
१२
१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १०, १२
१, २, ४, ५, ७, ८, ९, १२
७, १२, ६, ८
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१३६ ]
[ मुहूर्तराज यात्रा दिवस की पञ्चाङ्गशुद्धि होने पर भी चित्तोत्साह, अंगस्फुरण एवं शकुनापशकुनादि का विचार करना यात्रा में अति आवश्यक है अत: इस विषय में चिन्तामणिकार कहते हैंमन:शुद्धिनिमित्तादिप्रशंसा–(मु.चि.या.प्र. श्लो. ७८ वाँ)
चेतोनिमित्तशकुनैरतिसुप्रशस्तैः
ज्ञात्वा विलग्नबलमुळधिपः प्रयाति । सिद्धिर्भवेदथ पुनः शकुनादितोऽपि ,
चेतोविशुद्धिरधिका न च तां विनेयात् ॥ अन्वय - यदि अतिप्रशस्तैः चेतोनिमित्तशकुनैः (सद्भिः) विलग्नबलमपि ज्ञात्वा उळधिप: प्रयाति तदा सिद्धिर्भवेत् अथ पुन: शकुनादित: अपि चेतो विशुद्धिः अधिका (मता) तां च विना न इयात् (गच्छेत्)।
अर्थ - अतिप्रशंसनीय चित्तविशुद्धि, अंगस्फुरण एवं शुभ शकुनादि के होने पर लग्नशुद्धि देखकर यदि यात्रार्थी यात्रा करे तो उसे अवश्यमेव सिद्धि मिलती है। शकुनादि के श्रेष्ठ होने पर भी यदि चित्त विशुद्धि (चित्त में उत्साह) न हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा में चेतोविशुद्धि आदि के विषय में नारद मत
मनोनिमित्तशकुनैर्लग्नं लब्ध्वा रिपोः पुरम् ।
_ विजिगीषुर्यो व्रजनि विजयश्रीस्तमेत्यलम् ॥ अर्थात् - जो मनोविशुद्धि, निमित्त और शकुनादि एवं लग्नबल देखकर शत्रु नगर पर आक्रमणार्थ यात्रा करता है उसे विजयश्री अवश्यमेव वरण करती है। निमित्तशकुनादि से भी मनोविशुद्धि की विशेषता-(कश्यप मत से)
निमित्तशकुनादिभ्यः प्रधानो हि मनोजयः ।
तस्माद् यियासितांनृणां फलासिद्धिर्मनोजयात् ॥ अर्थात् - निमित्त एवं शकुनादिको से भी मनोज्य (चित्तोत्साह) प्रधान है अत: मनोजय के होते यात्रार्थियों को यात्रा करने पर उन्हें अवश्य ही फलसिद्धि प्राप्त होती है। यात्रा में निषिद्ध निमित्त-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ७९)
व्रतबन्धनदैवतप्रतिष्ठाकरपीडोत्सवसूतकासमाप्तौ
न कदापि चलेत् अकालविद्युद्धनवर्षातुहिनेऽपि सप्तरात्रम् ॥ अन्वय - व्रतबन्धनदैवतप्रतिष्ठाकरपीडोत्सवसूतकासमाप्तौ अकालविद्युद्घनवर्षातुहिनेऽपि सप्तरात्रम् कदापि न चलेत्।
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मुहूर्तराज ]
[१३७ अर्थ - व्रतबन्धन (यज्ञोपवतीत) दैवतप्रतिष्ठा (देव प्रतिष्ठा) करपीडा (विवाह) उत्सव (होली आदि) सूतक (जनन एवं मरण से उत्पन्न) ये जितने दिन तक के हों तो इनकी समाप्ति के बिना एवं बिना समय के बिजली, बादल, वर्षा, कुहरा आदि के होने पर सात रात्रि तक यात्रा कदापि न करें। राजमार्तण्ड में भी
पौषादि चतुरो मासान् प्राप्ता वृष्टिरकालजा ।
- व्रतं यात्रादिकं चैव वर्जयेत् सप्तवासरान् ॥ अर्थात् - पौष, माघ, फाल्गुन और चैत्र इन चार मासों में जो वृष्टि होती है उसे अकालवृष्टि कहते हैं, अत: उसमें सात दिवस पर्यन्त व्रत, यात्रादि कर्मों का त्याग करना चाहिए।
कश्यप भी
उत्पातेषु त्रिविधेषु तडिद्गर्जितवृष्टिषु ।
अकालजेष्वेषु सत्सु सप्तरात्रम् न तु व्रजेत ॥ अर्थात् - भूमि अन्तरिक्ष और दिव्य इन तीनों उत्पातों के होने पर तथा अकाल विद्युद् मेघगर्जन एवं वृष्टि के होने पर सात रातों तक यात्रा नहीं करें। ___ एक ही दिन में समाप्य राजयात्रा में दिक्शूलादि विचारणा नहीं करनी चाहिए इसी आशय को लेकर चिन्ताणिकार-(मु.चि.या.प्र.श्लो. ८० वाँ)
महीपतेरेकदिने पुरात्पुरे यदा भवेतां गमनप्रवेशकौ ।
भवारशूलप्रतिशुक्रयोगिनी विचारयेन्नैव कदापि पण्डितः ॥ अन्वय - यदा महीपतेः राज्ञः पुरात्पुरे एकस्मान्नगरानगरान्तरे एकदिने एवं गमनप्रवेशको भवेताम् तदा यथाकथंचित्पंचागशुद्धिमात्रमालोच्य नक्षत्रवारशूलप्रतिशुक्रयोगिनी: (एतान् दोषान्) पण्डित: नैव विचारयेत्।
अर्थ - यदि राजा का एक ही दिन किसी नगर से प्रस्थान और किसी नगर में प्रवेश हो तब नक्षत्रशूल, वारशूल, सम्मुखशुक्र और योगिनी आदि के सम्बन्ध में पण्डित को विचार नहीं करना चाहिए।
यहाँ यह शंका होती है कि एक दिन की निर्गमप्रवेश यात्रा में निर्गम अथवा प्रवेश इन दोनों के विषय में दिनशुद्धि (समयशुद्धि) नहीं देखनी है या दोनों में से किसी एक के लिए समयशुद्धि विचारणा करनी है इसका समाधान करते हुए श्री चिन्तामणिकार-(मु.चि.या.प्र. श्लो ८१ वाँ)
यद्येकस्मिन् दिवसे महीपतेर्निर्गमप्रवेशौस्तः । तर्हि विचार्यः सुधिया प्रवेशकालो न यात्रिकस्तत्र ॥
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१३८ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - यदि एक दिन किसी नगर से राजा को प्रस्थान करना है और उसी दूसरे नगर में प्रवेश करना है, तो ऐसी स्थिति में विद्वान को चाहिए कि वह उस नृपति के लिए केवल प्रवेश के लिए ही मुहूर्त देखना चाहिए प्रस्थान के लिए नहीं ।
इस प्रकार प्रस्थान विषयक सर्व विचार करने के बाद प्रयाण कार्य किस विधि से करना है, इसी आशय को लेकर चिन्तामणिकार प्रस्थानकालिक विधि बतला रहे हैंगमनसमयविधि—(मु.चि.या. प्र.श्लो. ८९ वाँ )
-
उद्धृत्य प्रथमत एवं दक्षिणांघ्रिम् द्वात्रिंशत्पदमभिगम्य दिश्ययानम् ।
अन्वय प्रस्थानवेलायां प्रथमत एव दक्षिणाङ्घ्रिम् दक्षिण चरणम् उद्धृत्य पश्चात् द्वात्रिंशत्पदम् एतत्संख्याकपदपरिमिताम् भूमिं अभिगम्य तावत्प्रमाणां भूमिं गत्वा दिश्ययानम् गजहयरथादिकं आरुह्य आदौ गणकवराय सतिलघृतहेमताम्रपात्रम् दत्त्वा पश्चात् प्रगच्छेत् प्रस्थितो भवेत्।
आरोहेत् तिलघृतहेमताम्रपात्रम्
अन्वय प्रस्थान समय में सर्वप्रथम यात्रार्थी अपने दाहिने चरण को उठाकर ३२ कदम तक चले फिर दिशा प्रस्थान के लिए निश्चित सवारी पर बैठे । ततः तिल घृत एवं सुवर्ण सहित ताम्रपत्र का ज्योतिषी को दान देकर यात्रार्थ प्रस्थान करे ।
दत्त्वादौ गणक वराय च प्रगच्छेत् ॥
-
विभिन्नदिग्यात्रार्थ विभिन्न २ यान - (मु. चि. या. प्र. श्लो. ९० वाँ )
अन्वय
नृपः प्राच्यां (पूर्वदिशि ) गजेनैव गजमेवारुह्य गच्छेत्, दक्षिणस्यां दक्षिणदिशि रथेन रथमारुह्य
गच्छेद् हि। प्रतीच्यां दिशि अश्वेन गच्छेत् तथा च उदीच्यामुत्तरे नरैः नरवायैर्यानै । " पालकी” इति भाषायाम्
गच्छेत्।
प्राच्यां गच्छेद् गजेनैव दक्षिणस्यां रथेन हि । दिशि प्रतीच्यामश्वेन तथोदच्यां नरैर्नृपः ॥
अर्थ राजा को चाहिए कि वह पूर्व दिशा की यात्रा हाथी पर सवारी करके करे, दक्षिण की यात्रा के लिए वह रथ का उपयोग करें। पश्चिम की यात्रा के लिए घोड़े पर सवार होकर प्रस्थान करे और उत्तर में यात्रा के लिए वह पालकी पर सवार होकर चले ।
यान के विषय में वराह भी
" प्रागादिनागरथवाजि नरैस्तु यायात् "
अर्थ - पूर्वादि दिशाओं में क्रमश: हाथी, रथ घोड़े और पालकी को सवारी के काम में लाए ।
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मुहूर्तराज ]
[ १३९
यदि प्रयाण का समय निर्णीत कर लिया जाय किन्तु किसी आवश्यकीय कार्य के आ पड़ने से उस समय यात्रा करना असम्भव हो वर्णक्रम से जिस-जिस वस्तु को प्रस्थान रूप में पहुँचाना चाहिए अर्थात् अपने घर से अन्यत्र स्थान में रखना चाहिए उस विषय में श्री चिन्तामणिकार कहते हैंयात्रा में विलम्बता के कारण प्रस्थाप्य वस्तुएँ - ( मु. चि. या. प्र . ९२ )
कार्याद्यैरिह गमनस्य चेद् विलम्बो, भूदेवादिभिरूपवीतमायुधं च । क्षौद्रं चामलफलमाशु चालनीयम् सर्वेषां भवति यदेव हृत्प्रियं वा ॥ अन्वय - कार्याद्यैः दूह गमनस्य चेद् विलम्बः तदा ( विचारिते यात्रालग्ने) भूदेवादिभिः ब्राह्मणक्षत्रविट्शूद्रैः क्रमशः उपवीतम्, आयुधं क्षोद्रं आमलफलम् च आशु स्वस्थानात् (स्वगृहाद) चालनीयम् प्रस्थापनीयम्। अथवा सर्वेषां चतुर्णामपि वर्णजातानाम् यस्य यद् वस्तु हत्प्रियं मनोहारि भवेत् तद् वस्तु प्रस्थाप्यम् ।
अर्थ यात्रालग्न निर्णीत हो जाने पर भी यदि किसी आवश्यक कार्यवश गमन में विलम्ब होता दिखाई दे तो यात्रार्थी विप्र को यज्ञोपवीत क्षत्रिय को कोई स्वशस्त्र विशेष वैश्य को मधु (शहद) और शूद्रवर्णको आमलकी फल (आंवले) या नारियल अपने स्थान से अन्य स्थान में प्रस्थापित कर देना चाहिए अथवा समस्त वर्णों के व्यक्तियों में जिसे जो वस्तु प्रिय हो वह उस वस्तु को प्रस्थान के रूप में प्रस्थापित करें।
प्रस्थान विषय में वसिष्ठ मत
श्वेतातपत्रध्वजचामराश्वविभूषणोष्णीषगजाम्बराणि
अर्थात् - राजा रथयात्रा में विलम्ब होने पर निर्णीत यात्रा लग्न समय में अपनी निम्नांकित वस्तुओं से प्रियातिप्रिय वस्तु को प्रस्थापना रूप में अपने भवन से रवाना करे - यथा- श्वेतछत्र, ध्वज, चामर, अश्व, आभूषण, पगड़ी, हाथी, वस्त्र हिंडोला, पालकी, रत्न, रथ, घुड़सवार, शय्या एवं आसनादि जो मन को
भाए ।
1
आन्दोलिकारत्नरथाश्ववारान् शय्यासताद्यं मनसस्त्वभीष्टम् ॥
प्राच्यों के मत से प्रस्थान परिमाण - (मु.चि.या. प्र. श्लो. ९३ वाँ )
"
गेहाद्गेहान्तरमपि गमः तर्हि यात्रेति गर्गः सीम्नः सीमान्तरमपि भृगुर्बाणविक्षेपमात्रम् । प्रस्थानं स्यादिति कथयतेऽथो भरद्वाज एवम्,
यात्रा कार्या बहिरिह पुरात् स्याद् वसिष्ठो ब्रवीति ॥
5
अन्वय - गेहाद् स्वगेहाद् गेहान्तरमपि अन्यगृहमपि उद्दिश्य गमः चेत् तर्हि यात्रा इति गर्गः, सीम्नः ग्रामसीमन: सीसान्नरमपि अन्यग्रामसीमानं यावद् यात्रा इनि भृगुराह । योद्धः बाजविक्षेपमात्रम् यात्रा प्रस्थानं स्तात् इति भारद्वाजः कथयते । पुरात् बहिः यात्रा कार्या इति वसिष्ठः प्रस्थानविषये ब्रावीति ।
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१४० ]
[ मुहूर्तराज __ अर्थ - यात्रार्थी का अपने घर से किसी अन्य घर तक प्रस्थाप्य वस्तु लेकर जाना प्रस्थान है ऐसा गर्गाचार्य का मत है। भृगु कहते हैं कि एक गाँव की सीमा का उल्लंघन करके दूसरे गाँव की सीमा में पहुँचना प्रस्थान है। एक योद्धा का बलपूर्वक चलाया गया बाण जितनी दूरी पर जाए प्रमाण भूमि तक यात्रा करना प्रस्थान कहलाता है ऐसा भारद्वाज का कथन है एवं वशिष्ठ का मत है कि नगर से बाहर जाना प्रस्थान है। राजमार्तण्डकार
गृहाद गृहान्नरं गर्ग सीम्नः सीमान्तरं भृगुः ।
शरक्षेपाद् भरद्वाजो वसिष्ठो नगराद् बहिः ॥ मुनिमत से प्रस्थान परिमाण -(मु.चि.या.प्र. श्लो. ९४ वाँ)
प्रस्थानमत्र धनुषां हि शतानि पञ्च , केचिच्छतद्वमुशन्ति दशैव चान्ये । सम्प्रस्थितो य इह मन्दिरतः प्रयातो।
गन्तव्यदिक्षु तदपि प्रयतेन कार्यम् ॥ अन्वय - अत्र धनुषां पञ्चशतानि प्रस्थानम् हि इति के चित् (आचार्या) ऊचू: अन्ये तु धनुषां शतद्वयम् अपरे च धनुषां दशैव प्रस्थानम् उशन्नि मन्दिरतः (गृहत: दशैव धनूंषि == चत्वारिंशहद्धस्तावधि दूरे) सम्प्रस्थितः प्रयात एव ज्ञेयः। तदपि प्रस्थानं यात्रिणा तन्तव्यदिक्षु (यत्र यात्रा चिकीर्षितातद्दिगभिमुखम्) प्रयतेन सविधिना कार्यम्।
__ अर्थ - कतिपय आचार्य कहते हैं कि जिस दिशा में यात्रार्थी यात्रा करना चाहता है उस ओर ५०० धनुष दूरी तक उसे प्रस्थान करना चाहिए। कुछ एक मुनियों का मत है कि स्वभवन से २०० धनुष की दूरी तक प्रस्थान करें। अन्य मुनिजन कहते हैं अपने घर से १० धनुष अर्थात् ४० हाथ की दूरी तक प्रस्थान करना भी प्रमाण ही जानना चाहिए। धनुष परिमाण-(भास्कराचार्य)
यवौदरैरंगुलमसंख्यै हस्तोऽगुलैः षड्गुणितैश्चतुभिः ।
हस्तैश्चतुर्भिर्भवतीय दण्डः क्रोश सहस्त्रद्वितयेन तेषाम् ॥ अर्थ - आठ जौ भूमि पर रखे जाने से वे जौ अपने मध्यभागों से जितना स्थान घेरते हैं, उसे अंगुल कहते हैं तथा २४ अंगुलों का एक हाथ परिमाण होता है। चार हाथों का एक दण्ड (धनुष) और दो हजार दण्डों का १ कोश होता है। राजमार्तण्ड ने यात्रार्थी द्वारा स्वयं प्रस्थान के गुण बतलाये हैं-यथा
स्वशरीरेण यः कश्चिन्निर्गच्छेच्छद्धयान्वितः । तस्य यात्राफलं सर्वं सम्पूर्ण पथि सिध्यति ॥
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मुहूर्तराज ]
[१४१ अर्थात् - जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक स्वयं प्रस्थानकार्य करता है उसे यात्रामार्ग में यात्रा का सम्पूर्ण फल प्राप्त होता है। प्रस्थानदिनसंख्या तथा मैथुन निषेध-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ९५ वाँ) ।
प्रस्थाने भूमिपालो दशदिवसभभिव्याप्य नैकत्र तिष्ठेत् , सामन्तः सप्तरात्रं तदितरमनुजः पञ्चरात्रम् तथैव । ऊर्ध्वं गच्छेच्छुभाहेऽप्यथ गमनदिनात् सप्तरात्राणि पूर्वम्
चाशक्तौ तद्दिनेऽसौ रिपुविजयमना मैथुनं नैव कुर्यात् ॥ अन्वय - भूमिपालो राजा प्रस्थाने दशदिवसमभिव्याप्य न तिष्ठेत् (दशादिनेभ्यः प्रागेवाग्रे चलेत्) सामन्तः (माण्डलिकः) सप्तरात्रमेकत्र प्रस्थाने न वसेत्। तदितरमनुष्य: भूपस्पमन्तातिरिक्तसाधारणजनः पञ्चरात्रम् न वसेत्। यदि ऊर्ध्वम अवधिदिवसातिक्रमे पुन: गृहभागत्य शुभाहे शुभदिवसे गच्छेत् अथ गमनदिवसात् पूर्व सप्तरात्राणि अथवा अशक्तौ कामुकत्वास्थातुम् असमर्थतायाम् तद्दिने यात्रा दिवसे मैथुनम् नैव कुर्यात्।
अर्थ - स्वशत्रु पर विजयलाभ के इच्छुक राजा को चाहिए कि वह प्रस्थान में उस स्थान पर दस दिन व्यतीत न करे अर्थात् दस दिवस बीतने के पूर्व ही अपनी आगे की यात्रा प्रारम्भ कर दे। सामन्त के लिए सात रातें बिताना तथा सामान्य जन के लिए पाँच रातें बिताना प्रस्थान नियम के विरुद्ध है।
तथा च यात्रा के सात रात्रि पहले ही अथवा अधिक कामावेश के कारण नहीं रहा जा सके तो यात्रा की रात्रि में मैथुन नहीं करें। यात्रा के पूर्व मैथुन त्याग के विषय में “च्यवन” -
त्रिरात्रम् वर्जयेत् क्षीरं पञ्चाहं क्षुरकर्म च ।
तदहश्चावशेषाणि सप्ताहं मैथुनं त्यजेत् ॥ ___ अर्थात् - यात्रा के तीन दिन पूर्व दूध का पांच दिन पूर्व हजामत का तथा यात्रा दिन को मधु एवं तैल का तथा सात दिन पूर्व मैथुन का त्याग करना चाहिए। प्रस्थानकर्ता के नियम-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ९६ वाँ)
दुग्धं त्याज्यं पूर्वमेव त्रिरात्रम्, क्षौरं त्याज्यं पञ्चरात्रं तु पूर्वम् ।
क्षौद्रं तैलं वासरे ऽस्मिन्व मिश्च त्याज्यं यत्नाद भूमिपालेन नूनम् ॥ अन्वय - यात्रादिवसात् पूर्वं भूमिपालेन राज्ञा अन्येन केनचिद् वा यात्रार्थिना त्रिरात्रम् दुग्धं त्याज्यम् (दुग्धं न पेयम्) पश्चरात्रं पूर्वं च क्षौर (मुण्डन श्मश्रुकर्म ज) त्याज्यम्, अस्मिन् वासरे यात्रा दिवसे च क्षौद्र, तैलं वमिश्च (वमनम् च) नूनं त्याज्यम्।
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१४२ ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - यात्रा दिवस के ३ रात पहले राजा अथवा किसी भी यात्रार्थी को दूध नहीं पीना चाहिए। पाँच रात पूर्व क्षौरकर्म (मस्तक दाढ़ी, मूंछ का मुण्डन) त्यागना चाहिए एवं यात्रा के खास दिन को मधु तैल एवं दैवयोग से हुई अथवा बलात्कार की गई वमि (वमन) का भी त्याग करना चाहिए।
प्रस्थानकर्ता के कतिपय अन्य नियम-(मु.चि.या.प्र. श्लो. ९७ वाँ)
भुक्त्वा गच्छति यदि चेत्तैलगुडक्षार पक्वमांसानि ।
विनिवर्तते स रुग्णः स्त्रीद्विजमवमान्य गच्छतो मरणम् ॥ अन्वय - यदि चेत् यात्राकर्ता तैलगुडक्षारपक्वमांसानि भुक्त्वा गच्छति तदा स रुग्णः (रोगी भूत्वा) विनिवर्तते प्रत्यागच्छति तथा च स्त्री द्विजम् स्वस्त्रियं परकीयस्त्रियं वा द्विजम् अवमान्य तिरस्कृत गच्छतः यात्रां कुर्वतः मरणं भवति। __अर्थ - यदि कोई यात्रार्थी तैल, गुड़, क्षार (साजी खार) पक्वमांस खाकर यात्रा करता है, तो वह रोगी होकर घर लौटता है तथा जो अपनी अथवा पराई स्त्री का अथवा ब्राह्मण का तिरस्कार करके यात्रा करता है, तो उसका यात्रामार्ग में मरण होता है अथवा उसे मृत्यु तुल्य कष्ट भोगना पड़ता है। यात्रा में शुभसूचक शकुन – (मु.चि.या.प्र. श्लो. १००, १०१ वाँ)
विप्राश्वेभफलानदुग्धदधिगो सिद्धार्थपदमाम्बरम् , वेश्यावाद्यमयुरचाषनकुला बढेकपश्वाभिषम् । सद्वाक्यं कुसुभेक्षुपूर्णकलशच्छत्राणि मृत्कन्यका , रत्नोष्णीषसितोक्ष मद्यससुतस्त्रीदीप्त वैश्वानरः , आदर्शाञ्जन धौतवस्त्ररजका मीनाज्यसिंहासनम् , शावं रोदनवर्जितम् ध्वजमधुच्छागास्त्रगोरोचनम् । भारद्वाजन्यानवेद निनदा माङ्गल्यगीताकुशा ,
दृष्टाः सत्फलदाः प्रयाणसमये रिक्तो घटः स्वानुगः ॥ अन्वय - प्रयाण समये विप्राः (बहवः द्वौ वा) अश्व:, इमः फलम् अन्नम्, दुग्धम्, दधि, गौः, सिद्धार्थकाः पद्मम्, स्वच्छमम्बरम् “तव कार्य सिध्यतु” इति इष्टवाक्यम् कुसुमानि, इक्षवः, पूर्णकलशः, छत्रम्, मत् (जला ) कन्यका, वेश्या, वाद्यानि, मयूरचाषनकुला: बद्धकपशुः (रज्जुबद्धः पशुः) आमिषम् (मांसम्) रत्नानि, उष्णीषम् (पगड़ी) सितोक्ष: श्वेतवृष: (अयंतु अबद्ध अपि) मद्यम् ससुतस्त्री (सुतायुक्ता नारी) दीप्तवैश्वानरः (ज्वलदग्निः) आदर्श: अंजमन्, धोतवस्त्ररजकः (वस्त्राणि क्षालयित्वा गच्छान् रजक:) मीनः, आज्यम् (घृतम्) सिंहासनम् रोदनवर्जितं शावम्, ध्वजः, मधु, छाग: (मेष:) अस्त्रम्, गोरोचनम्, भारद्वाजः (पक्षिविशेष:) नृयानम् (पालकी) वेदनिनदः, माङ्गल्यगीतम् अंकुश: (हस्ति निवारणमस्त्रम्) एते यदि दृष्टा: दृष्टिपथं गता तर्हि सत्फलदाः भवन्नि तथैव गन्तुः पृष्ठदेशे रिक्त: घट: अपि शुभदः भवति।
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मुहूर्तराज ]
[१४३ ___अर्थ - प्रयाण समय में ब्राह्मण (एक से अधिक) अश्व, हाथी, फल, अन्न, दूध, दही, गाय, सरसों, कमल, स्वच्छवस्त्र, श्रेष्ठ वचन, फूल, ईख, भरा हुआ कलश (जलपूर्ण) छत्र, गीली मिट्टी, कन्या, वेश्या, बाजे, मोर पपीहा, नेवला, बँधा हुआ एक पशु, मांस, रत्न, पगड़ी (साफा) सफेद सांड (बँधा या बिना बँधा) शराब, पुत्रसहित स्त्री, जलती अग्नि, शीशा (कांच) अंजन, वस्त्र धोकर ला रहा धोबी, मछली, घी, सिंहासन, रोदनवर्जित अर्थी (शव) ध्वज, मधु, मेंढा (भेड) अस्त्र (धनुष आदि) गोरोचन भारंड पक्षी, पालकी, वेदघोष, मंगलगीतध्वनि, हाथी चलाने का अंकुश इत्यादि का दिखना (स्वयं अथवा यात्रार्थी द्वारा व्यवस्था किए जाने पर भी) सत्फलदायी है एवं यात्रार्थी के पीछे खाली घड़ा भी शुभ शकुन है। अन्यान्य दैवज्ञों की दृष्टि में शुभसूचकशकुननारद
प्रज्वलाग्निश्च तुरगनृपासनपुराङ्गनाः । गन्ध पुष्पाक्षतच्छत्रचामरान्दोलिका गजाः ॥ भक्ष्येक्ष्वंकुशमृत्सान्न मध्वाज्यदधिगोवृषाः । मत्स्यकांस सुराधौत वस्त्र शंखरवध्वजाः ॥ पण्यस्त्रीपूर्णकलशरत्न भंगारदर्पणम् । भेरीमृदङ्गपटह शंखवीणादि निःस्वना ॥
वेदमंगलघोषाः स्युर्याने वै कार्यासिद्धिदाः । श्रीपति
भारद्वाजो नाकुलश्चाषसंज्ञः छागो बी शोभनो वीक्षितः स्यात् । भृङ्गराञ्जनवर्धमानमुकुराबद्धैक
पश्वामिषोष्णीषक्षीरनृयानपूर्णकसशच्छत्राणि
सिद्धार्थकाः । वाणीकेतनमीनपंकजदधि
क्षौद्राज्यगोरोचनाः , कन्याशयवसितोक्षवस्तुसुमनोविप्राश्वरत्नानि प्रज्वलज्जवलनदन्तितुरंगाः भद्रपीठगणिकांकुशभृत्स्नाः । अक्षतेक्षुफल चामरमक्ष्याण्यायुधानि च भवन्ति शुभानि ॥
भेरीमृदङ्गमृदुमर्दल शंखवीणा वेदध्वनिर्मधुरमंगलगीत घोषाः ॥ पुत्रान्विता च युवतिः सुरभिः सवत्सा, धौताम्बरश्च रजकोऽभिमुखः प्रशस्तः। वसिष्ठ मत से अर्थी की शुभाशुभता
"दृष्टे शवे रोद न वर्जिते च, सम्पूर्णयात्राफलमेव तत्र ।
दृष्टः प्रवेशे तु शवः शवत्वं करोति तद्रोदनवर्जितोऽपि ॥ अर्थात् - यदि यात्राप्रयाण समय में रोदन वर्जित शव (अरथी) सम्मुख मिले तो यात्रार्थी की यात्रा सम्पन्न होती है किन्तु प्रवेश काल में रोदनवर्जित या रोदन सहित किसी भी रूप में सम्मुख मिले तो प्रवेशकर्ता को शवतुल्य बना देती है अर्थात् प्रवेशकर्ता की मृत्यु होती है।
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१४४ ]
शकुनप्रयोजन
अन्यजन्मान्तरकृतं शुभं वा यदि वा शुभम् । यत्तस्य पाकं शकुनो निवेदयति गच्छताम् ॥
अन्वय
अन्यजन्मान्तरकृतं यत् शुभं यदि वा अशुभम् तस्य पाकं परिणामकालं शकुनः गच्छताम् यात्रार्थिनाम् निवेदयति।
अर्थ अन्य जन्म में विहित शुभ अथवा अशुभ कर्म के पाकसमय को शकुन यात्रार्थी को प्रकटरूप में बतला देता है ताकि यात्री धार्मिक अनुष्ठान करके उससे बच सके या उसका निवारण कर सके। लग्नबल से शुभसूचक शकुन - ( कतिपय दैवज्ञों के मत से )
-
-
समवायसः ॥
लग्ने वाक्पति शुक्राणां ब्राह्मणाः सम्मुखाः स्त्रियः । बुध शुक्रो च केन्द्ररस्थौ सवत्सागौः प्रदृश्यते ॥ चन्द्रसूर्यौ च भवतो दशमस्थौ यदाथवा । दीपादर्शो सुमनसौ रजका धौतवाससः ॥ सुतस्थाने यदा सौम्यौ वृषो बुद्धस्तु सम्मुखः । गुरुश्चेत्पञ्चनवम दक्षिणे चन्द्रो गुरुश्च सहजे श्वानो वामाङ्गभागतः । सर्वे कर्मायनवमे भारद्वाजोऽथ नाकुलः ॥ चाषस्य दर्शनं वा स्यात् वामोङ्गेऽत्यन्तदुर्लभम् । आदित्यो राहुसौरी च सहजस्थौ कुमारिका ॥ प्रौढानां सुभगानां वा दर्शनं सर्व कामदम् । षष्ठे तृतीये कर्माये भौमश्चेत् तत्फलं भवेत् ॥ दास्यो वेश्या सुरा मांसं लाभ श्वैव सुनिश्चितः । सप्ताषृवृषपञ्चमे यस्य जीवो ज्ञो वात्र वर्तते ॥ आदर्शपुष्पमांसानि सुरादर्शश्च राहु भमश्च मन्दश्च लग्नाद्यदि उद्घृतं गोमयं पश्येत् शीघ्रं लाभं अर्थ - यात्रालग्नकुण्डली में ग्रहों की स्थिति भी शुभसूचक शकुन बतलाती है इस विषय में कई आचार्य कहते हैं
[ मुहूर्तराज
लाभदः ।
तृतीयगः ॥ धनं दिशेत् ॥
यदि यात्रा लग्न में गुरु या शुक्र हो तो ब्राह्मणों एवं ससुतस्त्री का शकुन समझना चाहिए । केन्द्र में बुध एवं शुक्र को बछड़े सहित गाय के शकुन तुल्य समझे । चन्द्र अथवा सूर्य दशमस्थान में दीपक, आदर्श, पुष्प एवं कपड़े धोये हुए धोबी जैसे शकुन बताते हैं। पंचम स्थान में बुध की स्थिति बुद्ध वृष
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मुहूर्तराज ]
[१४५
के शकुन जैसी है। यदि पाँचवें या नवें स्थान में गुरु हो तो दाहिनी ओर किसी घर पर बैठे कौए सदृश शुभ है। तीसरे भाव में गुरु चन्द्र बाईं ओर मिले कुत्तों के समान शुभसूचक शकुन हैं। दशम एकादश एवम् नवम स्थान में तो किसी भी ग्रह की स्थिति वामांग में अतिदुर्लभ पपीहे पक्षी जैसी जाननी चाहिए। यदि तृतीय स्थान में सूर्य अथवा राहु तथा शनि हो तो कुमारी कन्या, प्रौढ़ एवं सुहागिनी स्त्रियों के शकुन तुल्य सर्वसिद्धिदायी हैं। छठे तीसरे दसवें या ग्यारहवें भाव में भौम (मंगल) की स्थिति दासियों वाराङ्गना, सुरा एवं मांस के शुभसूचक शकुनों के समान सुनिश्चित लाभ दायिनी होती है। सातवें आठवें या पाँचवें भाव में गुरु या बुध, आदर्श पुष्प, मांस एवं सुरा तुल्य शुभ शकुन है। यदि लग्न से तीसरे भाव में राहु, मंगल और शनि हो तो उन्हें सामने मिले गोबर के समान शुभसूचक शकुन जाने जिससे कि शीघ्र लाभ एवं धन प्राप्ति होती है। अशुभसूचक शकुन- (मु.चि.या.प्र. श्लो. १०२, १०३ वाँ)
वन्ध्याचर्म तुषास्थिसपैलवणाङ्गारेन्धनक्लीबविट्तैलोन्मत्त वसौषधारि जटिल प्रवाट तृण व्याधिताः । नग्नाभ्यक्त विमुक्तकेशपतितव्यङ्गक्षुधार्ता असृक् । स्त्रीपुष्पं सरठः स्वगेहदहनं माजरियुद्धं क्षुतम् ॥ काषायीगुडतक्रपङ्कविधवाकुब्जाः कुटुम्बे कलिः , वस्त्रादेः स्खलनं लुलायसमरं कृष्णानि धान्यानि च । कार्पासं वमनं च गर्दभरवो दक्षेऽतिरुड्गर्भिणी
मुण्डादम्बिरदुर्वचोऽन्धबधिरोदक्या न दृष्टाः शुभाः ॥ अन्वय - वन्ध्या (गर्भसंभावना रहिता) चर्म, तुषम्, अस्थि, सर्पः, लवणम् अंगारः (घूमरहितोऽग्निपिण्ड:) इन्धनम्, क्लीबः, विट् (विष्ठा) तैलम्, उन्मत्तः, पीतमद्यादिक:) वसा (शरीरमांसभेदः) औषधम्, अरिः, जटिलः (जटाधरः) प्रव्राट् (संन्यासदीक्षितः) तृणम् (घासादिकम्) व्याधितः (असाध्यरोगवान्) पतितः (आचरणभ्रष्टः) व्यङ्गः (विकलांग:) क्षुधार्तः (बुभुक्षितः) असृक् (रक्तम्) स्त्रीपुष्पम् (स्त्रीरज:) सरठ: (गिरगिट इति भाषायाम्) स्वगेहदहनम् मार्जारयुद्धम् क्षुतं (छिक्का) काषायी (काषायवस्त्रवान्) गुडम् तक्रम्, पंकः, विधवा, कुब्जः कुटुम्बे कलि: (पारिवारिक कलहः) वस्त्रादेः स्खलनम् (पतनम्) लुलायसमरम् (महिषयुद्धम्) कृष्णानि धान्यानि (माषादीनि कृष्णवर्णानि धान्यानि) कार्पासम् वमनम, दक्षे (स्वदक्षिणभागे) गर्दभखः (खरशब्दः) वामभागे तु तच्छब्द: शुभः भवति, अतिरुट् (अधिक रोषः) गर्भिणी (गर्भवती स्त्री) मुण्ड: (मुण्डित शीर्षा) आर्द्राम्बरः (जेलार्द्रवस्त्रधारी) दुर्वच: (दुष्टवाक्यम् रचेन परेण वो च्चारितम् अन्ध: बधिरः, उदक्या (रजस्वला स्त्री) एते पदार्थः प्रयाणसमये दृष्टाः न शुभाः किन्तु अशुभफलदाः भवन्ति।
बांझ स्त्री, चर्म, भूसा, हड्डियाँ, साँप, नमक, जलता अंगार, इन्धन, नपुंसक, विष्ठा, तेल, पागल व्यक्ति अथवा नशा किया व्यक्ति, चर्बी, दवाई, शत्रु, जटाधारी, संन्यासी, सूखी घास, असाध्यरोगी, बालक के अतिरिक्त कोई भी नग्न शरीर व्यक्ति, तेल लगाया हुआ, बिखरे बालों वाला, आचारभ्रष्ट, विकलांग,
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१४६ ]
[ मुहूर्तराज भूख से पीड़ित, रक्त, स्त्री का रज, गिरगिट, अपने घर का जल जाना, बिल्लियों की लड़ाई, छींक, गेरुओ वस्त्रधारी, गुड, छाछ, कीचड़, विधवा स्त्री, कुबडा, कुटुम्ब में झगड़ा (यदि स्त्री पुत्रादि से तत्काल लड़ना, झगड़ना पड़े) अपने हाथ से अकस्मात् वस्त्रादि का गिर जाना अथवा कच्छ आदि का खुल जाना, भैंसों का युद्ध काले रंग के अनाज, कपास, वमन (कै) दाहिनी ओर गधे का रेंकना (क्योंकि बाईं ओर गधे का रेंकना यात्रा में शुभ होता है) अधिक क्रोध, गर्भवती स्त्री, सिरमुंडा व्यक्ति, गीले कपड़े पहने या गीले वस्त्र लिया हुआ व्यक्ति, अन्धा, बहरा और रजस्वला इन पदार्थों का यात्राप्रयाण समय में दिखना अशुभफलदायी होता है। दुष्टशकुनों के विषय में अन्यान्य निमित्तज्ञों के मत
कश्यप:
“औषधक्लीबबधिरैः जटिलोन्मत्तपावकैः । अभ्यक्तांगारकाष्ठास्थिचर्मान्धचिररोगिभिः ॥ तैल कार्पास लवण गुड तक्र तृणोर गैः । पङ्ककुब्जैकपदक मुक्तकेशबुभुक्षितैः ॥ सनग्नमुण्डैदृष्टस्तु यात्रा नैव फलप्रदा ।"
श्रीपति:
तृणतुषफणिवर्माङ्गरकार्पासपङ्कः
लवणगुडवसास्थिक्लीबतैलोषधैश्च । रिपुविडसितधान्यव्याधिताभ्यक्ततक्रैः
पतितजटिलमुण्डोन्मत्तवान्तैर्न सिद्धि ॥ विमुक्तकेशकाषायिनग्नेन्धनबुमुक्षितै।
कुब्जांधवन्ध्याबधिरैर्दष्टैः सिद्धिर्न जायते ॥ कुटुम्बकलहो गृहज्वलनमार्तवं योषितो ,
बिडातसमरं क्षुतं स्खलनमम्बरादेस्तथा । दुरुक्तमतिकोपिता महिषयोश्च युद्धं भवेत् प्रयाणसमये नृणामभिमतार्भ विच्छित्तये ॥
वराहः- (वृहयात्रा में)
कार्पासौषधकृष्णधान्यलवणक्लीबास्थितालानलम् , सङ्गारगराहिचर्मप्रवृताः केशारिसव्याधिताः । वान्तोन्मत्तजडान्धकास्तुणतुबक्षुत्क्षामतक्रारयो मुण्डाभ्यक्तविमुक्तकेशपतिताः काषायिषश्चाशुभाः ॥
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मुहूर्तराज ]
[१४७
चण्डेश्वर:
खरोष्ट्रमहिषारुढ़ाः अमांगल्यादिसंयुता । कर्णतालादिभिर्हीनाः विवशाः कृष्णवाससः ॥ मुक्तकेशातिकृष्णाङ्गाः तैलाभ्यक्तरजस्वला । गर्भिणी विधवोन्मत्ताः क्लीबान्धबधिरा:नराः ॥
एतेषां दर्शने जाते न गन्तव्यं कदाचना । इस प्रकार अनेक ज्योतिर्विदों को शुभसूचक एवं अशुभसूचक शकुनों के विषय में मत समान ही हैं।
वसन्तराज का मत
"सर्वं शुभं दक्षिणत: कार्यम् निन्द्यं तु वामनः” अर्थात् किसी शुभ शकुन के पदार्थ को दाहिनी ओर तथा अशुभसूचक शकुन पदार्थ को बाईं ओर रखकर यात्रा करनी चाहिए।
धन माल, कुटुम्ब-परिवारादि सब नाशवान और निजगुण घातक है। इनमें रहकर जो प्राणी बड़ी सावधानी से अपने जीवन को धर्मकृत्यों द्वारा सफल बना लेता है, उसी का भवसागर से बेड़ा पार हो जाता है। शेष प्राणी चौराशी लाख योनियों के चक्कर में पड़कर, इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं। अतएव शरीर जब तक सशक्त है और कोई बाधा उपस्थित नहीं है, तभी तक आत्म कल्याण की साधना कर लेना चाहिए। अशक्ति के पंजे में घिर जाने के बाद कुछ नहीं हो सकेगा, फिर तो यहाँ से कूच करने का डंका बजने लगेगा और असहाय होकर जाना पड़ेगा।
- श्री राजेन्द्रसूरि
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१४८ ]
शुभसूचक शकुन पदार्थ
विप्र ( एक से अधिक संख्या में )
घोड़ा
हाथी (जो पागल न हो )
फल
अन्न दूध, दही
गाय
सरसों
पद्म (कमल)
स्वच्छ वस्त्र
वेश्या, वाद्य (ढोल आदि)
मोर, पपीहा
नेवला,
सिद्धिसूचक वचन फूल, ईख
जलपूर्ण कलश, छत्र
बद्ध एक पशु (बैल) लाल पीले आदि
वर्ण का माँस
गीली मिट्टी, कन्या माणिक्यादि रत्न, पगड़ी (साफा) सफेद वृषभ बिना बंधा भी
मद्य, पुत्र सहित स्त्री
जलती अग्नि, दर्पण, सुर्मा धुले वस्त्र युक्त धोबी
मछली, घृत, देवादि सिंहासन,
रोदनरहित शाव (अरबी)
-
ध्वज, मधु, भेड, अस्व गोरोचन, भारद्वाज पक्षी
नरवाहन (पालकी)
वेदघोष, मांगल्योत्सव गीत, हाथी को नियन्त्रित करने का अंकुश
शुभाशुभसूचक शकुन पदार्थ बोधक सारणी
अशुभसूचक शकुन पदार्थ
बांझ स्त्री (गर्भसंभावना रहित )
चर्म (किसी भी पशु का ) तुष (धान्य के छिलके, भूसी) हड्डियाँ, सर्प, नमक
धूमरहित अंगार, इन्धन
-
नपुसंक, विष्ठा (मल)
तेल, उन्नत्त (नशे से या भूतावेश से )
वसा (चरबी) औषध
शत्रु जटाधारी पुरुष, संन्यासी
सूखी घास, असाध्यरोगी
नंगा व्यक्ति (बालक को छोड़कर)
तेल की शरीर पर मालिश किया हुआ बिखरे केशों वाला, आचारभ्रष्ट विकलांग, भुख से पीड़ित, रक्त स्त्री का रज, गिरगिट अपने घर में आग लगना बिल्लियों का युद्ध छींक गेरु वस्त्रधारी, गुड, छाछ कीचड़, विधवा नारी, कुबडा कुटुम्ब में हुआ तात्कालिक कलह शरीर पर से या हाथ में अकस्मात् वस्वादि का फिसलना या गिरपड़ना भैंसों का युद्ध, काले रंग के अनाज
कपास, वमन (स्वयं को या अन्य को) दाहिनी ओर गधे का शब्द
अधिक क्रोध
गर्भवती स्त्री
मुण्डित व्यक्ति, भीगे कपड़े लिये या पहने हुए व्यक्ति,
दुष्टवचन (अपने मुख से या पराये मुख से ) अन्धा, बहरा
रजस्वला स्त्री
[ मुहूर्तराज
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मुहूर्तराज ]
[१४९ क्षुत (छींक) फल दिशा एवं प्रहर भेद से- (सर्वशाकुन में) ___ सर्वशाकुन ग्रन्थ में छिक्का के दिशा एवं प्रहर भेद से शुभाशुभ फलों का निर्देश किया गया है
यथा
अथ क्षुते फलं वक्ष्ये दिक्षु यामक्रमेण च । लाभो वाह्निर्धनं मित्रं चतुःस्थानेषु पूर्वतः ॥ लाभो वह्निः सुतो वह्निः क्रमादाग्नेयतो भवेत् । यामक्रमाइक्षिणस्यां धनमन्नभृतिः कलिः ॥ लाभो मित्रं सुखं वार्ता लाभो नैर्ऋत्य देशतः । गमनोत्साह कलह वस्त्राप्तिः पश्चिमादिशि ॥ वायव्यायां जयो लाभ पुत्राप्तिःमङ्गलं क्रमान् । शत्रुनाशो, रिपुप्राप्ति; लाभोनं चोत्तरे क्षुतम् ॥ सङ्गाम नाशरुग् बुद्धिरीशयाम क्रमेण च । क्षुते
गतघटीवारतिथियुगसुमिर्हता । विषमा लाभादा नित्यं समा विघ्नमृतिप्रदा ॥
औषधे, वाहनारोहे, विवाहे, शयनेऽशने । विद्यारंभे बीजवाये क्षुतं सप्तसु शोभनम् ॥
क्षुत (छींक) फल जानने निमित्त नीचे एक सारणी दी जा रही है, जिससे सचक् क्षुतफल दिशा एवं याम भेद से जाना जा सकेगा।
दिशा-यामक्रम से क्षुतफल ज्ञापक सारणी
प्रथम प्रहर
द्वितीय प्रहर
क्र.सं.
दशाएँ । प्रहर →
तृतीय प्रहर
फल
चतुर्थ प्रहर
फल
फल
फल
लाभ
अग्निमय
मित्र प्राप्ति अग्निमय
लाभ
अग्निमय
आग्नेय दक्षिण नैर्ऋत्य
धन लाभ पुत्र प्राप्ति
मरण सुखवार्ता
धन लाभ
कलह
अन्न लाभ मित्र प्राप्ति
लाभ
लाभ
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पश्चिम
गमन
उत्साह
कलह
वस्त्र लाभ
वायव्य
जय
लाभ
पुत्राप्ति लाभ
उत्तर
शत्रुनाश
शत्रुभय
मंगल
हानि बुद्धि लाभ
ईशान
नाश
रोगाप्ति
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१५० ]
[ मुहूर्तराज
औषध सेवन अश्वादियान पर सवारी, विवाह, शयन, भोजन, विद्यारंभ और बीज बुवाई इन सातों में छींक का होना शुभफलद होता है। वसन्तराज मत से छींक के आठ प्रकार हैं और उनके भिन्न-भिन्न फल है यथा
"निषिद्धमग्रेऽक्षिणि दक्षिणे च धनव्ययं दक्षिणकर्णदेशे। . तत्पृष्ठभागे कुरुतेऽरिवृद्धि क्षुतं प्रकामं शुभमादधाति ॥ भोगाय वामश्रवणे स्वपृष्ठे कर्णे च वामे कथितं जयाय ।
सर्वार्थलाभाय चा वामनेत्रे जातं क्षुतं स्यात् क्रमोतऽष्टधेवम् ॥ अर्थ - छींक का सामने होना अशुभ है, दाहिनी आँख पर धनव्यय कराती है। दहिने कान के पास छींक होने से शत्रुवृद्धि और दाहिने कान के पीछे छींक का होना शुभ है। बाएं कान के पास छींक हो तो वह भोगादि सुख देती है पीठ पीछे और बाएँ कान के पीछे जय देती है। बाईं आँख के पास छींक का होना सर्वार्थसिद्धिसूचक है। कतिपय अन्य शकुनों के विषय में - (मु.चि.या.प्र. श्लो. १०४ वाँ)
गोधाजाहकसूकराहिशशकानां कीर्तनं शोभनम, नो शब्दो न विलोकनं च कपि ऋक्षाणामतो व्यत्ययः । नद्युत्तारभयप्रवेशसमये नष्टार्थ संवीक्षणे, व्यत्यस्ताः शकुनाः नृपेक्षणविधौ
यात्रोदिताः
शोभना ॥ अन्वय - गोधा (गोह) जाहकः (शरीरसंकोत्री जन्तुविशेष) सूकर: अहिः शशक: एतेषां कीर्तनं नामोच्चारणं यात्राप्रयाण समये शोभनम् परन्तु एतेषां शब्द: विलोकनं च न शोभनम्। परन्तु कपिकंक्षाणाम् कीर्तनम् अशोभनम् शब्दविलोकने तु शुभे।
नद्युत्तारभय प्रवेशसमरे (नदीपारकरणपलायनगृह प्रवेश सङग्रामेषु) नष्टार्थ संवीक्षणे (नष्टवस्तुगवेषणे) आदिषु यात्रायां क्रियमाणायां प्रागुक्ताः शुभाः शकुनाः “विप्राश्वेम” इत्यादयः अशुभाः, अशुभाश्च “वन्ध्याचर्म” इत्यादयः शकुनाः शुभाः (ज्ञेया:) नृपेक्षणविधौ (राजदर्शनार्थ प्रयाणे) तु यात्रोक्ता: शुभा शकुनाः शुभा: अशुभाश्च अशुभाः एव।
अर्थ - गोह, शरीरसंकोची जन्तु, सूअर, सर्प और खरगोश इनका नाम अपने मुख से लेना अथवा अन्य व्यक्ति के द्वारा उच्चारित इनके नाम को सुनना अच्छा है लेकिन इनकी बोली और इनका दर्शन शुभ नहीं है किन्तु बन्दर और रीछों का नाम लेना या सुनना अशुभ है और इनको देखना एवं इनके शब्द को सुनना शुभद है। ___नदी आदि को पार करते समय, भय से पलायन करते समय, गृह प्रवेश एवं युद्धयात्रा में पूर्वोक्ति शुभशकुन अशुभफलद तथा अशुभशकुन शुभद् है।
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मुहूर्तराज ]
[१५१ किन्तु राजदर्शनार्थ यात्रा करने में यात्रा के समान ही शकुनों की शुभाशुभता जाननी चाहिए। वामाङ्ग के शुभसूचक शकुनपदार्थ- (मु.चि.या.प्र. श्लो. १०५ वाँ)
- वामाङ्गे कोकिला पल्ली पोतकी सूकरी रला ॥
पिङ्गला छुच्छुका श्रेष्ठाः शिवाः पुरुषसंज्ञिताः ॥ अर्थ - यात्रा समय में यात्रार्थी के वाम भाग में कोयल, छिपकली, पोतकी सूकरी (एक प्रकार की चिड़िया) रला (पक्षीविशेष) पिंगला (भैरवी) छुछुन्दरी मादा सियार तथा पुरुषसंज्ञक (कपोत हंस चातक आदि पक्षी) शुभ माने गये हैं। दक्षिणभंग के शुभसूचक शकुन - (मु.चि.या.प्र. श्लो. १०६ वाँ)
छिक्करः पिक्कको भासः, श्रीकण्ठो वानरो रुरुः ।
स्त्रीसंज्ञकाः काकऋक्षश्वानः स्युर्दक्षिणाः शुभाः ॥ अर्थ - छिक्कर (एक प्रकार का मृग) पिक्कक (एक प्रकार का पक्षी) भास (पक्षीविशेष) श्रीकण्ठ (नीलकण्ठ) वानर रुरु (मृग विशेष) एवं अन्य स्त्रीसंज्ञक (पशु पक्षी विशेष) तथा कौआ, रीछ और कुत्ता ये यात्रार्थी के प्रयाणकाल में दक्षिण भाग में शुभफलदायी होते हैं।
उपरि लिखित मृगादि एवं पक्षी आदि के अतिरिक्त अन्य मृगपक्षियों का सामान्यत: यात्रार्थी के दाहिनी ओर रहना शुभ शकुन माना गया है इस विषय में भी मुहूर्त चिन्तामणिकार_ "प्रदक्षिणगताः श्रेष्ठाः यात्रायां मृगपक्षिणः ॥
ओजा मृगा वजन्तोऽतिधन्याः वामे खरस्वनः ॥ अर्थात् - यात्राकाल में सामान्यत: मृग एवं पक्षियों का यात्रार्थी के दाहिनी ओर रहना शुभशकुन है, किन्तु यहाँ मृगसंख्या ओज अर्थात् विषम (१, ३, ५, ७ आदि) होनी चाहिए। तथा च यात्राकाल में बाईं ओर गधे का रेंकना भी शुभ है।
श्री वराहमिहिर तो मृगों की भांति पक्षियों की भी यात्राकाल में दक्षिण भाग में विषम संख्या को शुभफलदा मानते हैं
"ओजाः प्रदक्षिणं शस्ताः मृगाश्वनकुलाण्डजा" अर्थात् मृग, अश्व, नेवला एवं अण्डज (पक्षी) दाहिनी ओर विषम संख्या वाले ही शुभ हैं। समयविशेष से एवं निवास विशेष से शकुन निष्फलता - (वराह)
दिवाचरो न शर्वर्याम् न च नक्तंचरो दिवा । न च ग्राम्यो वने ग्राहयो नारण्योग्राम संस्थितः ।
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१५२ ]
[ मुहूर्तराज दिनचर पशुपक्षियों का रात्रि में एवं रात्रिचरौ का दिन में शकुन मान्य नहीं है। तथा च ग्रामीण पशु पक्षियों का वन में एवं वनवासी पशुपक्षियों का गाँव में शकुन नहीं माना गया है। स्थानभेद से शुभ शकुन भी शुभफलद नहीं - (वराह)
प्रभग्नशुष्कदुभकण्टकीषु श्मशानभस्माग्नितुषाकुलेषु ।
प्राकार शून्यालय जर्जरेषु सौम्योऽति पापः शकुनः प्रकल्य्यः ॥ अर्थात् - टूटे सूखे कंटीले वृक्षादि श्मशान भस्म अग्नि एवं तुष से भरे स्थान प्रकार (परकोटा) सूना घर एवं अन्य जर्जर स्थान इनमें होने वाले शुभ शकुन भी अशुभफलदायी होते हैं। विरुद्ध शकुन निन्दा- (दै. मनो.)
वरं शुभं दुर्जनकृष्णसौं वरं क्षिपेत् सिंहमुखे स्वमङ्गम ।
वरं तरेद् वारिनिधिं भुजाभ्यां नोल्लंघयेद् दुःशकुनं कदापि । अर्थात् - दुष्ट एवं कृष्ण सर्प मिल जाए तो भी शुभ है, सिंह के मुख में अपने अंगों को डालना भी शुभ है एवं हाथों से समुद्र में तैरना भी ठीक है परन्तु दुष्ट शकुन का उल्लंघन करना अशुभ है। अर्थात् दुःशकुनों के होने पर यात्रा कदापि नहीं करनी चाहिए। यात्रा की आवश्यकता में दुष्ट शकुन होने पर कर्त्तव्य - (मु.चि.या.प्र. १०८ वाँ)
आद्येऽपशकुने स्थित्वा प्राणानेकादश व्रजेत् ।
द्वितीये षोडश प्राणान् तृतीये न क्वचिद् व्रजेत् ॥ अन्वय - प्रयाणकाले यात्रार्थी आद्ये प्रथमे अपशकुने दुःशकुने संजाते सति एकादशप्राणान् (एकादशश्वोसोच्छवासपरिच्छेद्यं कालं यावम्) स्थित्वा समीचीने शकने संजातेऽग्रे व्रजेत्। ततः द्वितीयेऽपि अपशकुने षोडश प्राणान् यावन् स्थित्वा शोभने शकुने सति व्रजेत् किन्तु तृतीयेऽपशकुने भूते यात्रार्थे क्वचिदपि न व्रजेत् किन्तु गृहभवे प्रत्यागच्छेत्।
अर्थ - यात्रार्थी को चाहिए कि यदि प्रयाणकाल में उसको दुःशकुन हो तो ११ प्राण काल तक अर्थात् ग्यारह सामान्य श्वासोच्छास में जितना समय लगे तब तक ठहर कर फिर सुशकुन देखकर आगे चले। यदि आगे चलने पर पुनः अपशकुन हो जाए तो सोलह प्राणकाल तक रुके और फिर शोभन शकुन देखकर आगे बढ़े किन्तु फिर भी अगर अपशकुन हो जाए तो फिर आगे न बढ़े प्रत्युत उसी स्थान से लौटकर अपने घर आ जाए। प्राण समय प्रमाण -(शौनक मत में)
"लघ्वाक्षरैः स्फुटोक्तै प्राणाः कथितास्तु विंशतिभिः"
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मुहूर्तराज ]
एवं भास्कर भी -
"गुर्वक्षरैः खेन्दुमितैरसुः "
अर्थात् - २० लघु अक्षरों या १० गुरु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय को प्राण कहते हैं।
दुः शकुन का उपचार - ( वसन्तराज )
" जाते विरुद्धे शकुनेऽध्वनीनो व्यावृत्य कृत्वा करपादशौचम् । आचम्य च क्षीरतरोरधस्तात् तिष्ठेत् प्रपश्येच्छकुनान्तराणि ॥ "
अर्थात् - विरुद्ध शकुन के होने पर यात्री लौटकर हाथों पैरों को धोकर कुल्ला करके क्षीरतरु ( जिन वृक्षों के पत्रादि में दूध निकले) के नीचे बैठे और अन्य शुभशकुन की प्रतीक्षा करे ।
श्रीपति के मत से
आद्यै विरुद्धे शकुने प्रतीक्ष्य प्रणान् नृपः पञ्च च षट् प्रयायात् । अष्टौ द्वितीये द्विगुणास्तृतीये व्यावृत्य नूनं गृहमभ्युपेयात् ॥
अर्थात् - प्रथम अपशकुन होने पर यात्रार्थी ५, ६ अथवा ८ प्राणों तक रुककर फिर आगे बढ़े फिर भी दूसरे अपशकुन पर १०, १२ अथवा सोलह प्राणपर्यन्त रुक कर फिर चले किन्तु यदि फिर भी अपशकुन हो जाए तो निश्चितरूपेण लौटकर स्वगृह आ जाए ।
यात्रानिवृत्ति पर गृहप्रवेश मुहूर्त - (मु.चि.या. प्र. श्लो. १०९ वाँ )
[ १५३
यात्रानिवृत्तौ शुभदं प्रवेशनम्, मृदुधुवैः क्षिप्रचरैः पुनर्गमः द्विशेऽनले दारुणभे तथोप्रभे स्त्रीगेह पुत्रात्मविनाशनं क्रमात् ॥
अन्वय - यात्रानिवृत्तौ मृदुधुवै: ( चित्रानुराधा मृगरेवतीषु मृदुषु रोहिण्युत्तरात्रयध्रुव संज्ञेषु नक्षत्रेषु) प्रवेशनम् (सुपूर्वप्रवेश:) शुभदं क्षिप्रचरैः (अश्विनीपुष्य हस्ताभितत्क्षिप्रैः श्रवणधनिष्ठाशततारकापुनर्वसुस्वाती चरैः) प्रवेशे पुनर्गमः पुनर्यात्रा स्यात्। अथ द्वीशे (विशाखायाम्) अनले (कृत्तिकायाम्) दारुणमे (मूलज्येष्ठार्द्राश्लेषासु) तथोग्रमे (पुर्वात्रयभरणीमधासु) प्रवेशे क्रमतः प्रवेशकर्तुः स्त्रीगेहपुत्रात्मविनाशः स्यात्।
अर्थ - यात्रानिवृत्ति पर जो गृहप्रवेश किया जाता है उस प्रवेश को सुपूर्व प्रवेश कहते हैं उसी सुपूर्वप्रवेश के विषय में कहा जाता है कि मृदुनक्षत्रों (चित्रा, अनुराधा, मृग और रेवती) एवं ध्रुवसंज्ञक नक्षत्रों (उत्तरा त्रय और रोहिणी) में सुपूर्वप्रवेश शुभद है । क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रों (अश्विनी पुष्प, हस्त और अभिजित् ) तथा चरसंज्ञक नक्षत्रों में (श्रवण, धनिष्ठा, शततारका, पुनर्वसु और स्वाती) प्रवेश करने पर पुनः शीघ्रमेव यात्रा करनी पड़ती है। अतः ये क्षिप्रचरसंज्ञक नक्षत्र यात्रार्थ मध्यमफलद है। किन्तु यदि विशाखा में प्रवेश
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१५४ ]
[ मुहूर्तराज किया जाए तो प्रवेशकर्ता की पत्नी का नाश होता है। कृत्तिका में प्रवेश करने पर घर में अग्नि लग जाती है। तीनों पूर्वा भरणी और मघा में प्रवेश करने पर प्रवेशकर्ता का स्वयं का मरण होता है और मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा और आश्लेषा में प्रवेश करने पर पुत्र का विनाश होता है। विशेष-- गृहप्रवेश त्रिविध है (१) अपूर्वप्रवेश (२) सूपूर्व प्रवेश (३) द्वन्द्वा भय प्रवेश यथा
"अपूर्वसंज्ञः प्रथमः प्रवेशो यात्रावसाने च सुपूर्वसंज्ञः ।
द्वन्द्वाभयस्त्वग्निभयादि जान सचेवं प्रवेर्शास्त्र विधः प्रदिष्टः ॥ अर्थात्- नूतनगृहप्रवेश अपूर्व प्रवेश है यात्रा के अन्त में जो गृहप्रवेश किया जाय, उसे सुपूर्वप्रवेश कहा गया है एवं जलाग्नि से या राजकोप से नष्ट या नाशित गृह में उसका पुनर्निर्माण करके जो उसमें प्रवेश किया जाता है उस प्रवेश को द्वन्दवाभय प्रवेश कहते हैं। इस सुपूर्वप्रवेश के विषय में श्रीपति
"शुभप्रवेशो मूदुभिधुवाख्यैः क्षिप्रैश्चरैः स्यात्पुनरेव यात्रा । उग्रैर्नृपो दारुणभैः कुमारो राज्ञी विशाखासु विनाशमेति ॥
कृत्तिकासु भवनं कृशानुना दह्यते प्रविशतां न संशयः । इसका अर्थ - “यात्रा निवृत्तौ” इस श्लोक के समान ही है। सुपूर्वप्रवेश में वर्ण्य तिथिवार एवं लग्न– (श्रीपति मन से)
"रिक्तास्तिथि भूसुत भानुवारौ, निन्द्याश्च योगाः परिवर्जनीयाः ।
मेषः कुलीरो मकरस्तुला च त्याज्याः प्रवेशे हि तथा तदंशाः । अर्थात्, ४, ९ एवं १४, मंगल एवं रविवार एवं अन्य निन्दित योग सुपूर्व प्रवेश में छोड़ने चाहिए तथैव मेष, कर्क, मकर एवं तुला लग्न अथवा अन्य राशियों के लग्नों में (मेष, कर्क, मकर और तुला) इनके नवांशों को भी सुपूर्वप्रवेश में त्यागना चाहिए।
यात्रा मास से एवं यात्रादिन से नवम मास या नवम दिन को भी सुपूर्वप्रवेश नहीं करना चाहिए जैसा कि गुरु कहते हैं
"निर्गमान्नवमे मासि प्रवेशो नैव शोभनः ।
नवमे दिवसे चैव प्रवेशं नैव कारयेत् ॥" . इसी प्रकार विवाह प्रकरणोक्त दोषों को भी यात्रा में त्यागना चाहिए। किन्तु सप्तम में बुध तथा गुरु के स्थित होने से उत्पन्न जामित्र दोष एवं धनुरर्कादि मास दोष जो कि विवाह में त्याज्य हैं यात्रा में त्याज्य
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मुहूर्तराज ]
[१५५ नहीं करने चाहिए। अर्थात् उक्त बुध, गुरु, जामित्र दोषों एवं धनुरर्कादि मासदोष में भी यात्रा की जा सकती है।
ज्वरोत्पत्ति से उसके स्थायित्व की दिन संख्या एवं सर्पदंश से शीघ्र मृत्यु के विषय में मुहूर्त चिन्तामणिकार(१) ज्वरोत्पत्ति समय से ततस्थितिदिनसंख्या - (मु.चि.न.प्र. श्लो. ४५, ४६ वाँ)
स्वातीन्द्रपूर्वाशिवसार्पभे मृतिर ज्वेऽन्त्यमैत्रे स्थिरता भवेद्रुजः । याम्यश्रवोवारुणतक्षभे शिवा, घस्त्रा हिं पक्षो द्वयधिपार्कवासवे ॥ मूलाग्निदारने नव पित्र्यमे नखा, बुध्यार्यमेज्यादिति धातृमे नगाः ।
मासोऽब्बवेश्वैऽथ यमाहिमूलभे, मिश्रेशपित्र्ये फणिदंशने मृति ॥ अन्वय - स्वातीन्द्रः (ज्येष्ठा) पूर्वाः (पूर्वात्रयम्) शिवः (आर्द्रा) सार्पभम् (आश्लेषा) एषुनक्षत्रेषु यदि ज्वरोत्पत्तिस्तर्हि ज्वरपीडितस्य मृत्युरेव स्यात्। अन्त्यमैत्रे (रेवत्यनुराधानक्षत्रयोः) ज्वरे सति रुज: (रोगस्य) स्थिरता (महता कालेन रोगस्य निवृत्तिः) स्यात्। तथा याम्यश्रवोवारुणतक्षभे (भरणीशवण शततारका चित्रासु) शिवाः (एकादश) घ्ररत्राः (दिनानि) यावत् रोगास्थिरता, द्वयधि यार्कवासवे (विशाखा हस्तधनिष्ठानक्षत्रेषु) ज्वरोत्पत्ति: स्यात्तर्हि पक्षः (पञ्चदिनानि यावत्) रोगस्थैर्मम्, मूलाग्निदासे (मूलकृत्तिकाश्विनीषु) ज्वरौत्पत्तौ सत्याम् नव, पित्र्यमे (मघायाम्) नखाः दिवसाः, बुध्यार्यमेज्यादितिधातृमे (उत्तराभाद्रपदोत्तराफाल्गुनीपुष्यपुनर्वसुरोहिणीनक्षत्रेषु नरोः (सप्त दिनानि यावत्) अब्जवैश्वे (मृगशिरउत्तराषाढ़योः) रोगोद्भवे मास: (त्रिंशदिनानियावत्) रोगस्य स्थिरता तत: निवृत्तिः। अथ यमाहिमूलमे (भरण्याश्लेषामूलेषु) मिश्रेशपित्र्यभे (मिश्रसंज्ञकयोः विशाखाकृत्तिकयोः तथा ईशे आज़्याम् पित्र्यमे मघायाम्) यदि सर्पदंशस्त्रदा तद्दष्टस्य मृतिः मरणं भवेत्।
अर्थ - स्वाती, ज्येष्ठा, तीनों पूर्वा, आर्द्रा और आश्लेषा में यदि कोई व्यक्ति ज्वरग्रस्त हो उसकी मृत्यु हो जाती है अथवा उसे मृत्यु तुल्य कष्ट भुगतना पड़ता है। रेवती एवं अनुराधा में ज्वरोत्त्पत्ति होने पर ज्वर कुछ समय तक बना रहता है और बाद में स्वास्थ्य लाभ हो जाता है। भरणी, श्रावण, शतभिषा
और चित्रा में ज्वर होने पर वह ज्वर ११ दिन पर्यन्त विशाखा हस्त धनिष्ठा में होने वाला ज्वर १५ दिनों तक, मूल कृत्तिका एवं अश्विनी में हो तो ९ दिनों तक मघा में उत्पन्न ज्वर २० दिनों तक, उत्तराभाद्रपद उत्तराफाल्गुनी, पुष्य, पुनर्वसु एवं रोहिणी में हो तो सात दिनों तक मृगशिर एवं उत्तराषाढ़ा में उत्पन्न ज्वर एक मास तक स्थिर रहता है ततः रुग्ण व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है। नक्षत्रविशेष में सर्पदंश से मृत्यु
यदि भरणी, आश्लेषा, मूल, कृत्तिका, विशाखा, आर्द्रा और मघा इन नक्षत्रों में से किसी एक नक्षत्र के दिन किसी को सर्प डॅसे तो उस डॅसे गए व्यक्ति की निश्चित रूपेण मृत्यु हो जाती है।
ज्वरोत्पत्ति के बाद उसके स्थायित्व की दिनसंख्या के विषय में वशिष्ठ भी उपर्युक्त चिन्तामणिकार के वचनानुरूप ही कहते हैं
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१५६ ]
[ मुहूर्तराज "कृच्छ्रात्स्फुटं प्राणिति मित्रपौष्ण्यधिष्ण्ये च मासाच्छशि विश्वधिष्ठये । रोगस्य मुक्तिः पितृदेवधिष्ण्ये, वारैर्भवैद् विंशतिभिश्च नूनम् ॥ पक्षाद्वसुद्वीशकरेषु भेषु, मूलाश्विनाग्नित्रितये नवाहात् । तोयेश . चित्रान्तकविष्णुभेषु नैरुज्यमेकादशभिर्दिनैश्च ।
पुष्ये त्वहिर्बुध्ययुनर्वसौ चं ब्रह्मार्यमर्केषु च सप्तरात्रात् ॥" शीघरोगिमरण का विशिष्ट योग - (मु.चि.न.प्र. श्लो. ४७ वाँ)
रौद्राहि शाक्राम्बुपयाम्यपूर्वा द्विदैववस्वग्निषु पापवारे ।
रिक्ताहरिस्कन्ददिने च रोगे शीघ्रं भवेद् रोगिजनस्य मृत्युः ॥ अन्वय - रौद्राहिशाक्राम्बुपयाम्यपूर्वाद्विदैववस्वग्निषु (आर्द्राश्लेषा ज्येष्ठाशततारकाभरणी पूर्वात्रय विशाखा धनिष्ठाकृत्ति का नक्षत्रेषु) रिक्ताहरिस्कन्ददिने (४, ९, १४, १२ एवं ६ एषु तिथिषु) पापवारे (सूर्ये, भौमे, शनौ च) एवं विधैतात्रितययोगे रोगे सति (रोगोद्भवे) तद्रोगिजनस्य शीघ्रं मृत्युभवेत्। ____ अर्थ - आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, शतभिषक, भरणी, तीनों पूर्वा, विशाखा धनिष्ठा एवं कृत्तिका इनमें से किसी नक्षत्र के साथ रवि, मंगल एवं शनि इनमें से किसी वार एवं रिक्ता तिथियों (४, ९, १५) द्वादशी एवं षष्ठी इनमें से किसी तिथि के आने पर अर्थात् श्लोकोक्त नक्षत्र + वार + तिथि विशिष्ट योग में यदि किसी व्यक्ति के शरीर में रोग की उत्पत्ति हो तो उस रोगी की शीघ्रमेव मृत्यु होती है। दैवज्ञमनोहर में भी
"उरगवरुणरुद्रा वासवेन्द्रत्रिपूर्वा , यमदहनविशाखा पापवारेणयुक्ता । तिथिषु नवमिषष्ठी द्वादशी वा चतुर्थी, सहजमरणयोगो रोगिणां कालहेतुः ॥"
अर्थ - “रोद्राहि" इस श्लोक वत् ही समझिए। यहाँ चतुर्थी ग्रहण से चतुर्दशी का भी आक्षेप समझ लेना चाहिए।
वसिष्ठ भी
आश्लेषाा त्रिपूर्वायमवरुणमरुच्छक तारानलाः स्युः द्वादश्यां स्कन्दरिक्तातिथिषुच रविजाकरिवारेषु येषाम् । रोगः संजायते ते यमपुरमचिरात्प्राप्नुवन्त्येव चन्द्रे जन्मन्यष्टाख्यबंधु व्यय भवनगते मृत्युलग्ने च राशौ ॥
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मुहूर्तराज ]
[१५७ ___अर्थात् “रौद्राहि" श्लोकोक्त नक्षत्रों वारों एवं तिथियों का विशिष्ट योग होने पर जिन्हें रोग हो वे शीघ्र ही यमपुर के अतिथि बनते हैं, उस रोगोत्पत्ति में उक्त योग होने पर और उस दिन चन्द्रमा जन्म का चौथा आठवाँ या बारहवाँ होने पर रोगी की आवश्यक मृत्यु होती है। यदि चन्द्रमा की स्थिति अनुकूल हो मृत्यु शीघ्र नहीं होगी अथरा परिहारक धर्मानुष्ठानों द्वारा जीवन पाया जा सकेगा। औषधसेवन मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. श्लो. १५ वाँ)
भैषज्यं सल्लघुमृदुचरे मूलभे द्वयङ्गलग्ने, शुक्रेन्द्विज्ये विदि च दिवसे चापि तेषां खेश्च । शुद्ध रिःफधुनमृतिगृहे सत्तिथौ नो जनेर्भे
सूचीकर्माप्यदितिवसुभे तक्षमैत्राश्विधिष्ण्ये ॥ अन्वय - लघुमृदुचरे (लघुमृदुचरसंज्ञावस्तु नक्षत्रेषु) मूलभे तथा द्वयङ्गलग्ने (द्विस्वभावसंज्ञकेषु ३, ६, ९, १२ राशिषु लग्नगतेषु) तत्र च शुक्रेन्दु गुरौ विदि च (शुक्रचन्द्रगुरुबुधेषु तल्लग्नेषु सत्सु) पुन: शुक्र चन्द्रगुरुबुधानां खे: च वारे सत्तिथौ (रिक्तामावस्यारहितायाम्) भैषज्यम् सत् शोभनम्। तथा च लग्नाद् द्वादशसप्तमाष्टभस्थानेषु ग्रहवर्जितेषु सत्सु भैषज्यम् सत् भवति।
तथा च अदितिवसुभे तक्षमैत्राश्विधिष्ण्ये (पुनर्वसुधनिष्ठा चित्रानुराधाश्विनीनक्षत्रेषु सूचीकर्म वस्त्रसीवनम् कवचघटनादिकम् च सत्।
अर्थ - अश्विनी, पुष्य, हस्त, चित्रा, मृगशिर अनुराधा रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, स्वाती पुनर्वसु और मूल इन नक्षत्रों में, द्विस्वभाव लग्नों में और उनमें शुक्र, चन्द्र, गुरु एवं बुध के रहने तथा बुध, गुरु, शुक्र चन्द्र और रविवार इन वारों में, रिक्ता अमावस आदि रहित शुभ तिथियों में रोगी को प्रथम औषध प्रारम्भ करना शुभ है। किन्तु उस दिन रोगी का जन्म नक्षत्र न हो। ___ तथा च पुनर्वसु, धनिष्ठा, चित्रा, अनुराधा और अश्विनी इन नक्षत्रों में सीवन कार्य या कवचनिर्माणादि कार्य भी प्रारम्भ करना शुभ है। इस विषय में श्रीपति, वसिष्ठ आदि का भी मतैक्य हैश्रीपति
"पौष्णद्वये चादितिभद्वये च हस्तेत्रये च श्रवणत्रभे च ।
मैत्रे च मूले च मृगे च शस्तं भैषज्यकर्म प्रवदन्ति सन्तः ॥ वसिष्ठ
हस्तत्रये पुष्यपुनर्वसौ च विष्णुत्रये चाश्विनिपौष्णभेषु । मित्रेन्दुमूलेषु च सूर्यवारे भैषज्यमुक्तं शुभवासरेऽपि ॥
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१५८ ]
[ मुहूर्तराज नव्यवस्त्रपरिधानमुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. श्लो. १० वाँ)
पौष्ण ध्रुवाश्विकरपंचकवासेज्यादित्ये प्रवालरदशंखसुवर्णवस्त्रम् । धार्य विरिक्तशनिचन्द्रकुजेऽह्नि, रक्तंभौमे धुवादिति युगे सुभगा न दध्यान् ॥
अन्वय- पौष्णध्रुवाश्विकरपंचकवासवेज्यादित्ये (रेवती रोहिण्युत्तरात्रयाश्विनी हस्तचित्रास्वाती-विशाखानुराधा) धनिष्ठापुष्यपुनर्वसु नक्षत्रेषु) तथा कुजशनि चन्द्रव्यतिरिक्तेऽह्नि प्रवालरदशंखसुवर्णवस्त्रम् धार्यम्, भौमे च रक्तम् (वस्त्रम्) सुभगा ध्रुवसंज्ञकपुनर्वसुनक्षत्रेषु प्रवालादिकं न दध्यात् ॥
अर्थ - रेवती, ध्रुवसंज्ञक नक्षत्रों, अश्विनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, पुष्य एवं पुनर्वसु में तथा शनि, सोम और मंगल इनको छोड़कर अन्य वारों में प्रवाल (मूंगा) हाथी दांत के कड़े, शंख सुवर्ण एवं वस्त्र धारण करना शुभ है।
मंगलवार को लालवस्त्र धारण किया जा सकता है। किन्तु सौभाग्यवती स्त्री को रोहिणी तीनों उत्तरा पुनर्वसु एवं पुष्य में प्रवालादि धारण नहीं करना चाहिए। नूतनवस्त्रधारण के विषय में - (श्रीपति)
रोहिणीषु करपंचकेऽश्विमे व्युत्तरेऽपि च पुनर्वसुद्वये ।
रेवतीषु वसुदैवते शुभे नव्यवस्त्रपरिधानमिष्यते ॥ जीर्णं रवौ सततमम्बुभिरार्द्रमिन्दौ, भौमे शुचे, बुधदिने च भबेद्धनाय । ज्ञानाय मन्त्रिणि, भृगौ प्रियसंगमाय मन्दे मलाय व नवाम्बर धारणं स्यात् ॥
अर्थ - रोहिणी, हस्तादि पाँच नक्षत्र, अश्विनी, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु, पुष्य, रेवती, धनिष्ठा एवं शुभवारों में नूतन वस्त्रधारण करना श्रेयस्कर है। अब प्रत्येक वारों में वस्त्रधारण के शुभाशुभफल कहे जाते हैं।
रवि को वस्त्रधारण करने से वह वस्त्र शीघ्र जीर्ण शीर्ण हो जाता है। सोम को धारित वस्त्र हमेशा जल से भीगा ही रहता है। मंगल को वस्त्रधारण से शोक और बुध को वस्त्र धारण करने से धनलाभ होता है। गुरु को धारित वस्त्र ज्ञान के लिए, शुक्र को प्रियसंगम के लिए है, किन्तु शनिवार को धारित वस्त्र मैला ही रहता है। नवधाविभक्त वस्त्र के दग्धादिकता से शुभाशुभफल - (मु.चि.न.प्र. श्लो ११ वाँ)
वस्त्राणां नवभागकेषु च चतुष्कोणेऽमराः राक्षसः , मध्यत्र्यंशगताः नरास्तु सदशे पाशे च मध्यांशयो दग्धे वा स्फुटितेऽम्बरे नवतरे पङ्कादिलिप्ते न सत् रक्षोंऽशे नृसुरांशयो शुभमसत्सर्वांशके प्रान्ततः ॥
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मुहूर्तराज ]
[१५९ अन्वय - वस्त्राणां नव भागा: कार्याः तेषु चतुष्कोणे अमरा स्थाप्याः, मध्यत्र्यंशेषू राक्षसाः सदशे पाशे च मध्यांशयो: नरा: स्थाप्याः। अथ चेद् राक्षसांशेषु नवतरे अम्बरे दग्धे, स्फुटिते, पंकादिलिप्ते, (कर्दभलिप्ते, आदि शब्दात् गोयमादिभिलिप्ते) सति तद् वस्त्र न सत् (न शुभं किन्त्वशुभमेव) किन्तु मरणं विदधाति। किन्तु नृसुरांशयोः (नवादेवांशेषु) ताहक् दग्धादि वस्त्रम् शुभं भवति। सर्वांशके (नवांशेषु) प्रान्ततः दग्धादिवस्त्रम् असत् अनिष्टफलदमेव भवति।
अर्थ - नवीन वस्त्र को भूमि पर फैलाकर उसके काल्पनिक नौ भाग अथवा रंगीन लेखनी आदि से रेखाएँ बनाकर करके चारों कोणों के भागों में देवता तथा मध्य के तीनों भागों में राक्षस एवं शेष दो भागों में नर स्थापित समझें फिर उस वस्त्र को देखें; यदि रक्षाोभाग में वह वस्त्र जला हुआ पत्थर कील आदि लगकर फटा हुआ कीचड़ गोबर सना हो तो वह अशुभ है, देव एवं नर भागों में यदि ऐसा हो तो शुभ है, किन्तु सभी भागों में अन्तिम छोरों पर यदि दग्धादि दोष युक्त तो वह वस्त्र भी अशुभ है। यही विचार शय्या, आसन एवं पादुका आदि में करना चाहिए। उक्ताशय को सम्यक् स्पष्ट करते हुए कश्यप
नवांशुकं समं कृत्वा, चिन्तयेच्च शुभाशुभम् । वसन्ति देवताः कोणे चान्त्यमध्यद्वये नराः ॥ मध्यांश त्रितये दैत्याश्चैवं शप्यासनादिषु । अर्थ प्राप्ति देवतांशे पुत्रवृद्धिर्नरांशके ॥ हानिः पीडा पिशाचांशे सर्वप्रान्तेष्वशोभनम् ।
अर्थ - “वस्त्राणां नवभागकेषु" इस श्लोक वत् ही है। कश्यप ने देवतांश में दग्धादि वस्त्र को अर्थ प्राप्तिकारक तथा नरांश में वैसे वस्त्र को पुत्रवृद्धिकारक कहा है एवं पिशाचांश में नष्ट वस्त्र को हानि एवं पीड़ाप्रद तथा समस्त छोरों पर क्षत वस्त्र को भी अनिष्टकारक माना है।
- नूतनवस्त्र नवभागों में देवादिस्थापना क्रम -
देवता
नर
देवता
राक्षस
राक्षस
राक्षस
देवता
नर
देवता
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१६० ]
[ मुहूर्तराज वस्त्रधारण विषय में श्रीपति भी -
कर्दमकज्जलगोमयलिप्ते वाससि दग्धवति स्फुटिते वा । चिन्त्यमिदं नवधाभिहितेऽस्मिन्निष्टमनिष्टफलं च सुधीभिः ॥ निवसन्त्यमरा हि वस्त्रकोणे मनुजाः पाशदशान्तमध्ययोश्च । अपरेऽपिच रक्षसां त्रयोंशाः शयने चासनयादुकासु चैवम् ॥ भोगप्राप्तिर्देवतांशे, नरांशे पुत्राप्तिः स्याद्राक्षसांशे च मृत्युः ।
प्रान्ते सर्वांशेष्वनिष्टं फलं स्यात्प्लुष्टे वस्त्रे नूतने साध्वसाधु ॥ शुभाशुभफल भागों में भी कुछ विशेषता श्रीपति के शब्दों में ही
"छत्रध्वजस्वस्तिक वर्द्धमान श्रीवस्तकुम्भाम्बुज तोरणानाम् । छेदाकृतिनैर्ऋतभागगाऽपि पुंसां विधत्ते न चिरेण लक्ष्मीम् ॥ कंकप्लवोलूक कपोतकाक क्रव्याद गोमायु खरोष्ट्रसर्पाः ।
शुष्क द्रुमप्रेतसभा न शस्ता छेदाकृतिर्दैवतभागणापि ॥" अर्थात् - वस्त्र के राक्षस भागों में भी यदि छत्र, ध्वज, स्वास्तिक, वर्धमान, श्रीवत्स कुंभ, कमल एवं तोरणाकृति में छिद्र हो तो वह वस्त्र शीघ्र लक्ष्मीप्रदायी होता है और देवभागों में भी कंकप्लव, उल्लू, कबूतर, काक, गीध, सियार, गदहा, ऊँट एवं सर्पाकृति में छिद्र हो तो वह वस्त्र धारण करने योग्य नहीं है। वस्त्रधारणविषय में आरम्भिसिद्धि में -
नववाससः प्रधानम् वासवपौष्णाश्विनादिद्वितये ।
करपंचकधुवेषु च बुधगुरुशुक्रेषु परिधानम् ॥ अर्थ - बुध, गुरु, शुक्र इनमें से किसी भी वार को धनिष्ठा, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा एवं ध्रुवसंज्ञक (रोहिणी, उ.फा., उ.षा. उ.मा.) इनमें से किसी भी नक्षत्र के योग में नूतनवस्त्र धारण करना शुभ है। समस्त नक्षत्रों में वस्त्रधारण से शुभाशुभफल - (आ.सि.)
नष्टप्राप्तिस्तदुमरणं विह्निदाहोऽर्थसिद्धिः, आखो(ति३ मंतिरथ धनप्राप्तिरर्थागमश्च शोको मृत्यु नरपतिभयं१ सम्पदः१२ कर्मसिद्धिः१३ विद्याप्राप्तिः१४ सदशन१५ मथो वल्लभत्वं जनानाम् ६ ॥ मित्राप्तिरेम्बरहति:१८
सलिलप्लुतिश्च९ रोगो तिमिष्टमशनं२१
नयानामशयश्चर । धान्यं२३ विषोद्भवभयं२४ जलभीर्धनंच२६ ।। रत्नाप्तिरम्बरधृतेः
फलमश्विभात्स्यात् ।
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मुहूर्तराज ]
[ १६१
अश्विनी आदि रेवत्यन्त नक्षत्रों में नूतनवस्त्र धारण के शुभाशुभ फल निम्नलिखित सारणी में सम्यक्
ज्ञानार्थ देखिए
क्र.सं.
२
३
४
५
६
७
८
९
१२
नक्षत्र
अश्विनी
१३
भरणी
१४
कृत्तिका
रोहिणी
मृगशिर
आर्द्रा
१० मघा
पुनर्वसु
११ पूर्वा फा.
पुष्य
आश्लेषा
उत्तरा फा.
—
हस्त
अथनववस्त्रधारण में शुभाशुभफलद नक्षत्र बोध सारणी
क्र.सं.
फल
नष्टवस्तुलाभ
मरण
अग्नि से जलना
अर्थसिद्धि
चूहे आदि द्वारा कुतर जाना
मरण
धन प्राप्ति
अर्थागम
शोक
मृत्यु
राजभय
सम्पद्लाभ
१५
१६
१७
१८
१९
२०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
नक्षत्र
स्वाती
विशाखा
अनुराधा
ज्येष्ठा
मूल
पूर्वाषाढ़ा
उत्तराषाढ़ा
श्रवण
धनिष्ठा
शतभि.
पू.भा.
उ.भा.
फल
रेवती
सुभोजनलाभ
लोकप्रियता
मित्र लाभ
वस्त्र नाश
जल में डूब जाना
रोग
कर्मसिद्धि
चित्रा
विद्यालाभ
ऊपर लिखे वस्त्रधारण के शुभफलद नक्षत्र केवल श्वेत धारण में ही नहीं हैं, अपितु लाल वस्त्रधारण में भी उपरिलिखित शुभ फलदायी नक्षत्र ही ग्रहणीय हैं, ऐसा व्यवहार में कहा गया है; किन्तु व्यवहार सार में तो ऐसा कहा गया है कि रक्त वस्त्रधारण में पुरुषों के लिए भी वे ही नक्षत्र ग्राह्य हैं जो स्त्रियों के लिए आगे कहे जाएंगे। किन्तु “ नष्टप्राप्ति..... स्यात् ” इन दो श्लोकों में जो वस्त्रधारण के लिए शुभनक्षत्र वर्णित हैं वे केवल श्वेत वस्त्र के लिए ही है।
अभीभिष्ट भोजन
नेत्ररोग
धान्यप्राप्ति
विषभय
जलभय
धनप्राप्ति
रत्नलाभ
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१६२ ]
[ मुहूर्तराज नूतनवस्त्र धारण में रविवार से शनिवार तक के वारों में कतिपय वार शुभ एवं कतिपय अशुभ है उनका फलाफल निर्देश करते हुए व्यवहार प्रकाश में कहा गया हैनवाम्बरपरीभोगे
कुर्वन्त्यर्कादिवासराः ।। जीर्णं जला शोकं च धनं ज्ञानम् सुखम् मलम् ॥
अर्थात् - नवीनवस्त्र धारण करने में सूर्यादिवार क्रमश: वस्त्रजीर्यता, वस्त्र की सतत जलार्द्रता, वस्त्रधारण कर्ता को शोक, धनलाभ, ज्ञान, सुख और मल ये फल देते हैं।
___ - वारानुसार नूतनवस्त्रधारण शुभाशुभ फल बोधक सारणी -
वार
→
रवि
चन्द्र
मंगल
|
बुध
।
गुरु
शुक्र ।
शनि
फल →
जीर्णता
सतत जल से भीगा रहना
शोक
धन लाभ
| ज्ञान
सुख
वस्त्र का मैला ही रहना
कतिपय आचार्य वस्त्रधारण के विषय में
व्यापार्यते रवी पीतं बुधे नीलं शनौ शितिः । गुरुभार्गवयोः श्वेतं रक्तं मंगलवासरे ॥
इस श्लोक का तात्पर्य सारणी में देखिए
- विभिन्न वर्णके वस्त्रों के धारण में विहित वार - | वार → | रवि | चन्द्र मंगल | बुध । गुरु ।
शुक्र
शनि
1
वस्त्र
पीला
|
नील
लाल
श्वेत
X
श्वेत
काला
वर्ण
स्त्रियों के लिए नूतन वस्त्र एवं अलंकारादि धारण मुहूर्त के विषय में आरंभसिद्धि में कथित है
योषिद्भजेत करपञ्चक वासवाश्वि पौष्णेषु वक्रगुरुशुक्रदिनेशवारे ।
मुक्ताप्रवालमणिशंखसुवर्णदन्तरक्ताम्बराण्यविधवात्वमतिः सती चेत् ॥ अन्वय - यदि सती अविधवात्वमति: चेत् तर्हि सा योषिद् वक्रगुरुशुक्र दिनेशवारे करपञ्चक वासवाश्विपौष्णेषु (नक्षत्रेषु) मुक्ताप्रवालमणि शंखसुवर्णदन्तरक्ताम्बराणि भजेत।
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मुहूर्तराज ]
[ १६३
अर्थ - यदि सती स्त्री जो विधवा होने की इच्छा न रखे उसे चाहिए कि वह हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, धनिष्ठा, अश्विनी और रेवती इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र के साथ मंगल, गुरु, शुक्र एवं रवि का योग होने पर मोती, मूंगा आदि से जटित आभूषण, शंखाभूषण, सुवर्ण, हाथी दांत के बने आभूषण एवं रक्त वस्त्र धारण करें।
स्त्रियों के लिए रक्तवस्त्रधारण में निषिद्ध नक्षत्र
(आ.सि.)
" पुष्यं पुनर्वसुं चैव रोहिणीं चोत्तरात्रयम् । कौसुंभे वर्जयेद् वस्त्रे भर्तृघातो भवेद्यतः ॥ '
11
अर्थात् - स्त्रियों को रक्तवर्ण वस्त्र धारण करने में पुष्य, पुनर्वसु, रोहिणी और तीनों उत्तरा ये नक्षत्र त्याग करने चाहिए, क्योंकि इनमें रक्तवस्त्र धारण करने से उनके पति का नाश होता है अथवा पति को मृत्युतुल्य कष्ट भुगतना पड़ता है ।
कहीं-कहीं दुष्टदिन को भी वस्त्रधारण का विधान
(मु.चि.न.प्र. ७९ वाँ)
विप्राज्ञया तथोवाहे राज्ञा प्रीत्यार्पितं च यत् । निन्द्येऽपि धिष्ण्ये वारादौ वस्त्रं धार्यं जगुर्बुधाः ॥
धिष्ण्ये वारादौ निन्धेऽपि यद् वस्त्रं विप्राज्ञया तथोद्वाहे राज्ञा च प्रीत्यार्पितं तद् धार्यम् इति
तथा काश्यप भी
अन्वय बुधा: जगुः ।
अर्थ - विद्वानों का कथन है कि नक्षत्र एवं वार तिथि आदि के भद्राव्यतिपातादि दोषों से दूषित होने पर भी ब्राह्मण की अनुमति से एवं विवाह में तथा प्रेमपूर्वक राजा द्वारा प्रदत्त वस्त्र तत्काल धारण कर लेना चाहिए। यहाँ वस्त्र का ग्रहण उपलक्षणार्थ है अर्थात् वस्त्र की ही भाँति ब्राह्मणानुमति एवं विवाहादि शुभावसरों पर प्राप्त हाथी, घोड़े एवं द्रव्यादि भी ग्रहण करना दूषित नहीं है ।
इस विषय में रत्नमालाकार
-
राजदर्शनमुहूर्त - (र.मा.)
