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________________ मुहूर्तराज ] [८५ __ अर्थ - यदि लग्नकुण्डली में केन्द्र (१, ४, १०) और कोण (९, ५) में बुध, गुरु और शुक्र स्थित हों तो अब्ददोष, अयनदोष, ऋतुदोष, रिक्तादितिथिदोष, मासदोष, क्रूरग्रहयुक्तनक्षत्रदोष १३ तेरह दिनों वाले पक्ष का दोष, दग्धतिथिदोष अन्धकाण बधिरसंज्ञक लग्नदोष, अकालवृष्टि आदि दोष तथा चन्द्र की स्थिति पापग्रहीय नवांश में हो ये सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। चन्द्र की स्थिति शुभपापग्रहों के नवांश में होने से जो शुभाशुभ फल होते हैं, उनका विवरण मुहूर्त चिन्तामणि के संस्कार प्रकरण के श्लोक ५० वें में इस प्रकार है विद्यानिरतः शुभराशिलवे, पापांशगते हि दरिद्रतरः । चन्द्रे स्वलवे बहुदुःखयुःत कर्णादितिभे धनवान् स्वलवे ॥ यदि चन्द्रमा किसी भी राशि के शुभग्रहराशि नवांश में हो तो यज्ञोपवित संस्कार प्राप्त करने वाला बटु विद्यावान होता है और पापग्रहनवांश में यदि चन्द्र की स्थिति हो तो वह बटु अत्यन्त ही दरिद्र होता है। यदि चन्द्रमा स्वराशि (कर्क के) के नवांश में हो तो बटु को अनेकों कष्ट भोगने पड़ते हैं। परन्तु यदि चन्द्रमा की स्थिति स्वनवांश में होने पर भी यदि उस दिन श्रवण या पुनर्वसु नक्षत्र हो तो वह व्रती वेदशास्त्र-धनधान्य-समृद्धिमान् होता है। इस विषय में नारद ने कहा है श्रवणादितिनक्षत्रे कांशस्थे निशाकरे । तथा व्रती वेदशास्त्रधनधान्यसमृद्धिमान् ॥ आत्मछायोपरि इष्टघटीज्ञान- (बालबोध ज्योतिस्सार समुच्चय) छायापादै रसोपेतैरेकविंशाच्छतं भजेत् । लब्धांके घटिका ज्ञेयाः शेषांके च पलाः स्मृताः ॥ अर्थ - दिन के समय में यदि इष्टघटीपल ज्ञात करने हों तो स्वयं के शरीर की छाया को स्वयं के कदमों से नापकर उस संख्या में छ: जोड़कर उनका १२१ में भाग दें, जो लब्धांक आवें वे घटी और शेषांक रहें उन्हें पल जानें। रात्रि में इष्ट घटी ज्ञान – (बा.बो.ज्यो.सा. समुच्चय) सूर्यभादभ्रमध्यस्थं सप्तोनं खाश्विभिर्हतम् । नवभिस्तु हरेद्भागं रात्रेः स्युर्गतनाडिकाः ॥ रात्रि में यदि इष्टघटीपल ज्ञात करने हों तो उस समय आकाश के मध्य में जो नक्षत्र हो, सूर्य के महानक्षत्र से उस नक्षत्र तक गणना करें, जो संख्या आवे उसमें से सात घटाएँ शेष को २० से गुणा कर उसमें ९ का भाग दें जो लब्धि हो उसे सूर्यास्त के बाद की गतघटी जाने उनमें दिनमान जोड़ने पर सूर्योदयात् इष्टघटी ज्ञात होगी। इति श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाबविजय संगृहीते ___-मुहूर्तराजे प्रथमं शुभाशुभप्रकरणं समाप्तम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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