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________________ मुहूर्तराज ] आवश्यक कृत्यों में दुष्ट ताराओं दो परिहार - ( मु. चि. गो. प्र. श्लोक १३वाँ ) मृत्यौ स्वर्णतिलान् विपद्यापि गुडं शाकं त्रिजन्मस्वयो । दद्यात् प्रत्यरितारकासु लवणं, सर्वो विपत् प्रत्यरिः ॥ मृत्युश्चादिमपर्यये न शुभदोऽथैषां द्वितीयेंडशका | नादिप्रान्त्यतृतीयका अथ शुभाः सर्वे तृतीये स्मृताः ॥ अन्वय - मृत्यौ (वधाख्यतारायाम्) स्वर्णतिलान् (स्वर्णयुक्ततिलान् यथाशक्ति ब्राह्मणाय दद्यात्, विपद्यपि (तृतीयतारायाम्) गुडं दद्यात्, त्रिजन्मसु (त्र्यावृत्तिगतासुजन्माख्यतारासु ) शाकं दद्यात्, प्रत्यारितारकासु (पञ्चमतारासु) लवणं दद्यात् (इति प्रथम परिहारः ) अथ द्वितीय परिहारः उच्यतेआदिमपर्यये (प्रथमावृतौ ) सर्व: ( षष्टिघटिकालकः ) विपत् प्रत्यरिः मृत्युश्च न शुभदः (अतस्त्याज्यः) अथ द्वितीये (द्वितीयावृत्तौ ) आदिप्राल्त्यतृतीयकाः अंशाः न ( शुभदा न ) अथ (तृतीयावृत्तौ ) सर्वे ( षष्टिघटिकात्मकाः) शुभाः (शुभफलदाः) स्मृता । - अर्थ अत्यावश्यक कार्य होने पर मृत्युतारा के दोष शमन के लिए यथाशक्ति ब्राह्मण को सुवर्ण सहित तिलदान करना चाहिए । विपद् तारा हो तो गुड़दान तीनों आवृत्तियों की जन्मताराओं में (प्रथमताराओं में) शोक (बैंगन, गोभी आदि) देना चाहिए। प्रत्यरि ताराओं में लवण (नमक) का दान करना चाहिए। यह प्रथम परिहार है। अब द्वितीय परिहार के विषय में चिन्तामणिकार कहते हैं- प्रथमावृत्ति की विपत् प्रत्यरि और मृत्यु ये तीनों ताराएँ पूरी की पूरी अर्थात् सामान्यतः साठ घड़ी की शुभ नहीं होतीं अतः इनको शुभकार्यों में छोड़ना चाहिए। द्वितीय आवृत्ति में विपद् तारा की प्रथम २० घड़ियाँ अशुभ हैं। अन्तिम ४० शुभ हैं, प्रत्यरितारा की मध्य की २० घड़ियाँ अशुभ और आदि अन्त की ४० शुभ हैं और मृत्युतारा की अन्तिम बीस घड़ियाँ अशुभ तथा आदि और मध्य की ४० घड़ियाँ शुभ हैं, ऐसा अर्वाचीन (नवीन) गणितज्ञों का मत है। किन्तु प्राचीन आचार्य इस श्लोक में स्थित “अंशा:" इस पद से नक्षत्र चतुर्थांश ग्रहण करते हैं, उनका कहना है कि द्वितीयावृत्ति की विपद् तारा में नक्षत्र का प्रथम चरण अशुभ है शेष तीन चरण शुभ, प्रत्यरि में प्रान्त्य ( नक्षत्र अन्तिम चरण) अशुभ शेष ३ चरण शुभ और वध में नक्षत्र तृतीय चरण अशुभ और शेष शुभ हैं। तीसरी आवृत्ति में ये तीनों विपत्प्रत्यरि और मृत्यु ताराएँ शुभ फलदायी है। Jain Education International [ ५७ जगन्मोहन में प्राचीनाचार्यों के मत की पुष्टि की गई है । जगन्मोहनकार कहते हैं- पर्यांये प्रथमे वर्ज्या : विपतप्रत्यरिनैधनाः। द्वितीये त्वंशाकः वर्ज्याः तृतीये त्वखिलाः शुभाः । अर्थात् प्रथमावृत्ति में विपत् प्रत्यरि और वध ये तीनों ताराएँ वर्ज्य हैं । द्वितीयावृत्ति में इनके अंश वर्जनीय हैं और तृतीयावृत्ति में ये तीनों ताराएँ श्रेष्ठ हैं। यहाँ अंशक शब्द के विषय में और भी स्पष्टता करते हुए वे लिखते हैं। आद्यांशो विपदि त्याज्यः प्रत्यरौ चरमोऽशुभः । वद्ये त्याज्यस्ततीयोऽशः शेषा अंशास्तु शोभनाः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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