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[ मुहूर्तराज अर्थ - जब गुरु वक्रगति हो अथवा कभी वक्र और कभी मार्गगति हो तब यात्रा, विवाह, प्रतिष्ठा, गृहकर्म, चूडाव्रत (चौलकर्म) आदि कार्य यत्नपूर्वक छोड़ने चाहिए।
इसका फल-गुरु के वक्रातिचार में प्रतिष्ठा करने से कीर्ति का नाश, यात्रा करने से, चोर भय, विवाह में मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट तथा चूडाव्रत करने से हानि एवं गृहकर्म करने पर भय बना रहता है। राजमार्तण्ड में गुरु के वक्रातिचार गति का अपवाद (रा.मा.)
वक्रातिचारगे जीवे, वर्जयेत्तदनन्तमरम् ।
वतोद्वाहादिचूडायामष्टाविंशतिवासरान् ॥ ___ अर्थ - यदि गुरु वक्री अथवा अतिचारी हो तो २८ दिनों तक उपनयन, विवाह और चौल संस्कार नहीं करना चाहिए। दीपिका में भी परिहार
त्रिकोणजायाधनलाभराशौ, वक्रातिचारेण गुरुःप्रयातः ।
यदा कदा प्राह शुभं विलग्नं हिताय पाणिग्रहणं वसिष्ठः ॥ अन्वय - यदा गुरु: वक्रातिचारेण त्रिकोणजायाधनलाभ राशौ (कार्य लगनात् अथवा जन्मराशेः) गुरु: प्रयातस्दा वसिष्ठ: विलग्नम् शुभं प्राह पाणिग्रहणं च हिताय (भवति)
अर्थ - जब गुरु वक्री एवं अतिचारी होकर भी लग्नकाल में अथवा जन्मराशि से ९, ५, ७, २ एवं ११वां हो तब पाणिग्रहण (विवाह) करना शुभफलद कहा है, ऐसा वसिष्ठ का मत है। लल्लाचार्य के मत से भी
प्रतिषिद्धो नोदवाहो वक्रिणि जीवे तथातिचारगते ।
गोचरबल प्रधानं लग्नं च पराशरः प्राह ॥ अर्थ - गुरु के वक्री एवं अतिचारी होने पर भी यदि गोचरबल की प्रधानत हो (गुरु ९, ५, ७, २ एवं ग्यारहवीं राशि पर हो) तो विवाह का कोई निषेध नहीं अर्थात् जिनका विवाह किया जा रहा है, उन दोनों को राशियों से यदि उक्त क्रमांक राशि पर गुरु हो तो विवाह करना शुभ है। पराशर ने लग्न को भी प्रधान बतलाया है, अर्थात् उस समय यदि लग्न से उक्त स्थानों में गुरु हो। __विशेष - यहां कई एक आचार्य विवाह में ही इस अपवाद वाक्य को ग्राह्य मानते हैं यज्ञोपवीतादि कर्मों में नहीं क्योंकि “लग्नं च पराशरः प्राह" इस वाक्य में केवल 'लग्न' ऐसा कहकर सामान्य चर्चा की है, परन्तु कुछ एक कहते हैं कि यह अपवाद समस्त कार्यों के लिए ग्राह्य है, अर्थात् गुरु के वक्री और अतिचारी होने पर लग्नबली हो तो विवाह उपनयनादि किसी भी कार्य को करना शुभ है।
---इति गुरु शुक्र विमर्श:
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