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________________ मुहूर्तराज ] [११ वार एवं नक्षत्र इस प्रकार तिथि निष्पत्ति के बाद सूर्य से शनिपर्यन्त सात ग्रहों के नाम पर ७ वार मान्य हुए जो सूर्य से शनिपर्यन्त हैं। वारों की प्रवृत्ति प्रत्येक स्थान पर एक ही साथ न होकर मध्यरेखा से पूर्व या पश्चिम देशान्तरानुसार सूर्योदय काल से पूर्व में या पश्चात् भी होती है। प्रवृत्ति के विषय में इसी ग्रन्थ के परिशिष्ट (ग) में भली भांति बतलाया गया है अतः जिज्ञासु जन इस विषय में वहाँ देख लेंगे। चन्द्रमा शीघ्रगतिक होने के कारण प्रतिदिन एक नक्षत्र को भोग लेता है। ये ही प्रतिदिन के अश्विन्यादि रेवतीपर्यन्त २७ नक्षत्र हैं, चूंकि अभिजिन्नामक नक्षत्र अलग से नहीं है, वह तो उत्तराषाढा के चतुर्थ चरण और श्रवण की आरम्भिक ४ घटिकाओं से बनता है जिसका कहीं-कहीं कार्यविशेष में ही प्रयोजन है, अतः यहाँ हमने नक्षत्रों की संख्या २७ ही कही है। योगइसकी उत्पत्ति के विषय में कहा गया है "वाक्पतेरर्क नक्षत्रं श्रवणच्चान्द्रभेव च। गणयेत्तद्युतिं कुर्यात् योगः स्याक्षशेषतः" अर्थात् पुष्य नक्षत्र से वर्तमान सूर्याधिष्ठित नक्षत्र पर्यन्त की तथा श्रवण से चन्द्राधिष्ठित नक्षत्र पर्यन्त की संख्याओं का योग करके २७ से भाग देने पर जो शेष बचें तदनुसार विष्कुंभादि २७ योगों में से योग होता है। करण तिथ्यर्धभाग को करण कहते हैं, अर्थात् तिथि के पूर्वार्ध एक और उत्तरार्ध में भी एक, इस प्रकार एक तिथि में दो करण होते हैं कुल करण ११ हैं जिनमें से पूर्व के चर और शेष ४ स्थिर है- यथा"बवं च बालवं चैव, कौलवं तैतिलं गरम्। वणिजं विष्टिमित्याहुः करणानि महर्षयः। अन्ते कृष्णचतुर्दश्याः शकुनिर्दर्शभागयोः। भवेच्चतुष्पदं नागं किंस्तुध्नं प्रतिपद्दले"। चर करणों में अन्तिम कर 'विष्टि' को भद्रा भी कहते है जो कि शुभ कार्यों में त्याज्य है। भद्रा विषयक विशेष जानकारी के लिए अन्यान्य ग्रन्थों में उल्लेख द्रष्टव्य है। कृष्णचतुर्दशी के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूवार्ध में चतुष्पद और उत्तरार्ध में नाग तथा शुक्लाप्रतिपदा के पूर्वार्ध में किंस्तुन नामक करण होता है। ततः शुक्लाप्रतिपदा के उत्तरार्ध के प्रारम्भ होते ही बव करण आ जाता है। इस प्रकार पञ्चाङ्गों की निष्पति हुई। अब हम प्रकृत मुहूर्त ज्यौतिष के विषय में कहना चाहेंगे। फलादेश की यह पद्धति पुरातनकाल से ही मानव समाज में आदरणीय रही है। आज भी सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी कहीं किसी गाँव या स्थान जाने के समय ज्यौतिषी से काल, राहु और योगिनी आदि की दिशास्थिति के विषय में और कृषक आर्द्रा नक्षत्र पर सूर्य संक्रमण के विषय में एवं फसल पकने पर मीनार्क एवं कटाई के समय में तथा बीज संग्रह के समय में पंचकादि के विषय में पूछते हैं। इसी के साथ मानव के जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त के गर्भाधान, जातकर्म, नामकरण, व्रतबन्ध, एवं विवाहादि सभी संस्कार एवं अन्यान्य समस्त शुभ कृत्य तिथि-वार-नक्षत्र-योग करण, सूर्यादिग्रहों की राशिस्थिति, अमुकामुक ग्रहों के उदयकाल को ध्यान में रखकर ही तदनुसार निर्णीत तत्तन्मुहूर्तों में विहित किए जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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