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[ मुहूर्तराज
ग्रहों की दृष्टि, एवं उनकी सौम्यक्रूरता, ग्रहों की कुण्डली स्थिति से लग्नभंगदता, ग्रहों की रेखादातृता, कर्तरी दोष तथा अन्यान्य उक्तानुक्त दोषों का परिहार इत्यादि आवश्यकीय पदार्थ ज्ञानसम्बद्ध शीर्षक उनके अन्तर्गत ऋषि-मुनि कथित उद्धरण वचनों को समाविष्ट किया गया है।
इसी लग्नशुद्धि प्रकरण से सम्बद्ध लग्न विषयक विशेष ज्ञातव्य किञ्चिद् वक्तव्य श्री वासुदेवगुप्त द्वारा संकलित “अभिनवबृहज्यौतिषसार” नामक ग्रन्थ की भूमिका से उद्धृत करना अप्रासंगिक एवं अस्वाभाविक न होगा प्रत्युत फलादेश के मुख्य आधारभूत लग्न के विषय में विशेष जानकारी होगी।
उक्त ग्रन्थ भूमिका में श्री गुप्त लिखते हैं
फलादेश का प्रबल एवं विवेकपूर्ण आधार 'लग्न' ही है। कहा भी हैकैश्चिद् कालबलं प्रधानमुदितं कैश्चिद् विलग्नं बलं
तथा च
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सिद्धान्ते खलु सारभूतमुदितं लग्न प्रधानं सदा । लग्नाद् भूतभविष्यमध्यतनुजं कालत्रयं ज्ञायते
धात्रा यल्लिखितं ललाटपटले सर्वं विधत्ते पुमान ।
लग्नमात्मा मनश्चन्द्रः तद्योगात्फलनिर्णयः । तस्भलग्नं च चन्द्रं च विलोक्य फलभादिशेत् ॥
अर्थात् कतिपय विद्वान् कालवल ( मुहूर्तबल को ) प्रधान मानते हैं और कुछ एक लग्न बल को, किन्तु ज्योतिषशास्त्र के सिद्धान्त ग्रन्थों में निष्कर्षरूपेण लग्न को ही प्रधानता दी गई है। लग्न के द्वारा प्राणी भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों कालों को मालूम करता है तथा जो कुछ विधाता ने ललाट में लिखा है वह भी इसी से प्रकट करता है। लग्न फलितशास्त्र की 'आत्मा' तथा चन्द्रमा 'मन' है। इन दोनों के योग से ही फलादेश का निर्णय होता है अतः विज्ञ ज्योतिर्विद् को चाहिए कि 'लग्न' एवं 'चन्द्र' दोनों को देखकर फलादेश कहे।
इस प्रकार के अनेकों वचन ज्योतिर्ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होते हैं पर फलादेश के उपयुक्त कौनसा लग्न है तदर्थं लग्नसाधन किस प्रकार किया जाय, यह एक विचारणीय प्रश्न है। ज्योतिषशास्त्रानुसार फल दो प्रकार के हैं- (१) दृष्ट (२) अदृष्ट | ज्यौतिषगणितशास्त्र क्रियाओं का दृष्टफल सूर्यचन्द्रादिग्रहण, ग्रहचार तथा ग्रहों के बिम्बोदयास्त आदि हैं एवं ज्यौतिष के जातक स्कन्ध के अन्तर्गत जन्म लग्न एवं प्रश्नलग्न से विचारणीय फलादेश विवाह यात्रादि का शुभाशुभ फल जो प्रत्यक्ष में दृष्ट न होकर कालान्तर अनुभूत होता है वह अदृष्टफल कहा जाता है। इन्हीं दोनों फलों के ज्ञानार्थ आचार्यों ने लग्न के भी दो भेद किए हैं - एक भवृत्तीय लग्न, दूसरा भबिम्बीय लग्न ।
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अदृष्टफलकाभ्य जन्म-यात्रा - विवाहादि सत्कार्यों में भी प्रचलित (भवृत्तीय दृष्टफलार्थ, अनार्ष) लग्न के प्रयोग से फलित ग्रन्थोक्त फलादेश करने में सहस्त्रशः दोष आते हैं तथा फलादेश में विसंगतियाँ होती है और आर्ष (भबिम्बीय = तुल्लोदय) लग्न के प्रयोग से फलित में किसी प्रकार की विसंगति न आकर पूर्णतया संगति का दिग्दर्शन होता है, किन्तु यवनकालीन साम्राज्य से चले आ रहे अन्धपरम्परानुगत अदृष्टफलीय
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