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________________ मुहूर्तराज 1 द्वारचक्र एवं उसका फल -( न - (मु.चि.वा. प्र. श्लो. २९ वाँ ) सूर्यद् ियुगभैः शिरस्यथ फलं लक्ष्मीत्रस्ततः कोणभैः । नागैरुवसनं ततो गजमितैः शाखासु सौख्यं भवेत् देहल्यां गुणभैः मृतिर्गृहपतेः मध्यस्थितैः वेदभैः सौख्यं चक्रमिदं विलोक्य सुधिया द्वारं विधेयं शुभम् ॥ " अन्वय :- सूर्यक्षति (सूर्यनक्षत्रात्) युगभै: (चतुर्नक्षत्रैः) शिरसि (स्थितैः ) लक्ष्मी: (लक्ष्मीप्राप्ति:) फलं स्यात्। ततः नागैः कोणभैः (द्वारकोणस्थितैः नक्षत्रैः) उद्वसनम् (निवासशून्यता) फलम् भवेत् । ततः गजमितैः (अष्टाभिः) नक्षत्रैः शाखासु (ऊर्ध्वाधः पार्श्वगतचतुः शाखासु स्थितैः) सौख्यं भवेत् । ततो गुणभैः (त्रिनक्षत्रैः) देहल्यां स्थितैः गृहपतेः मृत्युः स्यात् ततोवेदभैः चतुभिर्नक्षत्रैः मध्यस्थितै (द्वारमध्यावकाशे स्थितैः) सौख्यं भवेत्। अर्थ :- जिस नक्षत्र पर सूर्य हो उस नक्षत्र से जिस द्वार बैठाना है उस दिन के चन्द्रनक्षत्र तक गणना करने पर १-४ तक की संख्या के नक्षत्र द्वार की ऊपरी शाखा के ऊपर मस्तक पर रहते हैं, जिनका फल गृहपति को लक्ष्मीप्राप्ति रूप में मिलता है । ततः चारों द्वार कोणों पर दो-दो नक्षत्रों के गणनानुसार ८ नक्षत्र रहते हैं इनमें द्वार चौखट बैठाने से वह भवन जनवास शून्य रहता है । ततः ८ नक्षत्र द्वार की चारों शाखाओं में दो-दो की गणनानुसार ८ नक्षत्र रहते हैं जिनमें द्वार निवेश का फल सुखप्राप्ति है ततः ३ नक्षत्र द्वार की देहली के नीचे रहते हैं जिनका फल गृहपति की मृत्यु है । ततः अविष्ट ४ नक्षत्र द्वार मध्यभाग में रहते हैं जिनमें चौखट बैठाने पर गृहस्वामी को सुखप्राप्ति होती है। स्पष्टतया ज्ञानार्थ एक सारणी तथा एक द्वार मानचित्र दिया जा रहा है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह जैन शास्त्रकारों ने इनको पाँच महाव्रतों के नाम से और अजैनशास्त्रकारों ने इनको पांच यम के नाम से बोधित किये हैं। इनको यथावत् परिपालन करने से धर्म, देश और राष्ट्र में अपूर्व शान्ति और सुख-समृद्धि स्थिर रहती हैं। ये बातें मनुष्य मात्र को अपने उत्थान के लिये अति आवश्यक है, जिससे पारस्परिक वैरसम्बन्ध समूल नष्ट होकर मनुष्य निःसंदेह सुगतिपात्र बन जाता है । Jain Education International [ २११ For Private & Personal Use Only - श्री राजेन्द्रसूरि www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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