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________________ २५६ 1 [ मुहूर्तराज अन्वय - अस्मात् कालात् (उपरिलिखित तत्तद्देवतास्थापने निश्चितात् कालात्) (लग्नकुण्डली स्थितग्रह विविधस्थित्या शुभसूचनामकात्) भ्रष्टाःते देवाः (समुचितग्रहस्थितिविपरीततायां प्रतिष्ठापिताः) देवाः कारक सूत्रधार कर्तृणाम् (प्रतिष्ठाकारकगुरोः सूत्रधारस्य प्रतिष्ठाकर्तृः) यजमानस्य क्षयमरणबन्धनामभयविवाद शोकादि कर्तारः भवन्ति इति। अर्थ - उपरिलिखित जैसी स्थिति यदि लग्न कुण्डली में न हो तो कालभ्रष्ट उपर्युक्त देवादि प्रतिष्ठा कराने वाले गुरु के सूत्रधार (सुधार) (सोमपुरा) और प्रतिष्ठाकर्ता यजमान के क्षय, मरण, बन्धन, रोग, कलह, शोक आदि के करने वाले होते हैं। उपरिलिखित श्रील्ल के कथनानुसार लग्नकुण्डली में ग्रहों की स्थिति होने पर तत्तद्देवता प्रतिमा की स्थापना करनी, ऐसा जो है उसका तात्पर्य यह है कि उन २ स्थानों में स्थित वे-वे ग्रह पूर्ण विंशोपक देते हैं और वे शुभफलदायी है। अब विंशोपक क्या होते हैं और किस २ ग्रह के कितने हैं। जिज्ञासा होने पर विंशोपक बल की चर्चा करना प्रसंगोपात्त ही रहेगा। अतः अब आगे विंशोपक पल के विषय में श्री आ.सि. के टिप्पणगत शब्दों में अद्धठ विसा ३॥ रविणो पण ५ ससिणो ३ तिन्नि हुँति तह गुरुणो । दो-दो (२-२) बुहसुक्काणं, सुरुड्ढा (१॥-१॥) सणिभोमराहुणम् ॥ अर्थात्- सूर्य के (३॥) चन्द्रमा के (५) गुरु के (३) बुध एवं शुक्र के (२-२) और शनिमंगल तथा राहु का प्रत्येक का (१॥-१॥) ये सभी मिलकर २० विश्वा होते है जो विंशोपक बल है। पुनः आरम्भसिद्धिकार के शब्दों में बलहीन ग्रहों की स्थिति में यदि प्रतिष्ठा की जाय तो फल क्या निकलते हैं देखिए बलहीनाः प्रतिष्ठायां रवीन्दुगुरुभार्गवा । गृहेश१ गृहिणीर सौख्य३ स्वानि४ हन्युर्यथाक्रमम् ॥ अन्वय - प्रतिष्ठायां बलहीनाः (स्वोच्चमित्रादिराशिस्थित्यात्मकबलहीनाः) रवीन्दुगुरुभार्गवाः (सूर्यचन्द्रगुरुशुक्राः) गृहेशगृहिणीसौख्यस्वाति प्रतिष्ठाकर्तृतद्गृहिणीसौख्यधनाति क्रमशः हन्युः (नाशयेयुः) अर्थात्- बलहीन१ सूर्यः प्रतिष्ठाकर्तारं, चन्द्रः तद्गृहिणीम्, गुरुः सुखम् भार्गवश्च धनं नाशयति। अर्थ - प्रतिष्ठालग्नकुण्डली में यदि सूर्य बलहीन हो तो गृहपति (प्रतिष्ठाकर्ता) का चन्द्र बलहीन हो तो उसकी पत्नी का, गुरु सुख का और शुक्र धन का विनाश करते हैं। तथा च अन्वय - तनुबन्धुसुतङ्नधर्मेषु (प्रथमचतुर्थपञ्चमसप्तमनवमेषु स्थानेषु स्थितः) तिमिरान्तकः (सूर्यः) तथा सकर्मसु (उपर्युक्तपञ्चस्थानेषु दशमे च) कुजार्की (भौमशनी) सुरालयम् (देवालयम्) संहरन्ति उन्मूलयन्ति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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