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मुहूर्तराज ]
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अर्थ- सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, शनि, चन्द्रमा, बुध और गुरु ये आठ ग्रह क्रमवार पूर्वादि दिशाओं और विदिशाओं में दिक्स्वामी कहे गए हैं। ये ग्रह जब यात्रा कुण्डली में ( यात्रालग्न में) लालाटिक बनाने वाले स्थानों में स्थित हों तो यात्रा नहीं करनी चाहिए। ये सूर्यादिग्रह जिन-जिन स्थानों में जिन-जिन दिशाओं के लिए लालाटिक बनते हैं, उस विषय में मुहूर्त चिन्तामणिकार कहते हैं
लालाटिक योग - (मु.चि.या. प्र.श्लो ५१ वाँ)
प्राच्यादौ तरणिस्तनौ भृगुसुतो लाभव्यये भूसुतः, कर्मस्थोऽथ तमो नवाष्टमगृहे सौरिस्तथा सप्तमे । चन्द्रः शत्रुगृहात्मजेऽपि च बुधः पातालगो गीष्पतिर वित्तभ्रातृगृहे विलग्नसदनात् लालाटिकाः कीर्तिताः ॥
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अन्वय - प्राच्यादौ क्रमेण विलग्नसदनात् (यात्रालग्नकुण्डल्याम् लग्नात्) तनौ तरणिः, लाभव्यये भृगुसुतः, कर्मस्थ भूसुतः, नवाष्टमगृहे तमः तथा सप्तमे सौरिः शत्रुगृहात्मजे अपि चन्द्र:, पातालगः बुधः वित्तभ्रातृगृहे गोष्पति: (गुरुः) लालटिका : कीर्तिताः कथिताः ॥
अर्थ - पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः यात्रा कुण्डली में लग्नस्थ सूर्य (पूर्व में प्रयाण करने वाले के) एकादश और द्वादश भाव में स्थित शुक्र (अग्निकोण में यात्रा करने वाले के) दशमलव में स्थित मंगल (दक्षिण में यात्रार्थी के लिए) अष्टम और नवम स्थान में राहु (नैऋत्य में प्रयाणकर्त्ता के लिए) सप्तम स्थान में शनि (पश्चिम दिशा में यात्रा करने वाले के लिए) चतुर्थ स्थान में स्थित बुध ( उत्तर की यात्रा के लिए) और दूसरे तथा तीसरे स्थान में स्थित गुरु ( ईशान उपदिशा की यात्रा करने वाले के लिए) लालाटिक कहे गए हैं। नारद भी
लग्नस्थो भास्करः प्राच्यां दिशि यातुर्ललाटगः । द्वादशैकादशे शुक्रः आग्नेय्यां तु ललाटगः ॥ दशमस्थ कुजो लग्नाद् याम्यायां तु ललाटगः । नवमाष्टगतो राहुर्नैऋत्यां तु ललाटगः ॥ लग्नात्सप्तमगः सौरिः प्रतीच्यां तु ललाटगः । षष्ठपञ्चमगश्चन्द्रो वायव्यां तु ललाटगः 11 चतुर्थस्थानगः सौम्य उत्तरस्यां ललाटगः I द्वित्रिस्थानगतो जीवः ऐशान्यां तु ललाटगः ॥ ललाट-दिक्पतिं त्यक्त्वा जीवितेप्सुर्वजेन्नृपः ।
स्थानानुसार ग्रहों की लालाटिक योगकारक स्थिति को निम्न कुण्डली में समझिए ।
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