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________________ मुहूर्तराज ] [२४३ यदि मकरांश में प्रतिष्ठा की जाय तो कर्ता (आचार्य) स्थापक (यजमान) एवं शिल्पी मृत्यु पाते हैं और तीन वर्षों के भीतर-भीतर वज्र (विद्युत्पात) अथवा शस्त्र से वह प्रतिमा भी नष्ट हो जाती है इसमें कोई सन्देह नहीं। घटांश (कुम्भनवांश) में प्रतिष्ठा करने से वह प्रतिमा एक वर्ष के अन्दर जलपात से भिद जाती हैनष्ट हो जाती है तथा प्रतिष्ठाकर्ता की तीन वर्षों में जलोदर रोग से मृत्यु हो जाती है। मीनांश में प्रतिष्ठा करने से उस प्रतिमा की सुरों एवं असुरों पर द्वारा पूजा की जाती है तथा प्रतिष्ठा कराने वाले के अतिरिक्त सभी के द्वारा वह प्रतिमा अर्चित की जाती है। ___ इस प्रकार मेष से मीन तक के नवाशों में प्रतिष्ठा करने के शुभाशुभ फल प्रदर्शित किए गए। रत्नमाला में तो मंगल के नवांशों को त्यागकर अन्य सभी नवांशों में प्रतिष्ठा करने का विधान है। दीक्षा प्रतिष्ठा एवं विवाह में लग्नकर्तरी चन्द्रकर्तरी एवं लग्न से अथवा चन्द्र से सप्तम स्थान में शुक्र अथवा किसी पापग्रह के कारण जामित्र नामक दोष को भी त्यागना चाहिए। देखिए इस विषय में आरम्भसिद्धि में जो कहा गया हैलग्न विषय में सामान्य नियम त्रिष्वपि क्रूरमध्यस्थौ शुक्रक्रूराश्रितधुनौ ॥ नेष्टौ लग्नविधू केन्द्रस्थितसौभ्यो तु तौ मतौ । अन्वय - त्रिष्वपि (प्रतिष्ठादीक्षाविवाहेषु) क्रूरमध्यस्थौ (द्वयोः क्रूरयोः ग्रहोमध्य स्थितौ तथा च शुक्रक्रूराक्षितधुनौ (लग्नात् चन्द्राद् वा सप्तमस्थाने शुक्रः क्रूरो वा ग्रहो भवेत् तदा) लग्नविधू (लग्नचन्द्रौ) नेष्टौ (न शुभावहौ) किन्तु तादृश्यामपि स्थित्यां यदि लग्नात् चन्द्राद् वा केन्द्रे चतुर्षु स्थानेषु सौम्याग्रहाः भवेयुः तदा तौ (उपर्युक्तस्थितियुतौ) लग्नविधू मतौ ग्राह्यौ भवतः न तत्र कोऽपि दोषलेशः इति। ___ अर्थ - प्रतिष्ठा दीक्षा एवं विवाह में यदि लग्न अथवा चन्द्र के दोनों और दुष्टग्रह हो तो इसे लग्नकर्तरी और चन्द्रकर्तरी कहते हैं। इसी प्रकार लग्न या चन्द्रमा से सातवें स्थान में शुख अथवा किसी क्रूर ग्रह के होने पर जामित्र नामक दोष होता है इन्हें उक्त तीनों कार्यों में छोड़ना चाहिए परन्तु ऐसी स्थिति में भी यदि लग्न से अथवा चन्द्र से केन्द्रस्थानों में सौम्यग्रह हो तो इन दोषों का नाश होता है और ये कर्तरीदोष एवं जामित्र अशुभावह नहीं बनते। कर्तरी का फल एवं परिहार भार्गव मत से क्रूरग्रहस्यान्तरगा तनुर्भवेन्मृतिप्रदा शीतकरश्च रोगदः । शुभैर्धनस्थैरथवान्त्यगे गुरौ न कर्तरी स्यादिह भार्गवा विदुः ॥ अन्वय - (यदि) तनुः (लग्नम्) क्रूरग्रस्यान्तरगा (द्वयोः क्रूरग्रहयोः मध्यगता) भरेत् (तर्हि) सा मृतिप्रदा (भवति) शीतकरश्च (चन्द्रः वा) रोगदः (रोगकारकः भवति) परं धनस्थैः (द्वितीय भागवगतैः) शुभैः (शुभग्रहैः), अथवा गुरौ अन्त्यगे (द्वादशस्थानगते) इह (एवं स्थितौ) कर्तरी न स्यात् इति भार्गवाः विदुः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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