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मुहूर्तराज ]
[१९५ अब गृह के खात के विषय में कहा जाता है। खात के विषय में राहु मुख का विचार करना पड़ता है। राहुमुख भी भिन्न-भिन्न सूर्यसंक्रांतियों में भिन्न-भिन्न उपदिशाओं में रहता है। इस विषय में देखिए मुहूर्त चिन्तामणिकार का मतदेवालय गृहनिर्माण और जलाशय में राहुमुख - (मु.चि.वा.प्र. श्लो. १९ वाँ)
देवालये गेहविधौ जलाशये राहोर्मुखं शम्भुदिशो विलोमतः । मीनार्क सिंहार्क मृगार्कतस्त्रिभे खाते मुखात्पृष्ठविदिक्छुभो भवेत् ॥
अन्वय - देवालये, गेहविधौ जलाशये च क्रमतः मीनार्कत: त्रिभे, सिंहार्कतः त्रिभे मृगार्कतश्च त्रिभे (राशिवये) राहोर्मुखम् शम्भुदिश: ईशानतः विलोमतः वामक्रमेण भवति, यथा देवालये चिकीर्षिते मीनमेषवृषराशिगते सूर्ये राहोर्मुखं ऐशान्याम्, मिथुनकर्कसिंहस्थेऽर्के वायव्याम् कन्यातुलावृश्चिकस्थे सूर्ये नैर्ऋत्याम्, धनुर्मकरकुम्भस्थे सूर्ये राहुमुखम् आग्नेय्याम् एवमेव गेहारम्भ सिंहादित्रये ऐशान्याम् वृश्चिकादित्रये वायव्याम् कुम्भादित्रये नैर्ऋत्याम् वृषादित्रये च आग्नेय्यां राहुमुखं ज्ञेयं तथा च जलाशये मकरकुम्भमीनस्थेऽर्के, मेषवृषमिथुनस्थे, कर्कसिंहकन्यास्थिते तुलावृश्चिकधनुःस्थे चार्के क्रमश: ऐशान्यां, वायव्यां, नैऋत्याम्, आग्नेय्यां च राहुमुखम् भवति। तेषु देवालयादिषु खाते कर्तव्ये मुखात् पृष्ठविदिक् शुभ: भवेत्। अर्थात् यदि मुखम् ऐशान्याम् तदा खातं नैऋत्याम् शुभम् इत्याशयः।
अर्थ - देवालय, गृह एवं कूप, वापी तालाब आदि जलाशयों के निर्माण में क्रमश: मीनादि तीन राशियों में सिंहादि तीन राशियों में और मकरादि तीन राशियों में सूर्य के रहते राहुमुख ईशान, वायव्य, नैऋत्य और अग्निकोण में रहता है अर्थात् देवालय निर्माण में मीन, मेष, वृष इन राशियों में सूर्य हो तो राहुमुख ईशान में, मिथुन, कर्क, सिंह राशियों के सूर्य में राहुमुख वायव्य में, कन्यादि तीन राशियों के सूर्य में नैऋत्य में और धनु मकर और कुभ के सूर्य में अग्निकोण में राहुमुख रहता है। इसी प्रकार गृहारंभ में सिंहादिराशिगत सूर्य होने पर ईशान में, वृश्चिकादि तीन राशियों के सूर्य में वायव्य में इत्यादि क्रम से जानना चाहिए। स्पष्टार्थ ज्ञान के लिए आगे तीन मानचित्र दिये जा रहे हैं। मुहूर्त चिन्तामणि की पीताम्बरा में तो लिखा है-“राहुमुख की विपरीत दिशा में राहु पुच्छ रहती है। पुच्छदिशा में प्रथम खात का आरम्भ कर वहाँ शिलान्यास करना शुभ है।” खातारंभ के लिए भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में अनेकानेक मत उपलब्ध होते हैं यथा
"भाद्रादित्रिभासेषु पूर्वादिषु चतुर्दिशम् ।
भवेवास्तोः शिरः पृष्ठं पुच्छं कुक्षिरितिक्रमात्" अर्थात्- भाद्रपदादि तीन-तीन मासों में पूर्वादि चार दिशाओं में अनुक्रम से वास्तु (वत्स) का शिर, पृष्ठ, पुच्छ और कुक्षि रहते हैं। अर्थात् भाद्रपद आश्विन और कार्तिक में वास्तु का मस्तक पूर्व में, पीठ दक्षिण में पूँछ पश्चिम में ओर कुक्षि उत्तर में होती है। मार्गशीर्ष पौष और माघ में दक्षिण में मस्तक, पश्चिम में पीठ, उत्तर में पूँछ और पूर्व में कुक्षि। इसी प्रकार फाल्गुन चैत्र और वैशाख में पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण में मस्तकादि कुक्ष्यन्त अंग तथा ज्येष्ठ आषाढ़ और श्रावण में उत्तर, पूर्व दक्षिण और पश्चिम में मस्तकादि अंग होते हैं। जिस दिशा में कुक्षि हो उस दिशा में खातारंभ करना चाहिए। जैसा कि दैवज्ञवल्लभ में कहा गया है
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