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________________ मुहूर्तराज ] [२२५ _वशिष्ठ ने भी इन्हीं दोषों को त्यागने का और न त्यागकर इनमें यदि गृहारम्भ या प्रवेश किया जाय तो क्रमशः कर्ता का और गृहस्वामी का नाश होता है ऐसा कहा - "कर्तु शो गृहारंभे प्रवेशे पतिनाशनम्" अब हम नीचे चार भिन्न-भिन्न दिग्द्वारीय गृहों के चार मानचित्र दे रहे हैं जिनसे सुगमतया दिग्द्वारीय नक्षत्रों एवं उनमें प्रवेष्टव्य विहित नक्षत्रों को जाना जा सकता है। पूर्व दक्षिण द्वारीय पश्चिम द्वारीय पूर्व द्वारीय गृह उत्तर द्वारीय गृह गृह पश्चि . प्रवेष्ट. न. पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र (दक्षिण) मघा, पू.फा. उ.फा. हस्त चित्रा स्वाती विशाका पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र | प्रवेष्ट. न. (पूर्व) कृति. रोहि. | मृग. मृग आर्द्रा | रोहिणी पुन. पु.आ. चित्रा पश्चि . दिग्द्वारनक्षत्र |प्रवेष्ट. न. दिग्द्वारनक्षत्र दिग्द्वारनक्षत्र | प्रवेष्ट. न. (पश्चिम) (उत्तर) अनु. ज्येष्ठा | अनुराधा | | धनिष्ठा शत. | रेवती मूल पू.षा. उ.षा. पू.भा. उ.भा. उ.भाद्र. उ.षा. अभि. रेवती अ. भर श्रवण उ.फा. गृहप्रवेश में लग्नशुद्धि तिथिशुद्धि एवं प्रवेशविधि- (मु.चि.ग.प्र. श्लो. ३४) त्रिकोणकेन्द्रायधनत्रिगैः शुभैलग्ने त्रिषष्ठायगतैश्च पापकैः । शुद्धाम्बुरन्धे विजनुर्भमृत्यौ व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे ॥ ह्यग्रेऽम्बुपूर्ण कलशं द्विजांश्च कृत्वा विशेद् वेश्म भकूटशुद्धम् ॥ अन्वय - त्रिकोत्र (९, ५) केन्द्रायधनत्रिगैः (१, ४, ७, १०, ११, २, ३) शुभैः (पूर्णचन्द्रबध गुरुशुक्रैः उपलक्षिते लग्ने, चन्द्ररहिते लग्ने, तथा त्रिषष्ठायगतैः (तृतीयषष्ठै कादशास्थतैः पापकैः पापग्रहैः उपलक्षिते लग्ने, शुद्धाम्बुरन्धे (सर्वग्रहरहिते चतुर्थेऽटमे च स्थाने) विजर्नुर्भमृत्यौ (गृहस्वामिनः जन्मलग्नाद् जन्मराशितो वा अष्टमे राशौ प्रवेशलग्नतेन असति) इत्थंभूते प्रवेशलग्ने तथा व्यर्काररिक्ताचरदर्शचैत्रे (रविभौमो विनान्येषु वासरेषु, रिक्तां त्यक्त्वा अन्यासु तथैवावभास्याभपि विहाय, चरलग्नानि (मेषकर्कतुलामकरलग्नानि) तदंशान् च चैत्र मासं च वर्जयित्वा, यदा उपर्युक्तप्रकारः लग्नसमयः तदा अम्बुपूर्णं (जलभृतं) कलशं द्विजांश्च अग्रे कृत्वा भकूटशुद्धम् (गृहगृहस्वामिनोः “वर्णों वश्यस्तथा तारा” आदि विवाह प्रकरणोक्तकूटशुद्धम् वेश्म गृहम् आविशेत् (प्रविशेत्) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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