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________________ १८६ ] [ मुहूर्तराज अन्वय - गेहाद्यारम्भे (गृहप्रासादग्रामाद्यारम्भे) अर्कभात् (सूर्याक्रान्तनक्षत्रात्) रामैः (त्रिभिर्नक्षत्रैः) वस्तशीर्षे सद्भिः दाहः फलम्। वेदभैः (चतुर्नक्षत्रेः) अग्रपादे (अग्रस्थपादद्वये) स्थितैः शून्यं फलम् (तद्वास्तुजन वासशून्यं भवेत्) तत: वेदैः (चतुर्भि नक्षत्रैः) पृष्ठपादे (पृष्ठगतपाद् द्वये) स्थितैः स्थिरत्वं फलम्। ततः रामैः त्रिभिर्नक्षत्रैः पृष्ठे स्थितैः श्रीः फलम्। ततो युगैश्चतुर्भिर्नक्षत्रैः दक्षकुक्षौः स्थितैः लाभः फलम्। ततो रामैः त्रिभिः पुच्छस्थैः स्वामिनाशः (गृहपतिनाश:) फलम्। ततो वेदैः नक्षत्रैः वामकुक्षौ स्थितैः नै:स्वम् (निर्धनता) फलम्। ततस्त्रिभिः मुखस्थैः गृहकर्तुः सन्ततं पीडा फलं स्यात्। अस्यं चकस्य प्रकारान्तरेण कथनम्-अर्कधिष्ण्यात् (सूर्यनक्षत्रात्) अश्वैः सप्तभिर्नक्षत्रैः, रुद्रैः एकादशमि: नक्षत्रैः दिग्भिः च दशभिर्नक्षत्रैः क्रमश: असत् सत् असत् च फलम् उक्तम्। ____ अर्थ - ज्योति:शास्त्र में वृष (वत्स) के शरीर की कल्पना करके उसके विभिन्न-विभिन्न अंगों में सूर्य महानक्षत्र से दिननक्षत्र तक गणनागन अमुकामुकसंख्याक नक्षत्रों का निवास मानकर गेहारंभ में वृषवास्तुचक्र का उपयोग किया गया है तथा शुभाशुभ फल भी बताया है तदनुरूप उपर्युक्त श्लोक में वत्स के अंगों में नक्षत्र स्थिति की चर्चा करते हुए श्री मु.चि.म. कार कहते हैं कि जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से तीन नक्षत्र वत्स पुरुष के सिर पर स्थित है इनमें यदि गृहारंभ किया जाय तो उस घर में अग्नि लग जाती है अथवा गृहकर्ता की वस्तु अग्निदग्ध हो जाती है तत: चार नक्षत्रों की स्थिति वत्स के अगले दो पैरों में होती है, उन नक्षत्रों में गेहारंभ करने से वह घर निवास शून्य ही रहता है। उसके बाद के चार नक्षत्र पिछले दो पैरों में स्थित है इनमें गेहारम्भ करने पर वह गृह अधिक समय तक स्थिर रहता है। फिर आगे के तीन नक्षत्रों का निवास वत्स की पीठ पर होता है उसका फल गृहकर्ता को श्रीलाभ है। आगे के चार नक्षत्र वत्स की दाहिनी कुक्षि में रहते हैं, जिनमें गेहारंभ करना लाभकारी होता है। ततः तीन नक्षत्र वत्स के पुच्छप्रदेश में स्थित है, इनमें घर का आरंभ करने से गृहकर्ता का विनाश होता है। फिर आगे के चार नक्षत्रों की स्थिति की वामकुक्षि में है, इनमें गेहारंभ का फल निर्धनता है और अन्तिम तीन नक्षत्रों की स्थिति वत्स के मुख में रहती है इनमें गृह का आरंभ करने से गृहकर्ता सतत पीड़ित ही रहता है। ____ इस प्रकार नक्षत्रों के वत्सशरीर के अंगों में रहने पर शुभाशुभ फल जानने चाहिएँ। इसी वृषवास्तुचक्र का प्रकारान्तर से निष्कृष्टार्थ यह है- सूर्यमहानक्षत्र ७ चन्द्रनक्षत्र गेहारंभ के लिए अशुभ तत: ग्यारह नक्षत्र शुभ और अंत के १० नक्षत्र अशुभ हैं। ज्योति:प्रकाश में वृषवास्तुचक्र तत्फल वास्तुचक्रं प्रवक्ष्यामि यच्च व्यासेन भाषितम् । यदक्षे वर्तते भानुः तत्रादौ त्रीणि मस्तके ॥ चतुष्क मनपादे स्यात् पुनः चत्वारि पश्चिमे (पृष्ठपादे) पृष्ठे च त्रीणि ऋक्षाणि, कुक्षौ चत्वारि वामतः ॥ चत्वारि दक्षिणे कुक्षौ, पुच्छे भत्रयमेव च । मुखे भत्रयमेवं स्युरष्टाविंशतितारकाः ॥ शिरस्ताराग्निदाहाय, गृहावसोऽ अपादयोः । स्थैर्य स्यात् पश्चिमे पादे, पृष्ठे चाव धनागमः । कुक्षौ स्यादक्षिणे लाभो, वामकुक्षौ दरिद्रता ॥ पुच्छे स्वामि विनाशः स्यान्मुखे पीडानिरन्तरम् ॥ इन श्लोकों का अर्थ पूर्वोक्त “गेद्यारंभे” इत्यादि श्लोकों के समान ही है। २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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