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________________ ३० ] अर्थ वर से प्रीति मध्यम और नर - [ मुहूर्तराज `वधू का नक्षत्रगण समान (एक) होने पर दोनों में परम प्रीति, देव तथा नर गण होने राक्षस अथवा राक्षस देव हो तो वैर होता है। - कश्यप मत में कुछ विशेष (पीयूषधारा वि.प्र. श्लो. ३०) “पुरुषो रक्षोगणः स्त्री मनुष्यगणा तदा वैरम् यदि वैपरीत्यं तदा मृत्युः । तथा पुरुषो रक्षोगणः स्त्री देवगणा तदा वैरम् वैपरीत्ये मृतिः । उक्तं च राक्षसी यदि वा नारी नरो भवति मानुषः मृत्युस्तत्र न संदेहो विपरीतः शुभावहः” । शाङ्खयेऽपि - रक्षोगणः पुमान स्याच्येत् कन्या भवति मानवी । केऽपीच्छन्ति तदोद्वाहं व्यस्तं कोऽपीही नेच्छति। इति एतत्तुल्यन्यायत्वात् देवराक्षसयोरपि द्रष्टव्यम् । अर्थात् - पुरुष यदि राक्षसगणी हो और स्त्री मनुष्यगणी हो तो वैर और यदि विपरीतता हो अर्थात् पुरुष मनुष्यगण एवं स्त्री राक्षसगणी हो मृत्यु । तथैव पुरुष राक्षसगण हो और स्त्री देवगण हो तो वैर और विपरीतता हो तो मृत्यु निस्सन्देह है। जैसा कि कहा गया है - यदि नारी राक्षसी हो और नर मनुष्यगण हो तो निस्सन्देह मृत्यु होती है और विपरीत हो तो शुभ है अर्थात् यदि नारी मनुष्यगणी हो और नर राक्षसगण हो तो ठीक है। गणकूट गुण विभाग - - अन्वय गणसादृश्ये (वरवध्वोरेकगणे सति ) षड् गुणाः, सुरमानुषे (नरे सुरगणे नार्यां मनुष्यगणायां) पञ्च ( गुणाः) स्युः । नार्या ( गणः ) देवः पुं सः ( पुरुषस्य गणः ) नरः ( तदा) चत्वारः त्रयो वा गुणाः । देव राक्षसयोः (नरः देवगणः नारी राक्षसगणा तदा) गुणशून्यं तथैव नररक्षसोः (पुरुषः नरगणः नारी च रक्षोगणा भवेत्) गुणशून्यम् ज्ञेयम् पुंसः (वरस्य) रक्षोगणः नारी च रक्षोगणा नार्याः (वध्वाः) देवगणः अथवा नरगणः तदा क्रमतः द्वौ एकः वा गुणः, अर्थात् वरस्य रक्षोगणे नार्या च देवगणे सति द्वौ गुणौ वरस्य च रक्षोगणे नार्याश्च नरगणे सति एकः गुणः भवति । वैपरीत्ये तु गुणः शून्यमेव । Jain Education International अर्थ वर वधू के नक्षत्र गणों के एक ही होने पर ६ गुण, जानने चाहिएँ वर का देवगण हो और वधू का मानवगण हो तो ५ गुण होते हैं। नारी का देवगण और नर का मानवगण होने पर ४ गुण अथवा ३ गुण माने गये हैं । वर का देवगण और वधू का राक्षस गण हो तो गुण शून्य है। इसी प्रकार वर के नरगण और नारी के राक्षसगण के होने से भी गुण शून्य ही होता है । (दै. मनो.) षड्गुणा गणसादृश्ये पञ्च स्युः सुरमानुषे । नार्या देवो नरः पुंसः चत्वारो वा गुणास्त्रयः देवराक्षसयोः शून्यं, तथैव नररक्षसोः । पुंसो रक्षोगणो यत्र नार्या देवोऽथवा नरः I गुणौ द्वौ क्रमतश्चैको गुणो ग्राह्योऽन्यथा नहि ॥ - यदि पुरुष राक्षसगण और स्त्री देवगणा हो तो दो गुण और वर राक्षसगण तथा वधू नरगणा हो तो एक ही गुण होता है। इससे यदि विपरीत हो तो गुणशून्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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