-
“विप्रादेशात्तथोवाहे क्षमापालेन समर्पितम् । निन्थेऽपि धिष्ण्ये वारादौ वस्त्रं धार्यं जगुर्बुधाः ॥ "
"प्रीत्या क्ष्मापालदत्तं यद् विप्रादेशात्करग्रहे । निन्धेऽपि धिष्ण्ये वारादौ धारयेच्च नवाम्बरम् ॥
"1
1
सौम्याश्विपुष्यश्रवणश्राविष्ठाहस्तधुवत्वाष्ट्रमपूषमनि मैत्रेययुक्तानि नरेश्वराणां विलोकने भानि शुभप्रदानि ॥
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१६४ ]
[ मुहूर्तराज अन्वय - मैत्रेय युक्तानि सौम्याश्विपुष्यश्रवणश्रविष्ठाहस्तध्रुवत्वाष्ट्रमपूषभानि नरेश्वराणां (उपलक्षणत्वाद् उच्चाधिकारणां लोकनेत्द्दणान्येषांच महापुरुषाणां) विलोकने भानि (उक्तानित्रोयदशनक्षत्राणि) शुभप्रदानि (मंगलकारीणि) भवन्ति।
अर्थ - अनुराधा सहित मृगशिरा, अश्विनी, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, रोहिणी, तीनों उत्तरा, चित्रा और रेवती ये नक्षत्र राजदर्शन अर्थात् राजा या राजोचितपदभोगी किसी बड़े व्यक्ति के दर्शन करने में शुभफलदायी अर्थात् सिद्धिप्रद माने गये हैं। क्रयविक्रय नक्षत्रों में परस्पर विरोध एवं क्रयनक्षत्र - (मु.चि.न.प्र. १६ वाँ)
क्रयः विक्रयो नेष्टः विक्रयः क्रयोऽपि न ।
पौष्णाम्बुपाश्विनीवातश्रवश्चित्राः क्रये शुभाः ॥ अन्वय - क्रयः (कथयिष्माणक्रयनक्षत्रे) विक्रय: इष्टः न तथा च विक्रय ः (अग्रे वक्ष्यमाण विक्रयनक्षत्रे) क्रयः अपि न इष्टः। पोष्णाम्बुपाश्विनी वातश्रवाश्चित्राः (रेवती शततारकाश्विनी स्वाती श्रवण चित्रा: एतानि नक्षत्राणि) क्रये शुभाः विक्रये च निषिद्धाः सन्ति।
अर्थ - क्रयनक्षत्रों में विक्रय एवं विक्रय नक्षत्रों में क्रय करना इष्टकारक नहीं। रेवती, शतभिषक, अश्विनी, स्वाती, श्रवण और चित्रा ये नक्षत्र क्रय के लिए शुभ है किन्तु ये ही नक्षत्र विक्रय के लिए अनिष्ट है। अथ विक्रय एवं विपणि (दुकान करने का) मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. श्लो. १७ वाँ)
पूर्वाद्वीशकृशानुसार्पयमभे केन्द्रत्रिकोणे शुभैः , षड्यायेष्वशुभैर्विना घटतनुं सन् विक्रयः सत्तिथौ । रिक्ताभौमघटानू विना च विपणिमैत्रधुविक्षप्रभैः
लग्ने चन्द्रसिते व्ययाष्टरहितैः पापैः शुभैद्वर्यायरवे ॥ अन्वय - पूर्वाद्वीशकृशानुसार्पयमभे (पूर्वांत्रयम् विशाखा, कृत्तिका, आश्लेषा, भरणी एतेषु नक्षत्रेषु सत्सु) अथ केन्द्रत्रिकोणे (प्रथमचतुर्थसप्तमदशमनवमपंचमभावेषु) शुभैः (स्थित शुभग्रहै:) षट्व्यायेषु (षष्ठतृतीयैकादशस्थानेषु) अशुभैः (अशुभग्रहै: स्थितैः सद्भिः) घटतनुं (कुंभलग्नं) विना (वर्जयित्वा) सत्तिथौ शुभतिथौ विक्रयः सन् (शुभः)।
अथ रिक्ताभौमघटान् विना (चतुर्थी नवमी चतुर्दशी भौमकुंभलग्नानि वर्जयित्वा) मैत्रध्रुवक्षिप्रभैः (चित्रानुराधाभृगरेवती रोहिण्युत्तरात्रयाश्विनी पुष्यहस्तैः) नक्षत्रैः सद्भिः अथ (विपणिकरणसमयलग्नकुण्डल्यां) लग्ने चन्द्र सिते (चन्द्र शुक्रे च सति) व्ययाष्टरहितैः (द्वादशाष्टमस्थाने वर्जभित्वान्यत्र स्थितैः) पापैः (पायखेटैः) द्वयायरवे (द्वितीयैकादशदशमस्थानेषु) शुभैः (शुभग्रहै: स्थितैः) विपणिः (विपणिकर्म) शुभम् भवति।
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मुहूर्तराज ]
[१६५ अर्थ - विशाखा, कृत्तिका, आश्लेषा, भरणी इन नक्षत्रों में विक्रय करना शुभ है पर क्रय करना निषिद्ध है। तथा विक्रयकालिक लग्नकुण्डली में केन्द्र एवं त्रिकोण में (१,४,७,१०,९,५) स्थानों में शुभग्रहों की स्थिति में तथा तृतीय, षष्ठ एवं एकादश स्थान में पापग्रहों की स्थिति रहते किन्तु कुंभलग्न को छोड़कर शुभ तिथि में विक्रय करना शुभफलद है।
इस विषय में श्रीपति -
"दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्रत्रिकोणगैः ।
शुभैः पण्यस्य कर्मोक्तं वर्जयित्वा घटोदयम् ॥" अर्थात् - दशम अथवा एकादश लग्न में द्वितीय केन्द्र एवं त्रिकोण स्थानों में शुभग्रहों के रहते परन्तु कुंभलग्नोदय को छोड़कर विक्रय करना ठीक है।
अब दुकान करने का मुहूर्त कहा जा रहा है -
रिक्ता (४,९ और १४ तिथि) मंगल एवं कुंभ लग्न को छोड़कर चित्रा, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, रोहिणी, उ.फा., उ.षा., उ.भा., अश्विनी, पुष्य एवं हस्त इन नक्षत्रों में, लग्न में शुक्र तथा चन्द्रमा के रहते, आठवें एवं बारहवें स्थान में पापग्रहों के न रहते एवं शुभग्रहों के दूसरे दसवें एवं ग्यारहवें स्थान में रहते दुकान लगाना अर्थात् दुकान पर बैठकर क्रय-विक्रय करना शुभ है।
रत्नमाला में भी
"कुंभराशिमपहाय साधुषु द्रव्यकर्मभवमूर्ति वर्तिषु ।
अव्ययेष्वशुभदायिषूद्गमे भार्गवे विपणिरिन्दुसंयुते ॥" अर्थात् - कुंभलग्न को छोड़कर सद् ग्रहों के द्वितीय, दशम, एकादश एवं लग्न में रहते एवं अशुभ ग्रहों के द्वादश स्थान में रहते तथा चन्द्र सहित शुक्र के लग्न में रहते वियणि कर्म शुभ है। धनप्रयोग में निषिद्ध नक्षत्र विष्टि (भद्रा) व्यतिपातादि - (मु.चि.न.प्र. २४ वाँ)
तीक्ष्णमिश्रध्रुवोत्रैर्य द्रव्य दत्तं, निवेशितम् ।
. प्रयुक्तं च विनष्टं च विष्टयां पाते न चाप्यते ॥ अन्वय - तीक्ष्णामिश्रध्रुवोग्रैः (मूलज्येष्ठार्दाश्लेषाविशाखाकृत्तिकारोहिण्युत्तरात्रयपूर्वा त्रयभरणीमघाः एभिः नक्षत्रैः) यद् द्रव्यम् सुवर्णादिकं दत्तं (कालावधिम् अकृत्वा दत्तम्) निवेशितम् (स्वजनसमीपे विश्वासाय स्थापितम्) प्रयुक्तम् (व्यापार कर्मणि उत्तमर्णाधमर्ण व्यवहारात् कस्मैचिद् दत्तम् विनष्टं (स्तनादिना हृतम् स्वयं वा कुत्रापि स्थापितं तद् कदाचिदपि नाप्यते तथा च विष्टयां पाते च व्यतीपाते महापाते वा हृतं द्रव्यम् अपि नाय्यते ।
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१६६]
[ मुहूर्तराज अर्थ - मूल, ज्येष्ठा, आश्लेषा, आर्द्रा, विशाखा, कृत्तिका, उ.फा., उ.षा.,उ.भा., पू.फा., पू.षा., पू.भा., भरणी एवं मघा इन नक्षत्रों में जो द्रव्य लौटाने के समय की अवधि किए बिना दिया हो व्यापार में ब्याज लेने अथवा देने के हिसाब से लगाया गया हो। किसी स्वकीय व्यक्ति के पास विश्वासार्थ रखा गया हो अथवा चौरादि द्वारा हरण किया गया हो अथवा स्वयं के हाथ से ही कहीं रख दिया गया हो, वह द्रव्य कदाचित् भी प्राप्त नहीं हो सकता। तथा च भद्रा में व्यतीपात या महापात दोष में भी जो धन विनष्ट हुआ हो वह कदापि नहीं मिल सकता। इसी आशय को लेकर वसिष्ठ भी
"धुवोनसाधारणदारुणः, निक्षिप्तमर्थं त्वथवा विनष्टम् ।
चौरेहृतं दनमुपप्लवे वा विष्टयां च पाते न च लभ्यते तत् ॥" उपर्युक्त “तीक्ष्णमित्र” श्लोक में वर्णित नक्षत्रों में जो धन निक्षेप रूप में कहीं स्थापित किया हो, रखकर भुला दिया गया हो, चोरों द्वारा चुरा लिया हो, ग्रहण में दिया गया हो अथवा विष्टि, व्यतीपात महापात में दिया गया हो तो वह धन कदापि प्राप्त नहीं होता। द्रव्यप्रयोग = ऋणदान एवं ऋणग्रहण मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. २७ वाँ)
स्वात्यादित्यमृदुद्विदैवगुरुभे कर्णत्रयाश्वे चरे लग्ने धर्मसुताष्टशुद्धिसहिते द्रव्यप्रयोगः शुभः ॥ नारे ग्राह्यामृणं तु संक्रमदिने वृद्धौ करेऽऽह्नि यत्
तवंशेषु भवेदृणं न च बुधे देयं कदाचिद् धनम् ॥ अन्वय - स्वात्यादित्यमृदुद्विदैवगुरुभे (स्वातीपुनर्वसुचित्रानुराधामृग रेवती विशाखा पुष्यनक्षत्रेषु) तथा कर्णत्रयाश्वे (श्रवणधनिष्ठाशतभिष अश्विनी नक्षत्रेषु) अथ लग्ने चरे (मेषकर्कतुलामकरेषु) धर्मसुताष्ट शुद्धि सहिते (धर्मसुतयोः शुभग्रहसत्वे पापग्रहराहित्ये च, अष्टमे तु शुभपापग्रहराहित्ये च सति) द्रव्यप्रयोगः शुभ: (परस्मै ऋण देयम्)।
अथ आरे (भौमवारे) संक्रमदिने (सूर्यसंक्रमणदिवसे) वृद्धौ (वृद्धि योगे करेऽऽह्नि (रविवारयुक्ते हस्ते चन्द्रनक्षत्रे अर्थात् हस्तार्के दिने ऋणं न ग्राह्यम्। यत् (यस्मात्कारणात् तद् गृहीतमृणम्, तवंशेषु ऋणग्रहीतु: कुलेषु कुलोत्पन्नेषु भवेत् (तद् ऋणं तत्पुत्रपौत्रादिभि रपि प्रत्यावर्तयिनुम् अशक्यम् भवेदिति अथ बुधे बुधदिने कदाचिद् धनम् (ऋणरूपेण) न देयम् ।
अर्थ - स्वाती, पुनर्वसु, चित्रा, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, विशाखा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और अश्विनी इन नक्षत्रों में, मेष, कर्क, तुला एवं मकर इन लग्नों में तथा लग्न से पाँचवें नवें में शुभग्रह रहते और पापग्रह न रहते तथा अष्टमस्थान में शुभ एवं पापग्रह किसी के भी रहते ऋण देना चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
[१६७ ___ मंगलवार, सूर्यसंक्रमण के दिन, वृद्धियोग में, हस्तार्क में ऋण नहीं लेना चाहिए, क्योंकि ऐसे समय में लिया हुआ ऋण उस ऋणग्रहीता के वंशजों के द्वारा भी चुकाया जाना असंभव है। इसी प्रकार बुधवार को ऋण देना नहीं चाहिए। ऋण के विषय में ज्योतिः प्रकाशकार -
ऋणं भौमे न गृहणीयात् न देयं बुधवासरे ।
ऋणच्छेदं कुजे कुर्यात् संचयं सोमनन्दने ॥ अन्वय - भौमे ऋणं न गृहणीयात्, बुधवासरे ऋणं न देयम, कुजे ऋणच्छेदं कुर्यात् सोमनन्दने संचयं
कुर्यात्।
__अर्थ - मंगल को ऋण न ले और बुध को ऋण न दे। मंगल को ऋण चुकाए और बुध को संचय करें। सेवक द्वारा स्वामिसेवा का मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. श्लो. २६ वाँ)
क्षिप्रे मैत्रे वित्सिता}ज्वारे सौम्ये लग्नेऽके कुजे वा खलाभे ।
योनेमैंत्र्यां राशिपोश्चापि मैत्र्यां सेवा कार्या स्वामिनः सेवकेन ॥ अन्वय - क्षिप्ते (क्षिप्रसंज्ञकेषु हस्ताश्विनीपुष्याभिजिनक्षत्रेषु) मैत्रे (मृगशिरो रेवती चित्रानुराधासु) वित्सितार्केज्यवारे (बुधशुक्रसूर्यगुरुवारे) तथा सौम्ये (सौमाग्रहे) लग्ने (लग्नसंस्थे) अकें (सूर्य) कुजे वा (भौमग्रहे वा) खलाभे (दशमस्थाने एकादशस्थाने वा गते) योनेभैंत्र्यां (स्वामिसेवकयोः जन्मनक्षत्रयोः नामनक्षत्रयोः योन्योः मैत्र्यां मित्रभावे सति) राशियो: च मैत्र्याम् (स्वामिसेवकजन्मराशिपत्योः परस्परमैत्र्याम्) एवं स्थितौ सेवकेन स्वामिनः सेवा (वेतनग्रहणकार्याधंगीकाररूपासेवा) कार्या।
अर्थ - क्षिप्र एवं मैत्र संज्ञक नक्षत्रों में बुध, शुक्र, रवि एवं गुरुवार के दिन लग्न में शुभग्रह के रहते दशम अथवा एकादश स्थान में सूर्य या मंगल के रहते स्वामिसेवक दोनों के जन्मनक्षत्रों वा नामनक्षत्रों की योनियों की मैत्री होने पर और दोनों के राशिस्वामिग्रहों की भी मैत्री रहते सेवक को स्वामी की सेवा स्वीकार करनी चाहिए। नाटक एवं काव्यारम्भ मुहूर्त - (आ.सि.)
बधे विलग्ने शशिनि ज्ञराशौ गुरुवीक्षिते ।
हिबुकस्थैः शुभैः नृत्यं काव्यं चारभ्यते बुधै ॥ अन्वय - बुधे विलग्ने (लग्नगते) ज्ञराशौ (बुधराशौ मिथुने कन्यायां वा) शशिनि स्थिते तस्मिन् च गुरुवीक्षिते सति तथा च शुभैः (शुभग्रहै:) हिबुकस्थैः (चतुर्थस्थानगतैः सद्भिः) सत्समये बुधैः नृत्यं काव्यं च आरम्यते।
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१६८ ]
[ मुहूर्तराज ___ अर्थ - लग्न में बुध रहते और बुध की राशि मिथुन अथवा कन्या राशि में गुरु से दृष्ट चन्द्रमा की स्थिति में समझदार लोग नृत्य एवं कार्य का आरम्भ करते हैं। मन्त्रादि ग्रहण समय - (आ.सि.)
शीतांशी बुधराशिस्थे शुभेषूदयवर्तिषु ।
मन्त्रादिग्रहणं कार्यं हित्वा पापग्रहोदयम् ॥ अन्वय - शीतांशौ (चन्द्रे) बुधराशिस्थे (मिथुने कन्यायां वा स्थिते) शुभेषु शुभग्रहेषु उदयवर्तिषु (लग्न गतेषु) सत्सु पापग्रहोदयम् (पापग्रहीय लग्नम्) लग्ने पापग्रहे वा स्थिते मन्त्रादिग्रहणम् कार्यम्। ___ अर्थ - बुध की राशि मिथुन वा कन्या में चन्द्र के रहते तथा शुभग्रहों के लग्न में रहते पापग्रहीय राशिलग्न को एवं लग्न में पापग्रह की स्थिति को त्याग कर मन्त्रादि ग्रहण करना शुभ है। धर्मारम्भ एवं नन्दीस्थापन मुहूर्त - (आ.सि.)
हिबुकेके गुरौ लग्ने धर्मारंभो रवेर्दिने ।
गुरुज्ञलग्नवर्गे वा शुभरंभास्तयो र्बले ॥ अन्वय - हिबुके (चतुर्थभावे) अकें गुरौ लग्ने रवेः दिने धर्मारंभ: गुरुज्ञलग्न वर्गे (गुरोः बुधस्य राशिनवांशे लग्नस्य वगै लग्ने वर्गोत्तमे) अथवा तयोः (रविगुर्वो:) बले (बलयुक्ते) शुभारंभाः कर्तव्याः।
अर्थ - चौथे स्थान में सूर्य एवं लग्न में गुरु के रहते रविवार के दिन धर्म का एवं गुरु, बुध अथवा लग्न के वर्ग में अथवा रवि, गुरु के बलयुक्त रहते सभी शुभारंभ करने चाहिएं।
इति श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासिमुनि श्रीगुलाबविजयसंगृहीते मुहूर्तराजे तृतीयम् आवश्यकमुहूर्तप्रकरणम् समाप्तम्
अभिमान दुर्भावना, विषयाशा, ईर्ष्या, लोभादि दुर्गुणों, को नाश करने के लिये ही शास्त्राभ्यास या ज्ञानाभ्यास करके पाण्डित्य प्राप्त किया जाता है। यदि हृदय भवन में पण्डित होकर भी ये दुर्गुण निवास करते रहे तो पण्डित और मूर्ख दोनों में कुछ भेद नहीं है - दोनों को समान ही जानना चाहिये। पण्डित, विद्वान या जानकार बनना है तो हृदय से अभिमानादि दुर्गुणों को हटा देना ही सर्वश्रेष्ठ है।
श्री राजेन्द्रसूरि
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मुहूर्तराज ]
(४) अथ वास्तु प्रकरणम्
त्रिविध अथवा चतुर्विध गृहप्रवेश के विषय में विगत प्रकरण के यात्रा मुहूर्त में सुपूर्वप्रवेश की चर्चा करते समय संकेत दिया ही गया है। नवीन निर्मित घर में जो प्रवेश किया जाता है उसे अपूर्वगृहप्रवेश संज्ञा से व्यवहृत किया जाता है, अर्थात् उस प्रवेश को अपूर्वग्रहप्रवेश कहते हैं । अपूर्वग्रहप्रवेश के लिए गृहनिर्माण आवश्यक होता है । गृहनिर्माण को वास्तु भी कहते हैं तथैव गाँव नगर आदि के बसाने को भी वास्तु नाम से पुकारा जाता है, अतः अब वास्तुप्रकरण विषयक मुख्य-मुख्य अंशों के सम्बन्ध में इस प्रकरण में चर्चा होगी। इसी विषय में वसिष्ठ कहते हैं
अर्थात् - जो ब्रह्मा द्वारा पूर्वकाल में कहा गया है उसी वास्तुज्ञान के सम्बन्ध ग्राम, भवन एवं नगर आदि के निर्माण के विषय में अब कहा जाएगा।
गृहनिर्माण प्रयोजन (भविष्यत्पुराण में)
"वास्तुज्ञानं प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ब्रह्मणा पुरा । ग्रामससद्मपुरादीनां निर्माणं वक्ष्यतेऽधुना ॥ "
तथा च
-
यतस्तस्माद्गृहारंभ
अर्थात् - गृहस्थ की कोई भी क्रिया उसके निजी घर के बिना सिद्ध नहीं हो सकती । अतः मैं अब गृहारंभ एवं उसमें प्रवेश करने के विषय में कहता हूँ ।
(भविष्यत्पुराणे)
गृहस्थस्य क्रियाः सर्वाः न सिध्यन्ति गृहं विना । प्रवेशसमयौ
वे ॥
[ १६९
परगेहे कृताः सर्वाः श्रौतस्मार्तक्रियाः शुभाः । निष्फलाः स्युर्यतस्तासां भूमीशः फलमश्नुते ॥
अर्थात् - श्रौत्र (वेद कथित) स्मार्त ( पुराणोक्त) सभी शुभ क्रियाएँ यदि अन्य व्यक्ति के घर में की जाएं तो वे निष्फल होती हैं क्योंकि उन क्रियाओं का फल उस मकान का मलिक भूमिपति होने के कारण ग्रहण कर लेता है।
ग्राम अथवा नगर में गृहनिर्माणार्थ स्वशुभाशुभ एवं गृहद्वार के विषय में - (मु.चि.वा. प्र. श्लो. १ला) यद्भं द्वयङ्कसुतेशदिमतेमसौ ग्रामः शुभो नामभात्, स्वं वर्गं द्विगुणं विधाय परवर्गाढ्यं गजैः शोषितम् । काकिण्यस्त्वनयोश्च तद्विवरतो यस्याधिकाः सोऽर्थदोऽ थ द्वारं द्विजवैश्यशूद्रनृपराशीनां
"
हितं पूर्वतः ॥
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१७० ]
[ मुहूर्तराज
अन्वय नामभात् (गृहकर्तृपुरुषनामराशेः) यद्भं (निर्मेयगृहग्रामराशि:) द्वयङ्कसुतेशदिङ्गितम् (द्वितीयपंचमनवमदशमैकादशक्रमगतम्) स्यात् असौ ग्रामः शुभः (गृहं विधाय वासयोग्यः इत्यर्थः ) अथ स्वं वर्गम् (खगेश मार्जारादि वर्गसंख्याम्) द्विगुणं विधाय परवर्गाढ्यं (ग्रामवर्गसंख्यायुक्तं ) गजैः शेषितं, काकिण्यः (अवशिष्टाः काविण्यः पुरुषस्य तथैव ग्रामवर्गसंख्यां द्विगुणां विधाय पुरुष वर्गसंख्यया युक्तां कृत्वा गजैः (अष्टभिः) शोषितम् एता: ग्रामस्य काकिण्यः ज्ञेया: ) अनयोस्तु पुरुषग्रामकाकिण्योः विवरत: (अन्तरे कृते ) यस्य (पुंसः ग्रामस्य वा काकिण्यः) अधिकाः सः अर्थदः (अर्थदाता ऋणी वा स्यात् । अथ द्विजवैश्यशूद्रन्टपराशीनां द्वारं (गृहप्रवेशद्वारं) पूर्वतः (पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिशासम्मुखे) हितं शुभावहं स्यात् ।
अर्थ - जो कोई व्यक्ति जिस किसी गाँव या नगर में मकान बनवाना चाहता है उसे अपनी नाम राशि से गाँव या नगर की राशि तक गणना करनी चाहिए। यदि पुरुष की राशि से नगर या गाँव की राशि दूसरी, नवीं, पाँचवीं, ग्यारहवीं और दसवीं हो तो वह गाँव या नगर उस व्यक्ति के लिए निवासार्थ गृहनिर्माण में शुभ समझा गया है। अब एक ओर शुभाशुभ फल जानने के विषय में बात बतलाई जाती है, जिसे काकिणी कहते हैं यथा
गृहनिर्माण कर्त्ता पुरुष के नाम का आदि वर्ण गरुड मार्जरादि जिस वर्ग का हो उसकी क्रम संख्या को दूना करके उसमें गाँव या नगर के नामादि वर्ण के वर्ग की संख्या जोड़कर उसमें ८ का भाग लगाने पर जो शेष रहें वह उस गृहनिर्माता की काकिणी हुई; और इसी प्रकार गाँव अथवा नगर नामादिवर्ण की वर्गसंख्या को दूना करके उसमें गृहनिर्माता के नामादिवर्ण के वर्ग की संख्या जोड़कर उसमें भी ८ का भाग देने पर जो शेष अंक रहे, उन्हें उस गाँव या नगर की काकिणी जानना चाहिए । फिर जिसकी काकिणी अधिक हो वह कम काकिणी वाले का दोनों काकिणी संख्याओं की अन्तरतुल्य संख्या के अनुपात से ऋणी हैं। यदि पुरुष की काकिणी संख्या गाँव की काकिणी संख्या से कम हो अथवा तुल्य हो तो उस व्यक्ति के लिए उस गाँव या नगर में गृह निर्माण करना शुभद है। इसके विपरीत यदि गाँव या नगर की काकिणी संख्या कम और निर्माण कर्ता की अधिक हो तो वह गाँव या नगर उस व्यक्ति के निवासार्थ गृह निर्माण करने योग्य नहीं है। वह नगर या गाँव उस व्यक्ति का लेनदार है और वह व्यक्ति देनदार है, अर्थात् ह व्यक्ति उस गाँव या नगर का कर्जदार है। ऐसे कम काकिणी वाले गाँव या नगर में उस अधिक काकिणी वाले व्यक्ति के लिए भवन बनवाना कतई लाभप्रद एवं सुखप्रद नहीं हो सकता। इस प्रकार काकिणियों द्वारा शुभाशुभ जान लेने के बाद शुभफल देखकर भवन बनवाना चाहिए। उसमें भी राशि वर्णादि के अनुसार भवन का मुख्य द्वार किस दिशा में रखना चाहिए इस विषय में इसी श्लोक के चतुर्थपद में मुहूर्त चिन्तामणिकार कहते हैं कि जिन गृह निर्माणेच्छुक व्यक्तियों की कर्क, वृश्चिक अथवा मीन राशि हो उन्हें अपने गृह का मुख्य द्वार पूर्व दिशा की ओर वृष, कन्या एवं मकर राशि वाले व्यक्तियों को स्वगृहमुख्य प्रवेशद्वारदक्षिण की ओर मिथुन, तुला एवं कुंभ राशि वालों को पश्चिम की ओर तथा मेष, सिंह एवं धनु राशि वाले व्यक्तियों को अपने घर का मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर स्थापित करवाना चाहिए ।
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मुहूर्तराज ]
[१७१ काकिणी उदाहरण - जयपुर में नरेन्द्रकुमार अपना भवन बनवाना चाहता है अत: हमें जयपुर एवं नरेन्द्रकुमार की काकिणियाँ ज्ञात करनी पड़ेगी। 'जयपुर' इस नाम के आदि वर्ण ज का वर्ग सिंह है, जिसकी क्रम संख्या गरुड (इस प्रथम वर्ग से) वर्ग से ३ है, अत: ३ को २ से गुणा करने पर ३ X २ = ६ हुए इसमें नरेन्द्रकुमार के आदि वर्णन की वर्गसंख्या गरुड वर्ग से पाँचवीं है। अत: ५ जोड़े तो ६ + ५ = ११ हुए। इसमें ८ का भाग लगाने पर ११ ८ = १० शेष ३ रहे। यह जयपुर की काकिणी हुई। और नरेन्द्र की वर्ग संख्या ५ को २ से गुणा करके उसमें जयपुर की वर्ग संख्या ३ जोड़कर ८ का भाग देने पर ५ X २ = १० + ३ = १३ + ८ = ५ (शेष) रहे। यह नरेन्द्र की काकिणी हुई। इन दोनों काकिणियों का अन्तर २ हुआ। अत: जयपुर नरेन्द्र से २ के अनुपात में लेने वाला है और नरेन्द्र उसे २ के अनुपात में देने वाला है अत: नरेन्द्र के लिए जयपुर नगर में भवन बनवाना लाभप्रद नहीं, क्योंकि जयपुर की काकिणी कम है और नरेन्द्र की काकिणी अधिक है। जिसकी काकिणी अधिक हो वह कम काकिणी वाले का ऋणी है। यदि नरेन्द्र जयपुर में भवन बनावे, तो उसकी सम्पत्ति एवं सौख्य में कदापि वृद्धि नहीं हो सकेगी।
काकिणी के सम्बन्ध स्पष्टतया निर्देश
स्ववर्ग द्विगुणं कृत्वा परवर्गेण योजयेत् । अष्टभिस्तु हरेद् भागं योऽधिकः स ऋणी भवेत् ॥
अर्थ - पूर्वश्लोक-वत् ही है।
गृहनिर्माणार्थ गृहकर्ता एवं ग्राम/नगर राशि में पालक सारणी
यदि गृहपति की नाम राशि हो
ग्राम/नगर की राशियाँ होनी चाहिए
यदि गृहपति की नाम राशी हो
१ मेष
७ तुला ८ वृश्चिक
३ मिथुन ४ कर्क
वृष, सिंह, धनु, मकर, कुम्भ, | वृश्चिक, कुंभ, मिथुन, कर्क, सिंह मिथुन, कन्या, मकर, कुंभ, मीन | धन, मीन, कर्क, सिंह, कन्या कर्क, तुला, कुंभ, मीन, मेष | मकर, मेष, सिंह, कन्या तुला सिंह, वृश्चिक, मीन, मेष, वृष कुंभ, वृष, कन्या, तुला, वृश्चिक कन्या , धनु, मेष, वृष, मिथुन मीन, मिथुन, तुला, वृश्चिक, धनु तुला, मकर, वृष, मिथुन, कर्क मेष, कर्क, वृश्चिक, धनु, मकर
९ धनु १० मकर ११ कुम्भ १२ मीन
५ सिंह ६ कन्या
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१७२ ]
ग्राम / नगर वर्ग → गृह निर्मातृ वर्ग↓
१ गरुड (अ-औ) गृह निर्मातृ काकिणी आम / नगर काकिणी
फल
२ मार
३ सिंह
४ श्वान
५ सर्प
६ मूषक
७ मृग
८ मेष
गु.नि. का. ग्रा./न.का.
फल
गृ.नि.का.
ग्रा./न.का.
फल
गृ.नि.का.
ग्रा./न.का.
फल
गू.नि.का. ग्रा./न.का.
फल
गृ.नि.का. ग्रा./न.का.
फल
गु.नि.का.
ग्रा./न.का.
फल
-गृहनिर्माणार्थ काकिणी बोध एवं तत्शुभाशुभफलबोधक
१
गरुड
+
४
७
www.
१
६
+
m9
३
७
+
गृ.नि.का. ७ ग्रा./न.का.
१
फल
५
८
+
-
१
२
+
=
काकिणी सूत्र सिंह वर्ग स्ववर्ग सं. ३
२
माजर
x 5 +
४
५
६
६
+
८
७
19+
२
८
+
१
६
२
v3 |
८
३
२
४
संकेताक्षर पूर्णनाम गृ.नि.का. = गृह निर्मातृ काकिणी
ग्रा./न. का. = ग्राम अथवा नगर काकिणी
+
३
सिंह
59+
५
७
9+
७
८
१
va +
१
+
३
ww
२
५
३
७
४
ost
१
५
+
+
४
श्वान
us ov
६
१
८
42
२
om I
२
३
++
४
- ܡ ܡ
४
+
६
५
v 25
८
६
२
७
+
४
८
+
4
सर्प
स्ववर्ग x २ + २ पर वर्ग ८ अवशेष
9 m
७
३
१
w x +
४
+
গr J
३
Jw +
५
६
+
99+
७
७
aut
१
८
+
३
१
५
२
शुभफलसूचक चिन्ह अशुभफलसूचक चिन्ह
६
मूषक
457
८
५
+
Nw -
२
६
+
09 -
७
+
६
८
+
८
१
२
२
+
४
३
४
७
मृग
og +
+
१
३
८
Jor
५
१
७
२
or m
१
३
+
३
४
+
५
५
55+
७
६
[ मुहूर्तराज
८
मेष
२
१
xx
wm t
६
३
+
८
४
२
4
J+
+
४
६
+
६
८
८
+
यथा
एवं गरुड वर्ग परवर्ग हो तो सं. १
तथा गरुड स्ववर्ग एवं सिंह पर वर्ग हो तो १x२ २+३ = ५ + ८ = ५ अवशेष गरुड वर्ग का.
३x२६+१७÷ = ७ ÷ ८ = ७ अवशेष सिंह वर्ग का.
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________________
मुहूर्तराज ]
[१७३
- राशिवर्णपरत्व-गृहद्वार-निवेशन-दिग्बोध-सारणी -
क्रम संख्या
राशि नाम एवं वर्ण
द्वारनिवेशानुकूल दिक्
मीन, कर्क, वृश्चिक (विप्र) वृष, कन्या, मकर (वैश्य) मिथुन, तुला, कुंभ (शूद्र) मेष, सिंह, धनु (क्षत्रिय)
पूर्व दिङ् मुख दक्षिण दिङ् मुख पश्चिम दिङ् मुख उत्तर दिङ् मुख
राशि सम्बन्ध से ग्राम निवास के निषिद्ध स्थान - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. २ रा)
गोसिंहनक्रमिथुनम् निवसेन्न मध्ये ___ ग्रामस्य पूर्वककुभोऽलिझषाङ्गनाश्च कर्को धनुस्तुलभमेषघटाश्च तद्वद्
वर्गाः स्वपञ्चमपराः बलिनः स्युरैन्धाः ॥
अन्वय - (यत्र ग्रामे निवास: कार्य: तस्य ग्रामस्य वसनविभागवत् नवविभागान्कल्पयित्वा) मध्ये (मध्यविभागे) गोसिंहनक्रमिथुनम् (वृषभसिंहमकरमिथुन राशिमन्तः नराः) न निवसेत् अथ पूर्वककुभः (पूर्वतोऽष्टासु दिक्षु) अलिझषाङ्गनाः कर्क: धनुस्तुलभमेषघटा: (वृश्चिकमीनकन्याकर्कधनुस्तुलामेषकुंभराशिमन्तः पुरुषा: न (वसेयुः) यथा-पूर्वस्यां वृश्चिकराशिमन्तः आग्नेय्यां मीनराशिमन्तः इत्यादिप्रकारेण तत्तद्राशयः जनाः तत्तद्दिशासु न वसेयुः। तद्वद् स्वपचञ्चमपरा: (स्वतः पञ्चमो वर्ग: शत्रुः येषान्ते एवं विधा:) वर्गाः (अवर्गकवर्गचवर्गटवर्गतवर्गपवर्गयवर्गशवर्गाः) ऐन्द्रयाः पूर्वादिशभारभ्य अष्टदिक्षु बलिनः (बलयुक्ताः) भवनीति शेषः। यथा अवर्ग: पूर्वस्यां बली, कवर्ग: आग्नेय्याम् चवर्ग: दक्षिणस्यां, टवर्ग: नैर्ऋत्याम्, तवर्ग: पश्चिमायां, पवर्ग: वायव्यां, यवर्ग: उत्तरस्यां शवर्गश्च ऐशान्यां बली भवति। यस्य जनस्य नामादि वर्णः अवर्गीय: तेन पूर्वस्यां निवासः गृहद्वारं वा कार्यम् किन्तु पूर्वतः पञ्चमदिशि (पश्चिभायां) निवासो द्वारं वा न कार्यम्।
गृहनिर्माण (वास्तु) करने वाले को किन-किन पदार्थों को जानकर वास्तु बनवाना चाहिए इस विषय में आ.सि. में
वास्तु नव्यं विभूत्यायुः कीर्तिकामो निवेशयेत् । (आ.सि.) ज्ञात्वाऽऽयक्षव्ययांशांस्तु चन्द्र तारा बले अपि ॥
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१७४ ]
[ मुहूर्तराज अर्थात् - सम्पत्ति आयुष्य एवं कीर्ति की कामना करने वाले पुरुष को चाहिए कि वह आय, नक्षत्र, व्यय, अंश, चन्द्रबल एवं ताराबल को जानकर नवीन भवन का निर्माण करे।
आयादि लाने का प्रकार - (आ.सि.)
आयो दैान्ययोर्धातः फलमष्टतेऽधिकः । फलमष्टगुणं भाप्ते भं तत्राष्टहते व्यय ॥
अर्थ - जिस भूमि में घर बनवाना है, उस भूमि के क्षेत्रफल (लम्बाई x चौड़ाई) में ८ का भाग देने पर जो शेष रहे वह उस भूमिभाग का आय हुआ। क्षेत्रफल को ८ से गुणा करके २७ का भाग देने पर जो शेष रहे उसे नक्षत्र एवं नक्षत्र संख्या में ८ का भाग देने पर जो शेष रहे उसे व्यय समझना चाहिए।
आयादि ज्ञान का द्वितीय प्रकार - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. ११ एवं १२ वाँ)
पिण्डे नवाङ्काङ्गगजाग्निनागनागाब्धिनागै गुर्णिते क्रमेण । विभाजिते नागनगाङ्कसूर्यनागर्भतिथ्यक्षखभानुभिश्च । आयो वारोंऽशको द्रव्यऋणमृक्षं तिथिर्युतिः आयुश्चाथ गृहशर्क गृहभैक्यं मृतिप्रदम् ॥
अन्वय - पिण्डे (क्षेत्रफले) नवस्थानेषु स्थापिते नवाङ्कांगगजाग्निनागनागाब्धिनागैः (९,९,६,८,३,८,८,४,८) गुणिते ततः नागनगांकसूर्यनागर्भ तिथ्यक्षखभानुभिः च विभाजिते यद् अवशिष्टम् तद् आयादिकं भवेत्।
अर्थ - भवन बनवाने की निश्चित भूमि के क्षेत्रफल की संख्या को ९ स्थानों पर स्थापित करके क्रमश: ९,९,६,८,३,८,८,४ और ८ गुणा करे, फिर उन गुणनफलों में क्रमश: ८,७,९,१२,८,२७,१५,२७ और १२० का भाग दें तत: ९ स्थानों पर जो २ अंक शेष रहे वे उस भूमि के आय, वार, अंश, द्रव्य, ऋण, नक्षत्र, तिथि, योग और आयु हुए।
उदाहरण - किसी घर के निर्माणार्थ जो भूमिभाग हमने निश्चित किया है यदि उसकी लम्बाई २० मीटर एवं चौड़ाई १६ मीटर हो तो उस भूभाग का क्षेत्रफल २० X १६ = ३२० वर्गमीटर हुआ। इसे ९ स्थानों पर रखकर उक्त विधि से गुणित एवं विभाजित करने पर जो आयादि आए उन्हें निम्न सारणी में देखें।
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मुहूर्तराज ]
[१७५
- उदाहृत क्षेत्रफलीय भूभाग के आयादि बोध सारणी -
ल. २० X १६ चौ. पिण्ड = क्षेत्रफल ३२०
३२०
३२०
३२०
३२०
३२० X९
३२० XE
X९
३२० X८
X3
३२० X८
३२० X८
X४
X८
२८८०
२८८०
१९२०
२५६०
२५६०
२५६०
१२८०
२५६०
१२०
ल. ३६०
४११
। २१३
।
१२०
९४
शे. 0 अर्थात्
शे. ३३
0 अर्थात्, २२
आय
वार
अंश
।
धन
ऋण
नक्षत्र
तिथि
योग
आयु
सम संख्या होने से अशुभ
शुक्ला दशमी
अशुभ
शुभ
निर्धनता | निर्धनता ।
श्रवण
नेष्ट
अत: उक्तक्षेत्रफलीय भूभाग आवासार्थ भवन बनवाने के लिए नेष्ट हैं क्योंकि इसमें आयु संख्या अतिन्यून है तथा आय वार भी अशुभ है तथा धनांश से ऋणांश भी अधिक है। आयों के नाम उनकी दिशास्थिति एवं शुभाशुभता - (आ.सि.)
ध्वजो धूमो हरिः श्वा गौः, खरो हस्ती द्विकः क्रमात् ।
पूर्वादिबलिनोऽष्टाया विषमास्तेषु शोभनाः ॥ अर्थ - ध्वज, धूम, हरि, (सिंह) श्वा (कुत्ता) गौ (गाय-बैल) खर (गधा) हाथी एवं द्विक (कौआ) से आठ आय पूर्वादि ईशानान्त ८ दिशाओं में नित्य स्थित एवं बलवान हैं। इन आयों में से विषम आय ध्वज, सिंह, वृषभ एवं हस्ती ये शुभ हैं
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१७६ ]
[ मुहूर्तराज
आयों की ग्रहण करने की व्यवस्था - (आ.सि.)
वृष सिंहं गजं चैव खेटकर्बटकोयोः द्विपः पुनः प्रयोक्तव्यो वापीकूपसरस्सु च । मृगेन्द्रमासने दद्यात् शयनेषु गजं पुनः । वृष भोजनपात्रेषु छत्रादिषु पुनर्ध्वजम् ॥ अग्निवेश्मसु सर्वेषु गृहे वह्नयुपजीविनाम् । धूमं नियोजयेत् केचित् श्वानं म्लेच्छादि जातिषु खरो वेश्यागृहे शस्तो ध्वांक्षः शेषकुटीषु च ॥ वृषसिंहौ ध्वजाश्चापि प्रासादपुरवेश्मसु ॥
- स्थानानुसार आयग्रहणव्यवस्था बोधक सारणी -
क्र.सं.
आय
ग्रहण करने के स्थान
ध्वज
धूम
हरि (सिंह)
श्वा (कुत्ता)
छत्रचामर, अग्निगृह एवं अग्नि के उपजीवी, गाँव, किला, आसन, प्रासाद, नगरगृह म्लेच्छादिगृह गाँव, किला, भोजनपात्र, प्रासाद, नगरगृह वैश्यागृह गाँव, किला, बावडी, कूप, तालाब, शय्या, प्रासाद, नगरगृह छोटी-छोटी झोपड़ियाँ।
वृष
खर (गधा) हाथी कौआ
आयानुसार गृहद्वार - (मु.चि.वा.प्र. श्लोक ५ वाँ)
सर्वदिशिध्वजे मुखं कार्यं हारौ पूर्यामोत्तरे तथा । प्राच्यांवृषे प्राग्यमयोर्गजेऽथवा पश्चादुक्पूर्वयमे द्विजादितः ॥
आयानुसार गृहद्वार के विषय में मु.चि. कार कहते हैं कि यदि निर्भय भवन का धवज आय हो तो उस भवन के चतुदिग्द्वार, हरि (सिंह) आय हो तो पूर्व-दक्षिण-उत्तर में द्वार, वृष आय हो तो केवल पूर्व में ही द्वार एवं गज आय हो तो पूर्व एवं दक्षिण में द्वार कराने चाहिए। इसी को निम्नलिखित सारणी में सम्यग्ज्ञानार्थ दर्शाया गया है
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मुहूर्तराज ]
[१७७
- आयानुसार भवनों में द्वार निवेश -
क्रम संख्या
आय नाम
द्वार दिशा
द्वार संख्या
पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण
पूर्व, दक्षिण, उत्तर
पूर्व, दक्षिण
पूर्व
वसिष्ठ मत से आयों की भवनों में ग्राह्यता - (वसिष्ठ)
गजाये वा ध्वजाये वा गजानां सदनं शुभम् । अश्वालयं ध्वजाये वा खराये वृषभेऽपि वा ॥ उष्ट्राणां मन्दिरं कार्यम् गजाये वा वृषे ध्वजे । पशुसद्य वृषाये वा ध्वजाये वा शुभप्रदम् । शय्यासु वृषभः शस्तः पीठे सिंह शुभप्रदः उक्तानामप्यनुक्तानां मन्दिराणां ध्वजः शुभः ॥
क्र.सं.
सदननाम
ग्राह्य आय
गजशाला
अश्वशाला
गज, वा ध्वज ध्वज,वृष, वा खर गज, वृष या ध्वज
उष्टशाला
वृष वा ध्वज,
अन्यपशुशाला सिंहासनगृह शय्यागृह
सिंह
वृषभ
ध्वज
अन्य समस्त अनुक्त गृह
.
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१७८ ]
[ मुहूर्तराज व्यय लाने का प्रकार - (आ.सि.) ___ वास्तु के जन्मनक्षत्र में ८ का भाग देने पर जो शेष रहे वह वास्तु का व्यय होता है, यदि भाग देने पर • शून्य शेष रहे तो उसे भाजक तुल्य ही अर्थात् ८ ही मानना चाहिए और यदि ८ का भाग न लगे तो उस नक्षत्र का संख्या को ही व्यय माने। इस प्रकार उस निर्मेय भवनादि का व्यय ज्ञात करने पर यदि आय व्यय समान हो तो उसे “पैशाच व्यय", आय से व्यय अधिक हो तो उसे “राक्षस व्यय” और आय से कम व्यय हो तो उसे “यक्ष व्यय" कहते हैं। यही अन्तिम व्यय श्रेष्ठ माना गया है - यथा
"पैशाचस्तु समायः राक्षसश्चाधिके व्यये ।
आयातूनतरो यक्षो व्ययः श्रेष्ठोऽष्टधात्वयम् ।" यह व्यय भी आठ प्रकार का है - (आ.सि.)
"शान्तः क्रूरः प्रद्योतश्च, श्रेयानथ मनोरमः
श्रीवत्सो विभवश्चैव चिन्तात्मको व्ययोऽष्टमः ॥ अर्थ - वास्तु के जन्मनक्षत्र में आठ का भाग देने पर जो शेष अंक रहे उसे व्यय कहते हैं। यदि शेष अंक १ रहे तो शान्त व्यय, २ रहे तो क्रूर व्यय, ३ रहें प्रद्यात, ४ रहें तो श्रेयान्, ५ रहें तो मनोरम, ६ रहें तो श्रीवत्स, ७ रहें तो विभव और ८ रहें तो उसे चिन्तात्मक व्यय कहते हैं। अंश लाने का प्रकार - (आ. सि.)
फले व्ययेन वेश्माख्याक्षरैश्चाढ्ये विभाजिते ।
अंशा शक्रान्तकक्ष्भायाः तेषु स्यादधमो यमः ॥ अर्थ - घर की भूमि के क्षेत्रफल में व्ययांक एवं घर के नामाक्षरों को जोड़कर उसमें ३ का भाग देने पर शेष अंश कहलाते हैं। यदि १ शेष रहे तो शक्राख्य अंश, २ शेष रहें यमाख्य अंश और ३ शेष रहें तो क्ष्मापाख्य (राजाख्य) नामक अंश हुआ। इन अंशों में यमांश अधभ है, शेष इन्द्र एवं राज नामक अंश शुभ माने गये हैं।
__ अंशों को लाने के लिए भूभाग पिण्डांक व्ययांक और घर के नामाक्षरों के योग में ३ का भाग देने पर शेष अंश होते हैं, ऐसा ऊपर जो घर के नामाक्षरों की बात कही गई अतः अब घरों के नाम भी कहना आवश्यक है, अतः अब घरों के नाम कहे जाते हैं। घरों के नाम - (आ.सि.)
ध्रुवं १ धन्यं २ जयं ३ नन्दं ४ खरं ५ कान्तम् ६ मनोरभम् ७ । सुमुखं, ८ दुर्मुखं, ९ क्रूर १० सुपक्षं ११ धनदं १२ क्षयम् १३ ॥ आक्रन्दं १४ विपुलं १५ चैव दिजयं चेति षोडश ॥
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मुहूर्तराज ]
[१७९ ___ ऊपर लिखे गए ध्रुवादि घर उनमें पूर्वादिदिक् क्रम से निमेंय अलिन्दो (ओशरी) को लेकर है। जिस घर में कोई अलिन्द न हो उसे ध्रुव नामक घर कहा जाता है। जिस घर में पूर्वदिशा में अलिन्द हो उसे धन्य नामक घर कहते हैं। दिशानुसार अलिन्दों की स्थिति से इन घरों के नामों को जानने हेतु निम्नलिखित तालिका को देखें
- दिशानुसार अलिन्द स्थिति से भवनों के नाम तथा फल -
भवन नाम
दिशानुसार अलिन्द
ध्रुव
किसी भी दिशा में अलिन्द नहीं
स्थिरता
धन्य
पूर्व में अलिन्द
धनलाभ
जय
दक्षिण में अलिन्द
जयदाता
नन्द
पूर्व एवं दक्षिण में
पुत्राप्ति
खर
पश्चिम में
दरिद्रताकारी
कान्त
पूर्व, पश्चिम में
सर्वसम्पद्
मनोरम
दक्षिण, पश्चिम में
मन:प्रसाद
सुमुख
पूर्व, दक्षिण, पश्चिम में
३
श्रीदाता
दुर्मुख
उत्तर में
युद्ध (कलि)
पूर्व, उत्तर में
विषमता
विपक्ष
शत्रुभय
दक्षिण, उत्तर में पूर्व, उत्तर-दक्षिण में
धनद
३
धनदायी
क्षय
पश्चिम, उत्तर में
नाशकर्ता
आक्रन्द
पूर्व, पश्चिम-उत्तर में
४
शोकदामी
विपुल
दक्षिण, पश्चिम, उत्तर में ३
श्री एवं यश
विजय
पूर्व दक्षिण-पश्चिम-उत्तर में ४
विजयकारी
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१८० ]
[ मुहूर्तराज यहाँ सोलह प्रकार के बतलाए भवनों में द्वयक्षर नाम के ८ त्र्यक्षर नाम के ७ तथा चतुरक्षर नाम का १ भवन है। भवनों के ये नाम अथवा २ अक्षरों तीन अक्षरों एवं चार अक्षरों का होना ध्रुवांकों पर निर्भर है, अत: घर के ध्रुवांक साधन के सम्बन्ध में मुहूर्त चिन्तामणिकार - (वा.स. श्लो. ८)
दिक्षु पूर्वादितः शाला धुवाः भूद्रौं कृताः गजाः
शाला ध्रुवांक संयोगः सैको वेश्म धुवादिकम् ॥ अर्थ - पूर्वादि दिशाओं के ये शाला (अलिन्द, ओशरी) के ध्रुव हैं यथा पूर्वालिन्द का १ दक्षिणालिन्द के २ पश्चिमालिन्द ४ और उत्तरालिन्द के ८ जिस भवन में जितने अलिन्द जिस २ दिशा में बनवाने हों उन २ दिशा के शाला ध्रुवांकों का योग करके उस योग में १ मिलाने पर उस क्रम का भवन (ध्रुवधन्यादि) बनेगा। इस प्रकार ध्रुवांक ज्ञात करने के बाद भवन नामों की त्र्यक्षरालकता द्वयक्षरालकता एवं चतुरक्षरालकता के विषय में भी मुहूर्त चिन्तामणिकार - (वा.प्र. श्लो. ९ वें में)
तिथ्यर्काष्टाष्टि गोरुद्रशने नामाक्षरत्रयम् ।
भूद्वयब्धीष्वङ्गदिग्वह्निविश्वेषु द्वौ नगाब्धमः ॥ ___ अर्थात् - यदि शालाध्रुवांक १५, १२, ८, १६, ९, ११ और १४ हो तो भवन के नाम को तीन अक्षरों वाला १, २, ४, ५, ६, १०, ३ और १३ यदि शाला ध्रुवांक योग हो तो भवन को दो अक्षरों के नाम वाला और यदि शाला ध्रुवांक की संख्या ७ हो तो उस भवन को चार अक्षरों के नाम वाला समझना चाहिए।
अब भवन के उपयोग में लाने योग्य आयादिकों का फल कथन इस प्रकार हैआयफल - (वसिष्ठ)
"विषमायः शुभायैव समायः शोकदुःखदः" ____ अर्थात् - ध्वज, हरि, वृष और हस्ती ये विषमसंख्याक आय शुभद है एवं इनके अतिरिक्त धूम, श्वान, खर (गधा) और काक (कौआ) ये समसंख्यक आय शोक एवं दु:खदाता समझे गए हैं।
वारफल
सूर्यारवारराश्यंशाः सदा वह्निभयप्रदाः ।
शेषग्रहाणां वारांशाः कर्तुमिष्टार्थ साधकाः ॥ अर्थात्- रवि एवं मंगलवार एवं इनकी राशियाँ एवं अंश गृहनिर्माण में हेय हैं क्योंकि ये अग्निभयप्रद हैं। शेष ग्रहों के वारांश इष्टसाधक हैं। धनऋणफल
"धनाधिकं गृहं वृद्धौ निर्धनाय ऋणाधिकम्" अर्थात्- धनांक संख्या ऋणांक से अधिक हो तो वह भवन वृद्धिकारक किन्तु यदि ऋणांक धनांक से अधिक हो तो वह भवन निर्धनत्वकारी होता है।
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मुहूर्तराज ]
ताराफल
विपत्प्रदा विपत्तारा प्रत्यरा प्रतिकूलदा । निधनाख्या तारका तु सर्वथा निधनप्रदा ॥
अर्थात्- विपन्नामक तारा विपद् देने वाली, प्रत्त्यरानात्मक तारा प्रतिकूल फलदा और निधना नाम की तारा मृत्युदायिनी होती है अतः इनका त्याग करके शेष शुभताराओं में गृहारम्भ करना चाहिए। तारा इस प्रकार से जाननी चाहिए।
घर के नक्षत्र से (जैसा कि पूर्व सारणी में दर्शाया गया है) जिस दिन गृहारंभ करना है उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना करने पर विवाहप्रकरणोक्त विधि से यदि अशुभफलदायिनी ताराएँ, आवें तो उन्हें त्यागना चाहिए और जिस दिन शुभतारा हो उस दिन गृहारंभ करना चाहिए । कुछ एक तो ऐसा कहते हैं कि गृहकर्त्ता व्यक्ति के नाम नक्षत्र से गृहनक्षत्र तक गिनने पर यदि तीसरी, पाँचवीं और सातवीं ताराएं हों तो वह भवन उस गृहकर्त्ता के लिए शुभ नहीं है, अतः पूर्वनिर्धारित क्षेत्रफल में कमी वेशी करके ऐसा गृहनक्षत्र लाना चाहिए कि गृहपति के नामनक्षत्र से उस नक्षत्र तक गणना करने पर शुभतारा आती हो ।
नक्षत्रफल -
गृहपति और गृहनक्षत्र समान भी नहीं होना चाहिए अन्यथा वह मरणप्रद होता है यथा" गृहस्य तत्पतेस्त्वेकं धिष्ण्यं चेन्निधनप्रदम्" "वसिष्ठ"
एक नाडीदोषाभाव
गृहारंभ में नाडी वेध दोष नहीं होता ऐसा ज्योतिश्चिन्तामणि में कहा गया है यथासेव्यसेवकायोश्चैव गृहत्त्स्वामिनोरपि ।
परस्परं मित्रभावे एकनाडी प्रशस्यते ॥
[ १८१
इस तरह इन आय, व्यय, अंश, नक्षत्र आदि के सम्बन्ध में वरवधू के मेलापक की ही भांति गृहारंभ में विचार करना अत्यावश्यक होता है।
गृहारंभ में समय निषेध - (मु.चि.वा.प्र. श्लो ६ठा)
गृहशतत्स्त्रीसुखवित्तनाशोऽर्केन्द्वीज्यसुक्रे
विबलेऽस्तनीचे ।
कर्तुः स्थितिर्नो विधुवास्तुनोर्भे पुरः स्थिते पृष्ठगते खनिः स्यात् ॥
अन्वय गृहपतेः जन्मराशितः अर्केन्द्वीज्यशुक्रे ( सूर्यचन्द्रगुरुशुक्रेषु) विबले (निर्बले) अस्ते नीचे (नीचराशिस्थिते वा) सति क्रमतः गृहेशतत्स्त्री सुखवित्तनाशः भवेत् । अथ च विधुवास्तुनोः (चन्द्रवास्तुनोः ) भे
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१८२ ]
[ मुहूर्तराज (नक्षत्रे) पुरः स्थिते तदा कर्तुः (गृहपते:) स्थितिः (गेहे निवास:) नो (न स्यात्) अर्थात् तद्गृहं शून्यमेव तिष्ठेदित्याशयः। यदि ते उभे नक्षत्रे यदि पृष्ठगते भवत: तर्हि तत्र गृहे खनि: (चौरकृतखातम्) भवति। ___अर्थ - गृहपति की राशि से यदि सूर्य निर्बल, अशुभ अथवा नीचराशि का हो तो गृहपति का विनाश, चन्द्र यदि निर्बल अस्त अथवा नीचस्थ हो तो गृहपति की पत्नी का नाश, गुरु यदि वैसा हो तो सुखनाश
और शुक्र हो तो धननाश होता है। यदि चन्द्र नक्षत्र और वास्तु नक्षत्र आगे स्थित हो तो उस घर में निवास नहीं हो सकता और यदि पृष्ठ भाग में स्थित हो तो चोर आदि द्वारा उस घर में सेंध लगाकर वहाँ से धनापहरण किया जाता है।
विशेष - मान लो कि गृहपति का जन्म नक्षत्र रोहिणी है और गृह नक्षत्र श्रवण है और गृह का द्वार पूर्व में है तो चन्द्र नक्षत्र तो पुर:स्थित हुआ एवं वास्तु नक्षत्र पृष्ठ स्थित हुआ। और यदि ऐसी स्थिति में वास्तु पश्चिम द्वार हो तो वास्तु नक्षत्र पुर:स्थित हुआ और चन्द्र नक्षत्र पृष्ठ स्थित हुआ। यदि वास्तु नक्षत्र एवं चन्द्र नक्षत्र कृत्तिका से लेकर आश्लेषा पर्यन्त हो तथा हम भवन को पूर्व द्वार करे तो वास्तु एवं चन्द्र दोनों के नक्षत्र पुर:स्थित हुए और यदि वास्तु तथा चन्द्र नक्षत्र अनुराधा से सात नक्षत्रों के अन्तर्गत हो तो उक्त पूर्वद्वारीय भवन के ये दोनों पृष्ठ गत हुए। इसी प्रकार पश्चिम द्वार में भी समझना चाहिए।
अत: चन्द्र नक्षत्र और वास्तु नक्षत्र द्वार की ओर अथवा भवन के पीछे की ओर न होकर पार्श्व में होने चाहिए।
वास्तु शास्त्र में भी-ऋक्षं चन्द्रस्य वास्तोश्च अग्रे पृष्ठे न शस्यते । अर्थात् चन्द्र एवं वास्तु इन दोनों के नक्षत्र आगे-पीछे शुभद नहीं श्रीपति ने तो चन्द्र का ही फल कहा है-“क्षपाकरेंनैव गृहं पुरःस्थे कुर्याद् वसेत्तत्र न जातु कर्ता। पतन्ति स्वप्नानि पृष्ठसंस्थे यत्नेन तस्मादिदमत्र चिन्त्यम्” यह कुछ एक का कथन है कि चन्द्रमा की यह पुर:स्थिति एवं पृष्ठस्थिति लग्नवशात् माननी चाहिए यथा यदि गृह पूर्वाद्वारीय हो तो लग्नगत चन्द्रमा पीछे और उत्तर मुख घर में लग्नगत चन्द्रमा दाहिनी और होगा। इसी प्रकार यदि चन्द्रमा दशम स्थान में हो तो दक्षिण मुख गृह में सम्मुख, पश्चिम मुख गृह में बाएं, उत्तर मुख गृह में पीछे और पूर्व मुख गृह में दाहिनी ओर समझना चाहिए। एवमेव चतुर्थ एवं सप्तम स्थान में चन्द्र की स्थिति से दिशानुसार मुख वाले घरों के विषय में भी विचार करना चाहिए।
वास्तु में चन्द्रबल- (आ.सि.)
वास्तु को प्रारम्भ करने में भी चन्द्रमा का आगे व पीछे के भाग में रहना श्रेष्ठ नहीं, जैसा कि । आरंभसिद्धि में कहा है
"प्रारब्धं सम्मुखे चन्द्रे न वस्तुं वास्तु कल्पते । पृष्ठस्थे खात्रपाताय द्वयोस्तेन त्यजेद् गृही ॥"
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मुहूर्तराज ]
[१८३ अर्थ - चन्द्रमा के सम्मुख रहते आरंभ किया हुआ घर रहने योग्य नहीं होता तथा पीछे रहते आरंभ किया हुआ घर केवल चोरों द्वारा सेंध लगाकर वहाँ से धनापहरण करने योग्य ही होता है अत: पुर:स्थित एवं पृष्ठस्थित चन्द्र का त्याग करना चाहिए।
विशेष - कृत्तिका से आश्लेषा तक के ७ नक्षत्र पूर्वदिग्द्वार के, मघा से विशाखा तक के ७ नक्षत्र दक्षिणदिग्द्वार के, अनुराधा से श्रवण तक के ७ नक्षत्र पश्चिमदिग्द्वार के तथा धनिष्ठा से रेवती तक के ७ नक्षत्र उत्तरदिग्द्वार के माने गये हैं। अब यदि गृह नक्षत्र कृत्तिकादि आश्लेषा पर्यन्त में से कोई एक हो तो पूर्वद्वारीय घर का आरंभ करते समय चन्द्र उसके सम्मुख है ऐसा जानना। और यदि पूर्वद्वारीय मकान का आरंभ करते समय उस गृह का नक्षत्र अनुराधा से श्रवण तक के नक्षत्रों में से कोई हो चन्द्र उस घर के पीछे समझना। इस प्रकार घर के सम्मुख एवं पीछे चन्द्र की स्थिति में घर का आरंभ नहीं करना चाहिए। यदि वाम या दक्षिण पार्श्व में गृह नक्षत्र आवे तो चन्द्रमा को वाम या दक्षिण मानना चाहिए और ऐसी स्थिति में गृह का श्रीगणेश शुभदायी होता है। ___ उपरिलिखित को भली प्रकार समझने के लिए चार भिन्न-भिन्न दिग्द्वारीय भवनों के मानचित्र दिये जा
- विभिन्न दिग्द्वारीय भवनों के मानचित्रानुसार चन्द्रस्थिति -
पूर्वद्वारीय भवन
दक्षिणद्वारीय भवन
पश्चिमद्वारीय भवन
उत्तरद्वारीय भवन
अशुभ
शुभ
अशुभ
द.उ.
शुभ
श्रवण
श्रवण
श्रवण
श्रवण
मान लो कि भवन का गणितागत नक्षत्र श्रवण है। यह नक्षत्र पश्चिम दिग्द्वारीय है अतः १ भवनारंभ के लिए चन्द्रमा पृष्ठस्थ २ भवनारंभ के लिये चन्द्रमा वामस्थ ३ भवन निर्माणार्थ चन्द्रमा सम्मुख और ४ भवनारंभ के लिए चन्द्रमा दक्षिणस्थ अत: घर का नक्षत्र श्रवण हो तो पूर्व या पश्चिम दिशा के अतिरिक्त दिशाओं में गृह प्रवेशद्वार होना चाहिए।
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१८४ ]
[ मुहूर्तराज सारांस यह हुआ कि भवन के द्वारदेश अथवा पिछली दीवार की ओर गृह नक्षत्र न होकर दोनों पार्यो की दीवारों में स्थित रहना गृहारंभ के लिए अनुकूल एवं शुभ है।
उपर्युक्त चन्द्र स्थिति की चर्चा स्पष्टतया करते हुए ब्रह्मशम्भु ने कहा है
"गृहाय लब्धऋक्षेषु यत्र ऋक्षे च चन्द्रमाः । शलाकासप्तके ध्येयं कृत्तिकादि क्रमेण च ॥ वाम दक्षिणभागे तु प्रशस्तं शान्तिकारकम् । अग्रे पृष्ठे न दातव्यं यदीच्छेच्छ्रेय आत्मनः । ऋक्षे चन्द्रस्य वास्तोश्च त्वले पृष्ठे न शस्यते ॥"
- अर्थ - व्याख्यात किया गया है। किन्तु वास्तु शास्त्र में प्रासादादि के आरंभ में चन्द्र की स्थिति प्रासाद के सम्मुख श्रेष्ठ मानी गई है यथा
"प्रासादनृपसौधश्रीगृहेषु पुरतः शशी" अर्थात्- प्रासाद (चैत्य) राजभवन और लक्ष्मी भवनों में सम्मुख चन्द्र श्रेष्ठ है।
वास्तु शास्त्र में राशि निर्णय
अश्विन्यादित्रयं मेष, सिंहे प्रोक्तं मघात्रयम् । मूलादित्रितयं चापे, शेषेश नव राशयः ॥
अन्वय - अश्विन्यादित्रयं (अश्विनी भरणी कृत्तिका नक्षत्राणि) मेषे (मेषराशौ) मद्यात्रयम् (मघापूर्वोत्तराफाल्गुनी नक्षत्राणि) सिंहे (सिंहराशौ) मूलादित्रितयम् (मूलपूर्वोत्तराषाढ़ा नक्षत्राणि) चापे (धनूराशौ) प्रोक्तम् शेषेषु नक्षत्रेषु नव राशय: (वृष मिथुन कर्क कन्या तुला वृश्चिक मकर कुंभ मीनाः) भवन्ति।
वास्तु नक्षत्र यदि अश्विनी भरणी या कृत्तिका हो तो उस वास्तु (गृह) की मेष राशि, मघा, पू.फा. और उत्तरा फाल्गुनी हो तो सिंह राशि, तथा मूल पूर्वाषाढ़ा या उत्तराषाढ़ा हो तो वास्तु की धनु राशि जाननी चाहिए तथा अवशिष्ट १८ नक्षत्रों में अवशिष्ट नौ (वृषादिक) राशियों का समावेश समझना चाहिए। यथा रोहिणी, मृगशिरा की वृष राशि, आर्द्रापुनर्वसु की मिथुन पुप्या, श्लेषा की कर्क, हस्त, चित्रा की कन्या, स्वाती विशाखा की तुला अनुराधा, ज्येष्ठा की वृश्चिक, श्रवण, धनिष्ठा की मकर, शतभिषा, पूर्वाभाद्र की कुंभ तथा उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती की मीन राशि माननी चहिए। यह पक्ष वास्तु शास्त्र नवमांशों के कथनाभाव में माना गया है। इन राशियों के नक्षत्रानुसार निम्नांकित सारणी में देखिए
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मुहूर्तराज ]
[१८५
- वास्तु शास्त्रोक्त नक्षत्रानुसार राशि बोधक सारणी -
क्र.सं.
नक्षत्रनाम
राशि
क्र.सं.
नक्षत्रनाम
राशि
अश्विनी
|
मेष
चित्रा
कन्या
भरणी
स्वाती
तुला
कृत्तिका
विशाखा
तुला
रोहिणी
अनुराधा
वृश्चिक
मृगशिरा
ज्येष्ठा
वृश्चिक
आर्द्रा
पुनर्वसु
पूर्वाषाढ़ा
पुष्य
उत्तराषाढ़ा
धनु
आश्लेषा
श्रवण
मकर
मघा
धनिष्ठा
मकर
पूर्वा फा.
शतभिषक
कुंभ
उत्तरा फा.
पूर्वा भाद्र
कुंभ
* * * *
हस्त
उत्तरा भाद्र
मीन
रेवती
मीन
इस प्रकार काकिणी, दिशानुसार द्वार एवं आयादि के विचार के अनन्तर गृहारंभ में वृष वास्तु चक्र के विषय में निर्देश किया जाता है।
गृहारंभ में वृष वास्तु चक्रफल सहित-(मु.चि.वा.प्र. श्लो. १३ एवं १४)
गेहाधारंभेऽर्कभावत्सशीर्षे, रामैर्दाहो वेदभैः अग्रपादे ।
शून्यं वेदैः पृष्ठपादे स्थिरत्वं, रामैः पृष्ठे श्रीर्युगक्षकुक्षौ ॥ लाभो रामैः पुच्छगैः स्वामिनाशो वेदै :स्वं वामकुक्षौ मुखस्थैः । रामैः पीडा सन्ततं चार्कधिष्ण्यादश्वै रुद्रदिभिरुक्तं ह्यसत्सत् ॥
.
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१८६ ]
[ मुहूर्तराज अन्वय - गेहाद्यारम्भे (गृहप्रासादग्रामाद्यारम्भे) अर्कभात् (सूर्याक्रान्तनक्षत्रात्) रामैः (त्रिभिर्नक्षत्रैः) वस्तशीर्षे सद्भिः दाहः फलम्। वेदभैः (चतुर्नक्षत्रेः) अग्रपादे (अग्रस्थपादद्वये) स्थितैः शून्यं फलम् (तद्वास्तुजन वासशून्यं भवेत्) तत: वेदैः (चतुर्भि नक्षत्रैः) पृष्ठपादे (पृष्ठगतपाद् द्वये) स्थितैः स्थिरत्वं फलम्। ततः रामैः त्रिभिर्नक्षत्रैः पृष्ठे स्थितैः श्रीः फलम्। ततो युगैश्चतुर्भिर्नक्षत्रैः दक्षकुक्षौः स्थितैः लाभः फलम्। ततो रामैः त्रिभिः पुच्छस्थैः स्वामिनाशः (गृहपतिनाश:) फलम्। ततो वेदैः नक्षत्रैः वामकुक्षौ स्थितैः नै:स्वम् (निर्धनता) फलम्। ततस्त्रिभिः मुखस्थैः गृहकर्तुः सन्ततं पीडा फलं स्यात्। अस्यं चकस्य प्रकारान्तरेण कथनम्-अर्कधिष्ण्यात् (सूर्यनक्षत्रात्) अश्वैः सप्तभिर्नक्षत्रैः, रुद्रैः एकादशमि: नक्षत्रैः दिग्भिः च दशभिर्नक्षत्रैः क्रमश: असत् सत् असत् च फलम्
उक्तम्।
____ अर्थ - ज्योति:शास्त्र में वृष (वत्स) के शरीर की कल्पना करके उसके विभिन्न-विभिन्न अंगों में सूर्य महानक्षत्र से दिननक्षत्र तक गणनागन अमुकामुकसंख्याक नक्षत्रों का निवास मानकर गेहारंभ में वृषवास्तुचक्र का उपयोग किया गया है तथा शुभाशुभ फल भी बताया है तदनुरूप उपर्युक्त श्लोक में वत्स के अंगों में नक्षत्र स्थिति की चर्चा करते हुए श्री मु.चि.म. कार कहते हैं कि जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से तीन नक्षत्र वत्स पुरुष के सिर पर स्थित है इनमें यदि गृहारंभ किया जाय तो उस घर में अग्नि लग जाती है अथवा गृहकर्ता की वस्तु अग्निदग्ध हो जाती है तत: चार नक्षत्रों की स्थिति वत्स के अगले दो पैरों में होती है, उन नक्षत्रों में गेहारंभ करने से वह घर निवास शून्य ही रहता है। उसके बाद के चार नक्षत्र पिछले दो पैरों में स्थित है इनमें गेहारम्भ करने पर वह गृह अधिक समय तक स्थिर रहता है। फिर आगे के तीन नक्षत्रों का निवास वत्स की पीठ पर होता है उसका फल गृहकर्ता को श्रीलाभ है। आगे के चार नक्षत्र वत्स की दाहिनी कुक्षि में रहते हैं, जिनमें गेहारंभ करना लाभकारी होता है। ततः तीन नक्षत्र वत्स के पुच्छप्रदेश में स्थित है, इनमें घर का आरंभ करने से गृहकर्ता का विनाश होता है। फिर आगे के चार नक्षत्रों की स्थिति
की वामकुक्षि में है, इनमें गेहारंभ का फल निर्धनता है और अन्तिम तीन नक्षत्रों की स्थिति वत्स के मुख में रहती है इनमें गृह का आरंभ करने से गृहकर्ता सतत पीड़ित ही रहता है। ____ इस प्रकार नक्षत्रों के वत्सशरीर के अंगों में रहने पर शुभाशुभ फल जानने चाहिएँ। इसी वृषवास्तुचक्र का प्रकारान्तर से निष्कृष्टार्थ यह है- सूर्यमहानक्षत्र ७ चन्द्रनक्षत्र गेहारंभ के लिए अशुभ तत: ग्यारह नक्षत्र शुभ और अंत के १० नक्षत्र अशुभ हैं। ज्योति:प्रकाश में वृषवास्तुचक्र तत्फल
वास्तुचक्रं प्रवक्ष्यामि यच्च व्यासेन भाषितम् । यदक्षे वर्तते भानुः तत्रादौ त्रीणि मस्तके ॥ चतुष्क मनपादे स्यात् पुनः चत्वारि पश्चिमे (पृष्ठपादे) पृष्ठे च त्रीणि ऋक्षाणि, कुक्षौ चत्वारि वामतः ॥ चत्वारि दक्षिणे कुक्षौ, पुच्छे भत्रयमेव च । मुखे भत्रयमेवं स्युरष्टाविंशतितारकाः ॥ शिरस्ताराग्निदाहाय, गृहावसोऽ अपादयोः । स्थैर्य स्यात् पश्चिमे पादे, पृष्ठे चाव धनागमः । कुक्षौ स्यादक्षिणे लाभो, वामकुक्षौ दरिद्रता ॥
पुच्छे स्वामि विनाशः स्यान्मुखे पीडानिरन्तरम् ॥ इन श्लोकों का अर्थ पूर्वोक्त “गेद्यारंभे” इत्यादि श्लोकों के समान ही है।
२
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________________
मुहूर्तराज ]
[१८७ - अथ वृषभवास्तुचक्र (सूर्यनक्षत्र गणित चन्द्रनक्षत्र स्थित्यनुसार फलसहित) भाग I - | सूर्यनक्षत्र
पुन. पु. आश्ले. म.पू.फा.
कृ.
आर्द्रा | पुन.
फल
वत्सा
चं.न.
चं.न.
चं.न. | चं.न.
चं.न.
चं.न.
च.न. |चं.न.
चं.न.
चं.न.
चं.न.
चं.न. |चं.न. |चं.न.
अश्वि . भर.
१
भर. |कृति. | रोहि. मृग
मृग आद्रा मृग | आद्रा | पन.
शीर्षे ३
आर्द्रा पुन. पुष्य
अग्निदाह ।
पुन. पुष्य आश्ले. मघा | पू.फा. | उ.फा. | हस्त | चित्रा पुष्य आश्ले. मघा पू.फा.
चित्रा स्वाती आश्ले. मघा पू.फा. | उ.फा. | हस्त | | चित्रा | स्वाती | विशा.
मृग
आर्द्रा
आद्रा
अनु.
| २ | अग्रपादे ४
पुन. | पुष्य |आश्ले. मघा | पू.फा. |उ.फा. |हस्त चित्रा | स्वाती | विशा. अनु. पुन. पुष्य आश्ले. मघा | उ.फा. हस्त चित्रा | स्वाती | विशा. | पुष्य | आश्ले. मघा. | उ.फा. | हस्त चित्रा स्वाती आश्ले मघा प.फा. उ.फा. हस्त | चित्रा स्वाती | विशा अनु. | ज्येष्ठा मूल | पू.षा.
आवासशून्यता
पन.
१५.
पू.फा
ज्यष्ठा मूल
पुन.
पुष्य
| ३ | पृष्ठपादे ४
पुष्य आश्ले| मघा | पू.फा. | उ.फा. | हस्त चित्रा स्वाती | विशा अनु. ज्येष्ठा पू.षा. | उ.षा. आश्ले | मघा | पू.फा. | उ.फा. | हस्त | | चित्रा स्वाती विशा
| उ.षा. | अभि. मघा पू.फा. उ.फा. हस्त | चित्रा |स्वाती | विशा
अभि.
|श्रवण पू.फा. उ.फा. | हस्त | चित्रा | स्वाती | विशा | अनु. ज्येष्ठा
| अभि. श्रवण धनि.
स्थिरता
मूल
४ | पृष्ठे ३
| उ.फा. | हस्त | चित्रा | स्वाती विशा | अनु. ज्येष्ठा मूल पू.षा. | उ.षा. अभि. श्रवण | धनि. । | चित्रा | स्वाती | विशा | अनु. |
पू.षा. | उ.षा. अभि. श्रवण | धनि. | चित्रा | स्वाती | विशा | अनु. | ज्येष्ठा | मूल |पू.षा. | उ.षा. अभि. श्रवण | धनि. शत. पू.भा. उ.भा.
शत.
श्रीप्राप्ति
पू.षा.
उ.षा.
धनि.
स्वाती विशा | अनु.
| ज्येष्ठा मूल विशा | अनु. ज्येष्ठा | मूल | ५ | दक्षकुक्षौ ४
ज्येष्ठा | मूल | पू.षा. उ.षा. ज्येष्ठा | मूल पू.षा. | उ.षा. अभि.
उ.षा. अभि. श्रवण अभि. श्रवण श्रवण | धनि. शत. धनि. |शत. पू.भा.
धनि. शत. पू.भा. उ.भा. रेवती
| उ.भा. रेवती | अश्वि . | उ.भा. | रेवती | अश्वि भर. उ.भा. रेवती । | अश्वि भर कृति.
लाभ
श्रवण
मूल
पू.षा.
भर
| कृति.
६ | पुच्छे ३
उ.षा.
| अभि.
| उ.षा. | अभि. श्रवण धनि.
श्रवण
| धनि. अभि. श्रवण
| पू.भा.
पू.षा. उ.षा.
शत.
शत. पू.भा. उ.भा. रेवती | अश्वि पू.भा. | उ.भा. रेवती अश्वि भर । उ.भा. रेवती अश्वि | भर कृति.
गृहकर्तृनाश
धान. | शत.
धनि.
रोहि.
मृग.
अभि.
श्रवण
|शत.
भर
कृ
आर्द्रा
पून.
पू.भा. | उ.भा. रेवती | अश्वि उ.भा. | रेवती अश्वि
श्रवण
धनि.
भर
वामकुक्षौ
पष्य
॥ श्व
पुन.
धनि. शत. पू.भा. पू.भा.
उ.भा. उ.भा. रेवती
धनि.
शत.
पुष्य
शत.
पू.भा.
अश्वि | भर
कृति. रोहि.
आश्ले मघा.
नित्यपीडा | निर्धनता
पू.भा. | उ.मा. | रेवती | अश्वि | भर कृति. रोहि. मृग. | 1८ | मुखे ३ । उ.भा. | रेवती | अश्वि भर कृति. मृग. आर्द्रा
रेवती | अश्वि भर | कृति. | रोहि. | मृग. | आर्द्रा पुन. |
| रोहि.
पुन. पुष्य आश्ले. मघा पू.फा. पुष्य आश्ले. मघा । आश्ले. मघा पू.फा. | उ.फा. हस्त
उ.फा.
पुष्य
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________________
१८८ ]
सूर्यनक्षत्र
→
क्र. वत्सांग
सं.
१
२
لله
४
५
کیا
७
८
शीर्षे ३
अग्रपादे ४
पृष्ठपादे ४
पृष्ठे ३
दक्षकुक्षौ ४
पुच्छे ३
-
वामकुक्षौ ४
मुखे ३
[
वृषभवास्तुचक्र (सूर्यनक्षत्र गणित चन्द्रनक्षत्र स्थित्यनुसार फलसहित ) भाग II -
स्वाती विशा. अनु. ज्येष्ठा मूल
चं.न.
स्वाती विशा. अनु.
विशा. अनु.
ज्येष्ठा
अनु.
मूल
पू.षा. उषा.
उ. षा.
च.नं. चं.न. चं.न. चं.न. चं.न. चं.न.
कृति
रोडि
पू.षा.
पू.षा. उषा.
अभि.
अभि. श्रवण
मृग.
ज्येष्ठा
मूल
पू. पा.
उ. फा.
हस्त
चित्रा
उ. षा.
अभि.
श्रवण
धनि.
मूल
पू.षा.
उषा.
अश्वि. भर. कृति.
रोहि.
मृग,
भर. कृति, रोहि. रोहि
रोहि. मृग.
आर्द्रा पुन.
मृग. आर्द्रा पुन. पुष्य
पू.षा. उषा. अभि. श्रवण धनि शत.
अभि.
श्रवण. धनि.
शत.
श्रवण. धनि. शत. पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि भर पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि. भर.
धनि
शत.
शत.
कति
पू.भा. उ.भा. रेवती अश्नि. भर. कृति, उ.भा. रेवती अश्वि भर. कृति. रोहि. रेवती रोहि. | मृग.
अश्वि. भर. कृति.
अभि. श्रवण धनि.
श्रवण. धनि.
धनि.
शत.
हस्त चित्रा
चित्रा स्वाती विशा.
स्वाती विशा. अनु.
पू.षा. उषा. अभि.
उषा.
अभि. श्रवण.
पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि. भर. कृति,
रोहि.
मृग.
आर्द्रा
स्वाती विशा.
अनु.
ज्येष्ठा
श्रवण.
अभि. श्रवण धनि.
धनि.
शत.
शत.
पू.भा. उ.भा. पू.भा. उ.भा. रेवती पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि पू.भा. उ.भा. रेवती अश्वि. भर.
शत.
मृग. आर्द्रा पुन.
आर्द्रा पुन.
། ཤཱ ;
चं.न. चं.न. चं.न. चं.न.
रोहि
मृग.
आर्द्रा
पुष्य
आश्ले. मघा
धनि.
शत.
शत.
पू.भा.
शत. पू.भा. उ.भा.
भर कृति.
रोहि.
मृग
कृति.
रोडि
पुष्य
आश्ले. मघा पू. फा.
पुन.
पुन.
पुष्य
पुष्य
आर्द्रा पुन. पुष्य आले. मघा पू. फा. पुष्य आश्ले, मघा पू. फा. उ. फा. आपले मघा पू. फा. उ. फा. हस्त आश्ले. मघा पू. फा. उ. फा. हस्त चित्रा स्वाती विशा. अनु. आश्ले मया पू. फा. उ. फा. चित्रा स्वाती विशा. अनु. ज्येष्ठा उ. फा. हस्त चित्रा स्वाती विशा. अनु. ज्येष्ठा मूल चित्रा स्वाती विशा, अनु, ज्येष्ठा मूल पू.षा. अनु.
हस्त
मघा
पू. फा.
पू. फा.
उ. फा. हस्त
ज्येष्ठा मूल पू.षा. उषा. ज्येष्ठा मूल पू.पा. ज. पा. उषा. अभि.
अभि.
मूल
पू. पा.
श्रवण
पुष्य
आश्ले. मघा पू. फा. उ. फा.
आरले. मया
उ. फा.
हस्त
चित्रा
आर्द्रा
मृग.
आर्द्रा पुन. पुष्प आर्द्रा पुन. पुष्य आर्द्रा भषा पुन. पुष्य
आश्ले. मघा
पू. फा.
पू. फा.
पू. फा. उ. फा.
उ. फा.
हस्त
रेवती
अश्वि भर
भर
कृति,
हस्त
चित्रा
पू. भा
अश्वि. भर. कृति.
कृति. रोहि.
रोहि. मृग,
मृग. आर्द्रा आर्द्रा पुन.
रोहि.
मृग,
मृग. आश्ले पुन. पुष्य
आरले पुन.
पुष्य आश्ले पुन. पुष्य आश्ले मघा
हस्त
चित्रा स्वाती विशा.
स्वाती विशा.
अनु.
चं.न. चं.न. चं.न.
पू.षा.
उषा.
पू.भा. उ.भा. रेवती
उ.भा. रेवती अश्वि रेवती अश्वि भर .
अभि.
श्रवण
धनि.
कृति,
रोहि.
रोहि.
राज
उ.भा. रेवती
चित्रा स्वाती विशा. अनु. ज्येष्ठा
ज्येष्ठा मूल
मूल पू.षा.
ज्येष्ठा मूल
मूल
पू. पा.
अनु.
ज्येष्ठा
उ. फा.
हस्त
चित्रा स्वाती विशा.
स्वाती विशा. अनु.
मघा पू. फा.
पू. फा. उ. फा.
उ. फा. हस्त
हस्त चित्रा
चित्रा स्वाती
पू.षा. उषा.
उषा. अभि. अमि.
उ. षा.
श्रवण अभि श्रवण धनि.
श्रवण धनि शत.
धनि.
शत.
शत. पू.भा.
पू.भा. उ.भा.
फलम्
अग्निदाह
आवासशून्यता
स्थिरता
श्रीप्राप्ति
लाभ
गृहकर्तृनाश
निर्धनत
नित्य पीड़ा
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मुहूर्तराज ]
[१८९
इस प्रकार गृहारम्भार्थ वृषावास्तुचक्रानुसार वत्स सुफलद अंगों पर चन्द्रनक्षत्र देख लेना चाहिए तब गृहारम्भ करना श्रेयस्कर है।
अब किन-किन संक्रान्तियों एवं किन-किन चान्द्रमासों में गृहारम्भ करना श्रेष्ठ है, उस विषय में बतलाते हैं
सौरचान्द्रमासों की एकता से, गृहद्वार दिशाएँ, निर्माण नक्षत्रादि - (मु.चि.वा.प्र. श्लो १५)
कुम्भेऽके फाल्गुने प्रागपरमुखगृहं श्रावणे सिंहकों , पौषे नक्रे च याम्योत्तरमुखसदनम् गोऽजगेऽर्के च राधे । मार्गे जूकालिगे सद् ध्रुवमूदुवरुणस्वातिवस्वर्कपुष्यैः ,
सूतीगेहं वा॑दत्याम् हरिभविधिभयोस्तत्र शस्तः प्रवेशः ॥ अन्वय - कुंम्भेऽकें (कुंभराशिस्थे सूर्ये) फाल्गुनेमासि च प्रागपरमुखं (पूर्वमुखं पश्चिम मुखं च) गृहम्, श्रावणे मासि सिंहकों : (सिंहस्थे कर्कस्थे वा सूर्ये) पूर्वपश्चिम मुखं गृहम्, पौषे नक्रे च (मकरस्थे सूर्ये) पूर्वोक्तमेव गृहं सत् भवति। अथ गोऽजगे (वृषराशिस्थे मेषराशिस्थे च) अकें सति राधे वैशाखे मासे च, तथा मार्गे (मार्गशीर्षमासे) जूकालिगे सूर्ये (तुलावृश्चिकस्थे सूर्ये) याम्योत्तरमुखं (दक्षिणोत्तरमुखम्) गृहं सद् (शोभनम्) स्यात्। अथ गृहारम्भे नक्षत्राणि-ध्रुवमृदुवरुणस्वातिवस्वर्कपुष्यैः (रोहिण्युत्तत्रयमृगरेवतीचित्रानुराधाशततारकास्वातीधनिष्ठाहस्तपुष्य नक्षत्रैः) गेहारम्भ: शुभः। अथ अदित्याम् सूतीगेहं सत् तत्र च हरिभविधिभयौः श्रवणाभिजिनक्षत्रयोः प्रवेश: च शस्तः।
अर्थ - सौर एवं चान्द्र मासों के समन्वय से पूर्व अथवा पश्चिम दिशा में द्वार वाले भवनों के निर्माण में कुम्भ के सूर्य में फाल्गुन मास सिंह और कर्क राशि के सूर्य में श्रावण मास और मकर राशि के सूर्य में पौष मास शुभ है।
तथा उत्तर या दक्षिण मुख भवनों के निर्माण हेतु मेष और वृष के सूर्य में वैशाख मास, तुला और वृश्चिक के सूर्य में मार्गशीर्ष मास शुभ है।
गृहारम्भ में मृदु एवं ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र, शतभिषक, स्वाती, धनिष्ठा, हस्त और पुष्य नक्षत्र शुभफल है। तथा च सूतिका गृह निर्माण में पुनर्वसु एवं उसमें प्रवेशार्थ श्रवण एवं अभिजित् नक्षत्र प्रशस्त हैं।
ऊपर के श्लोक में सौर एवं चान्द्रमासों का समन्वय करके गृहारम्भ के निमित्त उपयुक्त संक्रान्ति-मासों का निर्देशन किया गया है अब केवल गेहारम्भ में संक्रान्तियों का ही फलाफल बतलाते हुए नारद का मत बतलाते हैं
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१९० ]
[ मुहूर्तराज गृहसंस्थापनं सूर्ये मेषस्थे शुभदं भवेत् । वृषस्थे धनवृद्धिः स्यान्मिथुने मरणं धुवम् । कर्कटे शुभदं प्रोक्तं सिंहे भृत्यविवर्धनम् । कन्या रोगं तुले सौख्यम् वृश्चिके धनवर्धनम् । कार्मुके तु महाहानिः मकरेस्याद्धनागमः ।
कुम्भे तु रत्नलाभः स्यान्मीने सद्य भयावहम् ॥ अर्थ - नारद का मत है कि मेष से मीन पर्यन्त संक्रान्तियों में भवन निर्माण के क्रमश: शुभावहता, धनवृद्धि, मरण, शुभावहता, सेवकवृद्धि, रोग, सौख्य, धनवृद्धि महाहानि, धनप्राप्ति, रत्नलाभ एवं भय ये फल होते हैं। गृहारम्भ में चान्द्रमास एवं फल - (श्रीपति)
शोको धान्यं मृतिपशुतिः द्रव्यवृद्धिर्विनाशो , युद्धं भृत्यक्षतिरथ धनं श्रीश्च वह्नेर्भयं च । लक्ष्मीप्राप्तिर्भवति भवनारम्भकर्तुः क्रमेण ,
चैत्रादूचे मुनिरिति फलं वास्तुशास्त्रप्रदिष्टम् ॥ अन्वय - मुनिः चैत्रात् (चैत्रमासादारभ्य फाल्गुनं यावत्) क्रमेण शोकः धान्यं मृतिः, पशुहतिः, द्रव्यवृद्धि, विनाशः, युद्धं भृत्यक्षति, धनम्, श्रीः, वह्नर्भयम्, लक्ष्मीप्राप्तिः भवति इति वास्तुशास्त्रप्रदिष्टं फलम् ऊचे (उक्तवान्)। ____ अर्थ - मुनियों ने चैत्रमास से फाल्गुनमास पर्यन्त चान्द्रमासों में गेहारम्भ के क्रम से शोक, धान्यलाभ, मरण, पशुहरण, द्रव्यवृद्धि, द्रव्यनाश युद्ध, सेवकनाश, धन, श्री, अग्निभय और लक्ष्मीलाभ ये फलाफल बतलाये हैं। द्वारनियम श्रीपति मत से
कर्कि नक्र हरिकुम्भगतेऽकें, पूर्वपश्चिममुखानि गृहाणि ।
तौलिमेषवृषवृश्चिक याते, दक्षिणोत्तरमुखानि च कुर्यात् ॥ अर्थ - कर्क, मकर, सिंह और कुम्भ के सूर्य में पूर्व पश्चिममुख के गृह एवं तुला, मेष, वृष और वृश्चिक के सूर्य में दक्षिणोत्तरमुख के गृह निर्मित करने चाहिए। इसके विपरीत मुख द्वार नहीं। तथा च मीन, धनु, मिथुन और कन्या संक्रान्तियों में भवनारम्भ नहीं करना चाहिए।
यहाँ यह शंका उत्थित होना स्वाभाविक है कि “मीनचाप” इत्यादि से द्विस्वभाव राशियों को गेहारम्भ में निषिद्ध किया है, तथा “शोको धान्यं' इत्यादि से कतिपय चान्द्रमासों को गेहारम्भ में निषिद्ध करके अन्य सौरमासों और चान्द्रमासों का विधान किया है तो इनका समन्वय कैसे हो? इसका समाधान यह है कि मेष राशि का सूर्य हो तो चैत्रमास में भी वृष का रवि हो तो ज्येष्ठमास में भी कर्क का सूर्य हो तो आषाढ़
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मुहूर्तराज ]
[१९१ में भी, सिंह का सूर्य हो तो भाद्रपद में भी, तुला का सूर्य हो तो आश्विन में भी, वृश्चिक का सूर्य हो तो कार्तिक में भी मकर का सूर्य हो तो पौष में भी और मकर एवं कुम्भ के सूर्य में माघ में भी गेहारम्भ शुभ होता है। अत: नारद का कथन है कि “पौषफाल्गुनवैशाखमाघश्रावणकार्तिकाः। मासाः स्युर्गृहनिर्माणे पुत्रारोग्य शुभप्रदाः।
अब सौर एवं चान्द्रमासों की गेहारम्भार्थ एवं वाक्यता अर्थात् समन्विति करते हुए मुहूर्त चिन्तामणिकार का कथन हैगेहारम्भ में सौरचान्द्रमास समन्वय - - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. १६ वाँ)
कैश्चिन्मेषरवौ मघो, वृषभगे ज्येष्ठे, शुचौ कर्कटे । भाद्र सिंह गते घटेऽश्वयुजि चोर्जे लौ मृगे पौषके । माघे नक्रघटे शुभं निगदितं गेहं तथो| न सत्
कन्यायां च तपो धनुष्यपि न सत् कृष्णादिमासाद् भवेत् ॥ अन्वय - कैश्चित् (आचार्यके:) मेषखौ (मेषराशिस्थे सूर्ये) मधौ, (चैत्रे) वृषभगे (वृषराशिगते सूर्ये) ज्येष्ठे, कर्कटे (कर्कराशिस्थे सूर्ये) शुचौ आषाढे, सिंहगते सूर्ये भाद्रे, (भाद्रपदमासे) घटे (तुलाराशिगे सूर्ये) अश्वयुजि (आश्विने मासे) अलौ (वृश्चिकरशिस्थिते सूर्ये) ऊजें (कार्तिके मासे) मृगे (मकर) पौषके मासे, नक्रघटे (मकरकुम्भयौः सूयें) माघे मासे प्रारब्धं गृहं शुभं शुभदं निगदितम् (कथितम्) किन्तु ऊों कन्यायाम तथा तपाः (माघमासः) धनुष्यकें न सत्। अत्र श्लोके मासानां (चान्द्रमासानां) गणना कृष्णादिमासाद् (कृष्णप्रतिपदात्
आरभ्य शुक्लपूर्णिमां यावत्) भवेत्। ___अर्थ - कतिपय आचार्यों का कथन है कि यदि मेष राशि पर सूर्य हो तो चैत्र मास भी, वृष का सूर्य हो तो ज्येष्ठ मास भी, कर्क का हो तो आषाढ़ भी, सिंह का हो तो भाद्रपद भी तुला का हो तो आश्विन भी, वृश्चिक का हो तो कार्तिक भी मकर का हो तो पौष भी मकर अथवा कुम्भ का हो तो माघ मास भी गेहारम्भार्थ शुभ माना गया है, किन्तु कार्तिक में यदि कन्यार्क हो तो माघ में यदि धनुरर्क हो तो ये दोनों मास (कार्तिक एवं माघ) गेहारम्भ के लिए शुभ नहीं है।
यहाँ इस शंका का उठना स्वाभाविक है कि कार्तिक मास में कन्यार्क और माघमास में धुनरर्क (धनराशि पर सूर्य) होना असम्भव है, क्योंकि कार्तिक एवं माघ मास का प्रारम्भ शुक्ल प्रतिपदा से होकर अमावस्या पर्यन्त अन्त होता है, इसके उत्तर में कहते हैं कि यहाँ मास गणना कृष्ण प्रतिपदा से प्रारम्भ करके शुक्ल पूर्णिमा तक करनी चाहिए जैसा कि श्लोक में अन्त में “कृष्णादिमासाद्” से स्पष्ट है। क्योंकि प्रारम्भ तथा समाप्ति के अनुसार मास दो प्रकार के मान्य हैं (१) शुक्लादि (२) कृष्णादि। जब शुक्ल प्रतिपदा से अमावस तक मास मानते हैं, तब वह उसे शुक्लादि मास और कृष्णप्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त जब मास माना जाता तब उसे कृष्णादि मास कहते हैं। अत: कृष्णादि कार्तिक में कन्यासंक्रान्ति एवं माघ में धनु संक्रान्ति अवश्य ही संभाव्य है।
गेहारम्भ में संक्रान्तियों एवं मासों की ग्राह्याग्राह्यता के विषय ऊपर लिखे विस्तृत विवेचन का सार निम्नांकित सारणी में स्पष्टरूपेण देखिए
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१९२ ]
-
सं.
क्र. प्राह्य सूर्य संक्रान्तियाँ
१
रम्भार्थ संक्रान्तियों एवं तत्संयोग से मासों की ग्राह्याग्राह्यता सूचक सारणी
अग्राह्य सूर्य संक्रान्तियाँ
संक्रान्ति विशेष संयोग से ग्राह्य मास
संक्रांति विशेष संयोग
से अग्राह्य मास
मेष
X
मेष
चैत्र
मीन
चैत्र
तृणादिनिर्मेय घरों के आरम्भ में
२
वृष
X
मि.
वै.
-
X X
X
वृष वृष
वैशा
ज्ये.
३
मिथुन
मि.
ज्ये.
४
कर्क
X
५
सिंह
X
कर्क
कर्क
आषा. श्रा.
मि. मि.
आषा. श्री.
X
X
६
कन्या
सिंह
भाद्र.
कन्या
भाद्र
७
तुला
X
८
वृश्चि
X
तुला वृश्चि. आश्वि. कार्ति
निषिद्धेष्वपि ऋक्षेषु स्वानुकूले शुभे दिने । तृणदारुगृहारम्भे मासदोषो ने विद्यते ॥
-
• (मु.चि.वा.प्र. श्लो. १७ वाँ)
X १०
११
X मकर कुम्भ
९
धनु
[ मुहूर्तराज
X
कन्या कन्या कन्या धनु आश्वि. का. भाग. पौष
उपर्युक्त सौर एवं चान्द्रमासों की गेहारम्भ में जो ग्राह्याग्राह्यता बतलाई गई है यह नियम तृणादि से निर्मेय घरों (झोपड़ियों) के लिए नहीं है। वैसे घरों को तो अपने लिए अनुकूल किसी भी दिन बनवा लेना चाहिए। यही बात व्यवहार समुच्चय में कही गई है।
(व्य.स.)
X
X X
वृश्चि. मकर मकर मकर मार्ग. पौष
कुम्भ कुम्भ फाल्गु.
माघ
पूर्णेन्दुतः प्राग्वदनं नवम्यादिषूत्तरास्यं त्वथ पश्चिमास्यम् । दर्शादितः शुक्लदले नवम्यादौ दक्षिणास्यं न शुभं वदन्ति ॥
१२
मीन
अर्थ - गेहारम्भ के हेतु निषिद्ध नक्षत्रों में भी अपने लिए अनुकूल शुभ दिन को तृण (घासफूस ) एवं लकड़ी से बनने योग्य घरों को बनवाना चाहिए उनके आरम्भ में उपरिलिखित सौर एवं चान्द्र मास सम्बन्धी दोष नहीं लगता ।
तिथि के अनुसार गृहद्वार का निषेध
धनु
मीन
माघ फाल्गु.
अन्वय - पूर्णेन्दुत: (पूर्णिमात: कृष्णाष्टमी यावत्) प्राग्वदनम्, (पूर्वमुखं) तथा नवम्यादिषु (कृष्णनवमीत: चतुर्दशीतिथिं यावत्) उत्तरास्यं (उत्तरमुखम् ) अथ शुक्लपक्षे दर्शादित: ( अमावास्यातः शुक्लाष्टमीं यावत्) पश्चिमास्यं, (पश्चिममुखम् ) नवम्यादौ ( शुक्लनवमीतः शुक्ल चतुर्दशीं यावत्) दक्षिणास्यं (दक्षिणमुखम् ) गृहं शुभं न वदन्ति ।
अर्थ - पूर्णिमा से कृष्णपक्ष की अष्टमी तक पूर्वमुख, कृष्णपक्ष की नवमी से कृष्णचतुर्दशी तक उत्तरमुख, अमावस से शुक्लपक्ष की अष्टमी तक पश्चिममुख एवं शुक्ल नवमी से शुक्ल चतुर्दशी तक दक्षिणमुख गृह का निर्माण शुभ नहीं मानते हैं। यही बात स्पष्टतया व्यवहार समुच्चय में -
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मुहूर्तराज ]
तथा च - " शुक्लपक्षे भवेत्सौख्यं कृष्णे तस्करतो भयम् । अर्थात् शुक्लपक्ष गेहारम्भार्थ सुखद किन्तु कृष्णपक्ष में गेहारम्भ से चोर भय बना रहता है।
उ.
अब नीचे पूर्वादिदिग्द्वार वाले ४ गृहों के मानचित्र दिए जा रहे हैं तथा उनके लिए निषिद्ध तिथियाँ भी दर्शायी जा रही हैं
पूर्वमुखद्वारगृह
| |
पू.
↑
द्वार
प.
पूर्णिमातोऽष्टमीं यावत् पूर्वास्यं वर्जयेद् गृहम् । उत्तरास्यं न कुर्वीत नवम्यादि चतुर्दशीम् ॥ अमावास्याष्टमीं यावत् पश्चिमास्यं विवर्जयेत् । नवम्यादौ दक्षिणास्यं यावच्छुक्ल चतुर्दशीम् ।
पूर्णिमा से कृष्णाष्टमी निषिद्ध तिथियाँ
द. उ.
उत्तरमुखद्वारगृह
पू.
द्वार
निषिद्ध तिथियाँ एवं उनके कुफल
J
प.
कृष्णनवमी से चतुर्दशी तक निषिद्ध तिथियाँ
कृष्ण
द. उ.
गेहारम्भार्थ विहित एवं निषिद्ध तिथियाँ - ( व्यवहार समुच्चये ) विहित तिथियाँ -
पश्चिमुखद्वारगृह
पू.
द्वार
→
प.
अमावस्या से शुक्ल अष्टमी तक निषिद्ध तिथियाँ
द. उ.
" द्वितीया - पंचमी - मुख्यास्तृतीया षष्ठिका तथा । सप्तमी दशमी चैव द्वादश्येकादशी तथा ॥ त्रयोदशी पञ्चदशी तिथयः स्युः शुभावहाः । "
[ १९३
" दारिद्रयं प्रतिपत्कुर्यात् चतुर्थी धनहारिणी । अष्टम्युच्चाटनं चैव, नवमी शस्त्रघातिनी ॥ दर्शे राजभयं ज्ञेयं भूते दारविनाशनम् ॥"
दक्षिणमुखद्वारगृह
पू.
द्वार
->
प.
शुक्ल नवमी से शुक्ल चतुर्दशी तक निषिद्ध तिथियाँ
गृहनिर्माण में २, ३, ५, ६, ७, १०, ११, १२, १३ और १५ पूर्णिमा ये तिथियाँ शुभ हैं, किन्तु १, ४, ८, ९, १४ और ३० ये अशुभ तिथियों के फल ये हैं
द.
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________________
१९४ ]
[ मुहूर्तराज प्रतिपदा गृहारम्भ में दारिद्रय, चतुर्थी धनहानि, अष्टमी उचाट, नवमी शस्त्र घात, अमावस राजभय और चतुदर्शी स्त्री विनाश करती है। गेहारम्भ में पश्चाङ्गशुद्धि - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. १८ वाँ)
भौमार्करिक्तामायूने चरोने च विपञ्चके ।
व्यष्टान्त्यस्थैः शुभैगेहारम्भस्त्र्यायारिगैः खलैः ॥ अन्वय - भौमार्करिक्तामाने (भौमसूर्यवाररिक्तामावास्याप्रतिपद्रहिते) तथा चरोने (चरराशीन्वर्जयित्वा) विपञ्चके (धनिष्ठोत्तरार्धशतभिषक्पूर्वाभाद्रदोत्तराभाद्रपदारेवतीनक्षत्राभावे) शुभैः शुभग्रहै: व्यष्टान्त्यस्थैः (अष्टमद्वादशभावौ वर्जयित्वा न्यत्र स्थितैः) खलैः पापग्रहै: व्यायारिगैः (तृतीयैकादशषष्ठभावगतैः) एवं विधे काले गेहारम्भः कर्तव्यः ।
अर्थ - मंगल, रवि वारों को, चरराशियों (मेष, कर्क, तुला, मकर) को पञ्चक को (धनिष्ठोत्तरार्ध, शत., पू.भा., उ.भा. और रेवती) त्याग कर अन्य वारों, राशियों, नक्षत्रों में गेहनिर्माण शुभद है। तथैव विवाहप्रकरणोक्त बाणपञ्चकों का भी त्याग करना चाहिए तथा च गेहनिर्माणकाल की कुण्डली में शुभग्रह अष्टम एवं द्वादश स्थान में न हों तथा पापग्रह तृतीय एकादश और षष्ठस्थान में हों ऐसे समय में गेहारम्भ करना चाहिए। गेहारम्भ में त्याज्य एवं ग्राह्यवार - (मु.प्र.)
