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________________ मुहूर्तराज ] [ ४९ कुयोग से सुयोग की बलवत्ता (मु.चि.शु.प्र. श्लो. ४२वाँ) अयोगे सुयोगोऽपिचेत्स्यात्तदानीमयोगं निहत्यैण सिद्धि तनोति । परे लग्नशुद्धया कुयोगादिनाशं दिनाोत्तरं विस्टिपूर्व च शस्यम् ॥ अन्वय - अयोगे (क्रकचादौ सति) सुयोगः अपि (सिद्धियोगः अपि) चेत् स्यात् तदानीम् एषः (सिद्धियोग:) अयोगम् (अयोगफलम्) निहत्य सिद्धिं (कार्यसिद्धिम्) तनोति (निष्पादयति) ___ अर्थ - क्रकचादि अयोगों के होने पर भी यदि सिद्धियोगादि सुयोग हों तो यह सुयोग अयोग के फल को नष्ट करके कार्य सिद्धि करता है। इसी प्रकार राजमार्तण्डकार भी कहते हैं। अयोगः सिद्धियोगश्च द्वावेतौ भवतो यदि । अयोगो हन्यते तत्र सिद्धियोगः प्रवर्तते ॥ कुछ आचार्यों का मत है कि लग्न शुद्धि से क्रकचादि कुयोगों का नाश होता है और कुछ कहते हैं, जिस दिन भद्रा व्यतीपातादि हो उस दिन मध्याह्न के बाद शुभ कृत्य करने में भी कोई दोष नहीं है। इति योग विचारः -अथ करण विचारचर करण नाम- गर्गाचार्य बवश्च बालवश्चैव कौलवस्तैतिलस्तथा । गरश्च वणिजो विष्टिः सप्तैतानि चराणि च ॥ अर्थ - बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि ये सात चर करण हैं। स्थिरकरण नाम अन्ते कृष्णचतुर्दश्याः शुकनिर्दर्शभागयोः । ज्ञेयं चतुष्पदं नागं किंस्तुघ्नं प्रतिपद्दले ॥ अन्वय - कृष्णचतुर्दश्या: अन्त (उत्तरार्ध) शकुनि: दर्शभागयोः अमावस्यापूर्वाधोत्तरार्धयो: द्वयोः चतुष्पदं नागं (तथाच) प्रतिपद्दले (पूर्वार्धभागे) किंस्तुघ्नम् एवं (एतानि स्थिरनामानि करणाणि) ज्ञेयम्। ___ अर्थ - कृष्णचतुर्दशी के उत्तरार्ध में शकुनि नामककरण अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पद नामक करण, उत्तरार्ध में नाग नामक करण तथा शुक्ल प्रतिपदा के पूर्व भाग में किंस्तुन नामक करण जानना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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