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________________ मुहूर्तराज ] [१३७ अर्थ - व्रतबन्धन (यज्ञोपवतीत) दैवतप्रतिष्ठा (देव प्रतिष्ठा) करपीडा (विवाह) उत्सव (होली आदि) सूतक (जनन एवं मरण से उत्पन्न) ये जितने दिन तक के हों तो इनकी समाप्ति के बिना एवं बिना समय के बिजली, बादल, वर्षा, कुहरा आदि के होने पर सात रात्रि तक यात्रा कदापि न करें। राजमार्तण्ड में भी पौषादि चतुरो मासान् प्राप्ता वृष्टिरकालजा । - व्रतं यात्रादिकं चैव वर्जयेत् सप्तवासरान् ॥ अर्थात् - पौष, माघ, फाल्गुन और चैत्र इन चार मासों में जो वृष्टि होती है उसे अकालवृष्टि कहते हैं, अत: उसमें सात दिवस पर्यन्त व्रत, यात्रादि कर्मों का त्याग करना चाहिए। कश्यप भी उत्पातेषु त्रिविधेषु तडिद्गर्जितवृष्टिषु । अकालजेष्वेषु सत्सु सप्तरात्रम् न तु व्रजेत ॥ अर्थात् - भूमि अन्तरिक्ष और दिव्य इन तीनों उत्पातों के होने पर तथा अकाल विद्युद् मेघगर्जन एवं वृष्टि के होने पर सात रातों तक यात्रा नहीं करें। ___ एक ही दिन में समाप्य राजयात्रा में दिक्शूलादि विचारणा नहीं करनी चाहिए इसी आशय को लेकर चिन्ताणिकार-(मु.चि.या.प्र.श्लो. ८० वाँ) महीपतेरेकदिने पुरात्पुरे यदा भवेतां गमनप्रवेशकौ । भवारशूलप्रतिशुक्रयोगिनी विचारयेन्नैव कदापि पण्डितः ॥ अन्वय - यदा महीपतेः राज्ञः पुरात्पुरे एकस्मान्नगरानगरान्तरे एकदिने एवं गमनप्रवेशको भवेताम् तदा यथाकथंचित्पंचागशुद्धिमात्रमालोच्य नक्षत्रवारशूलप्रतिशुक्रयोगिनी: (एतान् दोषान्) पण्डित: नैव विचारयेत्। अर्थ - यदि राजा का एक ही दिन किसी नगर से प्रस्थान और किसी नगर में प्रवेश हो तब नक्षत्रशूल, वारशूल, सम्मुखशुक्र और योगिनी आदि के सम्बन्ध में पण्डित को विचार नहीं करना चाहिए। यहाँ यह शंका होती है कि एक दिन की निर्गमप्रवेश यात्रा में निर्गम अथवा प्रवेश इन दोनों के विषय में दिनशुद्धि (समयशुद्धि) नहीं देखनी है या दोनों में से किसी एक के लिए समयशुद्धि विचारणा करनी है इसका समाधान करते हुए श्री चिन्तामणिकार-(मु.चि.या.प्र. श्लो ८१ वाँ) यद्येकस्मिन् दिवसे महीपतेर्निर्गमप्रवेशौस्तः । तर्हि विचार्यः सुधिया प्रवेशकालो न यात्रिकस्तत्र ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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