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________________ ४२८ ] [ मुहूर्तराज शान्ति तथा द्रोह ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी तत्व हैं। जहाँ शान्ति हो, वहाँ द्रोह नहीं और जहाँ द्रोह हो वहाँ शाँति का निवास नहीं होता। द्रोह का मुख्य कारण है अपनी भूलों का सुधार नहीं करना। जो पुरुष सहिष्णुतापूर्वक अपनी भूलों का सुधार कर लेता है, उसको द्रोह स्पर्श तक नहीं कर सकता। उसकी शांति-आत्म-संरक्षण, आत्म-संशोधन और उसके विकासक मार्ग को आश्रय देती है। जिससे भाई-भाई में, मित्र-मित्र में, जन-जन में सभी व्यक्तियों में मेल-जोल का प्रसार होता है और पारस्परिक संगठन-बल बढ़ता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को द्रोह को सर्वथा छोड़ देना चाहिये। और अपने प्रत्येक व्यवहारकार्य में शांति से काम लेना चाहिये। लोगों को वश करने का यही एक वशीकरण मन्त्र है। -श्री राजेन्द्रसूरि साधु में साधुता तथा शांति और श्रावक में श्रावकत्व और दृढ़धर्म परायणता होना आवश्यकीय है। इनके बिना उनका आत्मविकास कभी नहीं हो सकता। जो साधु अपनी संयमक्रिया में शिथिल रहता है, थोड़ी-थोड़ी बात में आग-बबूला हो जाता है और सारा दिन व्यर्थ बातों में व्यतीत करता है, इसी तरह जो श्रावक अपने धर्म पर विश्वास नहीं रखता, कर्तव्य का पालन नहीं करता और आशा से ढोंगियों की ताक में रहता है; उस साधु एवं श्रावक को उन्हीं पशुओं के समान समझना ___ चाहिये, जो मनुष्यता से हीन है। कहने का मतलब कि साधु एवं श्रावक को आत्मविश्वास रखकर अपने-अपने कर्तव्य-पालन में सदा दृढ़ रहना चाहिये तभी उनका प्रभाव दूसरे व्यक्तियों पर पड़ेगा और वे अन्य भी उनके प्रभाव से प्रभावित हो कर अपने जीवन का विकास साध सकेंगे। -श्री राजेन्द्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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