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________________ २३२ ] [ मुहूर्तराज निक्षत्र तत्फलमग्निदाहः, कृता: ततोऽग्रेतनानि चत्वारि नक्षत्राणि कलशस्य प्राच्यां (पूर्वादिशि) फलम् उद्वसनम् गृहं जनावासशून्यम् भवेत्, ततः कृता: पश्चिमें कलश पश्चिम दिग्विभागे फलम् श्री: (लक्ष्मीलाभ:) ततः वेदाः चतु:संख्यानि नक्षत्राणि उत्तरे फलम् कलि: (कलह:) भवेत्, तत: युगमिताश्चत्वारि भानि गर्भे कलश गर्भदेशे फलं भाविनां गर्भाणां विनाशः, तत: रामा: त्रीणि नक्षत्राणि गुदे फलम् स्थैर्यम् (चिरं तत्र गृहे गृहस्वामिनो निवास:) तत: अनला: त्रिसंख्यानि धिष्ण्यानि कण्ठे कल्पनीयानि फलम् गुदोक्तमेवार्थात् गृहपते: चिरकालं यावत् तस्मिन् गेहे सुखपूर्विका स्थिति भवेत् । अर्थ- कलश वास्तु चक्र में मुख, कण्ठ, गर्भ, गुदा, पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इस प्रकार कलश के अंग एवं पार्वात्मक आठ विभाग कल्पित किए जाते हैं । तत: सूर्य जिस नक्षत्र पर हो, उस नक्षत्र से जिस दिन प्रवेश करना हो उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना की जाती है। इस गणना करने से कछ संख्यक नक्षत्र शभ तथा कछ संख्यक नक्षत्र अशभ फलदायी माने गये हैं। सर्यनक्षत्र से गणना करने पर प्रथम चन्द्रनक्षत्र कलश के मुख पर रहता है जिसका फल अग्निदाह है। तत: ४ नक्षत्र पूर्वदिशा में जिनका कि फल वह गृह जनवासशून्य रहता है रहते हैं। उसके बाद के ४ नक्षत्र दक्षिणदिशा में फल लाभ है। आगे के ४ नक्षत्र पश्चिम रहते हैं। उनका भी फल धनलाभ है। तत: ३ नक्षत्र उत्तरदिशा के हैं जिनमें प्रवेश करने से परिवार में या पड़ोसियों से कलह होता है । तत: ४ नक्षत्र कलश गर्भ के हैं जो कि गृहस्वामिनी के गर्भो का विनाश करते हैं। और अबशिष्ट ६ नक्षत्र क्रमश: कलश गुदा तथा कण्ठ में होते हैं जिनका फल भी क्रमश: स्थिरता एवं चिरकाल तक गृहपति का ससुख गृहवास है। इस प्रकार गृहप्रवेश वेला में कलश वास्तु चक्र के माध्यम से शुभफलद नक्षत्र ज्ञात करके ही भवन में प्रवेश करना चाहिए। ज्योति:प्रकाश में भी स्पष्टतया संक्षेप में कलश चक्र समझाया है यथा “भूर्वेदपंचकं त्रिस्त्रि: प्रवेशे कलशेऽर्कभात् । मृतिर्गतिर्धनं श्री:स्याद् वैरं रुक स्थिरता सुखम्' अर्थात् कलश में सूर्यनक्षत्र से १, ५, ५, ५, ५, ३ और ३ चन्द्रनक्षत्र निवास करते हैं जिनका फल क्रमश: मृत्यु, शुन्य, धन, श्री, वैर, रोग, स्थिरता एवं सुख है। अथ कलश मानचित्र सनक्षत्र एवं सफल सफल कलश चक्र मुख १ अग्निदाह उत्तर २१-१७ कल कण्ठ २५-२७ चिरस्थिति पश्चिम १०-१३ धनलाभ १८-२१ गर्भविनाश २२-२४ स्थिति गुदा २-५ शून्य दक्षिण F०६-१ लाभ sonal use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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