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________________ मुहूर्तराज ] [१५९ अन्वय - वस्त्राणां नव भागा: कार्याः तेषु चतुष्कोणे अमरा स्थाप्याः, मध्यत्र्यंशेषू राक्षसाः सदशे पाशे च मध्यांशयो: नरा: स्थाप्याः। अथ चेद् राक्षसांशेषु नवतरे अम्बरे दग्धे, स्फुटिते, पंकादिलिप्ते, (कर्दभलिप्ते, आदि शब्दात् गोयमादिभिलिप्ते) सति तद् वस्त्र न सत् (न शुभं किन्त्वशुभमेव) किन्तु मरणं विदधाति। किन्तु नृसुरांशयोः (नवादेवांशेषु) ताहक् दग्धादि वस्त्रम् शुभं भवति। सर्वांशके (नवांशेषु) प्रान्ततः दग्धादिवस्त्रम् असत् अनिष्टफलदमेव भवति। अर्थ - नवीन वस्त्र को भूमि पर फैलाकर उसके काल्पनिक नौ भाग अथवा रंगीन लेखनी आदि से रेखाएँ बनाकर करके चारों कोणों के भागों में देवता तथा मध्य के तीनों भागों में राक्षस एवं शेष दो भागों में नर स्थापित समझें फिर उस वस्त्र को देखें; यदि रक्षाोभाग में वह वस्त्र जला हुआ पत्थर कील आदि लगकर फटा हुआ कीचड़ गोबर सना हो तो वह अशुभ है, देव एवं नर भागों में यदि ऐसा हो तो शुभ है, किन्तु सभी भागों में अन्तिम छोरों पर यदि दग्धादि दोष युक्त तो वह वस्त्र भी अशुभ है। यही विचार शय्या, आसन एवं पादुका आदि में करना चाहिए। उक्ताशय को सम्यक् स्पष्ट करते हुए कश्यप नवांशुकं समं कृत्वा, चिन्तयेच्च शुभाशुभम् । वसन्ति देवताः कोणे चान्त्यमध्यद्वये नराः ॥ मध्यांश त्रितये दैत्याश्चैवं शप्यासनादिषु । अर्थ प्राप्ति देवतांशे पुत्रवृद्धिर्नरांशके ॥ हानिः पीडा पिशाचांशे सर्वप्रान्तेष्वशोभनम् । अर्थ - “वस्त्राणां नवभागकेषु" इस श्लोक वत् ही है। कश्यप ने देवतांश में दग्धादि वस्त्र को अर्थ प्राप्तिकारक तथा नरांश में वैसे वस्त्र को पुत्रवृद्धिकारक कहा है एवं पिशाचांश में नष्ट वस्त्र को हानि एवं पीड़ाप्रद तथा समस्त छोरों पर क्षत वस्त्र को भी अनिष्टकारक माना है। - नूतनवस्त्र नवभागों में देवादिस्थापना क्रम - देवता नर देवता राक्षस राक्षस राक्षस देवता नर देवता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001933
Book TitleMuhurtraj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay Khudala
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Jyotish, L000, & L025
File Size11 MB
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