आदित्यभौमवास्तु सर्वे वाराः शुभावहाः ।
केचिच्छनि प्रशंसन्ति चौरभीतिस्तु जायते ॥ अर्थ - गेहारम्भ में रवि एवं मंगल को छोड़कर अन्य सभी वार शुभकारी है। कुछ लोग शनि की भी प्रशंसा करते हैं पर शनिवार को गेहारम्भ से उस घर में चोर भय तो बना रहता है। गेहारम्भ के नक्षत्र
त्र्युत्तरेऽपि रोहिण्यां पुष्ये मैत्रे करद्वये ।
धनिष्ठाद्वितये पौष्णे गृहारम्भः प्रशस्यते ॥ अर्थ - तीनों उत्तरा, रोहिणी, पुष्य, अनुराधा, हस्त, चित्रा, धनिष्ठा, शततारका और रेवती इन नक्षत्रों में गेहारम्भ प्रशंसनीय माना गया है। ___ यहाँ यह शंका होती है कि “भौमार्करिक्ता” इस श्लोक में तो पंचक निषिद्ध है और “व्युत्तरे" में केवल पू. भाद्र के अतिरिक्त पंचकीय नक्षत्रों को ग्रहण किया है, तो इसका समाधान है कि ऊपर जो पंचक निषिद्ध किये हैं वह स्तंभादि निर्माण विषयक है जैसा कि माण्डव्य का कथन है-धनिष्ठापञ्चके नैव कुर्यात्स्तम्मसमुच्छ्रयः। सूत्राधारशिलान्यासप्राकारादि समारभेत्॥
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मुहूर्तराज ]
[१९५ अब गृह के खात के विषय में कहा जाता है। खात के विषय में राहु मुख का विचार करना पड़ता है। राहुमुख भी भिन्न-भिन्न सूर्यसंक्रांतियों में भिन्न-भिन्न उपदिशाओं में रहता है। इस विषय में देखिए मुहूर्त चिन्तामणिकार का मतदेवालय गृहनिर्माण और जलाशय में राहुमुख - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. १९ वाँ)
देवालये गेहविधौ जलाशये राहोर्मुखं शम्भुदिशो विलोमतः । मीनार्क सिंहार्क मृगार्कतस्त्रिभे खाते मुखात्पृष्ठविदिक्छुभो भवेत् ॥
अन्वय - देवालये, गेहविधौ जलाशये च क्रमतः मीनार्कत: त्रिभे, सिंहार्कतः त्रिभे मृगार्कतश्च त्रिभे (राशिवये) राहोर्मुखम् शम्भुदिश: ईशानतः विलोमतः वामक्रमेण भवति, यथा देवालये चिकीर्षिते मीनमेषवृषराशिगते सूर्ये राहोर्मुखं ऐशान्याम्, मिथुनकर्कसिंहस्थेऽर्के वायव्याम् कन्यातुलावृश्चिकस्थे सूर्ये नैर्ऋत्याम्, धनुर्मकरकुम्भस्थे सूर्ये राहुमुखम् आग्नेय्याम् एवमेव गेहारम्भ सिंहादित्रये ऐशान्याम् वृश्चिकादित्रये वायव्याम् कुम्भादित्रये नैर्ऋत्याम् वृषादित्रये च आग्नेय्यां राहुमुखं ज्ञेयं तथा च जलाशये मकरकुम्भमीनस्थेऽर्के, मेषवृषमिथुनस्थे, कर्कसिंहकन्यास्थिते तुलावृश्चिकधनुःस्थे चार्के क्रमश: ऐशान्यां, वायव्यां, नैऋत्याम्, आग्नेय्यां च राहुमुखम् भवति। तेषु देवालयादिषु खाते कर्तव्ये मुखात् पृष्ठविदिक् शुभ: भवेत्। अर्थात् यदि मुखम् ऐशान्याम् तदा खातं नैऋत्याम् शुभम् इत्याशयः।
अर्थ - देवालय, गृह एवं कूप, वापी तालाब आदि जलाशयों के निर्माण में क्रमश: मीनादि तीन राशियों में सिंहादि तीन राशियों में और मकरादि तीन राशियों में सूर्य के रहते राहुमुख ईशान, वायव्य, नैऋत्य और अग्निकोण में रहता है अर्थात् देवालय निर्माण में मीन, मेष, वृष इन राशियों में सूर्य हो तो राहुमुख ईशान में, मिथुन, कर्क, सिंह राशियों के सूर्य में राहुमुख वायव्य में, कन्यादि तीन राशियों के सूर्य में नैऋत्य में और धनु मकर और कुभ के सूर्य में अग्निकोण में राहुमुख रहता है। इसी प्रकार गृहारंभ में सिंहादिराशिगत सूर्य होने पर ईशान में, वृश्चिकादि तीन राशियों के सूर्य में वायव्य में इत्यादि क्रम से जानना चाहिए। स्पष्टार्थ ज्ञान के लिए आगे तीन मानचित्र दिये जा रहे हैं। मुहूर्त चिन्तामणि की पीताम्बरा में तो लिखा है-“राहुमुख की विपरीत दिशा में राहु पुच्छ रहती है। पुच्छदिशा में प्रथम खात का आरम्भ कर वहाँ शिलान्यास करना शुभ है।” खातारंभ के लिए भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में अनेकानेक मत उपलब्ध होते हैं यथा
"भाद्रादित्रिभासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् ।
भवेवास्तोः शिरः पृष्ठं पुच्छं कुक्षिरितिक्रमात्" अर्थात्- भाद्रपदादि तीन-तीन मासों में पूर्वादि चार दिशाओं में अनुक्रम से वास्तु (वत्स) का शिर, पृष्ठ, पुच्छ और कुक्षि रहते हैं। अर्थात् भाद्रपद आश्विन और कार्तिक में वास्तु का मस्तक पूर्व में, पीठ दक्षिण में पूँछ पश्चिम में ओर कुक्षि उत्तर में होती है। मार्गशीर्ष पौष और माघ में दक्षिण में मस्तक, पश्चिम में पीठ, उत्तर में पूँछ और पूर्व में कुक्षि। इसी प्रकार फाल्गुन चैत्र और वैशाख में पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण में मस्तकादि कुक्ष्यन्त अंग तथा ज्येष्ठ आषाढ़ और श्रावण में उत्तर, पूर्व दक्षिण और पश्चिम में मस्तकादि अंग होते हैं। जिस दिशा में कुक्षि हो उस दिशा में खातारंभ करना चाहिए। जैसा कि दैवज्ञवल्लभ में कहा गया है
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१९६]
[ मुहूर्तराज "शिरःखनेन्मातृपितृन् निहन्यात् खनेच्चपृष्ठे भयरोगपीड़ाः ।
पुच्छं खनेत् स्त्रीशुभगोत्र हानिः स्त्रीपुत्ररत्लान्नवसूनि कुक्षौ ।" अर्थात्- जो वास्तु का सिर खोदा जाय तो माता-पिता का विनाश हो, पीठ को खोदे तो भय, रोग तथा पीड़ा हो, पूँछ खोदे तो स्त्री मंगलकार्य, और कुल की हानि हो और जो कुक्षि स्थान में खोदा जाय तो स्त्री, पुत्र रत्न, अन्न और धन की प्राप्ति होती है। कुछेक 'वास्तु' के स्थान पर वत्स ऐसा नाम कहते हैं। ___ उपर्युक्त में खात दिशा का नियम बताया गया परन्तु उपदिशाओं (ईशान, आग्नकोण, नैऋत्य और वायव्य) के नियम के विषय में वास्तुशास्त्र में कहा गया है
"ईशानादिषु कोणेषु वृषादीनां त्रिके त्रिके
शेषाहेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥" अर्थात्- वृष, मिथुन, कर्क इन संक्रान्तियों में शेष का (वत्स) मुख ईशान में सिंह, कन्या और तुला इनके सूर्य में वायव्य में वृश्चिक, धनु और मकर का सूर्य हो तो नैर्ऋत्य में और कुंभ, मीन तथा मेष का सूर्य हो तो अग्निकोण में रहता है। अत: मुख स्थान (उस उपदिशा) त्याग करने योग्य है। जब ईशान में शेष का मुख होता है तो अग्निकोण में नाभि रहती है और नैर्ऋत्य में पूँछ तथा वायव्य कोण खाली रहता है तो वायव्य कोण में खातारंभ शुभ होता है। जब वायव्य में मुख, होता है, तब ईशान और अग्निकोण में नाभि और पूँछ, जब नैर्ऋत्य में मुख होता है तब वायव्य और ईशान में नाभि और पूंछ और जब अग्निकोण में मुख होता है, तब नैर्ऋत्य और वायव्य में नाभि तथा पूँछ होती है अत: जो कोण शेषांगों से रिक्त रहे वहाँ खातारंभ करना शुभ है। इसी आशय को लेकर आगे वास्तु शास्त्र में कहा गया है
"विदिक्त्रयं स्पशंस्तिष्ठेत् स्ववक्त्र नाभिपुच्छकै ।
शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा भूखात कार्यमाचरेत् ॥" क्योंकि
नाभौ च प्रियते भार्या, धनं पुच्छे मुखे पतिः ।
इति मत्वा शिलान्यासे भूखाते तत्त्रयं त्यजेत् ॥ अर्थात्-नाभि स्थान खोदने पर गृहपति की पत्नी का पूँछ स्थान खोदने पर धन का और मुख स्थान खोदने पर गृहपति का स्वयं का विनाश होता है ऐसा मानकर भूखात के विषय में शिलान्यास करते समय इन तीनों अंगों का त्याग करना आवश्यक है। ___ मुहूर्त चिन्तामणिकार ने “देवालये" इस श्लोक में ईशानादि कोणों में राहु का मुख बतलाकर उसकी पृष्ठस्थ विदिशा में खात करना शुभ बताया है। पीयूषधारा में पृष्ठविदिशा का स्पष्टीकरण करते हुए ईशान में मुख हो तो आग्नेय में खातारंभ का विधान किया है और “ईशानादिषु" इस वास्तु शास्त्र के श्लोक की टीका में पूज्यपाद श्री हेमहंस गणि ने ईशान में शेष मुख (राहुमुख) होने पर वायव्य को शेषांगों से रहित उपदिशा बनाकर वहाँ खातारंभ का विधान किया है। ___ मुहूर्त मार्तण्ड के गुजराती भाषान्तर कर्ता ने तो मुहूर्त चिन्तामणिकार के “देवालये" इस श्लोक में प्रस्तुत राहु मुख की पृष्ठ विदिक् पीयूषधारा के समान ही मानी है।
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मुहूर्तराज ]
[ १९७
देवालये श्लोक की पीयूषधारा टीका के खातारंभ दिनिर्णय शीर्षक में “यत: सर्पण विदिग्व्याप्ता तथा ऐशान्यां तन्मुख, वायव्यामुदरं, ऋत्यां पुच्छम् अत: खाते आग्नेयी सम्यक" ऐसा लिखा है और आरंभ सिद्धि में वास्तुशास्त्रोक्त "ईशानादि" इस श्लोक की टीका में “ज्यारे तेनूं मुख त्रण मास (वैशाख ज्येष्ठ आषाढ़) सुधी ईशानमा होय छे त्यारे अग्नि खूणां मां त्रण मास सुधी नाभि होय छे, नैऋत्य में त्रण मास सुधी पच्छ होय छे अने वायव्य खूणो खाली होय छे । ते खाली खूणो खात विगेरे ने माटे श्रेष्ठ छे । इस प्रकार खात की उपदिशा में अन्तर पड़ता है इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह अन्तर शेष के दिग्दक्षिणावर्त या दिग्वामावर्त भ्रमण से ही है। यदि शेष की दक्षिणावर्त भ्रमण स्थिति मानी जाय तो "ईशान-आग्नेय-नैऋ त्य" इस प्रकार क्रम है और वामावर्त मानी जाय तो ईशान-वायव्य-नैऋत्य इस प्रकार स्थिति रहती है।
देवालयादि के खातारंभ में राहमुख मानचित्र | देवालय खात में राहु मुख । गृह खात में राहु मुख | जलाशय में राहु राख ।
मीन. मप. वृषभ.
धनु. मका.कम्भ.
सिंह, कन्या, तुला.
मिथुन, कर्क
मकर, कुम्भ, मीन
तुला, वृश्चिक, धनु
ht
न्या.तला.याश्चम
कमभ. मानसप.
भ. मिथुन
कक. सिंह, कन्या
मेष.
देवालयादि खातोपयुक्त विदिइ मानचित्र देवालय खातोपयुक्त विदिशा | गृह खातोपयुक्त विदिशा जलाशय खातोपयुक्त विदिशा
मिथन कर्क, मिह,
मीन. मेष, वृषभ.
वृश्चिक, धनु, मकर
सिह, कन्या, तुला.
मष, वृषभ, मिथन
मकर, काभ. मीन
कन्या.तला.श्चिक
धनु, मकर, कुम्भ
ह.कन्या
वृषभ, मिथन, कके
कुम्भ .मीन, मेष.
तुला. वृश्चिक, धन
कक..
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१९८ ]
[ मुहूर्तराज ज्योतिश्चिन्तामणिकार के शब्दों में भी खातादि के विषय में
"वृषार्कादित्रिकं वेद्यां, सिंहादि गणयेद् गृहे ।
देवालये च मीनादि तडागे मकरादिषु ॥" अर्थात्-वेदी रचना में वृषार्कादि, गृहारम्भ में सिंहार्कादि, देवमन्दिर में मीनार्कादि और तालाब आदि में मकरार्कादि का विचार करके खातारंभ करना चाहिए।
खातारम्भ नक्षत्र (माण्डव्य)
अधोमुखैभैर्विदधीत खातं, शिलास्तथाचोर्ध्वमुखैश्च पट्टम् ।
तिर्यमुखैरिकपाटकानां गृहप्रवेशो मृदुभिधुवः ॥ अर्थ - मूल, आश्लेषा, कृत्तिका, विशाखा, पूर्वात्रय, मघा, भरणी इन अधोमुख नक्षत्रों में रवात एवं शिलान्यास, आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, उत्तरात्रय, रोहिणी इन ऊर्ध्वमुख नक्षत्रों में पट्टाभिषेक, मृगशिर, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, पुनर्वसु, ज्येष्ठा, अश्विनी इन तिर्थमुख नक्षत्रों में द्वार, किंवाड आदि तथा मृगशिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा इन मृदुनक्षत्रों में तथैव उत्तरात्रय और रोहिणी इन नक्षत्रों में गृहप्रवेश करना शुभावह होता है।
__-खात, पट्टाभिषेकादि के लिए उपयुक्त नक्षत्र ज्ञापक सारणी
कार्य नाम
उपयुक्त नक्षत्र नाम
नक्षत्र संज्ञा
| खातारंभ, शिलान्यास पट्टाभिषेक द्वार कपाटादि निवेश वापी, कूपादि खनन चक्र रथ हलादि निर्माण गृहप्रवेश
मूल,आश्लेषा, कृत्तिका, विशा, पूर्वात्रय, मघा एवं भरणी आर्द्रा,पुष्य, श्र.ध. शत. तीनों उत्तरा एवं रोहिणी मृगशिर, रे.चि. अनु. हस्त. स्वाती, पुन. ज्ये. अश्वि. प्रथम क्रमांक के नक्षत्र तृतीय क्रमांक के नक्षत्र मृदु (मु.रे.चि.अनु.) एवं ध्रुव (उत्तरा तीनों, रोहिणी)
अधोमुख ऊर्ध्वमुख तिर्यङ्मुख अधोमुख तिर्यङ्मुख
मृदु व ध्रुव
देवालयादि में खात विदिशाएँ, नक्षत्र, तिथियाँ, वार, लग्न, ग्रह स्थिति आदि का विचार करने के उपरान्त जिस दिन भूमि को खातार्थ खोदना हो उस दिन भूमि सोती है या जागती है, इसका विचार भी करना चाहिए ऐसा वास्तुशास्त्र में तथा अन्यान्य मुहूर्तग्रन्थों में लिखा है। यहाँ हम मुहूर्तप्रकाशोक्त एक श्लोक को उद्धृत कर रहे हैं जिसमें भूमिशयन के विषय में चर्चा की गई है
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मुहूर्तराज ]
[१९९ भूमिशयन विचार-(मु.प्रका.)
प्रद्योतनात् पच नगांक७.९. सूर्य १२ नवेन्दु१९ षड्विंशमितानि२६ भानि । शेते मही नैव गृहं विदध्यात् ।
तडागवापीखननं न शस्तम् ॥ अन्वय - प्रद्योतनात् (सूर्याक्रान्त नक्षत्रात्) पंचनगांकसूर्यनवेन्दुषड्विंशमितानि भाति मही शेते, तत्र गृहं (गेहारंभम्) तडागवापीखननं नैव विदध्यात्। एत त् शस्तम् न।
अर्थ - सूर्यनक्षत्र से ५, ७, ९, १२, १९ और २६ वें चन्द्र नक्षत्र (दिन नक्षत्र) के दिन भूमि शयन करती है, अत: उस दिन गृहारम्भ, तालाब, बावड़ी एवं कूपादि के लिए भूमि को खोदना नहीं चाहिए क्योंकि ऐसा करना शुभ नहीं है। पक्षान्तर में
बोणाः सत्यशिवा नवा, तिथिनरवा, द्वाविंशत्रिविंशाकाः
अष्टाविंशति वासरे च शयने संक्रान्तिधस्त्रं त्यजेत् ॥ अर्थ - सूर्य संक्रमण दिन से ५, ७, ९, ११, १५, २०, २२, २३ और २६ वें दिन को (सूर्यसंक्रमण के इन अंशों में) भूमिशयन करती है। अत: सूर्य के उक्तांश जिस दिन हो उन दिनों का भूमिखनन में त्याग करना चाहिए।
भूशयन ज्ञानोपाय सारणी सं. १
निम्नलिखित क्रमसंख्या का चन्द्र नक्षत्र हो तो भूमि शयन करती है।
यदि सूर्य महानक्षत्र से
| ५ वा
७ वाँ । ९ वा. १२ वीं | १९ वा । २६ वाँ ।
भूशयन ज्ञानोपाय सारणी सं. २
निम्नलिखित क्रमसंख्या का दिन हो तो भूमि शयन करती है।
यदि सूर्य संक्रान्ति से
५ वाँ
७ वाँ |११ वाँ |११ वाँ | १५ वाँ |२० वाँ | २२ वाँ | २३ वाँ |२६ वाँ
वत्सचार ज्ञान- (आ.सि.)
वत्सः प्राच्यादिषूदेति कन्यादित्रित्रिगे रवौ । प्रवासवास्तु द्वारार्चाप्रवेशाः सम्मुखेऽत्र न ॥
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२०० ]
[ मुहूर्तराज ___अर्थ - कन्यार्क, तुलार्क और वृश्चिकार्क में वत्सोदय पूर्व में, धनुर्क, मकरार्क, कुंभार्क में वत्सोदय दक्षिण में मीनार्क, मेषार्क और वृषमार्क में वत्सोदय पश्चिम में एवं मिथुनार्क, कर्कार्क और सिंहार्क में वत्सोदय उत्तर में होता है। इस वत्सोदय को सामने रखकर प्रयाण, वास्तुद्वार, जिनेश्वरादि प्रतिमाओं का धनिक के घर में प्रवेश आदि नहीं करने चाहिए। वत्सरूपम्-(ना. चं. टिप्पण)
वपुरस्य शतं हस्ताः श्रृङ्गयुगं षष्टिसंयुता त्रिशती ।
पन्नाभिपुच्छशिरसां भूप नव नि शर' करमानम् ॥ अर्थ - इस वत्स का शरीर सौ हाथ ऊँचा, दोनों सींग ३६० हाथ लम्बे, पैर सोलह हाथ, नाभि नौ हाथ, पूंछ तीन हाथ और मस्तक ५ हाथ प्रमाण के हैं। वत्सचारसम्बन्धी विशेष- (ज्यो. सार)
पंच' दिक् तिथि सत्रिंश तिथि, दिक् शर वासरान् ।
वत्सस्थितिः दिक्चतुष्के प्रत्येकं सप्तभाजिते ॥ अर्थात्- चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा के सात-सात भाग करने चाहिए उनमें प्रथम भाग में वत्सस्थिति ५ दिनों तक द्वितीय भाग में १० दिनों तक, तृतीय भाग में १५ दिनों तक चतुर्थ भाग में ३० दिनों तक ५ भाग में १५ दिनों तक षष्ठ भाग में १० दिनों तक और सातवें भाग में ५ दिनों तक रहती है। इस प्रकार ५ + १० + १५ + ३० + १५ + १० + ५ = ९० (३ मास) दिनों तक एक दिशा में वत्स रहता है, फिर दूसरी तीसरी और चौथी दिशाओं में भी इसी क्रम से वत्सस्थिति रहती है। स्पष्टतया ज्ञानार्थ निम्नांकित चक्र देखिए।
वत्सचार एवं तत्स्थिति बोधक चक्र
५ /
५ । १०
।
१५
।
३० । १५ । १०
कन्या, तुला, वृश्चिक
\५ | १० |१५ |३० १५ | १०
मिथुन, कर्क, सिंह
धनु, मकर, कुम्भ
३० १५ | १०
nahate
१० १५
/
१०
३०
। १५
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________________
मुहूर्तराज
[ २०१
इसी “वत्म को कतिपय आचार्य “वास्तु" इस नाम से भी व्यवह्त करते हैं। वत्सचार फल - {आ सि.)
संमुखोऽयं हरेदायुः, पृष्ठे स्याद्धननाशनः ।
वामदक्षिणयोः किं तु वत्सो वाञ्छितदायकः ।। अर्थ - यह वत्स यदि संमुखस्थ हो तो आयुष्य का हरण करता है और पृष्ठस्थ हो तो धन नाश करता है किन्तु वाम अथवा दक्षिण भाग में स्थित यह वत्स वाञ्छित सिद्धिकर्ता है। अन्यान्य आचार्यों ने वत्स की ही भांति सूर्यादि ग्रहों की भी दिगवस्थिति बतलाई है यथा -
मोनादित्रयमादित्यो वत्सः कन्यादिकत्रये ।
धन्वादित्रितये राहुः शेषाः सिंहादिकत्रये ॥ अर्थ - मीनादित्रिकानुसार सूर्य, कन्यादित्रयानुसार वत्स, धनु आदि त्रयानुसार राहु और शेष सभी ग्रह सिंहादियानुसार पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर दिशाओं में उपर्युक्त संक्रान्तित्रय क्रम से रहते हैं । इन सभी की दिशास्थिति बोधार्थ नीचे तीन चक्र दिए जा रहे हैं -
वत्सवत् अन्यगृह दिशावास्थितिबोधक चक्रत्रय ___ - रवि चार चक्र -
- राहु चार चक्र - - अन्य ग्रह चार ग्रह -
पूर्व
मीन, मेष, वृषभ
वृश्चिक
धनु, मकर, कुम्भ
९-१०-११/
सिह, कन्या, तुला/
५-६-७
धनु, मकर, कुम्भ
वृषभ, मिथुन, कर्क
कन्या, तुल
नु, मकर,
/
Hary Rhy
पश्चिम
t in पश्चिम
पश्चिम
शिवचार - (आ.सि.)
वास्तुप्रकरण से सम्बद्ध प्रत्येक दिशाओं में वत्सस्थिति की सूर्यसक्रान्त्यनुसार चर्चा करते समय कतिपय आचार्यों द्वारा मम्मत सूर्या दिग्रहों की भी सूर्यसंक्रान्त्यनुसार दिगवस्थिति की जिस प्रकार यहाँ प्रस्तुति की है वैसे ही प्रसंगोपात्त शिवचार के विषय में भी प्रसंगोपात्त चर्चा करना अयुक्त न होगा अत: शिवचार के सम्बन्ध में लेख है कि मेष राशि के सूर्य में एक मास तक प्रति दिवस उत्तर से लेकर दक्षिण क्रम से सभी दिशाओं में ||-२॥ घड़ी एवं विदिशाओं में ५-५ घड़ी तक शिव स्थिति रहती है। तत: वृष और मिथुन के सूर्य में दो मास पर्यन्त वायव्य से लेकर सभी दिशाओं एवं विदिशाओं में ऊपर लिखी
हुई घड़ियों के प्रमाण से शिवस्थिति हैं मेष के सूर्य में यह क्रम १ मास तक और वृष तथा मिथुन के सूर्य
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२०२]
[ मुहूर्तराज में २ मास तक यह क्रम चलता है। फिर कर्क में एक मास तक पश्चिम से लेकर आठो दिगविदिक में फिर सिंह-कन्या से सूर्य में २ मास तक यही क्रम रहता है। अहोरात्र की ६० घड़ियाँ प्रमाण हैं अतः एक अहोरात्र में शिव का आवर्तन २ बार होता है। शिव का आरम्भ उत्तरादि व्युत्क्रम दिशानुसार और भ्रमण क्रमानुसार ही रहता है। इसी आशय को लेकर लिखा गया है कि
मेषेऽर्कादुत्तरादौ दिशि विदिशि शिवो सासमेकं तथा द्वौ , संहत्या (व्युत्क्रमेण) संस्थितो द्विभ्रमिति भृशमहोरात्रमध्ये तु सृष्ट्या (क्रमेण) । अध्यर्धे नाडिके द्वे (२॥ घ.) दिशि विदिशि घटीपंचकं (५ घ) चैष तिष्ठन् , चन्द्रादेः प्रातिकूल्यम् हरति किरति शं दक्षिणपृष्ठगोऽसौ ॥
अर्थ - ऊपर लिख दिया गया है। यह शिव दाहिनी ओर तथा पीछे होने पर चन्द्रादि अर्थात् चन्द्र एवं ताराओं आदि की प्रतिकूलता का निवारण करके सुख देता है। शिवचार के फल
विवादे शत्रुहनने रणे झगटके तथा । द्यूते चैव प्रवासे वाऽ वामे पृष्ठे शिवे जयः । स्वराश्च शकुना दुष्टाः भद्राग्रहबलं तथा ।
दिग्दोषा योगिनी अभयाः स्युः शुभे शिवे ॥ __ अर्थ - विवाद, शत्रुमारण, युद्ध, झगड़ा, द्यूत (जुआ) और प्रवास इनमें यदि शिव दाहिनी ओर एवं पीठ पीछे स्थित हो तो विजय होती है।
विपरीत स्वर, दुष्ट शकुन, भद्र एवं ग्रहकृतदोष, दिग्दोष एवं योगिन्यादि दोष शिव के पृष्ठस्थ अथवा दक्षिणस्थ रहते शुभफलद होते हैं। अर्थात् विपरीत स्वर शकुनादि दोषप्रद नहीं होते।
कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। इसकी लीला का कोई भी पार नहीं पा सकता। शास्त्रकार कहते हैं कि जीव कर्मों के प्रभाव से कभी देव और मनुष्य, कभी नारक और कभी पशु, कभी क्षत्रिय और कभी ब्राह्मण, कभी वैश्य और कभी शूद्र हो जाता है। इस प्रकार नाना योनियों और विविध जातियों में उत्पन्न हो भिन्न-भित्र वेश धारण करता है और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मोदय से संसार में उत्तम, मध्यम, जघन्य, अधम अथवा अधमाधम अवस्थाओं का अनुभव करता रहता है। इसलिये कर्मों के वेग को हटाने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को क्षमासूर बन कर यथार्थ सत्यधर्म का अवलम्बन और उसके अनुसार आचरणों का परिपालन करना चाहिये, जिससे आत्मा की आशातीत प्रगति हो सके।
__ -श्री राजेन्द्रसूरि
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[२०३
मुहूर्तराज ] शिवचार के स्पष्टतया ज्ञानार्थ निम्नाकिंत सारणी देखिए
-सूर्यसंक्रान्तिपरत्व दिग् विदिक् स्थित शिवचार बोधार्थ सारणीसूर्यसंक्रान्ति
1 दिशा विदिशा में शिव स्थिति घटीमान ।
&
एवं
समय
मेष दिन
पश्चि.
रात्रि
दिन
|_ ___MM 31 MM
| वृष
रा.
दि
* د
पशि
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पूर्व
1 1
कर्क
*
रा.
*
दि.
२॥ ईश
*
पूर्व
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पू
ک
दिग्वि. घ. दि.वि. | घ. | दि.वि. दि.वि. | | दि.वि. | घ. | दि.वि. घ. | दि. विघ. | दि.वि घ. पूर्व | २॥ आग्नेय ५ दक्षि. २॥
|२॥ वाय. २॥ आग्नेय ५
दक्षि. २॥ द
|२॥ वाय. आग्नेय ५
५ | पश्चि . २॥ आग्नेय ५ दक्षि.
|५ | पश्चि. २॥ आग्नेय ५ दक्षि . |
|५ | पश्चि . आग्नेय ५ दक्षि. |२॥ | ५ पश्चि .
आग्नेय ५ | २॥ ईशान
आग्नेय ५ उत्तर
आग्नेय ५ उत्तर २॥ ईशान
२॥ आग्नेय ५ उत्तर २॥ ईशान
२॥ आग्नेय ५ |५ उत्तर २॥ ईशान
|२॥ आग्नेय ५ दक्षि | २॥ वाय.
ईशान ५ | पूर्व । पश्चि. २॥ वाय.
ईशान ५ | पूर्व २॥ |५ पश्चि
२॥ वाय. उत्तर २॥ईशान ५ [५ पश्चि २॥ वाय.
२॥ ईशान २॥ वाय.
२॥ ईशान |२॥ वाय.
२॥ ईशान ५ पश्चि.
उत्तर २॥ ईशान| दक्षि.| २॥
वाय.
२॥ ईशान |५ | दक्षि.
पश्चि . |२॥ वाय.
पश्चि. |२॥ वाय. दक्षि.
पश्चि. |२॥ वाय.
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।
.
उपर्युक्त सारणी से शिव की दिग्विदिक् स्थिति का घटीमान ज्ञात किया जा सकता है। अब नीचे एक और सारणी दी जा रही है जिसमें संक्रान्त्यनुसार दिग्विदिक् में स्थित शिव के रहते सिद्धिदायक गन्तव्य दिशा विदिशाओं का एवं दिवस रात्रि के घंटों का ज्ञान हो सकेगा।
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२०४]
[ मुहूर्तराज
क्र.सं.
दिग्विदिक्
दिग्विदिक
TET HTET
-अथ संक्रान्त्यनुसार शिवस्थिति से गन्तव्य सिद्धिदिग्विदग् बोध सारणी
संक्रान्त्यनुसार शिवस्थिति एवं तदनुकूल गन्तव्य दिशा विदिशाएं - सूर्यसक्रांति|१ + । २ + | १ + | २ + । १ + |२ + | १ + |२४ |२-२४ घन्टे→ बजे-बजेत| ब.-ब. | ब.-ब. | ब.-ब. | ब.-ब. ब.-ब. ब.-ब. ब.-ब. प्रातः से
६-७ ७-९ । ९-१० १०-१२ १२-१ | १-३ | ३-४ ।।
उत्तर ईशान | पूर्व. | आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम वायव्य |_- शि.स्थि. सांय तक तथा
| गन्तव्य सांय से प्रातः
- दिग् पा. प. उ. वा. ई. उ. पू. ई. | आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै. | विदिक् नै. द. प. नै.| वा. प. उ. वा. ई. उ. पू. ई. आ. पू. द. आ.] | पश्चिम | वायव्य| उत्तर | ईशान | पूर्व आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | शि.स्थि. नै. द. प. नै. | वा. प. उ. वा. ई. उ. पू. ई. आ. पू. द. आ. | ग. दि. वि.
आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै. | वा. प. उ. वा. ई. उ. | पू. ई. - - दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम | वायव्य | उत्तर | ईशान | पूर्व आग्नेया-शि.स्थि.
आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै.| वा. प. उ. वा. ई. उ. पू. ई. ग. दि. वि.
| पू. ई.| आ. पू. द. आ. नै. द. | प. नै. | वा. प. | उ. वा. | 7 | पूर्व आग्नेय दक्षिणा नैऋत्य पश्चिम वायव्य | उत्तर ईशान |- शि.स्थि.
पू. ई. आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै. वा. प. उ. वा. ग. दि. वि. वा. प. उ. वा. ई. उ. पू. ई. | आ. पू. द. आ. नै. उ. प. नै. - |६-८ ८-९ | ९-११, ११-१३ १२-२ | २-३ | ३-५ ५-६x२, २४
वायव्य | उत्तर | ईशान | पूर्व आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम |– शि. स्थि. वृष दि. | प. नै. | वा. प. उ. वा. ई. उ. पू. आ. | आ. पू. द. आ. | नै. द. | गन्तव्य
|द. आ. | नै. द. प. नै.| वा. प. उ. वा. | ई. उ. | पू. ई. आ. पू./- दिग्
द. आ. | नै. द. प. नै. वा. प. उ. वा.ई. उ. पू. ई. आ. पू. विदिक् नैऋत्य पश्चिम वायव्य उत्तर ईशान | पूर्व आग्नेय दक्षिण - शि.स्थि.
दिग्विदिक् में
दिग्विदिक में
|दिनवरात्रि दिग्विदिक
दिग्विदिक
द. आ. | नै. द. प. नै.] वा. प. उ. वा. | ई. उ. पू. ई. आ. पू. पू. ई. आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै. वा. प. उ. वा.ई. उ.
| आ. पू. द. आ. नै. द. | प. नै. | वा. प. उ. वा.ई. उ. | आग्नेय | दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम वायव्य | उत्तर | ईशान | पूर्व
गन्तव्य - दिग्
विदिक् - शि.स्थि.
दिग्विदिक्
पू. ई. आ. पू. द. आ. नै. द. | प. नै. | वा. प. उ. वा. | ई. उ. उ. वा. | ई. उ. | पू. ई. | आ. पू. द. आ. | नै. द. प. नै. वा. प. | उ. वा. | ई. उ. पू. ई. आ. पू. द. आ. नै. द. प. नै. वा. प. ईशान | पूर्व | आग्नेय, दक्षिण | नैऋत्य | पश्चिम | वायव्य | उत्तर
गन्तव्य दिग्
विदिक् - शि.स्थि.
दिग्विदिक
उ. वा. | ई. उ.
पू. ई. ]
आ. पू. द. आ. | नै. द. | प. नै. | वा. प. |
गन्तव्य - विदिक्
प. नै. | वा. प. उ. वा. ई. उ. | पू. ई. | आ. पू. द. आ. नै. द. |
दिग्
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मुहूर्तराज ]
हारम्भ में लग्नबल - ( श्रीपति)
कर्मस्थितैर्वीर्ययुतैश्य पापैस्त्रिषष्ठायगतैः वदन्ति निर्माणमिहाष्टमस्थः
द्वय स्थिरे वा भवने विलग्ने, सौभ्यग्रहैर्युक्त निरीक्षिते वा । सौम्यैर्निमाणमाहुर्भवनस्य सन्तः ॥ त्रिकोणकेन्द्राश्रितैः साधुभिरालयस्य । क्रूरस्तु कतुर्मरणं करोति ॥
अन्यय
द्वयङ्गे (द्विस्वभावराशिषु) मिथुन कन्या धनु मीनेषु अथवा स्थिरे (सिंह वृष वृश्चिक कुंभेषु) भवने राशौ विलग्ने (लग्नगते ) सौम्यग्रहैः युक्तनिरीक्षिते वा (सौम्यग्रहाः लग्नेऽथवा तेषां दृष्टि लग्ने) वीर्ययुतैः बलयुक्तैः सौम्येः (शुभैग्रहैः) कर्मस्थिते (दशमभावगते ) सन्तः ( दैवज्ञाः) भवनस्य निर्माणमाहुः ।
-
पापैः (पापग्रहैः) त्रिषष्ठायगतैः (तृतीयषष्ठैकादशस्थानस्थितैः) साधुभिः (शुभग्रहैः) केन्द्र त्रिकोणाश्रितैः (१, ४, ७, १०, ९, ५ स्थानस्थितैः ) आलयस्य निर्माणं सन्तः वदन्ति । गृहारम्भकाल - कुण्डल्याम् अष्टमस्थः क्रूरः ( कश्चिदपि पापग्रहः ) कर्तुः (गृहस्वामिनः) मरणं करोति ।
अर्थ - द्विस्वभाव ( ३, ६, ९, १२ राशियाँ) अथवा स्थिरसंज्ञक (२, ५, ८, ११) राशियाँ लग्न में हों इन्हें शुभग्रह देखते हों या इनके साथ शुभग्रह भी लग्न हों और बलवान् शुभग्रह दशमस्थान में हों ऐसे समय में भवननिर्माण करना चाहिए ऐसा ज्योतिर्विदों का मत है ।
तथा च
तथा च पापग्रह ३, ६ एवं ११ वें स्थान में हों सौम्यग्रह १, ४, ७, १०, ९ और ५ वें स्थान में हों उस समय भवन निर्माण करना शुभ है ऐसा आचार्यों का मत है। गेहारम्भ लग्नकुण्डली में अष्टमस्थान में स्थित क्रूर ग्रह गृहपति का मरणकारी है ।
गेहारम्भ लग्न के विषय में- ( आ.सि.)
-
अर्थ चर राशि से अन्यत्र राशि अर्थात् स्थिर या द्विस्वभाव राशि का लग्न हो तथा चन्द्र भी चर से अन्यत्र (स्थिर या द्विस्वभाव में) स्थित हो, तथा ये दोनों लग्न और चन्द्र शुभग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों, तथा सौम्यग्रह दशम स्थान में हो, उस समय गेहारम्भ शुभकारक होता है ।
[ २०५
चरादन्यत्र लग्नेन्द्वोः शुभैः संयुक्तदृष्टयों । कर्मस्थितेषु सौम्येषु गेहारंभः प्रशस्यते ॥
केन्द्रत्रिकोणगैः सौम्येः क्रूरैः शत्रुत्रिलाभगैः । शुभाय भवनारम्भोऽष्टमः क्रूरस्तु मृत्यवे ॥
अर्थ - व्याख्यान है।
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२०६ ]
[ मुहूर्तराज गेहारम्भ में कुछ विशेष- (दैवज्ञ वल्लभ में)
गुरुर्लग्ने जले शुक्रः स्मरेज्ञः सहजे कुजः । रिषौ भानुर्यदा वर्षशतायुः स्याद्गृहं तदा ॥ सितो लग्ने गुरुकेन्द्रे रवे बुधो रविरायगः । निवेशे यस्य तस्यायुः वेश्मनः शरदां शतम् । स्वः चन्द्रे विलग्नस्थ जीवे कंटकवर्तिनि ।
भवेल्लक्ष्मीयुते धाम्नि भूरिकालमवस्थितिः ॥ __ अर्थ - गेहारम्भ के समय के लग्न में गुरु हो, जल (दशम स्थान) में शुक्र हो, स्तर (सप्तम स्थान) में बुध हो सहज (तृतीय) में मंगल हो और सूर्य रिपु (षष्ठ स्थान) में हो तो वह घर सौ वर्षों की आयुवाला होता है।
लग्न में शुक्र, केन्द्र में गुरु, दशम में बुध, लाभ (११ वें) में सूर्य जिस घर के आरम्भकाल की लग्नकुण्डली में हों उस घर की आयु सौ वर्षों की होती है।
चन्द्र स्वनक्षत्रीय होकर लग्न में हों, गुरु कंटक (१, ४, ७, १०) स्थानों में हो तो वह घर लक्ष्मीयुक्त रहता है एवं उसमें चिरकाल तक निवास रहता है। वह सूना नहीं रहता। बलवद्लग्न में प्रारब्ध घरों की आयु- (मु.चि.वा.प्र.श्लो. २२ वाँ)
जीवार्कविच्छुक्रशनैश्चरेषु लग्नारिजामित्रसुखत्रिगेषु ।
स्थितिः शतं स्याच्छरदां सित्ताक्ररिज्ये तनुत्र्यङ्गसुते शतं द्वे ॥ अन्वय - अत्र दीर्घायुगेहयोगद्वयम्, यथा लग्नारिजामित्रसुखत्रिगेषु जीवार्क विच्छुक्रशनैश्चरेषु सत्सु अर्थात् लग्ने जीवे, षष्ठेऽर्के, सप्तमे विदि (बुधे) चतुर्थे शुक्रे, तृतीये च शनैश्चरे एवं विधायां गेहारम्भकुण्डल्यां सत्यां यस्य गेहस्यारम्भः तस्य स्थितिः शरदां (वर्षाणाम्) शतं स्यात (तद्गृहं शतायुभवेत्) अथ तनुत्र्यङ्गसुते (लग्नतृतीयषष्ठपंचमस्थानेषु) सिताकरिज्ये (शुक्रसूर्ये भौमगुरुषु स्थितेषु) अर्थात् लग्ने शुक्रे स्थिते, तृतीये रवौ स्थिते, षष्ठे भौमे स्थिते पञ्चमे च गुरौ स्थिते एवं विधे योगे प्रारब्धस्य गृहस्य आयुः शतद्वयवर्षप्रमाणं स्यात्।
अर्थ - यहाँ दीर्घकाल तक स्थित रहने वाले घरों के दो योग बतलाये हैं पहला-यदि लग्न में गुरु हो, छठे सूर्य हो, सातवें बुध हों, चौथे शुक्र हो और तीसरे स्थान में शनि हो- ऐसा योग हो तो उस योग में प्रारब्ध गृह की आयु १०० वर्षों की होती है। दूसरा-लग्न में शुक्र, तीसरे स्थान में सूर्य, छठे स्थान में मंगल और पाँचवें स्थान में गुरु हो-ऐसे योग में प्रारम्भ किये गये घर की आये २०० वर्षों की होती है।
लक्ष्मीयुक्त गृहों के तीन योग- (मु.चि.वा.प्र. श्लो. २४ वाँ)
स्वोच्चे शुक्रे लग्नगे वा, गुरौ वेश्मगतेऽथवा ।
शनौ स्वोच्चे लाभगे वा लक्ष्या युक्तं चिरम् गृहम् ।
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मुहूर्तराज ]
[ २०७
अन्वय - स्वोच्चे (मीनस्थे) शुक्रे लग्नगे (लग्नस्थिते ) गृहं चिरं लक्ष्म्या युक्तं भवति । अथवा गुरौ स्वोच्चे (कर्कराशिस्थे) वेश्मगथेऽपि गृहं चिरं लक्ष्मीयुक्तं स्यात् तथैव स्वोच्चे ( तुलास्थिते ) शनौ लाभगे ( एकादशस्थान) गतेऽपि प्रारब्धं गृहं लक्ष्म्या युक्तम् भवेत् ।
अर्थ- मीन राशि का शुक्र यदि लग्न में हो, अथवा कर्क का गुरु यदि चतुर्थ भाव में हो अथवा तुला का शनि यदि एकादश स्थान में हो तो ऐसे ३ योगों में प्रारम्भ किया गया घर बहुत समय तक हर प्रकार से लक्ष्मी युक्त होता है ।
नक्षत्र एवं वारयोग से प्रारब्ध शुभगृह के दो योग - (मु.चि.वा.प्र. श्लो २६ )
सजीवै:
अन्वय
पुष्यध्रुवेन्दुहरिसर्पजलैः (पुष्योत्तरात्रयरोहिणीमृगशिरः श्रवणाश्लेषा पूर्वाषाढानक्षत्रैः) सजीवैः (गुरुयुक्तैः ) तद्वासरेण च कृतं गृहं सुतराज्यदंस्यात् (सुतान् ददाति राज्यं च ददाति ) तथा च द्वीशाश्वितक्षिवसु पाशिशिवैः (विशाखाश्विनीचित्राधनिष्ठाशतताराद्रनिक्षत्रैः ) सशुक्रः शुक्रयुक्तैः सितस्य च वारे (शुक्रवारे) कृतं गृहं धनधान्यदं स्यात्।
पुष्यध्रुवेन्दुहरिसर्पजलैः
"
तद्वासरेण च कृतं सुतराज्यदं स्यात् । द्वीशाश्वितक्षिवसुपाशिशिवैः सशुक्रैः
वारे सितस्य च गृहं धनधान्यदं स्यात् ॥
अर्थ - पुष्य, उत्तरात्रय, मृगशिर, श्रवण, आश्लेषा और पूर्वाषाढा इन नक्षत्रों में किसी पर गुरु हो, उस नक्षत्र के दिन और साथ में गुरुवार भी हो ऐसे योग में प्रारब्ध गृह पुत्र एवं राज्यप्रद होता है।
तथा च विशाखा, अश्विनी, चित्रा, धनिष्ठा शततारा और आर्द्रा इन नक्षत्रों में किसी पर भी शुक्र हो, इनमें किसी भी नक्षत्र के दिन और उस दिन शुक्रवार भी हो, ऐसे योग में प्रारम्भ किया गया घर धन और धान्य से परिपूर्ण रहता है।
इसी विषय में वसिष्ठ
-
अर्थ
नारद मत में कुछ विशेष
इज्योत्तरात्रयाहीन्दुविष्णुधातृजलोडुषु
1
गुरुणा सहितेष्वेषु कृतं गेहम् श्रिया युतम् ॥
व्याख्या त ही है।
श्रवणाषाढयोश्चैव रोहिण्यां चोत्तरात्रये । गुरुवारे कृतं वेश्म राजयोग्यमिहोच्यते ॥
अर्थात् - श्रवण पूर्वाषाढ़ा रोहिणी और तीनों उत्तरा जबकि उस दिन गुरुवार हो ऐसे योग में प्रारब्ध गृह राजा के निवास योग्य होता है और उस घर में उत्पन्न पुत्र को राज्य प्राप्ति होती है । यथा “ तद्गृहे जातपुत्रस्य राज्यं भवति निश्चयात् " (नारद)
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२०८ ]
[ मुहूर्तराज __इसी प्रकार और कतिपय नक्षत्रों के साथ शुक्रवार के योग से प्रारम्भ किए गये भवनादि के विषय में भी नारद वाक्य देखिए
अश्विनी शततारासु विशाखा भाद्र चित्रके । धनिष्ठादितिसंयुक्ते तथा वै शक्रवासरे । गृहं नाटकशालाख्यं देवागारं कृतं शुभम् ।
तद्वेश्मनि प्रजातस्तु कुबेरसदृशो भवेत् ॥ अश्विनी, शतमिषक्, विशाखा, पू. भाद्रपद, चित्रा, धनिष्ठा और पुनर्वसु इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र और साथ में शुक्रवार के योग होने पर प्रारब्ध गृह, नाटकशाला और देवालय शुभावह होते हैं और वहाँ जिसका जन्म हो वह जातक कुबेर के समान भाग्यसम्पन्न होता है।
इस लग्नबल, नक्षत्र एवं वार योग से प्रारब्ध गृहादिकों की शुभावहता एवं सम्पन्नता के विषय में ऊपर विस्तृत विवेचन किया गया है अब कतिपय भवनारम्भ के अशुभफलदायी योगों का विवरण दिया जा रहा है यथागृहारम्भ में अनिष्टप्रद योग-(मु.चि.वा.प्र. श्लो. २७ वाँ)
"सारेः करेज्यान्त्यमघाम्बुमूलैः कौजेऽह्नि वेश्माग्निसुतार्तिदं स्यात्" अर्थात्- हस्त, पुष्य, रेवती, मघा, पूर्वाषाढा और मूल इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र पर मंगल हो उस नक्षत्र और मंगलवार के दिन अथवा इन नक्षत्रों में मंगल ग्रहाभाव में उक्त नक्षत्रों के साथ केवल यदि मंगलवार भी हो तो भी ऐसे योग में प्रारब्ध गृह में अग्नि पीड़ा एवं पुत्र को भी कष्ट होता है। और भी अशुभद योग-(मु.चि.वा.प्र.श्लो. २८ वाँ)
अजैकपादहिर्बुध्यशक्रमित्रानिलान्तकैः ।
समन्दैर्मन्दवारे स्याद् रक्षोभूतयुतं गृहम् ॥ अर्थात्- पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, ज्येष्ठा, अनुराधा, स्वाती और भरणी इन नक्षत्रों में यदि किसी पर भी शनिग्रह हो और उस दिन इन नक्षत्रों में से किसी के भी साथ शनिवार हो अथवा उक्त नक्षत्रों पर शनि न भी हो केवलमात्र उक्त नक्षत्र दिन शनिवार ही हो तो भी प्रारब्ध गृह राक्षसों और भूतों के ही निवास योग्य होता है अर्थात् उस घर में राक्षस और भूत ही रहते हैं। गृहारम्भ में अशुभकारक नीच निर्बल एवं अस्तगत चन्द्रादि-(दैव.व.)
गृहिणीन्दौ गृहस्थोऽर्के गुरौ सौख्यं सिते धनम् ।
विबले नाशमोयाति नीचगेऽस्तंगतेऽपि च ॥ अर्थात्- गृहारम्भ के समय यदि चन्द्र निर्बल नीच या अस्त हो तो गृहिणी का, यदि सूर्य निर्बल नीचादि हो तो गृहपति का, गुरु निर्बल नीच या अस्त हो तो सुख का और यदि शुक्र निर्बल नीच या अस्त हो तो धन का नाश होता है।
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मुहूर्तराज ]
[२०९ इस प्रकार गृहारम्भ के लिए विस्तृतरूपेण बतलाने के उपरान्त भवन बनवाते समय भवन के विभिन्न प्रकोष्ठों को कौनसी दिशा में बनवाना चाहिए और गृह कूप किस दिशा में खुदवाना शुभ है इस विषय में बतलाया जा रहा है-प्रथमतः गृह कूप के विषय में
गृहकूप की दिशानुसार स्थिति के फल-(मु.चि.वा.प्र. श्लो. २० वाँ)
कूपे वास्तोर्मध्यदेशेऽर्थशस्त्वैशान्यादौ पुष्टिरैश्वर्य वृद्धिः । सूनो शः स्त्रीविनाशो मृतिश्च सम्पत्पीडा शत्रुतः स्याच्य सौख्यम् ॥
अन्वय :- वास्तोः (गृहस्य) मध्यदेशे (मध्यभागे) कूपे कृते अर्थनाश: स्यात् अथ ऐशान्यादौ (ईशानत आरम्भ उत्तरं यावत् अष्टसु दिक्षु) क्रमशः पुष्टिः, ऐश्वर्यवृद्धिः, सूनो शः, स्त्रीविनाशः, मृतिः, सम्पत शत्रुनः, पीडा, सौख्यं च स्यात् ।
अर्थ :- भवन के मध्यभाग में कूपखनन से अर्थनाश, ईशान में कूपखनन से पुष्टि, पूर्व में ऐश्वर्य वृद्धि, अग्निकोण में खनन से पुत्रनाश, दक्षिण में कूपखनन से स्त्रीविनाश, नैऋत्य में वैसा करने पर मृत्यु पश्चिम में कूपखनन से सम्पत् (धनप्राप्ति) वायव्य में खनन से शत्रु की ओर से पीड़ा और उत्तर में कूप खनन से सुखप्राप्ति इत्यादि फल प्राप्त होते हैं।
- गृहकूप की उपयुक्तानययुक्तदिशाएँ एवं तत्फल सारणी -
ईशान
० पुष्टि
आग्नेय ० पुत्रनाश
० ऐश्वर्यवृद्धि
उत्तर
० सौख्य
मध्यभाग
० वित्तनाश
दक्षिण ० स्त्रीनाश
नैर्ऋत्यु
वायव्य
• शत्रुपीडा
पश्चिम
० सम्पत्तिलाभ
० मृत्यु
भवन में अन्यान्य प्रकोष्ठों की दिग्विदिग्-(मु.चि.वा.प्र. श्लो. २१ वाँ)
स्नानाग्नि कशयनास्त्रभुजश्च धान्यभाण्डार दैवतगृहाणि च पूर्वतः स्युः । तन्मध्यतस्तु मथनाज्यपुरीषविद्या , भ्यासाख्यरोदनरतौषध सर्वधाम
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२१० ]
[ मुहूर्तराज अन्वय :- पूर्वतः पूर्वाद्यष्टसु दिशाविदिशासु क्रमेण स्नानाग्निपाक शयनास्त्रभुजश्च धान्यभण्डारदैवत गृहाणि स्युः। तन्मध्यत: दिशाविदिशयोः मध्ये क्रमशः मथनाज्यपुरीषविद्याभ्यासाख्यरोदनरतौ षधसर्वधाम स्यात्।
अर्थ :- पूर्वादिक आठों दिशाविदिशाओं में क्रमश: स्नानगृह, पाकगृह, शयनगृह, शस्त्रगृह, भोजनगृह, धान्यसंग्रहगृह, भण्डारगृह और देवगृह आदि प्रकोष्ठ भवन में बनवाने चाहिए। तथा इन प्रकोष्ठों के मध्य-मध्य आठ और प्रकोष्ठ बनवाने चाहिए वे इस प्रकार हैं-पूर्व और आग्नेय के मध्य में दही मथन का गृह, आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घृतगृह, दक्षिण और नैर्ऋत्य के मध्य में विष्ठात्यागगृह (शौचालय) नैर्ऋत्य
और पश्चिम के मध्य में विद्याभ्यासगृह, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदनगृह, वायव्य और उत्तर के मध्य में रतिगृह (संभोगगृह) उत्तर और ईशान के मध्य में औषधगृह और ईशान और पूर्व के मध्य में ऊपर कही गई वस्तुओं से अतिरिक्त वस्तुओं का गृह।
- भवनमध्यगत अन्यान्य प्रकोष्ठों का दिशाविदिशानुसार मानचित्रईशान पूर्व
आग्नेय
देवगृह
अन्य अवशिष्ट वस्तु भण्डार
स्नानागार
दही मथने का गृह | रसोईगृह
औषध भण्डार
घृत भण्डार
उत्तर
भण्डार गृह
शयनगृह
| दक्षिण
रतिगृह
शौचालय
वायव्य | धान्यसंग्रहगृह
रोदनगृह
भोजनगृह
विद्याभ्यासगृह
शस्त्रगृह
नैऋत्य
पश्चिम
भवनारम्भ के लिये जो नक्षत्रादि एवं पंचांगशुद्धि आदि की बातें कही गई हैं उन सभी को प्रासाद वापी और कूपादि निर्माण के समय में विचारना चाहिए जैसा कि विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है
"प्रासादेष्वेवमेव स्याद् वापीकूपेषु चैव हि"
भवनारम्भ मुहूर्त के उपरान्त जब भवन निर्माण होने लगता है तब भवनों में द्वार निवेश के लिए भी दिनशुद्धि लग्नशुद्धि आदि तो विचारणीय होते ही हैं पर साथ ही द्वार चक्र जो कि सूर्याक्रान्त नक्षत्र से चन्द्राक्रान्त नक्षत्र तक गणना संख्या से सम्बन्ध है, विचारा जाता है। अत: सर्वप्रथम द्वारचक्र के विषय में प्रस्तुत है
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मुहूर्तराज 1
द्वारचक्र एवं उसका फल -( न - (मु.चि.वा.
प्र. श्लो. २९ वाँ )
सूर्यद् ियुगभैः शिरस्यथ फलं लक्ष्मीत्रस्ततः कोणभैः । नागैरुवसनं ततो गजमितैः शाखासु सौख्यं भवेत् देहल्यां गुणभैः मृतिर्गृहपतेः मध्यस्थितैः वेदभैः सौख्यं चक्रमिदं विलोक्य सुधिया द्वारं विधेयं शुभम् ॥
"
अन्वय :- सूर्यक्षति (सूर्यनक्षत्रात्) युगभै: (चतुर्नक्षत्रैः) शिरसि (स्थितैः ) लक्ष्मी: (लक्ष्मीप्राप्ति:) फलं स्यात्। ततः नागैः कोणभैः (द्वारकोणस्थितैः नक्षत्रैः) उद्वसनम् (निवासशून्यता) फलम् भवेत् । ततः गजमितैः (अष्टाभिः) नक्षत्रैः शाखासु (ऊर्ध्वाधः पार्श्वगतचतुः शाखासु स्थितैः) सौख्यं भवेत् । ततो गुणभैः (त्रिनक्षत्रैः) देहल्यां स्थितैः गृहपतेः मृत्युः स्यात् ततोवेदभैः चतुभिर्नक्षत्रैः मध्यस्थितै (द्वारमध्यावकाशे स्थितैः) सौख्यं भवेत्।
अर्थ :- जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से जिस द्वार बैठाना है उस दिन के चन्द्रनक्षत्र तक गणना करने पर १-४ तक की संख्या के नक्षत्र द्वार की ऊपरी शाखा के ऊपर मस्तक पर रहते हैं, जिनका फल गृहपति को लक्ष्मीप्राप्ति रूप में मिलता है । ततः चारों द्वार कोणों पर दो-दो नक्षत्रों के गणनानुसार ८ नक्षत्र रहते हैं इनमें द्वार चौखट बैठाने से वह भवन जनवास शून्य रहता है । ततः ८ नक्षत्र द्वार की चारों शाखाओं में दो-दो की गणनानुसार ८ नक्षत्र रहते हैं जिनमें द्वार निवेश का फल सुखप्राप्ति है ततः ३ नक्षत्र द्वार की देहली के नीचे रहते हैं जिनका फल गृहपति की मृत्यु है । ततः अविष्ट ४ नक्षत्र द्वार मध्यभाग में रहते हैं जिनमें चौखट बैठाने पर गृहस्वामी को सुखप्राप्ति होती है। स्पष्टतया ज्ञानार्थ एक सारणी तथा एक द्वार मानचित्र दिया जा रहा है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह जैन शास्त्रकारों ने इनको पाँच महाव्रतों के नाम से और अजैनशास्त्रकारों ने इनको पांच यम के नाम से बोधित किये हैं। इनको यथावत् परिपालन करने से धर्म, देश और राष्ट्र में अपूर्व शान्ति और सुख-समृद्धि स्थिर रहती हैं। ये बातें मनुष्य मात्र को अपने उत्थान के लिये अति आवश्यक है, जिससे पारस्परिक वैरसम्बन्ध समूल नष्ट होकर मनुष्य निःसंदेह सुगतिपात्र बन जाता है ।
[ २११
- श्री राजेन्द्रसूरि
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[ मुहूर्तराज
२१२ ] सूर्य नक्षत्र से
-द्वारांगों पर स्थित चन्द्रनक्षत्र संख्या एवं तत्शुभाशुभफल बोध सारणी
| द्वारांग | सूर्यनक्षत्र →
| अ.भ. | कृ. रो.
चन्द्रनक्षत्र म. आ. पु. पु. | आ. म. | पू. उ. | ह. | चि. स्वा. वि. अ. ज्ये. मू. पू.
उ. श्र. | घ.
श.
|म. कृ. रो.
म. | आ. पु.| पु.] आ.
. वि. अ. ज्ये
| उ.
श्र.
घ.
श.
मस्तक पर
४ म. कृ. रो. मृ. आ. पु. पु. आ. म. पू. | उ. ह. चि. स्वा. वि. अ. |ज्ये मू. पू.
श.
पू.
في
| ह. चि. | स्वा, वि. अ. | ज्ये. मू. पू.
भा. भा. | रो. | मृ.| आपु.पु. आ. |
|चि.स्वा.| वि अ.] ज्ये, मू. पू. उ. श्र.ध. श. पू. इ. र. अ.भ. | कृ.
पा. पा. मृ. | आ. पु.पु. आ. म. ह. | चि. स्वा. वि. अ.| ज्ये, मू. पू. उ. श्र. |ध. श. पू.| उ. | रे.अ. भ. कृ. |
भा. भा. | आ. पु. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा, वि. अ. ज्ये. मू.
अ.म. कृ. रो.| मृ. . चि. | स्वा, वि. अ. ज्ये.
रे. | अ.म. कृ. | रो. म. | आ.
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A
स्वा, वि. अ. | ज्ये
रे.
भ. कृ.
रो. म. आ. | पु.
कोणों पर
अ.
भ. कृ.
रो. म. आ. | पु.]
चि. स्वा वि. अ.
| अ.
कृ.| रो मृ.| आपु.| पू. आ.
| चि. स्वा. वि. अ. ज्ये, मू.
रि.
अ.म. कृ. रो. म. आ.पु. पु. | आ
म.
स्वा, वि. अ. ज्ये. मू.
म. कृ. रो. मृ. आ. पु. पु. आ. |
१४ | शुभ
चि. स्वा. वि. अ. | ज्ये.
अ. भ. कृ. | रो. म. आ. पु. पु.| आम.
|स्वा, वि. अ. ज्ये. मू.
|घ. | श.
अ. म. कृ. गे, म. आ. पु. | पु. आ. म. पू.
वि.अ. ज्ये.
चि. स्वा.
#
चि. स्वा, वि. अ.
__4 शाखाओं पर
FFER
ह. चि. स्वा. वि. अ.
HE
आ. भ. कृ. रो. म. | आ. पु. पु. आ. म. पू.
ह. चि. स्वा. वि. | अ. ज्ये.
शेष सारणी अगले पृष्ठ पर
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मुहूर्तराज ]
२१३
पिछले पृष्ठ की सारणी का शेष - |२१ अशुभ 3. श्र ध. श. ५. उ. रे. अ. भ. क. रा.म. आ. प. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू.
२२३ श्र ध, श. पू. उ. रे. अ. भ. कृ. रो. म. आ. पु. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ.
फा. फा. ध. श. पू. उ.रे. अ. भ. कृ. रो. म. आ.पु. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ. श्र. अशभभा . भा.
मममम
देहली
mo
मध्यावकाश में
पू. उ.रे. अ. भ. कृ. रो. म. आ. पु. पु.आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ. श्र.ध.
फा.फा. पू. उ. | रे अ.भ. कृ. रो. मृ. आ.पु. पु. आ.म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ. श्र. ध. श.
षा. षा उ. रे अभ. करो म. आ.पु. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ. श्र. ध. श. पू.
भA
का
रे. अ.भ क. रो. म. आ. पु. पु. आ. म. पू. उ. ह. चि. स्वा वि. अ. ज्ये मू. पू. उ. श्र.ध. श. पू. उ.
षा.षा.
भा. भा.
॥अंगाधिष्ठित नक्षत्रवशात् शुभाशुभ फलसूचक द्वारमानचित्र॥
सूर्यनक्षत्र-चन्द्रनक्षत्र मस्तकपर १-४ चौथा (लक्ष्मीप्राप्ति)
कोण
शाखा
कोण
गन्यता
१३-१४ वाँ
सौख्य)
शून्यता
शाखा
१९-२० वाँ (सौख्य
मध्यावकाश २४-२७ वाँ सौख्य)
१५-१६ वाँ (सौख्य)
शाखा
सौख्या
शुन्यता
१७-१८.वाँ
शून्यता ७-८ वाँ
शाखा
कोण
कोण
देहली २१-२३ वाँ (मृत्यु)
-or-
mate-i-Poronel--e-Daily
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२१४ ]
[ मुहूर्तराज
ग्रन्थान्तर में द्वार चक्र-(ज्योतिर्निबन्धे)
द्वारचक्रं प्रवक्ष्यामि भाषितं विश्वकर्मणा । सूर्यभाद् भचतुष्कं तु शिरस्योपरि विन्यसेत् ॥ द्वे द्वे कोणे प्रदातव्ये, शाखायुग्मे द्वयम् द्वयम् । अधश्च त्रीणिदेयानि वेदा मध्ये प्रतिष्ठिताः । राज्यं स्यादूर्ध्वनक्षत्रे कोणेषूद्वासनं भवेत् । शाखायां लभते लक्ष्मीमधश्चैव मृतिर्भवेत् । मध्यमेषु भवेत्सौख्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः ॥
अर्थ :- “सूर्यक्षत्”ि श्लोक के तुल्य ही है।
इस प्रकार विस्तारपूर्वक द्वारचक्र के विषय में चर्चा के पश्चात् जिन-जिन चन्द्रनक्षत्रों में द्वारशाखावरोपण करना चाहिए उन्हें बतला रहे हैं
द्वारशाखास्थापन नक्षत्र-(मु.प्र.)
पुष्यश्रुतिमृगे हस्ते चाश्विन्युत्तरयोर्वरम् । स्वातौ पूष्णि च रोहिण्यां द्वारशाखावरोपणम्
अर्थ :- पुष्य, स्वाती, मृग, श्रवण, हस्त, अश्विनी, तीनों उत्तरा, रेवती और रोहिणी इन नक्षत्रों में द्वारशाखाएँ बैठानी चाहिएँ।।
उपर्युक्त नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र के दिन द्वारशाखा बैठाना उपयुक्त है परन्तु द्वारागों का विचार कर के ही उस नक्षत्र में द्वारशाखा अवरोपण करना चाहिए। जैसे कि अश्विनी नक्षत्र द्वारस्थापना के लिए ग्राह्य नक्षत्र है। यदि सूर्य भी अश्विनी नक्षत्र पर हो तो यह अश्विनी नक्षत्र सूर्य नक्षत्र से प्रथम क्रमांक का होने ये शुभ है पर यदि सूर्य महानक्षत्र शतभिषक् हो तो अश्विनी नक्षत्र शतभिषा से गणना करने पर पाँचवें क्रमांक पर आने से उसकी स्थिति द्वारकोण पर होने से शुभावह नहीं।
द्वारशाखावरोपण निमित्त जो दो नक्षत्र ग्राह्य है, वे भी सूर्यमहानक्षत्र से गणितवशात् द्वार के कोणों एवं देहली में स्थित होने पर अग्राह्य हो जाते हैं, केवल मस्तक, शाखाओं और मध्यावकाश में स्थित होने पर ही ग्राह्य होते हैं। एतद् ज्ञानार्थ भी हम नीचे एक सारणी देंगे जिससे इन द्वारशाखा नक्षत्रों की सूर्यनक्षत्रवशात् ग्राह्याग्राह्यता भलीभाँति ज्ञात की जा सकेगी।
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[२१५
मुहूर्तराज ]
-अथ द्वारशाखाविहित चन्द्रनक्षत्रों की भी सूर्यनक्षत्र परत्व ग्राह्यग्राह्यता बोध सारणी
क्र.सं. सूर्य नक्षत्र
ग्राह्य-चन्द्र-नक्षत्र
अग्राह्य-चन्द्र-नक्षत्र
पुष्य
श्रवण | उ. फा.उ.षा.
अश्वि. रोहि. | हस्त स्वाती | उ.मा. रेवतीx रोहि. मृग स्वाती उ.षा. | उ.भा. | रेवती
स
१ अश्विनी २ भरणी ३ कृतिका ४ रोहिणी
रोहि. ]
स्वाती उ.षा. श्रवण उ.भा.
पुष्य
उ.फा. | श्रवण |X उ.फा. | हस्त |X हस्त । स्वाती उ.भा.
रोहि. |
मृग.
उ.षा.
रेवती
उ.फा.
५ मृगशिर
उ.षा.
अ.
|
हस्त | स्वाती
६ आर्द्रा
उ.षा.
श्रवण
मृगा
उ.फा
हस्त
| स्वाती उ. भा. रे
७
पुनर्वसु
उ.षा. | श्रवण
सह.
उ
८
पुष्य
| पुष्य
श्रवण
प्रवण | उ.भा. रेवती
उ.मा.
उ.फा.
| स्वाती |X
| उ.षा.
उ.षा.
९ आश्लेषा
| उ.फा.
श्रवण | उ.भा. | रेवती
हस्त
स्वाती
X
मघा
| उ.फा.
उ
| श्रवण | उ.भा. | रेवती
|स्वाती
| उ.फा.
| हस्त | उ.भा. रेवती
| स्वाती| उ.षा. श्रवण
उ.फा.
| स्वाती उ.भा. | रेव
उ.षा.
म
१३ हस्त
| रोहि. | मृग,
उफा.
हस्त |स्वाती | उ.मा. रेवती | स्वाती उ.भा. स्वाती रेवती
अ. रा
१४ चित्रा
उ.षा. श्रवणX उ.षा. श्रवण |X
रेवती
FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEE.May sh
|
| उ.फा.| हस्त
उ.षा.
श्रवण| उ.भा
X
| उ.फा. हस्त | स्वातीX |
श्रवण| उ.भा. रेवती
x
x
१५ स्वाती
विशाखा १७ अनुराधा १८ ज्येष्ठा
| रोहि.
मग.
हस्त स्वातीX
उ.फा. उ.मा. | उ.षा. रेवती | श्रवण
उ.षा.
पु.
स्वाती]X |
उ.फा. हस्त
श्रवण | उ.भा. | रेवती
मूल
उ.षा.
श्रवण
उ.फा.
| उ.भा. रेवती
x
उ.षा.
श्रवण |
पु.
उ.फा.
X
|
रोहि.
स्वाती | उ.भा. रेवती
२० पू.षा.
| उ.षा.
उ.षा.
श्रवण
स्वाती | उ.मा. | रेवती स्वाती. उ. भा. रेवती
श्रवण
श्रवण
उ.फा. हस्त
उ.षा.
स्वाती
२३ धनिष्ठा २४ शतभिषा
उ.मा. उ.भा. | उ.भा. रेव
उ.फा.
स्वाती
२५
पू.भा.
मृ
रेवती.
| हस्त
स्वाती श्रवण|X |
मृग.
पु.
२६ उ.भा. २७ रेवती
| उ.भा. रेवती
उ.फा. हस्त
स्वाती | उ.भा.X
रोहि.
मृग.
पु.
उ.षा.
श्रवण
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२१६ ]
[ मुहूर्तराज द्वारशाखावरोपण में शुभाशुभ तिथियाँ-(ज्यो. निब.)
पंचमी धनदा चैव, मुनिनन्दवसौ शुभम् । प्रतिपत्सु न कर्तव्यम्, कृते दुःखमवाप्नुयात् ॥ द्वितीयायां द्रव्यहानिः पशुपुत्रविनाशनम् । तृतीया रोगदा ज्ञेया, चतुर्थी भंगकारिणी ॥ कुलक्षयं तथा षष्ठी दशमी धननाशिनी ।
विरोधकर्व्यमा पूर्णा न स्याच्छाखावरोपणम् ॥ श्लोकार्थों को तालिका में समझिए
-द्वारशाखावरोपण में शुभाशुभ तिथि फलसहित तालिका| तिथियाँ | १ | २ | ३ || ५ | ६ | || ९ १० | पूर्णिमा | अमावस्या |
द्वारशाखावरोपण में लग्नशुद्धि-(मु.प्र.)
केन्द्र त्रिकोणेषु शुभैः पापैन्यायारिगैस्तथा ।
धूनाम्बरे शुद्धियुते द्वारशाखावरोपणम् ॥ अन्वय :- (द्वारशाखावरोपणलग्नकुण्डल्याम्) केन्द्रत्रिकोणेषु (१,४,७,१०,५ तथा ९ एषुस्थानेषु) शुभैः (शुभग्रहै: स्थितैः सद्भिः) पापैः (पापग्रहै:) व्यायारिगैः (तृतीयैकादशषष्ठस्थानगतैः सद्भिः) तथा यूनाम्बरे (सप्तदशमस्थानयोः) शुद्धियुते (शुभापापग्रहरहितयोः सतोः) द्वारशाखावरोपणम् शुभम्।
अर्थ :- जिस दिन जिस समय में द्वारशाखा बैठानी हो उस समय की लग्नकुण्डली में शुभग्रह केन्द्र (१.४.७.१०) और त्रिकोण (९,५) में होने चाहिएँ, तथा अशुभग्रहों की स्थिति तृतीय षष्ठ और एकादश स्थान में हो एवं सप्तम तथा दशमस्थान में शुभ या पाप कोई भी ग्रह न हो। ऐसे लग्न में द्वारशाखा बैठानी शुभावह होती है। द्वारशाखावरोपण में राहुविचार भी आवश्यक होता है एतदर्थ मुहूर्तदीपककार लिखते हैं
................ चापादगुः" सत्यम् पूर्वदिशः क्रमेण तमसि द्वारं न सत्सम्मुखे ॥ अर्थात् - धनु संक्रान्ति से तीन-तीन सक्रान्तिपर्यंन्त राहु निवास दक्षिणावर्त क्रम से पूर्व दक्षिण पश्चिम एवं उत्तर दिशा में रहता है अत: दिशा में राहु हो उसे सामने रखकर अर्थात् उस दिशा में द्वार नहीं करना चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
और भी -
चापादित्रित्रिके सूर्ये प्राच्यादौ वै वसे दगुः ।
तदिग्द्वारं न कर्तव्यम् कृते स्त्रीधननाशकृत् ।। अन्वय- चापादित्रित्रिके (धनुर्मकरकुम्भत्रये, मीनमेषवृषत्रये, मिथुनकर्कसिंहत्रये कन्यातुलावृश्चिक त्रये च) सूर्ये सति प्राच्यादौ (पूर्वादिदिक्षु) क्रमेण अगुः (राहुः) वसेत्, अत: तदिन्द्रारम् (तस्मिन् दिग्भागे गृहद्वारम्) न कार्यम यदि द्वारं क्रियते तर्हि तत स्त्रीधननाशकृद् भवति ।
अर्थ- धन मंकर और कुम्भ के सूर्य में पूर्वदिशा में, मीन मेष और वृष के सूर्य में दक्षिण दिशा में, मिथुन कर्क और सिंह के सूर्य में पश्चिम दिशा में तथा कन्या, तुला और वृश्चिक के सूर्य में उत्तदिशा में राहु निवास होता है अत: राहुस्थितिज्ञापक उन २ दिशाओं में (उन २ दिशााओं के सामने ) गृह द्वार करना ठीक नहीं यदि किया जाय तो उससे गृहकर्ता (गृहस्वामी) की स्त्री एवं उसके धन का नाश होता है। स्पष्टतया ज्ञानार्थ सारणी देखिए॥सूर्य संक्रान्त्यनुसार राहुस्थिति दिग्ज्ञापक सारणी॥
पूर्व धनु, मकर, कुम्भ
उत्तर
कन्या, तुला, वृश्चिक
- राहु
मीन, मेष, वृषभ
दक्षिण
मिथुन, कर्क. सिंह
पश्चिम
द्वारकपाट (किंवाड़) मुहूर्त- (बालबोधज्योतिषसारसमुच्चय)
कृता कराब्धियुग्मराममन्तकश्च वारिधिः करौ कृता च सूर्यभाद्दिनःके फलं वदेत् । धनागमं विनाशसौख्यबन्धनं मृतिः क्षतिः
शुभं च रोगसौख्यदं कृते कपाटचक्र के ।। अर्थात- सुर्यनक्षत्र से यदि चन्द्रनक्षत्र तक गणना करते ४.२.४.२,३.२.४.२ और ४ ये संख्याएँ आए तो क्रमश. धनागम. विनाश, सौख्य, बन्धन. मृत्यु, हानि, शुभ, रोग और सौख्य ये फल द्वार के किवाड़ बैठाने में जानने चाहिए। इसे स्पष्टतया निम्न तालिका में समझिए -
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________________
२१८ ]
[ मुहूर्तराज
सूर्यनक्षत्र से
-द्वारकपाटयुग्मयोग में शुभाशुभ फल ज्ञापक तालिका
आगे के | आगे के | आगे के | आगे के | आगे के आगे के आगे के आगे के ४ च.न. २ च.न. ४ च.न. | २ च.न. ३ च.न. २ च.न. ४ च.न.|२ च.न. ४ च.न. तक तक तक तक
तक धनागम | विनाश | सौख्य | बन्धन मृत्यु | हानि | शुभ रोग सौख्य
तक
तक
फल
द्वारवेध विचार
भवन के द्वार के ठीक सामने किन २ की स्थिति नहीं होनी चाहिए अथवा किस तरह होने पर भी दोषप्रद नहीं है इस विषय में वराह मत
मार्गतरुकोणकूपस्तम्भभ्रमविद्धमशुभदं द्वारम् । उच्छ्रायाद्विगुणितां भूमि त्यक्त्वा न दोषाय ॥
अर्थ :- भवनद्वार के ठीक सम्मुख मार्ग स्थित वृक्ष, किसी अन्य भवन का कोण, कूप, स्तम्भ, भ्रम (जलनिर्गमप्रदेश “खाल") इनका होना अशुभफलदायी है, किन्तु द्वार की ऊँचाई से दूनी भूमि को त्याग कर यदि कोण कूपादि हो तो दोषप्रद नहीं है। यदि द्वार की ऊँचाई ५ मीटर हो तो मकान के १० मीटर तक की दूरी से बाहर यदि कोण कूपादि की स्थिति भले ही द्वार के सम्मुख हो तो भी अशुभ नहीं जाननी चाहिए। देखिए गर्ग वाक्य भी
"द्वारोच्छायाद् द्विगुणितां भूमिं त्यक्त्वा बहिःस्थिताः ।
न दोषाय भवन्त्येव. अर्थात् - द्वारदेश से द्वार की ऊँचाई से दूनी भूमि के बाहर स्थित मार्ग, तरु कोण आदि दोषद नहीं होते। द्वारवेधफल-(गर्ग)
रथ्याविद्धं द्वारं नाशाय कुमारदोषदं तरुणा । पंकद्वारे शोको श्ययोऽम्बुनिस्त्राविणि प्रोक्तः ॥ कूपेनापस्मारो भवति विनाशश्च देवताविद्धे ...........कुलनाशी ब्रह्मणोऽभिमुखे भवति ।
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मुहूर्तराज ]
[२१९ ___अर्थात् - यदि भवनद्वार गली से विद्ध हो तो गृहस्वामी का नाश, वृक्ष विद्ध हो कुमारदोषदायी, द्वार के सम्मुख कीचड़ सतत बना रहे तो शोक प्रणालिका नाली हो तो अधिक व्यय, कूप हो तो अपस्मार रोग, देवप्रतिभा विद्ध हो तो विनाश ये फल होते हैं। तथा वास्तुमध्यभाग को ब्रह्मस्थान कहते हैं, वहाँ पर भी द्वार का होना कुलनाशकारी है। वास्तुमध्यद्वार का निषेध एवं विधान करते हुए विश्वकर्मा कहते हैं
"गृहमध्ये कृतं द्वारं द्रव्यधान्य विनाशकृत्"
अर्थात् - गृहमध्य में द्वार करने से द्रव्य एवं धान्य का विनाश होता है। किन्तु
देवागारे विहारे च प्रपायां मण्डपेषु च ।
प्रतोल्यां च मखे वास्तुमध्ये द्वारं निवेशयेत् ॥ देवालय, विहारभवन, प्याऊ, मण्डप, प्रतोली एवं यज्ञादि में वास्तुमध्य द्वार अशुभ नहीं प्रत्युत लगाना ही चाहिए। अर्थात् इन स्थानों में गृहान्तर्गतद्वार बैठाने से ब्रह्मवेध नहीं लगता।
इति श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाबविजय संगृहीते मुहूर्तराजे वास्तुप्रकरणाभिधानम् चतुर्थम् प्रकरणम् समाप्तम्
जीवन की प्रत्येक पल सारगर्भित है। उसमें विषयादि प्रमादों को कभी अवकाश नहीं देना चाहिये, तभी वे पलें सार्थक होती हैं। सत्रकार कहते हैं कि 'कालो कालं समायरे।' जो कार्य जिस समय में नियत किया है, उसको उसी समय में कर लेना चाहिये, क्योंकि समय कायम रहने का कोई भरोसा नहीं है। निर्दयता से जीवों का वध करने, असत्य भाषण करने, किसी की धनादि-वस्तु का हरण करने, परस्त्री गमन करने, परिग्रह का अतिलोभ रखने और व्रतप्रत्याख्यानों का खाली ढोंग रचने से मनुष्य मर कर नरक में जाता है और वहाँ उसको अनेक यातनाएँ उठानी पड़ती हैं। इसलिए नरक गमन गोग्य बातें सर्वथा त्याग देना चाहिये।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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२२० ]
[ मुहूर्तराज (५) अथ गृहप्रवेशापरपर्यायप्रतिष्ठाप्रकरणम्
प्रतिष्ठाप्रकरण का ही दूसरा नाम गृहप्रवेश प्रकरण है, जो लग्नशुद्धि पञ्चाङ्ग शुद्धयादि विधिविधान गृहारम्भ और उसमें प्रवेशार्थ शास्त्रों में बतलाए गए हैं, वे ही देवालयारम्भ एवं प्रतिष्ठा के लिए भी जानने चाहिएँ जैसा कि व्यवहार में कथन है
गृहेषु यो विधिः कार्यो निवेशनप्रवेशयोः ।
स एव विदुषा कार्यो देवतायतनेष्वपि ॥ अर्थात् - गृह के आरम्भ एवं प्रवेशकाल में जो विधि करने योग्य है, वही जैसी ही विधि देवालय के आरम्भ और प्रतिष्ठा में करनी चाहिए।
गृह प्रवेश के चार प्रकार हैं नववधूप्रवेश, अपूर्वप्रवेश, सुपूर्वप्रवेश और द्वन्द्वाभयप्रवेश। इनमें से वधूप्रवेश के विषय में अन्य प्रकरण चर्चा है। अन्य तीन प्रवेशों के विषय में श्रीवसिष्ठ का कथन पढ़िए
अपूर्वसंज्ञः प्रथमः प्रवेशः यात्रावसाने च सुपूर्वसंज्ञः
द्वन्द्वाभयस्त्वग्निभयादि जानः एवं प्रवेशः त्रिविधः प्रदिष्ट ॥ अन्वय :- नवनिर्मित गृहे य: प्रथमः प्रवेश: स: अपूर्वसंज्ञ: राजादीनां यात्रावसाने स्वभवते य: प्रवेश: सः सुपूर्वसंज्ञ उच्यने अथ च अग्नि राजादिभयेन जानः अर्थात् अग्निदाहाद् विनष्टे राजकोपात् पातिते पुनश्च उत्थापिते गृह प्रवेशः क्रियते स: द्वन्द्वाभयप्रवेश: उक्तः।
अर्थ :- स्वयं की खरीदी गई भूमि पर नवीन बनाए गये घर में जो प्रवेश किया जाता है उस प्रवेश को अपूर्वसंज्ञ कहते हैं। राजादि यात्रा के बाद जो अपने भवन में प्रवेश करते हैं, उसे सुपूर्वसंज्ञ कहा गया है और जो प्रवेश आग पानी की बाढ़ आदि से घर के जल जाने या बह जाने पर अथवा राजादि कोप से गिरा दिये जाने पर पुन: उसी भूमिखण्ड में उत्थापित जीर्णोद्धृत घर में किया जाता है उस प्रवेश कोप द्वन्द्वाभयप्रवेश कहते हैं। अपूर्वप्रवेश एवं सुपूर्वप्रवेशार्थ कालशुद्धि-(मु.चि.ग.प्र. श्लो. १)
सौम्यायने ज्येष्ठतपोऽन्त्यमाधवे यात्रानिवृत्तौ नृपते नवे गृहे ।
स्याद्वेशनं द्वाःस्थमृदुधुवोडुभि जन्मङ्क्षलग्नोपचयोदये स्थिते ॥ अन्वय :- नृपतेर्यात्रानिवृत्तौ (नृपयात्रासमाप्तौ) स्वगृहेऽथवा नवे गृहे सौम्यायने (उत्तरायणे) अपि ज्येष्ठतपोऽन्त्यमाधवे (ज्येष्ठमाघफाल्गुनवैशाखमासेष) द्वा:स्थमृदुध्रुवोडुभिः (कृत्तिकादिभरणीपर्यन्तं नक्षत्राणां सप्तसु नक्षत्रेषु क्रमशः पूर्वादिदिस्थितेष्वपि मृदुध्रुवोडुभिरर्थात् उत्तरात्रय रोहिणी मृगरेवतीचित्रानुराधा नक्षत्रेषु सत्सु तथा च जन्मङ्क्षलग्नोपचयोदये स्थिते (जन्मराशिजन्मलग्नाभ्यां तृतीयषष्ठैकादशराशिषु अथवा अन्येषु स्थिराशिषु लग्नभूतेषु वेशनम् प्रवेश: स्यात् शुभो भवेत्।
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मुहूर्तराज ]
[२२१ ___अर्थ :- नृपति की यात्रानिवृत्ति पर यदि राजा अपने भवन में प्रवेश करना चाहे, अथवा कोई अन्य व्यक्ति अपने नूतन गृह में प्रवेश करना चाहे तो उसे उत्तरायण में भी ज्येष्ठ माघ फाल्गुन या वैशाखमास में तथा कृत्तिकादि ७-७ दिग्द्वार नक्षत्रों में भी मृदुसंज्ञक (मृगशिर, रेवती, चित्रा और अनुराधा) तथा ध्रुवसंज्ञक (तीनों उत्तरा और रोहिणी) नक्षत्रों के होते ही तथैव प्रवेशकर्ता की जन्मराशि एवं जन्मलग्न से तृतीय षष्ठ दशम और एकादश क्रम गत राशि के लग्न में अथवा स्थिरराशिलग्न में ही प्रवेश करना चाहिए। सौम्यायन में गृहप्रवेशार्थ वसिष्ठ एवं नारद मत
"अथ प्रवेशो नवसद्मनश्च सौम्यायने जीवसिते बलाढ्ये ।" अर्थात् - उत्तरायण में तथा गुरु और शुक्र की उदितावस्था में नवगृह में प्रवेश करना शुभ है। और नारद भी
“अथ सौम्यायने कार्य नववेश्मप्रवेशनम् ।
राज्ञां यात्रानिवृत्तौ................ ऐसा कथन करके सौम्यायान अर्थात् रवि के उत्तरायणगत रहते गृहप्रवेश का निर्दश करते हैं।
उपर्युक्त “सौम्यायने” इस श्लोक में रवि के उत्तरायण को बतलाकर भी ज्येष्ठ माघ फाल्गुन और वैशाख मासों के नाम दिए हैं, जबकि ये मास भी उत्तरायण गत ही हैं। इससे यह समझना चाहिए कि गृहप्रवेश में उत्तरायण सूर्य रहते हुए भी ये चान्द्रमास ग्राह्य है। इन मासफलों को वसिष्ठ की उक्ति में जानिए
माघेऽर्थलाभः प्रथमप्रवेशे पुत्रार्थलाभ खलु फाल्गुने च । चैत्रेऽर्थहानिर्धनधान्य लाभो वैशाखमासे पशुपुत्र लाभः ॥ ज्येष्ठे च मासेषु परेषु नूनं हानिप्रदः शत्रुभयप्रदश्च ।
शुक्ले च पक्षे सुतरां विवृद्ध्ये कृष्ण चे यावद्दशमी च तावत् ॥ अन्वय :- माघे गृहप्रवेशे कृते गृहपतेरर्थलाभ: स्यात्, फाल्गुने, पुत्रार्थलाभ: भवेत्, चेत्रेऽर्थहानिः वैशाखमासे धनधान्यलाभः, ज्येष्ठे च पशुपुत्र लाभ: स्यात्। परेषु एतदतिरिक्तषु सौभ्यायनमासेषु पौष चैत्रादिषु गृहप्रवेशः नूनं हानिप्रदः शत्रुभयप्रदश्च भवति।
अर्थ :- माघ मास में गृहप्रवेश करने से गृहपति को धनलाभ, फाल्गुन में पुत्र एवं धन का लाभ मिलता है। चैत्र मास में प्रवेश करने से धनहानि होती है, वैशाख में धनधान्य प्राप्ति एवं ज्येष्ठ में पशु एवं पुत्र लाभ होता है। अन्य अवशिष्ट मासों में (पौष चैत्रादि में) किया गया गृहप्रवेश हानिकारक एवं शत्रुभयदायक होता है। शुक्लपक्ष में गृहप्रवेश से विशेष वृद्धि होती है और कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि पर्यन्त गृहप्रवेश करना शुभफलद है।
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२२२ ]
[ मुहूर्तराज वसिष्ठ ने गृहप्रवेश में सौरमासों को बतलाकर भी उन्हें दोषदायी कहा है, यथा
मृगादिषड्राशिषु संस्थितेऽर्के नवप्रवेशः शुभदः सदैव ।
कुम्भं विनाडन्येष्वपि केचिदूचुः न सौरभिष्टं खलु सन्तिवेशे । अर्थात् - मकर से मिथुन तक सूर्य के रहते नूतनगृहप्रवेश सदैव शुभकारी है परन्तु कुम्भ के सूर्य में प्रवेश निषिद्ध है।
कुछेक आचार्यों ने कर्कादिषड्ाशियों में सूर्य के रहते नवगृहप्रवेश बतलाया है, पर उनका यह कथन द्वन्द्वाभयप्रवेश और सुपूर्वप्रवेश के लिए ही है अपूर्व प्रवेश के लिए नहीं है। और अन्त में वसिष्ठ का मत है कि प्रवेश में सौरमासों को न लेकर चान्द्रमासों का ही ग्रहण करना चाहिए तात्पर्य यह हुआ कि नवप्रवेश (अपूर्वप्रवेश) में तो ज्येष्ठ, माघ, फाल्गुन और वैशाख ही ग्राह्य है और द्वन्द्वाभय तथा सुपूर्वप्रवेश में अन्य मास भी ग्राह्य है। ज्योति: प्रकाश में
गृहारंभोदितैर्मासै र्धिष्ण्यै वरैिविशेद् गृहम् ।
विशेद् सौभ्यायने हवें तृणागारं तु सर्वदा ॥ अन्वय :- गृहारंभोतिदैः (गृहारंभप्रकरणोक्तैः) मासै:धिष्ण्यैः नक्षत्रैः सद्भिः सौभ्यायने हर्म्यम् (पाषाणेष्टिकानिर्मितम् नवोत्थापितं च) विशेत्। तृणागारं (तृणकाष्ठनिर्मितम्) तु सर्वदा तस्य कृते मासनक्षत्रादिप्रतिबधो नास्ती त्यर्थः । गुरुमत भी
कुलीर कान्यकाकुंभे दिनेशे न विशेद् गृहम् ।
ग्रामं वा पत्तनं वापि नगरं वा नराधिय । अर्थात् - कर्क, कन्या एवं कुंभ राशिगत सूर्य के होते नूतनगृहप्रवेश नहीं करना चाहिए तथैव ग्राम में एवं नगर में भी उक्त संक्रान्तियों में प्रवेश वर्जित है।
प्रवेश में उन नक्षत्रों को ही लेना चाहिए, जो कि मृदुसंज्ञक और ध्रुवसंज्ञक होते हुए भी उसी दिग्द्वार के हों, जिस दिशा की ओर गृह का मुख प्रवेशद्वार हो। __ वसिष्ठ ने भी दिग्द्वारीय नक्षत्रों में ही तत्तदिग्द्वार वाले घरों में प्रवेश करने का कहते हुए त्रिविध प्रवेशार्थ कतिपय नक्षत्रों का विधान किया है
चित्रोत्तरा धातृशशांकमित्र वस्वन्त्यवारीश्वरभेषु नूनम् ।
आयुर्धनारोग्य सुपुत्रपौत्रसत्कीर्तिदः स्यात् त्रिविध प्रवेशः ॥ अर्थ :- चित्रा, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिर, अनुराधा, धनिष्ठा, रेवती और शततारका इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र में किया गया तीनों प्रकार का प्रवेश आयुष्य, धन, स्वास्थ्य, सुपुत्रपौत्र एवं सत्कीर्तिदायक होता है।
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मुहूर्तराज ]
[२२३ नारद भी
वस्विज्यान्त्येषु वरुणत्वाष्ट्रमित्रास्थिरोडुषु ।
शुभः प्रवेशो देवेज्यशुक्रयोदृश्यमानयोः ॥ अर्थात् - धनिष्ठा, पुष्य, रेवती, शतभिषक, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा इन नक्षत्रों में तथा गुरु एवं शुक्र की उदयावस्था में त्रिविध प्रवेश शुभद है। __ वसिष्ठ और नारद के उपर्युक्त कथनों में पुष्य धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्रों का ग्रहण किया गया है किन्तु इन नक्षत्रों को जीर्णगृहप्रवेश में ही ग्रहण करना चाहिए न कि नूतनगृह में प्रवेश के लिए। जीर्णगृहप्रवेश-(मु.चि.गृ.प्र. श्लो. २)
जीर्णेगृहेऽग्न्यादिभयान्नवेऽपि मार्गोर्जयोः श्रावणिकेऽपि सत्स्यात् ।
वेशोऽम्बुपेज्यानिलवासवेषु नावश्यमस्तादिविचारणाऽत्र ॥ अन्वय :- जीर्णे (पुरातने) अन्यकृते निर्मिते इत्याशयः अथवा अग्न्यादिभयात् अग्निनादग्धे जलौधेन प्लावितेऽतः भग्ने पुनस्तत्रैव भूभ्यां उत्थापिते गृहे प्राक्पद्योक्तमासातिरिक्तम् मार्गोर्जयोः (मार्गशीर्षकार्तिकयो:) श्रावणिकेऽपि श्रावणमासेऽपि अम्बुपेज्यानिलवासवेषु (शततारापुष्यस्वातीधनिष्ठासु नक्षत्रेषु) वेश: (प्रवेश:) सत् स्यात् (शुभदो भवेत्) अत्र (एवं प्रकारे जीणे अथवाऽग्निजलादिभयेन नष्टे पुनरुत्थापिते गृह प्रवेशसमये) अस्तादि विचारणा (शुक्रगुर्वस्तबाल्यवृद्धत्वसिंहस्थगुरुमकरस्थगुरुलुप्तसंवत्सरादिदोषाणाम् विचारणा न कर्तका। एते दोषाः सन्तु न वा तथापि उक्तप्रकारयो गृहयोः प्रवेश: कार्यः। परन्तु तत्रापि पञ्चाशुद्धिस्तु विचार्या तथा च विहित जीर्णादिगृहप्रवेश नक्षत्रैः सद्भिखे प्रवेश: करणीयः।
अर्थ :- किसी अन्य निमित्त निर्मित गृह, अग्निदाह व जलप्रवाहादि से भग्न या राजकोप से पातित और पुन: उसी भूमि पर उत्थापित घरों में प्रवेशार्थ नूतनगृह प्रवेश में कथित मासों के अतिरिक्त मार्गशीर्ष कार्तिक एवं श्रावण मास भी शुभ हैं।
शतभिषक्, पुष्य, स्वाती एवं धनिष्ठा नक्षत्रों में भी उक्त गृहों में प्रवेश शुभ है। अर्थात् नूतनगृहप्रवेशार्थ विहित नक्षत्र तो शुभ है ही।
इस प्रकार के प्रवेश में शुक्रास्त, गुर्वस्त, बालत्व, वृद्धत्व, सिंहमकरस्थगुरुलुप्तसंवत्सरादि दोषों का विचार आवश्यक नहीं, अर्थात् ये कालदोष हों या न हों तो भी प्रवेश किया जा सकता है। परन्तु पञ्चाङ्गशुद्धि अवश्यमेव देखनी चाहिए और उसे ध्यान में रखकर उक्त विहित नक्षत्रों में ही प्रवेश करना चाहिए। प्रवेश में तिथि एवं वार निर्णय-(श्रीपति)
रिक्तातिथि सुतभानुवारौ, निन्द्याश्च योगाः परिवर्जनीयाः । मेषः कुलीरो मकरस्तुला च त्याज्याः प्रवेशे हि तथा तंदशाः ॥
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२२४ ]
[ मुहूर्तराज अन्वय :- रिक्तातिथि: (चतुर्थी नवमी चतुर्दशी च) भूसुतभानवारौ (मंगलरविवारी) तथा निन्द्याः योगाः, मेषः, कुलीर: (कर्कः) मकर: तुला च एतानि लग्नादि तदंशा अन्यराशि लग्नेष्वपि मेषादीनाम् नवांशा: हि (निश्चयपूर्वकम्) त्याज्या: न ग्राह्या इत्थर्थ।
___ अर्थ :- गृहप्रवेश में ४, ९ और १४ ये तिथियाँ मंगल एवं रविवार, निन्दनीय योग तथा मेष, कर्क, तुला एवं मकर ये चर राशि लग्न तथा अन्य राशि लग्नों में भी मेष, कर्क, तुला एवं मकर के नवमांश त्यागने योग्य हैं।
मुहूर्तचिन्तामणिकार ने भी “व्यर्काररिक्ताचरदर्श" यह वचन कहकर उक्त श्रीपति को पुष्ट किया हैत्रिविध गृहप्रवेश में लग्नबल-(वसिष्ठ)
कर्तुर्विलग्नादश जन्मराशे र्लग्नस्थितो राशिरिति प्रदिष्ट । निर्व्याधिदारिद्रययशस्करश्च सुह्सुतघ्नो रिपुनाशनश्च ॥
कलत्रहन्ता निधनप्रदश्च रोगप्रदः सिद्धिकरोऽर्थदश्च ।।
क्रमाच्च वैराभयदः क्रमेण सदैव नूनं त्रिविधप्रवेशे ॥ अर्थ :- गृहस्वामी के जन्मलग्न वा जन्मराशि से यदि प्रवेशकाल का लग्न प्रथम हो, अर्थात् जन्मलग्न अथवा जन्मराशि ही प्रवेशलग्न हो तो रोगहानि होती है, द्वितीय हो तो दरिद्रता, तृतीया हो तो यशोलाभ, चतुर्थ हो तो मित्रनाश पञ्चम हो तो पुत्रनाश, षष्ठ हो तो शत्रुनाश, सप्तम हो तो पत्नीविनाश अष्टम हो तो मृत्यु, नवम हो तो रोग, दशम हो तो सिद्धि, एकादश हो तो अर्थलाभ और द्वादश हो तो वैर एवं रोग होता है। उपर्युक्त का निचोड राजमार्तण्ड में - “कर्तृभोपचयगाश्च विलग्ने राशय: शुभफलाय भवन्ति" अथवा गृहपति के जन्मलग्न अथवा जन्मराशि से प्रथम एवं उपचयस्थानगत ३, ६, १० एवं ११ वीं राशियाँ प्रवेशलग्न में हो तो शुभफलद होती हैं। नारद भी
कर्तुर्जन्मभलग्ने वा ताम्यामुपचयेऽपि वा ।
प्रवेशलग्ने स्यावृद्धिः अन्यभे शोकनिःस्वनः ॥ अर्थ :- गृहस्वामी के जन्म की राशि अथवा जन्मलग्न राशि अथवा इन दोनों राशियों से तीसरी, छठी, दसवीं और ग्यारहवीं यदि राशि प्रवेशलग्न हो तो गृहपति की वृद्धि होती है और अन्य राशि (२, ४, ५, ७, ८, ९ और १२ वीं) हो तो शोक एवं दारिद्रय होता है।
इसके अतिरिक्त सौम्यग्रहीय स्थिरराशियों में अथवा द्विस्वभावी राशियों में प्रवेश करना शुभफलद है। इसके साथ-साथ विवाह प्रकरणोक्त २१ महादोषों को भी प्रवेश में त्यागना चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
[२२५ _वशिष्ठ ने भी इन्हीं दोषों को त्यागने का और न त्यागकर इनमें यदि गृहारम्भ या प्रवेश किया जाय तो क्रमशः कर्ता का और गृहस्वामी का नाश होता है ऐसा कहा -
"कर्तु शो गृहारंभे प्रवेशे पतिनाशनम्" अब हम नीचे चार भिन्न-भिन्न दिग्द्वारीय गृहों के चार मानचित्र दे रहे हैं जिनसे सुगमतया दिग्द्वारीय नक्षत्रों एवं उनमें प्रवेष्टव्य विहित नक्षत्रों को जाना जा सकता है।
पूर्व
दक्षिण द्वारीय
पश्चिम द्वारीय
पूर्व द्वारीय
गृह
उत्तर द्वारीय
गृह
गृह
पश्चि .
प्रवेष्ट. न.
पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र
(दक्षिण) मघा, पू.फा. उ.फा. हस्त चित्रा स्वाती विशाका
पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र | प्रवेष्ट. न.
(पूर्व) कृति. रोहि. | मृग. मृग आर्द्रा | रोहिणी पुन. पु.आ.
चित्रा
पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र |प्रवेष्ट. न. दिग्द्वारनक्षत्र
दिग्द्वारनक्षत्र | प्रवेष्ट. न. (पश्चिम)
(उत्तर) अनु. ज्येष्ठा | अनुराधा | | धनिष्ठा शत. | रेवती मूल पू.षा. उ.षा. पू.भा. उ.भा. उ.भाद्र. उ.षा. अभि.
रेवती अ. भर श्रवण
उ.फा.
