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________________ मुहूर्तराज ] [२५९ अन्वय - पञ्चभिः चतुर्भिरपि बलसमन्वितैः ग्रहैः (सद्भिः) लग्नं प्रशस्यते। अथवा केन्द्रे (१,४,७,१० स्थानेषु) त्रिकोणे (९,५ स्थानयोः) गुरुः शुक्रः वा। तथा च त्रयः सौम्यग्रहाः यत्र लग्ने स्युर्बलवत्तराः । बलवत्तदपि विज्ञेयं शेपैीनबलैरपि ॥ अन्वय - (यदि प्रतिष्ठाकुण्डल्याम्) त्रयः सौम्याः ग्रहाः (शुभाः ग्रहाः) बलवत्तराः (पूर्वकथित-बलोपेताः) स्युः (भवेयुः) शेषैः ग्रहैः बलहीन रपि सद्भिः तद् लग्नम् बलवद् विज्ञेयम्। अर्थ - यदि प्रतिष्ठा लग्नकुण्डली में पाँच अथवा चार बलयुक्त ग्रह हों अथवा केन्द्र (१,४,७,१०) और त्रिकोण (९,५) में गुरु अथवा शुक्र हों भले ही शेष ग्रह बलहीन हों। और यदि तीन सौम्यग्रह बलयुक्त होकर लग्न में हों चाहे शेष ग्रह निर्बल भी हो तो भी उस लग्न को बलवान् समझना चाहिए। प्रश्नप्रकाश में ग्रहों की नवधा बलहीनता पापः शीघ्रः२ शुभो वक्री१ बालो३ वृद्धो४ ऽरिभास्तगः५-६ । नीचः७ पापान्तरे८ अष्टस्थ९ इत्यक्तो बलवर्जितः ॥ अन्वय - पापः (क्रूरो ग्रहः) शीघ्रः (शीघ्रगामी) शुभः ग्रहः वक्री भवेत् अथवा बालः, वृद्ध, शत्रुभावस्थः, अस्तगः, नीचः (नीचस्थाने स्थितः) पापान्तरे पापग्रहमध्यगः (पापयुतो वा) अष्टस्थः (लग्नादष्टमस्थानगः) भवेत् स ग्रहः बलवर्जितः इति उक्तः। ___अर्थ - यदि पापग्रह शीघ्रगामी हो, शुभग्रह वक्री हो अथवा बाल (सद्यः उदित) वृद्ध (अस्त होने वाला) शत्रुस्थानगत हो अस्त हो, नीच स्थानगत हो, पापग्रहों के मध्य में अथवा पापयुक्त हो, अष्टमस्थान में हो तो उस ग्रह को बलहीन कहते हैं। देव प्रतिष्ठा में जिन-जिन वस्तुओं को देखा जाता है उन सभी को समवेत समझने के लिए यहाँ एक सारणी दे रहे हैं जिससे यह सुगमता से ज्ञात हो सकेगा। चुपचाप सांसरिक विविध वेशों को देखते रहो, परन्तु किसी के साथ राग-द्वेष मत करो। समभाव में निमग्न रहकर निज आत्मिक गुणों में लीन रहो, यही मार्ग तुम को मोक्षाधिकारी बनावेगा। -श्री राजेन्द्रसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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