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मुहूर्तराज ]
भद्रा के अंगों के विभाग और उनका फल - (क. संहि.)
मुखे पंच गले
त्वेका
वक्षस्येकादश स्मृताः । नामौ चतस्त्रः षट् कट्याम्, तिस्त्रः पुच्छे तु नाडिकाः ॥ कार्यहानिमुखे मृत्युर्ग वक्षसि निःस्वता । कट्यामुन्नत्तता नामौ च्युतिः पुच्छे ध्रुवो जयः ॥
अर्थ भद्रा का सामान्यतः मानः ३० घटिकाओं का है । ( एक तिथि में दो करण होते हैं) उनका विभाग अंगानुसार इस प्रकार बतलाया गया है। भद्रा की प्रारम्भिक ५ घड़ियाँ भद्रा मुख में, तदुपरान्त की १ घड़ी भद्रा के गले में, ततः ११ घड़ियाँ छाती पर ४ घड़ियाँ नाभि में, ६ घड़ियाँ कमर में और अन्त की तीन घड़ियाँ पूँछ पर रहती हैं। इनका फल इस प्रकार है
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मुख की घड़ियों में कार्यहानि, गले की घड़ी में मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट, छाती की घड़ियों में निर्धनता, कमर की घड़ियों में मस्तिष्क विकृति और नाभि की घटिकाओं में कार्य भ्रंश होता है । किन्तु अन्त की तीन घड़ियों में जो की पूँछ पर रहती है, कार्य किया गया कार्य सिद्ध होता है ।
आरंभटीका में
यदि भद्राकृतं कार्यं प्रमादेनापि सिध्यति । प्राप्ते तु षोडशे मासे, समूलं तद् विनश्यति ॥
अर्थ - यदि भद्रा में किया गया कार्य जिस किसी तरह सिद्ध भी हो जाए तो भी सालहवें महीने में वह कार्य नष्ट हो ही जाता है।
भद्रा के ३ परिहार
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असिते सर्पिणी ज्ञेया सिते विष्टिस्तु वृश्चिकी । सर्पिण्यास्तु मुखं त्याज्यं, वृश्चिक्याः पुच्छ मेव च ॥ रात्रि भद्रा यदाह्नि स्याद्दिवा भद्रा यदा निशि । न तत्र भद्रा दोष स्यात् सा भद्रा भद्रदायिनी ॥ सुरभे वत्स या भद्रा सौम्ये सिते गुरौ । कल्याणी नाम सा प्रोक्ता सर्वकर्माणि साधयेत् ॥
सोमे
अर्थ यहाँ भद्रा के ३ परिहार प्रस्तुत किए जा रहे प्रथम पक्षानुसार अंग त्याग से, द्वितीय समय भेद से और तृतीय वारादियोग से ।
प्रथम परिहार
कृष्ण पक्ष की भद्रा सर्पिणी संज्ञक है और शुक्ल पक्ष की भद्रा का नाम वृश्चिकी है। सर्पिणी भद्रा का मुख त्यागना चाहिए, क्योंकि सर्पिणी के मुख में ही विष रहता है और वृश्चिकी भद्रा की पूँछ त्याज्य है, क्योंकि वृश्चिक के पूँछ में ही विष रहता है। इस प्रकार विष युक्त घड़ियों का त्याग करके शेष की भद्रा घटिकाओं में कार्य किया जाना हानिकारक नहीं अपितु शुभकारक होता है ।
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