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[ मुहूर्तराज धनधान्ययुतः कर्ता मोदते सुचिरं भुवि ॥ उच्चाटनं भवेत् मृत्युस्तुलांशे वत्सरद्वये ॥ वृश्चिके च महाकोपं राजपीडासमुद्भवम् । अग्निदाहं महाघोरं - दिनत्रये विनिर्दिशेत् ॥ धन्वंशे धनवृद्धि स्यात् सद्भोग च सदा सुरैः । प्रतिष्ठापककर्तारौ नन्दतः सुचिरं भुवि ॥ मकरांशे भवेन्मृत्युः कर्तुस्थापक शिल्पिनाम् । वज्राच्छ्वाद् वा विनाशस्त्रिभिरब्दैन संशयः ॥ घटाँशे भिद्यते देवो, जलपातेन वत्सरात् । जलोदरेण कर्ता च, त्रिभिरब्दैविनश्यति ॥ मीनांशे त्वय॑ने देवो वासवाद्यै सुरासुरैः ।
मनुष्यैश्च सदा पूज्यो विना कारापकेण तु ॥ अर्थ - मेंषांशे - लग्न के मेष के नवांश में देव प्रतिष्ठा करने से अग्निदाह से भय बना रहता है। लग्न के वृषनवांश में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो प्रतिष्ठापक गुरु तथा यजमान की तीन ऋतुओं के अन्तराल में मृत्यु होती है। मिथुनांश प्रतिष्ठा हेतु निरन्तर शुभ है। भोगों को देने वाला और सर्वसिद्धियों का प्रदाता है।
यदि कर्क नवांश में प्रतिष्ठा की जाय तो प्रतिष्ठा करने वाले का पुत्र मृत्यु को प्राप्त होता है तथा तीन ऋतुओं में (छः मासों में) कुल का नाश भी हो जाता है एवं स्वयं प्रतिष्ठित देव की प्रतिमा भी नष्ट हो जाती है इसमें किञ्चिन्मात्र भी संशय नहीं।
सिंह नवांश में प्रतिष्ठा करने पर कर्ता (प्रतिष्ठाकारक गुरु) स्थापक (यजमान) एवं शिल्पी को शोक एवं सन्ताप होता है, परन्तु वह प्रतिमा लोक में प्रतिमा प्रतिष्ठा एवं पूजा प्राप्त करती है।
कन्यांश में प्रतिष्ठित देव सर्वदा भोग (पूजा) को प्राप्त होते हैं और प्रतिष्ठाकर्ता चिरकाल तक मोद एवं धनधान्य में सम्पन्न रहता है।
तुलांश में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो कर्ता का नाश या उसे निरन्तर बन्धन प्राप्त होता है और दो वर्षों के अन्दर-अन्दर स्थापक की मृत्यु होती है।
यदि वृश्चिकनवांश में प्रतिष्ठा की जाय तो तीन दिनों के भीतर-भीतर राजा की ओर से महती पीड़ा एवं महाकोप होते हैं।
धननवांश में प्रतिष्ठा करने से धन की वृद्धि और निरन्तर देवों से सद्भोग प्राप्त होते हैं तथा प्रतिष्ठापक एवं आचार्य चिरकाल तक पृथ्वी पर आनन्दित रहते हैं।
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