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________________ मुहूर्तराज ] [१७ तथा कर्क लग्न वालों के लिए-मंगल को त्रिकोणकेन्द्राधिप होने से निश्चित 'राजयोगकारक' कहा गया है जो यहाँ अनार्ष लग्न से प्रत्यक्ष षष्ठायपति (६-११) होने से परम अनिष्टकारक हो जाता है। तथा एक ही शनि स्त्री-मृत्यु एवं धर्म भाव का स्वामी बन गया है। तथा च सब ग्रन्थों में लग्न से २२ वाँ द्रेष्काण (अर्थात् मृत्यु भाव के प्रथम द्रेष्काण) को मृत्युकारण कहा गया है। २२ वाँ द्रेष्काण तो कर्क लग्न से ७ वीं राशि के अनन्तर कुंभ में ही हो सकता है, किन्तु यहाँ अनार्ष लग्नभाव से मकर का तृतीय द्रेष्काण है जो लग्न से २१ वाँ है, एवं और २ भावों में भी फलवैपरीत्य हो जाता है। किन्तु आर्षलग्नसिद्धभावों से ये दोष तथा अन्य विसंगतियाँ नहीं होकर फलादेश शास्त्रोक्त फल संगत होते हैं। “अतः अदृष्टफल में आर्षलग्न का ही प्रयोग करना युक्तिसंगत है” इस प्रकार वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आदि के ज्यौतिष विभागाध्यक्ष आदि अनेक विद्ववानों, पञ्चाङ्गकारों ने सभ्यग् अवलोकन कर स्वसम्मतियाँ लिखी हैं। अतएव ज्योतिर्विद्या के मर्मज्ञ एवं प्रेमी विद्वानों का यह परम कर्त्तव्य हो जाता है कि वे अदृष्टफल ज्ञानार्थ जन्म, यात्रा, विवाहादि कृत्यों में पराशरादि कथित आर्षलग्नभाव का ही प्रयोग करें तथा अन्य विद्वानों को एतदर्थ प्रेरित करें जिससे फलादेश में किसी प्रकार की असंगति न हो। (अ.बृ.ज्यौ.सार से) इस प्रकार इस संकलन ग्रन्थ 'मुहूर्तराज' के द्वितीय लग्नशुद्धि नामक प्रकरण से सम्बन्ध लग्न के विषय में कुछ विशेष ज्ञातव्य की चर्चा की गई। ३. आवश्यक मुहूर्त प्रकरण इसमें अक्षरारंभ, विद्यारंभ, दीक्षामुहूर्त, तत्सम्बद्ध लग्नशुद्धि, लोचकर्ममुहूर्त, पात्रादिभोग, आचार्यादि स्थापन के तथा यात्रा प्रसंग में प्रस्थान वारशूल, नक्षत्रशूल, तत्परिहार, योगिनीकाल पाशादिविचार, चन्द्रादिग्रहचार, सम्मुख शुकदोष, प्रतिशुक्रापवाद्, यात्रा लग्न में रेखादायिग्रह, तथा शुभाशुभ शकुन, सर्वशकुनों से मनःशुद्धि का शकुनप्राबल्य, यात्रोपरान्त गृहप्रवेश एवं नव्यवस्त्र परिधानादि से सम्बद्ध मुहूर्तों की विवेचना में ऋषियों एवं आप्नपुरुषों के प्रामाणिक एवं अकाट्य तथ्यवचनों का संकलन किया गया है। तदुपरान्त चतुर्थ वास्तुप्रकरण है। इसमें वास्तुनिर्माण प्रयोजन, गृहपति एवं उसका उस ग्राम नगरादि से जहाँ वह वास्तुनिर्माण कराना चाहता है मेलापन, वास्त्वारंभ में विहित सौर (संक्रान्ति) एवं चान्द्रमास वास्तु में ग्राह्य तिथिवार नक्षत्रादि, वास्त्वर्थ देय खात की विदिशाएँ (ईशान, आग्नेय, नैर्ऋत्य एवं वायव्य कोण) राहुमुख, गृहारंभ में वत्स विचार व तदर्थ लग्न शुद्धि, गृह में देवालय, विद्याकक्ष, भोजनशाला आदि कक्षों के लिए उपयुक्त दिशा-विदिशाएँ, द्वार निवेश, तदर्थ द्वारचक्र एवं द्वारवेध आदि शीर्षकों का भलीभांति विवेचनपूर्वक सन्निवेश किया गया है। इस संकलन का अन्तिम प्रकरण गृहप्रवेशापरपर्याय 'प्रतिष्ठा प्रकरण' है। इसमें गृहसम्बन्धी त्रिविध प्रवेश (नूतन, पुरातन एवं जीर्णोद्धृत) तदर्थ चान्द्रमासों, तिथियों, वारों, एवं नक्षत्रों का विधान, प्रवेश में कलश चक्र, वामार्कज्ञान, वास्तुपूजा आदि एवं सुरप्रतिष्ठा में ग्राह्य मास नक्षत्रादि, लग्न व नवांश की बलवत्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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