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________________ ६२ ] [ मुहूर्तराज -भद्रा मुखपुच्छ घटीमान प्रहरानुसार ज्ञापक सारिणीशुक्ल पक्ष में कृष्ण पक्ष में पूर्वार्द्ध पूर्वाद्ध पूर्वाद्ध परार्ध ५वाँ तिथियाँ → अष्टमी पूर्णिमा | चतुर्थी एकादशी | सप्तमी चतुर्दशी | तृतीया १५ ११ | १० स्थान → परार्ध पूर्वार्द्ध परार्ध प्रहर ४था ७वाँ ८वाँ ६ठा श्ला भद्रामुख घटी → । प्रहर → ८वाँ २रा भद्रापुच्छ घटी → |३| दिन व रात भद्रा → दिवाभद्रा | दिवाभद्रा । रात्रिभद्रा | रात्रिभद्रा । दिवाभद्रा । दिवाभद्रा रात्रिभद्रा | रात्रिभद्रा | १ला ३रा ६वा ७वाँ ५वा फल -→ | रात्रौ रात्रौ दिने । दिने । रात्रौ रात्रौ । दिने दिने न दोषदा | न दोषदा न दोषदा न दोषदा | न दोषदा | न दोषदा न दोषदा न दोषदा यहाँ एक शंका होती है कि जब भद्रा को देवता माना गया है तो उसके पूंछ का निर्देश क्यों किया गया है क्योंकि पूंछ का निर्देश करने से उसकी पशुजातीयता सिद्ध होती है। इसका समाधान श्रीपति की उक्ति में दैत्येन्द्रैः समरेऽ मरेषु विजितेष्वीशः क्रुधा दृष्टवान् । स्वं कायं किल निर्गता खरमुखी लाङ्गलिनी च त्रिपात् ॥ विष्टिः सप्तभुजा मृगेन्द्रगलका क्षामोदरी प्रेतगा । दैत्यघ्नी मुदितैः सुरैस्तु करणप्रान्ते नियुक्ता सदा ॥ अर्थात् दैत्यों के द्वारा युद्ध में देवताओं के जीत लिए जाने पर शिव ने अपने शरीर को क्रोध में भरकर देखा, तब उनके शरीर से गधे के जैसे मुखवाली, पूंछवाली, तीन पैरोंवाली, सात भुजाओंवाली, सिंहसदृश गरदनवाली, क्षीण पेटवाली, प्रेतों का अनुसरण करने वाली विष्टिनामक शक्ति उत्पन्न हुई। उसने दैत्यों का विनाश किया, तब देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे बवादिकरणों के अन्त में सदा के लिये नियत आवास दे डाला। समस्त कार्यों में वर्जनीय पंचांगदूषण-(मु.चि.शु.प्र. श्लो ३४वां) जन्मक्षमासतिथयो व्यतिपात भद्रावैधृत्यमापितृदिनानि तिथिक्षयी । न्यूनाधिमासकुलिकप्रहारार्धपाता विष्कंभवज्रघटिकात्रयमेव वय॑म् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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