गृहप्रवेश में लग्नशुद्धि तिथिशुद्धि एवं प्रवेशविधि- (मु.चि.ग.प्र. श्लो. ३४)
त्रिकोणकेन्द्रायधनत्रिगैः शुभैलग्ने त्रिषष्ठायगतैश्च पापकैः । शुद्धाम्बुरन्धे विजनुर्भमृत्यौ व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे ॥
ह्यग्रेऽम्बुपूर्ण कलशं द्विजांश्च कृत्वा विशेद् वेश्म भकूटशुद्धम् ॥ अन्वय - त्रिकोत्र (९, ५) केन्द्रायधनत्रिगैः (१, ४, ७, १०, ११, २, ३) शुभैः (पूर्णचन्द्रबध गुरुशुक्रैः उपलक्षिते लग्ने, चन्द्ररहिते लग्ने, तथा त्रिषष्ठायगतैः (तृतीयषष्ठै कादशास्थतैः पापकैः पापग्रहैः उपलक्षिते लग्ने, शुद्धाम्बुरन्धे (सर्वग्रहरहिते चतुर्थेऽटमे च स्थाने) विजर्नुर्भमृत्यौ (गृहस्वामिनः जन्मलग्नाद् जन्मराशितो वा अष्टमे राशौ प्रवेशलग्नतेन असति) इत्थंभूते प्रवेशलग्ने तथा व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे (रविभौमो विनान्येषु वासरेषु, रिक्तां त्यक्त्वा अन्यासु तथैवावभास्याभपि विहाय, चरलग्नानि (मेषकर्कतुलामकरलग्नानि) तदंशान् च चैत्र मासं च वर्जयित्वा, यदा उपर्युक्तप्रकारः लग्नसमयः तदा अम्बुपूर्णं (जलभृतं) कलशं द्विजांश्च अग्रे कृत्वा भकूटशुद्धम् (गृहगृहस्वामिनोः “वर्णों वश्यस्तथा तारा” आदि विवाह प्रकरणोक्तकूटशुद्धम् वेश्म गृहम् आविशेत् (प्रविशेत्)
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२२६ ]
[ मुहूर्तराज ____ अर्थ - त्रिकोण (९, ५) केन्द्र (१, ४, ७, १०) आय (११) धन (२) और त्रि (३) इन स्थानों में पूर्णचन्द्र, बुध, गुरु और शुक्र के रहते, चन्द्ररहित लग्न में, तथा तृतीय षष्ठ और एकादश स्थान में पापग्रहों के रहते चतुर्थ एवं अष्टम स्थान में शुभ या पाप किसी भी ग्रह के न रहते गृहस्वामी की जन्मराशि या उसके जन्म लग्न से अष्टमराशि के लग्न के न होते ऐसे प्रवेशलग्न में तथा रवि एवं मंगल को छोड़कर अन्य वारों में रिक्ता और अमावस्या को छोड़कर अन्य तिथियों में चैत्र मास को भी त्याग कर तथैव गृहपति एवं गृह के परस्पर वरवधू की भांति राशिकूट एवं वर्ण वश्यादि के मेलापक रहते जलपूर्ण कलश एवं वित्रों को आगे करके गृहस्वामी को गृह में प्रवेश करना चाहिए। लग्नशुद्धि विषय में वसिष्ठ मत
केन्द्रत्रिकोणायधनत्रिसंस्थैः शुभैस्त्रिषष्ठायगतैः खलैश्च ।
लग्नान्त्यष्ठाष्टमवर्जितेन चन्द्रेण लक्ष्मीनिलयः प्रवेशः ॥ अर्थ - केन्द्र त्रिकोण आय धन एवं तृतीय (१, ४, ७, १०, ९, ५, ११, २, ३) इन स्थानों में सौम्य ग्रहों के रहते, तृतीय, षष्ठ और एकादश में (३, ६, ११) पापग्रहों के रहते तथा लग्न, द्वादश, षष्ठ, अष्टम (१, १२, ६, ८) इन स्थानों में चन्द्रमा के न रहते जो प्रवेश किया जाता है वह लक्ष्मीप्रदान कर्ता होता है। नारद भी
स्थिरलग्ने स्थिरेराशौ नैधने शुद्धि संयुते ।
त्रिकोणकेन्द्र खत्र्यायसौभ्यैस्त्र्यारिगैः परैः ॥ प्रवेशलग्नकुण्डली में अष्टम स्थान में शुभ या अशुभ ग्रह की राशि पर स्थित क्रूर ग्रह अवश्यमेव अनिष्ट करता है। इस विषय में वसिष्ठ
प्रवेशलग्नान्निधनस्थितो यः क्रूरग्रहः क्रूरगृहे यदि स्यात् ।
प्रवेशकर्तारमथ त्रिवर्षाद्धन्त्यष्टवषैः शुभराशिगश्चेत् ॥ अन्वय - प्रवेश लग्न से अष्टम स्थान में क्रूरग्रहीय राशि पर यदि क्रूर ग्रह हो तो वह प्रवेशकर्ता का ३ वर्षों में और यदि सौम्यग्रहीय राशि पर हो तो ८ वर्षों में विनाश करता है। गुरु ने गृहप्रवेश में चतुर्थभाव की शुद्धि पर बल दिया है
सप्तमं शुद्धमुद्वाहे यात्रायामष्टमं तथा ।
दशमं च गृहारम्भे चतुर्थ सन्निवेशने ॥ अन्वय - विवाह सप्तमभाव में यात्रा में अष्टमभाव में गेहारंभ में दशमभाव में और गेहप्रवेश में चतुर्थभाव में किसी भी ग्रह की स्थिति अशुभ है।
इसी प्रकार क्रूरग्रह से आक्रान्त तथा क्रूरग्रह से विद्ध नक्षत्र भी प्रवेश में त्याज्य है।
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मुहूर्तराज ]
[२२७ प्रवेश में शुभाशुभ लग्न एवं नवांश
प्रवेश में मेष मकर तुला एवं कर्क लग्न एवं अन्य स्थिर एवं द्विस्वभाव में भी चर (मेष, कर्क, तुला और मकर) के नवांश भी त्याज्य हैं। इस विषय में पुनः वसिष्ठ
"पञ्चांगसंशुद्धदिने निशेशताराबले चाष्टकवर्गयुक्ते ।
सौम्ये स्थिरेभे शुभदृष्टियुक्ते लग्नेऽथवा द्वयङ्गगृहे विलग्ने ॥" अर्थात्- पञ्चांङ्गशुद्धि, दिन, चन्द्र या ताराबल रहते, अष्टक वर्ग की बलवत्ता में, सौम्यग्रहीय शुभग्रहदृष्टियुक्त स्थिर लग्न में, अथवा द्विस्वभावराशि के लग्न में गृहप्रवेश शुभद है। राजमार्तण्डकार के मत से कुछ विशेष
"निन्दिता अपि शुभांशसमेताः तौलिमेषमकराः सकुलीराः ।
कर्तृभोपचयगाश्च विलग्ने, राशयः शुभफलाय भवन्ति ॥" यह कहकर राजमार्तण्ड में यह निर्देश दिया गया है कि यदि शुभग्रहदृष्टियुक्त, शुभग्रहीय, स्थिर लग्नों अथवा द्विस्वभावराशि लग्नों में से कुछ न कुछ दोष हों तो मेष, कर्क, तुला और वृश्चिक राशि लग्नों में भी उनके शुभग्रहीय स्थिर एवं द्विस्वभाव व राशि नवांशों को ग्रहण करके गृहप्रवेश करना भी शुभ ही है।
कर्क लग्न में तुला नवांश तो सर्वथा त्याज्य ही माना गया है।
क्षीणचन्द्र की स्थिति भी यदि षष्ठ अष्टम या द्वादश स्थान में हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि हो अथवा पापग्रह से युत हो तो ऐसी अवस्था में किया गया गृहप्रवेश गृहपति की पत्नी का विनाश १ वर्ष के अन्दर-अन्दर करता है और यदि वह क्षीणचन्द्र ६, ८ या १२ वें स्थित होकर सौम्यग्रहों से दृष्ट हो तीन वर्षों की अवधि में गृहपति की पत्नी के लिए घातक ही है। अतः क्षीणचन्द्र की इस प्रकार की स्थिति में कदापि प्रवेश नहीं करना चाहिए।
यात्रानिवृत्ति पर जो गृहप्रवेश किया जाता है जिसे की सुपूर्वप्रवेश कहते हैं उसमें विशेष ध्यातव्य है
जिस मास में अथवा जिस दिन को यात्रा की गई है उस मास से नवममास में अथवा उस दिन से नवम दिन में गृहप्रवेश करना निषिद्ध है। जैसा कि गुरुमत
निर्गमान्नवमे मासि प्रवेशो नैव शोभनः ।
नवमे दिवसे चैव प्रवेशं नैव कारयेत् ॥ प्रवेश के समय सूर्य की वामस्थिति भी होनी चाहिए। इसी को वामार्क कहते है देखिए वामार्क का
स्वरूप
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२२८]
[ मुहूर्तराज वामार्क ज्ञान, एवं तिथिपरत्व पूर्वादिदिग्द्वार भवन प्रवेश- (मु.चि.गृ.प्र. ५)
वासो रवि मत्युसुतार्थलाभतोऽके पञ्चभे प्राग्वदनादिमन्दिरे ।
पूर्णातिथौ प्राग्वदने गृहे शुभो नन्दादिके याम्यजलोत्तरानने ॥ अन्वय - गृहप्रवेशकुण्डल्याम् मृत्युसुतार्थलाभतः (अष्टमपञ्चमद्वितीयैकादशस्थानेभ्य) पञ्चभेऽर्के (पञ्चसु । स्थानेषु स्थिते सूर्ये सति) प्राग्वदनादिमन्दिरे पूर्वमुखदक्षिणमुखपश्चिममुखोत्तरमुखेषु गृहेषु प्रवेशकरणयोग्येषु प्रवेशकर्तुः (गृहपतेः) वामः (वामपार्श्वस्थः) रवि ज्ञातव्यः। यथा पूर्वमुखे गृहे प्रवेष्टव्य प्रवेशलग्नात् ८, ९, १०, ११ एवं १२ स्थानगो रविः प्रवेशकर्तुः वामः। दक्षिणमुखे गृहे प्रवेशलग्नात् ५, ६, ७, ८ एवं ९ स्थानगतः रविः तस्य वामः। पश्चिममुखे गृहे प्रवेशलग्नात् २, ३, ४, ५ एवं ६ स्थानगः रविः प्रवेष्टुवभिः, तथा चोत्तरमुखे प्रवेष्टव्ये गृहे ११, १२, लग्ने २ एवं स्थानगः रविर्वाभो भवति एवं च रविं वामं कृत्वा गृहम् आविशेत्।
__ अर्थ - गृहप्रवेशकुण्डली में अष्टम स्थान से ५ स्थानों में पञ्चमस्थान से ५ स्थानों में द्वितीय स्थान से ५ स्थानों में और एकादश स्थान से ५ स्थानों में स्थित सूर्य क्रमशः पूर्वमुख, दक्षिणमुख, पश्चिममुख एवं उत्तरमुख गृह में प्रवेश करते समय प्रवेशकर्ता के वाम भाग में रहता है जो कि प्रवेश करते समय शुभ माना गया है। तात्पर्य यह है कि पूर्वमुखगृहप्रवेश के समय प्रवेशकुण्डली में ८, ९, १०, ११ और १२ स्थानों में दक्षिणमुखगृहप्रवेश के समय प्रवेशलग्न से ५, ६, ७, ८ और ९ स्थानों में पश्चिममुखगृहप्रवेश के समय प्रवेशलग्न से २, ३, ४, ५ और ६ स्थानों में और उत्तरमुखगृहप्रवेश के समय प्रवेशलग्न से ११, १२, लग्न, २ और ३ स्थानों में स्थित रवि वामस्थ कहलाता है।
मनुष्य-जीवन, शभ सामग्री तथा धनवैभव ये तीनों बातें प्रत्येक प्राणी को पर्व पण्योदय से ही प्राप्त होती हैं। इनके मिल जाने पर जो व्यक्ति इनको यों ही खो देता है वह सछिद्र नौका के समान है, जो स्वयं डूबती है और अपने में बैठने वालों को भी डुबा देती है। जो मनुष्य अपने जीवन को धर्मकरणी से व्यतीत करता है उसका जीवन चिन्तामणिरल के समान सार्थक है और इसी के द्वारा स्वपर का आत्म-कल्याण हो सकता है।
- श्री राजेन्द्रसूरि
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मुहूर्तराज ]
[ २२९
स्पष्टार्थ के लिये नीचे चार पूर्वादिमुख भवना के मानचित्र एवं चार प्रवेश लग्नकुण्डलियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं जिनसे गृहप्रवेश में वामार्क रवि का बोध हो सकेगा।
पूर्वमुखगृह
3.
५५
प्रवेश कुण्डली
५०
2
प.
इसी विषय में
गुरुमत
स.
गृह
3.
१.४.
म
दक्षिणमुखगृह
पू.
ܘ
प्रवेश कुण्डली
?
प.
स.
द. 3.
3
पूर्वमुखगृह
पश्चिममुखगृह
पू.
प्रवेशतिथि पूर्णी ५. ४० पूर्णिमा
प्रवेश कुण्डली
८
सू.
२
इस श्लोक का अर्थ निम्नलिखित सारणी में स्पष्टतया अंकित है।
-
- पूर्वादिमुख भवनप्रवेश विहित तिथि ज्ञान सारणी -
द.
וי.
नन्दायां दक्षिणद्वारम् भद्रायां पश्चिमामुखम् । जयायामुत्तरद्वारम्, पूर्णायां पूर्वतो मुखम् ॥
दक्षिणमुखगृह
नन्दा- १. ६. ११
?
(२) स.
तथा च पूर्णातिथौ (५, १०, १५) प्राग्वदने पूर्वमुखे, नन्दादिके (नन्दा भद्राजयातिथिषु) क्रमेण दक्षिणमुखे, पश्चिममुखे, उत्तरमुखे च गृहे प्रवेश: शुभावहः ।
3.
स.
अर्थात - ५.१० और १५ पूर्णिमा को पूर्वमुखगृह में १, ६ और ११ को दक्षिणमुख घर में २.७ और १२ को पश्चिममुखगृह में तथा ३८ और त्रयोदशी को उत्तरमुखगृह में प्रवेश करना शुभ है।
पश्चिममुखगृह
भदा २. ७.१२
स
उत्तरमुखगृह
पू.
こ
प.
प्रवेश कुण्डली
३
द.
"
स.
उत्तरमुखगृह
जया ३.८.१३
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________________
२३० ]
प्रवेशसमय में शुक्रस्थिति
प्रवेश समय में शुक्र की स्थिति पीछे की ओर प्रवेशकर्ता (गृहपति) के रहनी चाहिए जैसा कि शुक्रं कृत्वा पृष्ठतो वामतोऽर्कम् विप्रान्पूज्यानग्रतः पूर्णकुंभम् । हर्म्य रम्यं तोरणस्त्रग्वितानै स्त्रीभिः स्त्रग्वी गीतमाल्यैर्विशेत्तत् ॥
अन्वय- शुक्रं पृष्ठतः (स्वपृष्ठभागे) वामतः (वामभागे) अर्कम् (रविम्) अग्रतः पूज्यात् विप्रान् पूर्णकुम्भं च कृत्वा तोरणस्त्रग्वितानैः (तोरणपुष्पमालाभिः) रम्यं स्त्रग्वी ( प्रवेशकर्ता स्वयं पुष्पमालां दधत् ) गीतमाल्यैः स्त्रीभिः (सह) तत् हर्म्यम् विशेत् (प्रविशेत्) ।
अर्थ - प्रवेशकर्ता को चाहिए कि जब वह भवन में प्रवेश करे तब शुक्र पीठ पीछे हो, रवि वामभाग में हो तथा आगे-आगे पूर्ण कुंभ एवं विप्रगण हों। इसी प्रकार तोरण एवं पुष्पमालाओं से विभूषित एवं प्रवेशकर्ता स्वकण्ठ में पुष्पमाला धारण किए हुए मंगल गीत गाती हुई सुहागिन स्त्रियों के साथ-साथ उस सुन्दर भवन में प्रविष्ट हो ।
आरम्भसिद्धि में भी
तथा च
" विधाय वामनः सूर्यम् पूर्णकुंभपुरस्सरः ।"
[ मुहूर्तराज
"स्वनक्षत्रे स्वलग्ने वा स्वमुहूर्ते स्वके तिथौ । प्रवेशगृहमाङ्गल्यम् सर्वमेतत्तु कारयेत् ॥ क्षुरकर्म विवादं च यात्रां चैव न कारयेत् । "
अर्थात्- अपने जन्मनक्षत्र में, जन्मलग्न में, जन्ममुहूर्त में एवं जन्म तिथि में गृहप्रवेश एवं सर्व मांगलिक कार्य तो किए जा सकते हैं परन्तु क्षौर कर्म, विवाद एवं यात्रा वर्ज्य है।
अब नीचे हम एक गृहप्रवेश में एवं आरंभ में ग्रहों की श्रेष्ठस्थानों मध्यम स्थानों एवं अधम स्थानों की स्थिति बतलाने वाली सारणी दे रहे हैं जिसके माध्यम से ग्रहों की प्रवेश एवं आरंभकालिक कुण्डलीगत स्थिति स्पष्ट होगी
ग्रहों की प्रकारत्रय से स्थिति को देखिए ज्यौतिषसार में
कुरा ति छ गारसगा सोमा किन्दे, तिकोणगे सुहया । कूर ठम अइ असुहा सेसा मज्झिम गिहारंभे ॥ किंद ठमन्ति कूरा असुहा ति इगा रहा सुहा सव्वे । कूरा बीआ असुहा सेस समा गिहपवेसे अ ॥ उपर्युक्त प्राकृत श्लोकों का स्पष्टार्थ निम्नलिखित सारणी में देखिए
Page #300
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________________
मुहूर्तराज ]
[२३१
- गृहप्रवेशलग्नकुण्डली में ग्रहों की उत्तममध्यमाधमस्थिति बोधार्थ सारणी -
ग्रहस्थिति ग्रह +
उत्तमस्थिति
उत्तमस्थिति
अधमस्थिति
सूर्य
३.
९,५
८, १, ४, ७ १०, १२, २ | सूर्य
|३,६,११ | १, ४, ७, १०, ९, ५
३, ११,
चन्द्र
८, २, ६, १२,
- - - - - - - - - - -
चन्द्र
मंगल
८, १, ४, ७, १०, १२, २ | मंगल
|१, ४, ७, १०, ९ ५,
८, २, ६, १२,
-
बुध
|१, ४, ७, १०, ९, ५
३, ११
1८, २, ६, १२,
-
-
-
-
-
-
- -
गरु
| १, ४, ७, १०, ९, ५
शक्र
८, २, ६, १२,
|- - - - - - - - - - -
शनि ३, ६, ११
८, १, ४, ७, १०, १२, २ शनि राहु ३, ३, ११
| ९, ५
८, १, ४, ७, १०, १२, २ | राहु गृहप्रवेश में उपरिलिखित पदार्थों पर विचार करते समय एक और वस्तु भी विचारणीय होती है और वह है कलशचक्र। इस विषय में मु. चिन्तामणिकार
गृहप्रवेश में कलशचक्र- (मु.चि.गृ.प्र.श्लो. ६)
वक्त्रे भू रविभात्प्रवेशसमय कुम्भेऽग्निदाहः कृताः , प्राच्यामुद्वसनं कृता यमगताः लाभः कृताः पश्चिमे । श्रीर्वेदाः कलिरुत्तरे युगमिता गर्भे विनाशे गुदे । रामाः स्थैर्यमतः स्थिरत्वमनलाः कण्डे भवेत्सर्वदा ॥
अन्वय - कलशवास्तुचक्रं चिकीर्षुणा कलश अष्टौ विभागाः कल्पनीयाः मुखम् कण्ठः, गर्भः, गुदभ् इति चत्वारः पूर्वादिदिक्परत्वेन चापि चत्वारः यावद् एवमष्टौ। रविभाच्य चन्द्रनक्षत्र यावद् गणना विधेया। प्रवेशासमये रविभात् चन्द्रनक्षत्रं भूः एकसंख्याकः अर्थात् रविनक्षत्र एव वक्त्रे कुम्भमुखे ज्ञेयः तत्फलमग्निदाहः,
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________________
२३२ ]
[ मुहूर्तराज
निक्षत्र
तत्फलमग्निदाहः, कृता: ततोऽग्रेतनानि चत्वारि नक्षत्राणि कलशस्य प्राच्यां (पूर्वादिशि) फलम् उद्वसनम् गृहं जनावासशून्यम् भवेत्, ततः कृता: पश्चिमें कलश पश्चिम दिग्विभागे फलम् श्री: (लक्ष्मीलाभ:) ततः वेदाः चतु:संख्यानि नक्षत्राणि उत्तरे फलम् कलि: (कलह:) भवेत्, तत: युगमिताश्चत्वारि भानि गर्भे कलश गर्भदेशे फलं भाविनां गर्भाणां विनाशः, तत: रामा: त्रीणि नक्षत्राणि गुदे फलम् स्थैर्यम् (चिरं तत्र गृहे गृहस्वामिनो निवास:) तत: अनला: त्रिसंख्यानि धिष्ण्यानि कण्ठे कल्पनीयानि फलम् गुदोक्तमेवार्थात् गृहपते: चिरकालं यावत् तस्मिन् गेहे सुखपूर्विका स्थिति भवेत् ।
अर्थ- कलश वास्तु चक्र में मुख, कण्ठ, गर्भ, गुदा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इस प्रकार कलश के अंग एवं पार्वात्मक आठ विभाग कल्पित किए जाते हैं । तत: सूर्य जिस नक्षत्र पर हो, उस नक्षत्र से जिस दिन प्रवेश करना हो उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना की जाती है। इस गणना करने से कछ संख्यक नक्षत्र शभ तथा कछ संख्यक नक्षत्र अशभ फलदायी माने गये हैं। सर्यनक्षत्र से गणना करने पर प्रथम चन्द्रनक्षत्र कलश के मुख पर रहता है जिसका फल अग्निदाह है। तत: ४ नक्षत्र पूर्वदिशा में जिनका कि फल वह गृह जनवासशून्य रहता है रहते हैं। उसके बाद के ४ नक्षत्र दक्षिणदिशा में फल लाभ है। आगे के ४ नक्षत्र पश्चिम रहते हैं। उनका भी फल धनलाभ है। तत: ३ नक्षत्र उत्तरदिशा के हैं जिनमें प्रवेश करने से परिवार में या पड़ोसियों से कलह होता है । तत: ४ नक्षत्र कलश गर्भ के हैं जो कि गृहस्वामिनी के गर्भो का विनाश करते हैं। और अबशिष्ट ६ नक्षत्र क्रमश: कलश गुदा तथा कण्ठ में होते हैं जिनका फल भी क्रमश: स्थिरता एवं चिरकाल तक गृहपति का ससुख गृहवास है।
इस प्रकार गृहप्रवेश वेला में कलश वास्तु चक्र के माध्यम से शुभफलद नक्षत्र ज्ञात करके ही भवन में प्रवेश करना चाहिए। ज्योति:प्रकाश में भी स्पष्टतया संक्षेप में कलश चक्र समझाया है यथा “भूर्वेदपंचकं त्रिस्त्रि: प्रवेशे कलशेऽर्कभात् । मृतिर्गतिर्धनं श्री:स्याद् वैरं रुक स्थिरता सुखम्' अर्थात् कलश में सूर्यनक्षत्र से १, ५, ५, ५, ५, ३ और ३ चन्द्रनक्षत्र निवास करते हैं जिनका फल क्रमश: मृत्यु, शुन्य, धन, श्री, वैर, रोग, स्थिरता एवं सुख है।
अथ कलश मानचित्र सनक्षत्र एवं सफल
सफल कलश चक्र
मुख १ अग्निदाह उत्तर २१-१७ कल
कण्ठ २५-२७ चिरस्थिति
पश्चिम १०-१३ धनलाभ
१८-२१ गर्भविनाश २२-२४ स्थिति
गुदा
२-५ शून्य
दक्षिण F०६-१ लाभ sonal use Only
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________________
मुहूर्तराज ]
[२३३
- सूर्यमहानक्षत्र से चन्द्रनक्षत्रावधि गणनागत, कलशवास्तुचक्र शुभांग स्थित नक्षत्र
स
सूर्य नक्षत्र से
दक्षिणदिग्गत
फल-लाभ चं.नं. ६ से ९ तक
पश्चिमदिग्गत फल-धनलाभ चं. नं. १०-१३ तक
कलशगुदगत फल-स्थिरता चं. नं. २२-२४
कलशकण्ठगत फल-चिरवास चं. नं. २५-२७
सू
अ.
आ.
| भर.
कत्ति. रोहि.
अनु.
my Jugva
| भर.
रोहि.
ज्ये.
कृत्ति
पू.षा.
रोहि.
ज्य
| पू.षा.
आर्दा
आ.
आ
अन. ज्ये.
ܠܢ ܠܢ܂ ܠܕ
पू.षा.
मघा.
अश्विनी न. आ. |पुन. | पु. | आ. | मघा | पू.फा | उ.फा.
| पू.भा. उ.भा. रेवती भरणी न. पुन. |पु. आ. | मघा | पू.फा. | उ.फा. हस्त | | चित्रा धनि. | शत. पू.भा.| उ .भा रेवती | | कृतिका न. पुष्य
मघा पू.फा.| उ.फा. | हस्त | चित्रा | स्वाती शत. [प.भा.| उ.भा. रेवती |अ. रोहिणी आश्ले. | मघा | पू.फा. उ.फा. हस्त |चित्रा स्वाती | विशा| पू.भा.| उ.भा. रेवती| अ. | मृगशिरा
मघा
| पू.फा.उ.फा. हस्त | चित्रा | स्वाती विशा. उ.भा. रेवती| अ. | भर. आर्द्रा न.पू.फा. | उ.फा. हस्त | चित्रा | स्वाती विशा. 3
| अ. | कृत्ति. मृग पुनर्वसु न.उ.फा. हस्त | चित्रा | स्वाती विशा. अनु.
आर्द्रा पुष्य | चित्रा | स्वाती विशा. अनु. |
भर.
मृग. ९ आश्लेषा न. चित्रा |स्वाती| विशा. अ
उ.षा. | कृत्ति.
आर्द्रा १० मघा |स्वाती
मूल. उ.षा. श्रवण रोहि. मग.
पुन ११] पू.फा. न. विशा.
मूल. उ.षा.| श्रवण धनि. मृग,
मघा १२/ उ.फा. मूल. पू.षा | उ.षा. श्रवण धनि |शत. |
आ. मघा
पू.फा. १३/ हस्त उ.षा. श्रवण धनि. | शत. | पू.भा.
| उ.फा. १४ चित्रा उ.षा. श्रवण धनि. |शत. पू.भा.| उ.भा.
पू.फा. उ.फा. १५ स्वाती
श्रवण धनि.
| उ.भा. रेवती आ. मघा | पू.फा. उ.फा. हस्त |चित्रा १६ विशाखा |श्रवण धनि. शत. | पू.भा. | उ.भा. रेवती अ.. पू.फा. उ.फा. हस्त चित्रा |स्वाती
| अनुराधा श्रवण | धनि | शत | पू.भा.] उ.भा. रेवती | अ. | | पू.फा.| उ.फा. हस्त | चित्रा | स्वाती| विशा. १८ ज्येष्ठा | धनि. पू.भा.| उ.भा. रेवती अ. |
उ.फा. हस्त | चित्रा | स्वाती | विशाअनु. पू.भा. उ.भा. रेवती अ. |भर कत्ति | हस्त | चित्रा | स्वाती| विशा. अनु. |ज्ये. २० पू.षा पू.भा. उ.भा. रेवती अ.
रोहि. मृग. | चित्रा | स्वाती विशा. २१ उ.षा. उ.भा. | रेवती| अ. | भर.
मृग स्वाती विशा. अनु.
पू.षा. २२श्रवण रेवती अ. | भर. कृत्ति
आर्द्रा
पू.षा. २३ धनिष्ठा न. अश्वि . भर.
पू.षा. उ.षा. २४ शतभिषा रोहि. मृग.
आ. २५/पू.भा. कृत्ति. रोहि मृग. | आर्द्रा
मघा | मूल | पू.षा.| उ.षा. श्रवण धनि | |शत. २६/उ.भा. रोहि. मृग.] आर्द्रा पुन.
पू.फा. पू.षा. उ.षा.| श्रवण धनि. शत. पू.भा. २७/रेवती | आद्रों पुन. | पु.
पू.फा. | उ.फा. उ.षा. | श्रवण धनि. शत. | | उ.भा.
| पू.फा.
मल
हस्त
FEEEEEEEEEEEEEEEEET EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
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EEEEEEEEEEEEEEEEEEEE REFEREE EEEEEEEEEE EEEEEEEEEEEEEEEEEE
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उ.षा.
ܠܠ ܠܕ
१९/ मूल
शत.
ܠܦܢ ܠܕ ܠܨ ܛܦܨ
कात्त
मन
| मूल
कत्ति
रोहि.
मूल.
| उ.षा.
विशा. अनु. अनु.
मग
आद्रा
ज
भर.
श्रवण | धनि.
आ.
मू
श्रवण
आ.
आ.
मघा
मृग.
:
मधा
आ.
पू.भा.
संसार में जितने जीव हैं वे अपने-अपने कृत कर्मों के अनुसार दुराचारी या सदाचारी बन जाते हैं। जो दुराचारी, अधम और अधमाधम हैं उनको दयापात्र समझकर, उन पर भी समभाव रखना, अति-रौद्र ध्यान को छोड़ना और धर्म-ध्यान में तल्लीन रहना, यह आत्मोन्नति का सरल मार्ग है।
- श्री राजेन्द्रसूरि
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२३४ ]
प्रवेश में निष्कृष्टार्थ विशेष -
कलश चक्र में शुभफलद नक्षत्र होने पर ही उस नक्षत्र में गृहप्रवेश करना चाहिए और वह प्रवेश नक्षत्र भी गृहप्रवेष्टव्य हो । और जिस दिग्द्वारमुख गृह में प्रवेश करना है उस दिग्द्वार का ही चन्द्रनक्षत्र हो । यथा यदि पूर्वमुखगृह में प्रवेश करना हो तो रोहिणी और मृगशिरा नक्षत्र ही ग्रहण करने चाहिए। दक्षिणाभिमुख गृहप्रवेश में उत्तराफाल्गुनी एवं चित्रा, पश्चिममुख गृहप्रवेशार्थ अनुराधा एवं उत्तराषाढा एवं उत्तराभिमुख भवन में प्रवेश करते समय उत्तराभाद्रपद और रेवती ही ग्राह्य हैं। इसी बात को इस ग्रन्थ में सारणी क्रमांक में स्पष्टतया दर्शा दिया गया है।
वास्तुपूजा
गृहप्रवेश दिन के पूर्व वास्तुपुरुष पूजन (वास्तुपूजा) भी अवश्य ही करना चाहिए इस विषय में मुहूर्त चिन्तामणिकार - (गृ.प्र.प्र. श्लोकांश ३ का )
" मृदुधुवक्षिप्रचरेषु मूलभे वास्त्वर्चनं भूतबलिं च कारयेत्"
अन्वय
मृदुषु (मृगरेवतीचित्रानुराधासु ) ध्रुवेषु (उ. फा., उषा. उ.भा. रोहिणीषु) क्षिप्रेषु (हस्ताश्विनीपुष्याभिजित्सु) चरेषु (स्वातीपुनर्वसुश्रवणधनिष्ठा शतभिषक् नक्षत्रेषु) मूलभे (मूले च नक्षत्रे) एषु नक्षत्रेषु वास्त्वर्चनम् (वास्तुपुरुषपूजनम्० भूतबलिम् (काक कीटपतंगादि जीवेभ्यः बलिम् भोज्यद्रव्यम्दानम् ) कारयेत्।
-
-
अर्थ मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, उ. फा., उषा, उ, भा., रोहिणी, हस्त, अश्विनी, पुष्य अभिजित्, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शततारा और मूल इन नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र में वास्तुपुरुष पूजन तथा भूतबलि का विधिवत् विधान करके ततः भवन में पूर्वोक्त प्रकार से गीत वादित्र साज-सज्जा समेत गृहपति को प्रवेश करना चाहिए ।
[ मुहूर्तराज
भिन्न-भिन्न पद्धतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से वास्तुपूजा दर्शाती गई है अतः जिज्ञासु जनों को एवं वास्तुपूजा चिकीर्षुजनों को तत्तद् ग्रन्थों से एतदर्थ अवलोकन कर लेना चाहिए ।
कुछ एक आचार्य प्रवेश के पहले दिन ही वास्तुपूजा का निर्देश करते हैं इसकी पुष्टि में नारद मत" विधाय पूर्वदिवसे वास्तुपूजा बलिक्रियाम्”
एवं श्रीपति ने भी -
अथ प्रवेशो नवमन्दिरस्य यात्रानिवृत्तौ अथ भूपतीनाम् । सौम्यायने पूर्वदिने विधाय वास्त्वर्चनं भूतबलिं च सम्यक् ॥ निर्माणे मन्दिराणां च प्रवेश त्रिविधेऽपि वा ।
वसिष्ठ भी
“वास्तुपूजा प्रकर्तव्या” कहकर वास्तुपूजा पर बल देते हैं ।
इस गृहप्रवेश प्रकरण में त्रिविध गृहप्रवेश के सम्बन्ध में जो अयनादि सम्बन्ध विविध विस्तारपूर्वक चर्चा की गई है उन्हीं बिन्दुओं को संक्षेप में एवं एकनिष्ठ समझने के लिए नीचे दो सारणियाँ दी जा रही हैं, जिनके द्वारा सम्यक्तया प्रवेश के ग्राह्य अयनमासनक्षत्रादि
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________________
[२३५
मुहूर्तराज ]
- नूतन गृहप्रवेश एवं सुपूर्वगृहप्रवेश में ग्राह्य अयनादि बोधसारणी सं. १ -
स
अयनादि शीर्षक नाम
अयनादिविवरण
अयन मास (चान्द्रमास) पक्ष
उत्तरायण वैशाख, ज्येष्ठ माघ एवं फाल्गुन शुक्लपक्ष पूर्ण, कृष्णपक्ष दशमी पर्यन्त
तिथि
तिथि
पूर्वद्वारगृह
दक्षिणद्वारगृह पश्चिमद्वारगृह पूर्णा (५,१०,१५) नन्दा (१,६,११) भद्रा (२,७,१२) चन्द्र, बुध, गुरु, शुक्र, शनि- कुछेक मत से शनि मध्यम फलद
जया (३,८,१३)
वार
वार
नक्षत्र
नक्षत्र
पूर्वद्वारगृह
दक्षिणद्वारगृह पश्चिमद्वारगृह उत्तरद्वारगृह (मृग रोहिणी) (उ.फा.चित्रा) (उ.षा.अनु.) (उ.भा. रेवती) विष्कुंभादि २७ योगों में से शुभ योगों में एवं अशुभयोगों की त्याज्या घटियों छोड़कर योगों में
७. | योग
८ लग्न
मिथुन, कन्या, धन, मीन एवं शुभग्रहीय स्थिरलग्न तथा शुभ नवांश चर लग्नों में भी
शुभग्रहीय नवांशक जिस पर सौभ्यग्रहों की दृष्टि हो अथवा सौम्यग्रहों की युति हो। प्रवेशकर्ता की जन्मराशि | प्रवेशकर्ता की जन्म राशि से १, ३, ६, १० एवं ११ वाँ प्रवेशलग्न तथा स्थिरसंज्ञक एवं जन्मलग्न से लग्न | राशि लग्नगत हो अथवा द्विस्वभावराशि प्रवेश लग्न गत हों।
क्रमांक १० | सूर्यादिग्रहस्थिति
स. चं. मं. | बु. गु. शु. श. | रा... तीसरे ३ १,४,७,
१,४,७, | १,४,७ | ३ छठे ६ १०,९,५, ६ १०,९, | १०,९, | १०,९ ग्यारहवें ११ । ३.११ ।
५,३,११, ५,३,११ | ५,३,११ ११ मृगशिरा रेवती, चित्रा, अनुराधा, उ.फा. उ.षा. उ.भा. रोहिणी, हस्त, अश्विनी, वास्तु पूजा नक्षत्र
पुष्य, अभि. स्वाती, पुन श्रवण, धनिष्ठा, शत, एवं मूल नक्षत्रों में से किसी एक में।
११
वामार्क ज्ञान प्रवेशलग्न कुण्डली में सूर्य स्थिति से
पूर्वमुखगृह
दक्षिणमुखगृह पश्चिममुखगृह उत्तरमुखगृह ८, ९, १० ५, ६, ७ २, ३, ४ ११, १२, लग्न | ११, १२,
८, ९ सूर्यनक्षत्र से
६-१३
१४-२९ । २२-२७
श्रेष्ठ पूज्यों विप्रों एवं जलपूर्ण कलश को आगे करके तोरण पुष्पमालादि से विभूषित मांगलिक गीत गाती हुई सौभाग्यवती स्त्रियों के साथ प्रवेशकर्ता नूतनगृह प्रवेश करें।
कलश चक्र
श्रेष्ठ
१४ प्रवेशविधि
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________________
२३६ ]
१
२
३
४
५
७
९
or or am yo
१०
११
१२
१३
१४
जीर्ण (अन्य से निर्मितगृह) एवं जीर्णोद्धत गृह प्रवेश में अयनादि बोध सारणी २
अन्वय
अयनादि शीर्षक
-
अयन
मास
पक्ष
तिथि
वार
नक्षत्र
योग
लग्न
प्रवेशकर्ता के जन्म लग्न एवं राशि से प्रवेश लग्न सूर्यादि ग्रहस्थिति
वास्तुपूजा
वामार्क
अथ प्रतिष्ठा समय विचार - (मत्स्य पुराण में )
कलशचक्र
प्रवेशविधि
अयनादि विवरण
इस प्रकार विस्तारपूर्वक यहाँ त्रिविध गृह प्रवेश के विषय में बतलाया गया। यद्यपि गृहप्रवेशार्थ जो शास्त्रसम्मत शुभपदार्थ ग्राह्य हैं एवं अशुभ वर्ज्य हैं इन्हीं सभी का विचार देवप्रतिष्ठा में भी किया जाता है तथापि प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में कुछ अन्यान्यग्रन्थोक्त वस्तुएँ यहाँ विस्तरशः दर्शायी जायेंगी ।
उत्तरायण एवं दक्षिणायन
वैशाख, ज्येष्ठ, माघ, फाल्गुन, श्रावण, कार्तिक एवं मार्गशीर्ष
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार एवं शत पुष्य, स्वाती धनिष्ठा भी
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
नूतन गृहप्रवेश सारणी अनुसार
[ मुहूर्तराज
चैत्रे वा फाल्गुने वापि ज्येष्ठे वा माधवेऽपि वा । माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा भवेत् ॥
चैत्रे, फाल्गुने, ज्येष्ठे माधवे ( वैशाखे ) माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा ( शुभकरी) भवेत् ।
Page #306
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________________
मुहूर्तराज ]
[ २३७
अर्थ - चैत्र, फाल्गुन, वैशाख ज्येष्ठ एवं माघ ये मास देवताओं की प्रतिष्ठा में शुभ हैं। और भी(मत्स्य पु.)
अन्वय
कतिपयेषामाचार्याणां मतेन श्रावणे लिङ्गम ( शिवलिङ्गम) आश्विने जगदम्बिकाम् (देवीम्) मार्गशीषे हरिम् (विष्णुम् ) पौषे सर्वान् देवान् स्थापयेत् ।
-
-
अर्थ कतिपय आचार्यों का कथन है कि श्रावण मास में शिवजी की आसोजमास में देवी की मार्गशीर्ष में विष्णु की एवं पौष में सभी देवताओं की प्रतिष्ठा करना शुभ है ।
आरंभसिद्धि में प्रतिष्ठार्थ संक्रान्ति एवं मास
श्रावणे स्थापयेल्लिङ्ग आश्विने जगदाम्बिकाम् । मार्गशीर्षे हरिं चैव सर्वान् पौषेऽपि केचन ॥
अन्वय - विवाहे, दीक्षायां प्रतिष्ठायां च रवौ मकरकुंभस्थे अथवा रवौ मेषादित्रयगेऽपि (मेषवृषमिथुनराशिगते) च लग्नम् (मुहूर्तम्) शुभम् ज्ञेयम् ।
लग्नं विवाहे दीक्षायां प्रतिष्ठायां च शस्यते । रवौ मकरकुंभस्थे मेषादित्रयगेऽपि च ॥
अर्थ - विवाह में दीक्षा में एवं प्रतिष्ठा में मकर, कुंभ, मेष, वृष एवं मिथुन संक्रान्तियाँ ग्राह्य हैं। रत्नमाला ग्रन्थ के भाष्य में "विवाहादौ स्मृतः सौरः" अर्थात् विवाहादि कार्यों में सौरमास ग्राह्य है ऐसा कहे जाने के कारण इनमें संक्रान्ति मास ( सौरमास ) बतलाए गए। अब नीचे चान्द्रमास बतलाए जा रहे हैंप्रतिष्ठा में चान्द्रमास - ( आ.सि.)
-
अन्वय
माघफाल्गुनयोः राध (वैशाख) ज्येष्ठयोश्चापि मासयोः विवाहादि कार्याणां कृते लग्नं मुहूर्तम् श्रेयः (शुभदम्) इति परे तु कतिपये आचार्यास्तु कार्तिकभार्गयोः कार्तिके मार्गशीर्षेऽपि शुभम् इति आहुः।
माघफाल्गुनयो राधज्येष्ठयोश्चापि मासयोः । लग्नं श्रेयः परे त्वाहुस्तद्वत् कार्तिकमार्गयोः
॥
अर्थ - अधिकतर आचार्यों का मत है कि विवाहादि में माघ, फाल्गुन वैशाख और ज्येष्ठ ये मास ग्रहण योग्य हैं पर कतिपय आचार्य इनके साथ-साथ कार्तिक एवं मार्गशीर्ष को भी ग्राह्य कहते हैं ।
विवाहा कार्य की भांति प्रतिष्ठा कर्म में भी जन्ममास, जन्मतिथि एवं जन्मनक्षत्र त्याज्य हैं— जन्ममासतिथि एवं नक्षत्रों की त्याज्यता - (आ.सि.)
ज्येष्ठापत्यस्य न ज्येष्ठे मासि स्यात् पाणिपीडनम् । न पुनस्त्रयमप्येतत् मासाहर्भेषु
जन्मनः ॥
उक्त तीनों कार्य जन्ममास, जन्मनक्षत्र एवं जन्मतिथि में नहीं करने चाहिएं।
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२३८ ]
[ मुहूर्तराज विवाह में वर एवं कन्या के जन्मासादियों का दीक्षा में शिष्य के जन्ममासादिकों का एवं प्रतिष्ठाकर्ता (स्थापक) के जन्ममासादिकों का त्याग करना चाहिए। कतिपय आचार्यों का मत में इनका अपवाद- (व्यवहारसार)
जन्ममासि विपरीतक्षयोः व्यत्यये दिननिशोर्जनुस्थितौ .
जन्मभेऽपिकिल राशिभेदतः पाणिपीडनविधिर्न दुष्यति । अर्थ - जन्ममास में जो पक्ष विपरीत (भिन्न) हो, जन्म की तिथि में जो रात्रि दिन की उल्टापल्टी हो और जन्मनक्षत्र में भी यदि राशिभेद हो तो विवाह कार्य में दोषप्रद नहीं। यहाँ विवाह की ही भाँति दीक्षा एवं प्रतिष्ठा में भी यदि उक्त बात हो तो कोई दोष नहीं है। प्रतिष्ठा में दिनशुद्धि- (आ.सि.)
सादिमं ग्रहणस्याहः सप्ताहं च तदप्रतः ।
___ त्यजेत्रिंशांशमेकैकं प्राक् पश्चाच्चापि संक्रमात् । अन्वय - ग्रहणस्य सादिम (आद्यदिवससहित) अहः तदग्रतः च ग्रहणोपरान्तं च सप्ताहं (सप्तदिनानि) संक्रमात् प्राक् पश्चात् च एकैकं त्रिंशांशं त्यजेत्।
जिस दिन ग्रहण हो उस दिन से पूर्व का दिवस, ग्रहण का दिवस एवं ग्रहणोपरान्त के सात दिवस एवं संक्रान्ति से पूर्व का जिस दिन संक्रान्ति हो वह एवं संक्रान्ति के बाद का इस प्रकार तीन दिनों का त्याग किसी भी शुभकार्य में करना चाहिए। यहाँ कतिपय आचार्य
"त्रयोदर्शातो दशाहं सूर्येन्दुग्रहणे त्यजेत्" ___ अर्थात् सूर्य या चन्द्रग्रहण में त्रयोदशी से लेकर १० दिवस पर्यन्त (त्रयोदशी से सप्तमी तक) कोई भी शुभ कार्य न करे। अंगिरा के मत में कुछ विशेष
सर्वग्रस्तेषु सप्ताहं पञ्चाहं स्याद्दलग्रहे ।
त्रिद्वयेकार्धाङ्गलमासे दिनत्रयं विवर्जयेत् ॥ अर्थात्- यदि ग्रहण भग्रास हो तो ग्रहणोपरान्त के सात दिवसों को अर्ध ग्रास हो पाँच दिवसों को तथा तीन, दो एक या अर्ध अंगुलग्रास हो तो तीन दिवसों को किसी भी शुभ कार्य में त्यागना चाहिए। पुनः दैवज्ञ वल्लभ में
राहौ दृष्टे शुभं कर्म वर्जयेद्दिवसाष्टकम् ।
त्यवत्त्वा वेतालसंसिद्धि पापदंभमयं (पापदं भयद) तथा । अर्थात्- राहुदर्शनोपरान्त (ग्रहणोपरान्त) ८ दिनों तक शुभ कर्म वर्ण्य है। परन्तु बेताल (भूत-प्रेत्तादि) साधन तथा पाप एवं दंभपूर्ण कर्म अथवा पाप एवं भयदायक कर्म वयं नहीं अपितु करणीय हैं।
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[२३९
मुहूर्तराज ] भद्रादिदोषों से लग्नभंग- (विवाहवृन्दावन)
गंडान्तेषु सवैधृतौ उभयतः संक्रान्तियामद्वये यामार्धव्यतिपातविष्टिकुलिकैर्भग्नं विलग्नं जगु ॥
अर्थ - अर्धप्रहर, व्यतिपाद, भद्रा एवं कुलिक के साथ गण्डान्त में वैधृति में और संक्रान्तिकाल से पूर्व एवं पर के प्रहरों में जो लग्न उसे भग्न लग्न कहते हैं जिसमें किसी भी शुभ कार्य को नहीं करे। प्रतिष्ठानक्षत्र- (वसिष्ठ)
हस्तत्रये मित्रहरित्रये च पौष्णद्रयादित्यसुरेज्यभेषु
स्यादुत्तरास्वातिशशांकभेषु, सर्वामरस्थापनमुत्तमं च । अन्वय - हस्तत्रये (हस्तचित्रास्वातिनक्षत्रेषु) मित्रहरित्रये (अनुराधाज्येष्ठामूलश्रवणधनिष्ठा-शततारकानक्षत्रेषु) पौष्णद्वयादित्यसूरेज्यभेषु (रेवती अश्विनी पुनर्वसुपुष्योत्तरात्रयेषु) धातृशंशाकभेषु (रोहिणीमृगशीर्षयोः) सर्वामरस्थापनम् उत्तमं स्यात्।
अर्थ - समस्त देवताओं की प्रतिष्ठा के लिए हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषक्, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, तीनों उत्तरा, रोहिणी और मृगशिर ये नक्षत्र शुभफलद हैं। प्रतिष्ठा में पक्ष- (वसिष्ठ)
प्राप्य पक्षं शुभं शुक्लमतीते दक्षिणायने । अर्थात्- उत्तरायण के समय में समस्त शुक्लपक्ष एवं कृष्णपक्ष भी दशमी पर्यन्त शुभावह है। प्रतिष्ठातिथि विचार- (नारद)
यद्दिनं यस्य देवस्य तद्दिने तस्य संस्थितिः । द्वितीयादिद्वयोः पंचम्यादितस्तिसृषु क्रमात् ।
दशम्यादि चतसृषु पौर्णमास्यां विशेषतः अन्वय - यस्य देवस्य यद्दिनं तद्दिने तस्य संस्थितिः कार्या, तथा च विशेषतः द्वितीयादिद्वियोः (द्वितीयातृतीययोः) पंचम्यादितस्तिसृषु (पंचमीषष्ठीसप्तमीषु) दशम्यादिचतसृषु (दशमीएकादशीद्वादशी-त्रयोदशीषु) पौर्णभास्याम् देवप्रतिष्ठापनं शुभम्।
अर्थ - जिस देव की जो तिथि हो उस तिथि उस देव की स्थापना शुभदा है एवं द्वितीया, तृतीया पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी, एकादशी, द्वादशी त्रयोदशी एवं पूर्णिमा ये तिथियाँ देवप्रतिष्ठार्थ शुभद मानी गई हैं।
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२४० ]
[ मुहूर्तराज प्रतिष्ठा वार विचार
सोमो बृहस्पतिश्चैव, शुक्रश्चैव तथा बुधः ।
एते वाराः शुभाः प्रोक्ताः प्रतिष्ठायज्ञकर्मणि ॥ अर्थ - प्रतिष्ठा एवं यज्ञकर्म में सोम, गुरु, शुक्र एवं बुध ये वार शुभ हैं। प्रतिष्ठा के विषय में कुछ अन्यान्य बातें
रोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्याश्विनीवासवा नुराधैन्दवजीवभेषु गदितं विष्णोः प्रतिष्ठापनम् । पुष्यश्रुत्यभिजित्सु चेश्वरकयोः वित्ताधिपस्कन्दयोः ।
मैत्रे तिग्मरुचेः करे निऋतिभे दुर्गादिकानां शुभम् ।। अन्वय - विष्णोः प्रतिष्ठापनम् रोहिण्युत्तरपौष्णवैष्णवकरादित्याश्विनी वासवानुराधैन्दवजीवभेषु ईश्वरकयोः (महादेवब्रह्मणोः) पुष्यश्रुत्यभिजित्सू, वित्ताधियस्कन्दयोः मैत्रे, तिग्भरुचेः (सूर्यस्य) करे (हस्तनक्षत्रे) तथा दुर्गादिकानाम प्रतिष्ठायनम् निऋतिभे (मूल) शुभम् गदितम्। ___ अर्थ - श्री विष्णु की प्रतिष्ठा रोहिणी, तीनों उत्तरा, रेवती, श्रवण, हस्त, पुनर्वसु, अश्विनी, धनिष्ठा, अनुराधा, मृगशिर तथा पुष्य में, महादेव और ब्रह्मा की प्रतिष्ठा पुष्य, श्रवण और अभिजित् में, कुबेर तथा कार्तितस्वामी की प्रतिष्ठा अनुराधा में, सूर्य की प्रतिष्ठा हस्त में, तथा दुर्गा आदि देवताओं की प्रतिष्ठा मूल नक्षत्र में करनी शुभ है। प्रतिष्ठा में लग्न- (वसिष्ठ)
स्थाप्यो हरिर्दिनकरो मिथुने महेशो , नारायणश्च युवतौ घटके विधाता । देव्यो द्विमूर्तभवनेषु निवेशनीयाः ,
क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहे निखिलाश्च देवा ॥ अन्वय - मिथुने हरिः (विष्णुः) दिनकरः (सूर्यः) महेशः (महादेवः) स्थाप्यः युवतौ कन्यायां च नारायणः (कृष्णः) स्थाप्यः। घटके (कुंभे) विधाता ब्रह्मा, द्विमूर्तभवनेषु (द्विस्वभावलग्नेषु) देव्यः स्थाप्याः, चरे (चरलग्नेषु मेष,कर्कतुलामकरेषु) क्षुद्राः (योगिस्यः) निवेशनीयाः तथा स्थिरगृहे (वृषसिंह-वृश्चिककुंभेषु) च निखिलाः देवाः स्थाप्याः।
अर्थ - मिथुन लग्न में विष्णु सूर्य एवं महादेव की, कन्या लग्न में श्रीकृष्ण की, कुंभ लग्न में ब्रह्मा की द्विस्वभाव लग्नों में (३, ६, ९, १२) देवियों की, चर लग्नों में (१, ४, ७, १०) योगिनियों की एवं स्थिरलग्नों (२, ५, ८, ११) सभी देवों की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
[२४१
आरंभसिद्धि में भी
लग्नं श्रेष्ठं प्रतिष्ठायां क्रमान्मध्यमथावरम् ।
द्वयङ्ग स्थिरं च भूयोभिर्गुणैराढ्यं चरं तथा ॥ अन्वय - प्रतिष्ठायां द्वयङ्ग स्थिरं तथा च भूयोभिः गुणैः आढ्यं चरं लग्नं क्रमात् श्रेष्ठ, मध्यम् अथ अवरं भवतीतिशेषः।
अर्थ - श्रीजिनेश्वर प्रतिष्ठा में द्विस्वभाव लग्न श्रेष्ठ हैं, स्थिर लग्न मध्यम हैं एवं अधिक गुणों से युक्त अर्थात् द्विस्वभाव नवांशों वाले शुभग्रहों से युक्त एवं दृष्ट चर लग्न कनिष्ठ हैं। अन्यदेवों की प्रतिष्ठा में लग्न मत
सौम्यैः देवाः स्थाप्याः क्रूरैः गन्धर्वयक्षरक्षांसि ।
गणपतिगणांश्च नियंत कुर्यात् साधारणे लग्ने ॥ सौम्य लग्नों में देवों की क्रूर लग्नों में गन्धर्वो यक्षों एवं राक्षसों की तथा गणपति एवं गणों में निश्चयपूर्वक साधारण लग्नों में प्रतिष्ठा करनी चाहिए। प्रतिष्ठा में लग्ननवांश- (आ.सि.)
अंशास्तु मिथुनः कन्या धन्वाद्याधं च शोभनाः ।
प्रतिष्ठायां वृषः सिंहो वणिग्मीनश्च मध्यमाः ॥ अन्वय - प्रतिष्ठायां मिथुनः, कन्या धन्वाद्यार्ध च एते अंशाः शोभनाः (ज्ञेयाः)। वृषः सिंहः, वणिक् (तुला) मीनश्च एते अंशाः (नवांशाः) मध्यमाः। __ अर्थ - प्रतिष्ठा में मिथुन कन्या एवं धन का प्रथम अर्ध भाग ये नवांश श्रेष्ठ हैं, वृष, सिंह तुला और मीन के नवांश मध्यम हैं इससे यह स्पष्ट हो जाता है शेष नवांश (मेष, कर्क वृश्चिक एवं मकर तथा धनु का उत्तरार्ध) अधम ही हैं। इसी बात को अर्थात् प्रतिष्ठा लग्न नवांशों के विषय में फलसहित नारचन्द्र टिप्पण में भली प्रकार स्पष्ट किया गया है
मेषांशे स्थापितं बिम्बं वह्निदाहभयावहम् । वृषांशे म्रियते कर्ता स्थापकश्च ऋतुत्रये । मिथुनांशः शुभो नित्यं भोगदः सर्वसिद्धिददः ॥ कुमारं तु हन्ति कर्कः कुलनाश ऋतुत्रये विनश्यति ततो देवः षड्भिरब्दैन संशयः ॥ सिंहांशे शोकसंतापः कर्तुस्थापकशिल्पिनाम् । संजायते पुनः ख्याता लोकेऽर्चा सर्वदैव भोगः सदैव कन्यांशे, देवदेवस्य जायते
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२४२ ]
[ मुहूर्तराज धनधान्ययुतः कर्ता मोदते सुचिरं भुवि ॥ उच्चाटनं भवेत् मृत्युस्तुलांशे वत्सरद्वये ॥ वृश्चिके च महाकोपं राजपीडासमुद्भवम् । अग्निदाहं महाघोरं - दिनत्रये विनिर्दिशेत् ॥ धन्वंशे धनवृद्धि स्यात् सद्भोग च सदा सुरैः । प्रतिष्ठापककर्तारौ नन्दतः सुचिरं भुवि ॥ मकरांशे भवेन्मृत्युः कर्तुस्थापक शिल्पिनाम् । वज्राच्छ्वाद् वा विनाशस्त्रिभिरब्दैन संशयः ॥ घटाँशे भिद्यते देवो, जलपातेन वत्सरात् । जलोदरेण कर्ता च, त्रिभिरब्दैविनश्यति ॥ मीनांशे त्वय॑ने देवो वासवाद्यै सुरासुरैः ।
मनुष्यैश्च सदा पूज्यो विना कारापकेण तु ॥ अर्थ - मेंषांशे - लग्न के मेष के नवांश में देव प्रतिष्ठा करने से अग्निदाह से भय बना रहता है। लग्न के वृषनवांश में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो प्रतिष्ठापक गुरु तथा यजमान की तीन ऋतुओं के अन्तराल में मृत्यु होती है। मिथुनांश प्रतिष्ठा हेतु निरन्तर शुभ है। भोगों को देने वाला और सर्वसिद्धियों का प्रदाता है।
यदि कर्क नवांश में प्रतिष्ठा की जाय तो प्रतिष्ठा करने वाले का पुत्र मृत्यु को प्राप्त होता है तथा तीन ऋतुओं में (छः मासों में) कुल का नाश भी हो जाता है एवं स्वयं प्रतिष्ठित देव की प्रतिमा भी नष्ट हो जाती है इसमें किञ्चिन्मात्र भी संशय नहीं।
सिंह नवांश में प्रतिष्ठा करने पर कर्ता (प्रतिष्ठाकारक गुरु) स्थापक (यजमान) एवं शिल्पी को शोक एवं सन्ताप होता है, परन्तु वह प्रतिमा लोक में प्रतिमा प्रतिष्ठा एवं पूजा प्राप्त करती है।
कन्यांश में प्रतिष्ठित देव सर्वदा भोग (पूजा) को प्राप्त होते हैं और प्रतिष्ठाकर्ता चिरकाल तक मोद एवं धनधान्य में सम्पन्न रहता है।
तुलांश में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो कर्ता का नाश या उसे निरन्तर बन्धन प्राप्त होता है और दो वर्षों के अन्दर-अन्दर स्थापक की मृत्यु होती है।
यदि वृश्चिकनवांश में प्रतिष्ठा की जाय तो तीन दिनों के भीतर-भीतर राजा की ओर से महती पीड़ा एवं महाकोप होते हैं।
धननवांश में प्रतिष्ठा करने से धन की वृद्धि और निरन्तर देवों से सद्भोग प्राप्त होते हैं तथा प्रतिष्ठापक एवं आचार्य चिरकाल तक पृथ्वी पर आनन्दित रहते हैं।
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मुहूर्तराज ]
[२४३ यदि मकरांश में प्रतिष्ठा की जाय तो कर्ता (आचार्य) स्थापक (यजमान) एवं शिल्पी मृत्यु पाते हैं और तीन वर्षों के भीतर-भीतर वज्र (विद्युत्पात) अथवा शस्त्र से वह प्रतिमा भी नष्ट हो जाती है इसमें कोई सन्देह नहीं।
घटांश (कुम्भनवांश) में प्रतिष्ठा करने से वह प्रतिमा एक वर्ष के अन्दर जलपात से भिद जाती हैनष्ट हो जाती है तथा प्रतिष्ठाकर्ता की तीन वर्षों में जलोदर रोग से मृत्यु हो जाती है।
मीनांश में प्रतिष्ठा करने से उस प्रतिमा की सुरों एवं असुरों पर द्वारा पूजा की जाती है तथा प्रतिष्ठा कराने वाले के अतिरिक्त सभी के द्वारा वह प्रतिमा अर्चित की जाती है।
___ इस प्रकार मेष से मीन तक के नवाशों में प्रतिष्ठा करने के शुभाशुभ फल प्रदर्शित किए गए। रत्नमाला में तो मंगल के नवांशों को त्यागकर अन्य सभी नवांशों में प्रतिष्ठा करने का विधान है।
दीक्षा प्रतिष्ठा एवं विवाह में लग्नकर्तरी चन्द्रकर्तरी एवं लग्न से अथवा चन्द्र से सप्तम स्थान में शुक्र अथवा किसी पापग्रह के कारण जामित्र नामक दोष को भी त्यागना चाहिए। देखिए इस विषय में आरम्भसिद्धि में जो कहा गया हैलग्न विषय में सामान्य नियम
त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ शुक्रक्रूराश्रितधुनौ ॥
नेष्टौ लग्नविधू केन्द्रस्थितसौभ्यो तु तौ मतौ । अन्वय - त्रिष्वपि (प्रतिष्ठादीक्षाविवाहेषु) क्रूरमध्यस्थौ (द्वयोः क्रूरयोः ग्रहोमध्य स्थितौ तथा च शुक्रक्रूराक्षितधुनौ (लग्नात् चन्द्राद् वा सप्तमस्थाने शुक्रः क्रूरो वा ग्रहो भवेत् तदा) लग्नविधू (लग्नचन्द्रौ) नेष्टौ (न शुभावहौ) किन्तु तादृश्यामपि स्थित्यां यदि लग्नात् चन्द्राद् वा केन्द्रे चतुर्षु स्थानेषु सौम्याग्रहाः भवेयुः तदा तौ (उपर्युक्तस्थितियुतौ) लग्नविधू मतौ ग्राह्यौ भवतः न तत्र कोऽपि दोषलेशः इति। ___ अर्थ - प्रतिष्ठा दीक्षा एवं विवाह में यदि लग्न अथवा चन्द्र के दोनों और दुष्टग्रह हो तो इसे लग्नकर्तरी और चन्द्रकर्तरी कहते हैं। इसी प्रकार लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में शुख अथवा किसी क्रूर ग्रह के होने पर जामित्र नामक दोष होता है इन्हें उक्त तीनों कार्यों में छोड़ना चाहिए परन्तु ऐसी स्थिति में भी यदि लग्न से अथवा चन्द्र से केन्द्रस्थानों में सौम्यग्रह हो तो इन दोषों का नाश होता है और ये कर्तरीदोष एवं जामित्र अशुभावह नहीं बनते। कर्तरी का फल एवं परिहार भार्गव मत से
क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेन्मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगदः ।
शुभैर्धनस्थैरथवान्त्यगे गुरौ न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः ॥ अन्वय - (यदि) तनुः (लग्नम्) क्रूरग्रस्यान्तरगा (द्वयोः क्रूरग्रहयोः मध्यगता) भरेत् (तर्हि) सा मृतिप्रदा (भवति) शीतकरश्च (चन्द्रः वा) रोगदः (रोगकारकः भवति) परं धनस्थैः (द्वितीय भागवगतैः) शुभैः (शुभग्रहैः), अथवा गुरौ अन्त्यगे (द्वादशस्थानगते) इह (एवं स्थितौ) कर्तरी न स्यात् इति भार्गवाः विदुः।
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२४४]
[ मुहूर्तराज अर्थ - अगर क्रूर ग्रहों के मध्य में लग्नराशि हो तो कर्तरी योग बनता है तो वह कर्तरी मृतिप्रदा है अर्थात् ऐसी लग्नस्थिति में प्रतिष्ठादि शुभ कार्य करने से मृत्यु होती है एवं यदि चन्द्र दो पापग्रहों के मध्य में स्थित हो तो वह कर्तरी रोग उत्पन्न करती है, किन्तु यदि धनस्थान में शुभग्रह एवं बारहवें स्थान में गुरु के रहते “कर्तरी" नहीं होती। ऐसा भार्गव मत है। कर्तरी के विषय में व्यास-- (बादरायण)
त्रिकोणकेन्द्रगो गुरुः त्रिलाभगो रविर्यदा ।
तदा न कर्तरी भवेत् जगाद बादरायणः ॥ अन्वय - यदा गुरुः त्रिकोण केन्द्रगो (त्रिकोणगतः केन्द्रगतो वा) स्यात् रविः (च) त्रिलाभगः (तृतीयस्थानगतः एकादशस्थानगतो वा) तदा कर्तरी न भवेत् (इति) बादरायणः (व्यासः) जगाद (अकथयत्)।
___ अर्थ - व्यास का कथन है कि यदि गुरु त्रिकोत्र (५, ९) अथवा केन्द्र (१, ४, ७ १०) में हो और तीसरे अथवा ग्यारहवें स्थान में रवि हो तो “कर्तरी” नहीं बनती अर्थात् कर्तरी दोष होते हुए भी दोषावह नहीं।
ऊपर जिस लग्नकर्तरी एवं चन्द्रकर्तरी का जो उल्लेख किया गया है वह कर्तरी तीन प्रकार की है। विवरणार्थ देखिए(I) अतिदुष्टा कर्तरी
यदि द्वितीय भाव में स्थित क्रूर ग्रह वक्री हो एवं १२ वें स्थान में स्थित क्रूर ग्रह शीघ्र गति हो तो दोनों ओर से लग्न पर संघट्ट (दबाव) होता है अतः यह अत्यन्त अशुभकारी होती है। (II) दुष्टा कर्तरी__यदि धनस्थान एवं व्यय स्थान में स्थित दोनों क्रूर ग्रह मध्यमगतिक हों अथवा उन दोनों स्थानों में स्थित क्रूरग्रह वक्री हो तो वह कर्तरी (दुष्टा) मध्यमदुष्ट होती है कारण कि लग्न को एक ही ओर से संघट्ट (धक्का) लगता है। (III) अल्पदुष्टा कर्तरी
जब धन स्थान एवं व्यय स्थान में (दूसरे एवं बारहवें भाव में) स्थित ग्रह क्रमशः मध्यमगतिक एवं वक्रगतिक हो तो वह कर्तरी अल्प दुष्टा है, क्योंकि ऐसी कर्तरी में दोनों ग्रहों की गति लग्न की ओर न होकर विपरीत दिशा में होती है अर्थात् कर्तरी वियुक्त होती है (खलती है) अतः अल्पदूषण करती है। ऐसी स्थिति में भी (इस अल्पदुष्टा कर्तरी में भी) यदि द्वितीय स्थान में स्थित ग्रह अतिचारी (शीघ्रगतिक) हो तो विशेष करके यह कर्तरी-वियोग शीघ्रता से होता है अतः और भी न्यून दोषावह है। लग्न कर्तरी की ही भाँति चन्द्रकर्तरी की प्रकल्पना कर लेनी चाहिए।
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मुहूर्तराज ]
अब नीचे इन तीनों प्रकार की कर्तरी को स्पष्टतया ज्ञात करने हेतु छः कुण्डलियाँ दी जा रही हैं ।
चन्द्रकर्तरी (अ.दु.)
३
३
३
२ रा.
४
६
४
मार्गी अथवा वकी
२ म
६
लग्नकर्तरी (अतिदुष्टा)
मार्गी
२.म.
૪
६
१
८
लग्नकर्तरी (मध्यमदुष्टा )
१
७
शीघ्रगति २श. मागी
१०
८
लग्नकर्तरी (स्वल्पदुष्टा )
रा. वक्री
१२
67
मार्गी अथवा वकी
१२.म.
१०
१०
११
९
११
११
९
३ चं.
३ च.
३ चं.
शीघ्रगनिरश.
मागी
रा. ४
६
मार्गी अथवा वकी
२ शं.
मार्गी अथवा वकी
४ म.
६
रा. वक्री
४ मं.
★ मार्गी
६
चन्द्रकर्तरी (म.दु.)
१
१
१२
१०
पूर्वं पश्चात् पापात् तिंथ्यंशा घाटमध्यगश्चन्द्रः । वर्जयितव्या योगे यस्माद् राश्यंशरश्मियुति ॥
८
चन्द्रकर्तरी (स्व. दु.)
१२
१०
१२
१०
[ २४५
१५.
११
यदि कदाचित् अन्य लग्न के ( कर्तरीदोषरहित ) न मिलने पर यदि कर्तरी युक्त लग्न ही लेना पड़े तो लग्न के दोनों ओर के १५-१५ अंशों के भीतर की कर्तरी को त्याग कर १५-१५ अंशों के बाहर की कर्तरी ग्राह्य कर लेनी चाहिए ।
११
इसी प्रकार चन्द्र के भी दोनों ओर १५-१५ अंशों के भीतर की कर्तरी त्यागनी चाहिए, बाहर की कर्तरी ग्रहण की जा सकती है।
यथा व्यवहार में -
९
अर्थ - चन्द्र के पूर्व और अनन्तर पन्द्रह अंशों के भीतर जो पापग्रहरूपी कर्तरी हो तो वह त्याज्य है क्योंकि वह राशि एवं अंशादियों की युति कहलाती है ।
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२४६ ]
[ मुहूर्तराज यहाँ यह शंका स्वाभाविक रूपेण उठती है कि इस कर्तरी में लग्न एवं चन्द्र को ही महत्व क्यों दिया गया तो समाधान यह है कि समस्त ग्रह लग्न के बल से शरीर सम्बन्धी एवं चन्द्र के बल से शरीर सम्बन्धी एवं चन्द्र के बल से मन सम्बन्धी (भावना के सम्बन्ध से) शुभाशुभ फल देते हैं। प्रतिष्ठालग्न में ग्रहों की युति एवं दृष्टि- (आ.सि.)
स्थापने स्युर्विधौ युक्ते दृष्टे चारादिभिः क्रमात् ।
अग्नि भी ऋषिसिद्धार्चा श्रीपञ्चत्वाग्निभीतयः । अर्थ - प्रतिष्ठालग्न में यदि चन्द्रमा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि एवं रवि से युक्त अथवा दृष्ट हो (चन्द्र पर उक्त ग्रहों की दृष्टि हो) तो क्रमशः अग्निभय, समृद्धि, प्रतिमा की अधिष्ठायक देव सहित पूजा, लक्ष्मीप्राप्ति, मृत्यु एवं अग्निभय से फल होते हैं। स्पष्टार्थ हेतु सारणी देखें
- प्रतिष्ठालग्न में ग्रह-युति-दृष्टि-फल-सारणी -
कार्य
युति
दृष्टि
+
+
चन्द्र पर मंगल की चन्द्र पर बुध की चन्द्र पर गुरु की
अग्निभय समृद्धि प्रतिमा की अधिष्ठायक देव
+
देवादिप्रतिष्ठा
चं +
शु.
सहित अर्चा लक्ष्मीलाभ मरण अग्निभय
चन्द्र पर शुक्र की चन्द्र पर शनि की चन्द्र पर सूर्य की
चं + श.
चं +
सू.
यहाँ पर श्लोक में यद्यपि सामान्यतया दृष्टि शब्द का प्रयोग किया गया है
तथापि पूर्ण एवं त्रिपाद - दृष्टि ही ग्राह्य है अर्थात् पूर्ण एवं त्रिपाद दृष्टि होने पर ही उक्त फलाफल जानने चाहिए। समस्त शुभ कार्यों के लग्नों में त्याज्य पदार्थ- (आ.सि.)
जन्मराशि जनेर्लग्नं ताभ्यामन्त्यं तथाष्टमम् । लग्नलग्नांशयोश्चेशौ लग्नात्वष्ठाष्टमौ त्यजेत् ॥
अन्वय - (समस्तशुभकृत्येषु लग्नकुण्डल्यां) जन्मराशि, जनेः (जन्मनः) लग्नम्, ताभ्याम् (जन्मराशिलग्नाम्याम्) अन्त्यं द्वादशम् तथाष्टमम् लग्नम्, लग्नात् षष्ठाष्टमो षष्ठेऽष्टमे च स्थाने स्थितौ) लग्न लग्नाशयोः लग्न तन्तवांशकराश्योः ईशौ स्वामिनौ (एतत्सर्वम्) त्यजेत्।
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[२४७
मुहूर्तराज ] ___ अर्थ - किसी भी करणीय कार्य की लग्नकुण्डली में शुभकार्यसम्पादन कर्ता की जन्मराशि लग्न को, जन्मलग्न को, इन दोनों से बारहवें तथा आठवें लग्न को एवं लग्न से छठे एवं आठवें स्थान में लग्न पति एवं लग्ननवांश पति की स्थिति को त्यागना चाहिए।
प्रतिष्ठा लग्नकुण्डली में सप्तमस्थान में त्याज्य ग्रहसंस्था- (आ.सि.)
रविः कुजोऽर्कजो राहुः शुक्रो वा सप्तमस्थितः । हन्ति स्थापक कर्तारौ स्थाप्यमप्यविलम्बितम् ॥
अन्वय - (प्रतिष्ठालग्नकुण्डल्याम्) सप्तमस्थितः (लग्नात्सप्तमभावगतः) रविः, कुजः, अर्कजः (शनि) राहुः शुक्रो वा स्थापक कर्तारौ स्थाप्यमपि अविलम्बितम् अविलम्बेन अर्थात् शीघ्रमेव हन्ति (नाशयति)। ___ अर्थ - यदि प्रतिष्ठालग्न कुण्डली में लग्न से सप्तमस्थान में सूर्य, मंगल, शनि, राहु या शुक्र की स्थिति प्रतिष्ठा करने वाले को प्रतिष्ठा कराने वाले आचार्य को एवं प्रतिमा को शीघ्र ही नष्ट करता है।
प्रतिष्ठादि कार्यों में सामान्यतया ग्रहस्थितिरूप योग- (आ.सि.)
लाभेऽर्कारौ शुभा धर्मे "श्रीवत्सो" यद्यरौ शनिः । अर्धेन्दुर्विक्रमे मन्दो रविाभे रिपौ कुजः ॥ शंखः शुभग्रहैर्बन्धु धर्मकर्म स्थितैभवेत् ॥ ध्वजः सौम्यैः विलग्नस्थैः क्रूरैश्च निधनाश्रितैः ॥ गुरुर्धर्मे व्यये शुक्रः लग्ने ज्ञश्चेत्तदा गजः । कन्यालग्नेऽलिगे चन्द्रे हर्षः शुक्रेज्ययोर्मूगे ॥ घनुरष्टमगैः सौम्यैः पापैर्व्ययगतैभवेत् ॥ कुठारो भार्गवे षष्ठे धर्मस्थेऽर्के शनौ व्यये ॥ मुशलो बन्धुगे भौमे, शनावन्त्येष्ठमे विधौ । चक्रं च प्राचि चक्राधे चन्द्रात् पापशुभैः ॥ कूर्मः पुत्रार्थरन्धान्त्येऽवारमन्देन्दुभास्करैः ।
वापो पापैस्तु केन्द्रस्थैयोगाः स्युादशेत्यमी ॥ उपर्युक्त श्लोकों में प्रतिष्ठादि शुभकृत्यों में शुभाशुभफलद ६ सुयोग और ६ कुयोगों का निर्देश किया गया है। उन योगों के नाम हैं- (१) श्रीवत्स (२) अर्धेन्दु (३) शंख (४) ध्वज (५) गज (६) हर्ष (शुभदयोग) एवं (७) धनुष (८) कुठार (९) मुशल (१०) चक्र (११) कूर्म (१२) वापी। इन्हें स्पष्टतया समझने के निमित्त यहाँ १२ कुण्डलियाँ आगे पृष्ठ पर दी जा रही हैं
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२४८ ]
१ || श्रीवत्सयोग ||
१२
३
८
દ
८
९
४
५.
पा
६श
८
४ || ध्वजयोग||
3
3
७
७
८
४.
६सौ.
6.
७
८
व. गरु
आदि
१०
९
७ ॥ धनुर्योग ||
६
५
१०
३ पा
१.
९
भू
२
पापा
११
१०
१ २ सौ. १२ १० ॥ चक्रयोग ।। २ मी
४.सी.
.म. आदि
१२ ९
܀
२ ७
२ ॥ अर्धेन्दुयोग
3
१२ च.
99
रत्नमाला में भी गजादि चार योगों के लक्षण -
५
७म
५ || गजयोग ||
3
C
१०
१२
८ ॥ कुठारयोग
५५
९श.
३ १२ १०
५
१०
२
५१
११
१४.
४
" १० ७ ९ ९
८
२
शु.४ ३
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३शु.
११ || कर्मयोग ।।
१.श.
७
सू.
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५
५.
3
च
३ || शंखयोग ||
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3
उस ६ २
६बु. १२च.
८ ९म..
३
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१०
६ || हर्षयोग ||
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४ च. ४
३ पा
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१ :
१
१३ || मुशलयोगा||
6
६श
१२
90 ६स ११ १२ १२ || वापीयोग।।
च २
४
19
३
५
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पा १२
X
X
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९.पा. ६ पा.
३
७. 10
"
तनुनवभवगैः क्रमेण योगो बुधविबुधार्चितपङ्गुभिर्गजः ” स्यात् । व्ययरिपुहिबुकेषु वक्रशुक्रद्युमणिसुतैः क्रमशः "कुठार" एषः ॥ रविकविरविजेन्दुभिः क्रमेण, व्ययधनषनिधनेषु " कूर्म" एषः । व्ययनिधनतनूषु मन्दचन्द्ररुणकिरणैर्मुशलं जगुः कवीन्द्रा : ॥
[ मुहूर्तराज
अन्वय- क्रमेण (क्रमश:) बुधविबुधार्चितपङ्गुभि: (बुधगुरुशनिभिः) तनुनवभवगै: (लग्ननवमैकादशस्थानगतैः सदभिः) गज: (गजनामा ) योग: स्यात् । वक्र शुक्र घुमणिसुतै: ( शनिशुक्र बुधैः) व्ययरिपुहिब के ( द्वादशषष्ठ चतुर्थस्थानेपु सदभिः) एषः कुठारयोगः । रवि कविरविजन्दुभिः क्रमेण व्ययरिपुहिब के पु (१२, २, ६, ८ ) एषु स्थानेषु सदभिः कूर्मयोगः स्यात् । तथा च व्ययनिधनतनूषु ( द्वादशाष्ट्रमलग्नेषु) मन्दचन्द्ररुणकरणैः (शनिचन्द्ररविभि: सद्भिः) कवीन्द्राः मुशलं एतन्नामकं जगुः ।
अर्थ - यदि प्रतिष्ठादि कार्यो के लग्न चक्र में (लग्नकुण्डली में ) लग्न में बुध, नवम गुरु और एकादश (११) में शनि हो तो गज योग, बारहवें शनि. छठे शुक्र, चौथे बुध हो तो कुठार योग, बारहवें में सूर्य, दूसरे में शुक्र षष्ठ में शनि अष्टम
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मुहूर्तराज
[ २४९
में चन्द्र हो तो कूर्म योग और बारहवें में शनि आठवें में चन्द्र एवं लग्न में सूर्य हो तो मुशल योग बनता है, ऐसा विद्वानों का कथन है।
स्पष्टता के लिए कुण्डलियाँ प्रस्तुत हैं - | १३ ।।गजयोग।। १४ ।।कुठारयोग।। १५ ॥कूर्मयोग।। १६ ॥मुशलयोग।।
उपर्युक्त सोलह कुण्डलियों में से हर्षयोग वाली कुण्डली के अतिरिक्त १५ कुण्डलियों लग्नादिक राशियाँ कल्पित हैं । सजन विद्ववृन्द यहाँ स्थानविशेषता समझें, अर्थात् अमुकामुक स्थानों में तत्तद्ग्रह स्थिति से अमुकामुक योग बनते हैं जो कि शुभ कार्यों में शुभाशुभ फल देते हैं। उपर्युक्त योगों की शुभाशुभता - (आ.सि.)
एम्य: श्रीवत्सपूर्वाः षट् पूर्वे सर्वेषु कर्मसु ।
श्रेयस्तमा धनुर्मुख्यास्तवन्यथा स्युः षडुत्तरे ।। अन्वय - एभ्यः (पूर्वोक्तद्वादशयोगेभ्य:) पूर्वे प्रथमोक्ता षड़ योगा: सर्वेषु कर्मसु श्रेयस्तमा: ज्ञेया, धनुर्मुख्यास्तु षडुत्तरे योगा: अन्यथा (विरुद्धफलदातार:) स्युः ।। अर्थ - इन बारह योगों में से प्रथम के छ: योग (
) समस्त शुभकार्यां, में कल्याणप्रद हैं । अन्तिम छ: योग (धनु आदि) तो विपरीत फलदायी हैं अर्थात् विघ्नकारी हैं। यहाँ कुछ श्रीपूर्वभद्र के विचार - (प्रा.)
उदयठमगे मम्मं१ नवमपञ्चमे क्रूरकण्टयं २ भणियं । दशमचरत्थे सल्लं३ क्रूरा उदयत्थितं छिदं ।। मम्म दोसेण मरण कण्टयदोसेण कुलक्खओ होइ।
सल्लेण रायसत्तू छिद्दे पुत्तं विणासेइ ।। अर्थात् - किसी भी कार्य की लग्न वेला में यदि लग्न एवं अष्टम में क्रूर ग्रह स्थित हो तो “मर्म" नामक दोष, नवें पाँचवें हो तो "क्रूरकण्टक", दसवें और चौथे हो तो “शल्य'दोष, और लग्न में हो तो छिद्र नामक दोष होता है।
मर्म दोष से शुभकार्यकर्ता का मरण होता है अथवा उसे अपमादि सहन करने पड़ते हैं। कष्टक दोष कुलक्षयकारी है। शल्य दोष में राजा अथवा बड़े आदमियों से अकारण शत्रुता हो जाती है। और छिद्र दोष से पुत्र का विनाश होता है।
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२५० ]
[ मुहूर्तराज कतिपय अन्य शुभ लग्न कुण्डली के योग-(आ.सि.)
आनन्द१ जीवर नन्दन३ जीमूत४ जय५ स्थिरा६ मृता योगाः ।
ज्ञगुरुसितैः प्रत्येकं विकत्रिकैश्चापि लग्नगतैः॥ अन्वय- ज्ञगुरुसितैः (बुधगुरुशुक्रै;) प्रत्येकं (केवलम् एक: बुध: एक: गुरु: एक: शुक्रो वा लग्नगते: (लग्नकुण्डल्या लग्नराशौ स्थितैः) क्रमश: आनन्दः, जीव:, नन्दनः, जीमूतः, जयः, स्थिर: अमृत: च योगा: शुभफलदा: भवन्ति । अयमाशय:- लग्नकुण्डल्यां स्थितेत बुधेन आनन्दाख्य, गुरुणा जीवाख्य:, शुक्रेण नन्दनाख्य:, बुधगुरुभ्या जीमूत:, बुध शुक्राभ्यां जयाख्यः, गुरुशुक्राभ्यां स्थिर: तथा च बुधगुरुशुक्रे: त्रिभिः लग्नस्थितै: अमृताख्य: योग: भवति ।
अर्थ- यदि लग्नकुण्डली में लग्नराशि में बुध हो तो आनन्द नामक, गुरु से जीव नामक, शुक्र से नन्दन नामक, बुध एवं गुरु दोनों से जीमूत नामक बुध एवं शुक्र दोनों से जय नामक, गुरु एवं शुक्र दोनों से स्थिर नामक एवं बुध गुरु तथा शुक्र तीनों के लग्नराशि में रहते अमृत नामक योग बनता है।
स्पष्टता के लिए नीचे सात कुण्डलियाँ दी जा रही हैं। |आनन्दयोगः।। १. ॥जीवयोगः।।२
नन्दनयोगः॥३ द्वितीय / द्वादश/ द्वि. / द्वादश/ द्वितीय / द्वादश । एका.| तृतीय
एका. तृतीय
तृतीय
लय
X
एका.
(
चतुर्थ
X
दशम
चतर्थ
>
दशम
X
चतुर्थ
दशम
पञ्चम
ममम
नवम | पञ्चम
सप्तम
नवम | पञ्च
सप्तम
नवम
/अष्टम
/पष्ट
अष्टम
षष्ठ
अष्टम
॥जीमूतयोगः।। ४ ॥जययोगः।। ५
स्थिरयोगः।।६ द्वितीय/. द्वादश/ द्वि. / द्वादश
द्वादश तृतीयX लग्न Xएका. तृतीयX लग्न X एका. तृतीयX लग्न Xएका
द्वितीय
चतर्थ
X
दशम
K
चतुर्थ
X
दशम
K
चतुर्थ )
दशम
सप्तम
X
नवम | पञ्चम
सप्तम
नवम | पञ्च
सप्तम
नवम
अष्टम
अष्टम
षष्प
अष्टम
॥अमृतयोगः।। ७
द्वितीय
द्वादश
तृतीय
एका.
चतुर्थ
X
दशम
पञ्चम
सप्तम
नवम
अष्टम
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मुहूर्तराज ]
[२५१ आनन्दादियोगफल- (आ.सि)
योगाः यथार्थनामानः सर्वेषूत्तमकर्मसु ।
ऐश्वर्यराज्यसाम्राज्यविधातारः क्रमादमी ॥ अन्वय - अमी यथार्थनामानः योगाः क्रमात् सर्वेषूत्तमकर्मसु ऐश्वर्यराज्य साम्राज्य विधातारः भवन्तीतिशेषः।
अर्थ - ये उपर्युक्त शुभ योग एक २ ग्रह से बनने वाले (आनन्द, जीव एवं नन्दन) ऐश्वर्यप्रदाता, दो २ ग्रहों से बनने वाला अमृत योगा चक्रवर्तित्त्व (साम्राज्य) प्रदाता हैं। प्रतिष्ठालग्नकुण्डली में रेखादायिग्रहसंस्था- (आ.सि.)
प्रतिष्ठायां श्रेष्ठो रविरूपचये (३,६,१०,११) शीतकिरणः । स्वधर्मादये तत्र (२, ३, ६, ९, १०, ११) क्षितिजरविजौ त्र्यायरिपुगौ (३,११,६) बुधस्वर्गाचार्यो व्ययनिधनवर्जी (१,२,३,४,५,६,७,९,१०,११) भृगुसुतः, सुतं यावल्लग्नानवमदशमांयेष्वपि तथा (१,२,३,४,५,९,१०,११)
अन्वय - प्रतिष्ठायां (प्रतिष्ठापने) रविः उपचये (तृतीयषष्ठदशमैकादशस्थानेषु) श्रेष्ठः, शीतकिरणः (चन्द्रः) तत्र स्वधर्माढ्ये (तृतीयषष्ठदशमैकादशद्वितीयनवमस्थानेषु) शुभः क्षितिजरविजौ (भौमशनी) घ्यायरिपुगौ (तृतीयैकादशषष्ठेषु) श्रेष्ठौ भवतः तथा बुधस्वार्गाचायौ (बुधगुरु) व्यय निधन वर्जी (अष्टमद्वादशौ भावौ त्यक्त्वा अन्यत्र प्रथमद्वितीय तृतीयचतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमनवमदशमैकादशेषु स्थितौ शुभौ। भृगुसुतः लग्नात् (लग्नराशेः) सुतं यावत् (पञ्चमगृहं यावत्) नवमदशमायेष्वपि च श्रेष्ठफलदाता भवति।
अर्थ - प्रतिष्ठाकर्म में लग्नकुण्डली में सूर्य की स्थिति तीसरे छठे और ग्यारहवें चन्द्रमा की स्थिति दूसरे तीसरे, छठे नवें, दसवें और ग्यारहवें, मंगल एवं शनि की स्थिति तीसरे ग्यारहवें और छठे, बुध एवं गुरु की अष्टम और द्वादश स्थान के अतिरिक्त अन्य सभी स्थानों पर शुक्र की प्रथम से पञ्चम तक तथा नवें दसवें और ग्यारहवें शुभफलदायिनी होती है। प्रतिष्ठा भंगद ग्रहसंस्था- (त्रिविक्रम)
लग्नमृत्युसुतास्तेषु पापः रन्ध्र शुभाः स्थिताः ।
- त्याज्याः देवप्रतिष्ठायां लग्नषष्ठाष्टगः शशी ॥ अन्वय - देवप्रतिष्ठायां लग्नमृत्युसुतानस्तेषु (प्रथमाष्टमपञ्चमसप्तमस्थानेषु) पापाः (रविभौम शनिराहवः) रन्ध्रे (अष्टमे) शुभाः ग्रहाः तथा च शशी लग्नषष्ठाष्टगः (प्रथमषष्ठाष्टमस्थानगः) एते त्याज्याः कदापि न ग्राह्याः।
अर्थ - देवप्रतिष्ठा में उसकी लग्नकुण्डली के प्रथम (लग्न) अष्टम, पञ्चम एवं सत्तम में स्थित पापग्रह (मंगल, शनि, रवि, एवं राहु) एवं अष्टम में स्थित शुभग्रह तथा लग्न में, छठे और आठवें में स्थित चन्द्र, ये सभी त्याज्य हैं।
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२५२ ]
[ मुहूर्तराज यहाँ कुछ विशेष- (त्रिविक्रम)
इस प्रकार उपरिलिखित से तात्पर्य यह है कि कोई एक ग्रह लग्नभंगद हो तो अधिक रेखा वाले लग्न भी प्रतिष्ठादि करना ठीक नहीं परन्तु यदि कोई भी ग्रह लग्नभंगद स्थान में न हो और कुछेक ग्रह इष्टद हों और कतिपय अनिष्ट स्थान स्थित हो तो भी अधिक रेखावाला लग्न ही ग्राह्य है। ऐसा त्रिविक्रम का कथन है।
नारचन्द्र में तो उत्तम, मध्यम, विमध्यम और अधम ये ग्रहों के चारों प्रकार के ग्रहों की कुण्डली में स्थिति से माने हैं
त्रिरिपार वासुतखेर स्वत्रिकोणकेन्द्र३ विरैस्मरेऽत्रा४ ग्न्यर्थे५
लाभे क्रूर१ बुधार चिंत३ भृगु४ राशि५ सर्वे६ क्रमेण शुभाः ॥ तथा च
खेऽर्कः केन्द्रारिधर्मेषु शशी ज्ञोऽरिनवास्तगः । षष्ठेज्यः स्वत्रिगः शुक्रो मध्यभाः स्थापनक्षणे ॥
आरेन्द्वर्काः सुतेऽस्तारिरिव्ये शुक्रास्त्रिगो गुरुः ।
विमध्यमा शनिर्धीखे सर्वे शेषेषु निन्दिता । अन्वय - त्रिरिपौ (तृतीयषष्ठयोः) आसुतखे (प्रथमतः पञ्चमं यावत् तथा दशमे) स्वत्रिकोणकेन्द्रे (द्वितीय नवमपञ्चम प्रथम चतुर्थसप्तमदशमस्थाने) विरैस्मरे (धनस्थानस्त्रीस्थानं च विहाय अन्येषु (८,५,१,४, तथा १० स्थानेषु) अग्न्यर्थे (द्वितीय तृतीययोः) एषु २ स्थानेषु क्रमशः क्रूरबुधार्चितभृगुराशिसर्वे क्रमेण शुभाः भवन्ति।
अर्थ - क्रूर ग्रह (रवि, मंगल, शनि एवं राहु) ३, ६ में, बुध (१,२,३,४,५, और १० वें) में, गुरु २,५,९,१,४,७,१० वें में, शुक्र गुरु के सात स्थानों में से दूसरे और सातवें को छोड़कर अन्यत्र (५,९,१,४,१०) वें चन्द्रमा २ और ३ रे में सभी ग्रह (शुभ एवं अशुभ) ग्यारहवें में यह ग्रहों की उत्तम भंगी है अर्थात् इन स्थानों में स्थित ये ग्रह उत्तम फलदायी हैं। तथा च
सूर्य १० वें में, चन्द्रमा १,४,७,१०,६ और ९ वें में बुध ६,९ और ७ वें में गुरु ६ठे में, शुक्र २ और ३ रे में, स्थित प्रतिष्ठासमय में मध्यम फलदायी हैं। और
मंगल सूर्य और चन्द्रमा ५ वें में, शुक्र सातवें, छठे और बारहवें में, गुरु ३ रे में और शनि ५ और १० वें में यदि स्थित हो तो ये ग्रह विमध्यम प्रकार के कहलाते हैं और अवशिष्ट स्थानों में स्थित समस्त ग्रह अधम प्रकार के हैं।
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[२५३
मुहूर्तराज ] स्पष्टतार्थ ग्रहों की इन चारों भंगिमाओं को सारणी में देखें
- प्रतिष्ठा में ग्रहसंस्था से विभिन्न प्रकार बोधक सारणी -
ग्रह
उत्तम ग्रहस्थिति
मध्यमग्रहस्थिति
विमध्यम ग्रहस्थिति | अधम ग्रहस्थिति
|
१० १,४,६,७,९,१०
मंगल
१,२,४,७,८,९,१२ ८,१२ १,२,४,७,८,९,१० ८-१२ ८-१०
बुध
६,७,९
3
गुरु
२,३,११ ३,६,११ १,२,३,४,५,१०,११ १,२,४,५,७ ९,१०,११ १,४,५,९,१०,११ ३,६,११ ३,६,११ ३,६,११
२,३
६,७,१२ ५,१०
शनि
;
१,२,४,७,८,९,१२ १,७
२,४,५,८,९,१०,१२ २,४,५,८,९,१०,१२
१,७
श्रीपूर्णभद्र के मतानुसार ग्रहसंस्था के फल
प्रासादभंग हानी२ धन३ स्वजन४ पुत्रपीड५ रिपुघाताः । स्त्रीमृति७ मृतिट धर्मगमाः९ सुख१० र्द्धि११ शोकाः१२ तनोः प्रभृति सूर्यात् ॥ कर्तृविनाश धनागमर सौभाग्य३ द्वन्द्व४ दैन्य५ रिपुविजयाः । शशिनो ऽसुख७ मृतिट विघ्नाः९ नृपपूजा१० विषय११ वसुहानी१२ ॥ दहनं सुरगृहभंगोर भूलाभो३ रोग४ पुत्र शस्त्रमृति५ । रिपु नारी७ स्वजन८ गुणभ्रंशा९ रोगा१० र्थ११ हानयो१२ भौमात् ॥ कीर्ति१ वृद्धिः२ सौख्यं३ रिपुनाशः४ सुतसुखं५ स्वजनशोकः । स्त्रीसुख७ गुरुमृति८ धन९ लाभ१० ऋद्धयो११ हानिर रमरगुरोः ॥ सिद्धि१ धनर मान३ तेजः४ स्त्रीसुख५ दुष्कीर्तयक्ष सुताप्तियुता चैत्यादिसर्वहांनि७ श्वासुख८ मितरेषु ९,१०,११,१२ पूज्यता शुक्रात् ॥ पूजा १ कर्तृविधातार भूरिविभव३ प्रासादबन्धूनयाः४, पुत्राक्षेम५ विपक्षरोगविलय
ज्ञातिप्रियाव्यापदः७ । गोत्रप्राणविपत्तिट
पातकपरिष्बंको
च९
कार्यक्षतिः१० कान्ताकाश्चनरत्न
जीवित
धन
मन्देन मान्द्योदयः ॥
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२५४ ]
इन सकल कुण्डलियों में राहु का विचार शनि की भाँति करना चाहिए ।
श्रीपूर्णभद्र के इस प्रकार की ग्रहसंस्था जो फल सहित दर्शायी गई है उसे समझने के लिए नीचे एक सारणी दी जा रही है।
क्र.
सं.
