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________________ १९६] [ मुहूर्तराज "शिरःखनेन्मातृपितृन् निहन्यात् खनेच्चपृष्ठे भयरोगपीड़ाः । पुच्छं खनेत् स्त्रीशुभगोत्र हानिः स्त्रीपुत्ररत्लान्नवसूनि कुक्षौ ।" अर्थात्- जो वास्तु का सिर खोदा जाय तो माता-पिता का विनाश हो, पीठ को खोदे तो भय, रोग तथा पीड़ा हो, पूँछ खोदे तो स्त्री मंगलकार्य, और कुल की हानि हो और जो कुक्षि स्थान में खोदा जाय तो स्त्री, पुत्र रत्न, अन्न और धन की प्राप्ति होती है। कुछेक 'वास्तु' के स्थान पर वत्स ऐसा नाम कहते हैं। ___ उपर्युक्त में खात दिशा का नियम बताया गया परन्तु उपदिशाओं (ईशान, आग्नकोण, नैऋत्य और वायव्य) के नियम के विषय में वास्तुशास्त्र में कहा गया है "ईशानादिषु कोणेषु वृषादीनां त्रिके त्रिके शेषाहेराननं त्याज्यं विलोमेन प्रसर्पतः ॥" अर्थात्- वृष, मिथुन, कर्क इन संक्रान्तियों में शेष का (वत्स) मुख ईशान में सिंह, कन्या और तुला इनके सूर्य में वायव्य में वृश्चिक, धनु और मकर का सूर्य हो तो नैर्ऋत्य में और कुंभ, मीन तथा मेष का सूर्य हो तो अग्निकोण में रहता है। अत: मुख स्थान (उस उपदिशा) त्याग करने योग्य है। जब ईशान में शेष का मुख होता है तो अग्निकोण में नाभि रहती है और नैर्ऋत्य में पूँछ तथा वायव्य कोण खाली रहता है तो वायव्य कोण में खातारंभ शुभ होता है। जब वायव्य में मुख, होता है, तब ईशान और अग्निकोण में नाभि और पूँछ, जब नैर्ऋत्य में मुख होता है तब वायव्य और ईशान में नाभि और पूंछ और जब अग्निकोण में मुख होता है, तब नैर्ऋत्य और वायव्य में नाभि तथा पूँछ होती है अत: जो कोण शेषांगों से रिक्त रहे वहाँ खातारंभ करना शुभ है। इसी आशय को लेकर आगे वास्तु शास्त्र में कहा गया है "विदिक्त्रयं स्पशंस्तिष्ठेत् स्ववक्त्र नाभिपुच्छकै । शेषस्तत्रितयं त्यक्त्वा भूखात कार्यमाचरेत् ॥" क्योंकि नाभौ च प्रियते भार्या, धनं पुच्छे मुखे पतिः । इति मत्वा शिलान्यासे भूखाते तत्त्रयं त्यजेत् ॥ अर्थात्-नाभि स्थान खोदने पर गृहपति की पत्नी का पूँछ स्थान खोदने पर धन का और मुख स्थान खोदने पर गृहपति का स्वयं का विनाश होता है ऐसा मानकर भूखात के विषय में शिलान्यास करते समय इन तीनों अंगों का त्याग करना आवश्यक है। ___ मुहूर्त चिन्तामणिकार ने “देवालये" इस श्लोक में ईशानादि कोणों में राहु का मुख बतलाकर उसकी पृष्ठस्थ विदिशा में खात करना शुभ बताया है। पीयूषधारा में पृष्ठविदिशा का स्पष्टीकरण करते हुए ईशान में मुख हो तो आग्नेय में खातारंभ का विधान किया है और “ईशानादिषु" इस वास्तु शास्त्र के श्लोक की टीका में पूज्यपाद श्री हेमहंस गणि ने ईशान में शेष मुख (राहुमुख) होने पर वायव्य को शेषांगों से रहित उपदिशा बनाकर वहाँ खातारंभ का विधान किया है। ___ मुहूर्त मार्तण्ड के गुजराती भाषान्तर कर्ता ने तो मुहूर्त चिन्तामणिकार के “देवालये" इस श्लोक में प्रस्तुत राहु मुख की पृष्ठ विदिक् पीयूषधारा के समान ही मानी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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