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________________ १६६] [ मुहूर्तराज अर्थ - मूल, ज्येष्ठा, आश्लेषा, आर्द्रा, विशाखा, कृत्तिका, उ.फा., उ.षा.,उ.भा., पू.फा., पू.षा., पू.भा., भरणी एवं मघा इन नक्षत्रों में जो द्रव्य लौटाने के समय की अवधि किए बिना दिया हो व्यापार में ब्याज लेने अथवा देने के हिसाब से लगाया गया हो। किसी स्वकीय व्यक्ति के पास विश्वासार्थ रखा गया हो अथवा चौरादि द्वारा हरण किया गया हो अथवा स्वयं के हाथ से ही कहीं रख दिया गया हो, वह द्रव्य कदाचित् भी प्राप्त नहीं हो सकता। तथा च भद्रा में व्यतीपात या महापात दोष में भी जो धन विनष्ट हुआ हो वह कदापि नहीं मिल सकता। इसी आशय को लेकर वसिष्ठ भी "धुवोनसाधारणदारुणः, निक्षिप्तमर्थं त्वथवा विनष्टम् । चौरेहृतं दनमुपप्लवे वा विष्टयां च पाते न च लभ्यते तत् ॥" उपर्युक्त “तीक्ष्णमित्र” श्लोक में वर्णित नक्षत्रों में जो धन निक्षेप रूप में कहीं स्थापित किया हो, रखकर भुला दिया गया हो, चोरों द्वारा चुरा लिया हो, ग्रहण में दिया गया हो अथवा विष्टि, व्यतीपात महापात में दिया गया हो तो वह धन कदापि प्राप्त नहीं होता। द्रव्यप्रयोग = ऋणदान एवं ऋणग्रहण मुहूर्त - (मु.चि.न.प्र. २७ वाँ) स्वात्यादित्यमृदुद्विदैवगुरुभे कर्णत्रयाश्वे चरे लग्ने धर्मसुताष्टशुद्धिसहिते द्रव्यप्रयोगः शुभः ॥ नारे ग्राह्यामृणं तु संक्रमदिने वृद्धौ करेऽऽह्नि यत् तवंशेषु भवेदृणं न च बुधे देयं कदाचिद् धनम् ॥ अन्वय - स्वात्यादित्यमृदुद्विदैवगुरुभे (स्वातीपुनर्वसुचित्रानुराधामृग रेवती विशाखा पुष्यनक्षत्रेषु) तथा कर्णत्रयाश्वे (श्रवणधनिष्ठाशतभिष अश्विनी नक्षत्रेषु) अथ लग्ने चरे (मेषकर्कतुलामकरेषु) धर्मसुताष्ट शुद्धि सहिते (धर्मसुतयोः शुभग्रहसत्वे पापग्रहराहित्ये च, अष्टमे तु शुभपापग्रहराहित्ये च सति) द्रव्यप्रयोगः शुभ: (परस्मै ऋण देयम्)। अथ आरे (भौमवारे) संक्रमदिने (सूर्यसंक्रमणदिवसे) वृद्धौ (वृद्धि योगे करेऽऽह्नि (रविवारयुक्ते हस्ते चन्द्रनक्षत्रे अर्थात् हस्तार्के दिने ऋणं न ग्राह्यम्। यत् (यस्मात्कारणात् तद् गृहीतमृणम्, तवंशेषु ऋणग्रहीतु: कुलेषु कुलोत्पन्नेषु भवेत् (तद् ऋणं तत्पुत्रपौत्रादिभि रपि प्रत्यावर्तयिनुम् अशक्यम् भवेदिति अथ बुधे बुधदिने कदाचिद् धनम् (ऋणरूपेण) न देयम् । अर्थ - स्वाती, पुनर्वसु, चित्रा, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, विशाखा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा और अश्विनी इन नक्षत्रों में, मेष, कर्क, तुला एवं मकर इन लग्नों में तथा लग्न से पाँचवें नवें में शुभग्रह रहते और पापग्रह न रहते तथा अष्टमस्थान में शुभ एवं पापग्रह किसी के भी रहते ऋण देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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