१
२
३
४
५
६
9
८
९
१०
११
१२
ग्रह →
स्थान ↓
लग्न
धनभाव
बन्धुभाव
मातृभाव
पुत्रभाव
शत्रुभाव
स्त्रीभाव
आयुष्य
भाव
धर्म
भाव
कर्म
भाव
लाभ
भाव
व्यय
भाव
प्रतिष्ठा कुण्डली में भावस्थित्यनुसार ग्रहों की शुभाशुभता बोध सारणी सूर्य
फल J
प्रासाद
भंग
धननाश
धनप्राप्ति
स्वजनों
में पीड़ा
पुत्रपीडा
शत्रुनाश
स्त्रीमरण
प्रतिष्ठा
कर्तृमरण
धर्मनाश
सौख्य
चन्द्र
फल J
प्रासाद
कनाश
धनप्राप्ति
सौभाग्य
कलह
मनो
मालिन्त
दैन्यभाव
शत्रुओं की विजय
सुख का
अभाव
मरण
मंगल
फल ↓
राज्य सम्मान
प्रासाद
दाह
प्रासाद
भंग
भूमि से
लाभ
स्त्रीनाश
स्वजनों
पर संकट
विघ्नपीड़ा सामाजिक
उपेक्षा
रोग
पुत्र की शस्त्र से
मृत्यु
रिपुनाश
रोग
ऋद्धिवृद्धि मन का
स्वास्थ्य
शोक
धनहानि हानि
धनप्राप्ति
बुध
फल ↓
प्रासाद की चिर
महा
धनलाभ
शत्रुनाश
सौख्य
पुत्रलाभ
शत्रुनाश
श्रेष्ठ- स्त्री
प्राप्ति
आचार्य
मरण
धनलाभ
कार्यों में सिद्धि
आभूषण का लाभ
धनलाभ
गुरु
फल ↓
कीर्तिवृद्धि
जनधन
वृद्धि
सौख्य
शत्रुनाश
पुत्रसौख्य
स्वजनों
से शोक
प्रतिष्ठाकारक गुरु
का मरण
धनप्राप्ति
जन धन
लाभ
ऋद्धिलाभ
भयंकर
कष्ट
शुक्र
फल J
पुत्र-प्राप्ति
स्त्री-सौख्य पर चैत्य
का नाश
प्रतिमा
कार्यसिद्धि पूजा में
अवरोध
धन
लाभ
सम्मान
प्राप्ति
स्त्री का
सुख
अपशय
प्रासाद
तेजोवृद्धि एवं बन्धु विनाश
विविध कष्ट
शनि
फल ↓
समाज में
सम्मान
पूजा
प्रतिष्ठा
कर्तनाश
समाज में
सम्मान
पूजा
अधिक धन
वैभव
पुत्र पर
संकट
रोग निवारण
सम्बन्धी
जन एवं स्त्रीमरण
किसी गोत्रीय बन्धु
[ मुहूर्तराज
पाप में
प्रवृत्ति
समाज में कार्य हानि
सम्मान
पूजा
समाज में स्त्री, सुवर्ण
सम्मान
पूजा
सतत रुग्णता
राह+केतु
फल↓
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
शनिवत्
एव रत्नादि शनिवत्
का लाभ
शनिवत्
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मुहूर्तराज ]
[२५५ प्रतिष्ठाकुण्डली के ग्रहों की भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न देवताओं की प्रतिष्ठा के विषय लल्लश्री अरिहन्त स्थापना में कुण्डली में ग्रह स्थिति
बलवति सूर्यस्त सुते बलहीनेऽङ्गारके बुधे चैव
मेषवृषस्थे सूर्ये क्षपाकरेऽर्चाहती स्थाप्या ॥ अर्थ - जब कुण्डली में शनि बलवान हो मंगल और बुध बलहीन हों, सूर्य और चन्द्र मेष और वृष में स्थित रहे तब श्री अरिहन्त प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिए। श्री महादेव की स्थापना में कुण्डली में ग्रहस्थिति
बलहीने त्रिदशगुरौ, बलवति भौमे त्रिकोणस्थे ।
असुरगुरौ चायस्थे महेश्वरार्चा प्रतिष्ठाप्या ॥ अर्थ - यदि प्रतिष्ठाकुण्डली में गुरु बलहीन हो, मंगल बलवान हो अथवा त्रिकोण में स्थित हो और शुक्र ग्यारहवें स्थान में हो तो श्री महादेव प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। श्री ब्रह्मा की स्थापना में कुण्डली में ग्रहस्थिति
बलहीने त्वसुरगुरौ बलवति चन्दात्मजे विलग्ने वा ।
त्रिदशगुरावायस्थे स्थाप्या ब्राह्मी तथा प्रतिमा ॥ अर्थ - शुक्र बलहीन हो, बुध बलवान् हो अथवा लग्न में बैठा हो और गुरु ग्यारहवें स्थान में स्थित हो तब ब्रह्मा प्रतिमा की स्थापना करना श्रेयस्कर है। श्री देवीस्थापना में कुण्डली में ग्रहस्थिति
शुक्रोदये नवम्यां बलवति चन्दे कुजे गगनसंस्थे ।
त्रिदशगुरौ बलयुक्ते देवीनां स्थापयेदर्चाम् ॥ अर्थ - नवमी का दिन हो, शुक्र, उदय हो, चन्द्र बलवान् हो, मंगल दशम स्थान में हो एवं गुरु बलवान् हो तब देवी की प्रतिमा स्थापना उपयुक्त है।
बुधलग्ने जीवे वा, चतुष्टयस्थे भृगौ हिबुक संस्थे ।
वासवकुमारयक्षेन्दुभास्कराणां प्रतिष्ठा स्यात् अर्थ - बुध लग्न में हो अथवा गुरु चतुष्टय में (१, ४, ७, १०) हो शुक्र हिबुक (४) स्थान में हो उस समय इन्द्र, कार्तिक स्वामी, यक्षचन्द्र और सूर्य की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
फल
अस्मात्कालाद् भष्टास्ते कारकसूत्रधारकर्तृणाम् । क्षयमरणबन्धनाभयविवादशोकादिकतरिः ॥
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२५६ 1
[ मुहूर्तराज अन्वय - अस्मात् कालात् (उपरिलिखित तत्तद्देवतास्थापने निश्चितात् कालात्) (लग्नकुण्डली स्थितग्रह विविधस्थित्या शुभसूचनामकात्) भ्रष्टाःते देवाः (समुचितग्रहस्थितिविपरीततायां प्रतिष्ठापिताः) देवाः कारक सूत्रधार कर्तृणाम् (प्रतिष्ठाकारकगुरोः सूत्रधारस्य प्रतिष्ठाकर्तृः) यजमानस्य क्षयमरणबन्धनामभयविवाद शोकादि कर्तारः भवन्ति इति।
अर्थ - उपरिलिखित जैसी स्थिति यदि लग्न कुण्डली में न हो तो कालभ्रष्ट उपर्युक्त देवादि प्रतिष्ठा कराने वाले गुरु के सूत्रधार (सुधार) (सोमपुरा) और प्रतिष्ठाकर्ता यजमान के क्षय, मरण, बन्धन, रोग, कलह, शोक आदि के करने वाले होते हैं।
उपरिलिखित श्रील्ल के कथनानुसार लग्नकुण्डली में ग्रहों की स्थिति होने पर तत्तद्देवता प्रतिमा की स्थापना करनी, ऐसा जो है उसका तात्पर्य यह है कि उन २ स्थानों में स्थित वे-वे ग्रह पूर्ण विंशोपक देते हैं और वे शुभफलदायी है। अब विंशोपक क्या होते हैं और किस २ ग्रह के कितने हैं। जिज्ञासा होने पर विंशोपक बल की चर्चा करना प्रसंगोपात्त ही रहेगा। अतः अब आगे विंशोपक पल के विषय में श्री आ.सि. के टिप्पणगत शब्दों में
अद्धठ विसा ३॥ रविणो पण ५ ससिणो ३ तिन्नि हुँति तह गुरुणो । दो-दो (२-२) बुहसुक्काणं, सुरुड्ढा (१॥-१॥) सणिभोमराहुणम् ॥
अर्थात्- सूर्य के (३॥) चन्द्रमा के (५) गुरु के (३) बुध एवं शुक्र के (२-२) और शनिमंगल तथा राहु का प्रत्येक का (१॥-१॥) ये सभी मिलकर २० विश्वा होते है जो विंशोपक बल है।
पुनः आरम्भसिद्धिकार के शब्दों में बलहीन ग्रहों की स्थिति में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो फल क्या निकलते हैं देखिए
बलहीनाः प्रतिष्ठायां रवीन्दुगुरुभार्गवा ।
गृहेश१ गृहिणीर सौख्य३ स्वानि४ हन्युर्यथाक्रमम् ॥ अन्वय - प्रतिष्ठायां बलहीनाः (स्वोच्चमित्रादिराशिस्थित्यात्मकबलहीनाः) रवीन्दुगुरुभार्गवाः (सूर्यचन्द्रगुरुशुक्राः) गृहेशगृहिणीसौख्यस्वाति प्रतिष्ठाकर्तृतद्गृहिणीसौख्यधनाति क्रमशः हन्युः (नाशयेयुः)
अर्थात्- बलहीन१ सूर्यः प्रतिष्ठाकर्तारं, चन्द्रः तद्गृहिणीम्, गुरुः सुखम् भार्गवश्च धनं नाशयति।
अर्थ - प्रतिष्ठालग्नकुण्डली में यदि सूर्य बलहीन हो तो गृहपति (प्रतिष्ठाकर्ता) का चन्द्र बलहीन हो तो उसकी पत्नी का, गुरु सुख का और शुक्र धन का विनाश करते हैं। तथा च
अन्वय - तनुबन्धुसुतङ्नधर्मेषु (प्रथमचतुर्थपञ्चमसप्तमनवमेषु स्थानेषु स्थितः) तिमिरान्तकः (सूर्यः) तथा सकर्मसु (उपर्युक्तपञ्चस्थानेषु दशमे च) कुजार्की (भौमशनी) सुरालयम् (देवालयम्) संहरन्ति उन्मूलयन्ति।
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मुहूर्तराज ]
[२५७ अर्थ - और यदि प्रथम, चतुर्थ, पञ्चम, सप्तम और नवम स्थान में सूर्य हो और इन स्थानों में (१,४,५,७,९) एवं दशम स्थान में मंगल और शनि हो तो ऐसी वेला में प्रतिष्ठा करने पर देवालय का नाश हो जाता है, वह देवसदन भग्न हो जाता है। __अब समस्त शुभ कृत्यों में शुभग्रहों की स्थिति को फल सहित बतलाते हैं देखिए आरं.सि. कार के शब्दों में ही
सौम्यवाक्पति शुक्राणां यः एकोऽपि बलोत्कटः ।
क्रूरैरयुक्तः केन्द्रस्थः सद्योऽरिष्टं पिनिष्टि सः ॥ अन्वय - सौम्यवाक्यपतिशुक्राणां यः एकोऽपि बलोत्कटः क्रूरैः (क्रूरग्रहैः) अयुक्तः (विहीनः) न सहस्थितः क्रूरेणेत्यर्थ। तथैव केन्द्रस्थः (१,४,७,१०) एषु स्थानेषु स्थितः सः इत्थम्भूतेः बलोत्कटः (बलेन उत्कृष्टः) सद्य त्वरितं (शीघ्रम्) अरिष्टम् (आधिव्याध्यादि) पिनष्टि (चूरयति, चूर्णीकरोति)
अर्थ - बुध, गुरु एवं शुक्र इन तीनों में यदि एक भी स्वमित्रोच्चराशिस्थितिजन्य बल से उत्कृष्ट हो, क्रूर ग्रहों से युक्त न हो और केन्द्रस्थान में हो वह तत्काल अरिष्ट का नाश करता है और मंगलकारी बनता है। ___ यहाँ ग्रहों की बलवत्ता एवं बलहीनता की जो चर्चा की गई है उससे यह तात्पर्य है कि ग्रहों का विंशधा (बीस प्रकार का) बल होता है यथा (आ.सि.) ग्रह बलवत्ता
स्व१ मित्र झ३ च्च४ मार्गस्थ५ स्व६ मित्रवर्गगो७ दितः८ ॥ जयी९ चोत्तरचारी१० सुहृत्११ सौम्यावलोकितः१२ ॥ त्रिकोणायगतो१३ लग्नात्१४ हर्षी१५-१७ वर्गोत्तमांशगः१८ । मुथुशिलं१९ मूशरिफं२० यदि सौम्यै ग्रहैः सह ॥ सर्वयोगे भवेदेवं बलानां विंशतिम्रो ।
यावबलयुताः खेटास्तावद् विंशोपका फलम् ॥ अर्थ - यदि ग्रहस्वराशिगत हो, मित्रराशिगत हो स्वनक्षत्रस्थ हो, उच्चराशिगत हो, मार्गी हो, अपने वर्ग में स्थित हो, मित्र के वर्ग में स्थित हो, उदय पाया हुआ हो, जयी हो, उत्तरचारी हो, मित्रग्रह से दृष्ट हो, सौम्यग्रह से दृष्ट हो, त्रिकोण स्थानों में स्थित हो, लग्न से ग्यारहवें स्थान में हो, त्रिधा हर्षी हो, वर्गोत्तम के नवांशक में स्थित हो, सौम्य ग्रहों के साथ मुथुशिल और मूशरिफ योग कारक हो तो वह ग्रह बलोत्कृष्ट कहलाता है। उपर्युक्त स्थिति से विपरीत स्थित ग्रह बलहीन कहा जाता है। इस प्रकार की (ऊपर लिखे २० प्रकार की) यदि ग्रहस्थिति हो तो उस ग्रह का बीस विंशोपक फल होता है जितने ग्रह बलवान् हो उतने विंशोपका (विश्वा) फल जानना चाहिए। ___ यहाँ जो सौम्यग्रहों के साथ मुथुशिल आदि योगों की बात जो कही गई है उससे यह शंका होती है कि “मुथुशिल” और “मूशरिफ" योग क्या वस्तु है अर्थात् कैसे है। तो इसका समाधान करने के लिए यहाँ इन दोनों योगों को समझाया जाता है।
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२५८ ]
[ मुहूर्तराज मुथुशिल योग- (भुवनदीपक वृत्ति)
यदि शीघ्रगतिक क्रूरग्रह मंदगति ग्रह के तुल्यांश तक उससे पीछे-पीछे ही रहे तब तक मुथुशिल योग होता है। मूशरिफ योग
जब शीघ्रगतिक क्रूर ग्रह मन्दगतिक ग्रह के तुल्यांश में मिलकर उस अंश का उल्लंघन करने आगे चला जाय उस राशि के पूर्ण होने तक मूशरिफ योग बनता है।
ये दोनों योग ठीक नहीं है इनका होना ग्रह की निर्बलता का सूचक है। ऊपर जो बीस बल ग्रहों के बताए हैं उनमें जो मुथुशिल और मूशरिफ योगों को ग्रहबल बतलाया गया है वह तब जबकि शुभग्रहों के साथ ये योग बनते हों।
यहाँ पूर्व श्लोक में ग्रहों की बलवत्ता बतलाई गई है। अब प्रसंगोपात्त ग्रहों की बलहीनता के विषय में भी देखिए। ग्रहों की बलहीनता- (भु.द्वीप.वृत्ति)
स्वमित्र नीचगो वक्रः, स्वराश्यस्तारिवर्गगः । लग्नाद् द्वादशगः, षष्ठ, क्रूरैर्युक्तोऽथ वीक्षितः ॥ याम्यो रातास्यपुच्छस्यो, बालो वृद्धोऽस्तगो जितः ।
मुथुशिले मूशरिफे पापैरित्यबलो ग्रहः ॥ अर्थ - यदि ग्रह स्वयं की नीच राशि में, मित्र की नीच राशि में, वक्रता में, अपनी राशि से सातवीं राशि में, अपने शत्रुवर्ग में, लग्न से बारहवें स्थान में, लग्न से छठे स्थान में स्थित हो। क्रूरग्रहयुक्त हो, क्रूरग्रह से दृष्ट हो, दक्षिणायनगत हो, राहु के मुखभूत नक्षत्र पर स्थित हो, राहू के पुच्छभूत नक्षत्र में हो, सद्यः उदय प्राप्त हो, वृद्ध अर्थात् अस्त होने वाला हो, अस्त हो, जीता हुआ हो अर्थात् ग्रहयुद्ध में दक्षिणगामी हो, क्रूरग्रह से मुथुशिल योग में हो और मूशरिफ योग में हो तो वह ग्रह बलहीन कहा जाता है। ये ग्रह बलहीनता १८ प्रकार हैं। राहु मुख एवं पुच्छ का प्रमाण इस प्रकार है- (भु.द्वी. वृत्ति)
यत्र ऋक्षे स्थितो राहुर्वदनं तद्विनिर्दिशेत् ।
मुखात् पञ्चदशे ऋक्षे तस्य पुच्छं व्यवस्थितम् ॥ अर्थ - जिस नक्षत्र पर राहु हो वह नक्षत्र राहुमुख है और उससे १५ नक्षत्र राहु की पूंछ जाननी चाहिए।
इस प्रकरण में प्रतिष्ठाकुण्डली में लग्न बलवत्ता एवं ग्रहों की शुभाशुभ स्थिति के विषय में पर्याप्त चर्चा की गई है। यदि ग्रहों की पूर्ण बलवत्ता या लग्न की सौम्यता (शुभावहस्थिति) न हो तो सभी शुभ कार्यों में क्या करना चाहिए इसके उत्तर में इस प्रकार कहा गया है।
पञ्चभिः शस्यते लग्नं ग्रहैः बलसमन्वितैः । चतुभिरपि चेत् केन्द्र त्रिकोणे वा गुरु गुः ॥
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मुहूर्तराज ]
[२५९ अन्वय - पञ्चभिः चतुर्भिरपि बलसमन्वितैः ग्रहैः (सद्भिः) लग्नं प्रशस्यते। अथवा केन्द्रे (१,४,७,१० स्थानेषु) त्रिकोणे (९,५ स्थानयोः) गुरुः शुक्रः वा। तथा च
त्रयः सौम्यग्रहाः यत्र लग्ने स्युर्बलवत्तराः ।
बलवत्तदपि विज्ञेयं शेपैीनबलैरपि ॥ अन्वय - (यदि प्रतिष्ठाकुण्डल्याम्) त्रयः सौम्याः ग्रहाः (शुभाः ग्रहाः) बलवत्तराः (पूर्वकथित-बलोपेताः) स्युः (भवेयुः) शेषैः ग्रहैः बलहीन रपि सद्भिः तद् लग्नम् बलवद् विज्ञेयम्।
अर्थ - यदि प्रतिष्ठा लग्नकुण्डली में पाँच अथवा चार बलयुक्त ग्रह हों अथवा केन्द्र (१,४,७,१०) और त्रिकोण (९,५) में गुरु अथवा शुक्र हों भले ही शेष ग्रह बलहीन हों।
और यदि तीन सौम्यग्रह बलयुक्त होकर लग्न में हों चाहे शेष ग्रह निर्बल भी हो तो भी उस लग्न को बलवान् समझना चाहिए। प्रश्नप्रकाश में ग्रहों की नवधा बलहीनता
पापः शीघ्रः२ शुभो वक्री१ बालो३ वृद्धो४ ऽरिभास्तगः५-६ ।
नीचः७ पापान्तरे८ अष्टस्थ९ इत्यक्तो बलवर्जितः ॥ अन्वय - पापः (क्रूरो ग्रहः) शीघ्रः (शीघ्रगामी) शुभः ग्रहः वक्री भवेत् अथवा बालः, वृद्ध, शत्रुभावस्थः, अस्तगः, नीचः (नीचस्थाने स्थितः) पापान्तरे पापग्रहमध्यगः (पापयुतो वा) अष्टस्थः (लग्नादष्टमस्थानगः) भवेत् स ग्रहः बलवर्जितः इति उक्तः। ___अर्थ - यदि पापग्रह शीघ्रगामी हो, शुभग्रह वक्री हो अथवा बाल (सद्यः उदित) वृद्ध (अस्त होने वाला) शत्रुस्थानगत हो अस्त हो, नीच स्थानगत हो, पापग्रहों के मध्य में अथवा पापयुक्त हो, अष्टमस्थान में हो तो उस ग्रह को बलहीन कहते हैं।
देव प्रतिष्ठा में जिन-जिन वस्तुओं को देखा जाता है उन सभी को समवेत समझने के लिए यहाँ एक सारणी दे रहे हैं जिससे यह सुगमता से ज्ञात हो सकेगा।
चुपचाप सांसरिक विविध वेशों को देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष मत करो। समभाव में निमग्न रहकर निज आत्मिक गुणों में लीन रहो, यही मार्ग तुम को मोक्षाधिकारी बनावेगा।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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२६० ]
क्र.सं. द्रष्टव्य अयनादि
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
(I)
अयन
सङ्क्रान्ति
मास (चान्द्र)
पक्ष
तिथि
(IV)
वार
नक्षत्र
लग्न
लग्ननवांश
ग्रहस्थिति
क्रूर पाप सूर्य
(II) चन्द्र
(III) मंगल
बुध
(V) गुरु
(VI) शुक्र
(VII) शनि
(VIII) राहु एवं केतु
देवादि प्रतिष्ठा में द्रष्टव्य अयनादि पदार्थ बोध सारणी
अयनतिध्यादियदार्थ
उत्तरायण सौम्यातिरिक्तदेवों के लिए दक्षिणायन भी
मकर, कुंभ, मेष, वृषभ और मिथुन
माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ,
समस्त शुक्ल पक्ष एवं दशमी पर्यन्त कृष्णपक्ष
२, ३, ५, ६,७१०, ११, १२, १३, १५ शुक्ल पक्षीया
२, ३, ५, ६, ७, १० (कृष्णपक्षीया )
सोम, बुध, गुरु, शुक्र
हस्त, चित्रा, स्वाती, अनुरा, ज्येष्ठा, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, शत., रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, उ. फा., उषा, उ. भाद्रा, रोहिणी, मृगशिर
द्विस्वभाव (३, ६, ९, १२) उत्तम स्थिर लग्न (२, ५, ८, ११) मध्यम द्विस्वभावी नवांशयुक्त शुभग्रह युत एवं दृष्ट चर लग्न कनिष्ठ, मिथुन, कन्या एवं धनु का आद्यार्थ श्रेष्ठ, वृष, सिंह, तुला, एवं मीन मध्यम ।
उत्तमस्थिति
३,६,११
२,३,११
३,६,११
१,२,३,४,५, १०, ११
१, २, ४, ५, ७, ९, १०, ११
१,४,५,९,१०,११
३,६,११
३,६,११
मध्यमस्थिति
१,४,६,७,९,१०
१०
६,
६,७,९
२,३,
X
X
२,४,५,८,९,१०,१२
विमध्यम स्थिति
३,
५
५
५.१०
-
X
६, ७, १२
X
कनिष्ठ स्थिति
१, २, ४, ७, ८, ९, १२
८, १२
[मुहूर्तराज
१,२, ४, ७, ८, ९, १०, १२
८, १२
८,१२
८,
१,२,४,७,८,९,१२
१,७
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मुहूर्तराज ]
[२६१ इस प्रकार देवप्रतिष्ठा के लिए सुमुहूर्तों की विशेषतः चर्चा हुई। अब नीचे श्री जिनेश्वरों के च्यवन नक्षत्र, राशियाँ, योनियाँ गण, चिह्न, अष्टमांगलिक आदि प्रदर्शित किए जा रहे हैंजिनेश्वरों के क्रमशः च्यवन नक्षत्र
उत्तरसाढा१ राहिणी२ मियसीस३ पुणव्वसु४ महा५ चित्रा६ । वइसाह७ णुराहा८ मूल९ पुव्व१० सवणो११ सयभिसाय १२ ॥ उत्तरभद्दव १३ रेवइ१४ पुस्स१५ भरणि१६ कत्तियाय१७ रेवइअ१८
अस्सिणि १९ सवणो२० अस्सिणि२१ चित्त२२ विसाथु२३ उत्तरा२४ रिक्काः जिनेश्वरों की क्रमशः राशियाँ
धनु१ वसहर मिथुण३ मिथुणो४ सीहो५ कन्या६ माला७ अली८ चेव। धणु९ धनु१० मयरो११ कुंभो१२ दुसु१३ मीणो१४ कक्कडो१५ मेसो१६ विस१७ मीण१८ मेस१९ मयरो२० मेसो२१ कन्ना२२ तुलाय२३ कन्ना२४
इय चवण रिरक रासी जम्मे दिरकाए नाणेवि । जिन योनियाँ-द्वयहि
नकुला१-२-३ मार्जारा४ खु५ द्विव्याघ्र६-७ मृग८ श्वकाः९ । कपिद्वया१०-११ श्व१२ मेषाश्च१३ द्विपाजेभाजकुंजराः १४-१५-१६-१७-१८
हय१९ कीशा२० श्व२१ शार्दूल २२ द्वयोक्षजिनयोनयः२३-२४ । जिनेश्वरों के गण
नरद्वया१-२ भरद्वन्द्वा ३-४ राक्षस त्रिक५-६-७ निर्जराः८ ।
यातु९ मानव१० देवाश्च११ क्रव्याद१२ नर१३ देवताः१४॥ देव जिनेश्वरों के चिह्न
वसह१ गय२ तुरय३ वानर ४ कुंचो५ कमल६ सत्थिउ७ चन्दो८ मयर९ सिरि वच्छ१० गंडय११ महिस१२ वराहो१३ सेणोय१४ ॥ वज्जं१५ हरिणो१६ छगलो१७ नंदावत्तोय१८ कलस१९ कुम्भोय२० ॥
नीलुप्पल२१ संख२२ फणी२३ सीहोअ२४ जिणाण चिण्हाईं ॥ अष्टमांगलिकों के नाम- दप्पण१ भद्दायण२ बद्धमाण३ सिखिच्छ४ मच्छ५ ।
वरकलसा६ सत्थिय७ नंदावत्ता८ लिहिया अट्ठट्ठ मंगलगा ॥ अथ जिनेश्वर नाम- ऋषभश्चाजितस्वामी, संभववश्चाभिनन्दनः ॥
सुमतिः पद्यसुपाश्वौं च, चन्द्रः सुविधि शीतलौ ॥ श्रेयांसो वासुपूज्यश्च विमलस्वाभ्यनन्तराट् । धर्मः शान्तिश्च कुंथुश्च अरो मल्लिजिनस्तथा ॥ मुनिसुव्रतस्वामी च नमिर्नेमिश्च पार्श्वराट् । महावीरेति संभूता वर्तमानजिनेश्वराः ॥
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२६२ ]
[ मुहूर्तराज
॥ श्री जिनेश्वर नाम-नक्षत्र-राशि-योनि-गण-चिह्न-नाड़ी-बोधक यन्त्र ॥
क्र.स.
नाम
नक्षत्र
राशि
योनि
गण
चिह्न
नाड़ी
श्री ऋषभदेवजी
उ.षा.
धन
नकुल
मनुष्य
वृषभ
अन्त्य
श्री अजितनाथजी
रोहिणी
वृषभ
सर्प
मनुष्य
हस्ती
अन्त्य
श्री संभवनाथजी
मृगशिर
मिथुन
अश्व
मध्य
श्री अभिनन्दनजी
पुनर्वसु
मिथुन
बिडाल
वानर
आद्य
मघा
सिंह
मूषक
राक्षस
क्रौंच
अन्त्य
श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी
चित्रा
कन्या
व्याघ्र
राक्षस
पद्म
मध्य
| विशाखा
तुला
व्यात्र
राक्षस
स्वस्तिक
अन्त्य
श्री चन्द्रप्रभुजी
अनुराधा
वृश्चिक
हरिण
देव
चन्द्र
मध्य
श्री सुविधिनाथजी
मूल
धन
श्वान
मकर
आद्य
श्री शीतलनाथजी
पू.षाढ़ा
धन
वानर
मनुष्य
वत्स
मध्य
श्री श्रेयांसनाथजी
श्रवण
मकर
वानर
देव
गेंडा
अन्त्य
श्री वासुपूज्यजी
शतभिषा
कुंभ
अश्व
राक्षस
महिष
आद्य
श्री विमलनाथजी
|
उ.भा.
मनुष्य
वराह
मध्य
रेवती
हस्ति
श्येन
अन्त्य
श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी
पुष्य
कर्क
अज
वज्र
मध्य
श्री शान्तिनाथजी
| अश्विनी
मेष
अश्व
देव
हरिण
आद्य
श्री कुंथुनाथजी
कृत्तिका
वृषभ
अज
राक्षस
अज
अन्त्य
श्री अरनाथजी
रेवती
मीन
हस्ति
देव
नद्यावर्त
अन्त्य
मेष
अश्व
कलश
आद्य
मकर
वानर
कच्छप
अन्त्य
मेष
अश्व
देव
कमल
आद्य
श्री मल्लिनाथजी | अश्विनी श्री मुनिसुव्रतजी श्रवण श्री नमिनाथजी अश्विनी श्री नेमिनाथजी चित्रा श्री पार्श्वनाथजी विशाखा श्री महावीर स्वामीजी उ.फा.
कन्या
राक्षस
शंख
मध्य
व्याघ्र व्याघ्र
तुला
राक्षस
सर्प
अन्त्य
कन्या
मनुष्य
सिंह
आद्य
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मुहूर्तराज ]
[२६३
- अष्टमाङ्गलिक नाम तालिका
दर्पण
- अथ ग्रन्थप्रशस्तिः
- .
श्रीमद् राजेन्द्र सुरेनिखिलगुरुगुणख्यातमूर्तेः कृपाभिः , __ ज्योतिर्ग्रन्थाब्धिमध्यान्मणिरिव विहितश्चैष मौहूर्तराजः । षट् सप्तांकेन्दु वर्षे जगति गुणवरे वागराख्ये पुरे श्री___ पंचम्यां ज्ञानदात्र्यां मुनिविजययुतैः श्री गुलाबैः प्रमोदैः ॥ शश्वच्छास्त्रविचारमग्नसुधियस्तुल्यस्य वाचस्पतेः , __तत्पद्दे धन चन्द्रसूरि सुगुरोः राज्येऽकरोत् संग्रहम् ॥ दैवज्ञोऽध्ययनेन चास्य सुकृती स्याद् विश्वसत्कीर्तिभाक् ,
काप्यास्मिन् यदशुद्धिज किल भवेत्तच्छोधनीयं बुधैः ॥
अर्थ - समस्त गुरुयोग्य गुणों से प्रख्यातमूर्ति श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी की असीम कृपा से ज्योतिग्रन्थरूपी महासागर के मध्य से मणि की भांति इस “मौहूर्तराज” ग्रन्थ को (उद्धृत किया है।) अति प्रमोद पूर्वक मुनि विजयों से युक्त श्री गुलाब विजय जी ने वि.सं. १९७६ कार्तिक शुक्ला पञ्चमी (ज्ञानदात्री तिथि को) के दिन वागरानगर में संकलित किया।
निरन्तरशास्त्र विचारणा में मग्न बुद्धिशाली बृहस्पति के तुल्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी के पट्ट पर विराजित श्रीमद् विजय धनचन्द्र सूरीश्वरजी श्रेष्ठ गुरुवर के शासनकाल में यह संग्रह किया गया है। दैवज्ञ इसके अध्ययन से कृतार्थ एवं विश्व में सत्कीर्तिशाली होंगे। यह इस ग्रन्थ में कोई त्रुटि (अशुद्धत्यादि) रह गई हो तो विद्वानों को उसमें सुधार कर लेना चाहिए।
इतिश्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनि श्री गुलाबविजयसंगृहीते ‘मुहूर्तराजे' पञ्चमं गृहप्रवेश
प्रकरणम् समाप्तिमगमत्
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२६४ ]
[ मुहूर्तराज "भाग्य करे सो होय" यह लोकोक्ति सोलह आना सत्य है। मनुष्य अपने भाग्य बल से असंभव को संभव, कठिन को सहज दुर्लभ को सलभ और अनल्लंघनीय को लंघनीय बना लेता है। यह सब तब ही हो सकता है जब भाग्य प्रबल होता है। भाग्य के प्रतिकूल हो जाने पर मनुष्य में कुछ भी करने का सामर्थ्य नहीं रहता। भाग्य को बलवान बनाये रखने का दुनिया में धर्म के सिवाय और कोई उपाय नहीं है। धर्म एक ऐसी वस्तु है जिस से चिंतामणिरत्न के समान सभी आशाएँ क्षणभर में सफल होती है। प्रभु-प्रतिमा के दर्शन करना, उसकी सविधि पूजा करना, तप, जप, प्रभावना, सद्भावना, परोपकार और दयालुता आदि सकृत कर्म धर्म के अङ्ग है। इनका आत्म विश्वास पूर्वक समाचरण करते रहने से भाग्य की प्रबलता होती है। अतः मानव को अपनी प्रगति के लिये धर्माङ्गों को सदा अपनाते रहना चाहिये।
-श्री राजेन्द्रसूरि
मनुष्य मानवता रखकर ही मनुष्य है। मानवता में सभी धर्म, सिद्धान्त, सुविचार, कर्तव्य, सुक्रिया आ जाते हैं। मानवता, सत्संग, शास्त्राभ्यास एवं सुसंयोगों से ही आती और बढ़ती है। मनुष्य हो तो
मानव बनो। बस धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष सब प्राप्त हो
सकेंगे।
- श्री राजेन्द्रसुरि
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मुहूर्तराज ]
[२६५
परिशिष्ट "क" [गणित-विभाग १]
* सम्पादक * पण्डितवर्य श्री गोविन्दराम द्विवेदी
__ शास्त्री साहित्याचार्य आहोर (हरजी), राजस्थान
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२६६ ]
[ मुहूर्तराज
परिशिष्ट (क) - गणित विभाग -
किसी भी कार्य के मुहूर्त में पञ्चाङ्गशुद्धि एवं दिनशुद्धि की ही भांति लग्नशुद्धि भी अत्यावश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है। इसी के साथ-साथ ग्रहस्पष्टीकरण एवं उनकी षड्वर्ग स्थिति को ज्ञात करना भी तथैव उपादेय है। अतः इस परिशिष्ट (क) में इन सभी की साधन विधि प्रदर्शित की जाएगी।
उक्त सबी बिन्दुओं की (लग्न, ग्रहस्पष्टीकरण एवं षड्वर्गीय ग्रहस्थिति) की जानकारी के लिए अर्थात् उनके साधनार्थ सर्वप्रथम सूर्योदय से इष्ट घटी पल ज्ञातव्य हैं। इष्ट घटी पल तात्पर्य__ जिस ग्राम या नगर में जिस दिन जिस समय में हम जिस किसी शुभकर्म का आरम्भ करना चाहते हैं, उस दिन उस समय में उस स्थान पर पूर्व क्षितिज से सूर्योदय हुए कितने घंटे और मिनट व्यतीत हो चुके हैं अथवा कितनी घटियाँ एवं पल बीत चुकी हैं इसे ज्ञात करना ही सूर्योदय से इष्ट घटीपलानयन कहा जाता है। समय प्रकार
समय के दो प्रकार व्यवहृत होते हैं प्रथम स्टेण्डर्ड जो सर्वत्र एक-सा होता है एवं द्वितीय स्थानीय जो भिन्न-भिन्न स्थानों की अक्षप्रभानुसार भिन्न-भिन्न होता है। अधिकतर पंचांगों में स्थानीय सूर्योदय एवं स्थानीय सूर्यास्त का समय लिखा रहता है अतः इष्ट घटीपल साधनार्थ हमें तत्स्थानीय समय ज्ञात करना पड़ता है। स्थानीय समय ज्ञानोपाय___ इष्ट स्थानीय समय को ज्ञात करने के लिए “समयान्तर समीकरण" जिसमें भिन्न-भिन्न ग्रामों एवं नगरों के सामने भिन्न-भिन्न मध्यमान्तर मिनटें लिखी रहती हैं और जिन्हें स्टेण्डर्ड समय में यदि वे ( x ) चिह्न से अंकित हों तो जोड़ना एवं चिह्न रहित हो तो स्टेण्डर्ड समय में से घटाना पड़ता है का उपयोग किया जाता है और तत्पश्चात् “वेलान्तर सारणी” के अनुसार इष्ट दिन के अंग्रेजी मास एवं तारीख के हिसाब से कतिपय मिनटों को मध्यमान्तर संस्कार से संस्कृत स्थानीय समय में ऋण हों तो जोड़ना एवं धन हो तो घटाना पड़ता है तब उचित स्थानीय समय निकल आता है।
इस प्रकार आगत स्थानीय समय में से स्थानीय सूर्योदय समय को घटाकर अवशिष्ट घंटों एवं मिनटों को २॥ से गुणित कर लेना चाहिए, क्योंकि एक घंटा = २॥ घड़ी एवं १ मिनट = २॥ पलें होती हैं। इस प्रक्रिया से मुहूर्त सम्बन्धी क्षण घटीपलात्मक उपलब्ध हो जाता है जिसे सूर्योदय से इष्ट घटी पल भी
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मुहूर्तराज ]
[२६७ कहते हैं। इन इष्टघटीपलों से यह तात्पर्य है कि इष्ट स्थान पर सूर्योदय हुए इतनी घटी एवं पलें व्यतीत हो चुकी हैं अथवा यों कहना चाहिए सूर्य पूर्वक्षितिज से उदित होकर आकाशमण्डल में अमुक घटी पलात्मक चढ़ चुका है। इस विषय में स्पष्टतया ज्ञानार्थ उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है। उदाहरण
॥ॐ अर्ह॥ श्री गौतम गणधराय नमः॥ सं. २०३९ (वि.सं.) शके १९०४ रवि दक्षिणायन श्रावण शु. १२ रविवार मूल नक्षत्र, दिनमान ३३।१० प्रातः १०-४५ दि. १-८-८२ को आहोर में किसी शुभ कार्य को करना है अतः इस समय से सूर्योदय से इष्टघटीपल, सूर्यादिग्रह स्पष्टीकरण, लग्नानयन, षड्वर्गसाधन आदि ज्ञात करने हैं।
उक्त उदाहरण में सर्वप्रथम स्थानीय सूर्योदय समय ज्ञात करना पड़ेगा जिसकी विधि यह हैस्थानीय सूर्योदय ज्ञान विधि
दिनमान की घटि एवं पलों में ५ का भाग लगाने पर सूर्यास्त समय निकलता है और उसे १२ में घटाने पर सूर्योदय समय आ जाता है। उदाहरण में प्रदत्त दिनमान ३३ घ. १० पलों में ५ का भाग देने पर ६ घं. ३८ मिनट आए यह सूर्यास्त का स्थानीय समय हुआ और इसे १२ में से घटाने पर ५ घं. २२ मि. शेष रहे यह सूर्योदय स्थानीय समय हुआ। स्थानीय इष्ट समय ज्ञान विधि... इष्ट समय १०-४५ प्रातः है यह स्टैण्डर्ड समय है। समयान्तर समीकरण में जालोर नगर के आगे ३८ मि. मध्यमान्तर मिनटें लिखी हैं और इसके पूर्व कोई चिन्ह नहीं अतः इन मिनटों को १०-४५ में से घटाया तो शेष १० घं. ७ मि. रहे। चूंकि आहोर नगर जालोर का समीपवर्ती है अतः आहोर के लिए भी ३८ मिनटें ही घटानी चाहिए।
१० घं. ३८ मि. में अब वेलान्तर संस्कार करना है। पंचांगों में वेलान्तर सारणी लिखित रहती है। हमारे उदाहरण की अंग्रेजी तारीख १ अगस्त है अतः अगस्त मास के ५ तारीख पहले कोष्ठक में वेलान्तर सारणी में ५ घं. लिखा है अतः हम विपरीत क्रिया से १०-७ में से ५ मि. घटाईं शेष १० घं. २ मि. रहे यह इष्ट स्थानीय समय हुआ। ततः १० घं. २ मि. में से स्थानीय सूर्योदय ५ घं. २२ मि. घटाने पर शेष ४ घं. ४० मि. रहे इन्हें २॥ से गुणित करने पर।
४ घं. X २॥ = १० घटी ० पल ४० मि. X २॥ = १०० पलें = = १ घ. ४० पलें = १० घटी. ० पल १ घटी ४० पलें = ११ घटी. ४० पलें यह इष्ट हुआ
१००
६०
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२६८ ]
[ मुहूर्तराज इस प्रकार स्थानीय सूर्योदय समय एवं स्थानीय इष्ट समय निकालकर स्थानीय इष्ट समय में से स्थानीय सूर्योदय समय क्रण करके शेष रहे घं. मि. को २॥ से गुणित करने पर इष्ट घटी पलें ज्ञात हो जाती हैं।
इष्ट घटीपल साधन की अन्य भी कई प्रक्रियाएँ शास्त्रों में वर्णित है परन्तु यह प्रक्रिया सरलतम है।
अब हमें इसी इष्ट के आधार पर सूर्यादिग्रहों का लग्न एवं षड्वर्गीय ग्रहस्थिति का स्पष्टीकरण करना है। सूर्यस्पष्टीकरण
प्रत्येक पञ्चाङ्गों में प्रतिदिन सूर्योदय समय के आधार पर अर्थात् % इष्ट से सूर्य राश्यादि विकलापर्यन्त लिखा रहता है तथा उसके नीचे उसकी गति कलाविकलात्मक या घटीपलात्मक भी लिखित रहती है। इष्ट घटीपलों को गोमूत्रिका विधि से लिखकर उसके नीचे सूर्य की गति की घटीपलों को लिखकर गुणा करना पड़ता है। घटी x घटी = पल, घटी x पल = विपल और पल x पल = प्रति विपल होते हैं। फिर प्रति विपलों में ६० का भाग लगाकर विपलें बनाई जाती हैं और विपलों में ६० का भाग देकर पलें। यदि ६० का भाग देने पर शेष ४५ या इससे अधिक ५९ तक रहें तो लब्धि में एक और बढ़ा दिया जाता है। अब इसकी प्रक्रिया देखें
इष्ट ११ ग. ४० पल
४०
सूर्यगति
x ५७ घ.
५७ x ६२७ प.
४२ प. ६०) ६६९ प. (११ घ.
x ५७ २८० २००x २२८० वि.
१५ २२९५
६६०
x २३ प.
२३ २३ x २५३ वि.
२२९५ ६०) २५५८ वि. (४२ प.
x २३ १२०
८० x ६०) ९२० प्र.वि. (१५ ल.वि.
९००
२०
२४०
१४८
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मुहूर्तराज ]
[२६९ सूर्य की गति एवं इष्ट की घटीपलों को गुणित करने पर फल प्राप्त हुआ ११ घ. ९ प. इसे सूर्य राश्यादि ३।१४।५१।२४ में जोड़ने पर ३।१५।२।३३ यह श्रा. शु. १२ रविवार का इष्ट ११ घ. ४० पल का सूर्य स्पष्ट हुआ। ___ भौमादि राहुपर्यन्त ग्रहस्पष्टीकरण की विधि वैसे तो सूर्यस्पष्टीकरण ही भांति है, अन्तर केवल यही है कि सूर्य में जो गोमूत्रिका विधि से गुणनफल घटीपलात्मक आता है वह भौमादिसाधन में १ मास में चार अंश घटी पलात्मक आता है, क्योंकि सूर्य तो प्रतिदिन के % इष्ट से सिद्ध पंचांगों में लिखा रहता है परन्तु भौमादि १ मास में चार बार एक-एक अवधि में जिसे प्रस्तार भी कहते हैं % इष्ट से गणित कर लिखित रहते हैं अतः इष्ट दिन के भौमादिस्पष्टीकरण हेतु इष्टदिन की संख्या एवं इष्ट घटीपलें तथा समीपतरवर्ति प्रस्तार दिन की संख्या एवं % इष्ट घटीपलों का परस्पर योग या अन्तर करके दिन घटीपलात्मक रूप जिसे चालक भी कहते हैं निकालना पड़ता है। चालक की विधि निम्नांकित हैचालक विधि गोमूत्रिका गुणनफल का ग्रहराश्यादि में योगान्तर
यदि इष्ट दिन की समीपवर्ती अवधि का दिन इष्ट दिन से पूर्व हो तो इष्टदिन तथा इष्ट घटीपलों में से प्रस्तारदिन एवं घटीपलों को घटाया जाता है, शेष जो ३ संख्याएं रहती हैं वह धनात्मक चालक है।
और यदि इष्ट दिन की समीपवर्ती अवधि का दिन इष्टदिन के बाद में हो तो अवधि के दिन के वार की संख्या एवं अवधि के ०१० इष्टघटी पलों में इष्टदिन की वारसंख्या एवं इष्टघटीपलों को घटाया जाता है शेष जो रहता है वह ऋणात्मक चालक कहा जाता है। इस प्रकार चालक बनाकर उसे गोमूत्रिका में लिखकर भौमादि ग्रहों की गति से गुणा करके सूर्यास्पष्टीकरणविधिवत् अनुपलों को विपलों में और विपलों को पलों में तथा पलों को घटीपलों में परिवर्तित करना पड़ता है इन ग्रहों के साधन करते समय गोमूत्रिका के प्रथमखण्ड में विपलों में ६० का भाग लगाकर शेष पलों को सूर्य की भांति त्यागा न जाकर फल में ग्रहण किया जाता है।
फल निकल जाने पर यदि चालक धन हो और भौमादिग्रह जो मार्गी हो तो उनकी राश्यादि संख्याओं में फल को जोड़ा जाता है और यदि ग्रह वक्री हो तो घटाया जाता है, तथा चालक ऋण हो और भौमादिग्रह मार्गी हो तो भौमादिराश्यादि में से फल घटाया जाता है और वक्री हो तो जोड़ा जाता है ततः वह ग्रह स्पष्ट हो जाता है।
चूंकि राहु और केतु सदा वक्री रहते हैं अतः उनको साधते समय आए हुए फल को धन चालक हो तो ग्रहराश्यादि में से घटाना तथा ऋण चालक हो तो ग्रहराश्यादि में फल को जोड़ना पड़ता है। उदाहरणार्थ- (भौभस्पष्टीकरण)
हमारा इष्ट श्रावणशुक्ला १२ रविवार है तथा इष्टघटी ११ एवं पलें ४० हैं चूंकि द्वादशी की समीपतरवर्तिनी तिथि पूर्णिमा है जिसके प्रस्तार में भौमादि ग्रह % इष्ट के साधित लिखे हैं अब हम उक्त विधि से चालक बना रहे हैं पूर्णिमा को वार बुध है और इष्ट % है अतः बुध की संख्या ४ हुई (क्योंकि यहाँ वारगणना रवि से की जाती है) अतः ४।०।० में से इष्ट दिन रवि की संख्या १ इष्ट घटी ११ और
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२७० ]
[ मुहूर्तराज पलें ४० घटाई गई तब (४।०।०-(१।-११।४०) = २१४८।२० यह चालक आया। चूंकि यहाँ इष्टदिन से अवधि दिन बाद में है अतः चालक ऋणात्मक बना।
- अब गोमूत्रिका बनाकर भौम की गति से गणित देखिए -
दिन (अंश)
पल (विकला)
घटी (कला)
४८
ऋण चालक
भौम गति घटी
x
३५
२४०
X ३५
७० घ.
३० घ. ६०) १०० (१ अं.
x ३५
७०० वि. १८ वि. ७१८ वि.
१४४ x १६८० प.
५५ प. १७३५ प.
४० घ. - क.
भौम गतिपल
X ५४ १०८ प.
१७३५ प. ६०) १८४३ (३०
X ५४ = १८ वि. ६०) १०८० (अनुप.
६०
X ५४ १९२ २४०x २५९० वि.
७१८ वि. ६०) ३३१० (५५ प.
३००
४८०
१८०
४८०
४३
०० ४३ प. = विकला
| ०४ ००००
भौमफल आया = ० रा. १ अं ४० क. ४३ वि. भौम स्पष्ट अवधि में = ६।६ अं, ४५ कं, २४ वि., भौममार्गी है और चालक
ऋणात्मक है अतः / रा. अ. क. वि. ) ( रा. अ. क. वि. )
(६।६। ४५ । २४)- (० । १ । ४० । ४३)
रा. अ. क. वि = ६ । ५। ४ । ४१
यह भौमराश्यादिक श्रावण शुक्ला १२ रविवार का इष्ट ११।४० का स्पष्ट हो गया। इसी प्रकार केतु पर्यन्त ग्रह स्पष्टीकरण हो जाता है।
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मुहूर्तराज ]
[२७१ चन्द्रस्पष्टीकरण विधि
इष्ट दिन की नक्षत्र घटीपलें यदि इष्ट घटीपलों से न्यून हो तो इष्टदिन के कोष्ठक में लिखित नक्षत्र गत हुआ और उसके बाद आनेवाला नक्षत्र वर्तमान नक्षत्र हुआ और यदि इष्ट घटीपलों से नक्षत्र घटीपलें अधिक हों तो पूर्व नक्षत्र अर्थात् इष्टदिन के पहले के दिन का नक्षत्र गत एवं इष्टदिन प्रारब्ध नक्षत्र वर्तमान हुआ।
गत नक्षत्र की घटीपलों को ६०।० में से घटाकर शेष घटीपलों को दो स्थान पर लिखकर एक में इष्टघटीपलों और दूसरे में वर्तमान नक्षत्र घटीपलों को जोड़ने पर क्रमशः भयात = इष्टघटीपलों तक विगत नक्षत्रांश होता है और अन्य भभोग अर्थात् पूर्ण नक्षत्र का मान घटीपलात्मक होता है। फिर भयाद के घटीपलों
को ६० गुणित करके पलात्मक बनाकर उसे ८०० से गुणा किया जाता है क्योंकि पूर्ण नक्षत्र का भोगकाल मध्यमान १३ अं. २० कलाएं हैं जो कि कलात्मकरूपेण ८०० हैं (यथा १३ X ६० = ७८० + २० = ८००) ततः भभोग की भी पलें बनाकर ऊपर आगत संख्या में भाग लगाना चाहिए। शेष संख्या को ६० से गुणा करके पुनः पलात्मक भभोग का भाग देना चाहिये तदनन्तर यदि शेष रहें और रहते भी हैं उनका त्याग कर देना चाहिए इस प्रकार यह चन्द्रफल आया, ततः घटी में ६० का भाग देकर अंश भी बना लेने चाहिए। फिर जो नक्षत्र गत हुआ है वहाँ तक अश्विनी से गणना करके आगत नक्षत्र संख्या के ४ गुणाकर चरण संख्या बना लेनी चाहिए, ततः उस चरण संख्या में ९ का भाग लगाना चाहिए, क्योंकि ९ चरणों की एक राशि बनती है। ९ का चरण संख्या में भाग देकर शेषांकों को ३० से गुणा कर फिर ९ का भाग लगाना चाहिए और बाद में यदि शेषांक रह जाए तो उसे ६० का गुणा करके पुनः ९ से विभाजित कर लेने पर शेष शून्य ही रहेगा। इस प्रकार आगत रा.अं.क. और विकला में चन्द्रफल जो अंशकलाविकलात्मक आया है उसे जोड़ने पर चन्द्र स्पष्ट हो जाएगा। चन्द्रगति ज्ञानोपाय
चन्द्रस्पष्टीकरण करते समय जो भभोग का पलात्मक रूप है उससे एक नक्षत्र के भभोग के मध्यमान की २८८०००० विकलाओं में भाग देना चाहिए शेषांकों को ६० से गुणा कर पुनः पलात्मक भभोग का भाग देकर शेषांकों को त्याग देना चाहिए इस प्रकार घटीपलात्मक चन्द्र की गति भी उपलब्ध हो जायगी।
चन्द्रकलानयन एवं तद्गतिसाधन को उदाहरण रूप में देखने से पूर्णतया स्टीकरण हो जायगा। चन्द्रसाधन प्रक्रिया
इष्ट घटी ११ पल ४० श्रावण शुक्ला द्वादशी रविवार को मूल नक्षत्र ५६ घ. १४ प. है। चूंकि इसकी घटी पलें इष्ट की घटीपलों से अधिक हैं अतः ज्येष्ठा नक्षत्र गत हुआ और मूल नक्षत्र वर्तमान। विधिदर्शित क्रियानुसार ज्येष्ठा की घटीपलों ४८।३८ को ६०० में से घटाने पर ११ घ. २२ प. शेष रहीं अतः -
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२७२ ]
[ मुहूर्तराज
भयात भयात की पलें = २३ x ६० = १३८० + २ + १३८२ प.
२२ ४०
११५६६७, भभोग भभोग की पलें = ६७ x ६० = ४०२० + ३६ = ४०५६ प. २२ | १४ | ३६||
अब भयातपलों १३८२ को ८०० से गुणा करने पर = १३८२ x ८०० = ११०५६०० विपलें हुईं इनमें भभोग को पलों ४०५६ का भाग देने पर
४०५६) ११०५६०० (२७२
८११२ २९४४० २८३९२ १०४८० ८११२ २३६८ X ६०
चन्द्रफल २७२ वि. = घ. एवं ३५ क. = प. आया अर्थात् ४ अं. ३२ वि. ३५ क.
अब चूंकि ज्येष्ठा नक्षत्र गत हुआ है जिसका कि क्रमांक अश्विनी से गणना करने पर १८ आता है और चरण १८ x ४ = ७२ होते हैं। इन चरणों में ९ का भाग देने पर ८/०/०/० राश्यादि आये। इनमें चन्द्रफल ४ अं. ३२ क. ३५ वि. का योग किया तो ८/४/३२/३५ यह चन्द्र स्पष्ट हुआ।
४०५६) १४२०८० (३५
१२१६८ २०४०० २०२८०
१२०
चन्द्रगति साधन प्रकिया
___ एक नक्षत्र का भोगमध्यमान ६० घटिकाएँ होता है और यदि कोई नक्षत्र ६० घटीमान का हो तो उसकी गति ८०० कला होती है इससे यह सिद्ध होता है कि यदि नक्षत्रभोग ६० घटी से कम होगा तो गति ८०० कलाओं से अधिक और यदि नक्षत्र भोग ६० घटी से अधिक होगा तो चन्द्रगति ८०० से कम होगी। ___ यहाँ प्रस्तुत मूल नक्षत्र का भोग ६७ घ. ३६ पलें अथवा ४०५६ प. हैं अतः यह स्वतः सिद्ध है कि चन्द्रगति ८०० कलाओं से कम होगी। चन्द्रगति मध्यमान ८०० कलाओं (घटियों) की अनुकलाएँ (विपलें) ८०० X ६० x ६० = २८८०००० हुईं इनमें भभोग की उक्त पलों ४०५६ का भोग देने पर
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मुहूर्तराज ]
[२७३
४०५६) २८८०००० (७१० घ. = क.
२८३९२ ४०८० ४०५६
२४०
X६० ४०५६) १४४०० ( ३ प. = वि.
१२१६८
१२३२ शेष अतः चन्द्रगति ७१०/३ हुई। लग्नसाधन
इस प्रकार इष्टघटीपलों के आधार पर सूर्यादि ग्रहों का स्पष्टीकरण हुआ। अब लग्नसाधन लिखा जा रहा है।
लग्न से तात्पर्य यह है कि जिस इष्ट घटी पलों पर हम किसी कार्य का आरम्भ कर रहे हैं उस समय पूर्व क्षितिज में किस नक्षत्र विशेष की तत्सम्बद्ध राशि अंश कला विकलात्मक स्थिति भी अर्थात् किस राशि के लग्न का उदय था।
लग्न साधनार्थ सर्वप्रथम सूर्य स्पष्ट राश्यादि लिखकर अयनांश साधन करना पड़ता है अयनांश साधनविधि यह हैअयनांश साधनविधि
इष्ट शक संख्या में ४४५ को घटाकर शेष में ६० का भाग देने पर अंशकलात्मक अयनांश आते हैं। चूँकि सं. १९६० में अयनांश २३ अंश थे ततः प्रतिवर्ष १-१ कला की वृद्धि से अयनांश बढ़ रहे हैं। १ वर्ष में १ कला बड़े तो १ राशि में - कला = ५ विकलाएँ बढ़ी और प्रति ६ अंशभागों में १ विकला। अतः अयनांशों की विकला बनाने के लिये राशि X ५ और अंश ६ करने पड़ते हैं। यथा
हमारा स्पष्ट सूर्य ३/१५/२/३३ है और विक्रम वर्ष २०३९ में शकाब्द १९०४ है तो उक्त विधि से १९०४-४४५ = १४५९ : ६० = २४ अं. शेष १९ कलाएं हुईं और विकलाएँ = सूर्य राशि ३ ४ ५ = १५ तथा अंश १५ ’ ६ = २ अर्थात् १५ + २ = १७ विकलाएँ अतः २४ अंश १९ क. १७ वि. यह अयनांश हुए। सायनाकै एवं उसके भोग्यांश
इन्हीं अयनांशों को सूर्य स्पष्ट ३/१५/२/३३ में जोड़ने पर (३/१५/२/३३) + (०/२४/१९/१७) = ४/९/२१/५० यह सायनार्क हुआ इस सायनार्क के भुक्तांशादि ९/२१/५० हैं अतः भोग्यांश रहे (३०/०/०)-(९/२१/५०) = २०/३८/१० अर्थात् सायनार्क की सिंह राशि समाप्त होने तक २० अं. ३८ क. एवं १० विकलाएँ शेष हैं।
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२७४]
[ मुहूर्तराज
चरखण्डसाधन___ इस प्रकार सूर्य स्पष्ट, अयनांश, सायनार्क एवं सायनार्क के भोग्यांशादि सिद्ध करने के उपरान्त मेषादि लग्नों के उदयमान साधित करने पड़ेंगे। क्योंकि भिन्न-भिन्न अक्षप्रभानुसार भिन्न-भिन्न अक्षांश स्थित नगरों के उदयमान भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें साधने के लिए तत्स्थान की अक्षप्रभा को १०/८/१० से गुणित करके अन्तिम १० से गुणित संख्या का तृतीयांश बनाकर चरखण्ड बना लिये जाते हैं। यथा उदाहरणानुसार
हमारे नगर आहोर की अक्षप्रभा ६ है अतः ६ x (१०/८/१०) = ६०/४८/६ अर्थात् ६०/४८/२० ये चरखण्ड आये। अब लंका के उदयमानों को लिखकर उनमें से लोम विलोम क्रम से चरखण्डे लिखकर क्रमशः ३ उदयमान संख्या में से घटाना एवं शेष तीन उदयमानों जोड़ने से इष्ट नगर के मेषादि उदयमान आ जाते हैं।
लंका के उदयमान इस प्रकार हैं
इष्ट चरखण्ड = ६०/४८/२०
मेष
मीन
वृषभ
२७८ २९९ ३२३
मिथुन
ये मेषादि उदयमान ६/०
३२३
-६० = २१८ - ४८ = २५१
२० = ३०३
२० = ३४३ + ४८ = ३४७ + ६० = ३३८
कुंभ मकर धन वृश्चिक तुला
कर्क सिंह कन्या
+
२९९ २७८
अक्षप्रभा के अनुसार हुए।
रविभोग्यकाल
अब सायनार्क की राशि के अनुसार गणना करके उदित लग्न की राशि को ज्ञात करना पड़ता है तथा इष्ट अंशकला विकलाओं को ज्ञात करने के लिए उदित उदयमान में ३० का भाग लगाकर शेष को दूना करके गोमूत्रिका गणन पद्धति में भोग्यांशों से गुणा करके रविभोग्यकाल लाना पड़ता है ततः इष्ट के घटीपलों की पलें बनाकर उनमें से रविभोग्यकाल घटा दिया जाता है और फिर उदित लग्न के बाद के जितने भी उदयमानों की संख्याएँ घटें घटाकर शेष संख्या को ३० से गुणित कर जो उदयमान संख्या नहीं घट सकी उसका भाग देकर तथा रविभोग्यकाल से हीन और ततः अवशिष्ट इष्ट पलों के अन्य ३ भागों को आधा करके क्रमशः जोड़कर ३ बार नहीं घट सकने वाले उदयमान की संख्या से भाग देकर अंशादि ३ फल लाकर मेष से उदयमान के प्रारम्भ से गणना करते करते नहीं घट सकने वाले उदयमान तक जितनी संख्या हो उसे राशि मानकर आगत अंशादिक फल के ऊपर रखने से सायनार्क लग्नोदय निकलता है और उसमें से अयनांशों को घटाने पर अपना इष्टलग्न राशि अंशकला विकलात्मक उपलब्ध हो जाता है।
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[२७५
मुहूर्तराज ] इस समस्त विधि को अब प्रक्रिया रूप में देखेंलग्नसाधन प्रक्रिया
इष्ट स्थान के उदयमान अय. सायना भोग्यांश
मे. २०८ ४ १५ २४ ९
३०३ १९ २१
क.
३४३ ध. ५० १० उदित सिं.→ ३४७ वृ.
क. ३३८ तु. अब
२५१
FREE
३०) ३४७ (११
x
३४
११
x २०
x २०
३४४ १० = ३४० ६० = ५/४० के ४० को रहने २२०
६८०
दिया और ५ को १२९२ में जोड़ा फिर १२९२ + ५ = १२९७ X ३८
X ३८ ४१८
१२७२
को ११० में ६८० को ४१८ में जोड़ने पर और ६० का भाग ०२४ लगाते हुए ऊपर की संख्या में सम्मेलन करने पर रविभोग्य काल १२९२
२३८/४१/२७/४० हुआ। X १० ११०
३४० ___ अब इष्ट घटी ११ प. ४० की पलें बनाने पर ११ x ६० = ६६० + ४० = ७०० प. हुईं इनमें से रविभोग्य काल घटाने पर (७००-10-/0-10)- (२३८/४१/२७/४०) = ४६१/१८/३२/२० शेष रहे १८/३२/२० का अर्धभाग ९/१६/१० अब शेष ४६१ में से उदित लग्नराशि का आगे का उदयमान ३३८ घटाने पर = ४६१-३३८ = १२३ शेष इष्ट पलें रहीं। इसमें से अग्रिम उदयमान संख्या ३३८ नहीं घटती अतः यह भाजक रूप में मानी गई।
ततः १२३ x ३० = ३६९० + ९ = ३६९९ : ३३८ ३३८) ३६९९ (१०
ततः प्रथम उदयमान से इष्टपलों में से न घटने योग्य उदयमान तक गिनने पर तुला लग्न आया इसे १०/५६/४० लग्नफल के ऊपर लिखकर
इसमें से अयनांशों को घटाने पर ३३८) १९१५६(५६
१६९० २२५६ २०२८ १० | २४ | १६
यह लग्नस्पष्ट हुआ २२८
५६ । १९ । ४७ । X ६०
४० | ३७ । ३ । १३६८०
+ १० ३३८) १३६९० (४० १३५२
लग्नस्पष्ट ५ रा. १६ अं. ४७ क.३ वि. १७० ००० १७० शेष
३३८
X६० १९१४०
+१६
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२७६ ]
[ मुहूर्तराज
भौमस्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है तद्वत् बुधादिग्रहों की गति एवं चालक का गुणन करने पर बुधादि के निम्नफल प्राप्त करके उन्हें पूर्णिमा की अवधि में लिखित 010 इष्ट से साधित ग्रहों की राश्यादि में चालक की ऋणता होने के कारण घटाने पर एवं राहु केतु की वक्रता के कारण योग करने निम्नांकित ग्रहों का स्पष्टीकरण हो गया।
चालक
ग्रहगति
फल स्पष्टग्रहराश्यादि अवधिगत ०/५/२३/४८ (३/२८/०/३४)
(२/४८/२०)
(११५/२५) बु. =
(२/४८/२०)
(६/३७)
गु.
०/०/१७/३८
(६/८/४८/३७)
(२/४८/२०)
(७३ /४४)
०/३/२६/५१
(२/२३/४३/१८)
(२/४८/२०)
(४/२९)
०/०/१२/३४
(५/२३/४४/५१)
(२/४८/२० )
(३/११) रा.
०/०/८/५५
(२/१८/१०/४१)
(२/४८/२०)
(३/११) के.
०/०/८/५५
(८/१८/१०/४१)
अवधिगत ग्रहों में से फलों को ऋण एवं धन करने पर स्पष्ट बुधादि केतु पर्यन्त ग्रह स्पष्टीकरण
हुआ
अवधिगत ग्रहराश्यादि
(३/२८/०/३४)
(६/८/४८/३७)
(२/२३/४३/१८)
(५/२३/४४/५१)
(२/१८/१०/४१)
(८/१८/१०/४१)
X
X
X
X
शु.
श.
फल
(०/५/२३/४८)
(०/०/१७/३७)
(०/३/२६/५१)
(०/०/१२/३४)
(०/०/८/५५)
(0/0/2/44)
=
=
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+
+
इस प्रकार ग्रहों एवं लग्न के स्पष्टीकरण के उपरान्त ग्रहों की षड्वर्गस्थिति ज्ञात करेंगे ।
षड्वर्गपदार्थ -
=
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इष्टकालिक स्पष्ट बुधादिग्रह
३/२२/३६/४६
६/८/३१/०
२/२०/१६/२७
५/२३/३२/१७
_२/१८/१९/३६
८/१८/१९/३६
होरा, द्रेष्काण, सत्तमांश, नवमांश, द्वादशांश एवं त्रिशांश ये मुख्यतः ग्रहों के षड्वर्ग हैं। (१) होरा :
इसमें लग्न तथा सूर्यादिग्रहों में यदि वे समराशीय हों तो १५ अंशपर्यन्त चन्द्र की एवं १५ से ३० अंशों तक सूर्य की होरा रहती है एवं यदि वे विषम राशीय हों तो उपर्युक्तांशक्रम से सूर्य एवं चन्द्र की होरा रहती है।
(२) द्रेष्काण :
इसमें लग्न तथा सूर्यादिग्रह किसी भी राशि में हों १० अंशों तक उसी राशि का द्रेष्काण ११-२० अंशपर्यन्त लग्नादिकों की राशि से ५ वीं राशि का द्रेष्काण एवं २१-३० अंशों तक लग्नादिक की राशि से ९ वीं राशि का द्रेष्काण होता है।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[.२७७ (३) सप्तमांश :
सप्तमांश में राशि के ७ भाग किये जाते हैं इन सातों खण्डों में अंश स्थिति इस प्रकार है :
॥ सप्तमांश खण्ड सारणी ॥
खण्ड
विशेष :____ विषम राशियों में उसी राशि से गणना करनी चाहिए परन्तु यदि सम राशि हों तो उसमें ७ वीं राशि से। इस प्रकार सप्तमांश में लग्नादिकों का सप्तमांश सिद्ध हो जाता है। (४) नवमांश :
इसमें राशि को नौ भागों में विभक्त करने पर प्रत्येक खण्ड ३ अंश और २० कलात्मक होता है। इसके अंशादि निम्नरूपेण हैं
॥ नवमांश खण्ड सारणी ॥
|
४०
विशेष :
मेष सिंह एवं धन में मेष से, वृष, कन्या एवं मकर में मकर से, मिथुन, तुला और कुंभ से तथा कर्क, वृश्चिक और मीन में कर्क से गणना करके उपर्युक्तखण्डलिखित अंशादिकों के अनुसार नवांश की अभीष्ट राशि लग्नादिकों की ज्ञात होती है।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८ ]
[ मुहूर्तराज (५) द्वादशांश :
इसमें राशि को १२ भागों में विभक्त करने पर प्रत्येक खण्ड २ अं. एवं ३० कलात्मक आता है इसमें इस प्रकार खण्डानुसार अंशादि जानने चाहिए।
॥ द्वादशांश लग्न सारणी ॥
खण्ड
१०
११
| २५
| ३०
०
त्रिंशांश :
इसको ज्ञात करने की विधि कुछ विचित्र है। इसमें सूर्य चन्द्र को छोड़कर शेष ग्रहों की राशि ही ग्राह्य है। इसमें राशि को ५ भागों में ५/५/८/७/५ इस प्रकार विभक्त करके प्रत्येक भाग में मंगल, शनि, गुरु, बुध एवं शुक्र राशियों को स्थापित किया जाता है जो कि विषम एवं सम होती हैं। गणना क्रम में यह विशेषता है कि यदि लग्नादि विषम राशिगत हों तो क्रमगणना एवं समराशीय हों तो उत्क्रम गणना करके क्रमश तद्गत ग्रहों की विषम एवं समराशि का त्रिंशांश ज्ञात किया जाता है। यथा
॥ त्रिंशांश खण्ड सारणी ॥
खण्ड
२श.
३ गु.
अंश
५ तक
६-१० तक
११-१८
१९–२५
२६-३० तक
विषम राशि
मिथुन
तुला
सम राशि
वृषभ
कन्या
मीन
मकर
वृश्चिक
उपर्युक्त षड्वर्गीय विवेचन से षड्वर्गग्रहस्थिति ज्ञात हो जाती है। तदनुसार होरादिकों की कुण्डलियाँ बन जाती हैं और उनमें गणितागत ग्रहस्थिति भी
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________________
मुहूर्तराज ]
[२७९ ___ यहाँ हम षड् वर्ग साधनार्थ सारणियाँ दे रहे हैं। प्रथम दो सारणियों में होरा, द्रेष्काण, सप्तमांश और त्रिंशांश साधन दर्शाया गया है और अन्तिम सारणी में नवमांश तथा द्वादशांश की साधनविधि। इनके आधार पर लग्नादिकों की षड्वर्गीया स्थिति सुगमतया ज्ञात की जा सकती है।
सं. २०३९ शके १९०४ रवौ दक्षिणायने श्रावणे शुक्ले पक्षे तिथौ १२ द्वादश्याम् रविवासरे दि ३३/१० शुभकार्यारम्भस्य इष्टकालः १०/४५ (प्रातः) इष्टघट्यः ११ पलानि ४० एतत्समयमनुसृत्य स्पष्टाः सूर्यादिग्रहाः लग्नञ्च
॥ अथ इष्टकालिका सूर्यादयः स्पष्टाः ग्रहाः सलग्नाः ॥
एक ही जलाशय का जल गौ और सर्प दोनों पीते हैं, परन्तु गौ में वह जल दूध में और सर्प में जहररूप में परिणत हो जाता है इसी प्रकार शास्त्रों का उपदेश भी सुपात्र में जाकर अमृत
और कुपात्र में जाकर जहररूप में परिणमन करता है। विनय, नम्रता, आदर और सभ्यता से ग्रहण किया हुआ शास्त्रोपदेश आत्मकल्याणकारी ही होता है और अविनय, आशातना, कठोरता और असभ्यता से ग्रहण किया हुआ शास्त्रोंपदेश उल्टा आत्मगुणों का घातक हो भवप्रमण कराता है; इसलिये अविनयादि दोषों को छोड़कर ही शास्त्रोपदेश ग्रहण करना चाहिये- तभी आत्मा का वास्तविक उत्थान हो सकेगा।
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-श्री राजेन्द्रसूरि
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________________
२८० ]
[ मुहूर्तराज
॥ अथ होराद्रेष्काणसप्तमांशत्रिंशांशराशिबोधनसारणी ॥ (मेष-कन्या)
अंश→
राशि-वर्ग
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३
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२. | २ | २ | २ | २ ६ ६ ६ ६ ६ ६ | १० | १० | १० | १० वृष. १ त्रिं. २ ____ स. ८ | ९ | ९ | १० | १० | १० | ११ | ११ | १२ | १२ | १२ | १ | १ | २
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। १२ । १२
१२ । १२ । १०
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|
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१०॥
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त्रिं. | १ | १ | ११ |
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| | ९
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३
| ३ |
कन्या ५स. १२ १
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२
| १० । १० ।
२ ३ ३ | १२ | १२ | १२
१० । १० ४ ४
त्रिं.
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२
|
६
६
|
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२८१
॥ अथ होराद्रेष्काणसप्तमांशत्रिंशांशराशिबोधनसारणी ॥ (तुला-मीन)
१२ | १२ | १५ | १७ | १८ | २० |
२५ | २५ | २९, ३०
अंश →
३४ | ०
० | ५१ / ०
८
०
० |
राशि-वर्ग
७ स. | ७
७ ८
७ ८
७ | ९
| १० | ११ | ११ | ११ | ११ | ११ | | ९ | ९ | १०-१० | ११ / ११ / ११ / १२ / १२ / १ | १
तुला
| ८ ८ | वृश्चि . स. २ | ३
| २ | २
८
१२ | १२ | १२ | १२ | १२ | ४ । ३ ४ ४ ४ ५ ५ ६ ६ ६ | ७ | ७ | ८ |६|६ | १२ | १२ | १२ | १२ | १२ | १० | १० | १० | १२ | १२ । १२ । १२ । १२
१० | ८ |
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Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२ ]
अंश → राशी वर्ग
मेष
वृषभ
मिथुन
कर्क
सिंह
कन्या
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मकर
कुंभ
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वृश्चिक
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॥ अथ नवमांशद्वादशांशराशिबोधनसारणी ॥
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११ ११ १२ १२
१० १० ११
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[ २८३
इस भांति इष्टघटीपल के आधार पर सिद्धग्रहों, लग्न एवं षड़वर्ग के अनुसार लग्नकुण्डली, होराकुण्डली, द्रेष्काणकुण्डली, सप्तमांशकुण्डली, नवमांशकुण्डली, द्वादशांशकुण्डली एवं त्रिशांश कुण्डलियाँ बनेंगी तथा उनमें ग्रहों की स्थिति ज्ञात होगी। इस परिशिष्ट में प्रदत्त उदाहरणानुरूप कुण्डलियों एवं उनमें स्थित ग्रहों को देखिए -
___॥ अथ लग्न कुण्डली॥
६श.
बु. ४ सू. रा. ३ शु.
के. ९ चं.
॥ अथ होराकुण्डली ॥ । ॥ अथ द्रेष्काणकुण्डली ।। । ॥ अथ सप्तमांश कुण्डली ।।
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॥ अथ नवमांशकुण्डली ॥
॥ अथ द्वादशकुण्डली ॥ | ॥ अथ त्रिशांश कुण्डली ।।
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For Private Personal Use Only
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४ ]
परिशिष्ट "ख'
[ श्री जिनेन्द्र प्रतिमा मेलापक ]
श्री वृहद् धारणा यंत्र से साभार उद्धृत
(२)
• संयोजक • ज्योतिषाचार्य मुनि जयप्रभविजय 'श्रमण'
[ मुहूर्तराज
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२८५
परिशिष्ट (ख)
- इस परिशिष्ट (ख) में प्रतिष्ठाकारक के ग्राम एवं नगर के जहाँ जिन बिम्ब प्रतिष्ठा करनी है नाम, राशि, गण, योनि आदि एवं साध्य जिनेश्वरों के नाम, राशि, गण, योनि आदि के परस्पर मेलापक के विषय में अतीवोपयोगी सारणियाँ दी जा रही हैं जिनके आधार पर साध्य साधक परस्पर मेलापक का बोध भली प्रकार सर्वसामान्य को भी हो सकेगा। ये सारिणियाँ बृहद्धारणा यन्त्र नामक ग्रन्थ से साभार समुद्धृत की गई है
॥ अथ द्वादशारपादवेधयन्त्रम् ॥
नक्षत्र→
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नक्षत्र→
पू.फा. | चित्रा | अनु.
पू.षा.
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उ.भा.
मध्यनाड्यक्षर
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461
614
नक्षत्र
| कृत्ति.
आश्ले. मघा
स्वाती | विशा.
| उ.षा.
श्रवण रेवती
अन्त्यनाड्यक्षर
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IP
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॥ अथ गणभेलक यन्त्रम् ॥
साधक
साध्य देव
साध्य मनु.
साध्य राक्ष.
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मध्यमप्रीति अतिप्रीति
देव-अ,मृ,पु,पु,ह,स्वा. अनु,श्र,रे. मनुष्य-भ,रो,आर्द्रा,पूर्वा ३ उत्तरा ३ राक्षस-कृत्ति. आश्ले,म,चि,वि. ज्ये.
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मृत्यु अतिप्रीति
मृत्यु
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६ ]
[ मुहूर्तराज
- नक्षत्रयन्त्रम् -
क्र स. नक्षत्र
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नकुल नकुल
आर्द्रा
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मूषक वानर मूषक
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महिष तु, ते, तो व्याघ्र ना, नि, नु, | हरिण नो, या, यि, ये, यो, भ, भि श्वान भू, घ, फ, ठ वानर भे, भो, ज, जि नकुल जु, जे, जो, खा | नकुल खि, खु, खे, खो | वानर ग, गि, गु, गे |सिंह गो, सा, सि, सु से, सो, द, दि सिंह
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श्वान
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अन्त्य
सर्प
विद्याधर
पश्चिम
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पू. पा. उ. पा. अभिजित् श्रवण धनिष्ठा शतभिषक् पू. भा.
उ. भा | रेवती
हस्ती
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हस्ती
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दे, दो, च, चि
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गण संकेताक्षर :- दे = देव, म. = मनुष्य, रा. = राक्षस नाडी संकेताक्षर :-आ. = आद्य, म. = मध्य, अं. = अन्त्य
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२८७
राशियन्त्रम्
क्र.सं.] राशि
पति
जाति
नक्षत्र पाद
|
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मंगल
वृषभ
शुक्र
पश
३
| मिथुन
बुध
चन्द्र
कीट
सिंह
पशु
कन्या
बुध
तुला
शुक्र
पशु अ. ४ भ. ४ कृ. १ चु, चे, चो ला, ली, लू, ले, लो, अ
कृ. ३ रो. ४ मृ २ इ, उ, ए, ओ, वा, वी, वू, वे, वो मनुष्य
मृ. २ आ. ४. पुन. ३ क, की, कु, के, को, घ, ङ, छ, ह पुन. १ पु. ४ आ. ४ | हि, हु, हे, हो, डा, डी, डु, डे, डो
म. ४ पू.फा. ४ उ. फा. १ | म, मी, मु, मे, मो, टा, टि, टू, टे मनुष्य उ.फा. ३ ह. ४ चि. २ टो, प, पी, पु, पे, पो, ष, ण, ठ मनुष्य चि. २ स्वा. ४ वि. ३ र, रि, रु, रे, रो, त, ति, तु, ते
वि. १ अनु. ४ ज्ये. ४ तो, न, नी, नु, ने, नो, य, यि, यु मनु. (मि.)| मू ४ पू.षा. ४ उ.पा. १ ये, यो, भ, भि, यु, ध, फ, ढ, भे पशु (मि.)| उ.षा. ३ श्र ४ ध. २ । भो, ज, जि, जु, जो, ख, खि, खु,
खे, खो, ग, गि मनुष्य घ.२ शत. ४ पू.भा. ३ गु, गे, गो, स, सि, सु, से, सो, द जलचर | पू.भा. १ उ.भा. ४ रे. ४ | दि, दु, दे, दो थ, झ, ञ, च, चि
वृश्चिक
मंगल
कीट
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धनु
गुरु
मकर
शनि
११ | कुंभ
शनि
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मीन
गुरु
क्र.सं. राशि
२-१२
६-८
वर्ण
वश्यराशि
क्षत्रिय वैश्य
मेष
वृषभ मिथुन कर्क सिंह
विप्र
क्षत्रिय वैश्य
धनु, सिंह बिना सभी धनु, सिंह बिना सभी धनु, वृश्चिक बिना सभी धनु, सिंह बिना सभी सिंह, एवं मनुष्य बिना सभी
कन्या
शूद्र
तुला वृश्चिक
सिंह
विप क्षत्रिय
धनु
मकर
वैश्य
सभी कर्क, मीन बिना सिंह मनुष्य
कुंभ
शूद्र
मीन
विप्र
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________________
२८८ ]
[ मुहूर्तराज
- अथ साधक-साध्य विंशोपक यन्त्रम् -
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१
श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
१० श्री शीतलनाथजी
२
३
४
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१४
१५
१६
१७
१८
१९
२०
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२२
२३
२४
श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुक्तजी
श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी
लांछन
वृषभ
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वानर
क्रौंच
पद्म
स्वस्तिक
चन्द्र
मकर
वत्स
गैंडा
महिष
वराह
श्येन (बाज )
वज्र
हरिण
अज
नद्यावर्त
अथ श्री जिनेश्वर राश्यादियन्त्रम् (१) -
वर्ग
कलश
कच्छप
कमल
शंख
सर्प
सिंह
नक्षत्र
उ. षा.
रोहिणी
मृगशिर
पुनर्वसु
मघा
चित्रा
विशाखा
अनुराधा
मूल
पू. पाढा
श्रवण
शतभि.
उ.भा.
रेवती
पुष्य
अश्विनी
कृत्तिका
रेवती
अश्विनी
श्रवण
अश्विनी
चित्रा
विशाखा
उ. फा.
योनि
नकुल
सर्प
सर्प
बिडाल
मूषक
व्याघ्र
व्याघ्र
हरिण
श्वान
वानर
वानर
अश्व
गौ
हस्ती
अज
अश्व
अज
हस्ती
अश्व
वानर
अश्व
व्याघ्र
व्याघ्र
गौ
नाडी संकेताक्षर आ. = आद्य, म.
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अ.
अ.
श.
अ.
श.
प.
श.
च
श.
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क.
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त.
त.
प.
प.
मध्य, अं.
= अन्त्य
गण
मनुष्य
मनुष्य
देव
देव
राक्षस
राक्षस
राक्षस
देव
राक्षस
मनुष्य
देव
राक्षस
मनुष्य
देव
देव
देव
राक्षस
देव
देव
देव
देव
राक्षस
राक्षस
मनुष्य
[ २८९
नाडी
अन्त्य
अन्त्य
मध्य
आद्य
अन्त्य
मध्य
अन्त्य
मध्य
आद्य
मध्य
अन्त्य
आद्य
मध्य
अन्त्य
मध्य
आद्य
अन्त्य
अन्त्य
आद्य
अन्त्य
आद्य
मध्य
अन्त्य
आद्य
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९० ]
[ मुहूर्तराज
- अथ श्री जिनेश्वरराश्यादियन्त्रम् (२) -
क्र.सं. नाम
राशि
अशुभ राशि
वर्ण
तारा
धन
वृषभ, मकर
क्षत्रिय
अग्नि
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी
२
वृषभ
मेष, धन
वैश्य
भूमि
मिथुन
वायु
३ श्री सम्भवनाथजी ४ | श्री अभिनन्दनजी
कर्क, वृश्चिक, कुंभ कर्क, वृश्चिक, कुंभ
मिथुन
वायु
५
सिंह
मकर
क्षत्रिय
अग्नि
श्री सुमतिनाथजी |श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी
कन्या
मेष, मकर
वैश्य
भूमि
तुला
शूद्र
वायु
|श्री चन्द्रप्रभजी
वृश्चिक
वृश्चिक, मीन मिथुन, कर्क, तुला वृष, मकर
विप
जल
श्री सुविधिनाथजी
धन
क्षत्रिय
अग्नि
श्री शीतलनाथजी
वृष, मकर
क्षत्रिय
अग्नि
श्री श्रेयांसनाथजी
मकर
वैश्य
भूमि
| श्री वासुपूज्यजी
कुंभ
शद्र
वायु
श्री विमलनाथजी
सिंह, कन्या, धन मिथुन, कर्क, मीन कर्क, तुला, कुंभ कर्क, तुला, कुंभ मिथुन, वृश्चिक, कुंभ, मीन
वित्र
जल
श्री अनन्तनाथजी
मीन
विष
जल
श्री धर्मनाथजी
कर्क
विप्र
जल
श्री शान्तिनाथजी
क्षत्रिय
अग्नि
वृष, कन्या मेष, धन कर्क, तुला, कुंभ
वैश्य
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी
भूमि
विप्र
जल
श्री मल्लिनाथजी
वृष, कन्या
क्षत्रिय
अग्नि
मकर
सिंह, कन्या, धन
वैश्य
भूमि
मेष
वृष, कन्या
क्षत्रिय
अग्नि
श्री मुनिसुव्रतस्वामीजी २१ श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
कन्या
मेष, मकर
वैश्य
भूमि
तुला
वृश्चिक, मीन
वायु
कन्या
मेष, मकर
वैश्य
भूमि
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
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- अथ लभ्य देय यन्त्र -
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Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२ ]
[ मुहूर्तराज
- अथ श्रीतीर्थंकर नाडी-गण यन्त्रम् -
साधक गण
साधक नाडी वेध
साध्य
आद्य
मध्य
अनत्व
मनुष्य
राक्षस
साध्य तीर्थकर नाम
#
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श्री ऋषभदेवजी
#
श्रीअजितनाथजी
गळं
| श्री सम्भवनाथजी
वेध
वै. श्री अभिनन्दनस्वामीजी
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श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
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श्री सुपार्श्वनाथजी
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श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
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श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यस्वामीजी
वेध
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श्री विमलनाथजी
न
श्री अनन्तनाथजी
न
श्री धर्मनाथजी
न
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श्री शान्तिनाथजी
न
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वेध
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी वै. श्री मुनिसुव्रतस्वामीजी
श्री नमिनाथजी
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वेध
श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
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#
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२९३
- अथ श्री तीर्थंकर राशि-कूट यन्त्रम् (१) -
क्र.सं. | राशि
स्वजिन
श्रेष्ठतर
श्रेष्ठ
प्रीति
-
१६,१९,२१ | कर्क १५
मकर ११,२० १३,१४,१८
वृश्चिक ८
मिथुन ३,४ कुंभ १२ सिंह ५ धनु १,९,१०
वृषभ
कुंभ १२
मिथुन ३,४ सिंह ५
तुला ७,२७
७,२३
कर्क १५ कन्या ६,२२,२४ मकर ११,२०,१३,१४,१८
मिथुन
कन्या ६,२२,२४
वृषभ २,१७ १३,१४,१८
मकर ११,२०
मेष १६,१९,२२ सिंह ५ तुला ७,२३
-
कर्क
१५
मेष १६,१९,२१
सिंह ५ तुला ७,२३
धन १,९,१०
वृषभ २,१७ कन्या ६,२२,२४
-
L
| वृश्चिक ८
वृषभ २,१७ कर्क १५
| मीन १३,१४,१८
मेष १६,१९,२१ मिथुन ३,४,६,२२,२४
कन्या
६,२२,२४
मिथुन ३,४
तुला ७,२३ धन १,९,२०
| कुंभ १२
वृषभ २,१७ कर्क १७ सिंह ५ वृश्चिक ८
-
L
तुला
|७,२३
मकर ११,२०
कर्क १५ ६,२२,२४
वृषभ २,१७
धन १,९,१० कुंभ १२ कन्या ६,२२,२४
वृश्चिक
८
सिंह ५
धन १,९,१० कुंभ १२
| मेष १६,१९,२१
कन्या ६,२२,२४ मकर ११,२० मीन १३,१४,१८
| मीन १३,१४,१८
कन्या ६,२२,२४ वृश्चिक ८
| कर्क १५
मेष १६,१९,२१,सिंह ५ तुला ७,२३,कुंभ १२
११,२०
तुला ७,२३
मेष १६,१९,२१ | कुंभ १२
मिथुन ३,४
वृषभ २,१७ वृश्चिक ८ मीन १३,१४,१८
वृषभ २,१७
वृश्चिक ८ मकर ११,२०
कन्या ६,२२,२४
मेष १६,१९,२१ तुला ७,२३ धन १,९,१०
|१३,१४,१८ | धन १,९,१०
मेष १६,१९ २१ मिथुन ३,४
सिंह ५
वृषभ २,१७ वृश्चिक ८ मकर ११,२०
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९४ ]
[ मुहूर्तराज
- अथ श्री तीर्थंकर राशिकूट यन्त्रम् (२) -
क्र.सं. |
राशि
सम
मध्यम
अशुभ
अशुभतर
मेष
तुला ७,२३
वृष २,१७
कन्या ६,२२,२४
वृश्चिक ८
मेष १६,१९,२१,
धनु १,९,१०
मिथुन
धनु १,९,१०
कुंभ १२
वृश्चिक
कर्क १५
कर्क
मकर ११,२०
वृश्चिक ८ मीन १३,१४,१८
कुंभ १२
मीन ३,४
| सिंह
| कुंभ १२
मकर ११,२०
कन्या
मीन १३,१४,१८ | मकर ११,२०
मेष १६,१९, २१
तुला
मेष १६,१९,२१ |
-
वृश्चिक ८
मीन १३,१४,१८
वृश्चिक
| वृष २,१७
कर्क १५
तुला ७,२३
मिथुन ३,४
मिथुन ३,४
मकर ११,२०
वृश्चिक २,१७
-
-
मकर
कर्क १५
कन्या ६,२२,२४ | धनु १,९,१०
सिंह ५
कुंभ
सिंह ५
मिथुन ३,४
मीन १३,१४,१८
कर्क १५
मीन
कन्या ६,२२,२४ | कर्क १५
कुंभ १२
तुला ७,२३
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
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२९६ ]
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कृत्तिका
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धनिष्ठा
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उ.भा.
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उ. फा.
उ. फा.
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पुष्य
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पू.षा.
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स्वाती
विशाखा
विशाखा
उ.भा.
पू.भा.
पू.भा.
उ.भा.
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- अथ सर्वाक्षर कट यन्त्रम् (१) -
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[२९७
- अथ सर्वाक्षर कूट यन्त्रम् (१) -
अक्षर
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हरिण उ.फा.
हस्त महिष पे, पो फ, १० पू.षा. वानर बा, बी, बू रोहिणी बे, बो । मृगशिर सर्प भा, भी । मूल श्वान
वानर उ.षा. नकुल
उ.षा. नकुल | मा,मी,मू,मे मघा मो
मूषक या, यी, यु ज्येष्ठा हरिण
ये, यो । मूल श्वान र, क्र, रि | चित्रा वानर
स्वाती । महिष ला अश्विनी अश्व ली,लु,ले,लो भरणी हस्ती वा, वी, वु| रोहिणी __ वे, वो ।
मृगशिर श.१० । उ.भा. | गौ ष.१०
महिष स, सी, सू शतभिषा
अश्व से, सो । पू.भा. सिंह
पुनर्वसु बिडाल पुनर्वसु बिडाल
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पू.फा
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सिंह सिंह वृश्चिक
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मंगल शुक्र
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अन्त्य
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शनि शनि बुध
मिथुन कर्क कर्क
पुष्य
मेष
गण संकेत शब्द दे. = देव, म. = मनुष्य, रा. = राक्षस नाडी संकेत शब्द आ. = आद्य, म. = मध्य, अं. = अन्त्य युजि संकेत शब्द पू. = पूर्व, म. = मध्य, प. = पश्चिम वर्ण संकेत शब्द वि. = विप्र, शू. = शूद्र, क्ष. = क्षत्रिय, वै. = वैश्य
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९८ ]
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श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी
श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
२३
श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
राशि
मेष
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अशुभ
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26)
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Page #368
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श्री श्रेयांसनाथजी | श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नमिनाथजी | श्री नेमिनाथजी
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श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
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श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
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१९ श्री मल्लिनाथजी
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श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
२१ श्री नमिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
राशि
वृषभ
-
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अशुभ
अशुभ
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२
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मध्यम
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मध्यम अशुभ
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मध्यम शुभ वेध
मध्यम अशुभ
मध्यम शुभ वेध
मध्यम
अशुभ
अशुभ शुभ
प्रीति
शुभ
वेध
वेध
वेध
नक्षत्र
युजि
रोहिणी पूर्व
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०१
मुहूर्तराज ]
साधकर अक्षर - क, का, कि, की, क्ष
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
वर्ग
विंशोपक
राशि नाडी
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
सर्प नकुल
लभ्य
वृश्चि . | मध्य कर्क । मध्यवेध
७,९,२
राक्षस
कुवर
मध्यम
मैत्री
मध्यम
स्व
स्व
एकम
अशुभ
शभ
नई
वैर
। २
श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
शुभ
नई
सम
अशुभ
मध्यम
वेध
सम प्रीति
स्व
१ श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी | श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी ९ | श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी | श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी | श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम
अशुभ
मध्यम श्रेष्ठ वेध श्रेष्ठ अशुभतर वेध शुभ
श्रेष्ठ
बैं
अशुभ
श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
शुभ
श्रेष्ठतर
राशि
एकनाथ
वर्ण
पति बुध
मध्यम .. वश्य बिना सिंह धनु शेष सभी
नक्षत्र युजि मृगशीर्ष पूर्व
मिथुन
कन्या
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२ ]
[ मुहूर्तराज
साधकर अक्षर - कु, कू
नं. साध्यजिन
तारा
योनि
| वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
श्वान
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
मिथुन | वृश्चि .
कर्क
मनुष्य राक्षस
लभ्य
आद्य आद्यवेध
८, १,३
हरिण
अशुभ
सम
श्रेष्ठ
मध्यम
भवेध
अशुभ
मध्यम अशुभ अशुभ अशुभ
|शुभ श्रेष्ठतर
वैर
२
|शुभ
मध्यम
अशुभ अशुभ
अशुभ
सम
सम
मध्यम
प्रीति | मध्यम
अशुभ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी | श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी | श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी | श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी | श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी राशि पति
अशुभ
स्व
श्रेष्ठ
मध्यम
अशुभ
मध्यम
अशुभतर शुभ | वेध
अशुभ
मध्यम
अशुभ
अशुभ मध्यम
अशुभ
शुभ
मध्यम मध्यम
प्रीति |शुभ
अशुभ
मध्यम
अशुभ
अशुभ
वै
|श्रेष्ठतर | वेध
शुभ | श्रेष्ठतर | भवेध
अशुभ
१॥
स्व
एकनाथ
वर्ण
युजि
वश्य सिंह धनु के बिना सभी
नक्षत्र आर्द्रा
मिथु.
बुध
कन्या
मध्य
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०३
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - के, के, को, कौ
साध्यजिन
तारा
योनि | वर्ग
विंशोपक
गण
। | राशि
नाडी
आद्य
स्वकीय विरुद्ध
साध्यनाम
| मिथुन | वृश्चि .
बिडाल उन्दिर
क
लभ्य
९,२,४
आद्यवेध
मध्यम
|सम
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
स्व
एकम
व
शुभ श्रेष्ठतर
वैर
।
२
शुभ
सम
वेध
अशुभ
अशुभ
प्रीति
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी ६ | श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी १७ || श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी राशि पति
0 * 4 4 4 4 4 4 4 4 4 4 जू में 4 * * * 44 व
वैर
मध्यम सम स्व
मध्यम वेध मध्यम | |श्रेष्ठ
श्रेष्ठ अशुभतर शुभ वेध
अशुभ
अशुभ
श्रेष्ठ
अशभ
प्रीति
२२ ।
वैर
शुभ वेध श्रेष्ठतर |शुभ
श्रेष्ठतर वेध नक्षत्र युजि पुनर्वसु
मध्यम
मध्यम
एकनाथ
वर्ण
वश्य बिना सिंह धनु
मिथुन
कन्या
शूद्र
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ख - १० (खो खौ १-पाद ७-१३-२३ भवेध)
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
।
विंशोपक
गण
राशि नाडी
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
वानर मेष
लभ्य
।
देव | मकर राक्षस -
|सिंह
अन्त्य अन्त्यवेध
६,८,१
मध्यम मध्यम
अशुभ | भवेध शुभ
प्रीति
प्रीति
अशुभ
शत्रु
वेध
वैर
२
ननरभर
अशुभ
मध्यम श्रेष्ठतर | वेध शुभ अशुभ अशुभ
अशुभ
मध्यम
स्व
श्री ऋषभदेवजी | श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी | श्री अभिनन्दनजी ५ | श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी ७ | श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी |श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ | श्री श्रेयांसनाथजी | श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी |श्री अनन्तनाथजी | श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी २१ | श्री नमिनाथजी
| श्री नेमिनाथजी २३ | श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
श्रेष्ठ
अशुभ
मध्यम
शुभ
वेध
भा
अशुभ
अशुभ
श्रेष्ठ
शभ
अशुभ
अशुभ
वैर
|स्व एकम श्रेष्ठ मध्यम श्रेष्ठतर | वेध | मध्यम
कैर
|
१॥
राशि
पति
एकनाथ
वर्ण
वश्य
नक्षत्र
| युजि श्रवण पश्चिम
मकर
शनि
कुंभ
वैश्य
कर्क, मीन
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०५
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - ग, गा, गि, गी
साध्यजिन
| तारा
योनि
| वर्ग
विंशोपक
गण
| राशि
नाडी
स्वकीय
सिंह
साध्यनाम
लभ्य
| देय
राक्षस |मकर मध्य देव, मनुष्य | सिंह | मध्यवेध
विरुद्ध
७,९,२
हस्ती
अशुभ
अशुभ अशुभ अशुभ
प्रीति भवेध प्रीति |शत्रु मध्यम | भवेध
श्रेष्ठतर |शुभ वेध
अशुभ अशुभ | अशुभ | वेध
वैर
|
२
अशुभ
अशुभ
वैर
स्व
94
अशुभ
| श्री ऋषभदेवजी | श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी | श्री अभिनन्दनजी | श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी | श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी | श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ | श्री श्रेयांसनाथजी
| श्री वासुपूज्यजी १३ | श्री विमलनाथजी
| श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी | श्री अरनाथजी | श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी २१ | श्री नमिनाथजी
| श्री नेमिनाथजी २३ | श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी राशि पति मकर शनि
अशुभ
|
वैर
शुभ
सम
वेध
श्रेष्ठ
अशुभ
श्रेष्ठ
नर
श्रेष्ठ मध्यम | भवेध श्रेष्ठतर मध्यम
अशुभ
स्व
अशुभ
एकनाथ
वर्ण
वश्य कर्क, मीन
नक्षत्र |युजि धनिष्ठा | पश्चिम
कुंभ
वैश्य
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - गु, गू, गे, गै
साध्यजिन
तारा
योनि
।
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
सिंह
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
राक्षस कुंभ देव, मनुष्य | कर्क
___७,९,२
मध्य मध्यवेध
हस्ती
।
अशुभ
शुभ श्रेष्ठतर
अशुभ
मध्यम | वेध
अशुभ
मध्यम
सम
|
वैर
।
२
अशुभ
अशुभ
अशुभ
वैर
।
स्व
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी | श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी राशि पति
अशुभ
|
अशुभ
|
वैर
| अशुभ
शत्र
शुभ
श्रेष्ठतर
|
अशुभ
|
वैर
।
अशुभ
जाम
श्रेष्ठ
शभ प्रीति
वेध
अशुभ
शभ
अशुभ
प्रीति
एकनाथ
वर्ण
नक्षत्र
युनि
वश्य विना सिंह व मनुष्य
| युजि धनिष्ठा | पश्चिम
शनि
मकर
शूद्र
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०७
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - गो, गौ
-
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
अश्व
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
49
लभ्य
| देय
राक्षस |कुंभ देव, मनुष्य | कर्क
आद्य आद्यवेध
८,१,३
महिष
अशुभ
अशुभ शुभ अशुभ | श्रेष्ठतर
मध्यम
मध्यम | वेध
अशुभ
सम
वैर
|
२
प्रीति
शुभ
अशुभ अशुभ
वेध
अशुभ
शुभ
श्रेष्ठ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी | श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी | श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
अशुभ
अशुभ अशुभ
अशुभ अशुभ शत्रु शुभ श्रेष्ठतर
वेध
अशुभ
अशुभ
अशुभ
ग
शुभ
अशुभ
| प्रीति
| शुभ अशुभ प्रीति
अशुभ
राशि
वर्ण
पति शनि
एकनाथ मकर
वश्य बिना सिंह, मनुष्य
नक्षत्र युजि शतभिष| पश्चिम
कुंभ
शूद्र
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - घ-१० सर्वस्वर सहित ङ - १० स्वर सहित
भ.
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
मनुष्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
श्वान हरिण
लभ्य
- मिथुन वृश्चिक आद्य कर्क आद्यवेध
८,१,३
अशुभ
सम
श्रेष्ठ
मध्यम
स्व
मध्यम
स्व
वेध
अशुभ
वैर
। २
अशुभ | शुभ अशुभ | श्रेष्ठतर अशुभ मध्यम |शत्रु अशुभ सम
अशुभ अशुभ
वेध
सम
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी | श्री चन्द्रप्रमजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम प्रीति अशुभ | मध्यम
श्रेष्ठ
वेध
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
मध्यम
अशुभ अशुभ अशुभ
| अशुभतर
शुभ वेध
मध्यम
अशुभ मध्यम
अशुभ
मध्यम
शभ
वेध
मध्यम
प्रीति
अशुभ
वेध
शुभ श्रेष्ठतर
मध्यम अशुभ अशुभ स्व
अशुभ
श्रेष्ठतर
| वेध
राशि
पति
वर्ण
एकनाथ कन्या
वश्य बिना सिंह धनु
नक्षत्र युजि आर्द्रा मध्य
मिथु.
शूद्र
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०९
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - च, चा, चि, ची
साध्यजिन
| तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
हस्ती
देव
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
अन्त्व अन्त्यवेध
२,४,६
सिंह
राक्षस
तुला
मध्यम
अशुभ
मध्यम
शुभ
2 बैं
शुभ
श्रेष्ठतर
मध्यम
श्रेष्ठतर
अशुभ अशुभ
शुभ
वेध
अशुभ
वैर
अशुभ
श्री ऋषभदेवजी २श्री अजितनाथजी | श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी | श्री सुमतिनाथजी |श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी | श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी | श्री वासुपूज्यजी | श्री विमलनाथजी | श्री अनन्तनाथजी | श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी
| श्री अरनाथजी १९ | श्री मल्लिनाथजी
|श्री मुनिसुव्रतजी २१ | श्री नमिनाथजी २२ श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी |श्री महावीरस्वामीजी राशि पति मीन
और
मध्यम
स्व
मध्यम
&
& 1
अशुभ
A &
वैर
मध्यम
|
एकनाथ
वर्ण
वश्य
नक्षत्र युजि रेवती | पूर्व
धनु
ब्राह्मण
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१० ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - चु, चू, चे, चे, चो, चौ
नं.
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
देव
मे
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
अश्व महिष
लभ्य
| देय
३,५,७
राक्षस
कन्या
अशुभ
मध्यम
| शुभ
मध्यम
अशुभ शुभ
अशुभ अशुभ
शुभ
अशुभ अशुभ
सम
प्रीति
वैर
| शभ | वेध
मध्यम
| शुभ
स्व
वैर
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४] श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम
| श्रेष्ठ श्रेष्ठ
स्व
श्रेष्ठतर
स्व
| वेध
अशुभ
अशुभ
श्रेष्ठ
| स्व
वेध
अशुभ अशुभ अशुभ
वैर
सम
(वैर)
मध्यम | शत्रु
वेध
राशि
पति
एकनाथ
वर्ण
वश्य
मंगल
वृश्चिक
क्षत्रिय
अश्विनी| पूर्व
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३११
साधक अक्षर - छ १०
साध्यजिन
तारा
योनि
। वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
श्वान हरिण
मिथुन वृश्चिक आद्य | कर्क | आद्य
मनुष्य राक्षस
लभ्य
८,१,३
+
अशुभ
स्व
सम
मध्यम
मध्यम
स्व
वेध
अशुभ
| शुभ
अशुभ अशुभ | श्रेष्ठतर अशुभ
शुभ
मध्यम
पान
अशुभ अशुभ
अशुभ स्व मध्यम
सम
प्रीति
अशुभ
मध्यम | वेध श्रेष्ठ
१ श्री ऋषभदेवजी २|श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी | श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नमिनाथजी |श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी राशि पति मिथुन
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
अशुभ
मध्यम
|अशभ
अशुभ
मध्यम
अशुभ
अशुभ
मध्यम
बैं
अशुभ
मध्यम
प्रीति
अशुभ
मध्यम मध्यम शुभ वेध अशुभ | अशुभ शुभ स्व श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
(वैर)
एकनाथ
वर्ण
नक्षत्र
युजि
वश्य विना सिंह व धन
बुध
कन्या
आर्द्रा
मध्य
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२ ]
साधक अक्षर - ज-१० (जु, जू, जे, ज-१० (जु, जू, जे, जै, जो जौ अभिजित्) (ज, जि १ भवेध)
नं.
साध्यनाम
१
२
श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनाथजी
४ श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
८
९
५
६ श्री पद्मप्रभुजी
७
≈ m x 2 w 2
१२
१३
साध्यजिन
१०
११ श्री श्रेयांसनाथजी
स्वकीय
विरुद्ध
१५
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
~ ~ ~
श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
राशि
मकर
श्री धर्मनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९
२०
श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी २१ श्री नमिनाथजी २२ श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
शनि
तारा
३
५,७,९
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
कुंभ
योनि
नकुल
सर्प
स्व
वैर
वैर
वर्ण
वैश्य
वर्ग
च
य
वैर
वैर
(वैर)
लभ्य
१ ॥
३॥
१॥
१॥
१
१
१॥
१॥
विशोषक
देय
१
'
१॥
१
१॥
१॥
0
१॥
१ ॥
१॥
२
२
१
१॥
१
(१॥ )
(२)
वश्य
कर्क, मीन
गण
मनुष्य
राक्षस
स्व
स्व
अशुभ
स्व
[ मुहूर्तराज
अशुभ
स्व
राशि नाडी
शुभ
मध्यम प्रीति
मध्यम
प्रीति
अशुभ शत्रु
अशुभ
अशुभ
मध्यम
मध्यम
मध्यम
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मकर अन्त्य
सिंह
अन्त्य
अशुभ एकम
मध्यम स्व
श्रेष्ठ
शुभ
अशुभ
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर वेध
शुभ
शुभ
सम
श्रेष्ठ
शुभ
शुभ
श्रेष्ठ
阿
मध्यम
मध्यम
स्व मध्यम श्रेष्ठ
अशुभ
अशुभ
स्व
वेध
नक्षत्र
उ.षा.
