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[ मुहूर्तराज में २ मास तक यह क्रम चलता है। फिर कर्क में एक मास तक पश्चिम से लेकर आठो दिगविदिक में फिर सिंह-कन्या से सूर्य में २ मास तक यही क्रम रहता है। अहोरात्र की ६० घड़ियाँ प्रमाण हैं अतः एक अहोरात्र में शिव का आवर्तन २ बार होता है। शिव का आरम्भ उत्तरादि व्युत्क्रम दिशानुसार और भ्रमण क्रमानुसार ही रहता है। इसी आशय को लेकर लिखा गया है कि
मेषेऽर्कादुत्तरादौ दिशि विदिशि शिवो सासमेकं तथा द्वौ , संहत्या (व्युत्क्रमेण) संस्थितो द्विभ्रमिति भृशमहोरात्रमध्ये तु सृष्ट्या (क्रमेण) । अध्यर्धे नाडिके द्वे (२॥ घ.) दिशि विदिशि घटीपंचकं (५ घ) चैष तिष्ठन् , चन्द्रादेः प्रातिकूल्यम् हरति किरति शं दक्षिणपृष्ठगोऽसौ ॥
अर्थ - ऊपर लिख दिया गया है। यह शिव दाहिनी ओर तथा पीछे होने पर चन्द्रादि अर्थात् चन्द्र एवं ताराओं आदि की प्रतिकूलता का निवारण करके सुख देता है। शिवचार के फल
विवादे शत्रुहनने रणे झगटके तथा । द्यूते चैव प्रवासे वाऽ वामे पृष्ठे शिवे जयः । स्वराश्च शकुना दुष्टाः भद्राग्रहबलं तथा ।
दिग्दोषा योगिनी अभयाः स्युः शुभे शिवे ॥ __ अर्थ - विवाद, शत्रुमारण, युद्ध, झगड़ा, द्यूत (जुआ) और प्रवास इनमें यदि शिव दाहिनी ओर एवं पीठ पीछे स्थित हो तो विजय होती है।
विपरीत स्वर, दुष्ट शकुन, भद्र एवं ग्रहकृतदोष, दिग्दोष एवं योगिन्यादि दोष शिव के पृष्ठस्थ अथवा दक्षिणस्थ रहते शुभफलद होते हैं। अर्थात् विपरीत स्वर शकुनादि दोषप्रद नहीं होते।
कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। इसकी लीला का कोई भी पार नहीं पा सकता। शास्त्रकार कहते हैं कि जीव कर्मों के प्रभाव से कभी देव और मनुष्य, कभी नारक और कभी पशु, कभी क्षत्रिय और कभी ब्राह्मण, कभी वैश्य और कभी शूद्र हो जाता है। इस प्रकार नाना योनियों और विविध जातियों में उत्पन्न हो भिन्न-भित्र वेश धारण करता है और सुकृत तथा दुष्कृत कर्मोदय से संसार में उत्तम, मध्यम, जघन्य, अधम अथवा अधमाधम अवस्थाओं का अनुभव करता रहता है। इसलिये कर्मों के वेग को हटाने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को क्षमासूर बन कर यथार्थ सत्यधर्म का अवलम्बन और उसके अनुसार आचरणों का परिपालन करना चाहिये, जिससे आत्मा की आशातीत प्रगति हो सके।
__ -श्री राजेन्द्रसूरि
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