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[ मुहूर्तराज नक्षत्रों के स्वामी (आ.सि.)
भेशास्त्ववश्वियमाग्नयः कमलभूश्चन्द्रोऽथ रुद्रोऽदितिर् , जीवोऽ हिः पितरो भगोऽर्यमरवी, त्वष्टा समीर स्तथा । शक्राग्नी अथ मित्र इन्द्रनिर्ऋती वारीणि विश्वे विधिर् ,
वैकुण्ठो वसवोऽम्बुपोऽजचरणोऽ हिर्बुधन पूणाभिधौ ॥ विशेष - नक्षत्र स्वामियों को गत सारणी में देखिए। ध्रुवसंज्ञक नक्षत्र तथा उनमें करने योग्य कार्य-(मु. चि. न.प्र. श्लो. २)
उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।
तत्र स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादिसिद्धये ॥ अन्वय - उत्तरात्रयम् (उ. फा; उ. घा; उ. भा.) रोहिणी च ध्रुवं स्थिरं च (तद्वन्) भास्करश्च, तत्र स्थिरं (स्थिरकर्म) बीजगेहशान्त्यारामादि (कर्म) सिद्धये (भवति)
अर्थ - तीनों उत्तरा (उत्तरा फा. उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद) रोहिणी ये नक्षत्र स्थिर अपना ध्रुव संज्ञक है। इनमें बीज बोना, गृहकर्म, शान्तिकर्म और बगीचे आदि का कर्म करने पर सिद्ध होते हैं। चरसंज्ञक नक्षत्र तथा उनमें करणीय कार्य (मु.चि. न. प्र. श्लोक ३)
स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि चन्द्रश्चापि चरं चलम् ।
तस्मिन् गजादिकारोहो वाटिकागमनादिकम् ॥ अन्वय - स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि च नक्षत्राणि (श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा) चन्द्र (चन्द्रवार:) च चरं चलं वा (चरसंज्ञक:) तस्मिन् गजादिकारोह: वाटिकागमनादिकं च (सिध्यति)।
अर्थ - स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा ये नक्षत्र तथा सोमवार चर अथवा चलसंज्ञक है। इनमें हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करना, वाटिका में जाना, आदिशब्द से लघुनक्षत्रोक्त कार्य (विक्रय, रतिकर्म, शास्त्र ज्ञान, चित्रकला भूषण, नृत्यादि) भी सिद्ध होते हैं। उग्रसंज्ञक नक्षत्र और उनमें करणीय कार्य (मु. चि. न. प्र. श्लोक ४)
पूर्वात्रयं याम्यमघे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा । तस्मिन् घाताग्निशाठयानि विषशस्त्रादि सिध्यति ॥
अन्वय - पूर्वात्रयम्, याम्यमघे कुज: उग्रं क्रूरं वा। तस्मिन् घाताग्नि शाठ्यानि विषशस्त्रादि च सिध्यति। __ अर्थ - तीनों पूर्वा (पू. फा.; पू. षा, पू. भा.) भरणी मघा और मंगलवार ये उग्र अथवा क्रूर संज्ञक हैं। इनमें किसी का हनन, अग्निदाह, दुष्टता (धोखाधड़ी) विषकर्म, शस्त्राघात आदि अरिष्ट कृत्य किये जाने पर सिद्ध होते हैं।
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