वेध
वेध
वेध
वेध
वेध
वेष
मध्यम
श्रेष्ठतर वेध
मध्यम
युजि
पश्चिम
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३१३
साधक अक्षर - झ-१०
साध्यजिन
तारा
योनि
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
मनुष्य
मीन
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
ब
लभ्य
१,३६
व्याघ्र
राक्षस
तुला | मध्य
अशुभ
श्रेष्ठतर
स्व
शुभ श्रेष्ठ
अशुभ
मध्यम
|भवेध
मध्यम
|श्रेष्ठ
अशुभ
अशुभ
प्रीति
अशुभ
कुवैर
कुवैर
अशुभ सम भवेध अशुभ |शत्रु मध्यम
शुभ वेध अशुभ | श्रेष्ठतर
श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
मध्यम
शुभ
| अशुभ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी | श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी | श्री पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी राशि
अशुभ स्व
स्व
मध्यम
मध्यम
| मध्यम
अशुभ
मध्यम
अशुभ
अशुभ
|शुभ
मध्यम
अशुभ
मध्यम
शुभ
मध्यम मध्यम
अशुभ अशुभ
कुवैर
सम
भवेध
अशुभ अशुभ
कुवैर
शत्रु
अशुभ
मैत्री
(वैर)
(२)
सम
पति
एकनाथ
वर्ण
वश्य
नक्षत्र
युजि पश्चिम
मीन
धनु
ब्राह्मण
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ट, टा, टि, टी, टु, टू (ट ३-६-२२ भवेध)
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
|
सिंह
मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
मूषक बिडाल
देय
मनुष्य राक्षस
४,६,८
मकर
मध्य
|
अशुभ
मध्यम
र
मध्यम
#
अशुभ अशुभ | अशुभ | शुभ मध्यम | श्रेष्ठतर | वेध अशुभ स्व शुभ वेध
अशुभ
| शुभ
मध्यम
ET
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी १७ | श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ अशुभ अशुभ
सम
अशुभ स्वगण
*
-
मध्यम
प्रीति
अशुभ
मध्यम
&
मध्यम
अशुभ मध्यम
मध्यम
शुभ
अशुभ
मध्यम
शत्र
| शुभ
वेध
मध्यम अशुभ | शुभ अशुभ | शुभ
शुभ
२४. या
एकनाथ
वर्ण
वश्य बिना धनु व वृश्चिक
नक्षत्र पू.फा.
युजि मध्य
क्षत्रिय
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३१५
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - टे, टै
साध्यजिन
तारा
योनि
।
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि |नाडी
स्वकीय
सिंह
साध्यनाम
लभ्य
देय
विरुद्ध
मनुष्य राक्षस
५,७,९
| मकर | आद्य
| शुभ
श्रेष्ठ
मध्यम
शुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम
|शुभ
भवेध
___
अशुभ
कुवैर
अशुभ अशुभ
कुवैर
अशुभ | शुभ अशुभ | शुभ मध्यम | श्रेष्ठतर
अशुभ
शुभ
वेध
शभ
मध्यम
शत्रु
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ / श्री श्रेयांसनाथजी | श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी | श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी | श्री अरनाथजी | श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी | श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी |श्री पार्श्वनाथजी | श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
सम
वध
मैत्री
अशुभ
मध्यम
प्रीति प्रीति श्रेष्ठ
मध्यम
शुभ
वेध
मध्यम अशुभ मध्यम
श्रेष्ठ
अशुभ
प्रीति
मध्यम
शुभ
वेध
मध्यम
शत्रु
मध्यम
| वेध
अशुभ
कुवर
अशुभ
कुवैर
अशुभ अशुभ स्व
शुभ
एकम
पति
एकनाथ
नक्षत्र
राशि सिंह
वर्ण क्षत्रिय
वश्य बिना धनु व वृश्चिक
युजि मध्य
सूर्य
उ.फा.
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - टो, टौ
नं .
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
कन्या
आद्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
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लभ्य
देय
मनुष्य राक्षस
५,७,९
व्याघ्र
आद्य
स्व
श्रेष्ठ
| शुभ
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
मध्यम
-
अशुभ
शुभ
अशुभ
अशुभ अशुभ
कुर
अशुभ मध्यम
अशुभ
|श्रेष्ठ
में
मध्यम | मध्यम
अशुभ | प्रीति
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी | श्री महावीरस्वामीजी राशि कन्या
मैत्री
सम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
मध्यम
अशुभ
अशुभ
मध्यम
मध्यम
मध्यम
यम
मध्यम
. अशुभ
अशुभ
ना न
अशुभ अशुभ
स्व
पति
वर्ण
एकनाथ मिथुन
वैश्य
वश्य बिना सिंह व धनु
नक्षत्र युजि उ.फा. | मध्य
Page #386
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________________
[३१७
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - ठ १०
-
साध्यजिन
| तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
महिष
देव
कन्या
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
석사
लभ्य
आद्य आद्य
अश्व
मनुष्य
मध्यम
श्रम
मध्यम
शुभ श्रेष्ठतर | श्रेष्ठतर भवेध
अशुभ
शुभ
अशुभ
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
मध्यम
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी | श्री सम्भवनाथजी | श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी १६ | श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ अशुभ
मध्यम
सम
स्व
.
सम
4 4 4 4
अशुभ
शभ
अशुभ
|
वैर
|
वैर
शत्रु
शुभ
सम
अशुभ
|शत्र
वेध
मध्यम
अशुभ
वैर ।
श्रेष्ठ
३
मध्यम
स्व
भवेध
राशि
पति
एकनाथ
नक्षत्र
वर्ण वैश्य
वश्य बिना सिंह एवं धनु के सभी
कन्या
बुध
मिथुन
हस्त
मध्य
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ड, डा
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
मेष
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
कर्क मध्य राक्षस | मि.कुंभ मध्य
१,३,५
वानर
अशुभ
मध्यम
प्रीति
मध्यम
अशुभ
स्व
| शुभ अशुभतर भवेध अशुभतर श्रेष्ठ
अशुभ अशुभ
अशुभ
वैर
प्रीति
मध्यम
प्रीति
स्व
सम
वैर
श्री ऋषभदेवजी | श्री अजितनाथजी | श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी | श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
शत्रु
मध्यम
| मध्यम
वेध
मध्यम
अशुभ
श्रेष्ठतर
अशुभ
शुभ
मध्यम श्रेष्ठतर
अशुभ
कुवैर
|
(वैर)
अशुभ अशुभ
सम श्रेष्ठतर शुभ
भवेध
श्रेष्ठ
अशुभ
मध्यम
राशि
एकनाथ
वर्ण
वश्य
युजि
कर्क
पति चन्द्र
नक्षत्र पुष्य
ब्राह्मण
मध्य
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर डि, डी, डु, डू, डे, डै, डो, डौ (डि डी १ पाद ७-१७-२३ भवेध)
-
नं.
साध्यनाम
४
१
श्री ऋषभदेवजी
२ श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
५
६
७
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
८
९ श्री सुविधिनाथजी
१०
श्री शीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३ श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९
श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
राशि
कर्क
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
चन्द्र
तारा
९
२.४,६
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
०
योनि
बिडाल
मूषक
मैत्री
कुवैर
वर्ण
ब्राह्मण
वर्ग
ट
श
वैर
बैर
वैर
वैर
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खैर
वैर
(खैर)
लभ्य
२ ॥
२॥
२
२
२
२
२
२
२
२॥
०॥
२
२५
(२)
0 ||
०॥
विशोषक
देय
०
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२॥
२॥
वश्य
१
२
३
३
३
गण
राक्षस
देव, मनुष्य कुंभ
3359
अशुभ प्रीति
अशुभ
वैर
वैर
स्व
स्व
स्व
वैर
स्व
231
अशुभ
वैर
वैर
वैर
मध्यम
स्व
प्रीति
अशुभ प्रीति
वैर सम
स्व
वैर
च
राशि
वैर
वैर
वैर
कर्क
मिथु.
131
स्व
[ ३१९
नाडी
शुभ
अशुभत
अशुभतर
श्रेष्ठ वेध
शत्रु
मध्यम
मध्यम
स्व
श्रेष्ठतर
शुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर
अन्त्य
अन्त्य
शुभ
श्रेष्ठ वेध
भवेध
वेध
वेध
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वेध
वेध
सम वेध
श्रेष्ठतर
शुभ
स्व श्रेष्ठ
अशुभ
शुभ
ह
वेध
नक्षत्र
युजि
आश्लेषा मध्य
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२० ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ढ १०
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
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धन
मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
वानर मेष
लभ्य
मनुष्य राक्षस
४,६,८
वृषभ
| मध्य
स
अशुभ
स्व
मध्यम
सम
मध्यम
सम
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
मध्यम
अशुभ
स्व
एकम
मध्यम
अशुभ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ अशुभ अशुभ
अशुभ
| शुभ
स्व
मध्यम
श्रेष्ठतर वेध श्रेष्ठतर प्रीति | वेध
अशुभ
मध्यम
|
वैर
मध्यम
| शुभ
अशुभ । शत्र
मध्यम
| श्रेष्ठतर
मध्यम
शुभ अशुभ
अशुभ
|
मैत्री
|
(वैर)
मध्यम
मध्यम
शभ
श्रेष्ठ२२ भवेध
अशुभ अशुभ
श्रेष्ठ | भवेध
वर्ण
एकनाथ मीन
वश्य सवें
नक्षत्र युजि पू.षा. | पश्चिम
गुरु
क्षत्रिय
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३२१
साधक अक्षर - ण १०
साध्यजिन
| तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
महिष
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स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
| देय
देव मनुष्य
। कन्या मेष
६,८,१
अश्व
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मध्यम
श्रेष्ठ | शुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर
श्रेष्ठतर | वेध
५
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
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मध्यम
श्रेष्ठ
मध्यम
अशुभ
|
वैर
वैर
प्रीति
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी | श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी |श्री नेमिनाथजी | श्री पार्श्वनाथजी | श्री महावीरस्वामीजी
|वेध
अशुभ
मध्यम
सम
सम
अशुभ
अशुभ
|
वैर
।
वैर
शत्र
वेध
सम
अशुभ
शत्रु
|वैध
मध्यम
अशुभ
|
वैर
२३
मध्यम
स्व
राशि|
पति
एकनाथ
वर्ण
नक्षत्र
वश्य बिना सिंह व धन के
युजि मध्य
कन्या
बुध
मिथुन
वैश्य
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - त, ता
नं. ] साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण | राशि | नाडी
स्वकीय
तला
साध्यनाम
महिष अश्व
देव राक्षस
अन्त्य अन्त्यवेध
विरुद्ध
८,९,३
मीन
अशुभ
मध्यम
कुवर कुवर
मध्यम
प्रीति
कुवैर
अशुभ
1
अशभ
अशुभ अशुभ
शम
मध्यम
श्रेष्ठतर | वेध
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी | श्री सुविधिनाथजी | श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
शुभ
अशुभ
मध्यम
शत्र
कुवैर
वेध
अशुभ अशुभ अशुभ
4
वेध
कुवर
वेध
अशुभ
सम
श्रेष्ठतर | वेध सम
अशुभ
& 4
वेध
अशुभ
मध्यम
&
राशि
एकनाथ
वर्ण
नक्षत्र |
पति शुक्र
वश्य बिना सिंह व मनुष्य के
युजि स्वाती | मध्य
तुला
वृषभ
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
नं.
साध्यनाम
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१८
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श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
१०
श्री शीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
१२
श्री वासुपूज्यजी
१३
श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुवतजी
२१
श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
१९
साधक अक्षर - ति,
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
ति, ती, तु, तू, ते, तै
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
राशि
तुला
पति
शुक्र
तारा
७
१,२,४
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
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योनि
व्याघ्र
गौ
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स्व
वैर
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स्व
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वर्ण
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वर्ग
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कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
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२
२
१ ॥
२
१॥
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१ ॥
१॥
१ ॥
१॥
१
१
२
१॥
२
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०॥
०॥
०॥
विशोषक
देय
१
१॥
०
वश्य
विना सिंह व मनुष्य के
गण
राक्षस
देव, मनुष्य मीन
स्व
स्व
स्व
वैर
स्व
अशुभ
वैर
स्व
अशुभ
अशुभ प्रीति
वैर
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राशि
अशुभ
बैर
बैर
वैर
स्व
वैर
वैर
वैर
वैर
स्व
स्व
अशुभ
तुला अन्त्य
शुभ भवेध वेध
शुभ
ཙྪཱ སྠཽ། སྠཽ ཡ སྠཽ ༣ སྠཽ ། ཡཾ སྠཽ ལྤ གཽ ལྒ ལྒ ལྒ རྞྞ ལཱ ཤྲཱ སྠཱ ལ སྠཽ ཝཱ ཝཱ ཝཱ སྠཽ ཝཱ
शुभ
शत्रु
शत्रु
शत्रु
श्रेष्ठ
श्रेष्ठतर वेध
सम
शत्रु
[ ३२३
सम
नाडी
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श्रेष्ठ
अन्त्यवेध
श्रेष्ठ
बेध
एकम
श्रेष्ठतर वेध
वेध
वेध
वेध
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नक्षत्र युजि विशाखा मध्य
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - तो, तौ
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
| गण
राशि | नाडी
|
6 |
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साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
१,२,४
राक्षस |वृश्चिक अन्त्य दिव, मनुष्य | मिथुन | अन्त्यवेध
10
|
पादवेध
अशुभ अशुभ
अशुभ
| वेध
शत्रु श्रेष्ठतर | वेध
शुभ
永永阿阿阿阿昭
अशुभ | एकम
स्व
अशुभ
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अशुभ
श्री ऋषभदेवजी |श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
मध्यम
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सम
भवेध
अशुभ
शभ
वेध
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अशुभ
शुभ
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1
अशुभ | एकम |शुभ
पति
एकनाथ
वर्ण
वश्य
राशि वृश्चि
नक्षत्र युजि विशाखा मध्य
मंगल
मेष
ब्राह्मण
सिंह
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
नं.
साध्यनाम
५
६
साधक अक्षर
१
श्री ऋषभदेवजी
२ श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनाथजी
४
श्री अभिनन्दनजी
७
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
९
श्री सुविधिनाथजी
१० श्री शीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
८
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३ श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
-
१९ श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
राशि
मीन
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
गुरु
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तारा
८
१,३,५
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
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अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
धन
योनि
गौ
व्याघ्र
कुवैर
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कुवैर
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ब्राह्मण
वर्ग
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कुवैर
कुवैर
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कुवैर
कुवैर
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२
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२
१॥
० ॥
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१॥
१॥
१
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२
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० ॥
०॥
011
विशोषक
देय
०
१॥
वश्य
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राशि
मनुष्य
मीन मध्य
राक्षस तुला मध्यवेध
स्व श्रेष्ठतर
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श्रेष्ठ
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[ ३२५
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मध्यम
मध्यम
मध्यम श्रेष्ठ
अशुभ शुभ
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मध्यम श्रेष्ठ
मध्यम शुभ
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श्रेष्ठ
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अशुभ
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नक्षत्र
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भवेध
शत्रु
शुभ
अशुभ
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स्व श्रेष्ठतर वेध
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शुभ
अशुभ
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स्व
मध्यम वेध
वेध
भवेध
युजि
पश्चिम
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - द, दा
साध्यजिन
तारा
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वर्ग
विंशोपक
गण
||
राशि | नाडी
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स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
९,२,४
मनुष्य राक्षस
आद्य आद्यवेध
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कक
अशुभ
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4
मध्यम मध्यम मध्यम मध्यम | वेध अशुभ अशुभ प्रीति अशुभ मध्यम श्रेष्ठ
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शुभ
अशुभ
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अशुभ
ज 4 4
शुभ
अशुभ
मध्यम
|श्रेष्ठ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी | श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी |श्री कुंथुनाथजी | श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी | श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
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वेध
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अशुभ
अशुभ
|
वैर
| कुवैर
।
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
| शभ
वेध
अशुभ
श्रेष्ठतर
अशुभ
| वैर
| कुवैर | २
मध्यम
अशुभ
मध्यम
4
वेध
अशुभ
मध्यम
|शुभ
वेध
मध्यम अशुभ अशुभ
प्रीति
शुभ
| प्रीति
वेध
राशि
एकनाथ
वर्ण
वश्य बिना सिंह व मनुष्य के
नक्षत्र पू.भा.
युजि पश्चिम
कुंभ
शनि
मकर
शूद्र
Page #396
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[३२७
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - दि, दी
तारा
साध्यजिन
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
न
गण |राशि
नाडी
।
Walt
स्वकीय विरुद्ध
सिंह हस्त
मनुष्य राक्षस
मीन तुला
आध आद्यवेध
९,
२,
४
कुवैर
श्रेष्ठतर
अशुभ
कुवैर
शुभ
मध्यम
कुवैर
मध्यम
भवेध
श्रेष्ठ |प्रीति
अशुभ अशुभ
अशुभ मध्यम अशुभ
| शुभ |श्रेष्ठतर | वेध
श्रेष्ठतर |शुभ
०
अशुभ
०
मध्यम
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्यजी १३ श्री विमलनाथजी १४ श्री अनन्तनाथजी
|श्री धर्मनाथजी |श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
अशुभ
|
वैर
| कुवैर
मध्यम
मध्यम
मध्यम
S
मध्यम
श्रेष्ठ
वेध
१७
अशुभ
G
अशुभ
|
वैर
| कुवैर
मध्यम
%
मध्यम
अशुभ
मध्यम मध्यम अशुभ | अशुभ स्व सम
7
शत्र
भवेध
राशि
पति
वर्ण
वश्य
एकनाथ धन
मीन
गुरु
बाह्मण
पू.भा.
पश्चिम
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८ ]
नं.
साध्यनाम
४
१ श्री ऋषभदेवजी
२ श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
७
साधक अक्षर
८
९
साध्यजिन
५
६ श्री पद्मप्रभुजी
स्वकीय
विरुद्ध
राशि
मीन
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी
१०
११
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३ श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८
श्री अरनाथजी
१९ श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
गुरु
दु, दू
तारा
८
१.३.५
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
धन
योनि
गौ
व्याघ्र
कुवैर
कुवैर
स्व
कुवैर
कुवैर
मैत्री
वर्ण
ब्राह्मण
वर्ग
त
अ
कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
लभ्य देय
२
२
१॥
२
१॥
6
011
१॥
१॥
१॥
१॥
१
१
२
१॥
२
o ||
० ॥
० ॥
0 11
विशोषक
१
१॥
०
वश्य
०
गण
[ मुहूर्तराज
राशि
अशुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम
ཝཱ ལྒ ཝཱ སྠཽཡཱ སྠཽ ལ ཝཱ སྠཽ སྠཽ ལ ༸ ྂ ༈ ྃ ཤྲཱ ཝཱ ཝཿ སྦ སྠཽ གཽ ྂ ཝཱ ྃ །ཝཱ ༈ །ཟླ
मनुष्य
मीन मध्य राक्षस तुला मध्य
स्व
स्व
मध्यम
मध्यम श्रेष्ठ
श्रेष्ठतर
शुभ
श्रेष्ठ
प्रीति
सम
शत्रु
शुभ अशुभ श्रेष्ठतर
स्व
मध्यम
अशुभ स्व
शुभ
स्व
मध्यम
मध्यम
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
मध्यम शुभ
श्रेष्ठतर वेध
श्रेष्ठ
शुभ
नाडी
श्रेष्ठ
मध्यम श्रेष्ठ
वेध
मध्यम वेध
अशुभ
अशुभ शत्रु
स्व
वेभ
वेध
एकम
वेध
नक्षत्र युजि
उ.भा.
पश्चिम
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३२९
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - दे, दे, दो, दौ
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
।
देव
मीन
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
| देय
अन्त्य अन्त्यवेध
२,४,६
सिंह
राक्षस
तुला
कुवैर
मध्यम
श्रेष्ठतर | भवेध
अशुभ
कुवैर
मध्यम
| शुभ
कुवैर
शम
श्रेष्ठतर
मध्यम
श्रेष्ठतर
अशुभ अशुभ अशुभ
वेध
१ | श्री ऋषभदेवजी २|श्री अजितनाथजी | श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी | श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी २० | श्री मुनिसुव्रतजी २१ | श्री नमिनाथजी २२ | श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ | श्री महावीरस्वामीजी
| शुभ अशुभ
वैर
मध्यम
स्व
| कुवैर
|स्व
एकम
मध्यम श्रेष्ठ
| स्व
| कुवैर
अशुभ
म
सम
शत्र
मध्यम
पति
एकनाथ
वर्ण
वश्य
युजि
राशि मीन
नक्षत्र रेवती
गुरु
बाह्मण
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३० ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ध १०
साध्यजिन
| तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
वानर
-
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
मनुष्य राक्षस |वृषभ
मध्य मध्यवेध
४,६,८
मेष
|
स्व
P
अशुभ
मध्यम
वेध
मि
मध्यम अशुभ अशुभ अशुभ मध्यम अशुभ
अशुभ
स्व
मध्यम
अशुभ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी | श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी | श्री शान्तिनाथजी | श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी |श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ अशुभ अशुभ
|शुभ
अशुभ स्व स्व मध्यम
श्रेष्ठतर | वेध
|श्रेष्ठतर
अशुभ
मध्यम
प्रीति
मध्यम
शुभ
अशुभ मध्यम
शत्रु श्रेष्ठतर
मध्यम
| अशुभ
| मैत्री
अशुभ
मध्यम मध्यम अशुभ अशुभ
| श्रेष्ठ २२ वेध शुभ २३ श्रेष्ठ
-
पति
एकनाथ
वर्ण क्षत्रिय
वश्य सर्वे
नक्षत्र पू.षा.
युजि पश्चिम
गुरु
मीन
|
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
नं.
साध्यनाम
५
६
७
८
१ श्री ऋषभदेवजी
२
श्री अजितनाथजी
३ श्री सम्भवनाथजी
४
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
साधक अक्षर
९
m
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
श्री सुविधिनाथजी
१०
श्री शीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
१२
श्री वासुपूज्यजी
१३
श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५
श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९
२०
२१
२२
राशि
वृश्चि
श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुवतजी
श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
-
२३
श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
मंगल
न, ना, नि, नी, नु, नू, ने, नै। (न नि ३-६- २२ भवेध )
योनि
वर्ग
विशोषक
तारा
८
१,३,५
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
मेष
हरिण
श्वान
स्व
कुवैर
वर्ण
ब्राह्मण
त
अ
कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
कुवैर
लभ्य
२
१॥
२
१॥
०॥
१॥
१॥
१॥
१॥
१
१॥
२
०॥
० ॥
011
०॥
देय
१
१॥
०
वश्य
सिंह
गण
देव
राक्षस
मध्यम
मध्यम
स्व
स्व
वैर
वैर
वैर
स्व
वैर
སྐ ༣
स्व
मध्यम
स्व
स्व
स्व
वैर
स्व
मध्यम श्रेष्ठ
स्व
राशि नाडी
वैर
वृश्चिक मध्य
मिथुन मध्यवेध
श्रेष्ठ
सम
वैर
मध्यम
शत्रु
शत्रु
श्रेष्ठतर
शुभ
अशुभ
醤丽丽丽丽丽丽丽丽丽丽丽
स्व
श्रेष्ठ
शुभ
श्रेष्ठ
शुभ
शुभ
प्रीति
सम
शुभ
स्व शुभ
[ ३३१
प्रीति
स्व प्रीति
मध्यम वेध
वेध
अशुभ
शुभ
वेध
एकम
वेध
वेध
शुभ वेध
नक्षत्र
युजि
अनुराधा मध्य
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - नो, नौ
साध्यजिन
तारा
योनि | वर्ग
विंशोपक
| गण
राशि | नाडी
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
हरिण श्वान
लभ्य
राक्षस |वृश्चिक आद्य देव, मनुष्य मिथुन | आद्यवेध
२, ४, ६
अशुभ
कुवर कुवैर
अशुभ
अशुभ
वै
शत्र
|भवेध
श्रेष्ठतर शुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
१ श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी ५ श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी १४ श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी
|श्री नमिनाथजी २२ श्री नेमिनाथजी २३ श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अशुभ
मध्यम
प्रीति
वेध
अशुभ
शुभ
अशुभ अशुभ |शुभ |भवेध
एकनाथ
वर्ण
राशि वृश्चि
पति मंगल
वश्य सिंह
मेष
ब्राह्मण
ज्येष्ठा | पश्चिम
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३३३
साधक अक्षर - प, पा, पि, पी
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
गण
|राशि
नाडी
गौ
मनुष्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध .
प
लभ्य
कन्या मेष
आद्य आद्यवेध
५,७,९
व्याघ्र
राक्षस
स्व
| शुभ
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर | श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
शुभ
स्व
अशुभ अशुभ
कुर
मध्यम अशुभ अशुभ अशुभ मध्यम अशुभ
3
शभ
श्रेष्ठ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी |श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी |श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम अशुभ
मध्यम प्रीति | वेध
| मैत्री
स्व
सम
अशुभ
मध्यम
सम
43 44 4 *
मध्यम
शुभ
मध्यव
शत्रु
वेध
अशुभ
शुभ
अशुभ
मध्यम
तमा
मध्यम
शत्रु मध्यम
मध्यम
मध्यम
शत्र
अशुभ अशुभ
कुवैर कुवर
अशुभ अशुभ
A
| एकम
राशि
पति
वर्ण
नक्षत्र
युजि
एकनाथ मिथुन
वश्य बिना सिंह व धन के
कन्या
बुध
वैश्य
उ.फा.
मध्य
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - पु, पू
साध्यजिन
|
तारा
तारा
| योनि | वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
देव
कन्या
आद्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
महिष अश्व
लभ्य
।
६,८,१
राक्षस
*
| आद्यवेध
मध्यम
श्रेष्ठ
मध्यम
| शुभ
स्व
| श्रेष्ठतर श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
अशुभ अशुभ
वेध
|श्रेष्ठ श्रेष्ठ
मध्यम
मध्यम
१ श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी ४ श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी ८ श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ श्री श्रेयांसनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी १५ श्री धर्मनाथजी १६ श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी |श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
वैर
प्रीति
|वेध
अशुभ
मध्यम
सम
स्व
| सम
अशुभ
शुभ शत्रु
अशुभ
वेध
कुवैर
शभ
सम
अशुभ
शत्रु
वेध
मध्यम शत्रु
अशुभ
वेध
वैर
श्रेष्ठ
मध्यम
|स्व
वेध
राशि
पति बुध
एकनाथ मिथुन
वर्ण वैश्य
वश्य बिना सिंह व धन के
नक्षत्र हस्त
युजि मध्य
कन्या
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३३५
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - पे, पै, पो, पौ
साध्यजिन
___ तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
| मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
देय
७,९,२
राक्षस कन्या देव, मनुष्य | मेष
मध्यवेध
अशुभ
|शुभ
श्रेष्ठतर | वेध श्रेष्ठतर
अशुभ
शुभ
स्व
अशुभ
अशुभ
श्रेष्ठ
वेध
मध्यम
प्रीति
श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी
| श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी |श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी | श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
|
वैर
।
सिम
अशुभ
कुवैर
शभ
अशुभ
सम
शत्रु
मध्यम शत्रु
अशुभ
एकम
# म
अशुभ
स्व
वर्ण
राशि कन्या
पति बुध
एकनाथ मिथुन
वश्य बिना सिंह व धन
नक्षत्र चित्रा
युजि मध्य
वैश्य
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - फ १०
साध्यजिन
तारा
। योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
वानर
| मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
| लभ्य
मनुष्य | धनु राक्षस
४,६,८
मेष
मध्यवेध
स्व
अशुभ
शत्रु
मध्यम
सम
मध्यम
सम
अशुभ अशुभ अशुभ
अत्र
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
।
अशुभ
स्व
|स्व
एकम
अशुभ
मध्यम
| अशुभ
श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दन श्री सुमतिनाव श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी ९ श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ श्री श्रेयांसनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी १३ श्री विमलनाथजी १४ श्री अनन्तनाथजी १५ श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी
|श्री अरनाथजी १९ श्री मल्लिनाथजी २० श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
अशुभ
अशुभ
स्व
| शुभ |श्रेष्ठतर | वेध | श्रेष्ठतर
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
|शुभ
| कुवैर
अशुभ
शत्रु
मध्यम
श्रेष्ठतर
मध्यम
अशुभ
| मैत्री
मध्यम
अशुभ
| शुभ
मध्यम अशुभ अशुभ
3 &
| भवेध
श्रेष्ठ
राशि
पति
वर्ण
नक्षत्र
एकनाथ मीन
वश्य सभी राशियाँ
धन
गुरु
क्षत्रिय
पू.षा.
पश्चिम
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३३७
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - ब,बा, बि, बी, बु, बू।
साध्यजिन
| तारा
| योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
-
-
मनुष्य
स्वकीय विरुद्ध
साध्यनाम
लभ्य
देया
वृषभ धन
| अन्त्य
अन्त्यवेध
६, ८,१
।
नकुल
राक्षस
कुवैर
शत्रु
वेध
स्व
स्व
एकम
मैत्री
मध्यम
२
॥
मध्यम
श्रेष्ठ श्रेष्ठ
अशुभ
वेध
अशुभ अशुभ अशुभ
|शभ
प्रीति
वेध
मध्यम
सम
अशुभ अशुभ
अशुभ
शत्रु
वेध
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी |श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी |श्री कुंथुनाथजी |श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी |श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
मध्यम |शुभ अशुभ | श्रेष्ठतर
|शुभ मध्यम
शुभ .
अशुभ
स्व
मध्यम
| शुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम
| अशुभ
कुवैर
अशुभ
मध्यम
शुभ
अशुभ
मध्यम
| अशुभ
मध्यम
| अशुभ | अशुभ
अशुभ
मध्यम अशुभ अशुभ
शुभ
प्रीति |वेध शुभ
एकनाथ
वर्ण
वश्य
युजि
राशि वृषभ
पति शुक्र
नक्षत्र रोहिणी
तुला
वैश्य
मेष
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ मुहूर्तराज
३३८ ]
साधक अक्षर - बे, बै, बो, बौ।
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
सर्प
देव
मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
७, ९,
नकुल
राक्षस
| धन
मध्यवेध
कुवर
मध्यम
मैत्री
मध्यम
अशुभ
श्रेष्ठ
अशुभ
प्रीति
अशुभ
मध्यम
स्व
शुभ । श्रेष्ठतर
वैर
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी |श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी |श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी |श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम
|शुभ
।
अशुभ
स्व
E
अशुभ
कुवैर
अशुभ
अशुभ शुभ अशुभ
वेध
अशुभ
मध्यम
शुभ
राशि
पति
वर्ण
वश्य
नक्षत्र
युजि
एकनाथ तुला
वृषभ
वैश्य
मेष
मृगशीर्ष
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३३९
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - भ, भा, भि, भी (भि, भी ४-२४ भवेध)।
साध्यजिन
___तारा
| योनि | वर्ग |
विंशोपक
__ गण
राशि | नाडी
राक्षस
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
श्वान हरिण
लभ्य
आद्य आद्यवेध
३, ५, ७
देव मनु.
वृषभ
अशुभ
अशुभ अशुभ वैर
शत्रु
अशुभ अशुभ
सम |सम
वेध
शुभ
अशुभ अशुभ
श्रेष्ठ
एकम
अशुभ
स्व
श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी १४ श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी |श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी २३ श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ |शुभ
श्रेष्ठतर
वेध
अशुभ
और
श्रेष्ठतर
प्रीति
अशुभ
कुवैर
श्रेष्ठतर
वेध
|शुभ | अशुभ
शुभ
वध
स्व
श्रेष्ठ
अशुभ अशुभ अशुभ
।
स्व शुभ अशुभ |श्रेष्ठ
वेध
राशि
एकनाथ
पति
गुरु
वर्ण क्षत्रिय
वश्य सभी राशियाँ
धन
मीन
मूल
पश्चिम
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४० ]
नं.
साध्यनाम
१
२
३
४
५
६
७
८
साधक अक्षर
९
१०
११
१२
१३
१४
साध्यजिन
राशि
धन
स्वकीय
विरुद्ध
श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी
१५
श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७
श्री कुंथुनाथजी
१८
श्री अरनाथजी
१९
श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनावजी
२२
२३
२४
-
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
पति
श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी
गुरु
भु, भू ।
तारा
२
४, ६, ८
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ मीन
योनि
वानर
मेष
स्व
मैत्री
वैर
गैर
मैत्री
वर्ण क्षत्रिय
वर्ग
प
16
क
कुवैर
लभ्य
१
१
१
१
०॥
०॥
(१)
विशोपक
देव
२॥
२॥
२॥
१॥
२॥
o ||
२
२ ॥
0
o
o ||
0 11
J
०
वश्य
सभी राशियाँ
गण
[ मुहूर्तराज
राशि
मनुष्य धनु मध्य
राक्षस
वृषभ
अशुभ
स्व
स्व
स्व
स्व
स्व
शत्रु
मध्यम सम
मध्यम सम
अशुभ
शुभ
अशुभ
श्रेष्ठ
अशुभ शुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
अशुभ
स्व
स्व
स्व एकम
मध्यम
अशुभ
अशुभ
शुभ
स्व
श्रेष्ठतर वेध
मध्यम
मध्यम
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
शुभ
मध्यम अशुभ
मध्यम शुभ
श्रेष्ठतर
प्रीति
नाडी
शुभ
शत्रु
श्रेष्ठतर
मध्यवेध
नक्षत्र
पू. घा.
वेष
वेध
वेध
वेध
श्रेष्ठ वेध
श्रेष्ठ
श्रेष्ठ
युजि
पश्चिम
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३४१
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - भे, भै।
4.
साध्यजिन
|
तारा
योनि
विंशोपक
गण
राशि
| नाडी
4 |
नकुल
धन
।
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
मनुष्य राक्षस
अन्त्य अन्त्यवेध
|
५, ७, ९
सर्प
| वृषभ
|एकपाद
मध्यम
अशुभ अशुभ
44 4 4 4
मध्यम सम अशुभ शुभ अशुभ ।
वेध
श्रेष्ठ
अशुभ अशुभ
भवेध
अशुभ | शुभ मध्यम
3
अशुभ
2
मध्यम
|अशुभ | वेध
१ श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी | श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी |श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी १५ श्री धर्मनाथजी १६ श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी |श्री मुनिसुव्रतजी
|श्री नमिनाथजी २२ श्री नेमिनाथजी २३ श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
|शुभ
स्व
श्रेष्ठतर श्रेष्ठतर वेध
अशुभ
मध्यम
मध्यम
प्रीति
मध्यम
शुभ
कुवैर
अशुभ |शत्रु |भवेध मध्यम श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
मध्यम
शुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम | अशुभ मध्यम शुभ अशुभ
श्रेष्ठ अशुभ | शुभ
श्रेष्ठ
34 3
राशि
पति
वश्य
एकनाथ मीन
वर्ण क्षत्रिय
नक्षत्र उ.षा.
युजि पश्चिम
धन
सभी राशियाँ
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - भो, भौ।
साध्यजिन
|
तारा
| योनि | वर्ग |
विंशोपक
गण
| राशि
नाडी
नकुल
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
मनुष्य |मकर राक्षस |सिंह
अन्त्य अन्त्यवेध
५, ७, ९
अशुभ |एकम
स्व
वेध
अशुभ
मध्यम
शुभ प्रीति |प्रीति
अशुभ
मध्यम
अशुभ
वेध
अशुभ
अशुभ
| शत्रु | मध्यम |श्रेष्ठतर
अशुभ
अशुभ
भवेध
मध्यम
| शुभ
अशुभ
| अशुभ अशुभ
स्व
मध्यम
|स्व
वेध
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
स्व
अशुभ
मध्यम
|शुभ
वेध
मध्यम
सम
मध्यम
कुवैर
| शुभ
अशुभ मध्यम
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
(१)
मध्यम
स्व
वेध
अशुभ अशुभ
मध्यम अशुभ अशुभ
मध्यम श्रेष्ठतर | वेध मध्यम
वर्ण
नक्षत्र
युजि
राशि मकर
पति शनि
एकनाथ कुंभ
वश्य कर्क मीन
कर्क
उ.षा.
| पश्चिम
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३४३
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - म, मा, मी, मु, मू, मे, मै (मे मै १ पाद ७-१७-२३ भवेध)।
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
-
सिंह
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
मूषक बिडाल
लभ्य
राक्षस देव मनु.
| अन्त्य अन्त्यवेध
अशुभ
भवेध
शभ
अशुभ अशुभ
कुवर
स्व
स्व
अशुभ अशुभ
शुभ
वेध
श्रेष्ठतर
शुभ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी |श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी |श्री शीतलनाथजी |श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी |श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी |श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी |श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
प्रीति
वेध
अशुभ
कुवर
पीति ।
शभ
अशुभ अशुभ अशुभ
शुभ
राशि
एकनाथ
वर्ण
क्षत्र
युजि
पति सूर्य
वश्य बिना धनु व वृश्चिक के
नक्षत्र मघा
। मध्य
०
क्षत्रिय
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४ ]
नं.
साध्यनाम
५
६
१ श्री ऋषभदेवजी
२
श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनायजी
४
७
39 10
श्री सुपार्श्वनाथजी
८
श्री चन्द्रप्रभजी
९
श्री सुविधिनाथजी
१०
श्री शीतलनाथजी
११
श्री श्रेयांसनाथजी
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३
श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६
१८
2 a 0 or 2 m
श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी
१९
साधक अक्षर - मो, मौ ।
२०
२१
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
२२
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
राशि
सिंह
श्री मल्लिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
सूर्य
तारा
२
४, ६, ८
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
०
योनि
मूषक
बिडाल
कुवैर
मैत्री
वर्ण
क्षत्रिय
वर्ग
प
क
कुवैर
लभ्य
१
१
१
१
१
१
०॥
०॥
(१)
विंशोपक
देय
२॥
२॥
२॥
१॥
२ ॥
०॥
२
२॥
o
0 11
0 11
०
०
वश्य
बिना धनु व वृश्चिक के
गण
मनुष्य
राक्षस
स्व
अशुभ
[ मुहूर्तराज
ཝ
राशि
सिंह
मध्य
मकर मध्यवेध
शुभ
श्रेष्ठ
स्व
मध्यम
शुभ
मध्यम
शुभ
अशुभ स्व
अशुभ शुभभ वेध
अशुभ शुभ
मध्यम श्रेष्ठतर वेध
नाडी
शुभ
शुभ
मध्यम
शत्रु
अशुभ सम
स्व
प्रीति
मध्यम प्रीति
मध्यम
श्रेष्ठ
मध्यम शुभ
अशुभ श्रेष्ठ
मध्यम प्रीति
मध्यम
शुभ
मध्यम शत्रु
मध्यम शुभ
अशुभ शुभ
अशुभ
शुभ
स्व
शुभ
नक्षत्र
पू. फा.
भवेध
वेध
वेध
वेध
भवेध
युजि
मध्य
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३४५
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - य, या, यि, यी, यु, यू।
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
हरिण
साध्यनाम
ने
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
राक्षस वृश्चिक | आद्य देव मनु. | मिथुन | आद्यवेध
२,
४,
६
श्वान
अशुभ
श्रेष्ठ
अशुभ
अशुभ
वैर
शत्र
| वेध श्रेष्ठतर
शुभ
अशुभ
कुवर
स्व
अशुभ
अशुभ
अशुभ
वैर
|श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी | श्री सुपार्श्वनाथजी | श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी | श्री शीतलनाथजी | श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी १६ श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी २३ | श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
श्रेष्ठ
शुभ
अशुभ वैर
न
मध्यम
प्रीति
शभ
प्रति
अशुभ
र मन
शभ
*
शुभ
अशुभ अशुभ | शुभ
०
॥
वेध
एकनाथ
वर्ण
वश्य
नक्षत्र
राशि वृश्चि.
पति मंगल
| युजि ज्येष्ठा | पश्चिम
मेष
ब्राह्मण
सिंह
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - ये, ये, यो, यौ।
साध्यजिन
तारा
योनि
|
वर्ग
.
विंशोपक
गण
| राशि
नाडी
आद्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
श्वान हरिण
य
लभ्य
राक्षस धनु देव मनु. | वृषभ
| आद्यवेध
अशुभ
अशुभ अशुभ
शुभ
वैर
सम
अशुभ अशुभ
सम
वेध
अशुभ
अशुभ
वैर
। कुवैर
स्व
एकम
अशुभ
वैर
।
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी १७ श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी २३ श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
वेध
स्व अशुभ वैर
अशुभ शुभ श्रेष्ठतर श्रेष्ठतर
।
प्रीति
मन
शुभ
अशुभ
शत्रु श्रेष्ठतर
शुभ अशुभ
र
शभ
श्रष्ठ
अशुभ अशुभ अशुभ
शभ
अशुभ
राशि
__ पति
नक्षत्र
एकनाथ मीन
वर्ण क्षत्रिय
वश्य सभी राशियाँ
| युजि | पश्चिम
धनु
गुरु
मूल
|
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३४७
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - ऋ, र, रा, रि, री (ऋ वेधे चिन्त्यम्)।
साध्यजिन
तारा
योनि
विंशोपक
गण
| राशि | नाडी
वानर
Hllerallt
स्वकीय विरुद्ध
राक्षस तुला देव मनु. मीन
मध्य मध्यवेध
७, ९, २
मेष
अशुभ अशुभ
प्रीति
शुभ
|भवेध
अशुभ
शुभ श्रेष्ठ
। | अशुभ
| मैत्री
कुवर
अशुभ | वेध
|शभ
अशुभ
वेध
अशुभ वैर
| शुभ
श्रेष्ठतर
|शुभ
|श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी | श्री पद्मप्रभुजी |श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी | श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
वैर
अशुभ
अशुभ
सम
प्रीति
अशुभ
शत्रु
सम
श्रेष्ठतर
सम
एकम
अशुभ
स्व
अशुभ
वर्ण
वश्य
राशि तुला
पति शुक्र
एकनाथ वृष
नक्षत्र युजि चित्रा मध्य
बिना सिंह व मनुष्य
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - रु, रू, रे, रै रो, रौ।
साध्यजिन
तारा
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि नाडी
देव
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
महिष अश्व
लभ्य
| अन्त्य अन्त्यवेध
८, १, ३
राक्षस |
मीन
अशुभ
मध्यम
शुभ
भवेध
मध्यम
प्रीति
स्व
शुभ
अशुभ
कुवैर
अशुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम
| शुभ
श्रेष्ठतर
वेध
वैर
वैर
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी |श्री शीतलनाथजी |श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी |श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
शुभ
अशुभ
मध्यम
शत्र
शत्रु
| वेध
श्रेष्ठ
अशुभ अशुभ अशुभ
सम
प्रीति
वेध
शत्र
वेध
अशुभ
सम
श्रेष्ठतर | वेध
अशुभ
सम
श्रेष्ठ
वेध
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
पति
एकनाथ
वर्ण
युजि
वश्य बिना सिंह व मनुष्य
नक्षत्र । स्वाती
| मध्य
शुक्र
वृषभ
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३४९
साधक अक्षर - ल, ला ।
साध्यजिन
तारा
योनि
__ वर्ग
विंशोपक
गण
| राशि | नाडी
देव
मेष
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
अश्व महिष
लभ्य
३, ५, ७,
आद्य | आद्यवेध
राक्षस
अशुभ
मध्यम
|शुभ
मध्यम
अशुभ शुभ
अशुभ
अशुभ
| भवेध
अशुभ अशुभ
सम
कुवैर
प्रीति
वैर
मध्यम
श्रेष्ठ
|श्री ऋषभदेवजी
श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी |श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी |श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी |श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी २० श्री मुनिसुव्रतजी
श्री नमिनाथजी |श्री नेमिनाथजी २३ श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
मैत्री
वैर
मध्यम
श्रेष्ठ
श्रेष्ठ
श्रेष्ठतर
स्व
अशुभ
अशुभ श्रेष्ठ
स्व
एकम
स्व
| एकम
अशुभ अशुभ अशुभ
सम शत्रु
मध्यम
भवेध
राशि
वश्य
पति मंगल
एकनाथ वृश्चिक
वर्ण क्षत्रिय
नक्षत्र युजि अश्विनी पूर्व
मेष
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५० ]
[ मुहूर्तराज साधक अक्षर - लि, ली, लु लू, ले, ले, लो, लौ (ले, ले, लो, लौ, ३-६-२२ भवेध)।
साध्यजिन
|
तारा
। योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
स्वकीय
हस्ती
मनुष्य
साध्यनाम
देय
मेष कन्या
मध्य मध्यवेध
विरुद्ध
४, ६, ८
सिंह
राक्षस
|
शुभ
अशुभ
अशुभ शुभ
भवेध
|शुभ
| शुभ
मध्यम मध्यम अशुभ अशुभ अशुभ मध्यम
| शत्रु
।
अशुभ
कुवैर
प्रीति
वेध
अशुभ
शुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी
धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ अशुभ अशुभ
स्व
अशुभ | शुभ
श्रेष्ठ वेध मध्यम | श्रेष्ठ मध्यम |श्रेष्ठतर | वेध
मैत्री
अशुभ
मध्यम
अशुभ
| अशुभ
१८
मैत्री
मध्यम
m
०
मध्यम
अशुभ
०
मध्यम
मध्यम
०
भवेध
०
अशुभ अशुभ
०
सम शत्रु
२४
०
श्री
न
स्व
पति
वश्य
युजि
राशि मेष
एकनाथ वृश्चिक
वर्ण क्षत्रिय
नक्षत्र भरणी | पूर्व
मंगल
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३५१
मुहूर्तराज ] साधक अक्षर - व,वा, वि, वी, वु, वू, (वु, वू १ पाद ७-१७-२३ भवेध)
साध्यजिन
तारा
|
योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
|राशि
नाडी
वृषभ
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
सर्प नकुल
य
मनुष्य राक्षस
अन्त्य अन्त्यवेध
६, ८, १
-
-
-
मध्यम
-
मध्यम
।
अशुभ
अशुभ
-
"
अशुभ
शप
अशुभ
प्रीति
"
अशुभ
कुवर
मध्यम
सम
अशुभ
अशुभ
|शत्रु
6
स्व
वेध
M 06
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी |श्री सुमतिनाथजी |श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी |श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी | श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम
शुभ अशुभ | श्रेष्ठतर
अशुभ अशुभ
शुभ
मध्यम
शभ
वेध
अशुभ
मध्यम
शुभ
MF
अशुभ
मध्यम
अशुभ
|स्व
| वेध
अशुभ मध्यम
शुभ
वेध
अशुभ
मध्यम
C
मध्यम
| वेध
अशुभ
मध्यम अशुभ अशुभ स्व
अशुभ
शुभ | अशुभ
शुभ | प्रीति | वेध शुभ
राशि
पति
| युजि
एकनाथ तुला
वर्ण वैश्य
वश्य मेष
नक्षत्र रोहिणी | पूर्व
वृषभ
शुक्र
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२ ]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - वे, वै, वो, वौ।
साध्यजिन
____तारा
| योनि
।
विंशोपक
गण
राशि नाडी
सर्प
स्वकीय विरुद्ध
साध्यनाम
| वृषभ
लभ्य
देय
| मध्य मध्यवेध
७, ९, २
नकुल
राक्षस
कुवर
मध्यम
मैत्री
मध्यम
अशुभ
श्रेष्ठ
अशुभ
प्रीति
कुवैर
वैर
अशुभ
मध्यम
स्व
शुभ
वैर
श्रेष्ठतर
श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी |श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी |श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
मध्यम
शुभ -
अशुभ
शुभ
अशुभ
अशुभ
| अशुभ शुभ अशुभ
२१
२२
शभ
अशुभ
प्रीति
मध्यम
| शुभ
राशि वृषभ
पति शुक्र
एकनाथ तुला
वर्ण वैश्य
वश्य मेष
नक्षत्र | युजि मृग पूर्व
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३५३
साधक अक्षर - श १०॥
साध्यजिन
|
तारा
| योनि । वर्ग
|
विंशोपक
गण
| राशि नाडी ।
मनुष्य
मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
लभ्य
देय
व्याघ्र
मीन | तुला
राक्षस
मध्यवेध
अशुभ
श्रेष्ठतर
स्व
शुभ
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
वेध
मध्यम
अशुभ अशुभ
| कुवैर कुवैर
अशुभ अशुभ अशुभ
शE
मध्यम
अशुभ
अशुभ
श्रेष्ठतर श्रेष्ठतर
स्व
वेध
मध्यम
|शुभ
|श्री ऋषभदेवजी श्री अजितनाथजी श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी |श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी |श्री चन्द्रप्रभजी श्री सुविधिनाथजी श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी श्री शान्तिनाथजी श्री कुंथुनाथजी |श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी |श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
अशुभ
मध्यम
मध्यम
मध्यम | वेध
मध्यम
न
अशुभ अशुभ
अशुभ
मध्यम
अशुभ
मध्यम
अशुभ अशुभ
मध्यम मध्यम अशुभ अशुभ
कुवैर
सम
वेध
पात्र
कुवैर मैत्री
अशुभ
सम
राशि
पति
एकनाथ
वर्ण
वेश्य
नक्षत्र युजि उ.भा. | पश्चिम
मीन
गुरु
धन
ब्राह्मण
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४ ]
नं.
साध्यनाम
ov
साधक अक्षर
१ श्री ऋषभदेवजी
२
३
४
५
६
७
साध्यजिन
श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
८
श्री चन्द्रप्रभजी
९
श्री सुविधिनाथजी
१०
श्री शीतलनाथजी
११ श्री श्रेयांसनाथजी
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३ श्री विमलनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९ श्री मल्लिनाथजी
२० श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
स्वकीय
विरुद्ध
राशि
कन्या
पति
बुध
ष १० ।
तारा
४
६, ८, १
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
मिथुन
योनि
महिष
अश्व
वैर
वैर
वैर
वैर
वर्ण
वैश्य
वर्ग
श
ट
लभ्य देय
011
oll
० ॥
१॥
०॥
१
०॥
विशोपक
(0)
१
०
०
०
०॥
oll
१॥
०
१
१
१॥
१॥
१
१
वश्य
बिना सिंह व धनु
के
गण
देव
राक्षस
मध्यम
स्व
वैर
지리
मध्यम
स्व
स्व
623
[ मुहूर्तराज
स्व
वैर
स्व
स्व
स्व
स्व
वैर
वैर
मध्यम
राशि
मध्यम श्रेष्ठ
मध्यम
शुभ
स्व
श्रेष्ठतर
स्व
श्रेष्ठतर वेध
वैर
खैर
वैर
स्व
वैर
༈ སྟྲ།བྦཱ
कन्या आद्य
मेष
शुभ
स्व
श्रेष्ठ
शुभ
श्रेष्ठ
श्रेष्ठ
शुभ
शत्रु
शुभ
सम
ལླ སྒྲ| ལ ྂ ལ ལྀ ྂ ཞ ཟ
मध्यम
प्रीति वेष
सम
सम
शत्रु
नाडी
मध्यम
शत्रु
आद्यवेध
हस्त
वेध
वेध
वेध
बेध
भवेष
नक्षत्र युजि
मध्य
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३५५
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - स, सा, सि, सी, सु, सू ।
| नं. |
साध्यजिन
| तारा
| योनि । वर्ग
विंशोपक
गण
राशि
नाडी
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
अश्व महिष
लभ्य
राक्षस कुंभ देव मनु. कर्क
आद्य आद्यवेध
८, १, ३
अशुभ अशुभ । श्रेष्ठतर
मध्यम मध्यम | वेध
सम
प्रीति
शुभ
।
श्रेष्ठ
शुभ
वेध
शभ
अशुभ वैर
श्रेष्ठ
श्री ऋषभदेवजी अशुभ श्री अजितनाथजी |श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी अशुभ श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी | श्री चन्द्रप्रभजी अशुभ श्री सुविधिनाथजी अशुभ श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी |श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी अशुभ श्री अनन्तनाथजी |श्री धर्मनाथजी अशुभ श्री शान्तिनाथजी अशुभ श्री कुंथुनाथजी अशुभ श्री अरनाथजी |श्री मल्लिनाथजी अशुभ श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी
अशुभ |श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीर स्वामीजी | अशुभ
अशुभ
अशुभ अशुभ
श्रेष्ठतर
अशुभ शुभ श्रेष्ठ
प्रीति शुभ
अशुभ
प्रीति
वेध
राशि
पति
वर्ण
एकनाथ मकर
वश्य बिना सिंह व मनुष्य के
नक्षत्र |युजि शतभिषा, पश्चिम
कुंभ ।
शनि
Jan Education International
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६]
[ मुहूर्तराज
साधक अक्षर - से, से, सो, सौ।
साध्यजिन
| तारा | योनि
वर्ग
विंशोपक
गण
राशि | नाडी
स्वकीय
मनुष्य
।
| आद्य
साध्यनाम
विरुद्ध
हस्ती
मैं
आद्यवेध
शुभ
अशुभ
स्व
श्रेष्ठतर
मध्यम
मध्यम मध्यम | वेध
मध्यम
अशुभ सम अशुभ प्रीति
अशुभ
मध्यम
श्रेष्ठ
अशुभ
शुभ
वेध
|शुभ
अशुभ अशुभ
मध्यम
श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी
श्री अभिनन्दनजी श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रमजी ९ श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी श्री श्रेयांसनाथजी श्री वासुपूज्यजी श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी १७ श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी श्री पार्श्वनाथजी श्री महावीरस्वामीजी
अशुभ
|स्व
वेध
अशुभ
|
अशुभ अशुभ
वैर
मध्यम
मध्यम
|शत्रु
शुभ
वेध
मध्यम मध्यम
|श्रेष्ठतर
अशुभ
अशुभ
|
वैर
मध्यम
मध्यम
अशुभ
मध्यम
मध्यम
राम
अशुभ अशुभ स्व
प्रीति शुभ प्रीति
.
एकनाथ
नक्षत्र
राशि कुंभ
पति शनि
वर्ण शूद्र
वश्य बिना सिंह व मनुष्य के
मकर
पू.भा.
पश्चिम
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
नं.
साध्यनाम
१
KA Wo
श्री ऋषभदेवजी
२ श्री अजितनाथजी
४
५
६
साधक अक्षर
७
३ श्री सम्भवनाथजी
८
साध्यजिन
स्वकीय
विरुद्ध
९
१०
११
१२ श्री वासुपूज्यजी
१३ श्री विमलनाथजी
राशि
मिथुन
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
१५ श्री धर्मनाथजी
श्री शान्तिनाथजी
-
१६
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९ श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२ श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
बुध
ह, हा।
तारा
९, २, ४
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
कन्या
योनि
बिडाल श
मूषक
ट
स्व
वैर
वर्ग
वर्ण
शूद्र
लभ्य
0 11
०॥
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१॥
0 ||
१
०॥
विशोपक
देय
०
१
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० ॥
०॥
१ ॥
०
१
१
१॥
१ ॥
१
१
वश्य
बिना सिंह व धनु
के
गण
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मध्यम
मध्यम सम
श्रेष्ठ
स्व
स्व
शुभ
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स्व
वैर
स्व
वैर
स्व
वैर
वैर
स्व
स्व
स्व
वैर
स्व
स्व
स्व
स्व
खैर
वैर
राशि
मिथुन
वृश्चि
कर्क
मध्यम सम
प्रीति
मध्यम
शुभ
शत्रु
सम
मध्यम
मध्यम
श्रेष्ठ
अशुभ
शुभ
श्रेष्ठ
श्रेष्ठ
[ ३५७
शुभ
प्रीति
नाडी
ब ब
आध
आद्यवेध
एकम
वेध
वेध
वेध
वेष
शुभ वेध
श्रेष्ठतर
शुभ श्रेष्ठतर वेध युजि पुनर्वसु मध्य
नक्षत्र
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८ ]
नं.
साध्यनाम
५
६
७
१ श्री ऋषभदेवजी
२
श्री अजितनाथजी
३
श्री सम्भवनाथजी
४
श्री अभिनन्दनजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
११
ov v m
८
श्री चन्द्रप्रभजी
९
श्री सुविधिनाथजी
१० श्री शीतलनाथजी
साधक अक्षर - हि, ही ।
१३
साध्यजिन
१५
स्वकीय
विरुद्ध
१२ श्री वासुपूज्यजी
= 2
श्री श्रेयांसनाथजी
१४ श्री अनन्तनाथजी
श्री विमलनाथजी
राशि
कर्क
श्री धर्मनाथजी
१६ श्री शान्तिनाथजी
१७ श्री कुंथुनाथजी
१८ श्री अरनाथजी
१९
श्री मल्लिनाथजी
२०
श्री मुनिसुव्रतजी
२१ श्री नमिनाथजी
२२
श्री नेमिनाथजी
२३ श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
पति
शनि
तारा
९, २, ४
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
एकनाथ
०
योनि
बिडाल
मूषक
स्व
वैर
वर्ण
ब्राह्मण
वर्ग
श
ट
लभ्य
०॥
० ॥
=
0 11
१॥
० ॥
१
०॥
(0)
विंशोपक
टेय
१
०
०
० ॥
०॥
१ ॥
०
१
१
१॥
१ ॥
१
१
वश्य
गण
देव
राक्षस
मध्यम
मध्यम
स्व
स्व
वैर
वैर
वैर
स्व
वैर
स्व
वैर
च
मध्यम
12
[ मुहूर्तराज
स्व
स्व
स्व
वैर
स्व
स्व
स्व
स्व
वैर
वैर
मध्यम
राशि
मध्यम
प्रीति
मध्यम प्रीति
सम
शत्रु
मध्यम
मध्यम
स्व
श्रेष्ठतर वेध
नाडी
कर्क,
मिथु. आद्य
कुंभ
शुभ
श्रेष्ठ
आद्यवेध
प्रीति
शुभ
अशुभ
अशुभ एकम
श्रेष्ठ
वेध
वेध
शुभ
मध्यम
श्रेष्ठतर वेध
सम
श्रेष्ठतर वेध
शुभ
श्रेष्ठ
शुभ भवेध
नक्षत्र
युजि
पुनर्वसु मध्य
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३५९
मुहूर्तराज ]
साधक अक्षर - हु, हू, हे, है ,हो, हौ (हो, हौ ३-६-२२ भवेध) | नं. | साध्यजिन | तारा | योनि | वर्ग | विंशोपक
तारा
गण
|राशि | नाडी
|
कके,
| मेष
देव
मिथु.
मध्य
साध्यनाम
स्वकीय विरुद्ध
वानर
राक्षस
कुंभ
मध्यवेध
|
अशुभ
मध्यम
प्रीति
मध्यम
|शुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
अशुभ
शभ
.
4 * * * * 4 4
मध्यम प्रीति
अशुभ
कुवैर
मध्यम
कुवैर
सम
श्री ऋषभदेवजी २ श्री अजितनाथजी
श्री सम्भवनाथजी श्री अभिनन्दनजी | श्री सुमतिनाथजी श्री पद्मप्रभुजी
श्री सुपार्श्वनाथजी ८ श्री चन्द्रप्रभजी ९ श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी ११ श्री श्रेयांसनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी
श्री विमलनाथजी श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी १६ श्री शान्तिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी श्री अरनाथजी श्री मल्लिनाथजी श्री मुनिसुव्रतजी श्री नमिनाथजी श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी २४ श्री महावीरस्वामीजी
पति कर्क चन्द्र
मध्यम
मध्यम | वेध
मध्यम
अशुभ
श्रेष्ठतर
अशुभ
मध्यम
अशुभ
श्रेष्ठतर
सम
अशुभ अशुभ
श्रेष्ठतर शुभ श्रेष्ठ
वेध
अशुभ
मध्यम
राशि
एकनाथ
वर्ण
वश्य
नक्षत्र
युजि
ब्राह्मण
पुष्य
मध्य
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६० ]
[ मुहूर्तराज
निन्दा को ही अपना कर्त्तव्य मानने वाले अज्ञानियों और मिथ्या दृष्टि लोगों की ओर से शिर काटने जैसे भी अपराधों में जो समभाव से उनके वचन-कंटकों को सह लेता है, परन्तु बदला लेने की तनिक भी कामना नहीं रखता। जो न लोलुप है और न इन्द्रजाली, न मायाचारी है और न चुगलखोर। जो अपनी किसी तरह की प्रशंसा की कामना नहीं रखता और न गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों की सराहना करता है। तरुण, बालक, वृद्ध आदि गृहस्थों का कभी तिरस्कार नहीं करता और स्वयं तिरस्कृत होने पर तिरस्कार को बड़ी शान्ति से सह लेता है, उसका प्रतिकार नहीं करता। जो अपने कुल, वंश, जाति, ऐश्वर्य का अभिमान नहीं रखता और जो सदा स्वाध्याय-ध्यान में लीन रहता है। जो 'मा हणो मा हणो' सूत्र को जीवन में उतार कर कार्यरूप में परिणत करता है। जो स्वपर का कल्याण करने और ज्ञान, दर्शन, चरित्र के आध्यात्मिक मार्ग का परिपालन में सदा उद्यत रहता है-संसार में ऐसा पुरुष ही पूज्य और समादरणीय माना जाता है।
-श्री राजेन्द्रसूरि
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
परिशिष्ट "ग"
[ अनेक सारणियों से युक्त ] (३)
*
*
पण्डितवर्ण्य की गोविन्दरामजी द्विवेदी
सम्पादक
शास्त्री, साहित्याचार्य आहोर (हरजी) राजस्थान
[ ३६१
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२ ]
क्र.
सं.
१
२
३
d
५
६
७
८
९
१०
॥ अथ मुहूर्तचिन्तामणि- मार्तण्ड - गणपत्यादि मतानुसारेण आवश्यकमुहूर्त कोष्ठकाः ॥
मुहूर्तनाम
रजोदर्शन
श्रेष्ठानि →
रजः स्नान मु.
गर्भाधान मु.
पुंसवन, सीमन्त मुहूर्त
सूतिका गृह प्रवेश
जातकर्म मुहूर्त
स्तनपान मुहूर्त
सूतिका पथ्य मुहूर्त
सूतिका स्नान मुहूर्त
दोलारोहण मुहूर्त (हिण्डोला)
नक्षत्रनाम
श्रध. रा. मु. रे. चि. अनु. ह.
पू. स्वा. अश्वि, उत्तरा ३ रोहि
ह. स्वा. अनु. रे. अश्वि. मृ.
भ. रो. उ. ३ ज्येष्ठा
उ. ३ मृ.ह. अनु. रो. स्वा.
श्र.ध. शत.
मृग पुन मूल, श्रव. पुष्य ह. रो. उ. ३ जन्म नक्षत्र त्याज्य, पुंस. मा. २-३ सीम ६-८
रो. मृ. पुष्य स्वा. शत. पुन. ह. ध. अनु चि. अश्वि. रे. ४.३ श्र.
म.रे. चि. अनु. उ. ३ रो पुन. श्र.स्वा.ध. शत. ह.पु. अश्वि.
उ. ३ रो अश्वि. रे. पुष्य, पुन. अनु. श्र.ह.चि.मू.ध. शत.
रो.उ. ३ रेव. म. चि. अनु. मृ. पुन, पुष्य, ह. अश्वि, अभि.
स्वा.श्री.ध. शत.
रे.उ.३ रो. मृ. ह.
स्वा. अश्वि. अनु.
जन्म दिन से १०, १२, १६, १८, ३२ वें दिन, मृ.चि.रे. अनु. ह. अ. पुष्य, उ. ३, रो. सूर्यनक्षत्र से ५ आरो,
५ मृत्यु, ५ देहकष्ट
५ रोग ७ सुख
मासनाम
वै. फा.
अश्वि.
ज्ये. श्रा.
-
तिथि
१,२,३,५,
७, १०, ११
१३.१५
१,२,३,५,
७, १०, ११
१३, १५
शुभ
१,२,३,५,
७, १०, ११
१३. शुक्ल
१,२,३,५,
१०, ११
१२ १३
१,२,३,५,
७,१०
११.१२.१३.
रिक्ता, अमावस्या को
त्याग कर
अन्य तिथि
२,३,५,७
१०,१३
१,२,३,५,
७, १०, ११,
१३ १५
रिक्ता तिथि
त्याज्य एवं
३० भी
वार
चं. गु.
बु. शु.
चं. गु.
बु. शु.
चं. बु.
गु. शु.
सू. मं. गु.
चं. बु.
गु. शु.
चं. बुं. गु. शु.
चं. बु.
गु. शु.
चं. बु.
गु. शु.
सू. मं. गु.
[ मुहूर्तराज
चं. बु.
गु. शु.
लग्न
२,३,४
६,७,९
१२
२,३,४
६,७,९,
१२
शुभ
१,४,५,
७,९,१०
शुभ
शुभ
शुभ
२,३
४.५.
शुभ
४, ५, ७, ९
१०, ११
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३६३
मुहूर्तनाम
नक्षत्रनाम
मासनाम
तिथि
वार
लग्न
चैत्र पौष एवं अधिमास तथा गुरुशुक्रास्य त्याज्य
जलपूजन मुहूर्त
__श्र. पु. पुष्य, म. ह. मू. अनु |
|४, ९, १४ ३० त्याज्य | चं. बु. गु. | शेष ग्राह्य
शुभ
भूभ्युपवेशत
| उ. ३ रो. मृ. अनु. ज्ये, चि. रे.
अश्वि, ह. पुष्प अभिजित्
४, ९, १४ ३० त्याज्य शेष ग्राह्य
चर लग्न शुभ वार |१, ४, ७, १०
१,२,३,५,७ | चं. बु. १०,११,१३ | गु. शु. १, ३, ५ | चं. बु. ७, १०, ११] गु. शु.
२, ५, ८. ११ २, ३, ४, ५,७ ९, १०, ११
शुभ तिथि
| शुभ वार |
शुभ
रे. पुष्य, चि. अनु. उ. ३ रो. ह. नामकरण मुहूर्त
अश्वि . पुन, स्वा. श्र. घ. शत
रो. उ. ३ म. रे. चि. अनु. ह.पुष्य, अन्नप्राशन मुहूर्त अश्वि. पुन. स्वा. अ. ध.शत
चै. पो. सम वर्ष २ कर्णवेध मुहूर्त श्र. पु. अश्वि . मृ. ह. | जन्म तारा, मू. अनु. अभि. रेव. चातुर्मास त्याज्य,
अन्य ग्राह्य ज्ये. म. रे. चि. ह. अश्वि पुष्य, चौल कर्म मुहूर्त | अभि. स्वा. श्र. पुन. ध शत.
उ.३ रो.मृ. चि.रे. अनु. ह. अश्वि १७ | ताम्बूल भक्षण मू.
| पुष्य, अभि. स्वा. श्र. पुन. ध. मू. क्षेमार्थ शान्ति कर्म ह. अश्वि . रे. उ. ३ रो, स्वा मुहूर्त
श्र. ध. शत, अनु. मघा ।
अश्वि, आर्द्रा, पुन. पु. ह. चि. माघ, फा. अक्षरारम्भ मु.
स्वा. अनु. अभि. रेव. चै. वै. ज्ये.
२,३,५,७ १०,११,१३
बु. शु.
२, ३, ४, ६
७, ९, १२
२,३,६,५ १०,११,१३ |
बु. गु.
९, ११
शुभ
शुभ __शुभ २,३,५,६ | चुं. बु. १०,११,१२ | गु. शु.
शुक्ल
,
२, ३, ६ ९, १२
पू. ३ पुष्य, आश्ले. रेव, मू. श्र. ह. चि. स्वा. मृ. आर्द्रा, पुन.
अश्वि . रो. अनु. उ. ३
२, ३, ५ १०,११,१२ |सू. गु. शु.
विद्यारम्भ मु.
शुभ
व्रतबन्ध । (यज्ञो पवीत)मु.
पू. पा. अश्वि . ह. चि. स्वा. | उत्तरायण मास | २,३,५,१० | श्र. ध. शत. ज्ये. पू. फाः चै+मीन सं. ११,१२ | पु. म. रे. उ.३
शुक्ल
सू. गु. चं. शु |
५, ९, २,
६, ३
२२ । दीक्षाग्रहण मु. | अश्वि . रो. मृ. उ. ३ चि. पू.फा. चै. वै. आश्वि . | २,३,५,८ ।
का. माग | १०,११,१२ |
सू. चं. गु. शु.
३, ४, ५, ६ ७, ९, १२
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४]
[ मुहूर्तराज
मुहूर्तनाम
नक्षत्रनाम
मासनाम
तिथि
वार
लग्न
वधूप्रवेश
२, ५, ८
ह. चि. स्वा. रो. मृ. मघा, पुष्य, |ध, उ. ३ मू. अनु. आश्वि , रे.
|१, २, ३, ५ |
६, ७, ८ | १०, १२
सू. शु चं. श..
शुभ
शुभ
।
शुभ
रो. चि. अनु. श्र. घ. मृ. म. पतिगृह से पितृगृह | स्वा. मू. ज्ये. आ. आश्ले. जाने का मुहूर्त
पू. ३ रे. अनु.
अश्वि . ह. पुन. उ. ३ द्विरागमन मुहूर्त रो. स्वा. श्रध.
मू. मृ. रे. चि.
|
वै. मार्ग. फा. | १, २, ३, ५, सूर्य गुरु की | ७, ८, १० | चं. बु. | २, ३, ६, शुद्धि हो तब | ११, १२ | गु. शु. | ७, १२,
१३. १५
शुभ
वापी कूप तडागा | म. ह. रे. मृ. पुष्य, ध. शत.
रम्भ मुहूर्त | पू. षा. उ. ३ रो. अश्वि . क्रय विक्रय |पुष्य, पू. भा. उ.३, अनु. अश्वि ,
श्र. ह. मृ. स्वा. आश्ले. रेव.
| मृ. रे. चि. अनु. रो. उ. ३ २८ विपणि मु. (दूकान)
ह. अश्वि . पुष्य,
ह. अभि. अश्वि. पुष्य, मृ. २९ नौकर रखने का मु|
रे. चि. अनु.
४,९,१४,३० को त्याग कर | चं. बु. शुभ अन्य तिथि | गु. शु.
चं. बु. शुभ गु. शु. सू. चं. गु. बु. शु. सू. बु. १, ४, १०, गु. शु. | ५, ९ ।
| ३० | चूडी धारण मूहूते |
अश्वि. ह. चि. स्वा. वि. अनु.
ध. रे. तथा सूर्य नक्षत्र से ३ ने. ५ श्रे. ३ ने. ९ श्रे.
२ ने. ४ श्रे. १ नेष्ट
शुभ
शुभ
الهي في في بلو
३१
नूतनवध्वा पाककर्म मु.नई बहू से रसोई
बनवाने का
मू. रो. ह. मृ. रे. स्वा.
-
१, २, ३, ५ | सू. मं. गु.
७, १०
।
हल चलाने का
|
अश्वि . रो. मू. पुन. म. ह. उ. ३ चि. स्वा. अनु. श्र.
रे. शत. अभि.
शुभ
|
शुभ
शुभ
३२.
मुहूर्त
रोगमुक्त के स्नान |
का मुहूर्त
चि. ह. वि. पू. ३ पुन.
मृ. आर्द्रा, भ. कृ.
सू. मं. बु. शु.
शुभ
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________________
मुहूर्तराज ]
क्र.
सं.
३४
३५
३६
३८
३९
४०
३७ नूतनगृह नूतनगृह प्रवेश मु.
४१
४२
४३
४४
मुहूर्तनाम
४५
काष्ठसंग्रह मुहूर्त
गृहारम्भ मुहूर्त
द्वारशाखा मुहूर्त
सुगन्ध पदार्थ
भोग मुहूर्त
भूषणपट्टन मुहूर्त
चुल्लीस्थापन मु.
शकटारम्भ मुहूर्त
नक्षत्रनाम
मू. रे. चि. अनु. उ. रो. ह.
खट्वारोहण मुहूर्त अश्वि. पुष्य, अभि. पूर्व अथवा दक्षिण दिशा में सिर रखना
पाटडास्थापन मु.
सूर्यनक्षत्र से ६ . ६ ने. ४ . ४ ने. ४ ने, ४ .
म. उ. ३ पुन, पुष्य, ध. अनु. शत. चि. ह. स्वा. रो. रे.
(वृषभ चक्रशुद्धि)
सूर्यनक्षत्र से ४ वे.
८ श्र. ३
४ २ ४ ने. ने.
४ श्रेष्ठ
उ. ३ रो, अनु मृ. चि. रे. (कलश चक्रानुसार)
श्र. घ. श. अश्वि, पुष्य, पू, षा.
अनु. चि. स्वा. पुन, रे मृग.
इक्षुरोपण मुहूर्त आर्द्रा, पुष्य, ध, अनु, मू, रे, उ. ३
सूर्यनक्षत्र से ५, ६, ९, १०,
कोल्हूचक्र मुहूर्त
११, १२, १३, १४, २०, २१
अशुभ शेष नक्षत्र शुभ
त्रिपुष्कर योग एवं उ. ३ रो. रे. अश्वि. श्र. घ श. मृ. पुष्य, अनु ह. चि. स्वा. पुन,
पू. भा. रो. पुष्य, अभि रविनक्षत्र से ६ . ४ ने. ८ . ५ ने.
२ . ३ ने.
सूर्यनक्षत्र से ३ ने ३ ने. ३ . ९ ने. ३ . ३ . ३ . ने.
. ४ ने. ४ ने.
सूर्यनक्षत्र से - ३ ३ . ४ ने. ४ . ५ .
मासनाम
वै. श्राव. मार्ग. पौष फा.
T
I
T
तिथि
शुभ
१, २, ३,
५, १०, ११
१२, १३
५, ७, ८
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
वार
शुभ
शुभ
MH
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
बु. गु. शु.
༣། ༣ ལཱ
शुभ
[ ३६५
लग्न
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
शुभ
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________________
३६६ ]
[ मुहूर्तराज
la
मुहूर्तनाम
नक्षत्रनाम
मासनाम
वार
लग्न
मृ. आर्द्रा, पू.षा.श्र.ध.श.अश्वि . सेतुबन्धन मुहूर्त | पुष्य, ह. अभि. रो. उ. ३
श
सूर्यनक्षत्र से-५ ने. ८ श्रे.
८).६ श्रे
शुभ
कलशचक्र मु.
मृ. पुन. पुष्य, ह. चि. स्वा. अनु. ४८ | मोभ (धरन) मु. | श्र. ध. रे. सूर्यनक्षत्र से-३ ने. |
| १३ श्रे८ ने. ३ श्रे.
सू. गु. शु.
शुभ
४९ / हलचक्रम मु.
सूर्यनक्षत्र से-३ ने. ३ श्रे. ३ ने. ५ श्रे. ३ ने. ५ श्रे. ३ ने. २ श्रे.
।
बीजवपन मु.
राहुनक्षत्र से-८ ने. ३ श्रे. १ ने. ३ श्रे.१ ने.३ श्रे.१ ने.३ श्रे.४ ने.
कणमर्दन मु.
अनु. श्र. मू. रे. पू. फा. उ. फा, ज्ये. रो, मघा
५२
धान्यसंग्रह मु.
भर. कृत्ति. आर्द्रा. वि. आ. पू. ३ ज्ये मघा को छोड़कर
अन्य नक्षत्र शुभ
शुभ
|२, ५, ८, १० | ११, ३, ६
९, १२
शुभ
मिट्टी के बर्तन । पुन. पुष्य, ह. चि. स्वाती रे. बनाने का मु. । रो. मृ. अनु. अ. ज्ये. कुंभकारकृत्य
सू. चं. बु. | गु. शु.
५३
ह. चि. स्वा. श्र. ध. शत. उ, ३, रो. मृ. रे, अश्वि .
पुन. पुष्प, अनुराधा
शिल्पविद्यारम्भ मु. (हुनर सीखना)
सू. चं. बु.
शुभ
५४
गीतविद्या नृत्य विद्या शिक्षा मु.
रे. अनु. ध. शत. ह.
रो. उ. ३ आर्द्रा
सू. चं. बु.
गु. शु.
शुभ
नौका कृत्य मु. (नाव बनाना)
सू. गु.
ज्ये. म. वि. आर्द्रा रो. भर. कृत्ति. आश्ले.
५७
दत्तकपुत्र मु.
ह. चि. स्वा. वि. अनु.
अश्वि. ध. पुष्य
४, ९, १४ ३० को छोड़- सू. मं. कर अन्य तिथि| गु. शु.
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________________
मुहूर्तराज ]
[३६७
मुहूर्तनाम
नक्षत्रनाम
मासनाम
तिथि
वार
लग्न
५९
शुभ
६०
६१
शुभ
सू. मं.
६३
निष्क्रमण मु. (बच्चे | ह. पुन. पुष्य, श्र. ध. अनु. ज्ये.
४,९,१४,३० को प्रथम बार घर | मू. रो. रे. उ. फा. मृ. उ. षा.
को छोड़कर | सू. चं. बु. ५, ६ से बाहर ले जाना)| स्वा. जन्म से ३ अथवा ४ मास में
अन्य तिथि | गु. शु. वाग्दान मु. (लड़के | रो. उ. ३ रे. मू. स्वाती मृ. म.
| शुभ शुभ लड़की का सम्बन्ध) अनु. ह. कृ. पू. ३ श्र. ध. स्त्रियों के लिये नूतन| ह. चि. स्वा. वि. अनु. अश्वि.
गु. शु. बु. | १२, ६, वस्त्र धारण मुहूर्त | ध. रे. केवल स्त्रियों के लिए पुरुषों के लिये नूतन| ह.चि.स्वा.वि. अनु. अश्वि. ध.
शुभ गु. शु. बु. १२, ६, वस्त्र धारण मु. | रे. पुन. पुष्य, रो. उ. ३
४,९,१४,३० भैषज्य मुहूर्त ह. अश्वि . पुष्य, श्र. ध. शत. मू.
को छोड़कर | सू. चं. बु. (दवाई लेना) | पुन. स्वा. म. रे. चि. अनु.
अन्य तिथि | गु. शु. शस्त्रकर्म मुहूर्त
रवि मंगल (ऑपरेशन)
केन्द्र में तैलिकयन्त्र मुहूर्त | अवि. पुन. पुष्य, ह. चि. अनु.]
रिक्ता तथा (आइल मिल ज्ये. ध. रे. तथा उस दिन
अमा. के बिना शुभ
शुभ घाणी आदि) कोई अशुभ योग न हो
अन्य तिथि सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र तक गणना तैलिकयन्त्र चक्रम |७ संप ३ शोक २ विषद् ७ धन
केन्द्र में मुहूर्त ३ ऋद्धि ५ सौख्य
शुभग्रह वस्त्रनिर्माण यन्त्र | मुहूर्त (कपड़ा मिल | रो. रे. चि. अनु. मृग. उ. ३
शुभ | चालू करना)
| बु. गु. शु. है. चि. स्वा. अनु. ज्ये. मू.
कृष्णपक्ष ६७ सर्वदेव प्रतिष्ठा मु. श्र. ध. शत. रे. अश्वि पुन,
दशमी तक सो. बु. ३, ६, ९, १२ पुष्य, उ. ३ रो. मृग
तथा शु. पक्ष | गु. शु. २, ५, ८, ११
२, ३, ५, ६ चैत्र, फा. वै. ज्ये. माघ मास
७, १०, ११
१२, १३, १५ पू. षा. अश्वि . ह. चि. स्वा. श्र. रे.ध.शत.ज्ये. पू. फा. पुष्य, मृ.
सूर्य अथवा मन्त्रदीक्षा मुहूर्त |उ. ३/चै. पौ. ज्ये. आषा भाद्र,
चन्द्र ग्रहण इन मासों को छोड़कर अन्य मास सन्यरतदीक्षा मु. पुष्य उ. ३ मृ. रे. अनु. ध.
५, १०, १५ | गु. श. |
शुक्लपक्ष "बालबोध ज्योतिः सार समुच्चय से उद्धृत"
सू. चं. मं.
शुभ
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________________
३६८ ]
[ मुहूर्तराज अथ रामादिप्रश्न- (बा. बो. ज्यो. सा. समुच्चय से उद्धृत)
स्थाननाशश्च रामे स्यात्सीतायां दुःखमेव च । लक्ष्मणे कार्यसिद्धिस्यात्सर्वलाभो विभीषणे ॥ मरणं कुंभकर्णे च रावणे च धनक्षयः । अङ्गदे च धुर्व राज्यम्, सुग्रीवे बन्धुदर्शनम् ॥ कैकेय्यां कार्यहानिश्च भरते त्वभिषेचनम् । कल्याणमिन्द्रतनये, कार्यनाशश्च शूलिनि ॥ हनुमति कार्यसिद्धिश्च जाम्बवत्यायुरुच्चय । कलहो नारदे वाच्यो गुहे तु प्रियदर्शनम् ॥ रामचक्रमिदं शस्त्रम् देवर्षिकथितं पुरा ।
प्रश्नार्थ सर्वलोकानां शुभं सर्वार्थदायकम् ॥ अर्थ :- प्रश्नकर्ता शुद्ध भावपूर्वक इष्टदेव का स्मरण कर निम्नलिखित “रामादि प्रश्नचक्र" के कोष्ठकों में से किसी पर अंगुली रखे तदनुसार शुभाशुभ फल इस प्रकार है- राम नाम पर अंगुली आ जाने से प्रश्नकर्ता के स्थान का नाश सीता पर अंगुली आने से दुःख, लक्ष्मण से कार्यसिद्धि, विभीषण से सर्वलाभ, कुंभकर्ण से मरण अथवा मृत्यु सद्दश अपमान रोगादि, रावण से धननाश, अङ्गद से निश्चित राज्यसुख, सुग्रीव से बन्धु दर्शन, कैकेयी से कार्यहानि, भरत से महासम्मान, इन्द्रतनय अर्थात् अर्जुन से कल्याणप्राप्ति, शली अर्थात् महादेव से कार्यनाश, हनुमान से सर्वकार्यसिद्धि, जाम्बवान् से दीर्घायु, नारद से कलह, कार्तिकस्वामी से प्रियदर्शन, ये फल जानने चाहिए।
॥ रामादिप्रश्नचक्र ॥
राम
सीता
लक्ष्मण
विभीषण
कुंभकर्ण
रावण
अंगद
सुग्रीव
कैकेयी
भरत
अर्जुन
महादेव
हनुमान्
जाम्बवान्
नारद
कार्तिकस्वामी
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________________
मुहूर्तराज ]
[३६९ कार्यसिद्धिप्रश्न
दिशा प्रहरसंयुक्ता तारकावारमिश्रिता ।
अष्टभिस्तु हरेद्भागं शेषं प्रश्नस्य लक्ष्मणम् ॥ पञ्चके त्वरिता सिद्धिः षट्तुर्ये च दिनत्रयम् ।
त्रिसप्तके विलम्बश्च द्वौ चाष्टौ न च सिद्धिदौ ॥ अर्थ - प्रश्नकर्ता का मुख जिस दिशा (पूर्व, आग्नेय, दक्षिणादि) में हो उस दिशा की क्रमसंख्या, प्रश्न दिन के प्रहर की संख्या. उस दिन के चन्द्रनक्षत्र की संख्या, उस दिन के
संख्या. उस दिन के चन्द्रनक्षत्र की संख्या. उस दिन के वार की संख्या. इन चारों को जोड़कर आगत संख्या में ८ का भाग दें, शेषांकों से इस प्रकार फल कहे:
यदि ५ अथवा १ शेष रहें तो शीघ्रतया कार्यसिद्धि, ६ अथवा ४ शेष रहें तो तीन दिनों में कार्यसिद्धि हो। ३ और ७ शेष रहें तो कार्यसिद्धि में विलम्ब हो और २ अथवा ८ या ० शेष रहें तो कार्यसिद्धि नहीं होवे।
उदाहरण- सं. २०३९ द्वि. आश्विन शुक्ला १५ सोमवार अश्विनी नक्षत्र एवं ३ रे प्रहर में प्रश्नकर्ता ने पश्चिममुख होकर प्रश्न किया है, अत: पश्चिम दिशा क्रमांक ५, प्रहरांक ३, नक्षत्रांक १ वारांक २ इन चारों का योग करने पर (५ + ३ + १ + २ = ११) हुए इसमें ८ का भाग देने पर शेष ३ रहे तो श्लोकानुसार कार्य में विलम्ब से सिद्धि प्राप्त होगी, यह फलादेश कथना चाहिए। कार्याकार्मप्रश्न
तिथिः प्रहर संयुक्ता, तारकावारमिश्रिता ।
अग्निभिस्तु हरेद् भागं शेषं सत्त्वं रजस्तमः ॥ सिद्धिरत्ता त्कालिकी सत्त्वे, रजसा तु विलम्बिता ।।
तमसा निष्फलं कार्यम् ज्ञातव्यं प्रश्नकोविदैः ॥ अर्थ - प्रश्न करने की तिथि, प्रहर, नक्षत्र एवं वार के संख्याकों का योग करके ३ का भाग दें। यदि १ शेष रहे तो सत्त्वगुणी २ शेष रहें तो रजोगुणी और ३ अर्थात् शून्य शेष रहे तो तमोगुणी प्रश्न है ऐसा जानना । सत्त्वगुणी प्रश्न हो तो तत्कालसिद्धि, रजोगुणी हो तो सिद्धि में विलम्ब एवं तमोगुणी हो तो प्रश्न निष्फल है। पूर्वोक्तोदाहरण में कथित तिथि + प्रहर + नक्षत्र + वार (१५ + ३ + १ + २ = २१ * ३ शेष ०) का योग करके ३ का भाग देने पर शून्य शेष रही अत: तमोगुणी प्रश्न होने से कार्य सिद्ध नहीं होगा। पञ्चदशीयन्त्रप्रश्न
नवैकपंच त्वरितं वदन्ति, अष्टौ द्वितीये न च कार्यसिद्धिः ।
रसश्च वेदो घटिकात्रयं च, सप्तत्रयं केवलमेव वार्ता ॥ अर्थ - निम्नलिखित पञ्चदशीयन्त्र के यदि ८, १ और ५ अंकों का स्पर्श प्रश्नकर्ता की अंगुली करे तो शीघ्र कार्यसिद्धि होती है। ८ और २ का स्पर्श करे तो कार्यसिद्ध नहीं होता। ६ और ४ का स्पर्श
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________________
३७० ]
[ मुहूर्तराज करने पर तीन घटिकाओं में कार्यसिद्धि हो तथा ७ और ३ का स्पर्श करे तो कार्यसम्बन्धिनी केवल बातचीत ही चले कार्य नहीं होवे।
- पञ्चदशीयन्त्र
गर्भिणीप्रश्न
सूर्यभौमगुरुस्पर्श, पुत्रो भवति निश्चितम् । चन्द्र शुक्र बुध स्पर्श कन्या तत्र प्रजायते ॥ शनिस्पर्श गर्भपातो राहुस्पर्श सुतासुतौ ।
केतुस्पर्श भवेत्क्लीबो विचार्येत्त्यं वदे त्सुधीः ॥ अर्थ - किसी गर्भवती स्त्री के लड़का, लड़की होने के सम्बन्ध में जो प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो निम्नलिखित चक्र पर प्रश्नकर्ता को अंगुली रखने का कहे। यदि प्रश्नकर्ता की अंगुली से सूर्य मंगल या गुरु का स्पर्श हो तो गर्भवती स्त्री पुत्र को जन्म देगी, चन्द्र, बुध या शुक्र का स्पर्श हो तो कन्या का जन्म होगा, राहु के स्पर्श पुत्र एवं पुत्री तथा केतु के स्पर्श, से शक्तिहीन सन्तति होगी, और शनि का स्पर्श हो तो गर्भपात होगा इत्यादि फल विद्वान् को कहने चाहिए।
॥ गर्भप्रश्नचक्रम् ॥
बुध
शुक्र
चन्द्र
गुरु
सूर्य
मंगल
राहु
शनि
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________________
मुहूर्तराज ]
[३७१ प्रकारान्तरेण गर्भिणी के पुत्र-पुत्री सम्बन्धी प्रश्न-(बृहज्ज्यौतिषसार से)
नखैर्युतं गर्भिणीनामधेयं तिथि प्रयुक्तं रससंयुतं च ।
एकेन हीनं नवभिर्विभक्तं, समे कुमारी विषमे कुमारः ॥ गर्भिणी के नाम की अक्षर संख्या + २० + ६ + तिथिसंख्या करने पर जो योगफल आवे उसमें से १ घटाकर नौ का भाग देने पर शेष समसंख्या रहे तो कुमारी (लड़की) का जन्म और विषम रहे तो कुमार (लड़के) का जन्म होगा।
तथा च
तिथिवारं च नक्षत्रं नामाक्षर समन्वितम् । मुनिभक्ते समे शेषे कन्या च विषभे सुतः ॥
गर्भिणी पुत्र या पुत्री को जन्म देगी ? ऐसा प्रश्न करने पर उस दिन की तिथि संख्या, वार संख्या, नक्षत्र संख्या, गर्भवती नामाक्षर संख्या इन चारों का योग करके आगत योग में ७ का भाग दें। यदि शेष समसंख्या रहे तो गर्भवती पुत्री को और विषम संख्या रहे तो पुत्र को जन्म देगी। यह फल कहना चाहिए। __ विशेष- तिथि संख्या जानने के लिए शुक्ला प्रतिपदा से गणना करनी चाहिए और वार संख्या में रवि से।
पुरुष अथवा स्त्री की जन्मकुण्डली की पहिचान
रवि राहु कुजाङ्कानि लग्नाङ्केन च योजयेत् ।
त्रिभिर्भागावशेषेच खैके नारी द्वये पुमान् ॥ यदि कोई व्यक्ति जन्मकुण्डली को दिखाकर यह प्रश्न करे कि यह जन्मकुण्डली पुरुष की है या स्त्री की तो उस जन्मकुण्डली में सूर्य राहु और मंगल जिस-जिस राशि पर बैठे हो उस-उस राशि संख्या एवं लग्न संख्या इन सभी का योग कर उसमें ३ का भाग देने पर यदि शून्य अथवा एक शेष रहे तो वह कुण्डली स्त्री की है और दो शेष रहें तो पुरुष की है, ऐसा कहना चाहिए।
विशेष- जन्मकुण्डली सही समय और सही विधि से बनाई गई हो।
अब प्रश्नकुण्डली के आधार पर तद्गत सूर्य चन्द्र एवं लग्न राशियों के चर स्थिर एवं द्विःस्वभाव होने से फलाफल के विषय में अर्थात् शुभफल और अशुभफल बनाए जा रहे हैं। इन्हें यहाँ संक्षेपार्थ सारणी में प्रदर्शित किया जायगा। (बृहज्यौतिषसार से समुद्धृत)
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________________
३७२ ]
[ मुहूर्तराज
॥ चर लग्न फल बोध सारणी ॥ .
यदि लग्न राशि
सूर्यराशि
चन्द्रराशि
फल
चर
चर
चर १,४,७,१०
१,४,७,१०
१,४,७,१०
कार्य सिद्धि
चर
चर
स्थिर
१,४,७,१०
१,४,७,१०
२,५,८,११
असिद्ध तथा अनिष्ट
चर
चर
द्वि:स्वभाव
१,४,७,१०
१,४,७,१०
६,३,९,१२
बन्धन, धन, हानि, चित्ताद्वेग
चर
स्थिर
चर
१,४,७,१०
२,५,८,११
१,४,७,१०
नष्टधन प्राप्ति एवं धनधान्य लाभ
चर
स्थिर
स्थिर २,५,८,११
१,४,७,१०
२,५,८,११
कार्यनाश, सुखहानि, क्लेश
चर
स्थिर
द्वि:स्वभाव
१,४,७,१०
२,५,८,११
३,६,९,१२
कल्याण, सुख, लाभ, पुत्र धन, वृद्धि
चर
द्विःस्वभाव ३,६,९,१२,
' चर १,४,७,१०
१,४,७,१०
बन्धन, असाध्य रोग, महाकष्ट
चर
द्वि:स्वभाव
स्थिर
१,४,७,१०
३,६,९,१२
२,५,८,११
मानसिक चिन्ता, कार्यसिद्धि
चर
द्विःस्वभाव
द्विःस्वभाव
१,४,७,१०
३,६,९,१२
३,६,९,१२
कार्यहानि, भय, उद्वेग
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________________
मुहूर्तराज ]
[३७३
॥ स्थिर लग्न फल बोध सारणी ॥
यदि लग्नराशि
सूर्य राशि
चन्द्र राशि
फल
स्थिर
चर
२,५,८,११
२,५,८,११
१,४,७,१०
कार्य सफलता, भयनाश
स्थिर
स्थिर
स्थिर
२,५,८,११
२,५,८,११
२,५,८,११
कार्यसिद्धि, धन, धर्मकार्य
स्थिर
स्थिर
द्विःस्वभाव ३,६,९,१२
२,५,८,११
२,५,८,११
राजलाभ, धर्मकार्योत्सव
चर
चर
स्थिर २,५,८,११
१,४,७,१०
१,४,७,१०
स्वजन-पशु-हानि, व्याधिभय
स्थिर
चर
स्थिर
२,५,८,११
१,४,७,१०
२,५,८,११
सफलता, सुख, सम्पत्ति
चर
द्वि:स्वभाव
स्थिर २,५,८,११
मित्र एवं बन्धु विनाश,
दाम्पत्य क्लेश
१,४,७,१०
३,६,९,१२
स्थिर
चर
द्विःस्वभाव ३,६,९,१२
२,५,८,११
१,४,७,१०
मानसिक क्लेश, धननाश
द्विःस्वभाव
स्थिर २,५,८,११
स्थिर २,५,८, ११
३,६,९,१२
पद व धन लाभ, सौख्य, जय
स्थिर
द्विःस्वभाव
द्विःस्वभाव
२,५,८,१२,
३,६,९,१२
३,६,९,१२
मध्यमसिद्धि व सुख सामान्य
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________________
३७४ ]
[ मुहूर्तराज
॥ द्विःस्वभाव लग्न फल बोध सारणी ॥
यदि लग्नराशि
सूर्य राशि
चन्द्र राशि
द्वि:स्वभाव
द्वि:स्वभाव ३,६,९,१२
द्वि:स्वभाव ३,६,९,१२
३,६,९,१२
भूमि व स्थान लाभ, स्वजनागमन
द्विःस्वभाव
चर
द्वि:स्वभाव ३,६,९,१२
३,६,९,१२
१,४,७,१०
लाभ, उत्तम, सुख
द्विःस्वभाव
द्विःस्वभाव
स्थिर २,५,८,११
३,६,९,१२
३,६,९,१२
हानि, सुख व कल्याण का नाश
द्विःस्वभाव
चर
स्थिर २,५,८,११
३,६,९,१२
१,४,७,१०
यात्रासिद्धि, सर्वसुख
द्वि:स्वभाव
स्थिर
स्थिर २,५,८,११
३,६,९,१२
२,५,८,११
उत्तमसौख्य, धनलाभ
द्विःस्वभाव
द्वि:स्वभाव
स्थिर २,५,८,११
३,६,९,१२
३,६,९,१२
पुत्र मित्रादिकों से कलह
द्विःस्वभाव
चर
३,६,९,१२
१,४,७,१०,
१,४,७,१०
अमंगल, हानि, उद्वेग
चर
स्थिर
द्विःस्वभाव ३,६,९,१२
१,४,७,१०
२,५,८,११
अधिक लाभ, सौख्य
द्वि:स्वभाव
चर
द्वि:स्वभाव
सन्तान लाभ, सुख शान्ति विद्यालाभ एवं धन प्राप्ति
३,६,९,१२
१,४,७,१०
३,६,९,१२
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________________
मुहूर्तराज ]
[३७५
॥ अथ अङ्गस्फुरण कोष्ठक सफल ॥
स्थान
फल
स्थान
फल
स्थान
फल
मस्तक
पृथ्वीलाभ
वक्षःस्थल
विजय
कण्ठ
ऐश्वर्यलाभ
ललाट
स्थानलाभ
हृदय
वांछितसिद्धि
गरदन
रिपुभय
स्कन्ध
भोगसमृद्धि
कमर
प्रमोद, बल
युद्ध में हार
भौहों के मध्य
सुख
कमर के पास
प्रीति उत्तम
कपोल
वराङ्गनालाभ
दोनों भौहें
महासुख
नाभि
स्त्रीनाश
मुख
मित्रप्राप्ति
कपाल
शुभ
आन्त्र
कोषवृद्धि
बाहु
मधुरभोजन
नेत्रद्वय
धनप्राप्ति
भग
पतिप्राप्ति
बाहुमध्य
धनागम
नेत्रकोण २
लक्ष्मीलाभ
कुक्षि
सुप्रीति
पेडू
अभ्युदय
नेत्रसमीप
प्रियसमागम
उदर
कोशप्राप्ति
नितम्बा
वस्त्रलाभ
नेत्रपक्ष
राज्यलाभ
लिङ्ग
स्त्रीलाभ
घुटने
शत्रुवृद्धि
नेत्रपक्ष २
युद्धजय
वाहन प्राप्ति
जांघ
स्वामिप्रीति
नत्रोपांग २
कलत्र लाभ
वृषभ
पुत्र लाभ
पैर के ऊपर
स्थान लाभ
नासिका २ .
प्रेम
ओष्ठ
प्रियवस्तु
पैर तले
राज्यप्राप्ति
हाथ
सद्रव्यलाभ
ठुड्डी
भय
___ पादाङ्गुष्ठ
अलाम
(बा.बो. ज्यो. सा. समुच्चय से)
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________________
३७६ ]
[ मुहूर्तराज
॥ अथ अङ्गानुसार पल्ली (छिपकली) पतन विचार चक्र॥
स्थान
फल
स्थान
फल
स्थान
फल
मस्तक
राज्यलाभ
भौहों के बीच
राज्य सम्बन्धी
निचले ओंठ
ऐश्वर्य प्राप्ति
नाक के ऊपर
व्याधिपीडा
बायां कान
अधिक लाभ
दाहिनी भुजा
राज सम्मान
बायीं भुजा
राजभय
स्तनों पर
दौर्भाग्य
पीठ पर
बुद्धिनाश
दोनों घुटने
शुभ प्राप्ति
हाथों पर
वस्त्रलाभ
नासिका
बहुधन
कमर
अश्व लाभ
बायें पहुँचे पर
कीर्तिनाश
मुख पर
मिष्ठात्रभोग
टखनों पर
बन्धन
दाहिने पैर पर
यात्रा
पैरों के बीच
स्त्री नाश
ललाट
बन्धुदर्शन
ऊपरी ओंठ पर
धननाश
पैरों के छोर पर
मृत्यु
दाहिना कान
आयुर्वृद्धि
नेत्रों पर
धनलाभ
कण्ठ
पर
शत्रुनाश
पेट पर
भूमि लाभ
जांघों पर
शुभ
कंधों पर
विजय
मनस्ताप
दक्षिण पहुँचे पर
हृदय पर
धनलाभ
धननाश
केशों पर
निश्चित मृत्यु
बायें पैर पर
नाश
(बाल बो.ज्यो.सा.स.से)
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________________
मुहूर्तराज ]
[३७७
॥ अथ सत्यरूपशकुनावलिकोष्ठक ॥
(बा.बो.ज्यो.सा.स.से)
|
.
m
.
