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________________ मुहूर्तराज ] [१६५ अर्थ - विशाखा, कृत्तिका, आश्लेषा, भरणी इन नक्षत्रों में विक्रय करना शुभ है पर क्रय करना निषिद्ध है। तथा विक्रयकालिक लग्नकुण्डली में केन्द्र एवं त्रिकोण में (१,४,७,१०,९,५) स्थानों में शुभग्रहों की स्थिति में तथा तृतीय, षष्ठ एवं एकादश स्थान में पापग्रहों की स्थिति रहते किन्तु कुंभलग्न को छोड़कर शुभ तिथि में विक्रय करना शुभफलद है। इस विषय में श्रीपति - "दशमैकादशे लग्ने वित्तकेन्द्रत्रिकोणगैः । शुभैः पण्यस्य कर्मोक्तं वर्जयित्वा घटोदयम् ॥" अर्थात् - दशम अथवा एकादश लग्न में द्वितीय केन्द्र एवं त्रिकोण स्थानों में शुभग्रहों के रहते परन्तु कुंभलग्नोदय को छोड़कर विक्रय करना ठीक है। अब दुकान करने का मुहूर्त कहा जा रहा है - रिक्ता (४,९ और १४ तिथि) मंगल एवं कुंभ लग्न को छोड़कर चित्रा, अनुराधा, मृगशिर, रेवती, रोहिणी, उ.फा., उ.षा., उ.भा., अश्विनी, पुष्य एवं हस्त इन नक्षत्रों में, लग्न में शुक्र तथा चन्द्रमा के रहते, आठवें एवं बारहवें स्थान में पापग्रहों के न रहते एवं शुभग्रहों के दूसरे दसवें एवं ग्यारहवें स्थान में रहते दुकान लगाना अर्थात् दुकान पर बैठकर क्रय-विक्रय करना शुभ है। रत्नमाला में भी "कुंभराशिमपहाय साधुषु द्रव्यकर्मभवमूर्ति वर्तिषु । अव्ययेष्वशुभदायिषूद्गमे भार्गवे विपणिरिन्दुसंयुते ॥" अर्थात् - कुंभलग्न को छोड़कर सद् ग्रहों के द्वितीय, दशम, एकादश एवं लग्न में रहते एवं अशुभ ग्रहों के द्वादश स्थान में रहते तथा चन्द्र सहित शुक्र के लग्न में रहते वियणि कर्म शुभ है। धनप्रयोग में निषिद्ध नक्षत्र विष्टि (भद्रा) व्यतिपातादि - (मु.चि.न.प्र. २४ वाँ) तीक्ष्णमिश्रध्रुवोत्रैर्य द्रव्य दत्तं, निवेशितम् । . प्रयुक्तं च विनष्टं च विष्टयां पाते न चाप्यते ॥ अन्वय - तीक्ष्णामिश्रध्रुवोग्रैः (मूलज्येष्ठार्दाश्लेषाविशाखाकृत्तिकारोहिण्युत्तरात्रयपूर्वा त्रयभरणीमघाः एभिः नक्षत्रैः) यद् द्रव्यम् सुवर्णादिकं दत्तं (कालावधिम् अकृत्वा दत्तम्) निवेशितम् (स्वजनसमीपे विश्वासाय स्थापितम्) प्रयुक्तम् (व्यापार कर्मणि उत्तमर्णाधमर्ण व्यवहारात् कस्मैचिद् दत्तम् विनष्टं (स्तनादिना हृतम् स्वयं वा कुत्रापि स्थापितं तद् कदाचिदपि नाप्यते तथा च विष्टयां पाते च व्यतीपाते महापाते वा हृतं द्रव्यम् अपि नाय्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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