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________________ २८] [ मुहूर्तराज ग्रहमैत्री बोधक सारणी ग्रह → मित्रादि मंगल गुरु , शुक्र शनि राहू و शु. | सू. मित्र هو सम शु. श. اهي चं. च. | ग्रहमैत्री में गुणविभाग - दैवज्ञ मनोहर के मत में - ग्रहमैत्रम् सप्तविधं, गुणाः पञ्च प्रकीर्तिताः । तत्रैकाधिपतित्वे च मित्रत्वे गुण पंचकम् । चत्वारः सममित्रत्वे द्वयोः साम्ये त्रयो गुणाः। मित्रवैरे गुणश्चैकः समवैरे गुणार्धकम् ॥ परस्परं खेटवैरे गुणशून्यं विनिर्दिशेत् । अर्थ - ग्रहमैत्री सात प्रकार की है - यथा - १. एकाधिपतित्व मैत्री, २. परस्पर मैत्री, ३. सममैत्री, ४. समसमता, ५. मित्र वैर, ६. समवैर, ७. परस्पर वैर। एकाधिपतित्व तथा परस्पर मैत्री हो तो ५ गुण, ग्रह परस्पर सम और मित्र हों तो ४. गुण, दोनों ही ग्रह परस्पर सम हों तो ३ गुण, परस्पर मित्र और वैरी हों तो १ गुण परस्पर सम और वैरी हों तो - आधा गुण, तथा दोनों ही ग्रह परस्पर वैरी हों तो गुण ० शून्य समझना चाहिए। १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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