""; MS
G
.
।
.
. 0
बं भं ४२, ४३ लं क्षं ५३, ५४ शं, वं ४९, ४८
यं रं ४५, ४६
५२, ५१
.100
.
.
Al-2
64.
22.18
३५
१२
३७ अं.१८
३६ औं. १७
A.
अ:१९
ओं १६
।
एं १४
लूं १३
शकुनावलि देखने की विधिः
स्नान करके पूजन पाठ से निवृत्त होकर मन में शुद्ध भाव धार कर अपने कार्य को सोचकर उपरिलिखित अक्षरों में से किसी एक का चिन्तन करें। तदनुसार जो सुफल कुफल आवे उसे सत्य समझे।
॥ अथ अंकानुसार सत्यरूप शकुनावालीफल ॥
(बा.बो.ज्यो.सा. समुच्चय से)
अं.
फ.
फ.
अं.
अं.
फल
अं.
फल
|
अं.
फल
१ | शुभ
द्रव्य लाभ
लाभ
अशुभ
भय
२
कार्य मि |
पीडा
सुख लाभ अशुभ
रान
अशुभ लाभ
शुभ
कल्याण
नाश
विजय
रोग
शुभ
नाश
सिद्धि
सुख लाभ
सिद्धि
सिद्धि
लाभ
सम्पत्ति
सन्ताप
चिन्ता
क
५ अशुभ
ऐश्वर्य | शुभ
अशुभ ९ स्थान ला. १८
शून्य शुभ
विजय
शुभ
लाभ
अशुभ अर्थ लाभ अर्थ हानि महापीडा
शुभ
मध्यम
अर्थ लाभ | ३५ हानि । ३६ | सिद्धि | ४५
यश
सुख
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________________
३७८ ]
प्रश्नलग्नगत राशि पर पाप एवं शुभग्रह दृष्टिफल - (बृहज्यौतिषसार)
द्विपदं चतुष्पदं वा भवनं, लग्नोपगं ग्रहः पापः । पश्यति तन्नाशकरो ज्ञेयः सौम्यौ बिवृद्धिकरः ॥
अर्थ - यदि प्रश्न लग्न द्विपद ( मिथुन, कन्या, तुला, धनु पूर्वार्ध एवं कुंभ) अथवा चतुष्पद (मेष, वृष, सिंह, धनु का उत्तरार्ध एवं मकर का पूर्वार्ध) राशीय हो और उस पर यदि पापग्रहदृष्टि हो तो शुभफलनाश और सौम्यग्रहदृष्टि हो तो शुभफलवृद्धि होती है ।
प्रश्न से कार्य सिद्धि योग - (बृहज्यौतिषसार)
तथा च
लग्नाधिपतिः केन्द्रे तन्मित्रं व व्याष्टकेन्द्रेभ्य । अन्यत्र गताः पापाः तत्रापि शुभं वदेत्प्रश्ने ॥ पञ्चम नवभोयगतै बुधगुरुशुकै र्यथेप्सितावाप्तिः । त्रिषष्ठलाभोपगतैः क्षितिसुतरवि सूर्यस्तद्वत् ।
अर्थ - यदि प्रश्नलग्नपति अथवा उसका मित्रग्रह केन्द्र में हो एवं पापग्रह ८, १२, १, ४, ७, १० से भिन्न स्थानों में हो तो कार्य सिद्धि होती है । तथैव यदि बुध, गुरु एवं शुक्र ये तीनों पञ्चम या नवम स्थान में हो और मंगल, रवि और शनि ३, ६, ११ वें स्थानों में हो तो भी कार्यसिद्धि कहनी चाहिए । प्रश्न से अशुभफल योग - (बृहज्यौतिषसार )
पापैर्लग्नोपगतैः शरीरपीडां विनिर्दिशेत् कलहय । सुखसंस्थैः सुखनांश गृहभेदं बन्धुविग्रहं कथयेत् ॥ अस्ते गमनविरोधः कर्मस्थे कर्मण्यं नाशः । शुभदृष्टेः संयोगात् प्रष्टुः कृच्छ्राद् वदेत् सिद्धिय् ॥
अर्थ प्रश्नलग्न में यदि पापग्रह हो तो प्रश्नकर्त्ता को शारीरिक पीड़ा एवं मानसिक व्यथा हो ऐसा कहें। यदि पापग्रह चतुर्थभाव में हो तो सुख नाश, घर में फूट और बन्धुओं में कलह होता है। यदि यात्राविषयक प्रश्न कुण्डली में सप्तमस्थान में पापग्रह हो तो यात्रा में विघ्न पड़े दशमस्थान में हो तो कार्यों में हानि हो परन्तु यदि उन पापग्रहों पर शुभग्रहों की दृष्टि हो तो प्रश्नकर्त्ता को अथक परिश्रम करने पर सामान्य सिद्धि मिल सकती है।
परदेशी के आगमन सम्बन्धी प्रश्न - ( बृहज्यौतिषसार)
(क) दुश्चिक्यधनसमेतौ बन्धुपगतावेतौ
गुरुशुक्रावागर्म गृहप्रवेशं
(ख) लग्नाद्दिद्वदिशगौ
[ मुहूर्तराज
नृणाम् । क्षणात् कुरुतः ॥
चन्दाद् वा चन्द्रपुत्रभृगुपुत्रो । मरणं लघ्वागमनं नास्तीति विनिर्दिशेत् प्रष्टुः ॥
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________________
मुहूर्तराज ]
[३७९ अर्थ - (क) प्रश्न कालिक लग्न से ३ रे और २ रे भाव में क्रमश: गुरु एवं शुक्र हो तो परदेशी घर आएगा। तथा ये दोनों (गुरु एवं शुक्र) चतुर्थ भाव में स्थित हो तो परदेशी अतिशीघ्रतया घर आनेवाला है, ऐसा कहना चाहिए।
अर्थ - (ख) प्रश्न कालिक लग्न से अथवा चन्द्र से २ रे और १२ वें भावों में चन्द्रपुत्र (बुध) और भृगुपुत्र (शुक्र) हो तो परदेशी का मरण और शीघ्र आगमन नहीं अर्थात् परदेशी अति विलम्ब से आएगा। जय-पराजय, सन्धि विषयक प्रश्न-(बृहज्यौतिषसार)
कर्कटवृश्चिकघटधरभीना हिबुकोपगताः शुभैः दृष्टाः ।
शत्रोः पराजयकराः वृषाजचापैः प्रयाति रिपुः ॥ जय अथवा पराजय होगी ? ऐसे प्रश्न के उत्तर में प्रश्नसमयानुसार बनाई गई कुण्डली में यह देखें कि यदि चतुर्थ भाव में कर्क, वृश्चिक, कुंभ या मीन राशि हो और उस पर शुभग्रह दृष्टि हो तो शत्रु पराजय होगी, ऐसा फल कहना और यदि चतुर्थ भाव में वृष, मेष या धनु राशि हो तो शत्रु शीघ्र लौट जायगा ऐसा कहना चाहिए। तथैव
नवमाद्ये चक्रदले विज्ञेया यायितः तृतीया दै ।
पौराः शुभसंयुक्ते भागे विजयोऽ परे भङ्गः ॥ __ कुण्डली में ९ वें भाव से २ रे भाव तक के गृहों की राशियों को यात्री (चढ़ाई करने वाला) कहते हैं और ३ रे भाव से ८ भाव तक के गृहों की राशियों को स्थायी (अपने स्थान में रहने वाला) कहते हैं, यदि यात्री राशियों में शुभग्रह हो तो चढ़ाई करने वाले की और स्थायी राशियों में शुभग्रह हो तो जिस पर चढ़ाई की जाए उसकी जय होती है, इसके विपरीत होने पर पराजय। तथा दोनों प्रकार की राशियों में शुभ-पाप दोनों प्रकार के ग्रह हो तो परस्पर सन्धि होती है, ऐसा फल कहना चाहिए। तथा च
सौम्यैर्नरराशिगतैर्लग्ने लाभे व्ययेऽथवा सन्धिः ।
भवति नृपाणां प्रवदेत् अतोऽन्यथा विपर्ययो ज्ञेयः ॥ अर्थ - नरराशि में (मिथुन, कन्या, तुला, धनु का पूर्वार्ध और कुंभ) स्थित होकर शुभग्रह यदि लग्न में ग्यारहवें स्थान में अथवा बारहवें स्थान में हो तो चढ़ाई करने वाले एवं जिस पर चढ़ाई की जाय उन दोनों में सन्धि हो जाती है अन्यथा (यदि ऐसा न हो तो) उन दोनों में आपस में शत्रुता बनी रहेगी, ऐसा फल कहना चाहिए। रोगी के सम्बन्ध में सुख-दुःख का प्रश्न
उपचयसंस्थश्चन्द्रः सौम्या केन्द्रत्रिकोण निधनस्थाः । लग्ने वा शुभदृष्टे सुखितस्तत्रातुरो वाच्यः ॥ परिपूर्णतनुश्चन्द्रो लग्नोपगतो निरीक्षितो गुरुणा । गुरुशुक्रौ केन्द्रे वा निपीडितार्तोऽपि सुखितः स्यात् ॥
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________________
३८० ]
[ मुहूर्तराज अर्थ - प्रश्नकालिक लग्न से ३, ६, १० और ग्यारहवें भाव में क्षीण चन्द्रमा अथवा १, ४, ७, १०, ९ और ५ इन भावों शुभग्रह हों अथवा लग्न पर शुभग्रहदृष्टि हो तो रोगी स्वस्थ और सुखी होगा एवं यदि पूर्ण चन्द्र लग्न में शुभग्रहदृष्ट होकर स्थित हो, अथवा केन्द्र में गुरु शुक्र हों तो आर्त एवं पीडायुक्त रोगी भी सुखी होगा, ऐसा कहना चाहिए। इससे विपरीत होने पर (उपर्युक्त न हो तो) रोगी अस्वस्थ बना रहेगा। विवाहप्रश्न-(बृहज्यौतिषसार)
जामित्रोपचयगतः शीतांशु ववीक्षितः कुरुते ।
स्त्रीलाभं, पापयुतोऽवलोकितो वापि तन्नाशय । ___ अर्थ - यदि प्रश्नकालिक लग्न से जामित्र (सप्तमम्भाव) उपयय (३, ६, १०, ११) इन स्थानों में से कहीं भी यदि शीतांशु (चन्द्र) हो और उस पर गुरु की दृष्टि हो तो स्त्रीलाभकारी है; और यदि इन्हीं स्थानों में चन्द्र पापग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो तो स्त्रीलाभ नहीं होगा, ऐसा कहें। तथा च
दुश्चिक्यतनयसप्तमरिपुलाभगतः शशी विलग्नक्षत् ि। गुरुरविसौभ्यै दृष्टो विवाहदः स्यात्तथा सौम्याः ॥ केन्द्रत्रिकोणगा वा, सप्तमभवनं शुभग्रहस्य यदि ।
तज्जातीयां लभते, पापः विगतरूपांच ॥ __ अर्थ - प्रश्नकालिक लग्न से ३, ५, ७, ६, ११ वें में चन्द्र हो और उस पर गुरु, रवि और बुध की दृष्टि हो अथवा शुभग्रह १, ४, ७, १०, ५ और ९ वें स्थानों में हों अवश्यमेव विवाह होगा। ___यदि सप्तमभाव में शुभग्रहीय राशि (२, ३, ४, ६, ७, ९, १२) हो तो तदनुसार सुशीला एवं गुणवती स्त्री का लाभ और सप्तमभाव में पापग्रहीय राशि हो तो दुःशीला एवं कुरूपा स्त्री का लाभ होगा, यह कहना चाहिए। स्वप्नदर्शन प्रश्न–(बृहज्यौतिषसार)
रविलग्ने दीप्ताग्निर्लोहितवसनानि दर्शनं नृपतेः । शिशिरकिरणे तु नारी सितकुसुमश्वेतवस्त्ररत्लानि ॥ भौमे सुवर्णविद्रुभरक्तस्त्रावं तथामांसमपि । खे गमनं शशीपुत्रे जीवे सहबन्धुमिर्योगः ॥ जलसन्तरणं शुके तुङ्गारोहं वदेत्पतंगसुते ।
लग्नस्थे वक्तव्यं मिर्मिश्रं तथा प्रश्नम् ॥ अर्थ - कैसा स्वप्ना देखा है अथवा देलूँगा ? ऐसे प्रश्न में यदि प्रश्नलग्न में सूर्य रहे तो स्वप्न में प्रज्वलित अग्नि, लाल वस्त्रादिक तथा राजदर्शन; चन्द्रमा हो तो स्त्री, श्वेतपुष्प वस्त्र एवं रत्न दर्शन; मंगल हो तो स्वर्ण, मूंगा, लाल पदार्थ शोषितयुक्त मांस का दर्शन, बुध हो तो आकाश में उड़ना, गुरु हो तो बन्धुमित्रसमागम; शुक्र हो जो जल में क्रीड़ा एवं शनि हो तो ऊँचे स्थान पर चढ़ना आदि तथा यदि लग्न में अनेक ग्रह हों तो मिश्रफल कहे।
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________________
मुहूर्तराज ] विशेष
रिपुनीचोपगतैर्दुःस्वप्नं विबलैर्विनिर्दिशेत् खेटै । रविकिरणमुषितदेहैः प्रष्टुः स्वप्ने वदेदेवम् ॥
अर्थात् उक्त स्वप्नदर्शनप्रश्नलग्न में यदि ग्रह शत्रु या नीच राशि के हों अथवा सूर्य के सान्निध्य से अस्त हो तो दुःस्वप्न आया है, ऐसा कहें अथवा स्वप्न भयप्रद था। चोर ज्ञान प्रश्न - (बृहज्यौतिषासार)
स्थिर लग्ने स्थिरभागे वर्गोत्तमकांशके हृतं द्रव्यम् । आत्मीयेनेति वदेच्चरराशौ परजतेन हृतय् ॥ द्विशरीरे लग्नगते गृह निकटनिवासिना च हृतय् ।
अर्थ चोर घर का है या बाहर का ऐसे प्रश्न में, - यदि प्रश्नकालिक लग्न में स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) स्थिर राशि के नवांश या वर्गोत्तम नवांश हो तो घर का व्यक्ति ही चोर है। तथा चरराशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) चरराशि का नवांश हो तो बाहर का व्यक्ति चोर है और यदि प्रश्नकालिक लग्न दि:स्वभाव ( मिथुन, कन्या, धनु, मीन) राशि हो तो घर के समीप ( पडोसी आदि को ) चोर समझे । हृतनष्टवस्तु स्थान—(बृहज्यौतिषसार )
स्थिरराशौ तत्रस्थं चरराशौ निर्गतं बहिर्भवनात् । द्विशरीरे गृहबाहये भूमिगतं विनिर्दिशेत् द्रव्यम् ॥
[ ३८१
अर्थ - यदि प्रश्नलग्न में स्थिरराशि हो तो खोई वस्तु घर में, चर राशि हो तो घर के बाहर और द्विः स्वभाव राशि लग्न में हो तो घर के समीप में ही पृथ्वी में गड़ी हुई है, ऐसा कहना ।
ग्रहों के शरीर स्वरूप - (बृहज्यौतिषसार)
दीर्घः ।
चतुरस्त्रोऽर्को भौमो वृत्तः सुषिरेन्दुरिन्दुजो दीर्घः सुतनुः शुक्रो जीवः परिवर्तुलो अतिसूक्ष्मो भृगुतनयो दीर्घः सुषिरान्तरोऽर्कतनयः स्यात् । हृष्टाद प्रश्ने द्रव्यं सबलाद् ग्रहात्प्रवदेत् ॥
ज्ञेयः ॥
अर्थ - सूर्य एवं मंगल चरतुस्त्र ( वर्गाकार अर्थात् लम्बाई चौडाई बराबर वाले) सुषिरेन्दु (चन्द्रमा बीच में छिद्र युक्त गोल) इन्दुज (बुध) दीर्घ शुक्र दीर्घ कृश एवं सुन्दर शरीर, गुरु, वर्तुलाकार, शनि लम्बा एवं छिद्रयुक्त देहधारी है।
चोरी, खोई हुई वस्तु अथवा जातकादि के रूप और आकृति आदि प्रश्नकालिक बलीग्रह के समान ही जानें।
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________________
३८२ ]
हृतवस्तु प्राप्ति एवं दिशाज्ञान
शुभग्रहो वा स्यात् ।
पूर्ण शरीरश्चन्द्रो लग्नोपगतः सौम्यावलोकितं वा भवनं शीर्षोदयं लग्ने ॥ लाभगतैर्वा सौम्यैराश्वेव धनस्य विनिर्दिशेल्लब्धिम् ।
लग्नाद्वितीयभवने तृतीयके वा शुभग्रहैर्युक्ते ॥ प्रष्टा भ वित्तं सौम्यै र्बन्ध्वस्तषष्ठदशमगतैः ।
केन्द्रस्थैदिग्वाच्याः ग्रहैः विलग्नादसंभवे वाऽत्र ॥
अर्थ - प्रश्नकालिक लग्न में यदि पूर्ण चन्द्रमा या शुभग्रह हों या लग्न पर शुभग्रहों की दृष्टि हो या लग्न में शीर्षोदय राशि (मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुंभ) हो अथवा ११ वें भाव में शुभग्रह हों, या २, ३, ४, ७, ६, १० इन भावों में शुभग्रह हों तो चोरी हुई वस्तु प्राप्त होगी, ऐसा कहे । केन्द्र स्थित ग्रहों से उन २ ग्रहों की दिशा में, अनेक ग्रह केन्द्र में हों तो बलीग्रह की दिशा में, यदि केन्द्र में ग्रह न हो तो लग्नराशि की दिशा में, चोरी हुई वस्तु गई है, ऐसा कहें।
कूर्मचक्र की फल सहित विधि
किसी भी भवन अथवा देवभवनार्थ शिलान्यास के समय कूर्मचक्र उपयोगी ही नहीं, अपितु अनिवार्य होता है । कूर्म निवास जल में, स्थल में एवं आकाश में तिथि तथा नक्षत्रों से अनुसार जाना जाता है। इसे जानने की विधि यह है :
तिथि के अंक को ५ से गुणित कर उसमें कृत्तिका से उस दिन के नक्षत्र ( चन्द्रनक्षत्र) तक के गणनांक को जोड़ दें तथा उसमें १२ और मिलाएँ । आगत योग में ९ का भाग दें। इस प्रकार भाग देने पर शेषांक, ४, ७ अथवा १ रहें तो कूर्म का निवास जल में, ५, २, अथवा ८ रहें तो कूर्म निवास स्थल में और यदि ३, ६ अथवा ९ अर्थात् शेष रहे तो कूर्म निवास आकाश में समझें । जल में कूर्म निवास शुभ फलदायी होता है। स्थल में हानिकारक और आकाश मरण प्रद है ।
O
[ मुहूर्तराज
उदाहरण प्रतिपदा को रोहिणी नक्षत्र है, तो उक्त विधि के अनुसार १५, रोहिणी नक्षत्र कृत्तिका
से गिनने पर दूसरा है, अत: १४५ + २ तथा इसमें १२ और जोड़े कुल योग ५ + २ + १२ =
१ रहा, तो कूर्म का निवास जल से हुआ जिसका कि फल शुभ है।
-
यहाँ नीचे तिथि नक्षत्रों के योग से जल में कूर्म निवास सम्बन्धी ज्ञानार्थ एक सारणी दी जा रही है, जिसके सहयोग से शीघ्रतया कूर्म का जल में निवास ज्ञात हो सकेगा।
१९ भाग ९ शेष
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________________
मुहूर्तराज ]
तिथि
↓
१
२
३
४
५
کی
८
९
११
१२
७ रो.
१३
रो.
१४
मृ.
१५
कृ.
रो.
मृ.
१० रो,
कृ.
मृ.
कृ.
म.
कृ.
रो. -
म.
कृ.
B. 15 F 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5
॥ अथ कूर्म - जल- निवास - ज्ञापन सारणी ॥
कूर्म जल निवास ज्ञापक नक्षत्र
-
ཟླ་ཚ་ཟ་ཟླ་ལྒ་༈ ་ཟླ་ ཝ ་ ཝ ། ༅ ་ ཤཱཿ ། ༅ ། །, | ༄ ། ཝོ
हस्त विशा. मूल
चित्रा
उ. फा. स्वाती
हस्त
चित्रा
उ. फा.
हस्त
चित्रा
उ. फा.
हस्त
चित्रा
अनु
विशा
चित्रा
अनु.
स्वाती
विशा.
अनु.
स्वाती
विशा.
अनु.
उ. फा. स्वाती
हस्त विशा.
अनु.
उ. फा. स्वाती
पू.पा.
ज्येष्ठा
मूल
पू.षा.
ज्येष्ठा
मूल
पू.षा.
ज्येष्ठा
मूल
पू.षा.
ज्येष्ठा
मूल
पू.षा.
ज्येष्ठा
+
***************
***************
पू.भा.
उ.भा.
शत.
पू.भा.
उ.भा.
शत.
पू.भा.
उ.भा.
शत.
पू.भा.
उ.भा.
शत.
पू.भा.
उ.भा.
शत.
[ ३८३
་ ༞ ་ ཚ ། རྐ ་ ཉྭ ་ ཕ ་ ཆ ་ སྒྲ ་ ཚ ་ རྐ་ སྒོ་མ་ཌ་ཉྭ
भर.
रेव.
Page #453
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________________
३८४ ]
[ मुहूर्तराज
॥ अथ कतिपय सुयोग संग्रहः ॥
॥ रवियोग तालिका ॥
चन्द्रनक्षत्र निम्न क्रमांक का हो
यदि सूर्य के
महानक्षत्र से
१०
२०
१३ दसवां । तेरहवां | बीसवां
समस्त अशुभ योगों का नाश करके शुभ फलदायी होता है
चौथा
छठा
नवां
॥ कुमार योग तालिका ॥
वार
तिथि
नक्षत्र
चन्द्र, मंगल, बुध, शुक्र
१, ५, ६, १०, ११
अनु. रोहि. पुन. म. ह.
वि. मू. श्र. पू. भा.
किसी एक वार को + किसी एक तिथि + किसी एक नक्षत्र के होने पर
॥ राज योग तालिका ॥
वार
तिथि
नक्षत्र
२, ३, ७, १२, १५
भ. मृ. पुष्य, पू.फा. चित्रा अनु. पू.षा. धनि. उ. भाद्र
रवि, मंगल, बुध, शुक्र
कोई एक वार + कोई एक तिथि + कोई एक नक्षत्र होने पर
॥ अमृतसिद्धि योग तालिका ॥
वार
→
रवि
सोम
मंगल
।
बुध
शुक्र
शनि
नक्षत्र
→
मृग.
अश्विनी
अनु.
रेवती
रोहिणी
Page #454
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________________
मुहूर्तराज ]
[३८५
॥ सिद्धि योग तालिका ॥
वार-→ |
रवि
.
सोम
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
नक्षत्र
मूल
श्रवण
उ.भा.
कृत्तिका
पुनर्वसु
रेवती
रोहिणी
॥ स्थिर योग तालिका ॥
वार
तिथि
नक्षत्र
गुरु और शनि किसी एक को +
४, ८, ९, १३, १४ किसी एक के +
कृ. आर्द्रा, आ. उ.फा. स्वा. ज्ये. उ.षा. शत. रेवती किसी एक होने पर
वार+ति.+ न. = योग
॥ अन्य कतिपय सुयोग तालिका ॥
संज्ञा
तिथि
नक्षत्र
योगनाम
नन्दा
१, ६, ११
कृति. आर्द्रा, उत्तरा ३, चित्रा, श्रवण, शतभिषक
वारयोग
भद्रा
२, ७, १२
रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, मूल
श्रेष्ठयोग
जया
३, ८, १३
अश्वि. मृग. पुष्य, उत्तरा ३, हस्त, धनि. रेवती
शुभयोग
रिक्ता
४, ९, १४
पुष्य, अश्विनी, आश्ले, स्वाती, विशाखा, ज्येष्ठा
कल्याणयोग
पूर्णा
५, १०, १५
अश्विनी, पुष्य, धनिष्ठा, शतभिषक्, रेवती
वर्धमानयोग
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________________
३८६ ]
वारनाम
तिथि
रवि
T
सोम
तिथि
मंगल
बुध
गुरु
र सो. मं. बु. गु. शु. श.
शुक्र
र. सो. मं. बु.
गु. शु. श.
शनि
वार→
रवि
नन्दा
१, ६, ११
॥ अन्यान्य शुभयोग तालिका ॥
मृग. पुन, पुष्य, उत्तरा ३, हस्त, चित्रा, मूल, रेवती
रोहि, मृग, पुन, पुष्य, स्वाती, ज्येष्ठा, श्रवण पनि शत
·
अश्वि, कृत्तिका, मृग, पुष्य, उत्तरा ३, अनुराधा, रेवती
कृत्तिका, रोहिणी, मृग पुष्य, उत्तरा ३, हस्त, चित्रा, स्वा.
पुन, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाती, अनु, श्रवण, भ. शत. रेव.
अश्वि. रोहिणी, मृगशिर, उत्तरा ३, हस्त, अनुराधा, रेवती
रोहिणी, मृग, मघा, उत्तरा ३, ज्येष्ठा, श्रवण, धनिष्ठा, शत.
क्रमश:
हस्त, मृगशिर, अश्विनी, अनुराधा, पुष्य, रेवती, रोहिणी
नक्षत्रनाम
क्रमश :
मूल, श्रवण, उ.भा. कृत्तिका, पुन. पू. फा. स्वाती
सोम
|| अन्य कतिपय सिद्धिदायक तिथि योग तालिका ॥
भद्रा
२,७,१२
मंगल
नन्दा
१.६,११
जया
३,८,१३
बुध
जया
३,८,१३
भद्रा
२,७,१२
गुरु
रिक्ता
४, ९, १४
पूर्णा
५,१०,१५
शुक्र
भद्रा
२, ७, १२
नन्दा
१.६,११
[ मुहूर्तराज
योगनाम
सौभ्ययोग
महायोग
पूर्णयोग
शंखयोग
अमृतयोग
पद्मयोग
आनन्दयोग
सिद्धियोग
पीयूषयोग
शनि
पूर्णां
५, १०, १५
रिक्ता
४, ९, १४
योगनाम
अमृता तिथियोग
सिद्धायोग तिथि
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३८७
॥ कतिपय अशुभ योग तालिका ॥ (वार + नक्षत्र जन्य)
वार
→
रवि
सोम
_ मंगल | बुध |
गुरु
| शुक्र
| शनि
योगनाम
नक्षत्र
→
विशाखा
पू.फा.
धनिष्ठा
रेवती
|
रोहिणी पुष्य
पू.फा.
उत्पात
नक्षत्र →
अनु.
उ.षा.
शत.
अश्वि.
मृग. | आश्लेष
हस्त
मृत्यु
नक्षत्र →
ज्येष्ठा
अभि.
.
पू.भा.
भरणी
|
आर्द्रा | मघा
| चित्रा
काण
नक्षत्र
→
मघा
विशाखा
।
आर्द्रा | मूल |
कृत्तिका रोहिणी । हस्त यमघंट
भरणी
चित्रा
उ.षा. | धनिष्ठा |
उ.फा.
| ज्येष्ठा | रेवती
वज्रमुशल
नक्षत्र → तिथि →
११
क्रकच
नक्षत्र
→
भरणी
अनु.
पुन.
पू.भा. |
आर्द्रा | चित्रा
अशनि
॥ वार + तिथि + नक्षत्र जन्य अशुभ योग ॥
वार
रवि
सोम
मंगल
बुध
|
गुरु
__ शुक्र
|
शनि | योगनाम
तिथि
नन्दा
नन्दा
नन्दा १,६,११
नन्दा १,६,११
नन्दा १,६,११ विशा.
१,६,११
पुष्य
अन्ध
नन्दा नन्दा १,६,११ । १,६,११] धनिष्ठा | रेवती
१,६,११
श्रवण
नक्षत्र
उ.फा.
तिथि
भद्रा
भद्रा
भद्रा
भद्रा
२,७,१२
भद्रा २,७,१२ ।
पू.षा.
२,७,१२
आर्द्रा
२,७,१२ आश्ले.
काण
भद्रा भद्रा २,७,१२ - २,७,१२
पू.फा. | कृत्तिका
नक्षत्र
मूल
मघा
|
तिथि
जया ३,८,१३ विशा.
जया ३,८,१३
जया ३,८,१३ |
जया ३,८,१३
जया ३,८,१३
पू.षा.
जया जया ३,८,१३ । ३,८,१३ उ.षा.
पङगु
नक्षत्र
आर्द्रा
मूल
ज्येष्ठा
भरणी
तिथि
रिक्ता
रिक्ता
रिक्ता ४,९,१४
।
रिक्ता | रिक्ता ४,९,१४ । ४,९,१४
आर्द्रा चित्रा
४,९,१४
मघा
४,९,१४ ।
कृति.
बधिर
रिक्ता | रिक्ता ४,९,१४ । ४,९,१४
धनिष्ठा
नक्षत्र
पू.भा.
अनु.
Page #457
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________________
३८८]
[ मुहूर्तराज
॥ तिथि + वार जन्य अशुभ योग ॥
वार
→
मंगल
शनि
योगनाम
तिथि →
दग्ध
तिथि →
अचिकित्स्यरोग
तिथि →
अग्निज्हिव
तिथि →
विष
तिथि →
महाशूल
॥ ग्रह जन्म नक्षत्र नाम ॥
बार →
रवि
सोम
मंगल
बुध
|
शुक्र
शनि
गुरु उ.फा. |
जन्मनक्षत्र
→| भरणी
चित्रा
उ.षा.
|
धनिष्ठा |
ज्येष्ठा ।
रेवती
॥ हालाहलयोग ॥
वार
→
रवि
सोम
बुध |
गुरु |
शुक्र शुक्र
| शनि
योगनाम
मंगल रोहिणी
नक्षत्र → | कृत्तिका
चित्रा
भरणी ।
अनुराधा
श्रवण | रेवती
वार+नक्षत्र+
तिथि →
८
. | तिथि से जन्य
॥ अशुभ योगद्वय ॥
(१) ज्वालामुखी
(२) चरयोग
तिथि →
८
१० । रवि
| सोम
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
नक्षत्र
→
।
मूल | भरणी | कृत्तिका
रोहिणी आश्लेष | पू.भा. | आर्द्रा | विशा. | रोहि. | पुष्य |
मघा |
मूल
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________________
मुहूर्तराज ]
[ ३८९
अब कतिपय वार तिथि एवं नक्षत्र परत्व शुभ एवं अशुभ योग कहे जाते हैं यहाँ यदि वार + तिथि हो या वार + नक्षत्र हो तो द्विक शुभाशुभ योग और वार + तिथि + नक्षत्र हों तो त्रिक शुभाशुभयोग जानें।
॥ अथ वार नक्षत्र तिथि परत्वे शुभाशुभयोग ॥
वार
↓
रवि
सोम
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
शनि
नक्षत्र
↓
हस्त, पुन रेव. मोहि. मृग. उ. ३ पुष्य, मूल, अश्वि. धनि. शत, भर, विशा, अनु. ज्येष्ठा, मघा
मृग. रोहि. अनु. उ. फा. हस्त, श्रवण, शत, पुष्य, ध. पू. पा. उषा. अभि. आर्द्रा, अश्वि विशा. चित्रा
अश्वि. रे. उ.मा. मूल, विशा. उ. फा. कृति मृग. पुष्य, आश्ले. उषा. मघा, आर्द्रा ध. शत. पू.भा.
अनु श्रव ज्ये. पु. ह. कृ. रो. मृग. पू. बा. उ. फा. भ. आश्ले. रे. अश्वि. भ. शत, चित्रा, मूल
पुष्य, अश्वि, पुन, पूर्वी ३ आश्ले. ध. रे. स्वा. वि. अनु. शत. कृ. रो. मृग, आर्द्रा, उफा. ह. ज्येष्ठा
रे. अश्वि. पू. पा. उषा. अनु. मृग अब भ. पू. फा. ह. पुन, रोहि, पुष्य, आश्ले. मघा, अभि ज्येष्ठा
रोहिणी, अव ध अनु. स्वा. पुष्य, अनु. मघा, शत. रेव. उ. पा. उ. फा. हस्त, चित्र, पूर्वा ३ मृग.
(आरम्भ सिद्धि)
तिथि
↓
१, ८, ९
६, ७, ११, १२, १४
२,९
७,११,१२,१३
३, ८, १३, ६
१,१०,११
२, ७, १२
३, ८, १३, १,९,१४
५, १०, १५, ११ २,७,१२,४,६,८
१, ६, ११, १३
२, ३, ७, ४, ९, १४
४, ९, १४, ८
५, १०, १५, ६, ७
योग का
प्रकार
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
शुभ
अशुभ
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________________
३९० ]
[ मुहूर्तराज कतिपय अन्यान्य योगक) महाडल योग एवं भ्रमण योग- (बृहज्यौतिषसार) यात्रा में निषिद्ध
खेतोऽब्जभोमिति नगावशेषिता द्वयगा ।
महाडलो न शस्यते त्रिषण्मिता भ्रमो भवेत् ॥ अर्थ - सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र पर्यन्त गणना करके आगत संख्या में ७ का भाग देने पर शेष २ या ७ या ० रहें तो महाडल योग एवं ३ या ६ शेष रहें तो भ्रमण योग होता है। ये दोनों यात्रा में निषिद्ध हैं। (ख) हिम्बर योग- (बृहज्यौतिषसार) यात्रा में प्रशंसनीय
शशांकभं सूर्यभतोऽत्र गण्यं पक्षादितिथ्या दिनवासरेण ।
युतं नवाप्तम् नगशेषकं चेत् स्याद्धिम्बरं तद्गमनेऽतिशस्तम् ॥ अर्थ - सूर्यनक्षत्र से चन्द्रनक्षत्र तक गणना करके उस संख्या में शुक्ल प्रतिपदा से गणित तिथि रवि से गणित वार संख्या जोड़कर ९ का भाग दें, यदि शेष ७ बचे तो हिम्बर नामक योग कहा गया है जो कि योत्रा में अति प्रशस्त है। (ग) घबाड योग- (बृहज्यौतिषसार) यात्रा में अतीव प्रशस्त
सूर्यभाद् गणयेच्चान्द्रं त्रिगुणं तिथिसंयुतम् ।
नवभिस्तु हरेद्भागं विशेष स्याद् घबाडकम् ॥ __ अर्थ - सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र तक गिनकर उस संख्या को तिगुना करके उसमें वर्तमान तिथि संख्या को जोड़े फिर ९ का भाग दें यदि शेष ३ रहे तो घबाड योग होता है, यह यात्रा में हिम्बर से भी श्रेष्ठ
।
(घ) टेलक-गौरव आदि योग- (बृहज्यौतिषसार)
सूर्यभाद् गणेशच्चान्द्रं तिथिवारं च मिश्रितम् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं पञ्चशेषं तु टेलकम् ॥ सूर्यभाद् गणयेच्चान्द्रं तिथिवारं च मिश्रितम् ।
अर्कसंख्यै हरेद्भागं नवशेषं तु गौरवम् ॥ अर्थ - सूर्य नक्षत्र से चन्द्र नक्षत्र तक की संख्या में वर्तमान तिथि और वार संख्या जोड़कर ७ से भाग देने पर यदि शेष ५ रहे तो टेलक योग होता है। तथा १२ से भाग देकर शेष तो गौरव नामक योग जानें।
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________________
मुहूर्तराज ]
[३९१ गौरव, हिम्बर, टेलक तथा घबाड योग के प्रयोजन
प्रवेशे गौरवं दद्यानिर्गमे हिम्बरं तथा ।
तस्करे टेलकं दद्याद् घबाड सर्वकर्मसु ॥ गेह प्रवेश समय में गौरव योग का, यात्रा में हिम्बर का, चौरी में टेलक का तथा अन्य समस्त कार्यों में घबाड का प्रयोग करें। (ङ) शत्रुञ्जय योग- प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
सिते लग्नगते सूर्ये लाभगे हिबुके विधौ ।
ततो राजा रिपुन्हन्ति केशरीवेभ संहतिम् ॥ अर्थ :- प्रयाणकालिक लग्न कुण्डली में यदि लग्न में शुक्र, एकादश में सूर्य चतुर्थभाव में चन्द्रमा, ऐसा योग हो तो उसमें यात्रा करने वाला राजा इस प्रकार शत्रु विनाश करता है जैसे अनेकों हाथियों को एकाकी सिंह। (च) कामदा योग- प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
वृषराशिगते चन्द्रे लाभस्थे केन्द्रगे गुरौ ।
कामधेनुरयं योगः कामदो यायिनो रणे ॥ __ अर्थ - वृष राशीय चन्द्र ११ वें भाव में तथा केन्द्र में गुरु हो तो यह कामदा नामक योग कहा जाता है इसमें यात्रा करने वाले की रण में कामनासिद्धि होती है। (छ) पुण्डरीक योग-प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
गुरौ कर्कटगे लग्न भानावेकादशस्थिते ।
पुण्डरीको महायोगः, शत्रुपक्षविनाशकृत् ॥ अर्थ - कर्क का गुरु लग्न में, तथा एकादशभाव में सूर्य तो पुण्डरीक नामक महायोग बनता है जो कि यात्रा में शत्रुविनाशकारी होता है। (ज) पूर्ण चन्द्र योग-प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
त्रिषष्ठलाभगेष्वेषु रविमन्दकुजेषु च ।
पूर्ण चन्द्रो महायोगः पूर्णराज्यप्रदः सदा ॥ ___ अर्थ - तृतीय भाव में सूर्य, षष्ठ भाव में शनि और ग्यारहवें भाव में मंगल हो तो पूर्णचन्द्रयोग होता है, यह योग यात्रा में राज्यदायक है।
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________________
३९२ ]
[ मुहूर्तराज (झ) मृगेन्द्रयोग- प्रयाणे सर्वार्थसाधक (बृहज्यौतिषसार)
लग्ने शुक्रे शशी बन्धौ कर्मस्थाने गुरुर्यदा ।
मृगेन्द्रयोगो विख्यातो यातुः सर्वार्थ साधक ॥ ___ अर्थ - यदि लग्न में शुक्र, चतुर्थ में चन्द्रमा, तथा दशमभाव में गुरु हो तो मृगेन्द्र नामक योग होता है। इसमें यात्रा करने वाले को सर्वार्थ सिद्धि प्राप्त होती है। () योग-अधियोग-योगाधियोग-- प्रयाणे प्रशस्त (बृहज्यौतिषसार)
एको ज्ञेज्यसितेषु पञ्चमतपः केन्द्रेषु योगस्तथा । द्वौ चेत्तेष्वधियोग एषु सकलाः योगाधियोगुः स्मृतः । योगे क्षेममथाधियोगगमने क्षेमं रिपूणां वधम् , चाथो क्षेमयशोऽवनीश्च लभते योगाधियोगे वजन् ॥
अर्थ - बुध गुरु और शुक्र इनमें से कोई एक यदि १, ४, ७, १०, ९, ५ में ही तो योग कोई दो ग्रह (उपर्युक्त ग्रहों में से) हो तो अभियोग और ऊपर लिखे तीनों हों तो योगाधियोग बनता है।
योग में यात्रा करने से कुशल, अधियोग में कुशल और शत्रुनाश एवं योगाधियोग में यात्रा करने से कुशल यश, तथा भूमि की प्राप्ति होती है। सूर्यादिवारों के विषय में विशेषज्ञातव्य- (बृहज्यौतिषसार)
रवि आदि वारों का व्यवहार दो प्रकार से है। एक तो सूतक (जानक या मृतक का) आदि में अहोरात्र (दिन+रात्रि) की गणना के लिए सूर्योदय से एवं तिथि नक्षत्र आदि की घटी, दिनमान घटी भी सूर्योदय से। किन्तु विवाह-यात्रा दि कृत्यों में विहित और निषिद्ध वार जो कि व्यवहार का दूसरा प्रकार है वह सूर्योदय से ही प्रवृत्त न होकर कभी सूर्योदय से पूर्व और कभी उसके पश्चात् से भी प्रवृत्त होता है, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ में जहाँ सूर्योदय हुआ था उसी स्थान के सूर्योदय काल में सर्वत्र वार का प्रवेश और अन्त होता है जिसका मान मध्यम सावन ६० घटी है। इष्टस्थान में वार प्रवृत्ति जानना___ मध्यरेखा (लंका-उज्जयिनी-कुरुक्षेत्र की दक्षिणोत्तर रेखा) से पूर्वदिशागत स्थानों में उन स्थानों का जितने मिनट देशान्तर हो उसे ६ घण्टों में योग करने से तथा उक्त मध्यरेखा से पश्चिम की ओर स्थित स्थानों में देशान्तर मिनटों को ६ घण्टों में घटाने पर आगत घं. मि. को तत्स्थानों में वार प्रवृत्ति जाननी चाहिए।
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________________
मुहूर्तराज ]
[३९३
उदाहरण- जोधपुर में मध्यरेखा से ३० पल = १२ मिनट पश्चिम देशान्तर है तो इसे ६ घण्टों पर घटाने पर = घं.-० मि.-० घं. १२ मि. = ५ घं. ४८ मिनट पर हमेशा जोधपुर में ख्यादि सभी वारों की प्रवृत्ति होगी मान लीजिए कि किसी सोमवार को जोधपुर में प्रातः ७ बजे सूर्योदय काल है तो उस दिन सोमवार की प्रवृत्ति ७ घं. ० मि.-५।४८ मि. = १० घं. १२ मि. सूर्योदय के पूर्व होगी। इसी प्रकार देशान्तर सारणी से अपने २ स्थानों के देशान्तर द्वारा वार प्रवृत्ति का समय ज्ञात किया जा सकता है। निषिद्ध या विहित वारों के भी दो प्रकार___यात्रा, विवाहादि, यज्ञ, गृह या कृष्यादि कार्यों में जो निषिद्ध वा विहित वार कहे गये हैं, वे भी दो प्रकार के हैं। एक स्थूलवार दूसरा सूक्ष्मवार। स्थूलवार पूर्ण २४ घण्टों का होता है और सूक्ष्मवार एक-एक घण्टे का होता है। जिसे होरा कहते हैं। अतः एक स्थूलवार में २४ सूक्ष्मवार या होराए होती हैं। सूक्ष्मवार को क्षणवार या कालहोरा नाम से भी व्यवहत किया जाता है। ऋषियों ने स्थूलवार से सूक्ष्मवार (क्षणवार या कालहोरा) को प्रबल बताया है। इसलिए यदि स्थूलवार किसी कार्य के लिए प्रशस्त हो और सूक्ष्मवार निषिद्ध हो तो उस समय में उस कार्य का परित्याग करना चाहिए। एवं यदि स्थूलवार निषिद्ध हो और सूक्ष्मवार प्रशस्त हो तो उस समय में कार्य का आरम्भ किया जा सकता है और उसमें स्थूलवार की निषिद्धता का दोष नहीं लगता। यथा-शनिवार में पूर्व की यात्रा एवं क्षौर कर्म निषिद्ध है, इस स्थिति में स्थूल शनिवार में जब सूक्ष्म रवि की होरा हो तब पूर्व की यात्रा एवं सूक्ष्म बुध की होरा हो तो क्षौर कर्म करने में दोष नहीं। एवं रविवार (स्थूल) में पूर्वयात्रा विहित है, किन्तु स्थूल रविवार में जब सूक्ष्म शनिवार आवे तब उसकी होरापर्यन्त = १ घण्टा तक पूर्व की यात्रा स्थगित करनी चाहिए अन्यथा दिशाशूल का दोष होगा। एतदर्थ ही महर्षियों ने स्वयं कहा है कि कार्यों में जो विहित या निषिद्धवार कहे गये हैं उनका तात्पर्य क्षणवार से ही है। यथा
यस्य ग्रहस्य वारे यत् कर्म किञ्चित् प्रकीर्तितम् । तत् तस्य कालहोरायां सर्वमेव विचिन्तयेत् ॥
___ उपर्युक्त वार प्रवृत्ति समय से आरम्भकर एक-एक घण्टा (होरा = २- घटी) का एक-एक क्षणवार होता है। प्रथम घण्टा (वारप्रवृत्ति से) उसी वारेश का क्षणवार ततः क्रमशः उस वार से छठे वारेश के क्षणवार होते हैं।
यथा- रविवार में प्रथम क्षणवार रवि का, दूसरा उससे छठे शूक्र का, तीसरा उससे छठे बुध का, और आगे भी बुध के पश्चात् चन्द्र, शनि, गुरु और मंगल का समझना चाहिए।
स्थूलवारों में क्षणवारों की स्पष्टता के लिए नीचे लिखी सारणी पर्याप्त रहेगी। चूंकि जोधपुर मध्यरेखा से १२ मिनट पश्चिम देशान्तर है अतः वहाँ प्रतिदिन वार प्रवृत्ति ६ घं. ० मि.- १२ मि. = ५ घं. ४८ मिनट पर ही होगी। इस वार प्रवृत्ति को सूर्योदय से पूर्व या पश्चात् जानने हेतु उस उस दिन के सूर्योदय काल में से वार प्रवृत्ति काल को (५-४८) घटा देना चाहिए।
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________________
३९४ ]
[ मुहूर्तराज ॥ अथ मध्यरेखा से १२ मिनट पश्चिम देशान्तरीत स्थानों में कालहोरा प्रवृत्ति निवृत्ति समय सारणी ॥
रवि
सोम
मंगल
बुध
गुरु
शुक्र
वार → होराक्रम एवं समय
शनि
प्रातः ५-४८
रवि
.
६-४८
शुक्र
FE
७-४८
बुध सोम
###
4
८-४८ ९-४८
६-४८ तक दिवा ७-४८ तक दिवा ८-४८ तक दिवा ९-४८ तक दिवा १०-४८ तक दिवा ११-४८ तक दिवा १२-४८ तक दिवा
शनि
१०-४८
गुरु.
११-४८
मंगल
मध्या.
१२-४८ १-४८
EF
####
२-४८
१-४८ तक दिवा २-४८ तक दिवा ३-४८ तक दिवा ४-४८ तक दिवा ५-४८ तक दिवा
सोम
३-४८ ४-४८ सायं
44.4444
4
F
मगल
रवि
शक्र
E
६-४८ तक सायं ७-४८ तक रात्रौ ८-४८ तक रात्रौ ९-४८ तक रात्रौ १०-४८ तक रात्रौ ११-४८ तक रात्रौ
####
बुध
#
सोम
५-४८ ६-४८ ७-४८ ८-४८ ९-४८ १०-४८ रात्रौ ११-४८ १२-४८ १-४८ २-४८ ३-४८ ४-४८
शनि
4
गुरु.
मंगल
१२-४८ तक रात्रौ १.४८ तक रात्री २-४८ तक रात्री ३-४८ तक रात्री ४-४८ तक रात्रौ ५-४८ तक रात्री
रवि .
###
.
शक्र
###
4
बुध
#
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________________
मुहूर्तराज ]
[३९५ किसी भी स्थान के दिनमान एवं सूर्योदयास्तसमय का ज्ञानोपाय- (बृ.ज्यौ.सा.)
किसी भी स्थान के दिनमान को जानने के लिए सर्वप्रथम उस स्थान के चरखण्ड ज्ञात करने पड़ते हैं। उनको जानने की विधि यह है
देशान्तर सारणी में लिखी हुई इष्ट स्थान की पलभा को १०, ८ और १० से गुणित करने पर क्रमशः प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरखण्ड में ३ का भाग देकर आगत लब्धि ही तृतीय चरखण्ड होता है।
अब जिस दिन का मान जानना हो तो उस दिन के स्पष्ट सूर्य की (प्रातःकालिक सूर्य) राशि अंश कला एवं विकला में अयनांश, कला और विकला का योग करें इस योग को सायनसूर्य अथवा सायनार्क कहा गया है। ___ ततः सायनसूर्य की भुज बनावें भुज बनाने की विधि यह है- यदि सायनसूर्य ३ राशि से अल्प हो तो वही भुज है, ३ राशि से ६ राशि तक हो तो उसे ६ राशि में से घटाएं, और ६ से अधिक ९ तक हो तो उसमें से ६ राशि घटाएं तथा इससे अधिक हो तो उसे १२ में से घटाएं, तो भुज बन जाता हैयथा
"दोस्त्रिभोनं त्रिभोवं विशेष्यं रसैश्चक्रतोंऽकाधिक स्याद्भुजोनं त्रिभय्" अब भुज की राशि के अंकानुसार चरखण्ड या दो चरखण्डों का योग कर एक ओर रखें ततः भुज के अंशादिकों को अग्रिम चरखण्ड से गुणाकर ३० का भाग देने पर लब्धि को उक्त चरखण्ड के योग में जोड़ दें, इसे चरपल कहते हैं। यदि चरपल ६० से अधिक हो तो घटीपल बना लें। उन घटी पलों को यदि सायनसूर्य ६ राशि से अल्प हो तो १५ घटी में जोड़ने से तथा यदि सायनसूर्य ६ राशि से अधिक हो तो १५ घटी में से घटाने पर इष्ट स्थान का दिनार्ध; दिनार्ध को दूना करने पर दिनमान तथा दिनमान को ६० घटिकाओं में से घटाने पर शेष रात्रिमान आ जाता है।
तथा दिनमान में ५ का भाग लगाने पर उस दिन का सूर्यास्त काल और रात्रिमान में ५ का भाग लगाने पर सूर्योदयकाल होता है यह सूयास्त एवं सूर्योदय काल घंटामिन्टालक होता है।
उदाहरण- शाके १९०४ आषाढ शुक्ला १५ तदनुसार दि. ६-७-८२ को जोधपुरीय दिनमान एवं सूर्योदय ज्ञात करना है, तो जोधपुर की पलभा ५।५६ स्वल्पान्तर से ६ मानकर १०८।१० से गुणा करने पर क्रमशः तीन चरखण्ड ६०।४८ = २० (६०।४८।२०) हुए। अब उस दिन के प्रातःकालिक स्पष्ट सूर्य राश्यादिक २।२०।२।१ हैं, इसमें अयन अंशादिकों = २०।१४।५४ का योग करने पर = २।२०।२।१ + ०।२२।१४।५४ = ३।१२।१६।५५ सायनसूर्य हुआ, यह चूंकि तीन से अधिक और ६ से अल्प हैं, अतः इसे ६ में से घटाने पर = ६।०।०।०-३।१२।१६।५५ = २।१७।४३५ यह भुज हुआ। इसमें
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________________
३९६ ]
[ मुहूर्तराज
राशि अंक २ हैं अतः क्रमिक दो चरखण्डों का योग ६० + ४८ = १०८ हुआ । सायनसूर्य के अंशादिकों को अग्रिम चरखण्ड २० से गुणा करके ३० का भाग देने पर लब्धि फल ११।४८ । ४३ स्वल्पान्तर से १२ पल हुए, इन्हें उक्त चरखण्ड योग १०८ में जोड़ने पर १०८ + १२ = १२० चरपल, इनकी घटियाँ २ हुईं। चूंकि सायनसूर्य ६ राशि से अल्प है अतः इन २ घटियों को १५ में जोड़ने से १५ + २ = १७ घटी दिनार्थ और ३४ घटी दिनमान तथा ६० ३४ = २६ घटी रात्रिमान । इसमें ५ का भाग लगाने पर ५ घं. १२ मिनट जोधपुर का स्थानीय सूर्योदयकाल हुआ। इसमें मध्यमान्तर मिनट संस्कार ३८, तथा वेलान्तर संस्कार मिनिट ५, को जोड़ने से ५ घं. १२ मिनिट + ० घं. ४३ मिनट (३८ + ५ = ४३) = ५ घं. ५५ मिनट स्टेण्डर्ड सूर्योदयकाल उक्त दि. ६।७।८२ का हुआ।
अयनांशसाधनप्रकार - (बृ. ज्यौ . सार)
ऊपर दिनमान ज्ञानोपाय में अयनांशादिकों को जो चर्चा की गई है, तदुपरि यह प्रश्न स्वाभाविक रूपेण उठता है कि अयन के अंशादिकों को किस प्रकार ज्ञात किया जाता है। तो इसके उत्तर में निम्न उल्लेख प्रस्तुत है
अर्थ इष्ट शकवर्षों में से ४२१ घटाकर शेष संख्या को ९ से गुणित कर १० से भाग दे जो लब्धि आए वे अयनकलाएं होती हैं, एवं तत्कालिक स्पष्टसूर्य को अंशात्मक बनाकर ३ से गुणा करके २० का भाग देने पर लब्धि अयन विकलाएँ होती हैं, इन्हें पूर्वागत कलाओं के नीचे की विकलाओं में जोड़कर ६० का भाग लगाने से अयनांश कला विकलाएं होती हैं।
एकद्विवेदोनशका नवघ्ना दिग्भिर्हताश्चायनलिप्निकास्ताः । अंशीकृताकत् ित्रिगुणान्नखाप्ततुल्याभिरेवं विकलाभिराढ्याः ॥
९
उदाहरण - दिनमानोक्त उदाहरणानुसार शकवर्षों १९०४ में से ४२१ घटाने पर १४८३ शेष रहे, इन्हें गुणा करने पर १८४३ x 9 = १३३४७ हुए, इनमें १० का भाग देने पर १३३४ क. ४२ वि. हुई इन्हें एक ओर रख दिया । ततः उस दिन के प्रातः कालिक स्पष्ट सूर्य २।२०।२।१ के अंशादिक ८०।२।१ को ३ से गुणा किया तो २४० । ६ । ३ हुए, इनमें २० का भाग देने पर १२।१८ वि. आईं इन विकलाओं को पूर्वागत क. वि. में जोड़ा गया = १२ १३३४ क. ५४ वि., इनमें ६० का भाग देने पर २२ अं. १४ क. ५४ वि. हुई यही अंशकला विकलात्मक अयन हुए ।
१३३४
४२ + ० -
से
-
यहाँ वार प्रवृत्ति में पूर्व पश्चिम देशान्तर (मध्यरेखा से) की तथा दिनमान में तत्तत्स्थानीय पलभाओं की चर्चा की गई है अतः कतिपय मुख्य-मुख्य नगरों के अक्षांश, पलभा, मध्यरेखा से देशान्तर तथा रेल्वे स्टेण्डर्ड समय से मध्यान्तर मिनटें, आदि बिन्दुओं के विषय में जानकारी के लिए नीचे एक सारणी दी जाती है इसे "देशान्तर सारणी” नाम से व्यवहृत किया गया है।
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________________
मुहूर्तराज ]
[३९७
॥ देशान्तर सारणी ॥
नगरनाम
अक्षांशाः
पलभाः
मध्यरेखा से देशान्तर
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
मिनट
अजमेर
१४ प.
mmm
अमरावती
अमृतसर
अमेठी
. ५० पू.
अयोध्या
अलवर
३
अलीगंज, हथुवा
अलीगढ़
अलमोड़ा
अहमदनगर
.
अहमदाबाद
आकोला
आगरा
आजमगढ़
आबू औतूकमन्दू ओंकारेश्वर औरंगाबाद
assosxxvssma
इन्दौर
इटावा उज्जयिनी उदयपुर
و
कटक
مو
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________________
३९८ ]
नगरनाम
कपूरथला
कलकत्ता
कर्नूल
कांकरोली
कांची
काठमांडू
नेपाल
कानपुर
काशी
काश्मीर
कालीकट
कुरुक्षेत्र
कृष्णगढ़, रा.
कोचीन
कोटा
कोल्हापुर
कोइमतूर
खण्डवा
गया
गाजीपुर
गिद्धौर
गौरखपुर
ग्वालियर
चित्रकूट
चैनपुर
छपरा
अंश
३१
२२
१५
२५
९
२७
२६
२५
३४
११
२९
२६
९
२५
१६
१०
२१
२४
२५
२४
२६
२६
२५
२५
२५
अक्षांशाः
कला
२३
३२
४९
o
२९
४५
२८
१८
६
१४
५५
३३
५८
१०
४२
५८
५०
४९
३५
५१
४५
१२
१२
२
४७
|| देशान्तर सारणी ॥
अंगु.
४
६
4
८
२
६
६
२
५
५
4
५
पलभाः
व्यंगु.
१९
५९
२४
३६
०
१९
५८
४०
6
२५
५४
३८
३६
२०
४८
३३
४५
३३
३
५४
३९
३६
४८
घ.
२
१
१
o
०
०
१
१
१
१
मध्यरेखा से
देशान्तर
प.
७ पस
२ पू.
२४ पू.
२१ प.
१७ पू.
३१ पू.
४२ पू.
९ पू.
१३ प.
१ पू.
११ प.
२ पू.
२ प.
१८ प.
१८ पू.
६ पू.
२९ पू.
१५ पू.
४२ पू.
१२ पू.
२१ पू.
४८ पू.
१४ पू.
२६ पू.
[ मुहूर्तराज
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
मिनट
- २८
+२३
-१७
-३४
- १९
+११
-8
+२
-३१
- २७
-२६
-३०
-२५
- २७
-३३
-२०
- २५
+ १०
+४
+ १५
+३
- १७
+४
+९
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मुहूर्तराज ]
[३९९
॥ देशान्तर सारणी ॥
नगरनाम
अक्षांशाः
पलभाः
मध्यरेखा से देशान्तर
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
मिनट
जगन्नाथपुरी
مر
+१३
जबलपुर
مر
जम्बू
م
जयपुर
و
जामनगर.
م
जींद
قو
-२४
जूनागढ़, सौ.
م
जोधपुर
३० प.
।
८
जौनपुर
+ +
هيو
झालरापाटन
کیا
झाँसी
ک
त्रिचनापल्ली त्रिपति टेकारी
هو مم مي بر مي ه
| | row w
| | +
ک
مو
टौक
।
ه
।
+७
+
टोंका डुमरांव ढाका तन्जावर त्रिविन्द्रम् दरभंगा देहली
|
مو مو مو مو مو مو م
|
+
।
द्वारिका
।
م
।
दौलताबाद धवलपुर
।
مي
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४०० ]
[ मुहूर्तराज
॥ देशान्तर सारणी ॥
नगरनाम
अक्षांशाः
पलभाः
मध्यरेखा से देशान्तर
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
अंश
अंगु.
मिनट
नवलगढ़
नागपुर
नाभा
नाथद्वारा
नासिक
नीमच
AU
नैनीताल
पटना
+११
पटियाला
पंढरपुर
पुर्निया
له
+
पूना
بله
।
पेशावर पोरबन्दर प्रतापगढ़
-५२
प्रयाग
फरक्खाबाद फरीदकोट विसाऊ
बैंगलूर
. ००४ WW 6 6 6 6 MM
|बड़ौदा
बम्बई बरेली बर्दवान बलरामपुर
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________________
मुहूर्तराज ]
[४०१
॥ देशान्तर सारणी ॥
नगरनाम
अक्षांशाः
पलभाः
मध्यरेखा से देशान्तर
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
प.
मिनट
बहराइच
مو
बाँदा
مو
बाँसवाडा
م
बीकानेर
م
م
बूंदी बुहरामपुर बेतिया
م
+२८
भरतपुर भागलपुर भावनगर भोपाल मछलीपट्टन
-४१
مو مو مو مو مو مو مو مو مو مي مي
मदुरा
मकसूदाबाद मण्डी
मथुरा मद्रास माण्डवी, कच्छ
मिरज
و
मिर्जापुर
-३१ +०
मुंगेर
مو مو و
मुलतान मैसूर रतलाम रत्नागिरि राजकोट
مو و
و
و
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________________
४०२ ]
नगरनाम
रामेश्वर
रायपुर
रावलपिण्डी
रीवाँ
लखनऊ
लन्दन, विलायत
लाहौर
लोहरदगा
वीजापुर
वटेश्वर
विजयनगरम्
शिकारपुर, सिन्ध
शिमला
श्रीरंगपट्टन
सांवतवाडी
सातारा
सपाट्
सागर
सिरोज
सिहोर
सूरत
सोलापुर
हरदा
हरिद्वार
हैदराबाद
दक्षिण
हैदराबाद सिन्ध
अंश
९
२१
३३
२४
२६
५१
३१
२३ १६
२६
1m m w
१८
२७
३१
१२
१५
१७
३०
२३
२४
२३
२१
१७
२२
२९
१७
२५
अक्षांशाः
कला
१८
१५
३७
३१
५५
३१
३५
२७
४८
४८
७
५७
६
२६
१४
५२
५८
५०
६
१२
१२
४०
२१
५८
२३
२५
॥ देशान्तर सारणी ॥
अंगु
१
w x 9 5 w
५
६
१५
७
५
३
६
३
६
२
३
३
५
५
६
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पलभाः
व्यंगु.
५८
४०
५९
२८
६
६
२३
१२
३७
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५६
२२
१४
३९
२५
५२
१२
१८
२२
९
३९
४९
५६
५५
४५
४२
घ.
मध्यरेखा से
देशान्तर
१२
१
१
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o
O
१
प.
३२ पू.
५६ पू.
३१ प.
५२ पू.
४९ पू.
४२ प.
१७ प.
२७ पू.
१४ प.
२३ पू.
१३ पू.
१५ पू.
११ प.
६ पू.
१९ प.
२१ पू.
९ प.
२६ पू.
१६ पू.
१० पू.
३२ प.
२ प.
११ पू.
२१ पू.
२४ पू.
१७ प.
[ मुहूर्तराज
स्टेण्डर्ड समय
से अन्तर
मिनट
-१३
-३
-३८
ܬ
- ६
-३३०
-३२
+९
-२७
-१६
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-२१
-२३
-३५
-३४
-२२
- १५
-१९
-२२
-३८
- २६
-३१
-१७
- १६
-५६
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________________
मुहूर्तराज ]
परिशिष्ट (४)
ज्योतिष शास्त्र की प्राचीनता पर प्रकाश डालते हुवे प्रारम्भ से जैनाचार्यों ने समय-समय पर साहित्य की रचना की, जिसका विवरण श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान हिन्दु यूनिवर्सिटी वाराणसी से प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ५ से ज्योतिष विषय साभार उद्धृत किया है। जिससे ज्योतिष एवं जैनाचार्यों की देन विषय पाठक पूर्णत: समझ सके ।
* संयोजक * ज्योतिष विशारद् मुनि जयप्रभविजय " श्रमण "
[ ४०३
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________________
४०४ ]
ज्योतिष
:
ज्योतिष विषयक जैन आगम ग्रन्थों में निम्नलिखित अंगबाह्य सूत्रों का समावेश होता है। १. सूर्य प्रज्ञप्ति २. चन्द्र प्रज्ञप्ति २, ३. ज्योतिष्करण्डक े, ४. गणिविद्या।
ज्योतिस्सार :
ठक्कर फेरू ने “ज्योतिष्सार” नामक ग्रन्थ' की प्राकृत रचना की है। उन्होंने इस ग्रन्थ में लिखा है कि हरिभद्र, नरचन्द्र, पद्मप्रभसूरि, जउण, वराह, लल्ल, परासर, गर्ग आदि ग्रन्थकारों के ग्रन्थों का अवलोकन करके इसकी रचना (वि.सं. १३७२-७५ के आसपास) की है।
चार द्वारों में विभक्त इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर २३८ गाथाएं हैं। दिन शुद्धि नाम द्वारा में ४२ गाथाएं हैं, जिनमें वार, तिथि, और नक्षत्रों में सिद्धियोग का प्रतिपादन है । व्यवहार द्वार में ६० गाथाएं हैं। जिनमें ग्रहों की राशि स्थिति, उदय, अस्त और वक्र दिन की संख्या का वर्णन है। गतिद्वार में ३८ गाथाएं हैं और लग्न द्वार में ९८ गाथाएं हैं। इनके अन्य ग्रन्थों के बारे में अन्यत्र लिखा गया है।
विवाहपडल (विवाहपटल) :
'विवाह पडल' के कर्त्ता अज्ञात है। यह प्राकृत में रचित एक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ है, जो विवाह के समय काम में आता है। इसकी उल्लेख 'निशीथ विशेषचूर्णि' में मिलता है।
लग्नसुद्धि (लग्न शुद्धि) :
'लग्न सुद्धि' नामक ग्रन्थ के कर्त्ता याकिनी महत्तरासून हरिभद्रसूरि माने जाते हैं। परन्तु यह संदिग्ध मालुम होता है। यह 'लग्नकुण्डलिका' नाम से प्रसिद्ध है। प्राकृत की कुल १३३ गाथाओं में गोचरशुद्धि, प्रतिद्वारदशक, मास वार तिथि, नक्षत्र, योग शुद्धि, सुगणदिन, रजछन्नद्वार, संक्रांति, कर्कयोग वार नक्षत्र, अशुभयोग, सुगणार्क्षद्वार, होरा, नवांश, द्वादशांश, षडवर्गशुद्धि, उदयास्तशुद्धि इत्यादि विषयों पर चर्चा की गई है।
६
१.
२.
३.
४.
[ मुहूर्तराज
५.
६.
सूर्य प्रज्ञप्ति के परिचय के लिये देखिए जैन साहित्य का वृहद् इतिहास का भाग २ पृष्ठ १०५ - ११० ।
चन्द्र प्रज्ञप्ति के परिचय के लिये देखिये वही पृष्ठ ११० ।
ज्योतिष्करण्डक के परिचय के लिये देखिए - भाग ३ पृष्ठ ४२३- ४२७ इस प्रकीर्णक के प्रणेता संभवतः पादलिप्ताचार्य है। गणिविद्या के परिचय के लिये देखिए भाग २, पृष्ठ ३५९ । इन सब ग्रन्थों की व्याख्या के लिये इसी इतिहास ( जैन साहित्य का वृहद् इतिहास) का तृतीय भाग देखना चाहिये ।
यह (रत्नपरीक्षादिसप्तग्रन्थसंग्रह ) में राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर से प्रकाशित है।
यह ग्रन्थ उपाध्याय क्षमाविजयजी द्वारा सम्पादित होकर शाह मूलचन्द बुलाखीदास की ओर से सन् १९३८ में बम्बई से प्रकाशित हुआ है।
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________________
मुहूर्तराज ]
दिणसुद्धि : दिनशुद्धि :
पन्द्रहवीं शती में विद्यमान रत्नशेखरसूरि ने दिनशुद्धि नामक ग्रन्थ की प्राकृत में रचना की है। इसमें १४४ गाथाएं है। जिनमें रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि का वर्णन करते हुए तिथि, लग्न, प्रहर, दिशा और नक्षत्र की शुद्धि बताई गई है। '
काल संहिता :
'काल संहिता' नाम कृति आचार्य कालक ने रची थी, ऐसा उल्लेख मिलता है। वराहमिहिरकृत 'बृहज्जातक' (१६।१) की उत्पलकृत टीका में 'बंकलका' चार्यकृत 'बंकालकसंहिता' से दो प्राकृत पद्य उद्धृत किये गये। ‘बंकालकसंहिता' नाम अशुद्ध प्रतीत होता है। यह 'कालकसंहिता होनी चाहिये ऐसा अनुमान होता है। यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है।
कालकसूरि ने किसी निमित्त ग्रन्थ का निर्माण किया था, यह निम्न उल्लेख से ज्ञात होता है :पढमणुओगे कासी, जिणचक्किदसारचरियपुव्वभवे । कालगसूरि बहुयं लोगाणुओगे
निमित्तं च ॥
गणहरहोरा : गणधरहोरा :
'गणहरहोरा' नामक यह कृति किसी अज्ञातनामा विद्वान ने रची है। इसमें २९ गाथाएं हैं। मंगलाचरण में 'नमिऊण इंदूभई' उल्लेख होने से यह किसी जैनाचार्य की रचना प्रतीत होती है। इसमें ज्योतिष विषयक होरासम्बन्धी विचार है। इसके ३ पत्रों की एक प्रति पाटन के जैन भंडार में है ।
[ ४०५
प्रश्नपद्धति :
‘प्रश्नपद्धति' नामक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ की हरिश्चन्द्र गणि ने संस्कृत में रचना की है । कर्त्ता ने निर्देश दिया है कि गीतार्थचुडामणी आचार्य अभय देव सूरि के मुख से प्रश्नों का अवधारण कर उन्हीं की कृपा से इस ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ कर्त्ता ने अपने ही हाथ से पाटन के अन्नपाटक चार्तुमास की अवस्थिति के समय लिखा है।
जोइसदार : ज्योतिषद्वार :
'जोइसदार' नामक प्राकृत भाषा की २ पत्रों की कृति पाटन के जैन भंडार में है इसके कर्त्ता का नाम अज्ञात है। इसमें राशि और नक्षत्रों से शुभाशुभ फलों का वर्णन किया गया है।
जोइसचक्कबियार : ज्योतिषचक्रविचार :
जैन ग्रन्थावली (पृष्ठ ३४७) में 'जोइसचक्कवियार' नामक प्राकृत भाषा की कृति का उल्लेख है। इस ग्रन्थ का परिमाण १५५ ग्रन्थाग्र है । इसके कर्त्ता का नाम विनयकुशल मुनि निर्दिष्ट है ।
१.
यह ग्रन्थ उम्पाध्याय क्षमाविजयजी द्वारा संपादित होकर शाह मूलचन्द बुलाखीदास, बम्बई की ओर से सन् १९३८ में प्रकाशित हुआ है।
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४०६ ]
भुवनदीपक :
'भुवनदीपक' का दूसरा नाम 'गहभावप्रकाश' है' इसके कर्त्ता आचार्य पद्मप्रभसूरि' है। ये नागपुरीय तपागच्छ के संस्थापक है । इन्होंने वि.सं. १२२१ में 'भुवनदीपक' की रचना की ।
यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी महत्वपूर्ण है। इसमें ३६ द्वार ( प्रकरण) है। १. ग्रहों के अधिप, २ . ग्रहों की उच्च निच्च स्थिति, ३ परस्पर मित्रता, ४. राहु विचार, ५. केतु विचार, ६. ग्रह चक्रों का स्वरूप, ७. बारह भाव, ८. अभिष्ट काल निर्णय, ९. लग्न विचार, १०. विनष्ट ग्रह, ११. चार प्रकार के राजयोग, १२. लाभ विचार, १३ लाभ फल, १४. गर्भ की क्षेमकुशलता, १५. स्त्रीगर्भ प्रसूति. १६. दो सन्तानों का योग, १७. गर्भ के महिने, १८. भार्या, १९. विषकन्या, २०. भावों ग्रह, २१. विवाह विचारणा, २२. विवाद, २३. मिश्रपद निर्णय, २४. पृच्छा निर्णय, २५. प्रवासी का गमनायमन, २६. मृत्यु योग, २७ दुर्गमंग, २८. चौर्यस्थान, २९. अर्धज्ञान, ३०. भरण, ३१. लाभोदय, ३२. लग्न का मासफल, ३३. द्रेवकाणफल, ३४. दोषज्ञान, ३५. राजाओं की दिनचर्या, ३६. इस गर्भ में क्या होगा? इस प्रकार कुल १७० श्लोकों में ज्योतिष विषयक अनेक विषयों पर विचार किया गया है।
१. भुवनदीपक वृत्ति :
'भुवनदीपक वृत्ति' पर आचार्य सिंह तिलक सूरि ने वि.सं. १३२६ में १७०० श्लोक प्रमाण वृत्ति की रचना की है। सिंह तिलक सूरि ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे। इन्होंने श्रीपति के 'गणिततिलक' पर भी एक महत्वपूर्ण टीका लिखी है।
सिंह तिलक सूरि, विबूधचन्द्र सूरि के शिष्य थे। इन्होंने वर्द्धमान विद्याकल्प मंत्रराजरहस्य आदि ग्रन्थों की रचना की है।
२. भुवनदीपक वृत्ति :
मुनि हेमतिलक ने ‘भुवनदीपक' पर एक वृत्ति रची है। समय अज्ञात है ।
३. भुवनदीपक वृत्ति :
[ मुहूर्तराज
देवज्ञ शिरोमणी ने 'भुवनदीपक' पर एक विवरणात्मक वृत्ति की रचना की है। समय ज्ञात नहीं है। ये टीकाकार जैनेतर है।
४. भुवनदीपक वृत्ति :
किसी अज्ञातनामा जैन मुनि ने 'भुवनदीपक' पर एक वृत्ति रची है। समय अज्ञात है।
१. ग्रहभावप्रकाशाख्यं शास्त्रमेतत् प्रकाशितम् ।
जगद्भावप्रकाशाय श्री पद्मप्रभसूरिभिः ॥
२.
आचार्य पद्मप्रभसूरि ने 'मुनिसुर्वत चरित' की रचना की है, जिसकी वि.सं. १३०४ में लिखी गई प्रति जेसलमेर भंडार में विद्यमान है।
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मुहूर्तराज ]
[४०७ ऋषिपुत्र की कृत्ति : ___ गर्गाचार्य के पुत्र और शिष्य ने निमित्तशास्त्र सम्बन्धी किसी ग्रन्थ का निर्माण किया है। ग्रन्थ प्राप्य नहीं है। कई विद्वानों के मत से उनका समय देवल के बाद और वहाहमिहिर के पहले कहीं है। भट्टोत्पली टीका में ऋषिपुत्र के सम्बन्ध में उल्लेख है। इससे वे शक सं. ८८८ (वि.सं. १०२३) के पूर्व हुए। यह निर्विवाद
आरम्भ सिद्धि : ____नागेन्द्र गच्छिय आचार्य विजयसेन सूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि ने 'आरम्भ सिद्धि'' (पंचविमर्श) ग्रन्थ की रचना (वि.सं. १२८०) संस्कृत में ४१३ पद्यों में की है।
इस ग्रन्थ में पांच विमर्श है और ११ द्वारों में इस प्रकार विषय है। १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. सिद्धि आदि योग, ५. राशि, ६. गोचर, ७. विद्यारम्भ आदि कार्य, ८. गमन, यात्रा, ९. ग्रह आदि का, वास्तु, १०. विलग्न, ११. मिश्र।
इसमें प्रत्येक कार्य के शुभ अशुभ मुहूर्तों का वर्णन है। मुहूर्त के लिये 'मुहूर्त चिंतामणी' ग्रन्थ के समान ही यह ग्रन्थ उपयोगी और महत्वपूर्ण है। ग्रन्थ का अध्ययन करने पर कर्ता की गणित विषयक योग्यता का भी पता लगता है।
इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य उदयप्रभसूरि मल्लिषेणसूरि और जिनभद्रसूरि के गुरु थे। उदयप्रभसूरि ने धर्माभ्युदय महाकाव्य, नेमिनाथ चरित, सुकृत कीर्तिकल्लोनी काव्य एवं वि.सं. १२९९ में 'उवएसमाला' पर 'कर्णिका' नाम से टीका ग्रन्थ की रचना की है। 'छासीई' और 'कम्मत्थय' पर टिप्पण आदि ग्रन्थ रचे हैं। गिरनार के वि.सं. १२८८ के शिलालेखों में से एक शिलालेख की रचना इन्होने की है। आरम्भ सिद्धि वृत्ति : __ आचार्य रत्नशेखर सूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने वि.सं. १५१४ में 'आरम्भ सिद्धि' पर 'सुधीशृंगार' नाम से वार्तिका रचा है। टीकाकार ने मुहूर्त सम्बन्धी साहित्य का सुन्दर संकलन किया है। टीका में बीच-बीच में ग्रह गणित विषयक प्राकृत गाथाएं उद्धृत की है जिससे मालुम पड़ता है कि प्राकृत में ग्रह गणित का कोई ग्रन्थ था। उसके नाम का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। मण्डल प्रकरण :
आचार्य विजयसेन सूरि के शिष्य मुनि विनयकुशल ने प्राकृत भाषा में ९९ गाथाओं में 'मण्डल प्रकरण' नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. १६५२ में की है।
ग्रन्थकार ने स्वयं निर्देश किया है कि आचार्य मुनि चन्द्रसूरि ने 'मण्डल कुलक' रचा है, उसको आधारभूत मानकर ‘जीवाजीवाभिगम' की कई गाथाएँ लेकर इस प्रकरण की रचना की गई है। यह कोई नवीन रचना नहीं है।
१.
यह हेमहंसकृत वृति सहित जैन शासन प्रेस, भावनगर से प्रकाशित है।
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________________
४०८ ]
[ मुहूर्तराज ज्योतिष के खगोल विषयक विचार इसमें प्रदर्शित किये गये हैं। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है। ___ मण्डल प्रकरण टीका : 'मण्डल प्रकरण' पर मूल प्राकृत ग्रन्थ के रचियता विनय कुशल ने ही स्वो पज्ञ टीका करीब वि.सं. १६५२ में लिखी है, जो १२३१ ग्रन्थान प्रमाण है। यह टीका छपी नहीं है।' भद्रबाहु संहिता : ____ आज जो संस्कृत में 'भद्रबाहु संहिता' नाम का ग्रन्थ मिलता है वह तो आचार्य भद्रबाहु द्वारा प्राकृत में रचित ग्रन्थ के उद्धार के रूप में है। ऐसा विद्वानों का मन्तव्य है। वस्तुतः भद्रबाहु रचित ग्रन्थ प्राकृत में था जिसका उद्धरण उपाध्याय मेघविजयजी द्वारा रचित वर्ष प्रबोध ग्रन्थ (पृष्ठ ४२६-२७) में मिलता है। यह ग्रन्थ प्राप्त न होने से इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है। ___ इस नाम का जो ग्रन्थ संस्कृत में रचा हुआ प्रकाश में आया है उसमें २७ प्रकरण इस प्रकार है। १. ग्रन्थाग्रसंचय, २-३ उल्कालक्षण, ४. परिवेषवर्णन, ५. विद्युल्लक्षण, ६. अग्रलक्षण, ७. संध्यालक्षण, ८. मेघकाण्ड, ९. वातलक्षण, १०. सकलमार समुच्चय वर्षण, ११. गन्धर्वनगर, १२. गर्भवातलक्षण, १३. राज यात्राध्याय, १४. सकल शुभाशुभ व्याख्यान विधान कथन, १५. भगवत्रिलोकपति दैत्यगुरु, १६. श्नेश्चरचार, १७. बृहस्पतिचार, १८. बुधचार, १९. अंगारक चार, २०-२१. राहुचार, २२. आदित्यचार, २३. चन्द्रचार, २४. ग्रहयुद्ध, २५. संग्रहयोगार्ध काण्ड, २६. स्वप्नाध्याय, २७. वस्त्र व्यवहार निमित्तक, परिशिष्ठाध्याय-वस्त्र विच्छेदनाध्याय।
कई विद्वान इस ग्रन्थ को भद्रबाहु का नहीं अपितु उनके नाम से अन्य द्वारा रचित मानते हैं। मुनि श्री जीनविजयजी इसे बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। जब कि पं. श्री कल्याणविजयजी इस ग्रन्थ को पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद का मानते हैं। इस मान्यता का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इसकी भाषा बिलकुल सरल एवं हल्की कोटि की संस्कृत है। रचना में अनेक प्रकार की विषय सम्बन्धी तथा छन्दों विषयक अशुद्धियाँ हैं। इसका निर्माता प्रथम श्रेणी का विद्वान नहीं था। 'सोरठ' जैसे शब्द प्रयोगों से भी इसका लेखक पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी का ज्ञात होता है। इसके सम्पादक पं. नेमीचन्द्रजी इसे अनुमानतः अष्टम शताब्दी की कृति बताते हैं। उनका यह अनुमान निराधार है।
पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इसे सत्रहवीं शती के एक भट्टारक के समय की कृति बताया है। जो ठीक मालुम होता है। ज्योतिषसार :
___ आचार्य नरचन्द्रसूरि ने 'ज्योतिषसार' (नारचन्द्र ज्योतिष) नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. १२८० में २५७ पदों में की है। ये मलधारी गच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे।
१.
इसकी प्रति ला. द. भा. संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में है। हिन्दी भाषानुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीठ, काशी सन् १९५९। देखिए निबन्ध निचय पृष्ठ २९७।
३.
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________________
मुहूर्तराज ]
[ ४०९
इस ग्रन्थ में कर्त्ता में निम्नोक्त ४८ विषयों पर प्रकाश डाला है । १. तिथि, २. वार, ३. नक्षत्र, ४. योग, ५. राशि, ६. चन्द्र ७. तारकाबल, ८. भद्रा, ९. कुलिक, १०. उपकुलिक, ११. कण्टक, १२. अर्द्धप्रहर, १३. कालवेला, १४. स्थविर, १५ - १६. शुभ अशुभ, १७ से १९. रव्युकुमार, २०. राजादियोग, २१. गण्डान्त, २२. पंचक, २३. चन्द्रावस्था, २४. त्रिपुष्कर, २५. यमल, २६. करण, २७. प्रस्थानक्रम, २८. दिशा, २९. नक्षत्र शुल, ३०. कील, ३१. योगिनी, ३२. राहु, ३३. हंस, ३४. रवि, ३५. पाश, ३६. काल, ३७. वत्स, ३८. शुक्रगति, ३९. गमन, ४० स्थान, नाम, ४१. विद्या, ४२. क्षोर, ४३. अम्बर, ४४. पात्र, ४५. नष्ट, ४६. रोगविगम, ४७. पैत्रिक, ४८. गेहारम्भ । १
नरचन्द्रसूरि ने चतुर्विंशतिजिन स्त्रोत, प्राकृत दीपिका अनर्घराघव टिप्पण न्यायकन्दली टिप्पण और वस्तुपाल प्रशस्ति रूप (वि.सं. १२८८) का गिरनार के जिनालय का शिलालेख आदि रचे हैं। इन्होने अपने गुरु आचार्य देवप्रभसूरि रचित पांडव चरित्र और आचार्य उदयप्रभसूरि रचित " धर्माभ्युदयकार्य का संशोधन किया है।
आचार्य नरचन्द्रसूरि के आदेश से मुनि गुणवल्लभ ने वि. सं. १२७१ में 'व्याकरणचतुष्कारवचूरि' की
रचना की।
ज्योतिषसार टिप्पण :
आचार्य नरचन्द्रसूरि रचित ज्योतिषसार ग्रन्थ पर सागरचन्द्र मुनि ने १३३५ श्लोक प्रमाण टिप्पण की रचना की है। खासकर ज्योतिषसार में दिये हुए यंत्रों का उद्धार और उस पर विवेचन किया है। मंगलाचरण में कहा गया है। :
सरस्वती नमस्कृतय, यन्त्रकोद्धार टिप्पणं । करिष्ये नारचन्द्रस्य, मुग्धानां बोधहेतेव ॥
यह टिप्पणी अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है।
जन्म समुद्र :
'जन्मसमुद्र' ग्रन्थ के कर्त्ता नरचन्द्र उपाध्याय है जो कासहाद्गच्छ के उद्योतनसूरि के शिष्य सिंहसूरि के शिष्य थे। उन्होंने वि.सं. १३२३ में इस ग्रन्थ की रचना की । आचार्य देवानन्दसूरि को अपने विद्यागुरु के रूप में स्वीकार करते हुए निम्न शब्दों में कृतज्ञताभाव प्रदर्शित किया है :
देवानन्दमुनिश्वरपदपंकजसेवकषट्चरणः
1
ज्योतिः शास्त्रमकार्षीद् नरचन्द्राख्यो मुनिप्रवरः ॥
यह ज्योतिष विषयक उपयोगी लाक्षणिक ग्रन्थ है। जो निम्नोक्त ८ कल्लोलो में विभक्त है।
१. गर्भ संभावदिलक्षण (पद्य ३१), २. जन्म प्रत्यय लक्षण (पद्य २९), ३. रिष्ठयोगतद् मंगलक्षण (पद्य १० ), ४. निर्वाणलक्षण (पद्य २०), ५. द्रव्योंपार्जन राजयोगलक्षण (पद्य २६ ), ६. बालस्वरूप लक्षण (पद्य २०), ७. स्त्रीजातक स्वरूपलक्षण (पद्य १८), ८. नाभसादिर्योगदीक्षा वस्थायुयोग लक्षण (पद्य २३) ।
१. यह कृति पं क्षमाविजयजी द्वारा सम्पादित होकर सन् १९३८ में प्रकाशित हुई है।
-:
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________________
४१० ]
[ मुहूर्तराज इसमें लग्न और चन्द्रमा से समस्त फलों का विचार किया जाता है। जातक का यह अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है। बेड़ाजातक वृत्ति :
'जन्म समुद्र' पर नरचन्द्र उपाध्याय ने 'बेड़ाजातक' नामक स्वोपज्ञ-वृति की रचना वि. सं. १३२४ की माघ शुक्ला अष्टमी (रविवार) के दिन की है। यह वृत्ति १०५० श्लोक प्रमाण है। यह ग्रन्थ अभी छपा नहीं है।
नरचन्द्र उपाध्याय ने प्रश्न शतक ज्ञानचतुर्विशिका, लग्न विचार, ज्योतिषा प्रकाश, ज्ञान दीपिका आदि ज्योतिष विषयक अनेक ग्रन्थ रचे हैं। प्रश्न शतकः
कासवाद्गच्छीय नरचन्द्र उपाध्याय ने 'प्रश्न शतक' नामक ज्योतिष विषयक ग्रन्थ वि.सं. १३२४ में रचा है। इसमें करीब सौ प्रश्नों का समाधान किया है। यह ग्रन्थ छपा नहीं है। प्रश्न शतक अवचूरिः
नरचन्द्र उपाध्याय ने अपने 'प्रश्न शतक' ग्रंथ पर वि. सं. १३२४ में स्वोपज्ञ अवचूरि की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है। ज्ञान चतुर्विशिका :
कासहाद्गच्छीय उपाध्याय नरचन्द्र ने 'ज्ञान चतुर्विशिका' नामक ग्रन्थ की २४ पद्यों में रचना करीब वि. सं. १३२५ में की है। इसमें लग्नानयन, होराद्यायनयन, प्रश्नाक्षराल्लग्नानयन, सर्वलग्नग्रह बल, प्रश्न योग, पतितादिज्ञान पुत्र-पुत्रीज्ञान, दोषज्ञान, जयपृच्छा, रोगपृच्छा आदि विषयों का वर्णन है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। ज्ञान चतुर्विशिका अवचूरि :
_ 'ज्ञान चतुर्विशिका' पर उपाध्याय नरचन्द्र के करीब वि. सं. १३२५ में स्वोपज्ञ अवचूरि की रचना की है। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है। ज्ञान दीपिका :
कासहाद्गच्छीय उपाध्याय नरचन्द्र ने ज्ञान दीपिका नामक ग्रन्थ की रचना करीब वि. सं. १३२५ में की है। लग्न विचार :
कासहाद्गच्छीय उपाध्याय नरचन्द्र ने लग्न विचार नामक ग्रन्थ की रचना करीब वि. सं. १३२५ में की है।
१.
यह कृति अभी छपी नहीं है। इसकी ७ पज्ञों की हस्त लिखित प्रति ला. द. भा. सं. विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में है। यह प्रति १६ वीं शताब्दी में लिखी गई है। इसकी एक पत्र की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में है। यह वि. सं. १७०८ में लिखी गई है।
२.
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मुहूर्तराज ]
[४११ ज्योतिष प्रकाश :
कासहाद्गच्छीय नरचन्द्र मुनि ने 'ज्योतिष प्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना करीब वि. सं. १३२५ में की है। फलित ज्योतिष के मुहूर्त और संहिता का यह सुन्दर ग्रन्थ है। इसके दूसरे विभाग में जन्म कुण्डली के फलों का अत्यन्त सरलता से विचार किया गया है। फलित ज्योतिष का आवश्यक ज्ञान इस ग्रन्थ द्वारा प्राप्त हो सकता है। चतुर्विशिकोद्धार :
कासहाद्गच्छीय नरचन्द्र उपाध्याय ने 'चतुर्विशिकोद्धार' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना करीब वि. सं. १३२५ में की है। प्रथम श्लोक में ही कर्ता ने ग्रन्थ का उद्देश्य इस प्रकार बताया है।
श्रीवीराय जिनेशाय नत्वातिशयशालिने ।
प्रश्न लग्न प्रकारोअयं संक्षेपात् क्रियते मया । इस ग्रन्थ में प्रश्न लग्न का प्रकार संक्षेप में बताया गया है। ग्रन्थ में मात्र १७ श्लोक हैं, जिनमें होराद्यानयन, सवलग्नगहबल, प्रश्नयोग पतितादिज्ञान, जयाजय पृच्छा आदि विषयों की चर्चा है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही ज्योतिष सम्बन्धी महत्वपूर्ण गणित बताया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त गूढ़ और रहस्यपूर्ण है। निम्न श्लोक में कर्ता ने अत्यन्त कुशलता से दिनमान सिद्ध करने की रीति बताई है।
पंचवेदयामगुण्ये दरविमुक्तदिनान्विते ।
त्रिंशदभुक्ते स्थितं यत तत् लग्नं सूर्योदयक्षतः ॥ यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है।' चतुर्विशिकोद्धार अवचूरि :
'चतुर्विशिकोद्धार' ग्रन्थ पर नरचन्द्र उपाध्याय ने अवचूरि भी रची है। यह अवचूरि प्रकाशित नहीं
ज्योतिष्सार संग्रह :
नागोरी तपागच्छीय आचार्य चन्द्रर्कितिसूरि के शिष्य हषर्कितिसूरि ने वि. सं. १६६० में 'ज्योतिषसार संग्रह' नामक ग्रंथ की रचना की है। इसे 'ज्योतिषसारोद्धार' भी कहते है। यह ग्रन्थ तीन प्रकरणों में विभक्त
ग्रन्थकार ने भक्तामर, लघुशान्तिस्त्रोत, अजितशान्तिस्तव, उवसग्गहरंथोत, नवकार मन्त्र, आदि स्त्रोतों पर टीकाएँ लिखी है। १. जन्मपत्री पद्धति : ___नागोरी तपागच्छीय आचार्य हषर्कितिसूरि ने करीब वि. सं. १६६० में 'जन्मपत्री पद्धति' नामक ग्रन्थ की रचना की है।
इसकी एक पत्र की प्रति अहमदाबाद के ला. द. भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर में है। अहमदाबाद के डेला के उपाश्रय भंडार में इसकी हस्त लिखित प्रति है।
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४१२ ]
[ मुहूर्तराज __सारावली, श्रीपतिपद्धति आदि विख्यात ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ की संकलना की गई है। इसमें जन्मपत्री बनाने की रीति, ग्रह, नक्षत्र, वार, दशा आदि के फल बताये गये हैं।' २. जन्मपत्री पद्धति :
खरतर गच्छीय मुनि कल्याण निधान के शिष्य लब्धीचन्द्र गणि ने वि. सं. १७५१ में 'जन्मपत्री पद्धति' नामक एक व्यवहारोपयोगी ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में इष्टकाल, भयात, भभोग, लग्न
और नवग्रहों का स्पष्टीकरण आदि गणित विषयक चर्चा के साथ जन्मपत्री के सामान्य फलों का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है। ३. जन्मपत्री पद्धति :
मुनि महिमोदय ने 'जन्मपत्री पद्धति' नामक ग्रन्थों की रचना वि. सं. १७२१ में की है। ग्रन्थ पद्य में है। इसमें सारणी, ग्रह, नक्षत्र, वार आदि के फल बताये गये हैं। ___ महिमोदय मुनि ने 'ज्योतिष रत्नाकार' आदि ग्रन्थों की रचना भी की है। जिनका परिचय आगे दिया गया है। मानसागरी पद्धति : ___'मानसागरी पद्धति' नाम से अनुमान होता है कि इसके कर्ता मानसागर मुनि होंगे। इस नाम के अनेक मुनि हो चुके हैं। इसलिये कौन से मानसागर ने यह कृति बनाई इसका निर्णय नहीं किया जा सकता है।
यह ग्रन्थ पद्यात्मक है। इसमें फलादेश विषयक वर्णन है। प्रारम्भ में आदिनाथ, आदि तीर्थंकरों और नवग्रहों की स्तुति करके जन्मपत्री बनाने की विधि बताई है। आगे संवत्सर के ६० नाम संवत्सर युग, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, वार और जन्म लग्न, राशि आदि के फल, करण, दया, अन्तदशा तथा उपदशा के वर्षमान ग्रन्थों के भाव, योग अपयोग आदि विषयों की चर्चा है। प्रसंगवश गणनाओं की भिन्न-भिन्न रीतियां बताई है। नवग्रह गजचक्र, यमदृष्टाचक्र आदि दशाओं के कोष्ठक दिये हुए हैं। फलाफल विषयक प्रश्नपत्र :
'फलाफल विषयक प्रश्नपत्र' नामक छोटी सी कृति उपाध्याय यशोविजय गणि की रचना हो ऐसा प्रतीत होता है। वि.सं. १७३० में इसकी रचना हुई है। इसमें चार चक्र हैं और प्रत्येक चक्र में सात कोष्ठक हैं। बीच में चारों कोष्ठकों में ॐ ह्रीं श्रीं अहम् नमः लिखा हुआ है। आसपास के ६-६ कोष्टकों को गिनने से कुल २४ कोष्टक होते हैं। इसमें ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक के २४ तीर्थंकरों के नाम अंकित है। आसपास के २४ कोष्टकों में २४ बातों को लेकर प्रश्न किये गये हैं।
इस ग्रन्थ की ५३ पत्रों की प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भा. सं. विद्या मन्दिर में है। इस ग्रन्थ की १० पत्रों की प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भा. सं. विद्या मन्दिर में है। यह ग्रन्थ वैकटेश्वर प्रेस बम्बई से वि. सं. १९६१ में प्रकाशित हुआ है।
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मुहूर्तराज ]
[ ४१३
१. कार्य की सिद्धि, २. मेघवृष्टि, ३. देश का सौख्य, ४. स्थानसुख, ५. ग्रामान्तर, ६. व्यवहार, ७. व्यापार, ८. व्याजदान, ९. भय, १०. चतुष्पाद, ११. सेवा, १२. सेवक, १३. धारणा, १४. बाघरूधा, १४. पुररोध, १६. कन्यादान, १७. वर, १८. जयाजय, १९. मंत्रोषधि, २०. राज्यप्राप्ति, २१. अथचिन्तन, २२. सन्तान, २३. आगन्तुक और २४ गतवस्तु ।
उपरोक्त २४ तीर्थंकरों में से किसी एक पर फलाफल विषयक ६-६ उत्तर हैं जैसे ऋषभदेव के नाम पर निम्नोक्त उत्तर हैं।
शीघ्रं सफला कार्यसिद्धि भविष्यति, अस्मिन् व्यवहारे मध्यं फलं द्रष्यते ग्रामान्तरे फलं नास्ति, कष्टमस्ति, भव्यं स्थान सौख्यं भविष्यते, अल्पा मेघवृष्टि संभाव्यक्ते ।
"
उपर्युक्त २४ प्रश्नों के १४४ उत्तर संस्कृत में है तथा प्रश्न कैसे निकालना, उसका फलाफल कैसे जानना - ये बातें उस समय की गुजराती भाषा में भी दी गई है।
'अन्त में पं. श्री नयविजयगणि शिष्य गणिजसविजय लिखितम्' ऐसा लिखा है । १
उदय दीपिका :
उपाध्याय मेघविजयजी ने वि. सं. १७५२ में 'उदय दीपिका' नामक ग्रन्थ की रचना मदनसिंह श्रावक के लिए की थी। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी प्रश्नों और उनके उत्तरों का वर्णन है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। प्रश्न सुन्दरी :
उपाध्याय मेघविजयजी ने वि. सं. १७५५ में 'प्रश्न सुन्दरी' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें प्रश्न निकालने की पद्धति का वर्णन किया गया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।
वर्ष प्रबोध :
उपाध्याय मेघविजयजी ने 'वर्ष प्रबोध' ऊपर नाम 'मेघ महोदय' नामक ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है। कई अवतरण प्राकृत ग्रन्थों के भी हैं। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध 'स्थानांग' के साथ बताया गया है । समस्त ग्रन्थ तेरह अधिकारों में विभक्त है। जिनमें निम्नांकित विषयों की चर्चा की गई है ।
प्रतिमास के वायु का विचार, ६. वर्षा बरसाने और बन्द करने के ८. राशियों पर ग्रहों के उदय और अस्त के वक्री का फल, ९. १०. संक्राति फल, ११. वर्ष के राजा और मंत्री आदि, १२ सर्वतोभद्रचक्र और वर्षा बताने वाले शकुन |
१. उत्पात, २. कूर्परचक्र, ३. पद्मिनीचक्र, ४. मण्डल प्रकरण, ५. सूर्य चन्द्र ग्रहण के फल तथा मन्त्र - यन्त्र, ७. साठ संवत्सरों का फल, अयन मास पक्ष और दिन का विचार, वर्षा का गर्भ, १३. विश्वा आय-व्यय
यह कृति 'जैन संशोधक' त्रेमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है।
१.
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४१४ ]
[ मुहूर्तराज
ग्रन्थ में रचना समय का उल्लेख नहीं है । परन्तु आचार्य विजयरत्नसूरि के शासनकाल में इसकी रचना होने से वि. सं. १७३२ के पूर्व तो यह नहीं लिखा गया होगा। इसमें अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उल्लेख तथा अवतरण दिये गये हैं। कहीं-कहीं गुजराती पद्य भी है।
उस्तरलाव यन्त्र :
मुनि मेघरत्न ने 'उस्तरलाव यन्त्र' की रचना वि. सं. १५५० के आसपास में की है। ये बड़गच्छीय विनयसुन्दर मुनि के शिष्य थे।
यह कृति ३८ श्लोकों में है। अक्षांश और रेखांश का ज्ञान प्राप्त करने के लिये इस यन्त्र का उपयोग होता है तथा नतांश और उन्नतांश का वेध करने में इसकी सहायता ली जाती है। इसके काल का परिज्ञान भी होता है। यह कृति खगोल शास्त्रियों के लिये उपयोगी विशिष्ट यन्त्र पर प्रकाश डालती है। २
उस्तरलाव यन्त्र टीका :
इस लघु कृति पर संस्कृत में टीका है। शायद मुनि मेघरत्न ने ही स्वोपज्ञ टीका लिखी है ।
दोष रत्नावली :
जयरत्नगणि ने ज्योतिष विषयक प्रश्न लग्न पर 'दोषरत्नावली' नामक ग्रन्थ की रचना की है। जयरत्नगणि पूर्णिमापक्ष के आचार्य भावरत्न के शिष्य थे। उन्होंने त्र्यांबावती (खम्भात) में इस ग्रन्थ की रचना की थी। ३ 'ज्वर पराजय' नाम वैद्यक ग्रन्थ की रचना इन्होंने वि. सं. १६६२ में की है। उसी के आसपास में इस कृति की भी रचना की होगी । यह ग्रन्थ अप्रकाशित है।
१.
२.
३.
