SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४] [ मुहूर्तराज अर्थ - अगर क्रूर ग्रहों के मध्य में लग्नराशि हो तो कर्तरी योग बनता है तो वह कर्तरी मृतिप्रदा है अर्थात् ऐसी लग्नस्थिति में प्रतिष्ठादि शुभ कार्य करने से मृत्यु होती है एवं यदि चन्द्र दो पापग्रहों के मध्य में स्थित हो तो वह कर्तरी रोग उत्पन्न करती है, किन्तु यदि धनस्थान में शुभग्रह एवं बारहवें स्थान में गुरु के रहते “कर्तरी" नहीं होती। ऐसा भार्गव मत है। कर्तरी के विषय में व्यास-- (बादरायण) त्रिकोणकेन्द्रगो गुरुः त्रिलाभगो रविर्यदा । तदा न कर्तरी भवेत् जगाद बादरायणः ॥ अन्वय - यदा गुरुः त्रिकोण केन्द्रगो (त्रिकोणगतः केन्द्रगतो वा) स्यात् रविः (च) त्रिलाभगः (तृतीयस्थानगतः एकादशस्थानगतो वा) तदा कर्तरी न भवेत् (इति) बादरायणः (व्यासः) जगाद (अकथयत्)। ___ अर्थ - व्यास का कथन है कि यदि गुरु त्रिकोत्र (५, ९) अथवा केन्द्र (१, ४, ७ १०) में हो और तीसरे अथवा ग्यारहवें स्थान में रवि हो तो “कर्तरी” नहीं बनती अर्थात् कर्तरी दोष होते हुए भी दोषावह नहीं। ऊपर जिस लग्नकर्तरी एवं चन्द्रकर्तरी का जो उल्लेख किया गया है वह कर्तरी तीन प्रकार की है। विवरणार्थ देखिए(I) अतिदुष्टा कर्तरी यदि द्वितीय भाव में स्थित क्रूर ग्रह वक्री हो एवं १२ वें स्थान में स्थित क्रूर ग्रह शीघ्र गति हो तो दोनों ओर से लग्न पर संघट्ट (दबाव) होता है अतः यह अत्यन्त अशुभकारी होती है। (II) दुष्टा कर्तरी__यदि धनस्थान एवं व्यय स्थान में स्थित दोनों क्रूर ग्रह मध्यमगतिक हों अथवा उन दोनों स्थानों में स्थित क्रूरग्रह वक्री हो तो वह कर्तरी (दुष्टा) मध्यमदुष्ट होती है कारण कि लग्न को एक ही ओर से संघट्ट (धक्का) लगता है। (III) अल्पदुष्टा कर्तरी जब धन स्थान एवं व्यय स्थान में (दूसरे एवं बारहवें भाव में) स्थित ग्रह क्रमशः मध्यमगतिक एवं वक्रगतिक हो तो वह कर्तरी अल्प दुष्टा है, क्योंकि ऐसी कर्तरी में दोनों ग्रहों की गति लग्न की ओर न होकर विपरीत दिशा में होती है अर्थात् कर्तरी वियुक्त होती है (खलती है) अतः अल्पदूषण करती है। ऐसी स्थिति में भी (इस अल्पदुष्टा कर्तरी में भी) यदि द्वितीय स्थान में स्थित ग्रह अतिचारी (शीघ्रगतिक) हो तो विशेष करके यह कर्तरी-वियोग शीघ्रता से होता है अतः और भी न्यून दोषावह है। लग्न कर्तरी की ही भाँति चन्द्रकर्तरी की प्रकल्पना कर लेनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy