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[ मुहूर्तराज विपत् तारा में प्रथम चरण त्याज्य है और प्रत्यरि में अन्तिम चरण अशुभ हैं, तो वध तारा में तीसरा चरण त्याज्य है, शेष सभी अंश (चरण) शुभ हैं। यहाँ अंश शब्द से जगन्मोहनकार को नक्षत्र चतुर्थांश ही अमीष्ट है। अथ भद्रानिषिद्धकाल (मु.चि.शु.प्र. ४३ वाँ)
शुक्ले पूर्वार्धेऽष्टमीपञ्चदश्योः, भद्रकादश्यां चतुर्थाम् परार्धे ।
कृष्णेऽन्त्याधै स्याटतीयादशम्योः, पूर्वे भागे सप्तमीशम्भुतिथ्योः ॥ अन्वय - शुक्ले (पक्षे) अष्टमीपञ्चदश्योः पूर्वार्धे भद्राभवति। एकादश्यां चतुर्थ्याम् च परार्धे भद्रा। कृष्णे (पक्षे) तृतीया दशम्योः अन्त्यार्धे (परार्धे) सप्तमी शम्भु तिथ्योश्च (सप्तमीचतुर्दश्योः) पूर्वे भागे (पूर्वार्धे) भद्रा स्यात्।
अर्थ - शुक्ल पक्ष में अष्टमी एवं पूर्णिमा के पूर्वार्ध में भद्रा रहती है और एकादशी तथा चतुर्थी के उत्तरार्ध में। कृष्ण पक्ष में तृतीया और दशमी के उत्तरार्ध में भद्रा का निवास है, तो सप्तमी और चतुर्दशी के पूर्व भाग में।
-: अथ भद्रा ज्ञापक सारणी :तिथियाँ
तिथियाँ | कृष्ण | सप्तमी एवं चतुर्दशी । पूर्वार्द्ध में । तृतीया एवं दशमी । उत्तरार्ध मे
शुक्ल अष्टमी एवं पूर्णिमा पूर्वार्द्ध में । चतुर्थी एवं एकादशी | उत्तरार्ध मे
पक्ष
भद्रावास
भद्रावास
बृहस्पति की भद्राविषयक स्पष्टोत्ति -
सिते चतुर्थ्यामन्त्यार्धमष्टम्याद्यार्धमेव च । एकादश्यां परार्धे तु पूर्वार्धे पूर्णशीतगौ ॥ कृष्णे तृतीयान्त्यार्थे हि सप्तम्याद्यार्धमेव च । दशम्यामुत्तरार्धे तु चतुर्दश्यर्धमादितः ॥ विष्टयारव्योऽयं महादोषः कथितोऽत्र समस्तगः । तदानीं कृतसत्कर्म का सह विनश्यति ॥
अर्थ - शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के उत्तरार्ध में, अष्टमी के पूर्वार्ध में, एकादशी के उत्तरार्ध में, पूर्णिमा के पूर्वार्ध में एवं कृष्ण पक्ष की तृतीया के उत्तरार्ध में, सप्तमी के पूर्वार्ध में दशमी के उत्तरार्ध में और चतुर्दशी के पूर्वार्ध में विष्टि नामक महादोष कहा गया है, जो कि तिथि के पूर्ण अर्ध भाग को दूषित करता है, उस समय किया गया सत्कर्म और उस कर्म का कर्ता, दोनों का ही विनाश होता है।
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