यह ग्रन्थ पं. भगवानदास जैन, जयपुर द्वारा 'मेघ महोदय' वर्ष प्रबोध नाम से हिन्दी अनुवाद सहित सन् १९१६ में प्रकाशित किया गया था। श्री पोपटलाल समकलचन्द भावनगर, ने यह ग्रन्थ गुजराती अनुवाद सहित छपवाया है। उन्होंने इसकी दूसरी आवृति भी छपवाई है।
इसका परिचय Encyclopaedia Britanica, Vol. II, p. p. ५७४ - ५७५ में दिया है। इसकी हस्तलिखीत प्रति बिकानेर के अनूप संस्कृत पुस्तकालय में है। जो वि. सं. १६०० में लिखी गई है। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है । परन्तु इसका परिचय श्री अगरचन्दजी नाहटा ने 'उस्तरलाव यन्त्र सम्बन्धी' एक महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ ' शीर्षक से जैन सत्यप्रकाश' में छपवाया है।
श्रीमद्गुर्जरदेशभूषणमणित्रयंबावती नाम के,
श्रीपूर्णे नगरे वभूव सुगुरुः (श्री भावरत्नामिधः ) ।
तच्छीष्यो जयरत्न इत्यमिघयायः पूर्णिमागच्छवां,
स्तेनेयं क्रियते जनोपकृतये श्रीज्ञानरत्नावली ॥
इति प्रश्न लग्नोपरिदोष रत्नावली सम्पूर्णा- पिर्टसन (अलवर महाराजा लायब्रेरी केटलाग) ।
अहमदाबाद के ला. द. भा. संस्कृति विद्या मन्दिर में वि. सं. १८४७ में लिखी गई इसकी १२ पत्रों की प्रति है ।
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मुहूर्तराज ]
[४१५ जातक दीपिका पद्धति :
कर्ता ने इस ग्रन्थ की रचना कई प्राचीन ग्रन्थकारों की कृतियों के आधार पर की है। इसमें वार स्पष्टीकरण, ध्रुवदिनयन, भौमादीशबीज ध्रुवकरण लग्न स्पष्टीकरण, होरा करण, नवमांश, दसमांश, अर्न्तदशा, फलदशा आदि विषय पद्य में है। कुल ९४ श्लोक है। इस ग्रन्थ के कर्ता का नाम और रचना समय अज्ञात
जन्म प्रदीप शास्त्र :
“जन्म प्रदीप शास्त्र' के कर्ता कौन है और ग्रन्थ कब रचा गया यह अज्ञात है। इसमें कुण्डली के १२ भुवनों के लग्नेश के बारे में चर्चा की गई। ग्रन्थ पद्य में है। केवलज्ञान होरा :
दिगम्बर जैनाचार्य चन्द्रसेन ने ३-४ हजार श्लोक प्रमाण 'केवलज्ञान होरा' नामक ग्रन्थ की रचना की है। आचार्य ने ग्रन्थ के आरम्भ में कहा है :
होरा नाम महा िवक्तव्यं च भवद्धितम् ।
ज्योतिज्ञनिकरं सारं भूषणं बुधपोषणम् ॥ होरा के कई अर्थ होते हैं।
१. होरा याने ढाई घटी अर्थात् एक घण्टा। २. एक राशि या लग्न का अर्द्ध भाग। ३. जन्म कुण्डली। ४. जन्म कुण्डली के अनुसार भविष्य कहने की विद्या अर्थात् जन्म कुण्डली का फल बताने वाला
शास्त्र। यह शास्त्र लग्न के आधार पर शुभ अशुभ फलों का निर्देश करता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में हेमकरण, दाम्यकरण, शिला प्रकरण, मृतिका प्रकरण, वृक्ष प्रकरण, कास-गुल्मवल्कल तृण-रोम-चर्मपट पट प्रकरण, संख्या प्रकरण, नष्ट द्रव्य प्रकरण, निर्वाह प्रकरण, अपत्यप्रकरण, लाभलाभ प्रकरण, स्वर प्रकरण, स्वप्न प्रकरण, वास्तुविद्या प्रकरण, भोजन प्रकरण, देहलोदीक्षा प्रकरण, अंजनविद्या विद्या प्रकरण, विष विद्या प्रकरण, आदि अनेक प्रकार के प्रकरण है। ये प्रकरण कल्याण वर्मा की 'सारावली' से मिलते-जुलते हैं। दक्षिण में रचना होने से कर्नाटक प्रदेश के ज्योतिष का इस पर काफी प्रभाव है। बीच-बीच में विषय स्पष्ट करने के लिये कन्नड़ भाषा का भी उपयोग किया गया है। चन्द्रसेन मुनि ने अपना परिचय देते हुए इस प्रकार कहा हैं :
आगमोः सद्दशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः ।
केवली सदृशी विद्या दुर्लभा सचराचरे ॥ यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है।
१.
पुराविदैयदुक्तानि, पद्यान्यादाय शोभनम्। संभोल्य सोमयोग्यानि लेखयि (खि) ष्यामि शिशोः मुदे॥ इसके ५ पत्रों की हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के ला. द. भारतीय विद्या मन्दिर में है।
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४१६ ]
यन्त्रराज :
आचार्य मदनसूरि के शिष्य महेन्द्रसूरि ने ग्रह्यपिता के लिये उपयोगी 'यन्त्रराज' नामक ग्रन्थ की रचना शक सं. १२९२ वि. सं. १४२७ में की है। ये बादशाह फिरोजशाह तुगलक के प्रधान सभा पंडित थे।
इस ग्रन्थ की उपयोगिता बताये हुए स्वयं ग्रन्थकार ने कहा है।
-
यथा भटः प्रोढरणोत्कटोपि, शास्त्रेर्विमुक्तः परिभूतिमेति । तद्वन्महाज्योतिष्निस्तुषोऽपि यन्त्रेण होनो गणकस्तथैव ॥
यह ग्रन्थ पांच अध्यायों में विभक्त है :- १. गणिताध्याय, २. यन्त्र घटनाध्याय, ३. यन्त्र रचनाध्याय, ४. यन्त्रशोधनाध्याय ५. यन्त्र विचारणाध्याय । इसमें कुल मिलाकर १८२ पद्य हैं।
[ मुहूर्तराज
इस ग्रन्थ की अनेक विशेषताएं हैं। इसमें नाड़ीवृत के धरातल में गोल पृष्ठस्थ सभी वृतों का परिणाम बताया गया है। क्रमोत्क्रमज्या नयन, भुजकोटिज्या का चाप साधन, क्रान्ति साधन, द्युज्याखण्ड साधन, ज्याफला नयन, सौम्ययन्त्र के विभिन्न गणित के साधन, अक्षांश से उन्नतांश साधन, ग्रन्थ के नक्षत्र, ध्रुव आदि से अभिष्ट वर्षों के ध्रुवादि साधन, नक्षत्रों का छक्कर्म साधन, द्वादश राशियों के विभिन्न वृत सम्बन्धी गणित के साधन, इष्ट शंकु से छायाकरण साधन, यन्त्र तन्त्र शोधन प्रकार और तदनुसार विभिन्न राशियों और नक्षत्रों के गणित के साधन, द्वादश भावों और नवग्रहों के गणित के स्पष्टीकरण का गणित और विभिन्न यन्त्रों द्वारा सभी ग्रहों के साधन का गणित अति सुन्दर रीति से प्रतिपादित किया गया है। इस ग्रन्थ के ज्ञान से बहुत सरलता से पंचाग बनाया जा सकता है।
यन्त्रराज टीका :
१.
‘यन्त्रराज’” पर आचार्य महेन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य मलयेन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। इन्होने मूल ग्रन्थ में निर्दिष्ट यन्त्रों को उदाहरण पूर्वक समझाया है। इसमें ७५ नगरों के अक्षांश दिये गये हैं। वेधोपयोगी ३२ तारों के सायन भोगसर भी दिये गये हैं । अयनवर्ष गति ५४ विकला मानी गई है।
ज्योतिष रत्नाकार :
मुनि लब्धिविजय के शिष्य महिमोदय मुनि ने 'ज्योतिष रत्नाकार' नामक कृति की रचना की है। मुनि महिमोदय वि. सं. १७२२ में विद्यमान थे । वे गणित और फलित दोनों प्रकार की ज्योतिषविद्या के मर्मज्ञ विद्वान थे।
यह ग्रन्थ फलित ज्योतिष का है। इसमें संहिता, मुहूर्त और जातक - इन तीन विषयों पर प्रकाश डाला गया है। यह ग्रन्थ छोटा होते हुए भी अत्यन्त उपयोगी है। यह प्रकाशित नहीं हुआ है।
यह ग्रन्थ राजस्थान प्राच्य विद्या शोध संस्थान, जोधपुर से टीका के साथ प्रकाशित हुआ है। सुधाकर द्विवेदी ने यह ग्रन्थ काशी से छपवाया है। यह बम्बई से भी छपा है ।
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मुहूर्तराज ]
पंचांगानयन विधिः
उपर्युक्त महिमोदय मुनि ने 'पंचांगानयनविधि' नामक ग्रंथ की रचना वि. सं. १७२२ के आसपास की है । ग्रन्थ के नाम से ही विषय स्पष्ट है। इसमें अनेक सारणियाँ दी हैं, जिससे पंचांग के गणित में अच्छी सहायता मिलती है। यह ग्रन्थ भी प्रकाशित नहीं हुआ है।
तिथि सारणी :
पार्श्वचन्द्र गच्छीय बाघजी मुनि ने 'तिथि सारणी' नाम से महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ की वि. सं. १७८३ में रचना की है, इसमें पंचांग बनाने की प्रक्रिया बताई गई है। यह ग्रन्थ 'मकरन्द सारणी' जैसा है। लींबड़ी के जैन ग्रन्थ भण्डार में इसकी प्रति है ।
यशोराजी पद्धति :
मुनि यशस्वत्सागर, जिनको जसवंतसागर भी कहते हैं, व्याकरण दर्शन और ज्योतिष के धुरंधर विद्वान थे। उन्होंने वि. सं. १७६२ में जन्म कुण्डली विषयक 'यशोराजी पद्धति' नामक व्यवहारोपयोगी ग्रन्थ बनाया है । इस ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध में जन्म कुण्डली की रचना के नियमों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। तथा उत्तरार्द्ध में जातक पद्धति के अनुसार संक्षिप्त फल बताया गया है। ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है ।
त्रैलोक्य प्रकाश :
आचार्य देवेन्द्रसूरि के शिष्य हेमप्रभसूरि ने ' त्रेलोक्य प्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना वि. सं. १३०५ में की है । ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ के नाम 'लाक्य प्रकाश' क्यों रखा इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है:
[ ४१७
त्रीन कालान् त्रिषु लोकेषु यस्माद् बुद्धिः प्रकाशते । तत् त्रेलोक्य प्रकाशाख्यां ध्यात्वा शास्त्रं प्रकाश्यते ॥
यह ताजिक विषयक चमत्कारी ग्रन्थ १२५० श्लोकात्मक है । कर्ता ने लग्नशास्त्र का महत्व बताते हुए ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कहा है:
--
म्लेच्छेषु विस्तृत लग्नं कलिकाल प्रभावतः । जैने धर्मेवतिष्ठते ॥
प्रभु प्रसादमासाद्य
इस ग्रन्थ में ज्योतिष योगों के शुभाशुभ फलों के विषय में विचार किया गया है। और मानव जीवन सम्बन्धी विषयों का फलादेश बताया गया है। इसमें मुथशिल, मचकुल, शूर्लाव, उस्तरलाव आदि संज्ञाओं प्रमिल हैं, जो मुस्लिम प्रभाव की सूचना देते हैं। इसमें निम्न विषयों पर प्रकाश डाला है।
स्थानबल, कायवल, दृष्टिबल, दिक्फल, ग्रहावस्था, गृहमैत्री, राशिवैचित्रय षड्वर्गशुद्धि, लग्न ज्ञान, अंशफल प्रकारान्तर से जन्म दशाफल राजयोग ग्रह स्वरूप द्वादस भावों की तत्वचिन्ता, केन्द्र विचार, वर्ष
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४१८ ]
[ मुहूर्तराज फल, विधान प्रकरण सेवधि प्रकरण परचक्रामण, भोजन प्रकरण, ग्राम प्रकरण, पुत्र प्रकरण, रोग, प्रकरण, जाया प्रकरण, सुरत प्रकरण, गमनागमन, गज अश्वा खंग आदि चक्रयुद्ध प्रकरण, संधिविग्रह, पुष्पनिर्णय स्थानदोष, जीवित मृत्युफल, प्रवहण प्रकरण, वृष्टि प्रकरण, अर्द्धकाण्ड, स्त्रीलाभ प्रकरण आदि।' ग्रन्थ के एक पद्य में कर्ता ने अपना नाम इस प्रकार गुम्फित किया है:
श्री हेलाशालिनां योग्यमप्रभीकृतभास्करम् ।
भसूक्ष्मेक्षिकया चक्रेऽरिभिः शास्त्रमदूषितम् ॥ इस श्लोक के प्रत्येक चरण के आदि के दो वर्षों में 'श्री हेमप्रभसूरिभिः' नाम अन्तर्निहित है। जोइसहीर (ज्योतिषहीर) :
'जोइसहीर' नामक प्राकृत भाषा में ग्रन्थ कर्ता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। इसमें १८७ गाथाएँ हैं। इस ग्रन्थ के अन्त में लिखा है कि 'प्रथमप्रकिर्ण समाप्तम्' इससे मालुम होता है कि यह ग्रन्थ अधूरा है। इसमें शुभाशुभ तिथि ग्रह की सबलता, शुभ घड़िया, दिन शुद्धि, स्वर ज्ञान, दिशा शुल, शुभाशुभ योग, वृत, आदि ग्रहण करने का मुहूर्त, क्षोर कर्म का मुहूर्त और ग्रह फल आदि का वर्णन है। ज्योतिषसार (जोइसहीर):
___ 'ज्योतिषसार' जोइसहीर नामक ग्रन्थ की रचना खरतर गच्छीय उपाध्याय देवतिलक के शिष्य मुनि हीरकलश ने वि. सं. १६२१ में प्राकृत में की है। इसमें दो प्रकरण है। इस ग्रन्थ की हस्त लिखित प्रति बम्बई के माणकचन्दजी भण्डार में है। ___मुनि हीरकलश ने राजस्थानी भाषा ‘ज्योतिष्हीर' या 'हीरकलश' ग्रन्थ की रचना ९०० दोहों में की है। जो साराभाई नवाब (अहमदाबाद) ने प्रकाशित किया है। इस ग्रन्थ में जो विषय निरूपित है, वही इस प्राकृत ग्रन्थ में भी निबिद्ध है।
मुनि हीरकलश की अन्य कृतियाँ इस प्रकार हैं:
१, अठारा नाता सज्झाय, २. कुमति विध्वंस चौपाई, ३. मुनिपति चौपाई, ४. सोल स्वप्न सज्झाय, ५. आराधना चौपाई, ६. सम्यक्त्व चौपाई, ७. जम्बु चौपाई, ८. मोती कपास्या संवाद, ९. सिंहासन बत्तीसी, १०. रत्नचूढ़ चौपाई, ११. जीभ दांत संवाद, १२. हियाल, १३. पंचाख्यान, १४. पंचसति दुपदी चौपाई, १५. हियाली ।
ये सब कृतियां जूनी गुजराती है अथवा राजस्थानी में है।
१.
यह ग्रन्थ एस्ट्रोलाजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट लाहौर से हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हुआ है। पण्डित भगवानदास जैन ने 'जैन सत्य प्रकाश वर्ष १२ अंक १२ में अनुवाद में बहुत भूलें होने के सम्बन्ध में 'लोक्य प्रकाश का हिन्दी अनुवाद' शीर्षक लेख लिखा है। यह ग्रन्थ पण्डित भगवानदास जैन द्वारा हिन्दी में अनुवादित होकर नरसिंह प्रेस कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है।
२.
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मुहूर्तराज ]
[४१९ पंचांग तत्व :
"पंचांग तत्व' के कर्ता का नाम और उसका रचना समय अज्ञात है। इसमें पंचांग के तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण-इन विषयों का निरूपण किया है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। पंचांग तत्व टीका : ____पंचांग तत्व' पर अभयदेवसूरि नामक किसी आचार्य ने ९००० श्लोक प्रमाण टीका रची है। यह टीका भी अप्रकाशित है।
पंचांग तिथि विवरण :
__ ‘पंचांग तिथि विवरण' नामक ग्रंथ अज्ञातकतृ है तथा इसकी रचना समय भी अज्ञात है। यह ग्रंथ 'करण शेखर' या 'करणेश' नाम से भी प्रसिद्ध है। इसमें पंचांग बनाने की रीति समझाई गई है। ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। इस पर किसी जैन मुनि ने वृत्ति रची है, ऐसा जानने में आया है। पंचांग दीपिका : ___ ‘पंचांग दीपिका' नामक ग्रंथ की किसी जैन मुनि ने रचना की है। इसमें पंचांग बनाने की विधि बताई गई है। ग्रंथ की रचना समय अज्ञात है। ग्रंथ अप्रकाशित है।
पंचांगपत्र विचार :
‘पंचांगपत्र विचार' नामक ग्रंथ की किसी जैन मुनि ने रचना की है। इसमें पंचांग का विषय विशद् रीति से निर्दिष्ट है। ग्रंथ की रचना समय ज्ञात नहीं है। ग्रंथ प्रकाशित भी नहीं हुआ है।
बलिरामानन्दसार संग्रह :
उपाध्याय भुवनकीर्ति के शिष्य पं. लाभोदय मुनि ने ‘बलिरामानन्दसार संग्रह' नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की है। इसका समय निश्चित नहीं है। इनके गुरु उपाध्याय भुवनकीर्ति अच्छे कवि थे। इनके वि. सं. १६६७ से १७६० तक के कई रास उपलब्ध हैं। इसलिये पं. लाभोदय मुनि का समय इसी के आसपास हो सकता है।
इस ग्रंथ में सामान्य मुहूर्त, मुहूर्ताधिकार, नाड़ीचक्र, नासिक विचार, शकुन विचार, स्वप्नाध्याय, अंगोपांग स्फुरण, सामुद्रिक संक्षेप, लग्ननिर्णय विधि, नर स्त्री जन्मपत्री निर्णय, योगात्पत्ति, मासादि विचार, वर्ष शुभाशुभ फल आदि विषयों का विवरण है। यह एक संग्रह ग्रंथ' मालूम होता है।
१.
इसकी अपूर्ण प्रति ला. द. भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में है। प्रति लेखन १९ वीं शती का है।
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४२० ]
[ मुहूर्तराज
गण सारणी : ___ 'गण सारणी' नामक ज्योतिष विषयक ग्रंथ की रचना पार्श्वचन्द्र गच्छीय जगच्चन्द्र के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र ने वि. सं. १७६० में की है। - इस ग्रंथ में तिथि, ध्रुवांक, अंतरांकी, तिथिकेन्द्र चक्र, नक्षत्र ध्रुवांक, नक्षत्र चक्र, योगकेन्द्र चक्र, तिथि सारणी, तिथिगण खेमा, तिथि केन्द्र घटी, अंशफल, नक्षत्रफल सारणी, नक्षत्रकेन्द्र फल, योगगण कोष्टक आदि विषय है।
यह ग्रंथ अप्रकाशित है। लालचन्द्री पद्धति : ___मुनि कल्याण विधान के शिष्य लब्धिचन्द्र ने 'लालचन्द्री पद्धति' नामक ग्रंथ वि. सं. १७५१ में रचा
___ इस ग्रंथ के जातक के अनेक विषय हैं। कई सारणियाँ दी हैं। अनेक ग्रंथों के उद्धरणों और प्रमाणों से परिपूर्ण है। टिप्पनक विधि : ___ मतिविशालगणि ने 'टिप्पनक विधि' नामक ग्रंथ प्राकृत में लिखा है। इसका रचना समय ज्ञात नहीं
इस ग्रंथ में पंचांगतिथिकर्षण, संक्रांतिकर्षण, नवग्रहकर्षण, वक्रातिचार, सरलगतिकर्षण, पंचाग्रहास्तमितोदित कथन, भद्राकर्षण अधिकमासकर्षण तिथि, नक्षत्र, योग वर्द्धन, घटनकर्षण, दिनमानकर्षण आदि १३ विषयों का विशद् वर्णन है। होरामकरन्द : ___ आचार्य गुणाकरसूरि ने 'होरामकरन्द' नामक ग्रंथ की रचना की है। रचना समय ज्ञात नहीं है, परन्तु १५ वीं शताब्दी होगा, ऐसा अनुमान है। होरा अर्थात् राशि का द्वितीयांश।
इस ग्रंथ में ३१ अध्याय हैं:-१. राशि प्रभेद, २. ग्रहस्वरूपबल निरूपण, ३. वियोनिजन्म, ४. निषेक, ५. जन्मविधि, ६. रिष्ट, ७. रिष्टभंग, ८. सर्वहारिष्टभंग, ९. आयुर्दा, १०. दशम अध्याय, (?) ११. अन्तर्दशा, १२. अष्टकवर्ग, १३. कर्माजीव, १४. राजयोग, १५. नाभसयोग।
तद्विनेया: पाठका: श्रीजगच्चन्द्राः सुकीर्तयः ॥ शिष्येण लक्ष्मीचन्द्रेण कृतेय सारणी शुभा ॥ संवत् खवश्वेन्दु (१७३०) मिते बहुले पूर्णिमातिथौ । कृता परोपकृत्यर्थ शोधनीया च धीधनै ॥ इसकी १४८ पत्रों की १८ वीं सदी में लिखी गई प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर में
इसके १ पत्र की वि. सं. १६९४ में लिखी गई प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भाीय संस्कृति विद्या मन्दिर के संग्रह में है।
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मुहूर्तराज ]
[४२१ १६. वोसिवेस्युभयचरी-योग, १७. चन्द्रयोग, १८. ग्रहप्रवज्यायोग, १९. देवनक्षत्रफल, २०. चन्द्रराशिफल, २१. सूर्यादिराशिफल, २२. रश्मिचिन्ता, २३. दृष्टयादिफल, २४, भावफल, २५. आश्रयाध्याय, २६. कारक, २७. अनिष्ट, २८. स्त्रीजातक, २९. निर्याण, ३०. द्रेष्काणस्वरूप, ३१. प्रश्नजातक ।
यह ग्रंथ छपा नहीं है। हायनसुन्दर :
आचार्य पद्मसुन्दरसूरि ने 'हायनसुन्दर' नामक ज्योतिषविषयक ग्रंथ की रचना की है। विवाह पटल :
_ 'विवाह पटल' नाम के एक से अधिक ग्रंथ है। अजैन ग्रंथों में शांर्गधर ने शक सं. १४०० (वि.सं. १५३५) में और पीताम्बर ने शक सं. १४४४ वि. सं. १५७९ में इनकी रचना की है। जैन कृतियों में 'विवाह पटल' के कर्ता अभयकुशल या उभयकुशल का उल्लेख मिलता है। इसकी जो हस्तलिखित प्रति मिली है, उसमें १३० पद्य हैं, बीच-बीच में, पाकृत गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। इसमें निम्नोक्त विषयों की चर्चा है:
योनि नाड़ी गणश्चैव स्वामिमित्रेस्तथैव च ।
जुंजा प्रीतिश्च वर्णश्च लीहा सप्तविद्यास्मृता ॥ नक्षत्र, नाड़ीवेध यन्त्र, राशि स्वामी, विवाह नक्षत्र, चन्द्र सूर्य स्पष्टीकरण, एकार्गल, गोधूदिका फल, आदि विषयों का विवेचन है।
यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ है। करणराजः
रूद्रीपल्लीगच्छीयजिनसुन्दरसूरि के शिष्य मुनिसुन्दर ने वि. सं. १६५५ में 'करणराज' नामक ग्रंथ की रचना की है।
यह ग्रंथ दस अध्यायों जिनको कर्ता ने 'व्यय' नाम उल्लिखित किया है, में विभाजित है। १. ग्रह मध्यम साधन, २. ग्रह स्पष्टीकरण, ३. प्रश्न साधक, ४. चन्द्रग्रहण साधन, ५. सूर्यं साधक, ६. त्रुटित होने से विषय ज्ञात नहीं हो सका, ७. उदयास्त, ८. ग्रह युद्ध नक्षत्र समागम, ९. पाताव्यय, १०. निमिशक (?) अन्त में प्रशस्ति है।
१. २. ३.
इसकी ४१ पत्रों की प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कति विद्या मन्दिर के संग्रह में है। इसकी प्रति बिकानेर स्थित अनूप संस्कृत लायबेरी के संग्रह में है। इसकी ७ पत्रों की अपूर्ण प्रति संस्कृत लायब्रेरी बीकानेर में है।
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४२२ ]
[ मुहूर्तराज दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि : ___ उपाध्याय समयसुन्दर ने 'दीक्षा प्रतिष्ठा शुद्धि' नामक ज्योतिष विषयक ग्रंथ की वि. सं. १६८५ में रचना की है।
यह ग्रन्थ १२ अध्यायों में विभाजित है। १. ग्रहगोचर शुद्धि, २. वर्ष शुद्धि, ३. अयन शुद्धि, ४. मास शुद्धि, ५. पक्ष शुद्धि, ६. दिन शुद्धि, ७. वार शुद्धि, ८. नक्षत्र शुद्धि, ९. योग शुद्धि, १०. करण शुद्धि, ११. लग्न शुद्धि, १२. ग्रह शुद्धि। ___ कर्ता ने प्रशस्ति में कहा है कि वि. सं. १६८५ में लुणकरणसर में प्रशिष्य वाचक जयकीर्ति, जो ज्योतिष शास्त्र में विलक्षण की सहायता से इस ग्रन्थ की रचना की। प्रशस्ति इस प्रकार है:
दीन प्रतिष्ठाया या शुद्धि सा निगदिता हिताय नृणाम् । श्री लुणकरणसरसि स्मरशर वसु षडुडुपति (१६८५) वर्षे ॥१॥
ज्योतिषशास्त्रविचक्षणवाचकजयकीर्तिसहायैः ।
समयसुन्दरोपाध्यायसंदर्भितो ग्रन्थः ॥२॥ विवाह रत्न :
खरतरगच्छीय आचार्य जिनोदयसूरि ने 'विवाह रत्न' नामक ग्रन्थ की रचना की है।
इस ग्रन्थ में १५० श्लोक हैं, १३ पत्रों की प्रति जैसलमेर में वि. सं. १८३३ में लिखी गई है। ज्योति प्रकाश : ___ आचार्य ज्ञानभूषण ने 'ज्योति प्रकाश' नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. १७५५ के बाद कभी की है।
यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है। १. तिथि द्वार, २. वार, ३. तिथि घटिका, ४. नक्षत्र साधन, ५. नक्षत्र घटिका, ६. इस प्रकरण का पत्रांक ४४ नष्ट होने से स्पष्ट नहीं है, ७. इस प्रकरण के अ 'इति चतुर्दश, पंचदश, सप्तदश, रूपैश्चतुर्भिार (सम्पूर्णोऽथं ज्योति प्रकाश) ऐसा उल्लेख है।
___ सात प्रकरण पूर्ण होने के पश्चात ग्रन्थ की समाप्ति का सूचक है। परन्तु प्रशस्ति के कुछ पद्य अपूर्ण रह जाते हैं।
ग्रन्थ में ‘चन्द्रप्रज्ञप्ति' 'ज्योतिष्करण्डक' की मलयगिरी टीका आदि के उल्लेख के साथ एक जगह विनयविजय के 'लोक प्रकाश' का भी उल्लेख है। अत: इसकी रचना वि. सं. १७३० के बाद ही सिद्ध होती है।
१.
इसकी एकमात्र प्रति बीकानेर के खरतरगच्छ के आचार्य शाखा के उपाश्रय स्थित ज्ञान भण्डार में है। इसकी हस्तलिखित प्रति मोतीचन्द खजान्ची के संग्रह में है। इसकी हस्तलिखित प्रति देहली के धर्मपुरा के मन्दिर में संग्रहित है। द्वितीय प्रकाश में वि. सं. १७२५, १७३०, १७३३, १७४०, १७४५, १७५०, १७५५ के भी उल्लेख है। इसके अनुसार वि. सं. १७५५ के बाद में इसकी रचना सम्भव है।
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मुहूर्तराज ]
[४२३ ज्ञानभूषण का उल्लेख प्रत्येक प्रकाश के अन्त में पाया जाता है और अकबर का भी उल्लेख कई बार हुआ है। खेट चुला :
आचार्य ज्ञानभूषण ने 'खेट चुला' नामक ग्रन्थ की रचना की, ऐसा उल्लेख उनके स्वरचित ग्रन्थ 'ज्योति प्रकाश' में है। षष्टिसंवत्सर फल : ___ दिगम्बराचार्य दुर्गदेवरचित 'षष्टिसंवत्सर फल' नामक ग्रन्थ की ६ पत्रों की प्रति' में संवत्सरों के फल का निर्देश है। लघुजातक टीका :
_ 'पंचसिद्धान्तिका' ग्रन्थ की शक सं. ४२७ (वि. सं. ५६२) में रचना करने वाले वराहमिहिर ने 'लघुजातक' की रचना की है। यह होरा शाखा के 'बृहज्जातक' का संक्षिप्त रूप है। ग्रन्थ में लिखा है।
होराशास्त्रं वृतैर्मया निबद्धं निरीक्ष्यशास्त्राणि ।
यतास्याप्याभिः सारमहं संप्रवक्ष्यामि ॥ इस ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय मुनि भक्तिलाभ ने वि. सं. १५७१ में विक्रमपुर में टीका की रचना की है। तथा भक्ति सागर मुनि ने वि. सं. १६०२ में भाषा में वचनिका और उपकेशगच्छीय खुशालसुन्दर मुनि ने वि. सं. १८३९ में स्तवक लिखा है। मुनि मतिसागर ने इस ग्रन्थ पर वि. सं. १६०५ में वर्तिका रचा है। लघुश्यामसुन्दर ने भी 'लघुजातक' पर टीका लिखी है। जातकपद्धति टीका :
श्रीपति ने 'जातकपद्धति' की रचना करीब वि. सं. ११०० में की है। इस पर अंचलगच्छीय हर्षरत्न ने शिष्य मुनि सुमतिहर्ष ने वि. सं. १६७३ में पद्मावति पत्तन में 'दीपिका' नामक टीका की रचना की है। आचार्य जिनेश्वरसूरि ने भी इस ग्रन्थ पर टीका लिखी है।
सुमति हर्ष ने 'बृहत्पर्वमाला' नामक ज्योतिष ग्रन्थ की भी रचना की है। इन्होंने ताजिकसार करणकुतुहल और होरामकरन्द नामक ग्रन्थों पर भी टीकाएं रची है। ताजिकसार टीका : 'ताजिक' शब्द की व्याख्या करते हुए किसी विद्वान ने इस प्रकार बताया है।
यवनाचार्येण पारसीकभाषया ज्योतिषशास्त्रेकदेशरूपं ।
वार्षिकादिनानाविध फलादेशफल फलकशास्त्रं ताजिकशब्दवाच्यं ॥
१.
यह प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में है।
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४२४ ]
[ मुहूर्तराज इसका अभिप्राय यह है कि जिस मनुष्य के जन्म कालीन सूर्य के समान सूर्य होता है। अर्थात् जब उसकी आयु का कोई भी सौर वर्ष समाप्त होकर दूसरा सौर वर्ष लगता है, उस समय के लग्न और ग्रह स्थिति द्वारा मनुष्य को उस वर्ष में होने वाले सुख-दुःख का निर्णय जिस पद्धति द्वारा किया जाता है, उसे 'ताजिक' कहते हैं।
उपर्युक्त व्याख्या से यह भी भलीभांति मालूम हो जाता है कि यह ताजिक शाखा मुसलमानों से आई है। शक सं. १२०० के बाद इस देश में मुसलमानी राज्य होने पर हमारे यहाँ ताजिक शाखा का प्रचलन हुआ। इसका अर्थ केवल इतना ही है कि वर्ष। प्रवेशकालिन लग्न द्वारा फलादेश कहने की कल्पना और कुछ पारिभाषिक नाम यवनों से लिये गये। जन्म कुण्डली और उसके फल के नियम ताजिक में प्राय: जातक सदृश है। और वे हमारे ही हैं, यानी इस भारत देश के ही हैं।
हरीभट्ट नामक विद्वान ने 'ताजिकसार' नामक ग्रन्थ की रचना वि. सं. १५८० के आसपास में की है। हीरभट्ट को हरीभद्र नाम से भी पहिचाना जाता है। इस ग्रन्थ पर अंचलगच्छीय मुनि सुमतिहर्ष ने वि. सं. १६७७ में विष्णुदास राजा के राज्यकाल में टीका लिखी है।' करण कुतुहल टीका: ___ ज्योर्तिगणित भास्कराचार्य ने 'करण कुतुहल' की रचना वि. सं. १२४० के आसपास में की है। उनका यह ग्रन्थ करण विषयक है। इसमें मध्यमग्रह साधन अहर्गण द्वारा किया गया है। ग्रन्थ में निम्नोक्त १० अधिकार हैं:- १. मध्यम, २. स्पष्ट, ३. त्रिप्रश्न, ४. चन्द्रग्रहण, ५. सूर्यग्रहण, ६. उदयास्त, ७. शृंगोन्नति, ८. ग्रहयूति, ९. पात, १०. ग्रहणसम्भव कुल मिलाकर १३९ पद्य है। इस पर सौढल नार्मदात्मक पद्मनाभ, शंकर कवि आदि की टीकाएं हैं।
इस 'करण कुतुहल' पर अंचलगच्छीय हर्षरत्न मुनि के शिष्य सुमतिहर्ष मुनि ने वि. सं. १६७८ में हेमाद्रि के राज्य में 'गणककोमुद कौमुदी' नामक टीका रची है। इसमें इन्होंने लिखा है
करण कुतुहल वृतावेतस्या सुमतिहर्षरचितायाम् ।
गणककुमुदकौमुद्यां विवृता स्फुटता हि खेटानाम् ॥ इस टीका का ग्रन्थान १८५० श्लोक है। ज्योतिर्विदाभरण टीका :
___ 'ज्योतिर्विदाभरण' नामक ज्योतिष शास्त्र का ग्रन्थ 'रघुवंश' आदि काव्यों की कर्ता कवि कालिदास की रचना की है। ऐसा ग्रन्थ में लिखा है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है। इसमें ऐन्द्र योग का तृतीय अंश व्यतीत होने पर सूर्य चन्द्रमा का क्रान्तिसाम्य बताया गया है। इससे इसका रचनाकाल शक सं. ११६४ वि. सं. १२९९ निश्चित होता है। अत: रघुवंशादि काव्यों के निर्माता कालिदास इस ग्रन्थ के कर्ता नहीं हो सकते। ये कोई दूसरे ही कालिदास होने चाहिये। एक विद्वान ने तो यह ‘ज्योतिर्विदाभरण' ग्रन्थ १६ वीं शताब्दी का होने का निर्णय किया है। यह ग्रन्थ मुहूर्त विषयक है।
१. २.
यह टीका ग्रन्थ मूल के साथ बैंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ है। लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद के संग्रह में इसकी १९ पत्रों की प्रति है।
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मुहूर्तराज ]
[४२५ इस पर पुर्णिमागच्छ के भावरत्न (भावप्रभसूरि) ने सन् १७१२ में सुबोधिनी वृत्ति रची है। यह अभी तक अप्रकाशित है। महादेवी सारणी टीका : ___महादेव नामक विद्वान ने 'महादेवी सारणी' नामक ग्रह साधन विषयक ग्रन्थ की शक सं. १२३८ (वि.सं. १३७३) में रचना की है। कर्ता ने लिखा है:
चक्रेश्वरारब्धनभश्वराशुसिद्धिं महादेव ऋषींश्च नत्वा । ___ इससे अनुमान होता है कि चक्रेश्वर नामक ज्योतिषी के आरम्भ किये हुए इस अपूर्ण ग्रन्थ को महादेव ने पूर्ण किया। महादेव पद्मनाम ब्राह्मण के पुत्र थे। वे गोदावरी तट के निकट रासिण गाँव के निवासी थे। परन्तु उनके पूर्वजों का मूल स्थान गुजरात स्थित सूरत का प्रदेश था।
इस ग्रन्थ में लगभग ४३ पद्य है। उनमें केवल मध्यम और स्पष्ट ग्रहों का साधन है। क्षेपक, मध्यम, मेष संक्रातिकालीन है और अर्हगण द्वारा मध्यम ग्रह साधन करने के लिये सारणियाँ बनाई हैं।
इस ग्रन्थ पर अंचलगच्छीय मुनि भोजराज के शिष्य धनराज ने दीपिका टीका की रचना वि. सं. १६९२ में पद्मावति पतन में की है।' टीका में सिरोही का देशान्तर साधन किया है। टीका का प्रमाण १५०० श्लोक है। 'जिनरत्नकोष' के अनुसार मुनि भुवनराज ने इस पर टिप्पण लिखा है। मुनि तत्वसुन्दर ने इस ग्रन्थ पर विवृत्ति रची है। किसी अज्ञात विद्वान ने भी इस पर टीका लिखी है। विवाह पटल बालावबोध :
अज्ञातकर्तृक 'विवाह पटल' पर नागोरी तपागच्छीय आचार्य हषकीर्तिसूरि ने 'बालावबोध' नाम से टीका रची है।
आचार्य सौमसुन्दरसूरि के शिष्य अमरमुनि ने 'विवाहपटल' पर 'बोध' नाम से टीका रची है। मुनि विद्यहेम ने वि. सं. १८७३ में विवाह पटल' पर 'अर्थ' नाम से टीका रची है। ग्रह लाघव टीका :
गणेश नामक विद्वान ने 'ग्रह लाघव' की रचना की है। वे बहुत बड़े ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम था केशव और माता का नाम था लक्ष्मी। वे समुद्रतटवर्ती नांदगांव के निवासी थे। सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध में वे विद्यमान थे।
ग्रह लाघव की विशेषता यह है कि इसमें ज्योतिष का सम्बन्ध बिलकुल नहीं रखा गया है। तथापि स्पष्ट सूर्य लाने में करण ग्रन्थों से भी यह बहुत सूक्ष्म है। यह ग्रन्थ निम्नलिखित १४ अधिकारों में विभक्त हैं:- १. मध्यमाधिकार, २. स्पष्टाधिकार, ३. पंचताराधिकार, ४. त्रिप्रश्न, ५. चन्द्र ग्रहण, ६. सूर्यग्रहण, ७. मासग्रहण, ८. स्थूलग्रह साधन, ९. उदयास्त, १०. छाया, ११. नक्षत्र छाया, १२. अंगोत्रति, १३. ग्रह यूति और, १४. महापात। सब मिलाकर इसमें १८७ श्लोक हैं।
इस 'ग्रहलाघव' ग्रन्थ पर चारित्रसागर के शिष्य कल्याणसागर के शिष्य यशस्वतसागर (जसवंतसागर) ने वि. सं. १७६० में टीका रची है।
१.
इस टीका की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद के संग्रह में है।
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४२६ ]
[ मुहूर्तराज इस 'ग्रह लाघव' पर राजसोम मुनि ने टिप्पण लिखा है।
मुनि यशस्वतसागर ने जैनसप्तपदार्थ (सं. १७५७) प्रमाणवादार्थ (सं. १७५९) भावसप्ततिका (सं. १७४०) यशोराजपद्धति (सं. १७६२) वादार्थनिरूपण, स्याद्वाद मुक्तावली, स्तवनवरत्न आदि ग्रन्थ रचे हैं। चन्द्रार्की टीका :
मोढ दिनकर ने 'चन्द्रार्की' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में ३३ श्लोक है। सूर्य और चन्द्रमा का स्पष्टीकरण है। ग्रन्थ में आरम्भ वर्ष शक संवत् १५०० है।
इस 'चन्द्रार्की' ग्रन्थ पर तपागच्छीय मुनि कृपाविजयजी ने टीका रची है। षट्पंचाशिका टीका :
प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् वाराहमिहिर के पुत्र पृथुयश ने 'षट्पंचाशिका' की रचना की है। यह जातक का प्रामाणिक ग्रन्थ गिना जाता है। इसमें ५६ श्लोक हैं। इसे 'षट्पंचाशिका' पर भट्ट उत्पल की टीका है।
इस ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय लब्धिविजय के शिष्य महिमोदय मुनि ने एक टीका लिखी है। इन्होने वि. सं. १७२२ में ज्योतिरत्नाकार, पंचांगानयन विधि गणित साठसौ आदि ग्रन्थ भी रचे हैं। भुवन दीपक टीका :
पंडित हरीभट्ट ने लगभग वि. सं. १५७० में 'भुवन दीपक' ग्रन्थ की रचना की है।
इस 'भुवन दीपक' पर खरतरगच्छीय मुनि लक्ष्मीविजय ने वि. सं. १७६७ में टीका रची है। चमत्कारचिन्तामणि टीका :
राजर्षि भट्ट ने 'चमत्कारचिन्तामणि' ग्रन्थ की रचना की है। इसमें मुहूर्त और जातक दोनों अंगों के विषय में उपयोगी बातों का वर्णन किया गया है।
इस 'चमत्कारचिन्तामणि' ग्रन्थ पर खरतरगच्छीय मुनि पुण्यहर्ष के शिष्य अभयकुशल ने लगभग वि. सं. १७३७ में बालावबोधिनि वृत्ति की रचना की है।
मुनि मतिसागर ने वि. सं. १८२७ में इस ग्रन्थ पर 'टबा' की रचना की है। होरा मकरन्द टीका:
__ अज्ञातकर्तृक 'होरा मकरन्द' नामक ग्रन्थ पर मुनि सुमतिहर्ष ने करीब वि. सं. १६७८ में टीका रची है। बसन्तराज शकुन टीका :
बसन्तराज नामक विद्वान ने शकुन विषयक एक ग्रन्थ की रचना की है। इसे 'शकुन निर्णय' अथवा 'शकुनार्णव' कहते हैं। ___ इस ग्रन्थ पर उपाध्याय भानुचन्द्र गणि ने १७ वीं सदी में टीका लिखा है।'
समाप्त।
१. .
यह बैंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित है।
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मुहूर्तराज ]
[४२७
पूंजीपति व्यक्ति अकुलीन हो तो भी कुलीन, निर्बल हो तो सबल, मूर्ख हो तो जानकार और भीरु हो तो निर्भीक माना जाता है। यह उसके पास के धन का महत्व है। और इसीसे वह संसार में सुखोपभोगी, आमोद-प्रमोदी बना रहता है। परन्तु उसके लिये इससे दुर्गति द्वार बन्द नहीं होता और न उसकी श्रीमन्ताई वहाँ सहायक होती है। वस्तुतः धनवन्त बनने की सार्थकता तब ही होती है जब वह अपने गरीब स्वधर्मी बन्धुओं की एवं दीन, हीन, दु:खी प्राणियों की और दुःख-दर्द-पीड़ित जीवों की हृदय से सेवा करे तथा छात्रालय, ज्ञानालय, धर्मालय आदि की सुव्यवस्था करे। पुन्यवृद्धि और अच्छी गति की प्राप्ति इन्हीं सुकृत कार्यों से होती है।
-श्री राजेन्द्रसूरि
जिस प्रकार आधा भरा हुआ घड़ा झलकता है, भरा हुआ नहीं; कांसी की थाली रणकार शब्द करती है, स्वर्ण की नहीं और गदहा भूकता है, घोड़ा नहीं; इसी प्रकार दुष्ट-स्वभावी दुर्जन लोग थोड़ा भी गुण पाकर ऐंठने लगते हैं और वे अपनी स्वल्प बुद्धि के कारण सारी जनता को मूर्ख समझने लगते हैं। सज्जन पुरुष होते हैं, वे सद्गुण पूर्ण होकर के भी अंशमात्र ऐंठते नहीं और न अपने गुण को ही अपने मुख से जाहिर करते हैं। जैसे सुगंधी वस्तु की सुवास छिपी नहीं रहती, वैसे ही उनके गुण अपने आप चमक उठते है। इसलिए दुर्जनभाव को छोड़कर सज्जनता के गुण अपनाने की कोशिश करना चाहिये, तभी आत्म-कल्याण होगा।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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४२८ ]
[ मुहूर्तराज
शान्ति तथा द्रोह ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी तत्व हैं। जहाँ शान्ति हो, वहाँ द्रोह नहीं और जहाँ द्रोह हो वहाँ शाँति का निवास नहीं होता। द्रोह का मुख्य कारण है अपनी भूलों का सुधार नहीं करना। जो पुरुष सहिष्णुतापूर्वक अपनी भूलों का सुधार कर लेता है, उसको द्रोह स्पर्श तक नहीं कर सकता। उसकी शांति-आत्म-संरक्षण, आत्म-संशोधन और उसके विकासक मार्ग को आश्रय देती है। जिससे भाई-भाई में, मित्र-मित्र में, जन-जन में सभी व्यक्तियों में मेल-जोल का प्रसार होता है और पारस्परिक संगठन-बल बढ़ता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को द्रोह को सर्वथा छोड़ देना चाहिये। और अपने प्रत्येक व्यवहारकार्य में शांति से काम लेना चाहिये। लोगों को वश करने का यही एक वशीकरण मन्त्र है।
-श्री राजेन्द्रसूरि
साधु में साधुता तथा शांति और श्रावक में श्रावकत्व और दृढ़धर्म परायणता होना आवश्यकीय है।
इनके बिना उनका आत्मविकास कभी नहीं हो सकता। जो साधु अपनी संयमक्रिया में शिथिल रहता है, थोड़ी-थोड़ी बात में आग-बबूला हो जाता है
और सारा दिन व्यर्थ बातों में व्यतीत करता है, इसी तरह जो श्रावक अपने धर्म पर
विश्वास नहीं रखता, कर्तव्य का पालन नहीं करता और आशा से ढोंगियों की ताक में रहता है; उस साधु एवं श्रावक को उन्हीं पशुओं के समान समझना
___ चाहिये, जो मनुष्यता से हीन है। कहने का मतलब कि साधु
एवं श्रावक को आत्मविश्वास रखकर अपने-अपने कर्तव्य-पालन में सदा दृढ़ रहना चाहिये तभी उनका प्रभाव दूसरे व्यक्तियों पर पड़ेगा
और वे अन्य भी उनके प्रभाव से प्रभावित हो कर अपने जीवन का विकास साध सकेंगे।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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मुहूर्तराज ]
परिशिष्ट
(५)
परम पूज्य शासन दीपक मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' महाराज को वाराणसी विद्या नगरी में प्राचीन संस्था काशी पण्डित सभा का विशेष अधिवेशन बुलाकर पूज्यश्री को ज्योतिषाचार्य ' की मानद उपाधि देकर सम्मानित किया।
जिसकी चित्रमय प्रस्तुति -
"
*
प्रस्तुति * अं. सौ. उषा देवी सुनील कुमार पारिख
एम. ए.
बड़वाह जि. खरगोन (मध्यप्रदेश )
[ ४२९
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४३० ]
[ मुहूर्तराज
त्यतिमा का साथ व्याधि से
ज्योतिषाचार्य की मानद उपाधि से
विभूषित
श्री महावीर स्वामी निर्वाण संवत् २५१५ श्रीविक्रम सं. २०४६ श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर सं. ८४ ईस्वी ८९ कार्तिक सूदी ५ रविवार दिनांक ५/११/८९ को परम पूज्य व्याख्यान वाचस्पति आगम भास्कर लक्ष्मणी तीर्थ संस्थापक मोहनखेड़ा भाण्डवपुर तीर्थोद्धारक श्री श्री १००८ श्रीमद्विजययतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य रत्न परम पूज्य शासन दीपक ज्योतिष मार्तण्ड मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण महाराज सा. अपने शिष्य रत्न प्रवचनकार शासन रत्न मुनिराज श्री हितेशचन्द्रविजयजी 'श्रेयस' के साथ काशी नगरी में चातुर्मास विराजमान थे। उस समय काशी पण्डित सभा के प्रचार मंत्री श्री ब्रह्मानन्दजी चतुर्वेदी एवं मंत्री डॉ. श्री विनोदरावजी पाठक से परिचय हुआ। इनके माध्यम से विद्वद्वर्ग में परिचय बढ़ा एवं एक दो कार्यक्रमों में जाना भी हुआ। इसी क्रम में बनारस हिन्दी विश्वविद्यालय बनारस ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता पण्डित प्रवर राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित श्रीरामचन्द्रजी पाण्डेय से परिचय हुआ। परिचय दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ होता गया। काशी पण्डित सभा का कार्यालय शारदा भवन अगसत्य कुण्ड में दिनांक ५/११/८९ रविवार को विशेष अधिवेशन काशी पण्डित सभा के अध्यक्ष श्री डॉ. बटुकनाथजी शास्त्री खिस्ते की अध्यक्षता में आमंत्रित किया।
सम्मेलन प्रारंभ होने से पूर्व काशी पण्डित सभा के मंत्री डॉ. पण्डित विनोदरायजी पाठक ने आज के सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए प्रस्ताव रखा, जिसका अनुमोदन काशी पण्डित सभा के प्रचार मंत्री डॉ. पण्डित ब्रह्मानन्दजी चतुर्वेदी ने किया। अध्यक्ष महोदय ने अध्यक्षीय आसन ग्रहण करके मंगलाचरण का कार्य प्रारंभ किया। पण्डित श्री मंगलेश्वर पाठक ने शास्त्री संगीत से प्रारंभ किया। पश्चात् अध्यक्ष महोदय श्री बटुकनाथजी शास्त्री खिस्ते ने स्वागत भाषण दिया। उन्होंने विद्वत्ततापूर्ण भाषण में परम पूज्य कालिकाल सर्वज्ञ कुमार पाल राजा प्रतिबोधक प्राकृत शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित जिन्होंने ३ करोड़ श्लोक की रचना करके अपने आप में गौरवपूर्ण कार्य किया एवं प्राकृत संस्कृत के महान लेखक परम पूज्य सकलागम रेहस्यवेदी सौधर्म बृहत्पोगच्छ नायक. श्री मोहनखेड़ा तीर्थ संस्थापक परम गीतारय भट्टारक श्वेताम्बराचार्य प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सा. द्वारा लिखित अभिधान राजेन्द्र कोष की रचना करके विद्वद् जगत् से यश पाया। दोनों महान् जैनाचार्यों को हार्दिक पुष्पांज देते हुए अभिनन्दन अभिवादन किया।
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काशी पण्डित सभा में श्री पार्श्वनाथ भगवान के जन्म स्थल पर दर्शन करते हुए परम पूज्य मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' प्रवचनकार मुनिश्री हितेशचन्द्र विजयजी 'श्रेयस'
શ્રાવસ્ત્ર શનુંપા
काशी पण्डित सभा में पधारें पण्डित प्रवर
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419
काशीपण्डित विशेषाधि
वारा
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मुहूर्तराज ]
[४३१ ____ बाद में धार जिलान्तर्गत श्री मोहनखेड़ा तीर्थ से पधारे ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान ज्योतिषमार्तण्ड शासन दीपक पूज्य मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' महाराज सा. का परिचय डॉ. पण्डित श्री ब्रह्मानन्दजी चतुर्वेदी ने रोचक शैली से दिया।
सभा का कार्यक्रम आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित डॉ. पण्डित श्रीराम पाण्डे ने संस्कृत श्लोकबद्ध अभिनन्दन-पत्र अभिवादन सह अर्पण किया।
पण्डित प्रवरों ने अपने ओज व विद्वद्त्तापूर्ण भाषणों से कार्यक्रम सफलतापूर्वक आगे बढ़ाते गए। विद्वद्गोष्ठि में भाग लेने वाले प्रमुख पण्डित प्रवरों में श्री मेजर श्री नरेन्द्रजी श्रीवास्तव प्राचार्य दयानन्द महाविद्यालय वाराणसी डॉ. श्री कैलाशपति त्रिपाठी साहित्य संस्कृत संकायाध्यक्ष, डॉ. सम्पुर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, डॉ. पण्डित श्री रेवाप्रसादजी द्विवेदी साहित्य विभागाध्यक्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी, डॉ. श्री देवस्वरूपजी मिश्र दर्शन संकायाध्यक्ष, डॉ. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी, डॉ. श्रीरामप्रकाशजी त्रिपाठी भू.पू. व्याकरण विभागाध्यक्ष, डॉ. श्री सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी। पण्डित प्रवर ज्योतिषशाला के मर्मज्ञ विद्वान श्री चंचलता लक्ष्मण शास्त्री आदि पधारे पण्डित प्रवरों के भाषण के बाद अध्यक्ष महोदय के आदेश से ज्योतिषाचार्य की उपाधि के पत्र को पढ़ने का डॉ. पण्डित विनोदरावजी पाठक को दिया। पश्चात् डॉ. बटुकनाथजी शास्त्री खिस्ते व डॉ. श्री विनोदरावजी पाठक ने परम पूज्य ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान आदरणीय मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' को ज्योतिषाचार्य की मानद उपाधि प्रदान की। परम पूज्य मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' महाराज ने ज्योतिष शास्त्र को जैनाचार्यों को देन के विषय में समयोचित व्याख्यान दिया।
कार्यक्रमको समाप्त करते डॉ. पण्डित वर्यश्री बन्दीकृष्ण त्रिपाठी ने माना व काशी पण्डित सभा के मंत्री डॉ. पण्डित श्री विनोदरावजी पाठक ने सफल संचालन किया।
अधिवेशन में पधारे प्रमुख विद्वान वर्ग पण्डित डॉ. बटुकनाथजी शास्त्री खिस्ते - राष्ट्रपति सम्मानित पण्डित डॉ. श्रीराम पाण्डेय राष्ट्रपति सम्मानित। पण्डित डॉ. श्री वशिष्ठजी पण्डित डॉ. श्री देवस्वरूप मिश्र राष्ट्रपति सम्मानित पण्डित डॉ. श्री रामचन्द्रजी पाठक पण्डित डॉ. श्री बन्दीकृष्णजी त्रिपाठी पण्डित डॉ. श्री विनोदरावजी पाठक
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[ मुहूर्तराज ४३२ ]
पण्डित डॉ. श्री ब्रह्मानन्दजी चतुर्वेदी पण्डित डॉ. श्री सुधाकरजी मिश्र पण्डित डॉ. श्री रामप्रसादजी त्रिपाठी - राष्ट्रपति सम्मानित पण्डित डॉ. श्री नरेन्द्रनाथजी पाण्डेय पण्डित डॉ. श्री शिवजी उपाध्याय पण्डित डॉ. प्रोफेसर श्री कैलाशपति त्रिपाठी पण्डित डॉ. श्री पार्श्वनाथजी द्विवेदी पण्डित डॉ. श्री वासुदेव द्विवेदी शास्त्री पण्डित डॉ. श्री कमलेशदत्त त्रिपाठी पण्डित डॉ. श्री रामचन्द्रजी पाण्डेय
इस प्रकार विद्या की नगरी में ज्योतिषाचार्य की पदवी से सम्मानित होना जैन समाज के लिये गौरव पूर्ण कार्य हुआ।
अन्त में पधारे पण्डित वर्ग का काशी पण्डित सभा के द्वारा सभी का स्वागत व स्वल्पाहार के बाद सम्मेलन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।
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काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में मंगला चरण करते हए.
डॉ. पण्डित प्रवर श्री विनोदराय पाठक
स्थापनाब्द-सं.१९४४
काशापण्डितसभायाविशेषाधिवेशनम्
वाराणसी
GAUTAM
से१९४४
काशापाण्डतसर विशेषाधिवेशन
वाराणसी
काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में डॉ. पण्डित श्री ब्रह्मानंदजी चतुर्वेदी पूज्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण' परिचय देते हुये
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मुहूर्तराज ]
[ ४३३
नांदनिया
इंदौर एवं भोपाल से एक साथ प्रकाशित
इंदौर शनिवार ४ नवंबर १९८९
कीमत एक रुपया बीस
श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि गुरुभ्योनम:
विश्व विख्यात
प्राचीन विद्या नगरी परम पूज्य विश्वन्द्य काशी में
परम पूज्य जैनाचार्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरिजी म. सा.
श्रीमद् यतीन्द्र सूरिजी म. दिनांक ५ नवंबर १९८९ रविवार को काशी पण्डित सभा के विशेष
अधिवेशन के शुभावसर पर सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय साहित्य शिरोमणि व्याख्यान वाचस्पति जैनाचार्य श्रीमद् विजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न ज्योतिष विशारद मुनिप्रवर श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण को अभिनन्दन। सह "ज्योतिषाचार्य' की मानद उपाधि प्रदान समारोह में
आप सादर आमंत्रित हैं। मुनिराज श्री जयप्रभ विजयजी महा. श्रमण
- निवेदक
पं. ब्रह्मानंद चतुर्वेदी राष्ट्रपति सन्मानित व्याकरण-मीमांसाचार्य
डॉ.विनोदराव पाठक पं. बटुकनाथ शास्त्री-खिस्ते
प्रचार मंत्री
साहित्य-न्यायाचार्य (भू.पू. आचार्य एवं अध्यक्ष-साहित्य काशी पण्डित सभा
मंत्री संस्कृति विभाग- संपूर्णानंद संस्कृत
काशी पण्डित सभा विश्वविद्यालय) अध्यक्ष, काशी पण्डित सभा
(स्थल-शारदा भवन अगस्त्य कुण्ड) काशी * अनिल कुमार अनोखीलाल मोदी, पेटलावद के सौजन्य से *
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४३४ ]
[मुहूर्तराज
वाराणसी । काशी पण्डित सभा द्वारा अगस्तकुण्ड | स्वतंत्र
भारत
दैनिक जागरण
आवश्यकी न वा' विषयपर वाद-विवाद तथा सस्वर
श्लोक पाठ प्रतियोगिता आयोजित की गयी। अन्त में वाराणसी (इलाहाबाद) ५ नवम्बर १९८९ संगीत समारोह का भी आयोजन किया गया। काशी पण्डित सभा का
अधिवेशन वाराणसी। काशी पण्डित सभा द्वारा अगस्तकुण्ड स्थित शारदा भवन में रविवार को अपरान्ह २ बजे विशेष अधिवेशन आयोजित किया गया है । इस अधिवेशन में
वाराणसी, १० सितम्बर १९८९ (२) ज्योतिष शास्त्रवेत्ता मुनिश्री जयप्रभ विजय (मध्य प्रदेश)
संस्कृत बिना भारतीय संस्कृति की रक्षा नहीं का अभिनन्दन एवं उन्हें मानपत्र भेंट किया जायेगा।
वाराणसी ९ सितम्बर । अगस्न्य कुण्ड स्थित शारदा वारणसी बुधवार, १३ सितम्बर १९८९ सौर २८ भाद्रपद सं. २०४६ वि.
भवन में ६१ वें श्री गणेशोत्सव के अवसर पर आयोजित विद्वत गोष्ठी में विद्वानों ने कहा कि देववाणी संस्कृत ही भारतीय संस्कृति के मूल में है और इसके बिना रक्षा सम्भव नही।
गोष्ठी के विशिष्ठ वक्ता भारतीय संस्कृति एवं
जयोतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान मुनिश्री जय प्रभ विजय बिहार में सर्वाधिक प्रसारित
जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति की जड़ इतनी मजबूत वाराणसी, गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ,आगरा,पटना,रांची, जमशेदपुर तथा धनबाद से प्रकाशित
संस्कृत भाषा के ही कारण है। यहां दतुर्मास्य व्रत कर रहे
मुनिश्री ने काशी की महत्ता की भी चर्चा की और कहा संस्कृत के बिना भारतीय कि काशी ने संस्कृत संस्कृति और परम्पराओं को बराबर संस्कृतिकी रक्षा असम्भव जीवंत बनाकर रखा।
__गोष्ठी में भाग लेने वालों में पं. करुणापति त्रिपाठी अगस्तकूण्ड स्थित शारदाभवन में गणेशोत्सवके |
| पं. राम प्रसाद त्रिपाठी पं. देवस्वरुप मिश्र. पं. बटुकनाथ अवसरपर रविवारको आयोजित विद्वत गोष्ठी में विद्वानों
शास्त्री खिस्ते. पं. राम यत्न शुक्ल. पं. वासुदेव द्विवेदी ने कहा कि संस्कृत ही भारतीय संस्कृति का मूल है ।
पं. वदिकृष्ण त्रिपाठी पं. श्री राम पाण्डेय प्रमुख थे। इसके बिना शास्त्रों की रक्षा सम्भव नहीं है।
इस अवसर पर मुनिश्री जय प्रभजी ने सभी मूर्थन्य __ गोष्ठी में ज्योतिषशास्त्र के प्रमुख विद्वान श्री जयप्रभ |
विद्वानों का और विभिन्न प्रतियोगिताओं में श्रेष्ठ आये विजयजी ने कहा कि संस्कत भाषा के कारण ही भारतीय
| बच्चों को पुरस्कार प्रदान किया । उन्होंने ऐसी संस्कृति की जड़ इतनी मजबूत है। काशी में इन दिनों
प्रतियोगिताओं को देशभर में आयोजित किये जाने पर चातुर्मास्य व्रतकर रहे श्री विजयजी ने कहा कि काशी के
बल दिया जिससे छात्र-छात्राओं को समान रूप से आगे मूर्धन्य विद्वानों ने संस्कृति एवं शास्त्रों की परम्परा को
बढ़ने की प्रेरणा मिले। आज भी जीवन्त बनाकर रखा हैं।
प्रतियोगिताओं के पुरस्कार इस प्रकार दिये गए यहां का एक-एक विद्वान भारतीय संस्कृति का साक्षात
सरस्वती श्लोक प्रतियोगिता में कु. अशुल श्रीवास्तवप्रतीक है । इस अवसर पर राष्ट्रोत्रत्येक नार शिक्षा
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כז
9
5
11 21
2
काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में पधारे सम्मानीय पण्डित प्रवर
स्थापनान्द:-सं. १९४४
ण्डितसभायाशेषाधिवेशनम वाराणसी
GAUTAM
राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित डॉ. पण्डित प्रवर श्रीरामजी पाण्डेय पूज्य मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयजी 'श्रमण' महाराज को काशी पण्डित सभा द्वारा अभिनन्दन-पत्र प्रदान करते हुए
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मुहूर्तराज ]
[ ४३५ गुरुनानक इंग्लिश स्कूल कु. सुमति - जिज्ञासु पाणिनी |
८-११-८९ कन्या महाविद्यालय श्री सब्यसांची गांगुली-बी.टी.एस. प्राइमरी स्कूल क्रमश- प्रथम द्वितीय तथा तृतीय स्थान पर रहे। __'राष्ट्रोनत्यै नारी शिक्षा आवश्यकी न वा?' विषयक वाद-विवाद प्रतियोगिता में कु. धारणा-जिज्ञासु पाणिनी
सर्वाधिक प्रसारित कन्या महाविद्यालय, वाचस्पति पाठक एवं हरीशंकर
वाराणसी, गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर,लखनऊ, त्रिपाठी क्रमश:प्रथम द्वितीय एव तृतीय पुरस्कार प्राप्त किए।
आगरा,पटना,रांची, जमशेदपुर तथा धनबाद से प्रकाशित
सन्माग
हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए काशी के विद्वानों का आह्वान जब-जब हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर आघात हुआ है
तब काशी के विद्वानों ने धर्म संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान भारतीय संस्कृति की रक्षा
दिया है। संस्कृत के बिना सम्भव नहीं
___ अगस्तकुण्ड स्थित शारदा भवन में रविवार को काशी
पण्डित सभा की ओर से आयोजित अधिवेशन में उक्त वाराणसी १४ सित. । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में ६१ वें श्री गणेशोत्सव के अवसर पर आयोजित
विचार व्यक्त करते हुये मध्य प्रदेश के मुनिश्री जयप्रभ विद्वान गोष्ठी में विद्वानों ने कहा कि संस्कृत ही भारतीय
विजय ने कहा कि शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा संस्कृति के मूल में है और इसके बिना भारतीय संस्कृति
समुन्नत करने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू एवं शास्त्रों की रक्षा संभव नही है।
धर्मावलम्बी सभी संतों मुनियों को भी आगे आना चाहिए। __गोष्ठी में विशिष्ट वक्ता भारतीय संस्कृति एवं | उन्होंने कहा कि आज यहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां ज्योतिषशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान मुनिश्री जयप्रभविजयजी | आपसी द्वंद्व के कारण समाप्त होती जा रही है, वही हमारी ने कहा कि भारतीय संस्कृति की जड़ इतनी मजबूत है। | सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है। इसका उसका कारण संस्कृत भाषा ही है। काशी में चातुर्मास्य | श्रेय हमारे मुनियों, संत महात्माओं को ही जाता है। व्रत कर रहे मुनिश्री ने कहा कि यहां के मुर्धन्य विद्वानों ने | गोष्ठी में सर्वश्री मेज़र नरेन्द्र श्रीवास्तव, डाक्टर संस्कृति एवं शास्त्रों की परम्परा को आज भी जीवंत |
कैलाशपति त्रिपाठी, डाक्टर रेवाप्रसाद द्विवेदी, डाक्टर बनाकर रखा है। यहां के एक-एक विद्वान साक्षात् भारतीय
देवस्वरूप मिश्र, डाक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी, पण्डित चेल्ला संस्कृति के प्रतीत है।
लक्ष्मण शास्त्री आदि ने विचार व्यक्त किये । स्वागत ___ गोष्ठी में भाग लेने वालों में पंडित रामप्रसाद त्रिपाठी, पं. करुणापति त्रिपाठी, पं. बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते,
भाषण प्रोफेसर बटुकनाथ शास्त्री खिस्तेने किया। कार्यक्रम पं. देवरूप मिश्र, पं. श्रीराम पाण्डेय, पं. रामयत्न शुक्ल,
का संचालन डाक्टर विनोदराव पाठक ने किया। पं. वासुदेव द्विवेदी, पं. बन्दिकृष्ण त्रिपाठी आदि प्रमुख थे।
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४३६ ]
[मुहूर्तराज
स्वतंत्र भारत
| The Pioneer VNS : Sunday: September 10, 1989 | Shree Ramatarake Andhra Ashram
also organised a week long function to The actractive music programme, organised by the Shree
celebrate Ganeshatsava. Seminars Ramataraka Andhra Ashram Varanasi, to celebrate the
music programmes, lectures and Bhajans Geneshotsav.
marked the celebration there. Call for protection
of Sanskrit
By Our Staff Reporter VARANASI, Sept. 9 - Sanskrit is the
वाराणसी कार्तिक शुक्ल पक्ष ८ संवत् २०४६ वि. सोमवार ६ नवम्बर १९८९ ई. root of Indian Culture and it should be हिन्दू संस्कृति की रक्षा हेतु काशी के विद्वानों का आह्वान protected at any continution keep the culture and traditions of the country alive,
वाराणसी, ५ नवम्बर । मूनिश्री जयप्रभ विजय ने हिन्दू said Muni Shree Jai Krisna Prabha vijay,
| संस्कृति एवं शास्त्रों की रक्षा पर बल देते हुए कहा कि while speakind at the 61st | इसके लिए कशी के विद्वानों को आगे आना चाहिए। Ganeshotsava, being celebrated by अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में आज सम्पन्न Sharadabhawan Shri Ganeshotsava
हुए काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में धार (मध्य here today.
प्रदेश) से पधारे श्री जयप्रभ विजय ने कहा कि प्राय: यह He praised the efforts of the club,
हुआ है कि जब-जब हिन्दू धर्म और संस्कृति पर आघात being done for protecting Sanskrit and
हुआ है, तब-तब काशी के विद्वानों ने भारतीयता और said that Sanskrit debates are healthy sign in this direction. He declared three
संस्कृति की रक्षा हेतु कुर्बानी दी है। silver medals for the winners and bore गोष्ठी में आये अन्य विद्वानों ने कहा कि शास्त्रों की the expenses of the same.
रक्षा के लिए तथा संस्कृत भाषा को ओर समुन्नत बनाने Prominent among those who | के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी addressed the seminar were pt. Ram | सभी सन्त एवं मुनियों का (को आगे) आना चाहिए। Prasad Tripathi, Pt. Karunapati Tripathi, Pt Deo Swarup Mishra, Pt Batuk Nath Shastri Khiste, Pt. Ram Yatna Shukla, Pt. Vasudeo Dwivedi, Pt. Bandi Krishna Tripathi and Pt. Shree Ram Pandey.
The students of Guru Nanak English School, Panini Kanya Mahavidyalay, Besant Theosophical School participated in poetry recitation competitions.
A music concert was also organised on the occassion.
न्योतिषाचार्य श्री जयप्रभ विनयनी को मानद उपाधि प्रदान करते प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते (बायें) एवं डॉ. विनोद राव पाठक (दायें)
NaHARI
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५ नवम्बर १९८९ को काशी पण्डित सभा के अध्यक्ष माननीय डॉ. पण्डित बटुकनाथजी शास्त्री खिस्ते एवं पण्डित डॉ. विनोदरायजी पाठक पूज्य मुनिप्रवर श्री जयप्रभविजयजी श्रमण' को ज्योतिषाचार्य की मानद उपाधि प्रदान करते हुए
स्थापनाब्द
९४४
विशेषा
वार
स्थापनान्द-सं.१९४४
काशीपण्डितसभाया
विशेषाधिवेशनम
वाराणसी
पूज्य मुनि प्रवर श्री जयप्रभविजयश्री 'श्रमण' महाराज काशी पण्डित सभा में व्याख्यान देते हुए
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मुहूर्तराज ]
[४३७
यह हर्ष का विषय है कि इस कार्यक्रम में इस कार्य में मुनिश्री जैसे विद्वानों का अमूल्य योगदान हो रहा है। ___ कार्यक्रम का प्रारम्भ वैदिक, पौराणिक एवं सांगीतिक मंगलाचरण में हुआ, स्वागत भाषण काशी पंण्डित सभा
मंगलवार ७, नवम्बर १९८९ के बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने किया । अनन्तर काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने सभा का परिचय प्रस्तुत किया । प्रचार मंत्री पं. ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने
हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए अभिनन्दनीय मुनिश्री का परिचय दिया । भूतपूर्व न्याय काशी के विद्वानों का आह्वान विभागाध्यक्ष डॉ. श्रीराम पाण्डेयजी ने अभिनन्दन पत्र प्रदान किया । अनन्तर काशी पण्डित सभा की ओर से वाराणसी, ६ नवम्बर । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा मुनिश्री जयप्रभ विजयजी को मानद उपाधि प्रदानी की
भवन में रविवार को सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के गई। विद्वद गोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे- सर्वश्री
विशेष अधिवेशन सभा में धार (मध्य प्रदेश) से पधारे नरेन्द्र श्रीवास्तव, प्रिन्सिपल- दयानन्द महाविद्यालय, डॉ.
मुनिश्री जय प्रभु विजय ने हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों की
रक्षा पर बल देते हुए कहा कि इसके लिए काशी के विद्वानों कैलाशपति त्रिपाठी साहित्य संस्कृति संकायाध्यक्ष- स.
को आगे आना चाहिए। संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. श्रीराम पाण्डेय, काशी हिन्दू
| गोष्ठी में भाग लेते हुए अन्य विद्वानों ने कहा कि शास्त्रों विश्वविद्यालयीन साहित्य विभागाध्यक्ष, डॉ. रेवा प्रसाद | की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को ओर समुन्नत बनाने के द्विवेदी, डॉ. देवस्वरुप मिश्र दर्शन संकायाध्यक्ष संस्कृत | | लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी सभी संत विश्वविद्यालय, डॅा. रामप्रसाद त्रिपाठी, पण्डित | एवं मुनियों को भी आगे आना चाहिए। भारतीय संस्कृति चल्लालक्ष्मण शास्त्री, डॉ. रामचन्द्र पाण्डेय, ज्योतिष । | एवं शास्त्रों की चर्चा करते हुए विद्वानों ने कहा कि आज विभागाध्यक्ष का.हि.वि.वि. आदि थे।
जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी द्वन्द्व में समाप्त धन्यवाद पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने दिया । अधिवेषन
होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का के अनन्तर उपस्थित विद्वनों का काशी पण्डित सभा की
स्वरूप अक्षुण्ण बना हुआ है। कार्यक्रम का प्रारम्भ पं. ओर से सत्कार किया गया। सभा का संचालन डॉ. विनोद राव पाठक ने किया।
पण्डितर भार ज्योतिषाचार्य श्री जयप्रभ विजयजी को मानद उपाधि प्रदान करते प्रो. बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते (बायें) एवं
विशषामा डॉ. विनोद राव पाठक (दायें)।
M
ERO
मानद उपाधि ग्रहण करते हुए मुनिश्री नय प्रभ विजयनी, शाल ओढ़े प्रो. एकनाथ शास्त्री खिस्ते (मध्यक्ष काशी पण्डित सभा) तथा विनोद ।
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४३८ ]
[मुहूर्तराज
मंगलेश्वर पाठक के वैदिक मंगलाचरण से हुआ अनन्तर | हुआ है, तब-तब काशी के विद्वानों ने भारतीयता और पौराणिक एवं संगीतक मंगलाचरण हुआ। स्वागत भाषण | संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान किया है। काशी पण्डित सभा के अध्यक्ष प्रो. बटुकनाथ शास्त्री
गोष्ठी में भाग लेते हुए अन्य वक्ताओं ने कहा कि खिस्ते ने किया। अनन्तरन काशी
शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को और समुन्नत बनाने पण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने सभा
| के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी सभी का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। प्रचार मंत्री पं. बह्मानंद चतुर्वेदी ने अभिनंदनीय मुनिश्री का परिचय दिया । डॉ.
सन्त एवं मुनियों को भी आगे आना चाहिए। विद्वानों ने श्रीराम पाण्डेय भूतपूर्व न्याय विभागाध्यक्ष संस्कृत | कहा कि आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी विश्वविद्यालय ने मुनिश्री को अभिनन्दन पत्र प्रदान | द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं किया।
संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है इसका श्रेय हमारे विद्दगोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे -सर्वश्री
| मुनियों, संत महात्माओं को ही है। मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तव प्राचार्य, दयानन्द महाविद्यालय,
___ कार्यक्रमों का प्रारम्भ पं. मंगलेश्वर पाठक के वैदिक डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी साहित्य संस्कृति संकायाध्यक्ष सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. श्री रेवाप्रसाद
मंगलाचरण से हुआ, अनन्तर पौराणिक एवं सांगीतक द्विवेदी, साहित्य विभागाध्यक्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
मंगलाचरण हुआ।स्वागत भाषण काशी पंण्डित सभा के डॉ. देवस्वरूप मिश्र दर्शन संकायाध्यक्ष सम्पूर्णानंद संस्कृत | अध्यक्ष प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने किया। अनन्तर विश्वविद्यालय, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी भूतपूर्व व्याकरण | काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने विभागाध्यक्ष सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, पं सभा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया । प्रचार मंत्री पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि प्रमुख थे।
ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने अभिनन्दनीय मुनीश्री का परिचय दिया। डॉ. श्रीराम पाण्डेय भूतपूर्व न्याय विभागाध्यक्ष संस्कृत विश्वविद्यालय ने मुनिश्री को अभिनन्दन पत्र
प्रदान किया । अनन्तर काशी पण्डित सभा की ओर से वाराणसी, मंगलवार 7 नवम्बर 1989 मुनीश्री जयप्रभ विजयजी को मानद उपाधि प्रदान की
गई। विद्वदगोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे- सर्वश्री हिन्दू संस्कृति की रक्षा हेतु
| नरेन्द्र श्रीवास्तव, डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी, डा. श्री रेवा काशी के विद्वानों का आह्वान
प्रसाद द्विवेदी, डॉ. देवस्वरूप मिश्र, डॉ. रामप्रसाद वाराणसी, सोमवार । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा | त्रिपाठी, पं. लक्ष्मण शास्त्री आदि प्रमुख थे । धन्यवाद भवन में रविवार को सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के | पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने दिया। संचालन श्री विनोद राव विशेष अधिवेशन में (धार) मध्य प्रदेश से पधारे मुनिश्री | पाठक ने किया। जयप्रभ विजय ने कहा कि हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों कि रक्षा हेतु काशी विद्वानों को आगे आना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब-जब हिन्दू धर्म और संस्कृति पर आघात
जनमख
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संत महात्माओं को ही है। विद्वानों ने संस्कृति के बहुमुखी दैनिक जागरण
विकास के लिए अनेक उपाय बतलाये । यह हर्ष का वाराणसी, बुधवार ८ नवम्बर १९८९
विषय है कि शास्त्र रक्षा के कार्य में मुनिश्री जय प्रभ हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दू काशी के
विजयजी जैसे विद्वानों का अमूल्य योगदान हो रहा है। विद्वानों का आह्वान-मुनिश्री जयप्रभ विजय ___ कार्यक्रमों का प्रारम्भ पं. मंगलेश्वर पाठक के वैदिक वाराणसी । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में
मंगलाचरण से हुआ अनन्तर पौराणिक एवं सांगीतक रविवार सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के विशेष मंगलाचरण हुआ। स्वागत भाषण काशी पंण्डित सभा के अधिवेशन में धार (मध्य प्रदेश) से पधारे मुनिश्री जयप्रभ अध्यक्ष प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने किया । अनन्तर विजय ने कहा कि हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों कि रक्षा काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने पर बल देते हेतु कहा कि इसके लिए काशी के विद्वानों सभा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया । प्रचार मंत्री पं. को आगे आना चाहिए। आपने कहा कि जब-जब हिन्दू
ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने अभिनन्दनीय मुनीश्री का परिचय धर्म और संस्कति पर आघात हआ है. तब-तब काशी
| दिया। डॉ. श्रीराम पाण्डेय भूतपूर्व न्याय विभागाध्यक्ष के विद्वानों ने भारतीयता और संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान किया है।
| संस्कृत विश्वविद्यालय ने मुनिश्री को अभिनन्दन पत्र गोष्ठी में भाग लेते हुए अन्य विद्वानों ने कहा कि
प्रदान किया। शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को और समुन्नत
विद्वद्गोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे- सर्वश्री बनाने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी | मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तव, प्राचार्य, दयानन्द महाविद्यालय,
डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी -साहित्य संस्कृति संकायाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रेवा प्रसाद
द्विवेदी- साहित्य विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू पाण्डतामा
विश्वविद्यालय, डॉ. देवस्वरूप मिश्र-दर्शन संकायाध्यक्ष, विशषा ितम्
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी- भूतपूर्व व्याकरण विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि
प्रमुख थे । धन्यवाद पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने दिया । मानव उपाधि ग्रहण करते हुए मुनिश्री जयप्रभ विजयजी। छाया: जागरण
अधिवेषन में उपस्थित विद्वनों का काशी पण्डित सभा सभी सन्त एवं मुनियों को भी आगे आना चाहिए। भारतीय | की ओर से सत्कार किया गया। सभा का संचालन डॉ. संस्कृति एवं शास्त्रों कि चर्चा करते हुए विद्वानों ने कहा विनोद राव पाठक ने किया। कि आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है। इसका श्रेय हमारे मुनियों,
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जयदेश
वाराणसी मंगलवार ७ नवम्बर
हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिये काशी के विद्वान आगे आयें
वाराणसी, ६ नव । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में कल सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में धार मध्य प्रदेश से पधारे मुनिश्री जयप्रभ विजय ने हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों कि रक्षा पर बल देते हेतु कहा कि इसके लिए काशी के विद्वानों को आगे आना चाहिए क्योंकि जब-जब हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर आघात हुआ है, तब-तब काशी के विद्वानों ने भारतीयता और संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान किया है।
गोष्ठी में भारतीय संस्कृति एवं शास्त्रों की चर्चा करते हुए विद्वानों ने कहा कि आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है इसका श्रेय हमारे मुनियों, संत महात्माओं को ही है । विद्वानों ने संस्कृति के बहुमुखी विकास के लिए अनेक उपाय बतलाये । यह हर्ष का विषय है कि शास्त्र रक्षा के कार्य में मुनिश्री जय प्रभविजयजी जैसे विद्वानों का अमूल्य योगदान हो रहा है।
विद्वद्गोष्ठी में सर्वश्री मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तव, प्राचार्य, दयानन्द महाविद्यालय, डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी, साहित्य संस्कृति संकायाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी - साहित्य विभागाध्यक्ष, का. हि. वि. वि. डॉ. देवस्वरूप मिश्र-दर्शन संकायाध्यक्ष, स. सं.वि.वि., डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी भू.पू. व्याकरण विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि प्रमुख थे ।
[ मुहूर्तराज
धन्यवाद पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने किया। अधिवेषन में उपस्थित विद्वनों का काशी पण्डित सभा की ओर से सत्कार किया गया । कार्यक्रम का संचालन डॉ. विनोद राव पाठक ने किया ।
आज
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वाराणसी, गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, आगरा, पटना, रांची, जमशेदपुर तथा धनबाद से प्रकाशित
हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए काशी के विद्वानों का आह्वान जब-जब हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर आघात हुआ है तब काशी के विद्वानों ने धर्म संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान दिया है ।
पण्डित
विशेषा
बार
मानव उपाधि ग्रहण करते हुए मुनिश्री जयप्रभ विजयजी । छायाः बागरण
अगस्त्यकुण्ड स्थित शारदा भवन में रविवार को काशी पण्डित सभा की ओर से आयोजित अधिवेशन में उक्त विचार व्यक्त करते हुये मध्य प्रदेश के मुनिश्री जयप्रभु विजय ने कहा कि शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को
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समुन्नत करने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू | अधिवेशन में धार (मध्य प्रदेश) से पधारे मुनिश्री जयप्रभ धर्मावलम्बी सभी संतों मुनियों को आगे आना चाहिए । । विजय ने कहा कि हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों की रक्षा उन्होंने कहा कि आज यहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां | पर बल देते हुए कहा कि इसके लिए काशी के विद्वानों आपसी द्वंद्व के कारण समाप्त होती जा रही है, वही हमारी | को आगे आना चाहिए। आपने कहा कि जब-जब हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है। इसका | धर्म और संस्कृति पर आघात हुआ है, तब-तब काशी श्रेय हमारे मुनियों, संत महात्माओं को ही जाता है। के विद्वानों ने भारतीयता और संस्कृति की रक्षा हेतु ___ गोष्ठी में सर्वश्री मेज़र नरेन्द्र श्रीवास्तव,डाक्टर बलिदान किया है। कैलाशपति त्रिपाठी, डाक्टर रेवाप्रसाद द्विवेदी, गोष्ठी में भाग लेते हुए अन्य विद्वानों ने कहा कि डाक्टर देवस्वरूप मिश्र, डाक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी, शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को और समुन्नत पण्डित चेल्ला लक्ष्मण शास्त्री आदि ने विचार बनाने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी व्यक्त किये। स्वागत भाषण प्रोफेसर बटकनाथ शास्त्री सभी सन्त एवं मुनियों को भी आगे आना चाहिए । खिस्तेने किया। कार्यक्रम का संचालन डाक्टर विनोदराव भारतीय संस्कृति एवं शास्त्रों की चर्चा करते हुए विद्वानों पाठक ने किया।
ने कहा कि आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी
द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं दैनिक जागरण संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है इसका श्रेय हमारे
मुनियों, संत महात्माओं को ही है। विद्वानों ने संस्कृति वाराणसी (इलाहबाद) ५ नवम्बर १९८९
के बहुमुखी विकास के लिए अनेक उपाय बतलाये । यह
हर्ष का विषय है कि शास्त्र रक्षा के कार्य में मुनिश्री जय काशी पण्डित सभा का अधिवेशन
प्रभ विजयजी जैसे विद्वानों का अमूल्य योगदान हो
रहा है। वाराणसी। काशी पण्डित सभा द्वारा अगस्तकुण्डा स्थित
___ कार्यक्रमों का प्रारम्भ पं. मंगलेश्वर पाठक के वैदिक शारदा भवन में रविवार को अपरान्ह २ बजे विशेष
मंगलाचरण से हुआ अनन्तर पौराणिक एवं सांगीतक अधिवेशन आयोजित किया है। इस अधिवेशन में ज्योतिष शास्त्रवेत्ता मुनिश्री जयप्रभ विजय (मध्य प्रदेश)
मंगलाचरण हुआ। स्वागत भाषण काशी पंण्डित सभा का अभिनंदन एवं उन्हें मानपत्र भेंट किया जायेगा।
के अध्यक्ष प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने किया ।
अनन्तर काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव वाराणसी बुधवार ८ नवम्बर १९८९
पाठक ने सभा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया । प्रचार
मंत्री पं. ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने अभिनन्दनीय मुनीश्री का हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए परिचय दिया । डॉ. श्रीराम पाण्डेय भूतपूर्व न्याय हिन्दू काशी के विद्वानों का आह्वान विभागाध्यक्ष संस्कृत विश्वविद्यालय ने मुनिश्री को ___ - मुनिश्री जयप्रभ विजय
अभिनन्दन पत्र प्रदान किया। वाराणसी । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में __विद्वद्गोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे- सर्वश्री रविवार सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के विशेष | मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तव-प्राचार्य, दयानन्द महाविद्यालय,
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डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी - साहित्य संस्कृति संकायाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी - साहित्य विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, डॉ. देवस्वरूप मिश्र-दर्शन संकायाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी- भूतपूर्व व्याकरण विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि प्रमुख थे । धन्यवाद पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने दिया । अधिवेषन उपस्थित विद्वनों का काशी पण्डित सभा की ओर से सत्कार किया गया। सभा का संचालन डॉ. विनोद राव पाठक ने किया ।
NORTHERN INDIA
PATRIKA ALLAHABAD
Pundits to protect Hindu religion
1 NOVEMBER
Varansi Office
Nov. 6. Noted Hindu Saint, Jayprabh Vijay called upon the pundits of this holy city to come forward to protect the Hindu religion and Hindu Shashtra.
Speaking at a function organised by the Kashi Pandit Sabha at Sharda Bhawan here on Sundy, saint Jayprabh said that it was high time for every Hindu to take pledge for saving their own identity.
He said that Pundits of Kashi always
[ मुहूर्तराज
sacrificed themselves for the protection of Hindu religion and Shashtra and they should again offer themselves for the
same cause.
Expressing their views on the occasion, other speakers underlining the need of positive role to be played by the pundits, saints sand representatives of different Hindu seets, laid emphasis on giving proper place to Sanskrit language.
The president of the Kashi Pandit Sabha, Mr. Batuknath Shastri Khiste welcomed the guests while Dr. Vinod Rao Pathak, gave the brief history of the Sabha.
Among those spoke on the occasion were, Dr. Kailashpati Tripathi, Prof. Rewa Prasad Dwivedi, Dr. Devswarup Mishra, Dr. Ram Prasad Tripathi and Mr. Chella Laxman Shastri
The Pioneer: VNS: Monday: November 6, 1989
Appeal TO protect Hindu culture
By Our Staff Reporter
VARANASI, Nov 5 - The Intellectuals and Pandits of Kashi should come for ward to protect the Hindu culture and Shastras, as the craze of becoming modern and a number of other factors are posing threat to their existance said Munishri Jaiprabha Vijai, an eminent astrologer of Dhar (M.P.).
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Speaking as the chief guest at a special conference of the Kashi Pandi Sabha at sharada Bhawan here, Pandit Jaiprabha Vijai said that the contribution of the contribution of the Pandits of Kashi in enriching the Dev Bhasha Sanskrit and also in keeping the ancient traditions alive, could never be forgotten.
The
programme began with Mangalacharan while Prof. Batuk Nath Shastri Khiste welcomed the guests and Dr. Vinod Rao Pathk presented a brief introduction of the Sabha.
Munishri Jaiprabha Vijai was also presented a letter of felicitation by Dr. Shri Ram Pandey.
Prominent among those who attended the conference were Pt. Brahma Nand Chaturvei, Narendra Srivastava, Dr. kailas Pati Tripathi, Dr. Reva Prasad Dwivedi. Dev Swaroop Mishra, Dr. Ram Prasad Tripathi, Pt. Challa Laxman Shastri.
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सन्मार्ग
नमोऽस्तु समाय सलक्ष्मणाय देव्यै च तस्यै जनकात्मज्ञयै नमोऽस्तु रुद्रेयमानिततेभ्यौ नामोऽस्तु चन्द्रकनकरु
प्रधान सम्पादक - नन्दनन्दनानन्द सरस्वती वाराणसी, मंगलवार ७ नवम्बर, १९८९
हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए काशी के विद्वानों का आह्वान
वाराणसी, नव. । अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में रविवार को सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में धार मध्य प्रदेश से पधारे मुनिश्री जयप्रभ विजय ने कहा कि हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों की रक्षा पर बल देते हुए कहा कि इसके लिए काशी के विद्वानों को आगे आना चाहिए | आपने कहा कि जब-जब हिन्दू धर्म और संस्कृति पर आघात हुआ है, तब-तब काशी के विद्वानों ने भारतीयता और संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान किया है।
गोष्ठी में भाग लेते हुए अन्य विद्वानों ने कहा कि शास्त्रों की रक्षा तथा संस्कृत भाषा को और समुन्नत बनाने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू धर्मावलम्बी सभी सन्त एवं मुनियों को भी आगे आना चाहिए। भारतीय संस्कृति एवं शास्त्रों की चर्चा करते हुए विद्वानों ने कहा कि आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है इसका श्रेय हमारे मुनियों, संत महात्माओं को ही है । विद्वानों ने संस्कृत के बहुमुखी विकास के लिए अनेक उपाय बतलाये। यह हर्ष का विषय है कि शास्त्र रक्षा के कार्य में मुनिश्री जय प्रभ विजयजी जैसे विद्वानों का अमूल्य योगदान हो रहा है।
कार्यक्रमों का प्रारम्भ पं. मंगलेश्वर पाठक के वैदिक मंगलाचरण से हुआ अनन्तर पौराणिक एवं सांगीतिक मंगलाचरण हुआ । स्वागत भाषण काशी पंण्डित सभा के
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शाला
अध्यक्ष प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने किया। अनन्तर | विद्वानों ने भारतीयता और संस्कृति की रक्षा हेतु बलिदान काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने | किया है। उन्होंने हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों के रक्षार्थ सभा का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया । प्रचार मंत्री पं. | ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने अभिनन्दनीय मुनिश्री का परिचय दिया। डॉ. श्रीराम पाण्डेय भूतपूर्व न्याय विभागाध्यक्ष संस्कृत विश्वविद्यालय ने मुनिश्री को अभिनन्दन पत्र | पाण्डत प्रदान किया । अनन्तर काशी पंण्डित सभा की ओर से | विशषा मुनिश्री जयप्रभु विजयजी को मानद् उपाधि प्रदान की | वार गयी।
विद्वद्गोष्ठी में भाग लेने वालों में प्रमुख थे- सर्वश्री मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तव-प्राचार्य, दयानन्द महाविद्यालय, डॉ. कैलाशपति त्रिपाठी-साहित्य संस्कति संकायाध्यक्ष.
मानव उपाधि ग्रहण करते हुए मुनिश्री जयप्रभ विजयजी। छाया: जागरण सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रेवा प्रसाद
गोष्ठी में अन्य विद्वानों ने कहा कि शास्त्रों की रक्षा द्विवेदी- साहित्य विभागाध्यक्ष, काशी हिन्दू
| तथा संस्कृत भाषा को और समुन्नत बनाने के लिए हिन्दू विश्वविद्यालय, डॉ. देवस्वरूप मिश्र-दर्शन संकायाध्यक्ष, | धर्मावलम्बी सभी सन्त एवं मुनियों को भी आगे आना सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रामप्रसाद | चाहिए। आज जहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां आपसी त्रिपाठी- भूतपूर्व व्याकरण विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द | द्वन्द में समाप्त होती जा रही है, वही हमारी सभ्यता एवं संस्कृत विश्वविद्यालय, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि | संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना है इसका श्रेय हमारे प्रमुख थे। धन्यवाद पं. बंदिकृष्ण त्रिपाठी ने दिया ।
मुनियों, संत महात्माओं को ही है। विद्वानों ने संस्कृति
| के बहमखी विकास के लिए अनेक उपाय बताये। अधिवेषन में उपस्थित विद्वनों का काशी पण्डित सभा
__कार्यक्रम का प्रारम्भ पं. मंगलेश्वर पाठक के वैदिक की ओर से सत्कार किया गया। सभा का संचालन डॉ.
मंगलाचरण से हुआ आगत अतिथियों का स्वागत काशी विनोद राव पाठक ने किया।
पंण्डित सभा के अध्यक्ष प्रो. बटुक नाथ शास्त्री खिस्ते ने (४) गांडीव ११ नवम्बर १९८९
किया। काशी पंण्डित सभा के मंत्री डॉ. विनोद राव पाठक ने सभा का तथा प्रचार मंत्री पं. ब्रह्मानंद चतुर्वेदी ने मुनिश्री
जयप्रभ विजय का परिचय दिया। डॉ. श्रीराम पाण्डेय ने याड
सभा की ओर से मुनिश्री जयप्रभ विजयजी को मानद् हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए उपाधि भी प्रदान की गयी।
गोष्ठी में सर्वश्री मेजर नरेन्द्र श्रीवास्तवडॉ. कैलाशपति काशी के विद्वानों का आह्वान ।
त्रिपाठी, डॉ. रेवा प्रसाद द्विवेदी, डॉ. देवस्वरूप मिश्र, काशी । अगस्त्य कण्ड स्थित शारदा भवन में काशी | डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन में धार (मध्य प्रदेश) | ने अपने विचार व्यक्त किये । कार्यक्रम का संचालन डॉ. से के मुनिश्री जयप्रभ विजय हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों
विनोद राव पाठक ने तथा धन्यवाद प्रकाश श्री बंदीकृष्ण की रक्षा पर बल देते हुए आपने कहा कि जब-जब हिन्दू
त्रिपाठी ने किया। धर्म एवं संस्कृति पर आघात हुआ है, तब-तब काशी के
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वा मुनिश्री का अभिनन्दन पत्र प्रदान किया। काशी पंण्डित
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________________ विद्यालय, डॉ. रेवा प्रस साहित्य विभागाध्यक्ष, काशी हिन विश्वविद्यालय, डॉ. देवस्वरूप मिश्र-दर्शन संकायाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी- भूतपूर्व व्याकरण विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, पं. चल्लालक्ष्मण शास्त्री आदि प्रमुख थे। धन्यवाद पं. बंदिकृष्णा अधिवेशन में उपशि Monday: November 6, 198437 षा को विनो करने के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दू अधिवेशन में धार (मध्य प्रदश) सपाका बी सभी संतों मुनियों को आगे आना चाहिए। विजय ने कहा कि हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्रों की र४ विश्वविद्या कहा कि आज यहां अनेक धर्म एवं संस्कृतियां / | पर बल देते हुए कहा कि इसके लिए काशी के वि सम्पूर्णान ए। आपने कहा कि जब-जब द्वंद्व के कारण समाप आघात हुआ है, तब-तब तस्कृत: एवं संस्कृति ला और संस्कृति की प्रमुख बारे मुनियों, सर घी में सर्वश्री मे अन्य विद्वानों की। पति त्रिपाठी, - देवस्वरूप मिश्र, त चेल्ला लक्ष्मप LawR amkellame आगे आना : किये / स्वागत भा वाराणसी मंगलवार ७नवम्बर AUTOकी चर्चा करते हुए ने किया। कार्यक्रमका तब धर्म एवं निगा हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिये ने किया। and pano protect the माशी के विद्वान आगे आयें | ORIनव.। अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन Vif को ही है पण्डित सभा के विशेष वाराणसी (इलाहबाद) 5 नवम्बर 191 M. लिए अनेक 4 धारे मुनिश्री जयप्रभ के रक्षा पर बल देते %AD विद्वानों को आगे MBER दू धर्म एवं संस्कृति पासी। काशी पणी के विद्वानों ने रदा भवन में रा लेदान किया है। धिवेशन आयोजि स्त्रों की चर्चा करते गोतिष शास्त्रवेत्ता मुनि निवार को -धर्म एवं अभिनंदन एवं उन्हें मा NORTHERN INDIA दैनिक जागर heir exhout a ALLAHABAD 1 NOVEMBER 1 TO protect ndu culture Sy Our Staff Reporter VARANASI, Nov 5 - The Intellectuals 1970 and Pandits of Kashi should come fra ward to protect the Hindu culture Pn Shastras, as the craze of be mber of other स्वतंत्र भारत a Vija वाराणसी, 10 सितम्बर 1989 (2) काशी पण्डित Te pundits to protect * Hindu religira _varan KCAR Varans *6.Note "ed upon 31 संस्कत बिना भारतीय संस्कृति की रक्षा नहीं भावाराणसी 9 सितम्बर। अगस्न्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में ६१वें श्री गणेशोत्सव के अवसर पर आयोजित मटविद्वत गोष्ठी में विद्वानों ने कहा कि देववाणी संस्कृत ही। गरतीय संस्कृति के मूल में है और इसके बिना रक्षा कति एवं262 3 दिनांक 5 नवंबर 1989 रविवार को काशी पण्डित सभा के विशेष वार पवार 8 अधिवेशन के शुभावसारस्पति जैनाच दी। स्वतभारत हि पान विद्वान की जड़ इतका विशिष्ठ वक्ता भारतीय संस्कृति एवं, जि विद्वान मुनिश्री जय प्रभ विजय गति की जड़ इतनी मजब यहां दतुर्मास्य व्रत कर की भी चर्चा की और परम्पराओं को बसहत्तपोगच्ची नि आमंत्रित हस्तव, प्राचार्य, - कैलाशपति त्रिपाठी, साहित्य संस्कृति एवं शास्त्रों कार / मुनिश्री जयप्रभ मोबबहत्तपोगच्छीय साहित्य शिरोमणि व्याख्यान वाचस्पति जैनाच वेजय यतीन्द्र सूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न ज्यो हद मुनिप्रवर श्री जयप्रभ विजयजी श्रमण को अभिनन्दन तेषा/"की मानद उपाधि प्रदान समारोह में यादर आमंत्रित हैं। मंगलवार 7, नवम्बर 1989 जनवाता/ बाराणसी कार्तिक शुक्ल पक्ष 8 संवत् 2049 बि. सोमवार र सम्बर 1989 हिन्दू संस्कृति की रक्षा हेतु काशी के विद्वानों के बारा वाराणसी, 5 नवम्बर। मूनिश्री जयप्रभ बार सस्कृति एवं शास्त्रों की रक्षा पर बल देते, इसके लिए कशी के विद्वानों को आगे आ अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में हुए काशी पण्डित सभा के विशेष अधिवेशन प्रदेश) से पधारे श्री जयप्रभ विजय ने कहा कि हुआ है कि जब-जब हिन्दधर्म और संस्कृति पा हआ है, तब-तब काशी के विद्वानों ने भारतीयो। संस्कृति की रक्षा हेतु कुर्बानी दी है। गोष्ठी में आये अन्य विद्वानों ने कहा कि शास्त्री भवन म रक्षा के लिए तथा संस्कृत भाषा को ओर समन्नत बनाने शेष के लिए विद्वानों के अतिरिक्त हिन्दु धर्मावलम्बी सभी सन्त एवं मुनियों का (को आगे) 2 लिए पिक प्रसारित / राणसी, गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर,लखनऊ, पना,रांची, जमशेदपुर तथा धनबाद से प्रकाशित हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए काशी के विद्वानों का आह्वान - वाराणसी, 6 नवम्बर। अगस्त्य कुण्ड स्थित शारदा भवन में रविवार को सम्पन्न हुए काशी पण्डित सभा के. न शेष अधिवेशन सभा में धार (मध्य प्रदेश) से पान पी जय प्रभु विजय ने हिन्दू संस्कृति एवं शास्त्र क देते हए कहा कि इसके लिए काशी सभा के संस्कृति की रक्षा के लिए सेमी के विद्वानों का आह्वान व शा"ब हिन्दू धर्म एवं संस्कृति पर आयात हआ है / जाकारी के विद्वानों ने धर्म संस्कृति की