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________________ २१० ] [ मुहूर्तराज अन्वय :- पूर्वतः पूर्वाद्यष्टसु दिशाविदिशासु क्रमेण स्नानाग्निपाक शयनास्त्रभुजश्च धान्यभण्डारदैवत गृहाणि स्युः। तन्मध्यत: दिशाविदिशयोः मध्ये क्रमशः मथनाज्यपुरीषविद्याभ्यासाख्यरोदनरतौ षधसर्वधाम स्यात्। अर्थ :- पूर्वादिक आठों दिशाविदिशाओं में क्रमश: स्नानगृह, पाकगृह, शयनगृह, शस्त्रगृह, भोजनगृह, धान्यसंग्रहगृह, भण्डारगृह और देवगृह आदि प्रकोष्ठ भवन में बनवाने चाहिए। तथा इन प्रकोष्ठों के मध्य-मध्य आठ और प्रकोष्ठ बनवाने चाहिए वे इस प्रकार हैं-पूर्व और आग्नेय के मध्य में दही मथन का गृह, आग्नेय और दक्षिण के मध्य में घृतगृह, दक्षिण और नैर्ऋत्य के मध्य में विष्ठात्यागगृह (शौचालय) नैर्ऋत्य और पश्चिम के मध्य में विद्याभ्यासगृह, पश्चिम और वायव्य के मध्य में रोदनगृह, वायव्य और उत्तर के मध्य में रतिगृह (संभोगगृह) उत्तर और ईशान के मध्य में औषधगृह और ईशान और पूर्व के मध्य में ऊपर कही गई वस्तुओं से अतिरिक्त वस्तुओं का गृह। - भवनमध्यगत अन्यान्य प्रकोष्ठों का दिशाविदिशानुसार मानचित्रईशान पूर्व आग्नेय देवगृह अन्य अवशिष्ट वस्तु भण्डार स्नानागार दही मथने का गृह | रसोईगृह औषध भण्डार घृत भण्डार उत्तर भण्डार गृह शयनगृह | दक्षिण रतिगृह शौचालय वायव्य | धान्यसंग्रहगृह रोदनगृह भोजनगृह विद्याभ्यासगृह शस्त्रगृह नैऋत्य पश्चिम भवनारम्भ के लिये जो नक्षत्रादि एवं पंचांगशुद्धि आदि की बातें कही गई हैं उन सभी को प्रासाद वापी और कूपादि निर्माण के समय में विचारना चाहिए जैसा कि विष्णुधर्मोत्तर में कहा गया है "प्रासादेष्वेवमेव स्याद् वापीकूपेषु चैव हि" भवनारम्भ मुहूर्त के उपरान्त जब भवन निर्माण होने लगता है तब भवनों में द्वार निवेश के लिए भी दिनशुद्धि लग्नशुद्धि आदि तो विचारणीय होते ही हैं पर साथ ही द्वार चक्र जो कि सूर्याक्रान्त नक्षत्र से चन्द्राक्रान्त नक्षत्र तक गणना संख्या से सम्बन्ध है, विचारा जाता है। अत: सर्वप्रथम द्वारचक्र के विषय में प्रस्तुत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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